15-02-2018 (Important News Clippings)
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Liberating India’s Best Colleges
HRD minister Javadekar has just announced the most far reaching reforms in higher education
Arvind Panagariya is former Vice Chair, Niti Aayog. Venkatesh Kumar is Chair, Centre for Public Policy and Governance, TISS
With approximately one year left before voting for the next Lok Sabha elections begins, you would expect the government to be seized by populism. Not the Modi government. On the heels of a pragmatic Budget, the human resource development (HRD) minister Prakash Javadekar has now announced the most far-reaching reforms in higher education. One of us (Panagariya) had lamented for long that the reforms in this important area had been cursed, with HRD minister after HRD minister failing to bring about fundamental change. Magically, Javadekar has broken that curse.By way of background, during past several years, multiple commissions and committees have recommended reforms but failed to bring about any substantive change in the core regulations under the University Grants Commission (UGC) Act. Undeterred, in June 2017, the Prime Minister’s Office (PMO) appointed a committee at the Niti Aayog to recommend how progress could be made in this important area. One of us chaired that committee while the other joined it as an invited expert member.
It is nothing short of a miracle that Niti committee was successful in forging a consensus around the reforms among its members, which included the top officials of Niti Aayog, HRD ministry, UGC and All India Council of Technical Education (AICTE). The committee submitted its report to the PMO at the end of August 2017.The announcement by the HRD minister has translated the recommendations by Niti committee into action in the areas of autonomy to universities and colleges. The far-reaching changes are contained in two separate Gazette notifications: Graded Autonomy Regulations (GARs) 2018; and Autonomous Colleges Regulations (ACRs) 2018. Recommendations by Niti committee in a third area, accreditation, have received approval by UGC but await a nod from the HRD ministry.
GARs break away from decades long tradition of one-size-fits-all regulations for our universities. Based on National Assessment and Accreditation Council (NAAC) scores, they divide universities into three categories: those receiving more than 3.5 in NAAC scores (Category I); those receiving NAAC scores above 3.25 but not exceeding 3.5 (Category II); and those receiving NAAC score of 3.25 or less (Category III). Category I universities also include universities listed among the top 500 in international rankings such as the Times Higher Education and QS. Universities in Categories I and II are granted considerable autonomy while those in Category III remain subject to existing rules.
Under GARs, universities in Categories I and II are entirely free to start new courses, programmes, departments, schools and centres and open constituent colleges within their geographical jurisdiction in self-financing mode. They are also exempt from UGC inspections, can offer courses in open and distance mode, build in an incentive structure to attract talented faculty from their own resources and engage in international collaborations including hiring foreign faculty. Decision making authority has been shifted from UGC to statutory bodies of the university such as the finance committee, academic council and governing board.
Category I universities will additionally automatically come under Section 12B of the UGC Act without a UGC inspection. They will also have the freedom to open research parks, incubation centres and university society linkage centres. ACRs, the rules governing autonomy to colleges, extend autonomy to a larger set of colleges so that they may evolve into high-performing institutions, even independent universities. Historically, process roadblocks at the level of the affiliating university, concerned state government and UGC have discouraged colleges from seeking autonomy. Therefore, ideally, autonomy should be automatically conferred once a college is deemed eligible for it. But the existing technical difficulties forbid this path. Consequently, as a compromise solution, the new regulations make a conscious effort to minimise the roadblocks that the affiliating university, the state government and UGC can place in the path to autonomy once an eligible college applies for it.
Turning to accreditation, reforms recommended by Niti committee and approved by UGC propose to throw the door wide open to independent accreditation agencies. Despite efforts, NAAC and National Board of Accreditation have not been able to achieve the scale and credibility necessary to make a success of accreditation process. Many more entities and resources are required to correct this situation.Under the reforms awaiting HRD ministry approval, an advisory council consisting of public figures and distinguished academics of unimpeachable integrity would be charged with empanelling the accreditation agencies. To ensure that universities and colleges are not able to influence accreditation agencies, they will be required to contribute the fees to a central pool from which the accreditation agencies would be paid.
Some would argue that we must grant autonomy to all institutions. An argument in favour of the graded autonomy in the initial round, however, is that the reform must gain credibility among stakeholders. This is best accomplished by producing success among the top-ranking institutions. There would be every reason to extend the autonomy to all universities and colleges over time.To make these reforms permanent, the government will need to bring a new legislation to replace the UGC Act, 1956. Absent such legislation, the risk of a future government reverting to old rules remains. The new legislation would also provide the occasion to replace UGC by a less intrusive and more independent regulatory body.
