16-02-2019 (Important News Clippings)
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Date:16-02-19
After Pulwama
The need of the hour is to enhance defence, isolate Pakistan and stop politicking on security
TOI Editorials
The suicide bombing of a CRPF convoy in Kashmir’s Pulwama district, which resulted in the deaths of at least 40 jawans, highlights India’s heightened security challenges as the US signals a withdrawal from Afghanistan. Jaish-e-Muhammed (JeM), which has claimed the attack, has identified the bomber as Adil Ahmed Dar, a local youth radicalised by the Pakistan-based terror outfit. During the course of the attack, Dar received cover fire from other JeM terrorists. Plus, minutes after the attack videos were released on social media showing Dar claiming responsibility for the attack and exhorting other Kashmiri youths to join JeM.
Thus the fingerprints of JeM, a primarily Pakistani outfit sheltered by and receiving safe haven in Pakistan, are all over the attack. There are now reports that a top JeM commander and an Afghan war veteran was specifically sent to Kashmir from Pakistan to organise the attack. Of course, Pakistan continues to shelter a plethora of terrorist groups and their masterminds, including JeM chief Masood Azhar.
The latter has been emboldened by China’s repeated blocking of New Delhi’s moves to get him proscribed as a terrorist at the UN Security Council. Add to this the fact that Taliban comeback in Afghanistan is inspiring youths in Kashmir to take up arms. Faced with this situation, New Delhi has promised a strong response to the Pulwama attack.
India will need to redouble its focus on measures to isolate Pakistan in the international community. Government has already revoked Pakistan’s most favoured nation status. But the real challenge here is Beijing’s diplomatic and military support for Islamabad. For its diplomatic campaign to succeed New Delhi will have to pressure Beijing, which should as a first step lift its veto on UN action against Azhar.
If China doesn’t respond India should prepare a series of calibrated countermeasures, beginning with joining the international condemnation of Beijing’s practice of setting up Gulags for Muslim Uighurs (this would highlight both Chinese hypocrisy when it protects Azhar and Pakistani hypocrisy when it professes to uphold the rights of Indian Muslims). They could also include squeezing Chinese businesses in India (China does similar things routinely when it wants to pressure other countries), stepping up ties with Taiwan, and even raking up the Tibet issue. The message should be clear – China can’t expect cordial ties with India while aiding its enemies.
Secondly, there needs to be a consensus across political parties that there will be no politicking over security issues. Be it surgical strikes carried out by the army or the acquisition of defence equipment, defence of this nation is far too important a matter to be used for boosterism, seeking votes, point scoring and political one-upmanship. Political parties should speak in one voice and jointly evolve a strategic defence vision. Given the country’s finite resources, we need to quickly modernise the armed forces and simultaneously make them leaner, while giving them teeth.
Finally, there needs to be a strong counternarrative in Kashmir to challenge the radical narrative which motivates stone pelters as well as recruits for suicide bombing attacks. To enable such a counternarrative to take hold, there must also be a tamping down of the Hindutva rhetoric and anti-minority sectarian attacks that have become rife in the rest of the country. These have impacted Kashmir, where terror recruiters have found it easier to radicalise Kashmiri Muslim youths on the basis of religion. We must seize back the advantage by enhancing our military depth and backing it with a strong political resolve and consistent narrative. India must stand as one.
Date:16-02-19
How Much Down the Trips-Plus Path?
ET Editorials
It is notable that India’s ranking in the 2019 global Intellectual Property Index has risen to 36, up eight places from 44, the largest increase for the second successive year. This suggests significant improvement in the IP protection regime and attendant reforms to boost innovation. The Global Innovation Policy Centre (GIPC) of the US Chamber of Commerce compiles the annual rankings and tracks 45 parameters concerning patents, trademarks, copyrights and trade secrets for the index.
