15-04-2019 (Important News Clippings)
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Date:15-04-19
Cheers To Talent
Lateral entry into government is necessary in a world increasingly driven by innovation
TOI Editorials
Union Public Service Commission has recommended nine candidates to be inducted into central government as joint secretaries. A joint secretary is the administrative head of a department and has critical influence on its efficacy. This is a positive development and has its origin in NDA government’s decision last year to search for talent from outside government for earmarked posts. In a world increasingly driven by technological innovation, India’s administrative architecture needs a higher proportion of specialists. Hopefully, this will be the beginning of an institutionalised process to enhance the quality of administrative performance.
The concept of lateral entry into India’s administrative architecture is not new. Manmohan Singh has perhaps been the most successful lateral entrant. More recently, the creation of Aadhaar, a transformative project, took place under the supervision of Nandan Nilekani, an outside expert. The aim now should be to enlarge the pool from which government can recruit people for some critical posts on a regular basis – because they need the best available talent regardless of where it is to be found. It’s important that the idea of an institutionalised process of lateral recruitment percolate to state governments too, who are in the vanguard of delivering the lion’s share of essential services.
One issue which needs more thought is the creation of a framework to minimise conflicts of interest when lateral entrants go back to private sector. Also, the current round of lateral entry restricts candidates to at best five years of service, which seems odd as some lateral entrants may well have the desire and performance to stay on longer. Moreover, the power to make an impact increases with the duration of service. In future there should be the option of a career path till retirement for lateral entrants.
Date:15-04-19
Cult Of The Leader
Dynasty’s bad rap is deserved, but super centralised parties have drawbacks too
TOI Editorials
At a recent election rally in Karnataka’s Gangavathi town, Prime Minister Narendra Modi said the Lok Sabha election is about “nation first or family first”. This is a long-running trope for BJP. Even in the 2014 general election it labelled Congress-led UPA as “maa bete ki sarkar”. It’s argued that Modi government is efficient precisely because the PM is self-made and unattached. Alongside India has witnessed the growth of a different kind of party: Where decision making authority is centralised not so much in the hands of a family or dynasty but in a single person, or at best a very restricted group close to the leader. The cult of the leader, who is in many cases single and unattached, has grown. This alternative model to dynastic politics too has its drawbacks.
While in dynastic outfits leadership talent is often sacrificed so that a family member can run these outfits, political parties orbiting around single leaders develop their own structural weaknesses over time. By and by the cult of the leader limits delegation of responsibilities within these parties as also intraparty debate. As members invest more in pleasing the leader, they become less inclined to pursue excellence themselves or to offer ideas that run counter to the leader’s preferences. Inordinate centralisation of power ends up hurting governance.
In the long run it doesn’t bode well for the party either. Consider AIADMK’s inheritance of fracture after the death of supremo J Jayalalithaa. Her stature as an all-powerful party boss was also crafted out of a self-made and unmarried identity. After her, party leaders have played musical chairs with the chief ministership even as a breakaway faction is raucously claiming to be the legitimate heir. Over in Bengal Trinamool seems to run under the writ of Mamata Banerjee alone. As BJD has grown across Odisha, so has the cult of Naveen Patnaik. Neither party has a second-rung leadership of note.
In that context, at least dynastic parties tend to have a clear succession plan. They can even accommodate different power centres within the first family, allowing for greater inputs from across the party fold. As for BJP, its anti-dynastic position should extend to decentralising power within itself. Ultimately, voters vote for delivery. And the odds of being able to deliver go up by leaps and bounds when a diversity of talent, initiative and good ideas has a free run within the party.