पीएनबी के बहाने बैंकिंग प्रणाली पर उठे सवाल
संपादकीय
पंजाब नेशनल बैंक ने 11,500 करोड़ की लेन-देन की धोखाधड़ी करके एक बार फिर भारतीय बैंकिंग प्रणाली की कार्यपद्धति पर सवाल उठा दिए हैं। यह रकम बैंक के विदेशी खातेदारों के खाते में फर्जी तरीके से हस्तांतरित की गई ताकि उस खाते के आधार पर उन्हें दूसरे बैंकों से मदद मिल सके। ऐसा करने वाले बड़े कारोबारी ही रहे होंगे, क्योंकि इसमें व्यवसाय का दायरा भारत से लेकर विदेश तक फैला हुआ दिख रहा है। पंजाब नेशनल बैंक कर्ज देने के मामले में भारतीय स्टेट बैंक के बाद देश का दूसरे नंबर का और कुल संपत्ति के लिहाज से चौथे नंबर का बैंक है। इस महत्वपूर्ण बैंक में एक हफ्ते के भीतर धोखाधड़ी की दूसरी बड़ी घटना चौंकाने के साथ हमारे तंत्र की लापरवाही की ओर इशारा भी करती है। इस घटना से पहले नीरव मोदी नाम के व्यापारी ने 280 करोड़ रुपए की धोखाधड़ी की थी और बैंक अभी यह जाहिर नहीं कर रहा है कि हाल की घटना उससे संबद्ध है या अलग। संभव है कि वित्त मंत्रालय इसे भ्रष्टाचार पकड़ने में अपनी कामयाबी के रूप में पेश करें लेकिन, इस खबर से बैंक के शेयर 4 से 5 फीसदी तक तो गिरे ही हैं उसकी साख में जो बट्टा लगा है वह अलग है। भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन नेे चेतावनी दी थी कि हमें सबसे पहले बैंकों के बही-खातों को दुरुस्त करने की आवश्यकता है, क्योंकि उसमें बहुत सारी गड़बड़ियां हैं। उस समय सरकार और देश के तमाम उद्योगपति उन पर ब्याज दरें कम करने का दबाव बना रहे थे। उसके बाद गवर्नर बने उर्जित पटेल ऐसा कोई काम करते इससे पहले नोटबंदी का निर्णय ले लिया गया और यह मान लिया गया कि इससे देश की काली अर्थव्यवस्था दुरुस्त हो जाएगी और बैंकिंग प्रणाली में भी चुस्ती आएगी। जबकि हाल में सरकार जिस तरह से बॉन्ड जारी करके बैंकों के पुनरुद्धार का कार्यक्रम चला रही है उससे स्पष्ट है और बैंकों का स्वास्थ्य ठीक नहीं है। पिछले साल के आंकड़े बताते हैं कि भारतीय बैंकिंग प्रणाली पर बट्टा खाते का बोझ 8 लाख करोड़ रुपए का है। इस सूची में भारतीय स्टेट बैंक के बाद पंजाब नेशनल बैंक का ही नंबर आता है जिसके बट्टा खाते का ऋण 57,630 करोड़ रुपए है। समय आ गया है कि कॉर्पोरेट घरानों और बड़ी कंपनियों द्वारा बैकों को लगाई जाने वाली इस चपत पर सरकार उचित और कठोर कार्रवाई करे।
लडख़ड़ाते बैंक
संपादकीय
यह गंभीर चिंता की बात है कि बैंकों के एनपीए यानी फंसे कर्ज की समस्या का कोई ठोस समाधान होता हुआ नहीं दिख रहा है। हालांकि केंद्र सरकार की ओर से लगातार यह कहा जा रहा है कि वह पिछली सरकार की ओर से पैदा की गई इस समस्या से सही तरह निपट रही है, लेकिन अभी यह कहना कठिन है कि उसे अपेक्षित सफलता मिल पा रही है। यह निराशाजनक है कि दीवालियेपन संबंधी जिस नए कानून-आईबीसी से बैंकों के फंसे अथवा डूबे कर्ज की ठीक-ठाक वसूली होने की उम्मीद की जा रही थी वह पूरी होती नहीं दिख रही है। कुछ ऐसी ही स्थिति दूसरे अन्य उपायों की भी है।
अगर बैंकों के अधिकारी यह मानने लगे हैं कि कुल फंसे कर्ज में से एक चौथाई से अधिक की वसूली शायद ही हो सके तो इसका मतलब है कि सरकार और साथ ही रिजर्व बैंक को नए सिरे से कुछ करना होगा। इस मामले में जल्द ठोस कदम उठाए जाने इसलिए आवश्यक हैं, क्योंकि बैंक अपनी खराब वित्तीय स्थिति के लिए अधिक चर्चा में रहने लगे हैं। जब दुनिया भारत को तेज गति से तरक्की करने वाले देश के रूप में देख रही है और सरकार भारतीय बाजार को निवेश के आदर्श ठिकाने के तौर पर पेश करने में लगी हुई है तब यह बिल्कुल भी ठीक नहीं कि हमारे बैंक अपनी खस्ताहाल आर्थिक स्थिति के लिए चर्चा में बने रहें। न केवल विदेशी निवेशकों का भरोसा जीतने, बल्कि देश की आम जनता को आशवस्त करने के लिए यह आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है कि बैंक फंसे कर्ज के कारण लडख़ड़ाते हुए न दिखें। अभी तो ऐसा लगता है कि सरकार और रिजर्व बैंक एनपीए की समस्या से पार करने के लिए जो भी कर रहे हैं, बैंक उस पर पानी फेर दे रहे हैं।
यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि हमारे बैंक उन तौर-तरीकों का सख्ती से पालन नहीं कर रहे हैं जिनसे एनपीए बढऩे न पाए। वे किस तरह अपनी कार्यप्रणाली में अपेक्षित तब्दीली नहीं ला रहे, इसका एक नया प्रमाण देश के दूसरे सबसे बड़े बैंक पंजाब नेशनल बैंक में करीब 11 हजार करोड़ रुपये का घोटाला सामने आना है। इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि इस घोटाले का पर्दाफाश हो गया, क्योंकि इस सवाल का जवाब शायद ही किसी के पास हो कि क्या घोटाले में डूबी रकम को हासिल किया जा सकेगा?