India’s rank has risen due, among reasons cited, to accession to international treaties and copyright standards, generous incentives for IP creation, including in the small and medium enterprise sector, and also for strong awareness-generating efforts to tackle piracy and counterfeiting. The latest GIPC report provides figures to show that improved IP protection makes economies twice as likely to export knowledge-intensive products and services, 53% more likely to employ high-skilled and well-paid workers, and 55% more likely to better adapt cutting-edge technology.
The latest GIPC report notes weaknesses in India’s IP regime, in that there are barriers to licensing and technology transfer, lengthy pre-patent grant opposition proceedings, the precedence of compulsory licensing in non-emergency situations and patentability requirements not quite in keeping with global norms. The US wants nations to adopt norms that go beyond alignment with World Trade Organisation’s Trade-Related Intellectual Property Rights (TRIPs). India needs a rigorous examination of what the contours of a TRIPs-plus regime should be and what these would mean for the country’s extant industry and the knowledge economy Indian industry wants to build. Some change would be warranted, but India must decide what kind.
Date:16-02-19
यह चीन के साथ रिश्तों की परीक्षा का वक्त
चीन को भारतीय बाजार की सख्त जरूरत पर क्या हम मसूद अजहर के मामले में इसका फायदा उठा पाएंगे?
वस्वती कुमारी , ( बीजिंग में बीस साल से रह रहीं चीनी मामलों की जानकार )
यह भारत-चीन रिश्तों के लिए परीक्षा का वक्त है। पुलवामा आतंकी हमला पाकिस्तान व चीन, दोनों के साथ भारत के रिश्तों में बदलाव ला सकता है। बरसों से भारत जैश सरगना मसूद अजहर को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से वैश्विक आतंकी घोषित करवाने की कोशिश कर रहा है। एक बार ऐसा हो जाए तो पाकिस्तान उसे पनाह नहीं दे पाएगा।
यहीं पर भारत-चीन रिश्ते प्रमुख मुद्दे के रूप में उभरते हैं। अजहर का बचाव करने के पाकिस्तानी प्रयासों में चीन मददगार रहा है। बीजिंग प्रक्रियागत कारणों का बहाना बनाकर कहता है कि इस पहल को सुरक्षा परिषद के अन्य सदस्यों का समर्थन नहीं है। भारत को लगता है कि चीन ही एकमात्र शक्ति है, जो इसे रोक रही है। क्या इतनी बड़ी संख्या में जवानों के शहीद होने से बीजिंग का मन बदलेगा? चीनी विदेश मंत्री ने स्पष्ट संकेत दिए हैं कि उसके रुख में कोई बदलाव नहीं आया है। चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता गेंग शुआंग ने कहा, ‘जहां तक इस मुद्दे की लिस्टिंग का सवाल है मैं आपको कह सकता हूं कि सुरक्षा परिषद की 1267 कमेटी की लिस्टिंग और आतंकी संगठनों पर प्रक्रिया और शर्तें स्पष्ट हैं। जैश-ए-मोहम्मद को सुरक्षा परिषद की प्रतिबंध सूची में शामिल किया गया है। चीन इस मसले को रचनात्मक और जिम्मेदारी भरे तरीके से लेता रहेगा।’