Date:14-04-19
शानदार जीत पर संकट भी
डॉ. दिलीप चौबे
इजरायल में बेंजामिन नेतन्याहू रिकॉर्ड पांचवीं बार प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं और पश्चिम एशिया ही नहीं पूरे विश्व में उनकी विस्तारवादी नीतियों को लेकर चिंता व्याप्त है। नेतन्याहू देश के राजनीतिक इतिहास में सबसे अधिक अवधि तक प्रधानमंत्री बनने की उपलब्धि हासिल कर लेंगे। उनकी राजनीतिक सफलता के पीछे देश की सुरक्षा सुनिश्चित करने और सहयोगी दलों को साथ लेकर चलने की क्षमता भी है। भले ही उन्होंने अपने मुख्य विपक्षी दल की तुलना में केवल एक सीट ही अधिक पाई है, लेकिन उनके साथ कई ऐसे सहयोगी दल हैं, जो आगामी सरकार को स्थायित्व प्रदान करेंगे। सरकार का यह स्थायित्व उन्हें फिलिस्तीन के बारे में अपनी विस्तारवादी नीतियों को लागू करने में सहायक होगा। साथ ही, भ्रष्टाचार के आरोपों की चल रही जांच के संभावित नतीजों से भी सुरक्षा प्रदान करेगा।
चुनाव के दौरान ही अमेरिका ने सीरिया की सीमा से लगने वाली कब्जे वाली गोलन हाइट्स पर इजरायल की संप्रभुता स्वीकार कर ली थी। इससे नेतन्याहू को मतदाताओं का समर्थन तो हासिल हुआ ही साथ ही उनका यह हौसला भी बढ़ा कि वह भविष्य में यदि पश्चिमी किनारा क्षेत्र पर अपने कब्जे को स्थायी रूप देने का प्रयास करते हं, तो अमेरिका उनका साथ देगा।
अमेरिका और पश्चिमी देश लंबे समय से पश्चिम एशिया में दो राज्य फार्मूला की वकालत करते रहे हैं। बेंजामिन नेतन्याहू ने अपनी कट्टर नीतियों के कारण इस फामरूले को असरहीन बना दिया है। वह शक्ति-प्रदर्शन में विश्वास रखते हैं और फिलिस्तीनियों को कम से कम रियायत देने में भरोसा रखते हैं।नेतन्याहू ने चुनाव के दौरान वादा किया था कि वह पश्चिमी किनारे के क्षेत्र पर अपने कब्जे को स्थायी रूप देंगे। पश्चिमी देश उनके इस फैसले को लेकर चिंतित हैं तथा वे नई सरकार पर जोर देंगे कि वह ऐसा कोई अतिवादी कदम न उठाए। अमेरिका ने उनके इस इरादे की खुली आलोचना नहीं की है, और व्हाइट हाउस का मानना है कि इससे भविष्य में होने वाली शांति वार्ता पर विपरीत असर नहीं पड़ेगा। फिलिस्तीनियों के लिए नेतन्याहू की जीत ने अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया है। पश्चिमी किनारे में पहले से ही इस्रयल ने आवासीय बस्तियां कायम कर रखी हैं तथा आधारभूत ढांचे के विकास के कारण यह क्षेत्र इजरायल से काफी हद तक जुड़ चुका है।
पश्चिम एशिया के विभिन्न देशों में संघर्ष आपसी प्रतिद्वंद्विता और अंतरराष्ट्रीय हालात ऐसे हैं कि अरब देशों समेत विश्व समुदाय नेतन्याहू पर कारगर दबाव डालने की स्थिति में नहीं है। ऐसे में दो राज्य फार्मूला लागू किए जाने की संभावना बहुत अधिक क्षीण हो गई है। अपनी सक्रिय कूटनीति के कारण नेतन्याहू ने विश्व के प्रमुख नेताओं के साथ दोस्ताना संबंध भी कायम किए हैं। अपने परंपरागत समर्थकों के अलावा रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन और भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी उनके दोस्तों की सूची में शामिल हैं।
भारत परंपरागत रूप से फिलिस्तीनियों का समर्थक रहा है। वह पश्चिमी किनारा क्षेत्र गाजा पट्टी और गोलन हाइट्स पर इजरायल के कब्जे को अवैध मानता है। संयुक्त राष्ट्र से भी उसने लगातार इस्रयल के खिलाफ मतदान किया है। हाल के वर्षो में दोनों देशों के बीच संबंधों में आशातीत सुधार हुआ है। मोदी की इजरायल यात्रा से दोनों नेताओं के बीच गर्मजोशी के दोस्ताना संबंध बने हैं। इस बदलाव का कारण भारत के राष्ट्रीय हित भी है। सीमापार आतंकवाद का दशकों से सामना कर रहा भारत इससे निपटने के लिए इजरायल का अनुभव, उसकी रणनीति, खुफिया सूचना एकत्र करने की प्रणाली और सैनिक साजोसामान हासिल करना चाहता है। इसमें सफलता भी मिली है। परदे के पीछे दोनों देशों के बीच सहयोग बहुत व्यापक है। बावजूद इसके भारत का नेतृत्व फिलिस्तीन के संबंध में नेतन्याहू के विस्तारवादी नीति का समर्थन नहीं करेगा।
