15-05-2021 (Important News Clippings)

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15 May 2021
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Date:15-05-21

Cease the fire

Israel’s right to defend itself does not extend to indiscriminate bombing of civilians in Gaza

Editorial

From Israeli armed forces storming Jerusalem’s Al-Aqsa Mosque on Monday morning to Israel pounding Gaza with air strikes and artillery on Thursday night in response to the rocket firing by Hamas, the Israel-Palestine conflict has escalated dangerously within days. At least 119 Palestinians, including 31 children, have been killed in Israeli attacks on Gaza since May 10, while nine people were killed in Israel in the rocket attacks, including an Indian national and a child. For now, both sides have refused to stand down from the fighting despite international appeal. Israel cannot evade responsibility for the crisis engulfing the region. There was already resentment and frustration among the Palestinians in the occupied territories as Israel has expanded Jewish settlements and deepened occupation. Besides, Israel’s high-handedness in East Jerusalem and the move to evict Palestinian families from their homes in Sheikh Jarrah for Jewish settlers added to the anger, leading to clashes. Hamas, which claims to be the main national resistance force against the occupation, seized on the opportunity and escalated the crisis with rocket attacks. Israel has vowed to destroy Hamas’s militant infrastructure. But Israel knows that it is easier said than done. In 2014, Israel carried out a seven-week-long operation with the same objective. Seven years later, there is Hamas, firing over 1,800 rockets into Israel within five days.

Beyond the rhetoric by both sides, this is a loss-loss situation in which the civilians are taken hostage. Hamas’s rockets do not distinguish between Israeli civilians and soldiers. While the Iron Dome defence system neutralised most of the rockets, some actually hit Israel’s population centres, killing civilians and raising concerns for the country’s rulers. Israel is in fact witnessing a twin crisis. While the conflict with Hamas is escalating into a land attack, Israeli cities are gripped by riots between Jewish vigilantes and Arab mobs. The riots prompted President Reuven Rivlin to evoke fears of a civil war and the government to declare a state of emergency in some locations, including the central city of Lod. This is the most serious law and order crisis Israel is facing internally since the second intifada of 2000. In return, Israel has pulverised Gaza, inflicting a heavy casualty on the impoverished region’s population. The high casualty of children points to the collective punishment approach of the Israeli military. Israel’s right to defend itself, which the U.S. and Germany have endorsed, cannot be the right to launch an indiscriminate bombing on the civilians of Gaza. The international community, especially the U.S. which is a close ally of Israel, should put pressure on both sides to cease the fire. They should do it sooner rather than later as every day, dozens are being killed in the bombings.


Date:15-05-21

समाज की शक्ति जगाने का समय

डॉ. विशेष गुप्ता, ( लेखक समाजशास्त्री हैं )

कोरोना की इस दूसरी लहर के बीच एंबुलेंस के बार-बार बजते सायरन अब डराने लगे हैं। जिन्हेंं ऐसे सायरन नहीं सुनाई देते या नहीं डराते, उन्हें भी यह भय सता रहा है कि कोरोना के लक्षण आ गए तो अस्पतालों में जगह मिलेगी या नहीं? अगर घर में आइसोलेशन में रहें तो पता नहीं ऑक्सीजन मिले या नहीं? कहीं इस आऑक्सीजन के अभाव में मृत्यु का वरण न हो जाए? यह भय भी सता रहा है कि बाकी परिवार के सदस्य यदि संक्रमित हो गए तो क्या होगा? पड़ोसी, नाते-रिश्तेदार, मित्र यहां तक कि सगे-संबंधी तक इस त्रासदी के बीच किनारा करते दिखाई दे रहे हैं, क्योंकि हर किसी को संक्रमित होने का भय है। कोरोना की इस लहर में इंसानियत कराह रही है। मानवीय संवेदनाएं घायल अवस्था में हैं। नैसर्गिक संबंध भी अब कृत्रिम से नजर आ रहे हैं। लगता है जैसे कोरोना संक्रमण की इस दूसरी लहर में सामाजिक के साथ-साथ मानवीय संबंध भी संक्रमित होने लगे हैं। संकट के इस कालखंड में मौत अब संस्कारों का हिस्सा न रहकर गणित के सवालों में उलझ गई है। कोरोना ने लोगों को अकेला ही नहीं किया है, बल्कि अब तो लगता है जैसे लोगों के बीच संबंधों के अर्थविहीन होने की स्थिति बन रही है।