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य के बतौर चीन का कहना है कि इस मुद्दे पर वैश्विक संगठन में आम सहमति नहीं है। मीडिया से चर्चा में चीनी विदेश मंत्रालय ने भारत व पाकिस्तान दोनों से अप्रत्यक्ष रूप से इस मुद्दे पर टकराव टालने की अपील की। यह अहम है, क्योंकि भारत में पाकिस्तान के खिलाफ भावनाएं काफी भड़की हुई हैं। चीन ने घटना को लेकर उसे सदमा लगने की बात तो कही लेकिन, जैश की भर्त्सना करने या जहां हमला हुआ उस जगह का नाम तक लेने के प्रति उदासीनता दिखाई। गेंग ने कहा, ‘हमें इस हमले से गहरा सदमा लगा है। हम शहीद व जख्मी जवानों के परिवारों के प्रति संवेदना व्यक्त करते हैं। हम आतंकवाद के हर स्वरूप का विरोध व उसकी निंदा करते हैं।’
चीनी विदेश मंत्रालय ने बहुत सावधानी से शब्दों का उपयोग कर जम्मू-कश्मीर में हुए हमले की विशेषरूप से निंदा करने की बजाय ‘आतंकवाद के सारे स्वरूपों’ का विरोध करने की बात कही। विदेश मंत्रालय की नियमित मीडिया ब्रिफिंग में हमले के संबंध में सवाल उठाए जाने पर चीनी प्रतिक्रिया सामने आई। चीन के विदेश मंत्री वांग यी की ओर से कोई विशेष प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की गई, जबकि पिछले साल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच मैत्रीपूर्ण मुलाकातों की शृंखला के बाद इसकी अपेक्षा थी। पुलवामा हमले को लेकर भारतीय राजनयिक और चीनी अधिकारियों के बीच मुलाकात के भी कोई संकेत नहीं हैं। शिन्हुआ न्यूज एजेंसी सहित चीन के अधिकृत मीडिया ने हमले संबंधी खबरों में जैश को पाकिस्तान स्थित आतंकी संगठन बताया लेकिन, उसमें अजहर का कोई उल्लेख नहीं है, जो संयुक्त राष्ट्र संयुक्त परिषद में विवाद के केंद्र में है।
दिसंबर 1999 में इंडियन एयरलाइंस के विमान का अपहरण कर उसे कंधार ले जाया गया था और यात्रियों की सुरक्षित रिहाई के बदले में अजहर को छोड़ा गया था। कई रिपोर्टें बताती हैं कि उसके बाद से वह पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के लिए काम कर रहा है। क्या चीन पर दवाब डाल सकता है भारत? भारत ने राजनयिक स्तर पर पाकिस्तान को अलग-थलग करने का फैसला किया है और उसने पाकिस्तान को दिया ‘मोस्ट वैल्यूड पार्टनर’ का दर्जा वापस ले लिया है। क्या ऐसे प्रयास पाकिस्तान को दबाव में ला पाएंगे, खासतौर पर जब उसे चीन से और हाल के दिनों में सऊदी अरब से भारी मात्रा में पैसा और समर्थन मिल रहा है? सऊदी शाहजादे मोहम्मद बिन सलमान जल्द ही अपनी पहली सरकारी यात्रा पर भारत आने वाले हैं। नई दिल्ली आने के पहले वे पाकिस्तान जाएंगे, जिसे उन्होंने हाल ही में एक अरब डॉलर की मदद दी है। नई दिल्ली आने के पहले आतंकवाद पर वे पाकिस्तानी पक्ष जान चुके होंगे।
कुछ लोग मानते हैं कि सऊदी अरब को आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तान को राह पर लाने के लिए मनाया जा सकता है। लेकिन, संदेह है कि सलमान इस मुद्दे पर बातचीत करना चाहेंगे। फिर नई दिल्ली की अपनी सीमाए हैं, क्योंकि भारत व सऊदी अरब के घनिष्ठ आर्थिक संबंध हैं। यह देश भारत का चौथा सबसे बड़ा आर्थिक भागीदार है और वह देश की जरूरत का 20 फीसदी कच्चा तेल सप्लाई करता है। चीन पर दबाव डालना भी बहुत कठिन है। 50 अरब डॉलर के चीन-पाक आर्थिक गलियारे के कारण पाकिस्तान चीन के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। यह उसके महत्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड कार्यक्रम का हिस्सा है, जो दुनिया के अन्य हिस्सों में उतना कारगर नहीं रहा है। बीजिंग को यह सुनिश्चित करने के लिए भी पाकिस्तान की मदद चाहिए कि तालिबानी आतंकी पश्चिमी चीन के मुस्लिम बहुत शिनजिआंग क्षेत्र में न घुस सकें। वहां पृथकतावादी पिछले कई बरसों से हिंसक संघर्ष में लगे