यह भी एक तरह के खतरे का ही संकेत है कि अभी चंद दिन पहले देश के सबसे बड़े बैंक स्टेट बैंक ने 17 साल बाद 2416 करोड़ रुपये का घाटा होने की सूचना दी। ध्यान रहे कि यह घाटा एक तिमाही का है। जिस तरह बैंक घाटे से बाहर आते नहीं दिख रहे उसे देखते हुए यह सवाल उठेगा ही कि आखिर सरकार कब तक उन्हें उबारने के लिए जनता के पैसे उनके खातों में डालती रहेगी? सबसे अजीब यह है कि बैंक मुसीबत में फंसे होने के बाद भी आंकड़ेबाजी के जरिये गुलाबी तस्वीर दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। इससे तो यही लगता है कि वे खुद में सुधार लाने के लिए प्रतिबद्ध नहीं।
रक्षा तैयारी के मामले में सही है मोहन भागवत की बात
दोधारी तलवार
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के मुखिया यानी सरसंघचालक मोहन भागवत ने पिछले दिनों एकदम ठीक कहा कि अगर जंग होती है तो सेना को तैयार होने में 6-7 महीने का वक्त लगेगा। उन्होंने यह नहीं कहा कि ये महीने सेना के लिए हथियारों की आपात खरीद में निकल जाएंगे। इस बीच उन्होंने एक हास्यास्पद बात कही कि जब तक सेना युद्ध के लिए तैयार होगी आरएसएस उसकी जगह ले सकता है। भागवत ने रक्षा तैयारी में कमजोरी की बात की लेकिन वह देश की रक्षा के लिए उत्तरदायी लोगों के बारे में कुछ न कह सके। इनमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण और उनके पूर्ववर्ती मंत्री अरुण जेटली और मनोहर पर्रिकर शामिल हैं। पिछली सरकार में भी हालात बेहतर नहीं थे। सेना की तैयारी न होने की बात किसी से छिपी नहीं है।
पूर्व थल सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह ने 2012 में तत्कालीन रक्षा मंत्री एम जे एंटनी को एक पत्र लिखकर हथियारों की कमी का जिक्र किया था। पठानकोट, उड़ी और हाल ही में जम्मू जैसे हमले हमारे कमजोर प्रशिक्षण और तैयारी को ही उजागर करते हैं। रक्षा क्षेत्र के कमजोर आवंटन से अंदाजा लगाएं तो शायद मोदी को युद्ध की आशंका नहीं है। पिछले कुछ बजट की तरह इस वर्ष भी बजट में मामूली इजाफा देखने को मिला। सेनाओं और विभागों के बीच लगभग समान प्रतिशत में वितरण किया गया जो सालाना कुल बजट का 6 से 10 फीसदी के बीच है। बीते तीन सालों में हर वर्ष सेना को सैन्य बजट का 68-69 फीसदी मिलता है जबकि नौसेना को 12.5 फीसदी और वायुसेना को करीब 19.5 फीसदी। उससे पहले के दो वर्ष यानी 2014-15 और 2015-16 में थल सेना को 64-65 फीसदी और नौ सेना और वायुसेना को 2-2 फीसदी ज्यादा बजट मिलता रहा। परंतु 2015 में एक रैंक एक पेंशन और 2016 में सातवें वेतन आयोग की सिफारिश लागू होने के बाद थल सेना के लिए धन की आवश्यकता बढ़ गई क्योंकि वहां काम करने वाले ज्यादा हैं।
रक्षा बजट से यह भी पता चलता है कि सरकार कार्मिकों की समस्या से निपटना नहीं चाहती जबकि सेना के कुल आवंटन का करीब 70 प्रतिशत सैनिकों पर ही व्यय होता है। सैन्य पेंशन की लागत को घोषित बजट से बाहर रखना इसी अनिच्छा को दर्शाता है जबकि पेंशन बिल सीधे तौर पर तीनों सेनाओं की कार्मिक नीतियों से जुड़ा हुआ है। पेंशन की लागत मौजूदा सरकार के कार्यकाल में ही 60,450 करोड़ रुपये से दोगुनी बढ़कर 108,853 करोड़ रुपये हो चुकी है। उसे रक्षा बजट से अलग रखना ठीक नहीं है, खासकर जब थल सेना में शॉर्ट सर्विस करने वालों की तादाद बढ़ती जा रही है। लोग 5-7 साल नौकरी करके बिना आजीवन पेंशन लिए चले जाते हैं। मौजूदा सरकार ने रक्षा बजट को सहज और पारदर्शी बनाया है। अगर वह पेंशन लागत को भी रक्षा आवंटन में दर्शाए तो यह एक बड़ा सुधार होगा। रक्षा को लेकर गंभीर देशों में हर सेना को उसकी सुरक्षा प्राथमिकताओं, चुनौतियों से निपटने की उनकी भूमिका के आधार पर धन का आवंटन किया जाता है। बहरहाल परमाणु हथियार क्षमता के दौर में युद्ध को लेकर बदलता रुख फंडिंग में नजर नहीं आता। अतिरिक्त विशेष बलों या हवाई हमलों या सर्जिकल स्ट्राइक जैसी प्रतिरोधी कार्रवाई की क्षमता विकसित करने को लेकर कोई बजट व्यवस्था नजर नहीं आ रही। बार-बार सार्वजनिक रूप से यह दोहराया गया है कि भारत हिंद महासागर क्षेत्र में सुरक्षा मुहैया कराने की भूमिका अपना रहा है या फिर देश की 7,500 किलोमीटर लंबी तटरेखा पर सुरक्षा व्यवस्था की जानी है लेकिन नौसेना के बजट में इस दिशा में कोई कदम उठाया गया हो ऐसा नहीं दिखता। बल्कि इसमें कमी ही आ रही है।