अभी पिछले ही साल देशव्यापी लॉकडाउन के बाद खूब चर्चा हुई थी कि इस कोरोना ने परिवारों की संयुक्तता को जोड़ने का काम किया है। पुरानी और नई पीढ़ी के बीच संवाद की कड़ी मजबूत हुई है। मसलन आपसी रिश्तों की नई इबारत लिखी गई है। हमारी रसोई तक आयुर्वेद की प्रयोगशाला बन गई है। कुल मिलाकर हम अपने पारिवारिक ओर सामाजिक संबंधों की कड़ी को मजबूत बनाने में कामयाब होते दिख रहे थे, लेकिन 2021 की इस दूसरी लहर ने हमारे इस भरोसे को तोड़ दिया। भरा-पूरा परिवार है, परंतु कोरोना संक्रमण से जुड़ी मृत्यु लावारिस होने का लिबास ओढ़ रही है। यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि अब यह बीमारी पारिवारिक आत्मीयता को भी निगल रही है। कई ऐसे उदाहरण सामने आए हैं कि जहां मौत को कंधा देने के लिए चार लोग भी मयस्सर नहीं हुए।

सच यह है कि समूची वैश्विक धरती को अपना कुटुंब मानने वाले देश में एक वायरस का संक्रमण समूचे परिवार पर भारी पड़ रहा है। हमारे परिवार की संयुक्तता को यह महामारी इतनी तेजी से अकेला कर देगी, इस तथ्य को लेकर समाज-मनोविज्ञानी तक अचंभित हैं। सही बात तो यह है कि निजता के इस दौर में मानव से एक नितांत अकेला व्यक्ति होने की परंपरा का हम खुद ही अनुकरण कर रहे हैं। विगत दो दशकों में हमने एकल होकर अपनी निजता और आजाद होने पर ज्यादा ध्यान दिया। हमने सोचा था कि मासिक पगार के बड़े-बड़े पैकेज, पांच सितारा भवन और बड़ी-बड़ी चमकदार गाड़ियां होने से कोई बीमारी हमें नहीं सताएगी।

इसी को देखते हुए हमने अपनी निजी शर्तों पर एकल जिंदगी जीना शुरू कर दिया। उसका परिणाम यह हुआ कि व्यक्ति परिवार के वृहद संकुल से निकलकर हाशिये पर आ गया। वह भूल गया कि समाज हमारी जरूरत भी है। वह भूलता चला गया कि कभी ऐसी बीमारी आने पर उसे अपने स्वजनों की भी सख्त जरूरत पड़ेगी। कोविड महामारी मुंह देखकर नहीं आ रही है। बड़े-छोटे, अमीर-गरीब और युवा-बुजुर्ग, सभी समान रूप से इसकी चपेट में आ रहे हैं। तमाम लोगों के स्वजन इस बीमारी में उनसे छिटक गए और वे दुख से उबरते हुए खुद के बचाव का रास्ता तलाश कर रहे हैं।

कड़वी सच्चाई यह है कि कोविड महामारी के रूप में देश में इस समय एक जैविक युद्ध सा चल रहा है। इस महामारी से लड़ने में देश में संसाधनों की इतनी कमी भी नहीं है, जितनी दिखाने की कोशिश जारी है। कहीं न कहीं इस पूरे परिदृश्य में हमारी संवेदनहीनता और मुनाफे की प्रवृत्ति भी किसी हद तक जिम्मेदार है। इसमें कोई शक नहीं कि सरकार पूरे प्राणपण से ढांचागत संसाधन जुटाने में लगी है, लेकिन आक्सीजन की कालाबाजारी, इंजेक्शन और कोरोना से जुड़ी दवाइयों एवं यंत्रों का असीमित संग्रहण, यहां तक कि कफन तक की चोरी के लिए क्या समाज में ऐसे लोगों का बहिष्कार नहीं किया जाना चाहिए? लगता है देश में फैली इस महामारी के समय इन मुनाफाखोरों की आत्मा मर चुकी है। निश्चित ही महात्मा गांधी की तर्ज पर सरकार के पास लोगों की जरूरत के लिए सभी कुछ है, परंतु लोगों की लालच का इंतजाम करना किसी भी सरकार के लिए बहुत मुश्किल है। ध्यान रहे सरकार भी इसी समाज का हिस्सा है। यह आपकी चुनी हुई सरकार है। देश और सरकार की एक-दूसरे से पारस्परिक अपेक्षाएं हैं। हमने पहले भी जनता के सहयोग से कई बार ऐसे संक्रमण से संघर्ष किए हैं। इस बार का संघर्ष थोड़ा बड़ा है, लेकिन इतना बड़ा भी नहीं है कि उसे आमजन के सहयोग से जीता न जा सके।