हैं। लेकिन, अमेरिका से भयानक व्यापार युद्ध में उलझे चीन के लिए भारत भी बहुत महत्वपूर्ण देश है। चीन बेताबी से वैकल्पिक बाजार तलाश रहा है। बाजार व बिज़नेस देने की भारत की क्षमता पाकिस्तान की तुलना में कई गुना अधिक है और यह मौका गंवाना बीजिंग बर्दाश्त नहीं कर सकता। वह भारत को बेल्ट एंड रोड कार्यक्रम के लिए भी मनाने की कोशिश में लगा है। इससे चीनी निर्माण कंपनियों को ठेके मिलेंगे और चीनी स्टील व अन्य सामग्री बेचने में मदद मिलेगी। इसके फाइनेंस बिज़नेस को निर्यात बाजार मिलेगा, वह अलग।
मोदी सरकार इस सब के प्रति अत्यधिक उदासीन रही है। लेकिन, हाल ही में इसने दिग्गज टेलीकॉम कंपनी हुआवेई टेक्नोलॉजी को 5जी सेवाओं के फील्ड ट्रायल करने देने का चीनी अनुरोध स्वीकार किया है। अब सवाल यह है कि क्या भारत पाकिस्तान स्थित आतंक के मुद्दे पर दवाब डालने के लिए चीनी कंपनियों को दिया बाजार वापस लेने की हद तक जाएगा? ऐसे किसी कदम में खतरा यह है कि इससे भारत भी अलग-थलग पड़ सकता है। किंतु राजनयिक वार्ताओं में धमकी और प्रस्ताव का मोहरों के रूप में इस्तेमाल होता है। अब देखने की बात है कि हमारे विदेश मंत्रालय के अधिकारी कितनी कुशलता से सौदेबाजी का यह खेल खेलते हैं।
Date:15-02-19
स्पष्ट बहुमत और अनसुलझे सवाल
मनीषा प्रियम, राजनीतिक विश्लेषक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण के साथ बुधवार को 16वीं लोकसभा का परदा गिर गया। आखिरी बैठक में एक ऐसा वक्त भी आया, जो पुनरावलोकन का था। प्रधानमंत्री ने सदन को संबोधित करते हुए कहा कि एक नए सांसद के रूप में उन्होंने यहां से बहुत कुछ सीखा है। हालांकि प्रधानमंत्री ही नहीं, इस लोकसभा में डेढ़ सौ से ज्यादा सांसद पहली बार चुनकर पहुंचे थे। फिर, इस सदन की एक खासियत यह भी थी कि करीब तीन दशकों के बाद देश में किसी राष्ट्रीय दल को स्पष्ट बहुमत मिला था। जबकि धारणा यही है कि अल्पमत और गठबंधन में काम करने वाली सरकार पेचीदे नीतिगत मसलों पर शायद ही कडे़ फैसले ले पाती है। विशेष रूप से यूपीए-2 की सरकार को ‘पॉलिसी पैरालिसिस’ यानी नीतिगत पक्षाघात का शिकार तक कहा गया। तब कइयों की राय थी कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अपनी छवि बेशक साफ हो, लेकिन 2-जी या कोलगेट घोटाले की वजह घटक दलों के मान-मनोव्वल में छिपी है।
बहरहाल, 16वीं लोकसभा में कई महत्वपूर्ण कदम उठाए गए। बैंकिंग सेक्टर की सेहत सुधारने के लिए नया बैंकिंग कोड बनाया गया, तो रीयल एस्टेट के लिए रेरा कानून। आतंकियों के खिलाफ पड़ोसी देश में जाकर सर्जिकल स्ट्राइक भी की गई। हालांकि इन सबसे बड़ा कदम नोटबंदी था। प्रधानमंत्री ने आठ नवंबर, 2016 की शाम टीवी पर अपने संबोधन में बताया कि देश में काला धन इतना बढ़ गया है कि 500 और 1,000 रुपये के नोटों को कानूनी रूप से हटाना होगा। उन्होंने यह भी कहा कि काला धन आतंकवाद का जरिया बन रहा है और नोटबंदी से एक साथ अर्थव्यवस्था, राजनीति और आतंकवाद- तीनों से इसका खात्मा हो जाएगा। लेकिन आज दो वर्ष के बाद भी ऐसा कोई ठोस लेखा-जोखा नहीं है कि कितना काला धन अर्थव्यवस्था में लौट आया और भय के मारे कितना काला धन रिजर्व बैंक के पास वापस जमा नहीं किया गया? जाहिर है, आर्थिक रूप से सरकार को नोटबंदी से फायदा हुआ या नहीं, और काला धन पकड़ा भी गया या नहीं, इस पर आज भी स्पष्टता नहीं है।