पाकिस्तान जैसे कम समुद्री ताकत वाले देश भी भारत जैसी ताकतवर सेना का मुकाबला करने के लिए समुद्री सुरंगों और पनडुब्बियों का इस्तेमाल कर रहे हैं। नौसैनिक आवंटन अपर्याप्त बना हुआ है। इसके चलते 12 सुरंग रोधी पोत और 16 पनडुब्बीरोधी पोत, तॉरपीडो और सोनार नहीं खरीदे जा पा रहे हैं। देश में छह नई पनडुब्बियों का निर्माण भी नहीं हो पा रहा है। खरीद के गतिरोध के चलते ही नौसेना ने अरबों की राशि बिना खर्च किए जमा करनी पड़ी। वर्ष 2012-13 में यह राशि 2,543 करोड़ रुपये, 2013-14 में 3,621 करोड़ रुपये, 2015-16 में 5,285 करोड़ रुपये और वर्ष 2016-17 में 4,371 करोड़ रुपये थी। वायुसेना को भी मिग विमानों के बेड़े की जगह तत्काल एक इंजन वाले लड़ाकू विमानों की जरूरत है। उसे भी जो पूंजीगत बजट दिया गया है वह बमुश्किल उल्लिखित प्रतिबद्धताओं को पूरा करने लायक है। एक और अहम पहलू है ‘मेक’ परियोजनाओं के लिए नाममात्र का आवंटन। रक्षा मंत्रालय के वरिष्ठï अधिकारी इन परियोजनाओं को देश के रक्षा उद्योग का वाहक बताते हैं। इन परियोजनाओं में देश के रक्षा क्षेत्र की कंपनियों के समूह मिलकर जटिल रक्षा प्लेटफॉर्म तैयार करते हैं।
रक्षा मंत्रालय इनके विकास की 80 से 90 फीसदी लागत लौटा देता है। इसके औद्योगिक और तकनीकी लाभों के बावजूद सरकार ने वर्ष 2015-16 में इस मद में कुछ भी व्यय नहीं किया। वर्ष 2016-17 में इसमें 247 करोड़ रुपये, गत वर्ष 15 करोड़ रुपये व्यय किए। इस वर्ष 142 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है। 93,982 करोड़ रुपये के बजट में यह राशि बेहद मामूली है। सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि रक्षा व्यय जो सरकार के कुल व्यय का 16.5 फीसदी और वर्ष 2018-19 के सकल घरेलू उत्पाद का 2.16 फीसदी है उसे उचित तरीके से खर्च किया जाए। इसके लिए विचारहीन नियमित वृद्घि के बजाय समग्र योजना अपनानी होगी। चार साल में देश में तीन रक्षा मंत्री बदले जा चुके हैं। ऐसे में मोदी सरकार का पूरा कार्यकाल तो मंत्रालयीन कामकाज सीखने-सिखाने में ही बीत जाएगा। रक्षा मंत्रालय को इससे बेहतर की दरकार है।
Date:15-02-18
अपने हितों के बचाव पर काम करे भारत
भारत ने कभी ऐसी नीति के बारे में खुलकर बात नहीं की जो उसकी सुरक्षा जरूरतों को पूरा करने के लिए आवश्यक हो।
प्रेमवीर दास , (लेखक डिफेंस प्लानिंग स्टाफ के पूर्व महानिदेशक हैं। वह राष्ट्रीय रक्षा सलाहकार बोर्ड में भी रह चुके हैं। लेख में प्रस्तुत विचार निजी हैं।)
हाल की कई घटनाओं के बाद ऐसा प्रतीत हो रहा है कि देश को एक समग्र राष्ट्रीय सुरक्षा नीति विकसित करने की आवश्यकता है। इस दिशा में पहली चार पक्षीय शुरुआत सन 2007 में देखने को मिली जब भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया की नौसेनाओं ने संयुक्त अभ्यास किया था। बाद में भारत की तत्कालीन संप्रग सरकार ने चीन की संवेदनशीलता को देखते हुए इसमें हिस्सेदारी लेना बंद कर दिया। एक दशक बाद इन चारों देशों के अधिकारियों ने मनीला में बैठक की और अब यह समूह औपचारिक रूप ले चुका है। कई अन्य द्विपक्षीय और त्रिपक्षीय समूह हैं जहां भारत हिस्सेदार है। इन सबका उद्देश्य और इनके लक्ष्य अलग-अलग हैं। बहरहाल, इस आलेख का विषय कहीं अधिक व्यापक है। हर अमेरिकी राष्ट्रपति राष्ट्रीय सुरक्षा नीति (एनएसएस) के तहत वैश्विक सुरक्षा को लेकर अपना नजरिया पेश करता है। अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने भी यही किया। उनकी बातों में चीन और रूस को साफ तौर पर संशोधनवादी और समस्या पैदा करने वाले देश बताया गया जो अमेरिकी हितों को नुकसान पहुंचा सकते हैं। अब यह बात उसकी रक्षा नीति में भी नजर आने लगी है। वहां अमेरिका एशिया प्रशांत क्षेत्र में खुद को चीन और रूस के साथ प्रतिस्पर्धा में देख रहा है। भारत का अलग से उल्लेख नहीं है लेकिन जाहिर है वह इस क्षेत्र के उन अहम देशों में शुमार है जिनके साथ अमेरिका तालमेल से काम करना चाहेगा।
ट्रंप की एनएसएस भारत को असमंजस में डालती है क्योंकि उसमें भारत को उभरती हुई वैश्विक शक्ति और साझेदार देश कहा गया है। देश के अधिकांश लोगों के लिए यह प्रसन्नता की बात होगी लेकिन हमें इसके अर्थ का विश्लेषण भी करना होगा। भारत को एक ऐसी शक्ति का दर्जा दिया गया है जो वह फिलहाल नहीं है। दूसरा, रूस और चीन को स्पष्ट तौर पर अमेरिकी हितों के खिलाफ माना गया है लेकिन एनएसएस का अनुमान यह मानकर चल रहा है कि भारत भी इससे समान रूप से प्रभावित है। यह सही नहीं है। आर्थिक दृष्टि से देखें तो हमारा जीडीपी चीन के जीडीपी के पांचवें और अमेरिका के जीडीपी के 10वें हिस्से के बराबर है। भारत और अमेरिका के बीच कारोबारी रिश्ते, चीन और अमेरिका के कारोबारी रिश्तों के पासंग में भी नहीं हैं। ऐसे में यह सोचना कि दोनों किसी जंग में शामिल होंगे, ठीक नहीं है।दूसरी ओर, चीन हमारा निकटस्थ पड़ोसी है। हमारी सीमा का बड़ा हिस्सा उससे लगता है और दोनों के बीच सैन्य संघर्ष की आशंका को पूरी तरह दरकिनार नहीं किया जा सकता है। एक अन्य स्तर पर रूस लंबे समय से भारत का मित्र है और हमारे हथियारों का बड़ा हिस्सा वहां से आता है। इसमें परमाणु क्षमता संपन्न पनडुब्बी और देसी हथियार निर्माण में सहायता शामिल है। हमारे सामरिक हित ईरान से भी जुड़े हैं जो ट्रंप को भले नापसंद हो लेकिन उसके पास ऊर्जा भंडार हैं और वह मध्य एशिया तक पहुंच आसान करता है। संक्षेप में कहें तो अमेरिका की एनएसएस में व्यक्त योजना में हम किस तरह ठीक बैठते हैं वह स्पष्ट नहीं है। आतंकवाद से जुड़ी हमारी दिक्कतें इसके अलावा हैं।
