16-03-2019 (Important News Clippings)

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16 Mar 2019
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Date:16-03-19

Sewage Cess: An idea Whose Time Has Come

ET Editorials

A severe sewage crisis is brewing across the nation’s cities, which we can ignore only at our own peril. As the recent Mihir Shah committee report pointed out, cities in India produce nearly 40,000 million litres of sewage every day and barely 20% of it is treated. Delhi chief secretary Vijay Dev has called for a Yamuna cess on all households in the Capital, which clearly needs to be promptly followed through.

The way forward is to allocate resources for urban sewage treatment, and not just to take action over rising pollution in our rivers but also for gainful reuse of treated water. The grim reality is that only 2% of our urban areas have both sewerage systems and sewage treatment plants. Hence the pressing need to levy reasonable user charges on all households, to shore up much-needed investments in such plants. The Sewerage Master Plan for Delhi, 2031, does mention that treatment capacity is about 50% of the sewage produced, but adds that several plants are decades old and which has led to loss of treatment efficiency. The Capital’s trunk sewers lines, constructed as early as in the 1930s, have mostly silted up and require revamp and de-silting. Back in 2015, the National Green Tribunal had ruled that every household in Delhi should pay at least Rs 100 per month as environmental compensation.

Unfortunately, not a single rupee has been collected and Delhi Jal Board has yet to initiate the process. The Delhi government has, instead, been providing water gratis even to upmarket colonies. The Delhi chief secretary has now rightly called for a Yamuna cess of Rs 100, Rs 300 or Rs 500 per household, depending on locality. Reasonable sewage user charges collected monthly do need to be urgently levied for sustainable urban development, beginning in the National Capital Territory.


Date:16-03-19

महिला वोटर तो बढ़ीं पर उम्मीदवारी कब बढ़ेगी ?

4.35 करोड़ नए मतदाताओं में आधी से ज्यादा महिलाएं लेकिन, लोकसभा में महिला सांसद सिर्फ 11%

यामिनी अय्यर , ( सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च की प्रेसिडेंट )

भारत अगले दो महीनों में एक नई सरकार चुनने के लिए तैयार है लेकिन, इस बीच सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि कोई भी राजनेता महिलाओं के मुद्दों से बच नहीं सकता है। डॉ. प्रणय रॉय और दोराब सोपारीवाला की किताब ‘द वर्डिक्ट’ के मुताबिक 1962 में वोट देने वाली महिलाएं 47% थीं। 2014 में यह बढ़कर 66% हुईं, जबकि इस दौरान पुरुष वोटर केवल पांच प्रतिशत बढ़े। महिला वोटरों की बढ़ती संख्या महिला-पुरुष वोटरों के बीच के गैप को भरने में महत्वपूर्ण साबित हुई। राजनीतिक विशेषज्ञ मिलन वैष्णव और जेमी हिंस्टन द्वारा जुटाए अांकड़ों के अनुसार 1967 में महिला वोटर पुरुष वोटर से 11.3 प्रतिशत से पीछे थीं। 1984 के अपवाद के बावजूद 2004 तक महिला वोटरों की संख्या में बदलाव नहीं हुआ। 2004-2009 के बीच पुरुष-महिला वोटर का अंतर 8.4 से गिरकर 4.4 प्रतिशत हो गया और 2014 में यह घटकर 1.8 प्रतिशत पर आ गया। कई राज्यों में महिला वोटर पुरुष वोटर से अधिक हो गए।

2019 के चुनाव में महिला वोटरों की संख्या अौर बढ़ सकती है। हाल ही में चुनाव आयोग द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार महिला मतदाताअों के नामांकन में काफी वृद्धि हुई है। भारत में महिला मतदाताओं की संख्या 2014 के 47% से बढ़कर 2019 में 48.13% हो गई है। खास बात यह है कि 4.35 करोड़ नए नामांकनों में आधे से ज्यादा महिला वोटरों के हैं। महिला वोटरों के नामांकन में अग्रणी राज्यों में यूपी (54 लाख), महाराष्ट्र (45 लाख), बिहार (42.8 लाख), पश्चिम बंगाल (42.8 लाख), तमिलनाडु (29 लाख) शामिल हैं। जाहिर है कि महिलाएं 2019 में देश की नई सरकार बनाने में पहले के मुकाबले ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका में होंगी।