नोटबंदी की वजह से आम लोगों को बेशक मशक्कत करनी पड़ी, लेकिन भाजपा को इससे राजनीतिक फायदा मिला। उसे उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत हासिल हुआ। इससे पहले पार्टी हरियाणा और महाराष्ट्र में अपनी सरकार बना चुकी थी, और पूर्वोत्तर के कई राज्यों में भी कमल खिल चुका था। स्थिति यह थी कि 2017 तक लोगों को यह विश्वास हो चला था कि भारतीय राजनीति भविष्य में कांग्रेस मुक्त हो जाएगी। लेकिन 2018 में राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनावों में भाजपा की सरकारों को हार का मुंह देखना पड़ा। यह संकेत था कि नोटबंदी के नकारात्मक असर को अब समाज और अर्थव्यवस्था महसूस करने लगे हैं। इसी तरह, केंद्र सरकार की एक अन्य बड़ी उपलब्धि जीएसटी (गुड्स ऐंड सर्विस टैक्स) थी। लेकिन इसे भी जमीन पर उतारने के लिए तमाम मुश्किलें सामने आईं और कई बार जीएसटी की दरों में संशोधन करना पड़ा। इससे अर्थव्यवस्था स्थिर नहीं हो पाई।
नोटबंदी की मार से अर्थव्यवस्था उबर भी नहीं पाई थी कि उसे जीएसटी का दूसरा झटका लगा। इससे भाजपा के पुराने वोट बैंक रहे व्यापारी वर्ग भी त्रस्त हो गए। यह स्थिति इंदौर और सूरत जैसे भाजपा के गढ़ों में भी देखी गई। नतीजतन, अब हिंदीभाषी इलाकों में भी भाजपा और नरेंद्र मोदी की सरकार के विरोध में भी एक आवाज सुनी जा रही है, जो वास्तव में मुद्दों पर आधारित है। अभी किसानों के सामने संकट है, उन्हें बाजार में फसलों का उचित मूल्य नहीं मिल पा रहा, और ग्रामीण इलाकों के बैंकों में अब भी पर्याप्त पैसे नहीं हैं। इसके साथ-साथ बेरोजगारी के मुद्दे पर भी नौजवानों में नाराजगी है। ग्रामीण इलाकों में खासकर अगडे़ वर्गों के नौजवान खुद को असहाय पा रहे हैं। उन्हें न तो आरक्षण का लाभ हासिल है और खेती-किसानी कमजोर होने की वजह से उनके पास न इतना पैसा है कि वे अपना कोई उद्यम चला सकें। देखा जाए, तो हिंदीभाषी इलाकों के ग्रामीण नौजवानों के सामने ही अब सबसे ज्यादा संकट है। इन नौजवानों के लिए अपने तईं आगे बढ़ने की कोई पहल कर पाना काफी कठिन हो गया है। इन तमाम चुनौतियों के बीच विश्व हिंदू परिषद ने राम मंदिर बनाने का नारा फिर से छेड़ दिया, यानी हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में भाजपा की हार के बीच उत्तर प्रदेश में धर्म और असंतुष्टि की राजनीति एक नए शिखर पर पहुंच गई है।
इन्हीं परिस्थितियों में भाजपा नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चुनावी मैदान में उतरेगी। उसके पास अपनी उपलब्धियां गिनाने के लिए जन-धन, उज्ज्वला और स्वच्छ भारत जैसी योजनाएं हैं। ‘स्किल इंडिया’ जैसे कार्यक्रमों का जिक्र करने से भाजपा परहेज कर सकती है, क्योंकि बेरोजगारी के मुद्दे पर वह शायद चुप ही रहे। हालांकि अंतिम क्षणों में आर्थिक आधार पर अगड़ों को भी आरक्षण देने और तेलंगाना की रायतु बंधु योजना की तर्ज पर सीमांत किसानों को एक निश्चित राशि बतौर सहायता देने की घोषणा की गई है। लेकिन ये दोनों फैसले उसके पक्ष में गए हैं या नहीं, इसका फैसला आने वाले वक्त में ही हो सकेगा।
इसी बीच, विपक्ष राफेल लड़ाकू विमान सौदे का पेचीदा मसला बार-बार उठाता रहेगा। यह अभी तक साफ नहीं हो सका है कि इस सौदे में कुछ गलत हुआ है या नहीं, लेकिन इससे जुड़े कई सवाल हैं, जो परेशान करते हैं। मसलन, हिन्दुस्तान एरोनॉटिक्स की बजाय इन लड़ाकू विमानों को बनाने का इकरारनामा किस आधार पर रियालंस डिफेंस का दिया गया, जबकि उसके पास ऐसे विमानों को बनाने का कोई अनुभव नहीं है? इन्हीं गुत्थियों के बीच मामला अब फिर से आम मतदाता के विवेक पर छोड़ दिया गया है। बेशक लोकसभा में भाजपा का विरोध खासा नहीं रहा, पर अब कई राज्यों के क्षत्रप पार्टी के खिलाफ मुखर हैं। नजरें स्वाभाविक तौर पर चुनाव आयोग की घोषणा पर टिक गई हैं।