चुनाव में नेतन्याहू भले ही जीत गए हों लेकिन उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच जारी है। हो सकता है कि कुछ ही महीने बाद उनके खिलाफ आरोप पत्र दाखिल हो जाए। संसद में अपने बहुमत के आधार पर वह ऐसा कानून बना सकते हैं कि जिससे उन्हें मुकदमे का सामना करने से छूट मिल जाए। यदि ऐसा नहीं हुआ तो उन्हें प्रधानमंत्री पद छोड़ना होगा। ऐसे में देश में राजनीतिक अस्थिरता पैदा होने की संभावना है।
Date:13-04-19
अभिव्यक्ति के हक में
संपादकीय
एक लोकतांत्रिक प्रणाली में कोई सरकार, राजनीतिक पार्टी या अन्य समूह सिर्फ इसलिए किसी कलाकृति के प्रदर्शन को बाधित करते हैं कि उससे किसी राजनीति की हकीकत पर चोट पहुंचती है तो यह चिंता की बात है। खासतौर पर जब हमारे देश के संविधान में अपनी बात कहने और अभिव्यक्ति को एक अधिकार के रूप में देखा गया है तब यह समझना मुश्किल हो जाता है कि इसमें बाधा पहुंचाने वाले लोग कानूनों को धता बताने की हद तक कैसे चले जाते हैं। इसके बाद अदालत ही है, जहां इस तरह की प्रवृत्तियों को कसौटी पर रखा जा सकता है। इसके मद्देनजर देखें तो सुप्रीम कोर्ट ने एक फिल्म के प्रदर्शन को बाधित करने की कोशिश के लिए पश्चिम बंगाल सरकार पर भारी जुर्माना लगा कर एक सख्त संदेश दिया है। गौरतलब है कि बंगाली फिल्म ‘भविष्योतेर भूत’ बीती फरवरी में ही रिलीज हो गई थी, लेकिन राजनीतिक वजहों से अगले ही दिन राज्य के सभी सिनेमाघरों से उसे हटवा दिया गया था। हालांकि पिछले महीने सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार को फिल्म के प्रदर्शन कराने का निर्देश दिया था। लेकिन उल्टे उसमें बाधा पैदा की गई। इसी से नाराज अदालत ने पश्चिम बंगाल सरकार पर बीस लाख रुपए का जुर्माना लगाया है।
माना जा रहा है कि पश्चिम बंगाल में तृणमूल पार्टी की सरकार की ओर से इस फिल्म के प्रदर्शन में अड़चन खड़ी करने के पीछे मुख्य वजह यह है कि इसमें राजनीतिक व्यंग्य का सहारा लेकर अलग-अलग पार्टियों को कठघरे में खड़ा किया गया है और इनमें तृणमूल कांग्रेस भी शामिल है। कायदे से फिल्म पर हमला करने या इसे रोकने के बजाय तृणमूल कांग्रेस और राज्य में उसकी सरकार को यह सोचना चाहिए था कि लोकतांत्रिक दायित्व को पूरा करने में कहां कमी रह गई। सीधे उसके प्रदर्शन पर रोक लगा कर उसने यही साबित किया कि देश की लोकतांत्रिक परंपराओं और कानूनी व्यवस्था की उसे परवाह नहीं है। लेकिन इस मसले पर दायर की गई याचिका पर स्पष्ट निर्देश देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर यही स्थापित करने की कोशिश की है कि किसी फिल्म का प्रदर्शन अभिव्यक्ति के अधिकार के तहत आता है और उसे बाधित करना कानूनी तौर पर गलत है। अदालत ने कहा कि यह राज्य सरकार की जिम्मेदारी है कि किसी भी व्यक्ति विशेष की अभिव्यक्ति की आजादी को दबाया नहीं जाए, लेकिन फिल्म के प्रदर्शन को बार-बार रोकने की कोशिश करते हुए सरकार उससे मुकर गई।