राजनेता भी महिला वोटरों के महत्व को जल्दी ही समझ गए। पिछले कुछ सालों से राजनीतिक दल नई योजनाओं और कार्यक्रमों से महिला मतदाता को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं। उज्ज्वला, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, सौभाग्य जैसी कई योजनाएं इसका उदाहरण हैं। गरीब महिलाओं को एलपीजी गैस कनेक्शन देने वाली उज्ज्वला योजना के बारे में कहा जाता कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा को जीत दिलाने के पीछे इस योजना का महत्वपूर्ण योगदान है। महिला मतदाताओं पर एनडीए का फोकस इसलिए भी बढ़ा, क्योंकि ज्यादातर महिलाओं का झुकाव कांग्रेस की तरफ था। दिल्ली स्थित सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज के लोकनीति प्रोग्राम द्वारा आयोजित एक सर्वे के मुताबिक महिला वोटरों के मामले में भाजपा हमेशा कांग्रेस से दो से तीन अंकों से पीछे रहती है।

आने वाले कुछ दिनों में राष्ट्रीय चुनाव अभियान के दौरान भाजपा महिला वोटरों पर ध्यान केन्द्रित करने का प्रयास कर सकती है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण है कि मुझे वॉट्सएप पर एक वीडियो मिला, जिनमें एनडीए सरकार द्वारा महिलाओं की आजीविका के अवसरों में सुधार के लिए किए प्रयासों का वर्णन था जैसे ‘आजीविका’ जो गरीब महिलाओं को कौशल, ऋण व बाजार तक पहुंच व अन्य तरह की सुविधाएं देती है ताकि वे छोटे उद्यम विकसित कर सकें। निश्चित ही एनडीए कांग्रेस की ओर महिलाओं के रुझान को अपने पक्ष में बदलना चाहता है।

हमारे नेताओं ने महिला वोटरों के महत्व को पहचानना शुरू कर दिया है लेकिन, क्या इस तरह की योजनाएं और कार्यक्रम वास्तव में बदलाव ला सकते हैं? क्या इससे महिलाओं की आवाज बुलंद हुई है? अफसोस की बात है कि हम सपनों की इस दुनिया से बेहद दूर हैं। आज भी ज्यादातर नेता महिलाओं को वोट बैंक से ज्यादा कुछ नहीं समझते हैं, जिन्हें कुछ योजनाओं और मुफ्त की चीजों से आकर्षित किया जा सकता है। यह उनकी बयानबाजी और काम दोनों से साफ जाहिर होता है कि महिला ‘सशक्तीकरण’ उज्ज्वला, आजीविका, स्वच्छ भारत, शिक्षा कार्यक्रमों तक ही सीमित है। मैंने अभी तक किसी राजनेता को सामाजिक मूल्यों और मानदंडों में संरचनात्मक बदलाव लाने वाले दृष्टिकोण के बारे में बात करते हुए नहीं सुना। लेबर फोर्स में महिलाओं की भागीदारी की अभूतपूर्व गिरावट आज भारतीय महिलाओं के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार, भारत महिला श्रम शक्ति की भागीदारी में 131 देशों में से 121 रैंक पर है। स्टडी से यह पता चलता है कि महिलाओं के बीच बढ़ती काम की मांग के बावजूद उनकी भागीदारी में यह गिरावट है। इन बातों को ध्यान में रखते हुए श्रम कानूनों में सुधार, व्यावसायिक प्रशिक्षण, जेंडर बेस्ड कोटा और बच्चों की देखभाल की सुविधाओं के लिए बनी नीतियों में बदलाव की जरूरत है। लेकिन इन महत्वपूर्ण मुद्दों से ध्यान हटाकर सभी राजनीतिक दलों ने इसे योजनाओं में समेटकर रख दिया है। स्टडी से पता चलता है कि सामाजिक मानदंड महिलाओं को श्रम बाजार से बाहर रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। राजनीतिक दलों को इन चुनौतियों का सामना करना चाहिए।

इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि एक महत्वपूर्ण राजनीतिक मतदाता वर्ग होने के बावजूद राजनीतिक पदों पर महिलाओं के प्रतिनिधित्व की कमी है। राजनीतिक पदों पर अगर महिलाओं का प्रतिनिधित्व हो तो महिलाओं से जुड़े मुद्दों में प्राथमिकता से बदलाव होता है। 2014 में महिला वोटरों की संख्या में तेजी से बदलाव हुआ लेकिन, लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या केवल 11% थी। बेशक, यह एक महत्वपूर्ण सुधार है, लेकिन महिलाओं का प्रतिनिधित्व करने के लिए पर्याप्त नहीं है। महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व का एक बड़ा कारण महिला उम्मीदवारों की कम संख्या है। मिलन वैष्णव के मुताबिक 1962 से 1996 के बीच कुल उम्मीदवारों में से महिला उम्मीदवार 5% से अधिक नहीं थीं। पिछले कुछ सालों में यह मामूली रूप से बढ़ा है। पिछले दिनों में दो क्षेत्रीय दलों, बीजेडी और टीएमसी ने 2019 के चुनावों के लिए महिला उम्मीदवारों की संख्या बढ़ाने के लिए कदम उठाए हैं। यह एक अच्छी शुरुआत है, बीजेपी और कांग्रेस को भी ऐसे कदम उठाने चाहिए।


Date:15-03-19

मानव सभ्यता का संकट

सन्नी कुमार

हर नई प्रौद्योगिकी जीवन को बेहतर बनाने के जितने दावों के साथ मानव जीवन में प्रवेश करती है, उससे जुड़ी आशंकाएं भी उतनी ही मजबूत होती हैं। ‘‘आर्टििफशियल इंटेलीजेंस’ (एआई) की प्रौद्योगिकी भी इस सिद्धांत का अपवाद नहीं है बल्कि कई मायनों में यह पूर्व की तुलना में अधिक आशंकामूलक है। दरअसल, पूर्व की लभभग सभी वैज्ञानिक अविष्कारों को उसकी सैद्धांतिकी में कमोबेश अच्छा माना जाता रहा है और चिंता की मूल बात उसके ‘‘व्यावहारिक अनुप्रयोग’ से जुड़ी होती थी। उदाहरण के लिए परमाणु से विद्युत भी बनाया जा सकता है और उसका उपयोग कर विध्वंसक बम भी निर्मिंत किया जा सकता है। इसमें चिह्नित करने लायक बात यह है कि इसके दुरु पयोग का दायित्व ‘‘मानव समुदाय’ पर आता है न कि यह अपने आप में ही बुरी खोज थी। पर आर्टििफशियल इंटेलीजेंस इन दोनों ही मानकों पर अलग है।

सबसे पहले अगर उन दावों की पड़ताल करें, जो आर्टििफशियल इंटेलीजेंस के औचित्य को सही ठहराते हैं तो वे निश्चित ही उत्साहजनक हैं। सबसे प्रमुख खासियत तो यही है कि ये ‘‘त्रुटिरहित’ होते हैं। इस कौशल का उपयोग जटिल चिकित्सकीय उपचार और अंतरिक्ष अन्वेषण में किया जा सकता है, जो अन्यथा मानव द्वारा एकदम सटीकता से कर पाना संभव नहीं है। इसी प्रकार इसका उपयोग वाहन चालक के रूप में किया जा सकता है और चूंकि इसका एलगोरिद्म ट्रैफिक नियमों से संचालित होता है इसलिए वाहन दुर्घटना की संभावना शून्य रहेगी। फिर, एकदम जोखिम वाले कार्य जैसे-खदान में खनन जैसे कायरे के लिए प्रशिक्षित रोबोट का उपयोग किया जा सकता है ताकि मानव को अपनी जान जोखिम में न डालनी पड़े। इसके अतिरिक्त शिक्षा क्षेत्र से लेकर रोजमर्रा के जीवन की ढेर सारी जरूरतों में भी इसका प्रयोग किया जा सकेगा।