Date:15-02-19
Stress Points of Democracy
In this election year in India, we need to keep a sharper eye on the weakening of institutions
M.K. Narayanan is a former National Security Advisor and a former Governor of West Bengal
These are difficult, as also unsettling, times. It is not the complexity of issues that confront the world as much as the steady undermining of institutional and knowledge structures that are posing a threat to the world.
Across the world, democracy is in obvious retreat, with authoritarian tendencies on the ascendant. Russia’s Vladimir Putin, China’s Xi Jinping and Turkey’s Recep Tayyip Erdogan are constantly projected as the faces of authoritarianism, but many democratic leaders reveal a similar authoritarian streak, which adds to democracy’s woes. It may be too early to predict the demise of democracy, but the reality is that it is not a good time for democratic institutions, or for those who see democracy as the answer to the world’s problems.
Examples everywhere
Several examples exist worldwide on how decisions today are handed down, rather than being the outcome of discussion and debate. Hallowed international institutions such as the World Bank are facing the heat today for not conforming to the prescriptions of certain powerful members. At the same time, there are enough examples of democracy going awry. Brexit, and the Brexit debate, in the U.K. and Europe is a good example.
The U.S., which prides itself as a leading democracy, is setting a bad example today. Under President Donald Trump, arbitrary decision-making has replaced informed debate. His diatribe against what he calls a “ridiculous partisan” investigation against him is an indication. Another is his determination to build a wall to keep out Mexican immigrants, even risking an extended shutdown of the U.S. government. The decision of the U.S. to withdraw from the Intermediate-Range Nuclear Forces Treaty — a key pact signed in 1987, and hailed as the centrepiece of European security since the Cold War — without a detailed internal discussion appears to be setting the stage for Cold War 2.0.
It is, however, the ignoring of democratic conventions nearer home that are cause for greater concern. In a pluralistic, multi-party federal system, disdain for democratic conventions and the violation of well-entrenched behavioural patterns are causing irreversible damage to the polity.
Federal fallout
Currently, we are witnessing vituperative exchanges between the Prime Minister and some Chief Ministers which involve accusations such as fomenting riots and running extortion rackets. This damages the fabric of democracy. Centre-State relations are already under strain, and face the threat of still greater disruption.