ऊपर हमने जिन चार देशों का जिक्र किया उनका अघोषित साझा लक्ष्य है चीन को थामना। जबकि अन्य तमाम परिदृश्य अनिश्चितताओं से भरे हुए हैं। अमेरिका की बात करें तो चीन साफ तौर पर उसकी वैश्विक श्रेष्ठता को चुनौती दे रहा है। भारत के लिए भी वह प्रमुख चुनौती है। इससे एक तरह की सुसंगतता बनती है लेकिन वह दूर की कौड़ी है क्योंकि चीन की सीमा अमेरिका से नहीं लगती और भारत अमेरिका के लिए चीन की आर्थिक महत्ता की बराबरी नहीं कर सकता। यानी भारत के वैश्विक ताकत बनने की बात काफी हद तक शाब्दिक है। इसका ताल्लुक शायद भारत की रक्षा खरीद में अमेरिकी रुचि से है। 1,500 करोड़ डॉलर का यह कारोबार अगले 5-6 साल में आसानी से 2,500 करोड़ डॉलर तक पहुंच सकता है। ऐसे में इस बाजार को लुभाना समझ में आता है। भारत हिंद महासागर क्षेत्र की सबसे बड़ी और सैन्य क्षमता संपन्न शक्ति है ऐसे में उसे साझेदार बताना समझ में आता है।
भारत के मुद्दे अलग हैं। अमेरिका के साथ मजबूत रक्षा रिश्ते जहां उसे अच्छी सैन्य क्षमताओं से लैस करेंगे, वहीं चीन के साथ हमारे समीकरणों के लिहाज से भी यह रिश्ता अहम है। चीन के साथ हमें विवाद नहीं सहयोग चाहिए। पाकिस्तान और अन्य दक्षिण एशियाई पड़ोसी देशों के साथ संबंध भी पूरे गणित को जटिल करते हैं। रूस के साथ रिश्तों को अमेरिका नकारात्मक अर्थों में देखता है लेकिन ये भी हमारे लिए अहम हैं। हाल के वर्षों में सैन्य संबंध कायम रहने के बावजूद एक हद तक भारत और रूस के रिश्ते प्रभावित हुए हैं। उधर रूस और चीन के बीच के रिश्तों में हाल के वर्षों में करीबी आई है। दक्षिण चीन सागर की बात करें तो हाल ही में दिल्ली में आसियान देशों के नेताओं के जुटाव और समुद्री सुरक्षा पर जोर के बावजूद सभी देश उस क्षेत्र को लेकर हमारे रुख के साथ नहीं हैं। उनमें से कई देश ऐसे हैं जिनके लिए चीन सबसे बड़ा कारोबारी साझेदार है। कहने का अर्थ यह है कि उभरती विश्व व्यवस्था में तमाम अनिश्चितताएं हैं जो भारत की सुरक्षा को प्रभावित कर सकती हैं और जिनका प्रबंधन करने की दिशा में हमें सावधानीपूर्वक आगे बढऩा होगा।
इस परिदृश्य में एक विरोधाभासी प्रश्न उत्पन्न होता है। पहली बात, एशिया प्रशांत क्षेत्र में चीन को थामना आवश्यक है और इसके पक्ष में अपने तर्क हैं। वहीं दूसरी ओर, चीन एक ऐसी बड़ी ताकत भी है जिसके साथ तमाम उभरते देश रिश्ता रखना चाहेंगे। भारत की बात करें तो ट्रंप की एनएसएस से ऐसे सवाल उठते हैं जिनका सामना हमने अब तक नहीं किया है। एक दुविधा यह भी है कि एक पुराने मित्र से रिश्ते बरकरार रखते हुए एक ऐसे नए देश से रिश्ते कैसे कायम हों जबकि दोनों एक दूसरे के खिलाफ हों। दूसरी दुविधा है संभावित शत्रु के साथ संवाद।हमारे आसपास कई ऐसे देश हैं जिनसे हमारी सुरक्षा चिंताएं जुड़ी हुई हैं। शतरंज की सी इस बिसात पर कैसे आगे बढ़ा जाए और उपयुक्त क्षमताओं का विकास कैसे हो, नीति निर्माताओं के सामने यह एक अहम प्रश्न है। अधिकांश बड़ी शक्तियां अपनी जरूरतों के मुताबिक नीतियां बनाकर सामने रखती हैं लेकिन अब तक भारत ऐसा करने से बचता रहा है। शायद यह भी एक वजह है कि हम अपने हितों की रक्षा के लिए उचित नीतियां नहीं बना पाए हैं। अब समय आ गया है कि हम इसमें सुधार करें।
हृदय परिवर्तन जरूरी
संपादकीय
राजनीति के अपराधीकरण के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी पूरी तरह से जायज और सराहनीय है कि आखिर, आपराधिक मामलों में दोषी ठहराया गया व्यक्ति किसी राजनीतिक दल का प्रमुख कैसे हो सकता है! इस हैसियत से वह चुनावों में अपनी पार्टी के उम्मीदवारों का चयन भी करता है, जो चुनाव जीतने के बाद सरकार का हिस्सा भी बनते हैं। आम तौर पर क्षेत्रीय दलों और उनके नेताओं में यह प्रवृत्ति ज्यादा दिखाई पड़ती है।
भारतीय राजनीति में ऐसे उदाहरण भी मौजूद हैं कि दोषी सिद्ध व्यक्ति अपने उत्तराधिकारी का चयन भी करता है। ऐसी मिसालें भी हैं कि दोषी ठहराए गए व्यक्ति की पार्टी जब चुनाव जीत कर सरकार बनाने में सफल हुई तब सजायाफ्ता पार्टी प्रमुख ही परोक्ष रूप से सरकार चलाते हैं। जाहिर है कि यह स्थिति जन प्रतिनिधि कानून की भावना के खिलाफ है, और लोकतंत्र और चुनाव की शुचिता को प्रभावित करती है। भारतीय लोकतंत्र और चुनाव प्रणाली जिस र्ढे पर चल रहे हैं, वह अपने आप में विरोधाभासी है। जन प्रतिनिधि कानून का मूल मकसद चुनावों को भ्रष्टाचार से मुक्त कराना है, लेकिन कानून बनाने वाले ही चुनाव सुधारों के प्रति उदासीन हैं। हालांकि चुनाव आयोग का रुख साफ है, और वह 1998 से ही दोषी व्यक्तियों को राजनीतिक दल का प्रमुख बनाने के प्रचलन का विरोध करता आया है, लेकिन कार्रवाई करना उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर है। यह अधिकार संसद को है, जो जन प्रतिनिधि कानून में इस आशय का संशोधन कर सकती है।