सबसे बढ़कर इसकी खूबी यह है कि इससे वैसे सुदूर क्षेत्र जहां शिक्षा या चिकित्सा की सुविधाएं ‘‘प्रत्यक्ष’ रूप से प्रेषित कर पाना दुष्कर है, उस कमी को ये नई प्रौद्योगिकी आसानी से भर देती है। कह सकते हैं कि आर्टििफशियल इंटेलीजेंस कैसे मानव समुदाय की संरचना को ही आमूलचूल ढंग से परिवर्तित करने में सक्षम है? यहां इस्रइली इतिहासकार ‘‘युवल नोवा हरारी’ की ‘‘ट्वेंटीवन लेसंस फॉर ट्वेंटी फस्र्ट सेंचुरी’ नामक पुस्तक का उल्लेख प्रासंगिक होगा, जिसमें विस्तार से आर्टििफशियल इंटेलीजेंस के खतरे की पड़ताल की गई है। दरअसल, आर्टििफशियल इंटेलीजेंस अपने स्वरूप में मानव समुदाय की सहभागी नहीं बल्कि कई बार एक ‘‘विकल्प’ के रूप में भी नजर आती है। औद्योगिक क्रांति के बाद जब मशीनों का प्रयोग पहली बार बड़े पैमाने पर शुरू हुआ तो उसने सिर्फ मानव ‘‘श्रम’ को विस्थापित किया किंतु मानव मस्तिष्क का महत्त्व अपनी जगह बना रहा। फिर वो मशीनें अपने संचालन के लिए मानव पर ही आश्रित थीं। किंतु, एआई न केवल अपने आप संचालित होंगी बल्कि यह मानव मस्तिष्क को भी विस्थापित करने में सक्षम होंगी क्योंकि यह बुद्धिमत्ता से युक्त मशीन है। इस तरह यह मानव सभ्यता के विकास के मूल कारक‘‘मस्तिष्क’ को ही चुनौती देता है। दूसरे, औद्योगिक क्रांति के बाद जो संरचना निर्मिंत हुई, वह कितनी भी शोषणपूर्ण क्यों न हो किंतु वह पूंजी और श्रमिक के सहयोग पर ही टिकी थी। सम्प्रति हमारे पास इस एआई संरचना से लड़ने का कोई वैकल्पिक मॉडल नहीं है क्योंकि मनुष्य का ‘‘अप्रासंगिक’ हो जाना नितांत ही नई परिघटना है। तीसरे, पूर्व के प्रौद्योगिकी विकास के उलट इस पर सत्ता का न्यूनतम नियंतण्रहै। ऐसे में इस प्रौद्योगिकी को नियंत्रित कर पाना कठिन है। चौथा, एआई ‘‘मौलिकता’ की मान्यता को भी सिर के बल खड़ा कर रहा है।

अभी तक यह माना जाता रहा है कि मशीन कुछ भी कर ले किंतु मौलिकता पर मानव समुदाय का ही अधिकार है। एआई इसे ‘‘मिथक’ सिद्ध करने में सक्षम है। पांचवें बिंदु के रूप में एआई के ‘‘सकल खतरे’ का उल्लेख आवश्यक होगा। ऐसा होना बहुत सामान्य सी बात है कि एआई के एलगोरिद्म में कोई तकनीकी खराबी आ जाए फिर इससे संचालित वाहन और चिकित्सकीय उपचार के खतरे को वहन कर पाना मानव समुदाय के लिए संभव होगा? अर्थात एकल इकाई के रूप में भले ही एआई की चुनौती कम गंभीर प्रतीत होती हो किंतु इसका सकल नुकसान सभ्यता को नाश करने में भी समर्थ है। अंत में यह कहने में कोई संकोच नहीं कि अपनी तमाम खूबियों के बावजूद एआई जिस आवृत्ति से मानव सभ्यता की बुनियाद को ही चुनौती देती है, उसका मानव जीवन में प्रवेश एक गंभीर परिघटना होगी।