Selective interpretation of information is a fallout of such situations. Those in authority deem all information not acceptable to them as nothing but disinformation. Those opposed to the government, on the other hand, insist that the government suffers from a lack of probity. The current sulphurous exchanges between the ruling dispensation and the Opposition over the purchase of Rafale aircraft are an example. The casualty is truth, and the veracity of official facts and statistics.
Many instances of this kind can be quoted, but one specific instance that has caught the fancy of the public is the current debate on jobs and unemployment. The Central government has effectively rejected a report by the well-regarded National Sample Survey Office — which showed that unemployment in 2017-18 was at a 45-year high — without giving any valid reason for doing so. The government’s only reasoning for rejecting the report is that it is a ‘draft’, which has only added to existing doubts about its real intentions. Similarly, doubts are being raised about the validity of the government’s revised GDP estimates.
Breaches of democratic conventions are adding to the already existing disquiet. Adherence to democratic norms has for long been perceived as crucial to maintaining the independence of institutions and processes. An impression exists today that attempts are being made to effect changes in the existing system. Two instances during the past year when the government breached long-held conventions have raised questions about the intentions of those in authority.
One was the brouhaha concerning the Reserve Bank of India (RBI), and a perceived attempt to reduce its functional independence, to compel it to fall in line with the views of the government. The resignation of the RBI Governor put a temporary quietus to these concerns, but it is widely believed that the RBI has been brought into line with the government’s wishes. The second instance relates to the Interim Budget in an election year. The Interim Budget announced on the eve of the 2019 general election clearly breaches certain long-settled conventions, by including many substantial measures that ordinarily would form part of a regular Budget. The intention is plain, viz. build more support for the ruling dispensation in an election year.
Alongside the decline in democratic conventions, another cause for concern is the virtual collapse of key institutions such as the Central Bureau of Investigation (CBI). Touted as India’s premier investigation agency, its reputation has of late suffered a near mortal blow, mainly on account of internecine quarrels, as also external interference in its internal affairs. Created out of the Delhi Special Police Establishment in 1963, a brainchild of then-Home Minister Lal Bahadur Shastri, the agency was earlier headed by persons with impeccable integrity and ability. It had also adhered previously to the salutary principle of not carrying out arrests, except in the most exceptional of circumstances. Over time, the quality of the CBI leadership and the tribe of proven investigators has witnessed a decline, which has impacted the image of the organisation.
An agency of the government, part of the Ministry of Personnel functioning under the Prime Minister, supervised at one step removed by the Central Vigilance Commission, and constantly under the watch of the Supreme Court, the CBI serves many masters. The choice of Director, following the Vineet Narain case, by a committee headed by the Prime Minister, with the Chief Justice of India and the Leader of Opposition as the other members, has hardly helped the CBI maintain a reputation for independence. The recent unsavoury drama, which witnessed a ‘Kilkenny cat fight’ between the Director and his No. 2, reflects the lack of institutional culture in the organisation.
Compounding the situation arising from the lack of trained and competent investigators is the fact that supervisory officers, who come and go, are most often not in a position to provide proper guidance to investigating officers. At times, they also tend to tinker with the investigation reports sent to them, to reject the findings of investigating officers.
A changing work culture
What is worse is that while earlier the CBI used to carry out arrests of so-called accused persons only as a measure of last resort, today it is overturning this on its head. As its investigating officers’ skills have declined, it is increasingly resorting to peremptory arrests, often on very slender evidence, in anticipation of securing approvers to build, or strengthen, a case. The law generally disapproves of approver evidence, but this has become the stock in trade of the CBI. In many instances, the CBI has also been resorting to pressure tactics while questioning individuals, even when they are not accused persons, setting aside legal niceties and requirements. In a few instances recently, the CBI has even resorted to intimidatory tactics, taking recourse to a battery of investigators to question a witness, let alone an accused, in the hope of securing useful leads. The recent incident where a posse of CBI personnel went to question the Kolkata Police Commissioner at his residence late in the evening, though he was only a witness, reflects the changing mores of the CBI. This should be a matter of concern for one and all.