लेकिन इस मसले पर राजनीतिक दलों के बीच सहमति बन पाना हथेली पर मकान बनाने जैसा ही है। अगर आपसी सहमति बनने के बाद कोई कानून बन भी जाता है, तो उसको सीधे तौर पर अमल में लाने में मुश्किलें आ सकती हैं, क्योंकि चुनावों में जाति और धर्म की बड़ी भूमिका रहती है। अदालत द्वारा किसी नेता को किसी मामले में दोषी ठहराए जाने के बावजूद वह अपनी जाति में लोकप्रिय बना रहता है। वह घर बैठे ही अपने उम्मीदवारों को जिताने के लिए अपील कर सकता है, और उसकी जाति विशेष में उसका गहरा प्रभाव भी पड़ता है। इसलिए सिर्फ कानून से नहीं बल्कि चुनाव सुधारों के लिए नेताओं का हृदय परिवर्तन भी होना चाहिए। बहरहाल, चुनावों से भ्रष्टाचार खत्म करना कानून का मूल मंतव्य है, और सुप्रीम कोर्ट यही करना चाहता है।
चीन की दादागिरी
संपादकीय
अमेरिका का रक्षा बजट सिर्फ उसकी रक्षा जरूरतों के खर्च का हिसाब-किताब भर नहीं होता। एक तरह से वह उसकी रक्षा नीति और उसकी प्राथमिकताओं का दस्तावेज भी होता है। भारत के रक्षा बजट में आंकड़े महत्वपूर्ण होते हैं, लेकिन अमेरिका के बजट में महत्वपूर्ण चीज आंकड़ों में नहीं, शाब्दिक विस्तार में होती है। वहां अगर किसी मद में खर्च बढ़ाया जाता है, तो यह भी बताया जाता है कि इसकी जरूरत क्यों है और कैसे है? और इस सबसे उसकी रक्षा नीति की व्याख्या भी हो जाती है। इन बातों की ओर दुनिया का सबसे ज्यादा ध्यान तब जाता है, जब वह अपने रक्षा बजट में खासी बढ़ोतरी करता है, जैसे कि इस साल की गई है। बजट प्रस्तावों के अनुसार, अमेरिका अगले दो साल में अपनी सेना पर होने वाले खर्च में 195 अरब डॉलर की वृद्धि करेगा।
फिलहाल हमारे लिए इस वृद्धि से ज्यादा महत्वपूर्ण वे तर्क हैं, जो बजट प्रस्तावों में दिए गए हैं। इन प्रस्तावों में सबसे महत्वपूर्ण खतरा चीन की तरफ से दिखाया गया है। इसमें अमेरिकी रक्षा विभाग यानी पेंटागन ने कहा है कि भारतीय-प्रशांत क्षेत्र यानी इंडो-पैसिफिक के देशों को जिस तरह से चीन दादागिरी दिखा रहा है, वह चिंता की बात है। वियतनाम, कोरिया और जापान जैसे देश इसे लेकर कई बार आपत्ति भी जता चुके हैं। भारत के आस-पास श्रीलंका, मालदीव और म्यांमार जैसे कई देशों में वह कई तरह से सैनिक और व्यापारिक आधिपत्य जमा रहा है, उसकी पिछले कुछ दिनों में काफी चर्चा हुई है। पाकिस्तान को तो खैर अब कुछ लोग चीन का उपनिवेश ही कहते हैं। इतना ही नहीं, चीन से बहुत दूर ऑस्ट्रेलिया तक अपनी चिंता जाहिर कर चुका है। जाहिर है कि ऐसी चिंताओं का अमेरिकी रक्षा बजट में जगह पाना कोई हैरत की बात नहीं है।
हालांकि अमेरिकी रक्षा बजट में चिंता अकेले चीन को लेकर व्यक्त नहीं की गई है। उसमें रूस को लेकर भी चिंता व्यक्त की गई है। रूस को लेकर अमेरिका की चिंता पूर्वी यूरोप तक ही सीमित नहीं है। पश्चिम एशिया में रूस की जिस तरह की दखल है, वह भी अमेरिका की परेशानी का कारण है। सीरिया में तो अमेरिका और रूस परस्पर विरोधी ताकतों को लड़ा ही रहे हैं। उत्तर कोरिया ने जो सिरदर्द अमेरिका को दिया है, उसकी झलक भी इस रक्षा बजट में देखी जा सकती है और ईरान की तरफ से खड़े होने वाले खतरों की भी। हालांकि ये दोनों खतरे उतने बडे़ नहीं हैं, पर दो नई परमाणु ताकतों का उदय अमेरिका की परेशानियां बढ़ा तो रहा ही है। सबसे बड़ा खतरा वह चीन को मान रहा है।
चीन की इस दादागिरी के भारतीय अनुभव बहुत सारे हैं। ताजा अनुभव डोका ला क्षेत्र का है, जहां उसने बेवजह तनाव पैदा किया है और वहां से चीनी सक्रियता की छिटपुट खबरें आती ही रहती हैं। वैसे तो भारत या किसी भी अन्य देश को अमेरिकी रक्षा बजट से ज्यादा लेना-देना नहीं होना चाहिए, लेकिन कोई महाशक्ति जब अपनी दादागिरी दिखाने लगे, तो सभी पर क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय समीकरण बनाने का दबाव आ जाता है। अमेरिका का रक्षा बजट हालांकि अमेरिकी जरूरतों और उसकी सामरिक सोच के हिसाब से बना है, लेकिन कुछ हद तक यह उन देशों को आश्वस्त जरूर कर सकता है, जो चीन के दबाव का सबसे बड़ा शिकार हैं। बाकी यह तो सभी देशों को पता है कि आखिर में इस दादागिरी से निपटने का काम खुद उन्हें ही करना पड़ेगा।
Date:14-02-18
खाड़ी देशों में भारत का बढ़ता कद
शशांक, पूर्व विदेश सचिव