अमेरिकी समाजशास्त्री अमिताई एजियोनी के अनुसार समुदायों में आज भी नैतिक रूप से साझी भलाई को बढ़ाने की ताकत है। इस मत के अनुसार इस समय राष्ट्रीय समुदाय को सारे वाद से विरत रहने की जरूरत है। इसके लिए हम सभी को जिजीविषा और साहस के साथ अपनी पूरी सामुदायिक ताकत लेकर सरकार के साथ उठ खड़े होने की महती आवश्यकता है। यह भाव सभी में उभरना चाहिए कि हम इस मुश्किल महामारी से लड़ेंगे और जीतेंगे भी। यही भाव हमें संकट से उबरने की ताकत देगा। वास्तव में ऐसी भावना से ही हम इस संक्रमण की जैविक ताकत को अपने देश की सामुदायिक ताकत से हराने में कामयाब होंगे।


Date:15-05-21

युद्ध की नई लपट

संपादकीय

यरुशलम की अल अक्सा मस्जिद में इजराइल की कार्रवाई ने एक बार फिर युद्ध जैसे हालात बना डाले। चार दिन से इजराइल और फिलस्तीन एक दूसरे पर मिसाइलें और बम गिरा रहे हैं। अब तक सौ से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। दोनों तरफ के रिहायशी इलाके खंडहरों में तब्दील हो रहे हैं। इससे भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि इजराइल और फिलस्तीन के बीच भड़के इस युद्ध में महाशक्तियां भी सक्रिय हो उठी हैं। ऐसा नहीं है कि इजराइल और फिलस्तीन के बीच टकराव कोई पहली बार हुआ है। लेकिन इस बार जिस तरह से इजराइल ने आक्रामक रुख अख्तियार किया है, उससे तो लग रहा है वह फिलस्तीन को मटियामेट करके ही दम लेगा। अगर बमों और मिसाइलों से हमलों का यह सिलसिला जल्द ही नहीं थमा और बड़ी ताकतें भी इसमें कूद पड़ीं, तो इससे तीसरे विश्वयुद्ध की नींव पड़ते देर नहीं लगने वाली। ऐसे में युद्ध की लपटें एक बार फिर हजारों बेकसूरों को लील जाएंगी।

मामला इस बार ज्यादा इसलिए गरमाया कि अल अक्सा मस्जिद में इजराइली कार्रवाई रमजान के दौरान की गई। भले ही पूरा मुसलिम जगत इस पर अभी मुखर नहीं हुआ हो, लेकिन इजराइल की इस हरकत से सुन्नी बहुल देशों में भयानक गुस्सा है। पाकिस्तान और तुर्की तो जिस तरह से खुल कर फिलस्तीन के साथ आ गए हैं उससे हवा का रुख समझा जा सकता है। तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगान रेसेप तैय्यप ने तो रूस के राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन से इजराइल को कड़ा सबक सिखाने को कहा है। उधर, अमेरिका खुल कर इजराइली कार्रवाई का समर्थन कर रहा है। जाहिर है, रूस भी बहुत देर तक शांत नहीं बैठने वाला। अल अक्सा मस्जिद से फिलस्तीनियों को खदेड़ने की इजराइल ने जो कार्रवाई की, लगता है वह सुनियोजित थी। इसका मकसद फिलस्तीनियों को उकसाना और फिर हमले का बहाना ढूंढ़ना था। मौजूदा लड़ाई का नतीजा इजराइली शहरों में अरब मूल के लोगों और यहूदियों के बीच दंगों के रूप में भी देखने को मिल रहा है। इजराइल में अरब मूल के लोगों की आबादी इक्कीस फीसद है। ऐसे में इजराइल में अरब-यहूदी संघर्ष और भयानक रूप ले ले तो कोई आश्चर्य नहीं।

दुनिया के हालात के मद्देनजर इजराइल और फिलस्तीन के बीच मौजूदा संघर्ष थमना चाहिए। इसी में सबकी भलाई है। हालांकि दोनों पक्षों के बीच समस्या का कोई समाधान दूर-दूर तक नजर नहीं आता। इसका कारण इस संघर्ष में अमेरिका जैसी ताकतों का रवैया है। इजराइल पश्चिम एशिया में अमेरिका का प्रतिनिधि देश है। उसी के जरिए इस क्षेत्र में अमेरिका के हित सधते हैं। अमेरिका के दम पर ही इजराइल फिलस्तीन की सत्ता पर काबिज हमास को मिटा देने के सपने देखता रहा है। पश्चिमी देश पहले से ही हमास को उग्रवादी संगठन मानते हैं। इस तथ्य को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि हमास जिस ताकत से इजराइल को चुनौती दे रहा है, उसके पीछे भी कई शक्तियां होंगी। गौर इस बात पर भी किया जाना चाहिए कि हमास जिस तरह से इजराइली शहरों को निशाना बना रहा है, उससे उसकी बढ़ती सैन्य ताकत का भी पता चलता है। जाहिर है, हमास को सैन्य मदद देने वालों की भी कमी नहीं है। गौरतलब है कि अफगानिस्तान में तालिबान का उदय अमेरिकी नीतियों की देन रहा है। इजराइल को इससे सबक लेना चाहिए। हमास भी इजराइल की ही देन है। लेकिन अब वही उसके लिए संकट बन गया है। ऐसे में अफगानिस्तान में जो हश्र अमेरिका का हुआ, आगे चल कर वैसे ही नतीजे कहीं इजराइल को भी न झेलने पड़ जाएं!