Date:15-03-19

गंगा की गंदगी

संपादकीय

गंगा को स्वच्छ और निर्मल बनाने के लिए करीब तीस साल पहले गंगा कार्ययोजना तैयार की गई थी। इस योजना के तहत अब तक अरबों रुपए खर्च किए जा चुके हैं पर स्थिति यह है कि गंगा दिन पर दिन गंदी ही होती गई है। मौजूदा सरकार ने गंगा की सफाई के लिए एक अलग से मंत्रालय गठित किया। गंगा को राष्ट्रीय नदी का दर्जा दिया गया है। पर इसकी सफाई को लेकर सरकारें कितनी संजीदा हैं, इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि राष्ट्रीय हरित अधिकरण के जवाब तलब करने पर राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन यानी एनएमसीजी ने हलफनामा दायर करके बताया कि उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल सरकारों ने समुचित जानकारियां उपलब्ध नहीं कराई हैं, जिससे दूसरे और तीसरे चरण यानी कानपुर से बक्सर और फिर बक्सर से गंगासागर तक की कार्ययोजना की रूपरेखा तैयार करने में मुश्किलें आ रही हैं। हरित अधिकरण ने इसके लिए एनएमसीजी को फटकार लगाई है। इसके साथ ही उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश सरकार को निर्देश दिया है कि वे प्रमुख स्थलों पर गंगा जल की गुणवत्ता की जानकारी हर महीने सार्वजनिक करें। हरित अधिकरण ऐसी फटकार पहले भी कई मौकों पर लगा चुका है, पर राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों के कार्य-व्यवहार में कोई खास बदलाव नजर नहीं आया है

हालांकि हरित अधिकरण ने अपने ताजा निर्देश में सख्त टिप्पणी करते हुए कहा है कि एनएमसीजी का गठन गंगा के कायाकल्प के लिए किया गया है और राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों के साथ समन्वय उसकी जिम्मेदारी है। अब उसे कोई टाल-मटोल नहीं सुननी। अगर तीस अप्रैल तक गंगा कार्ययोजना की रूपरेखा पेश नहीं की गई तो वह सख्त कदम उठाने को बाध्य होगा। इसके लिए संबंधित राज्य सरकारों को पर्यावरण क्षति का भुगतान करना पड़ सकता है। देखना है, अधिकरण के इस सख्त रुख का राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन और राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों पर कितना और कैसा असर पड़ता है। प्रयाग में कुंभ के दौरान गंगा में मिलने वाली गंदगी को रोकने में बड़ी कामयाबी देखी गई। हरित अधिकरण ने कहा है कि वहां आजमाए गए तकनीकी उपायों का अध्ययन कर इस अभियान में लगे विशेषज्ञों से परामर्श लिया जा सकता है।

दरअसल, राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड नदियों की सफाई को लेकर कभी गंभीर नहीं दिखे। इसमें उनके टाल-मटोल भरे रवैए की कुछ वजहें दूसरी भी हो सकती हैं। गंगा की सफाई के लिए उन्हें न सिर्फ यह बताना होगा कि कहां-कहां किन स्रोतों से कचरा गंगा में आकर मिलता है, बल्कि उन स्रोतों को बंद कराने में भी सक्रिय भागीदारी करनी होगी। छिपी बात नहीं है कि गंगा के प्रदूषित होने का बड़ा कारण शहरों के रिहाइशी इलाकों से निकलने वाले जल-मल और औद्योगिक इकाइयों के रासायनिक कचरे को बिना शोधित किए गंगा में गिरने देना है। औद्योगिक इकाइयों को कई बार निर्देश जारी किए जा चुके हैं कि वे बिना शोधन के औद्योगिक कचरा नदियों में न मिलने दें। इसी तरह शहरी जल-मल के शोधन के लिए जगह-जगह जल-मल शोधन संयंत्र लगाए जाने चाहिए। मगर बड़ी औद्योगिक इकाइयों की राजनीतिक और प्रशासनिक नजदीकी के प्रभाव की वजह से प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड आंखें बंद किए रहते हैं। इसी तरह गंगा के तटों पर किए गए अतिक्रमण हटाने को लेकर मुश्किलें हैं। समझना मुश्किल है कि गंगा जैसी नदियों, जो लोगों की आस्था से जुड़ी हैं, उनमें कचरा मिलने से रोकना इतना मुश्किल क्यों बना हुआ है।