पश्चिम एशिया के तीन देशों की यात्रा पूरी कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत लौट चुके हैं। उनके इस दौरे को पश्चिम एशिया में भारत के बढ़ते कद के रूप में देखा जा रहा है। यह गलत भी नहीं है। एक तरफ प्रधानमंत्री ने पूर्वी एशियाई देशों के साथ ‘एक्ट ईस्ट पॉलिसी’ के तहत संबंधों को नई गरमाहट दी है, तो दूसरी तरफ पश्चिम एशिया पर भी बराबर की नजर रखी है। इसकी तस्दीक इससे भी होती है कि इस साल 26 जनवरी को बतौर मुख्य अतिथि आसियान के शासनाध्यक्ष भारत आए, तो पिछले साल अबू धाबी के युवराज मोहम्मद बिन जायद अल नाहयान राजपथ पर मौजूद थे। हाल-फिलहाल इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की भी भारत यात्रा हुई थी। साफ है, पश्चिम एशिया व खाड़ी के देशों को लेकर भारत अपनी विदेश नीति को नई गति दे रहा है।ऐसा किया जाना जरूरी भी है। यह हमारे हित में है और अमन-पसंद देशों के हक में भी। इसकी पहली वजह तो यह है कि अफगानिस्तान आतंकी वारदातों से वक्त-बेवक्त अस्थिर होता रहा है और पहली बार अमेरिका ने वहां भारत की भूमिका को मान्यता दी है। ऐसे में, खाड़ी के देशों में शांति व संतुलन साधने से हमारा वैश्विक कद ऊंचा उठेगा। इस दिशा में हम आगे बढ़े भी हैं। भारत, ईरान और अफगानिस्तान के बीच एक त्रिपक्षीय समझौता हुआ है, जिसकी महत्वपूर्ण धुरी चाबहार बंदरगाह है। इतना ही नहीं, भारत सरकार की कोशिश यही रही है कि संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) के साथ सामरिक साझेदारी आगे बढ़े। प्रधानमंत्री मोदी की यह यूएई यात्रा इसी कड़ी का हिस्सा थी। इस्लामी देशों में जो नए समीकरण बन रहे हैं, उसमें भी यह आवश्यक है कि भारत और यूएई की दोस्ती नया मुकाम हासिल करे।
रही बात ओमान की, तो वह हमारा पुराना दोस्त रहा है। इसका पता इससे भी चलता है कि ओमान में 300 साल पहले एक शिव मंदिर बना था, जो गुजरात से गए भारतीयों ने बनाया था। मगर प्रधानमंत्री मोदी की यात्रा सिर्फ पुराने रिश्तों की वजह से ‘लंबे समय तक याद रखा जाने वाला’ दौरा नहीं है। असल में इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में जिस तरह से भारत की भूमिका को सराहना मिली है और प्रशांत महासागर में चीन का दखल बढ़ा है, उसे देखते हुए यह देश भारत का महत्वपूर्ण मित्र साबित हो सकता है। इसीलिए वापस लौटकर प्रधानमंत्री मोदी ने अपने ट्वीट में ओमान से ‘व्यापार और निवेश समेत सभी क्षेत्रों में संबंधों में उल्लेखनीय गति’ मिलने का भरोसा जताया है। जिस तरह के रक्षा समझौते वहां हुए हैं, उनसे मुमकिन है कि आने वाले दिनों में हमें ओमान की नौसैन्य सुविधा भी हासिल हो।प्रधानमंत्री मोदी की इस यात्रा में जिस देश पर सबसे ज्यादा नजर थी, वह था फलस्तीन। फलस्तीन विवाद एक ऐसा मसला है, जिससे पश्चिम एशिया लगातार जूझता रहा है। इसने वहां जंगी माहौल तक बनाया है। हालांकि संयुक्त राष्ट्र ने अपने एक प्रस्ताव में ‘टू स्टेट सॉल्यूशन’ (द्वि-राष्ट्र समाधान) की व्यवस्था की है, पर यह रास्ता भी अब तक मंजिल नहीं पा सका है। ऐसे में, भारत के आगे बढ़ने से इस मसले का समाधान हो सकता है। भारत कितना प्रभावी हो सकता है, प्रधानमंत्री मोदी के रामल्ला जाने के लिए जॉर्डन की सरकार का हेलीकॉप्टर देना और सुरक्षा का जिम्मा इजरायली वायु सेना द्वारा निभाना इसका नमूना मात्र है। फलस्तीन के साथ हमारे अरसे से नजदीकी रिश्ते रहे हैं। संभवत: इसीलिए प्रधानमंत्री मोदी के फलस्तीन पहुंचने से पहले ही राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने कहा कि भारत इस मसले को हल करने में अपनी भागीदारी निभाए।
भारत की तरफ उम्मीद भरी नजरों से देखने की वजह भी है। अभी पश्चिम एशिया एक नए माहौल से गुजर रहा है। अमेरिका ने अपने पत्ते खोल दिए हैं और यरुशलम को इजरायल की राजधानी के रूप में मान्यता दे दी है। जबकि पहले यही माना जाता था कि अमेरिका भी ‘टू स्टेट सॉल्यूशन’ का हिमायती है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की घोषणा से अरब देशों में हलचल स्वाभाविक थी। मुश्किल यह भी है कि अरब देशों का भरोसा ईरान से डिगा हुआ है। लिहाजा वे चाहते हैं कि किसी तरह इजरायल को साथ लेकर फलस्तीन से विवाद निपटा लिया जाए। चूंकि इजरायल व फलस्तीन, दोनों देशों में भारत को पर्याप्त सम्मान मिलता रहा है, इसलिए प्रधानमंत्री मोदी की पहल बिल्कुल सटीक समय पर सामने आई है।फलस्तीन पहुंचने वाले मोदी भारत के पहले प्रधानमंत्री हैं। उनका दौरा यह भी तस्दीक करता है कि भारत अब नेतृत्व की भूमिका में आगे बढ़ चुका है। अब तक तो यही होता रहा है कि ऐसे मसलों पर भारत तटस्थ रहता था और गुटनिरपेक्ष आंदोलन के मंच से हल निकालने को उत्सुक रहता था। मगर अब ऐसा लग रहा है कि भारत अपने बूते दुनिया भर में समर्थन जुटाने में सक्षम है। विवादित मसलों पर वह अपनी राय खुलकर जाहिर करने लगा है। इसका मतलब यह नहीं कि गुटनिरपेक्ष देशों के मंच को हमने किनारे कर दिया है। उसे तो अब भी पर्याप्त तवज्जो दी जा रही है। मगर नरेंद्र मोदी की ताजा यात्रा बता रही है कि भारत अब अगुवा की भूमिका में आने को तैयार है।