Date:15-05-21

अनाथों की सुध

संपादकीय

दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने फैसला किया है कि वह कोविड से अनाथ हुए बच्चों की शिक्षा और जीवन-यापन का खर्च उठाएगी। कई बच्चों ने कोरोना संक्रमण से अपने मां-बाप, दोनों को खो दिया है। जिस तरह की खबरें आ रही हैं, उनसे यही आशंका होती है कि ऐसे बच्चों की संख्या काफी होगी। किसी भी संवेदनशील सरकार और समाज की जिम्मेदारी है कि वह ऐसे बच्चों को आर्थिक संकट और असुरक्षा से बचाए। अगर दिल्ली सरकार ऐसा करती है, तो वह अपनी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभाएगी। इसके अलावा, मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने यह भी घोषणा की है कि जिन बुजुर्गों ने अपने बच्चों को खोया है, जो उनके आर्थिक संबल थे, उन्हें भी सरकार की ओर से सहायता दी जाएगी। अच्छा होगा, अगर अन्य राज्य सरकारें भी ऐसी पहल करें।

अभी तो कोरोना की लहर चल ही रही है और इस वक्त सबसे बड़ी जरूरत इस लहर को नियंत्रित करने और इससे होने वाले नुकसान को यथासंभव सीमित करने की है। लेकिन जब यह तूफान गुजर जाएगा, तब सबसे बड़ी जरूरत तबाही का जायजा लेने और उससे प्रभावित लोगों को अपना जीवन फिर से पटरी पर लाने में मदद करने की होगी। देश की अर्थव्यवस्था कोरोना की मार के पहले भी कुछ धीमी रफ्तार से चल रही थी और अब महामारी ने तो इसकी गति बहुत ही कम कर दी है। भविष्य में सब कुछ सामान्य हो जाने के बाद भी शायद अर्थव्यवस्था के ठीक-ठाक हालत में आने में काफी वक्त लग जाए। ऐसे में, जो भी लोग अपना आर्थिक सहारा खो चुके हैं, उनके लिए बहुत कठिन हालात होंगे। इनमें बेसहारा बुजुर्ग और अनाथ बच्चे शामिल हैं। इसलिए उन पर विशेष ध्यान देने की और उन्हें सहायता देने की जरूरत होगी। दिल्ली राज्य में यह काम करना अपेक्षाकृत आसान होगा। इसकी एक वजह तो यह है कि दिल्ली एक छोटा, मुख्यत: शहरी राज्य है और यहां कोविड के आंकड़े भी काफी सही-सही उपलब्ध हैं। लेकिन कई सारे राज्यों, खासकर बड़े राज्यों में कोविड के मरीजों और उससे मरने वालों के बारे में आंकड़ों व जानकारी में इतनी हेराफेरी है कि उनके सहारे मदद की कोई योजना बनाना बेकार होगा। कोविड-19 की इस लहर ने ग्रामीण इलाकों में भी मार की है, जहां न जांच की सुविधा है, न इलाज की और जहां कोविड से मरे लोग सरकारी गिनती में आएंगे ही नहीं। दिल्ली तुलनात्मक रूप से एक सुविधा-संपन्न राज्य भी है, जहां सरकारी स्कूल व अन्य सुविधाएं बेहतर हैं और अगर सरकार राजनीतिक इच्छाशक्ति और प्रशासनिक कौशल दिखाए, तो ऐसी योजनाएं सफल भी हो सकती हैं। आखिरकार तमाम सरकारी योजनाओं की असली कसौटी तो यही होती है कि घोषणाओं और उनके जमीनी रूप में कितना कम फर्क है।

देश के अन्य राज्य भी अपने स्तर पर ऐसी लोक-कल्याणकारी योजनाओं पर काम कर सकते हैं। ऐसी योजनाएं सरकारों को उनके तंत्र की शक्तियों और कमजोरियों को पहचानने व बेहतर तंत्र बनाने में मदद कर सकती हैं। कोविड-19 ने हमें यह बता दिया है कि आखिरकार यही काम आता है कि किसी राज्य में सार्वजनिक सेवाएं कितनी चुस्त हैं। बहुत अमीर राज्य में भी अगर सरकारी व्यवस्थाएं चुस्त-दुरुस्त नहीं हैं, तो वह किसी संकट का सामना नहीं कर सकता। कोविड संकट ने कभी न भुलाने वाला यह सबक हमें सिखाया है।