Date:15-03-19

हमें अपने बूते ही दबाव बनाना होगा

शशांक , पूर्व विदेश सचिव

जैसी कि आशंका थी, चीन ने एक बार फिर जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर को ‘वैश्विक आतंकी’ घोषित होने से बचा लिया है। चीन ने चौथी बार ऐसा किया है। पुलवामा हमले के बाद जिस तरह से दुनिया के अनेक बडे़ देशों ने भारतीयों के गुस्से और उनकी तकलीफ को साझा किया था; और जिस प्रकार पिछले साल फरवरी में फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (आतंकियों की फंडिंग पर नजर रखने वाली अंतरराष्ट्रीय एजेंसी) की पेरिस बैठक में पाकिस्तान को ‘ग्रे लिस्ट’ में डाला गया था, उनको देखते हुए एक उम्मीद बनी थी कि चीन शायद इस बार कुछ अलग रुख अपनाए। लेकिन अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस द्वारा मसूद अजहर के खिलाफ सुरक्षा परिषद में पेश प्रस्ताव को उसने बुधवार को फिर वीटो कर दिया।

चीन के ताजा रुख से साफ है कि इस मामले में वह भारत की दलीलों को समझने को तैयार नहीं है। दरअसल, मसूद अजहर जैसे तत्वों से निपटने का उसका अपना ही तरीका है। वह अपने देश में गड़बड़ियां फैलाने वालों को या तो खत्म कर देता है या फिर उन्हें मजबूत सलाखों के पीछे फेंक देता है। लेकिन हम एक लोकतांत्रिक देश हैं, इसलिए संविधान में मुकर्रर वैधानिक प्रक्रिया अपनाते हैं। हर बड़ी घटना के बाद हम इस्लामाबाद को डोजियर पर डोजियर सौंपते हैं, और वह बराबर यही दोहराता है कि ठोस सुबूत नहीं दिया। ऐसे में, चीन को भला हमारा कानूनी तरीका क्या समझ में आएगा? इस तरह के मामलों को यूएन सुरक्षा परिषद में ले जाने से पूर्व हमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आम सहमति पहले बनानी होगी। एक भी सदस्य छूटा, जैसा कि चीन के मामले में है, तो फिर उसका नतीजा यही होगा। फिर चीन और पाकिस्तान के संबंधों के बारे में यह कोई छिपी हुई बात तो है नहीं कि पाकिस्तान ने बलोचिस्तान की काफी जमीन बीजिंग को औने-पौने दाम में बेची है। इसके बदले में जो भी अरबों डॉलर उसे चीन से मिलते हैं, उनमें से फूटी कौड़ी भी स्थानीय बलोचों को नहीं मिलती, वह पूरी रकम पाकिस्तानी फौज और उसकी सरकार के लोगों के बीच बंटती है। जाहिर है, पाकिस्तानी डीप स्टेट के साथ शीर्ष चीनी अधिकारियों के गहरे रिश्ते हैं।

हमें यह बात अब अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि चीन और हमारा सिस्टम अलग है। हम कानूनी और न्यायिक प्रकिया से चलते हैं और यही सोचते हैं कि जिस तरह से हमारी आंतरिक न्यायिक व्यवस्था है, सुरक्षा परिषद भी वैसी ही अंतरराष्ट्रीय न्यायिक व्यवस्था है, जबकि वह है नहीं। अपने वीटो से चीन हमको यही समझाने की कोशिश कर रहा है। जब तक यह बात हमें समझ में नहीं आएगी, हम सुरक्षा परिषद में बार-बार जाते रहेंगे और इस बीच मसूद अजहर को वक्त मिलता रहेगा कि वह नई साजिशें रचता रहे और हमारे देश में अपने नापाक इरादों को अंजाम देता रहे। पाकिस्तान तो आतंकियों को शह दे ही रहा है, अब चीन भी प्रकारांतर से यही कर रहा है।