अभिव्यक्ति के कला माध्यमों पर सत्ता की ओर से खड़ी की गई बाधाएं या उन पर हमला कोई नई बात नहीं है। अक्सर ऐसे मामले सामने आते रहे हैं जब किसी पेंटिंग, कलाकृति या फिल्म के प्रदर्शन को इसलिए बाधित किया गया कि खास समूहों ने उस पर अपनी भावनाओं के आहत होने की वजह से आपत्ति जताई थी। कई बार किसी फिल्म के प्रदर्शन को रोकने से लेकर सिनेमा घरों पर हिंसक हमला करने तक की कोशिशें की गर्इं। लेकिन ऐसा करने वालों ने यह सोचने या समझने की जरूरत नहीं समझी कि अगर फिल्म में कुछ आपत्तिजनक है तो इसके बारे में उसका दर्शक खुद तय सकता है। जिस तरह एक व्यक्ति को अपनी राय जाहिर करने का हक है, उसी तरह एक फिल्म निर्माता को अपनी कहानी पर फिल्म बनाने और उसे जनता के बीच प्रदर्शित करने का अधिकार है। इसे संविधान में दर्ज अभिव्यक्ति के अधिकार के तौर पर देखा जाना चाहिए। यह दर्शकों के विवेक पर छोड़ दिया जाना चाहिए कि वे किसी फिल्म को देखते हुए उससे कितना प्रभावित होते हैं या उसमें मौजूद कहानी पर कैसे सवाल उठा पाते हैं।
Date:13-04-19
अतार्किक गोपनीयता
संपादकीय
बैंक के जरिये किसी राजनीतिक पार्टी को दान के वैध तरीके अर्थात इलेक्टोरल बॉन्ड पर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय चुनावी पारदर्शिता बढ़ाने की दिशा में सकारात्मक और स्वागतयोग्य है। शुक्रवार को कोर्ट ने इस चर्चित और विवादित बॉन्ड पर तत्काल रोक तो नहीं लगाई, लेकिन उसकी गोपनीयता को अंधेरे से उजाले में लाने का संकेत दे दिया है। हालांकि गोपनीयता के नाम पर यह अंधेरा जनता के लिए अभी कायम रहने वाला है, लेकिन तमाम राजनीतिक पार्टियों को बंद लिफाफे में बॉन्ड से प्राप्त दान और दानदाता की सूचना चुनाव आयोग को 30 मई तक देनी पडे़गी। गौर करने की बात है कि इन बंद लिफाफों को खोलने का हक सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को भी नहीं दिया है। इस बॉन्ड के बारे में सुप्रीम कोर्ट आगे सुनवाई करेगा। आयकर कानून, चुनावी कानून और बैंकिंग नियमों के तहत इसकी उपयोगिता देखना और चुनावी पारदर्शिता के साथ समन्वय बिठाना जरूरी है। इस बॉन्ड की शिकायत नई नहीं है। भाजपा को छोड़कर उन तमाम पार्टियों में रोष रहा है, जिनको इस बॉन्ड के जरिए दान नहीं मिल रहा है।
सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर भी ध्यान दिया है कि सत्ताधारी पार्टी इस बॉन्ड से ज्यादा फायदा उठा रही है। अनुमान इशारा करते हैं कि कुल इलेक्टोरल बॉन्ड का 95.5 प्रतिशत से 97 प्रतिशत हिस्सा केवल सत्ताधारी पार्टी के खाते में गया है। बॉन्ड प्रयोग के पहले ही चरण में सिद्ध हो गया है कि जो भी सत्ता में रहेगा, वह इसके फायदे ज्यादा लेगा। एक दूसरा खतरा यह भी है कि दान और दानदाता के बारे में सूचना केवल जनता के लिए गोपनीय रहती है। बैंक और सरकार को यह अच्छे से पता है कि कौन किसको धन दे रहा है। आज जो पार्टी सरकार में नहीं है, कल वह सरकार में आएगी, तो वह भी जान जाएगी कि पिछली सत्ताधारी पार्टी को कौन कितना धन दे रहा था। हमें सोचना होगा कि ऐसी गोपनीयता लोकतंत्र के हित में नहीं है, जो दान को लगभग एकतरफा कर दे, जो राजनीतिक विद्वेष बढ़ा दे और जो दानदाता को मुश्किल में डाल दे।
बेशक, इस बॉन्ड को काले धन के प्रयोग में कमी लाने और राजनीतिक चंदे को वैध बनाने के मकसद से लाया गया है, लेकिन याचिकाकर्ताओं की शिकायत है कि ऐसा नहीं हो रहा है। जानकारों के अनुसार, फर्क केवल इतना पड़ा है कि पहले दान नगद मिलता था और अब बॉन्ड के जरिये मिलता है, गोपनीयता पहले भी थी और आज भी है। लेकिन बड़ा प्रश्न यह है कि ऐसी अतार्किक गोपनीयता और उसका ऐसा हास्यास्पद बचाव कब तक किया जाएगा? लोकतांत्रिक शक्ति की एक मूलभूत अनिवार्यता है पारदर्शिता। राजनीतिक हिसाब-किताब में पारदर्शिता यदि नहीं रहेगी, तो राजनीति कितनी विश्वसनीय होगी ?