हालांकि फलस्तीन मसले का हल इतना आसान भी नहीं। जिस किसी देश ने इसमें हाथ डाला है, उसके हाथ झुलसे ही हैं। लिहाजा भारत को भी संभलकर आगे बढ़ना होगा। हमारे हक में एक बात और है। कई देश चाहते हैं कि भारत इस भूमिका में सामने आए। यानी भारत ने अपने तईं प्रयास किया, तो उसे अन्य मुल्क भी हाथोंहाथ लेंगे। इस समर्थन का एक पक्ष आतंकवाद भी है। दुनिया भर में यह एक बड़ी चुनौती बनकर उभरा है। चूंकि इससे निपटने का नई दिल्ली के पास करीबी व गहरा अनुभव है, और इसके लिए हमारी सराहना होती रही है, इसलिए संभव है कि आतंकवाद के खिलाफ जंग में भी भारत वैश्विक मंचों पर खास भूमिका में नजर आए। अब देखना सिर्फ इतना है कि भारत कितनी मजबूती के साथ आगे बढ़ता है? हालांकि अच्छी बात है कि हमारी सरकार इन तमाम पहलुओं को समझ रही है और इस मोर्चे पर खरी भी उतर रही है।
Woods and trees
We must review the strategy to revive forests, and move away from monoculture plantations.
EDITORIAL
The Environment Ministry’s ‘India State of Forest Report 2017’ based on satellite imagery, may present a net positive balance in the form of 24.4% of India’s land area under some form of forest or tree cover, but this is but a broad-brush assessment. According to the report, forest and tree cover together registered a 1% rise over the previous estimate two years ago. However, such an estimate listing very dense, moderately dense, open and scrub forests mapped through remote sensing does not really provide deep insights into the integrity of the green areas. The emphasis in environmental policy to raise forest cover to 33% of the geographical area will yield some dividends. There has been an increase over the baseline cover of 20% at the turn of the century. Yet, tree cover is not the same as having biodiverse, old-growth forests. The ecosystem services performed by plantations that have a lot of trees grown for commercial purposes cannot be equated with those of an undisturbed assemblage of plants, trees and animals. India may be endowed with 16 major forest types, and 221 types and sub-types based on the Champion and Seth classification, but retains very little of its ancient forests after centuries of pre-colonial and colonial exploitation. Latter-day development pressures are also taking their toll. Forest restoration should, therefore, aid the return of native vegetation.
In its audit of various regions, the Ministry’s report has calculated a cumulative loss of forests in Mizoram, Nagaland and Arunachal of nearly 1,200 sq km. The impact of such a terrible loss must be seen against the backdrop of the Northeast representing a global biodiversity hotspot. Any gains achieved through remediation programmes in Odisha, Assam, Telangana, Rajasthan, Himachal Pradesh, Uttar Pradesh, Jammu and Kashmir and Manipur cannot compensate for it adequately. Naturally, environmental economists have come to regard the calculation of national accounts of wealth and development as weak, because governments do not add the benefits of functions such as flood control and climate moderation to the value of forests. Such a failure erodes the gains made by many communities, because lost natural capital contributes to material losses. India must review the programmes that it has been pursuing to revive forests, and move away from monoculture plantations that are favoured by even forest development corporations in many States. Scientific reforms to bring true nature back are needed. The latest assessment categorises more than 300,000 sq km of area as open forests with a tree canopy of 10-40%. These lands provide the opportunity to bring back diverse, indigenous trees. Such a measure, combined with a policy against allowing open cast mining, can bring about a renaissance. Dedicated efforts will be required to protect the precious forests of the Northeast.