हाल के दिनों में सर्जिकल स्ट्राइक जैसी सीधी और सख्त कार्रवाइयों के जरिये हमने इस्लामाबाद पर कुछ ठोस दबाव बनाया था, लेकिन यूएन में जाने की पुरानी नीति का मोह नहीं त्यागा। ऐसा हम 1947-48 से करते आ रहे हैं कि जब भी वे दबाव में आते हैं, हम यूएन पहुंच जाते हैं। सन् 1947 में भी हम कश्मीर से पाकिस्तानियों को खदेड़ रहे थे, लेकिन फिर हम उसे छोड़ संयुक्त राष्ट्र चले गए कि सुरक्षा परिषद यह विवाद सुलझा देगी। आज फिर वही कर रहे हैं। हम पाकिस्तान को दबाव में लेकर आए थे। फिर अपने रुख में कुछ नरमी लाते हुए यूएन चले गए। ठीक है, युद्ध जैसे संकट को हरसंभव टाला जाना चाहिए, लेकिन हमें अमेरिका और चीन से भी यह आस छोड़नी होगी कि वे इस्लामाबाद पर हमारे लिए एक हद के आगे जाकर दबाव डालेंगे। आखिर अमेरिका और चीन के अपने-अपने हित हैं। पूरी दुनिया जानती है कि अफगानिस्तान में अमेरिका को पाकिस्तानी मदद की कितनी दरकार है? फिर, चीन क्यों चाहेगा कि पाकिस्तान के आतंकी भारत आने की बजाय उसके यहां आ जाएं! यूएन में जाने का एक पहलू यह भी कि इससे पाकिस्तान को अपने मित्रों को जोड़ने और खुद को आंतरिक रूप से मजबूत करने का समय मिल जाता है।

हमें यह बात अच्छी तरह से समझनी होगी कि पाकिस्तान की जो कानूनी-न्यायिक व्यवस्था है, उसमें उसे डोजियर सौंपकर हम कानूनी रूप से कोई प्रभावी कामयाबी नहीं हासिल कर सकते। इसी तरह, सुरक्षा परिषद में जो हम हर बार पहुंच जाते हैं, यह प्रयास भी एक सीमा के आगे काम नहीं कर सकता, क्योंकि सुरक्षा परिषद की अलग-अलग शक्तियों के अपने-अपने खेल हैं। हमें विश्व मंचों पर पड़ोसी देश की कारस्तानियों को उजागर करते रहना चाहिए, लेकिन यह अतिरिक्त प्रयास होना चाहिए, मुख्य नहीं।

एक मसूद अजहर के लिए हम चीन से अपने रिश्ते तोड़ नहीं सकते। आखिर जिस पाकिस्तान में मसूद बैठा है, उससे ही कहां अपने सारे रिश्ते हम तोड़ पाए हैं? पिछले 70 वर्षों से हम पड़ोसी देश की हरकतों से परेशान हैं, लेकिन कूटनीति के अपने तकाजे होते हैं, और इसीलिए हम यह कदम नहीं उठा सके। साफ है, हमें पाकिस्तान प्रायोजित दहशतगर्दी से निपटने के लिए अनेक मोर्चों पर साथ-साथ सक्रिय रहना पड़ेगा। मसूद अजहर पर हम पाकिस्तान के जरिए ही दबाव बना सकते हैं। कोर्ई आतंकवादी संगठन वहां से हमारे यहां आतंकी कार्रवाई के षड्यंत्र कर रहा है, तो हम उस पर काउंटर अटैक करके उसके मनसूबे ध्वस्त कर सकते हैं। जहां तक चीन की बात है, तो उसके साथ हमें अपनी बातचीत जारी रखनी होगी। हमें अपने बूते ही इस्लामाबाद पर दबाव बनाना होगा, इसका कोई विकल्प नहीं।