हमारे देश में राजनीतिक पार्टियां सूचना के अधिकार के दायरे में नहीं आतीं। वे दान लेकर सेवा का दावा करती हैं, लेकिन उपभोक्ता कानूनों के दायरे में नहीं आतीं। वाकई, हमें राजनीति और चुनाव सुधार की दिशा में अभी एक लंबा सफर तय करना है। पारदर्शिता से राजनीतिक पार्टियों को अंतत: लाभ ही होगा। उन्हें तब गोपनीयता का कोई बोझ नहीं ढोना पड़ेगा। मतदाताओं को भी मालूम होगा कि उनके नेता की जेब में किसका-कितना पैसा है। सही मतदान के लिए ऐसी सूचना या जागरूकता जरूरी है।
Date:13-04-19
Bonds and Binds
SC interim order on electoral bonds is also a message to political class to find creative solutions to problems of political finance.
Editorial
On Friday, the Supreme Court took the first step towards resolving the controversy over political funding that erupted after the government introduced the electoral bonds scheme last year. The Court refused to accede to the request of the NGOs, Common Cause and Association for Democratic Reforms, and the CPM for an immediate stay of the new mechanism to fund elections. But the key message from the three-judge bench’s decision underlines the complexity of the issue: “Rival contentions by the parties and respondents raise weighty issues which have tremendous bearing on the sanctity of the electoral process.” The court has decided to examine the issue in detail.
Electoral bonds are bearer instruments like promissory notes and can be purchased by an Indian citizen or a body incorporated in the country. The identity of the donor will be known only to the bank, and it will be kept anonymous. Given that political funding used to be a way to whitewash black money, the switch to a mechanism that operates through the banking system is undoubtedly a step forward in ensuring clean political funding. However, questions over the issue of donor anonymity were raised even before the scheme was notified. In May 2017, the Election Commission (EC) had argued that the proviso that exempts political parties from disclosing the names of donors militates against “greater transparency” in political funding. The Commission’s concerns were also linked to the amendment to the Companies Act in 2017, which lifted the cap on the amount corporates could contribute to political parties. “This opens up the possibility of shell companies being set up for the sole purpose of making donations to political parties,” the EC had noted in a letter to the law ministry two years ago.
The government contends that the anonymity provision is necessary to prevent donors from being victimised, in case they turn out to have supported the losing party. “If you back the wrong horse, then tomorrow an industrialist who is bidding for a dam will get victimised if the opposite party came to power,” Attorney General K K Venugopal pointed out during the hearing of the case. But the fact also is that with most of the bonds being issued and encashed at public-sector banks, the party holding office at the Centre can always access these particulars. The SC’s order on Wednesday is alive to these concerns. It has directed all political parties to furnish details of the funding received through electoral bonds, including the identity of the donors, to the EC by May 30. But this, as the Court pointed out, is only an interim measure. Wednesday’s verdict is also a message to the political class to debate more thoroughly the long-pending issue of political funding in order to resolve the anonymity vs transparency impasse.