14-10-2019 (Important News Clippings)
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Date:14-10-19
भारत-चीन दोस्ती का नया दौर
संजय गुप्त , ( लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं )
तमिलनाडु के मामल्लपुरम में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग के बीच अनौपचारिक वार्ता के दूसरे दौर ने यही बताया कि दोनों देश फिलहाल मतभेद वाले मसले छोड़कर आगे बढ़ने के लिए तैयार हैैं। मौजूदा स्थितियों में यही उचित है, लेकिन ऐसे मसलों को सुलझाए बगैर भरोसे के साथ आगे बढ़ते रहना संभव नहीं। सच तो यह है कि इन मसलों को सुलझाकर ही आपसी भरोसे की कमी को दूर किया जा सकता है।
वुहान के बाद मामल्लपुरम में हुई अनौपचारिक बैठक की खास बात यह रही कि उसमें कश्मीर का मुद्दा नहीं उठा। इसका महत्व इसलिए है, क्योंकि जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 खत्म करने के भारत के फैसले पर चीन ने न केवल एतराज जताया था, बल्कि इस मसले को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भी ले गया। यही नहीं बीते दिनों जब पाकिस्तानी पीएम इमरान खान सेना प्रमुख बाजवा के साथ बीजिंग पहुंचे तो चीन ने कश्मीर पर नजर रखने की बात कहते हुए उसका समाधान संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के अनुरूप करने की बात कही। इसके एक दिन पहले ही उसने कहा था कि भारत-पाक को कश्मीर का समाधान मिलकर करना चाहिए।
इस माहौल में इसका अंदेशा था कि चीन मामल्लपुरम में कश्मीर राग छेड़ सकता है, लेकिन ऐसा नहीं हुआ तो इसका मतलब यही है कि चीन जानता था कि भारत क्या चाहता है? उसे यह भी आभास होगा कि कश्मीर मसला उठाने के क्या नतीजे हो सकते हैं?
मामल्लपुरम में दोनों देशों के नेताओं के बीच विभिन्न मसलों पर करीब छह घंटे बात हुई। दरअसल अनौपचारिक वार्ता में नेता किसी भी विषय पर बात करने के लिए स्वतंत्र होते हैं। उनके पास ऐसा कोई एजेंडा नहीं होता जिसके हिसाब से बात करना आवश्यक हो। दोनों देशों के बीच वुहान में जब अनौपचारिक वार्ता हुई थी उस समय भारत-चीन डोकलाम विवाद से उबरे ही थे। तब कयास लगाए गए थे कि वुहान में डोकलाम की छाया गहरी रहेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और दोनों नेताओं ने आपसी मसलों पर खुलकर वार्ता की। मामल्लपुरम में भी ऐसा ही हुआ।
यहां दोनों नेताओं ने व्यक्तिगत संबंधों को नई ऊंचाई देने की कोशिश की और साथ ही आतंकवाद, कट्टरता, व्यापार, निवेश आदि मसलों पर बात की। इसके अलावा दोनों देशों के लोगों में संपर्क-संवाद बढ़ाने की जरूरत जताई। इसके बावजूद इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि भारत में चीन के रुख को लेकर आशंका बनी रहती है। इसके पीछे कुछ ठोस कारण हैैं। 1962 में उसके साथ हुए युद्ध की कड़वी यादें अभी भुलाई नहीं जा सकी हैैं। इसकी वजह यह भी है कि चीन अपने विस्तारवादी रवैये का प्रदर्शन करता रहता है। वह आर्थिक महाशक्ति बनने के बाद खुद को एक सैन्य महाशक्ति के तौर पर स्थापित करने में जुटा है। वह भारत की घेरेबंदी करने के साथ पाकिस्तान को भारतीय हितों के खिलाफ इस्तेमाल करने की कोशिश भी कर रहा है।
मामल्लपुरम में बातचीत संतोषजनक रहने के बाद भी यह कहना कठिन है कि चीन पाकिस्तान का भारत के खिलाफ इस्तेमाल करना छोड़ेगा। चीन पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में जो आर्थिक गलियारा बना रहा है वह भारत की संप्रभुता का खुला उल्लंघन है। चीन अरब सागर तक अपनी पहुंच आसान बनाने के लिए इस गलियारे का निर्माण कर रहा है, लेकिन इसकी अनदेखी कर रहा कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर भारत का हिस्सा है। चीन यह जानते हुए भी पाकिस्तान के साथ खड़े रहने को तैयार है कि वह भारत में आतंक फैलाने में लगा हुआ है। चीन कश्मीर पर पाकिस्तानपरस्ती दिखाने के साथ जब-तब अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा करता रहता है। इसी तरह का दावा वह लद्दाख पर भी करता है, लेकिन वह अक्साई चिन पर भारत के दावे को और साथ ही मकमहोन सीमा रेखा को महत्व देने को तैयार नहीं। वह सीमा विवाद सुलझाने का भी इच्छुक नहीं दिखता।यह अच्छी बात है कि सीमा विवाद के बाद भी बीते 40 वर्षों से सीमा पर कोई गोली नहीं चली। मामल्लपुरम में दोनों देशों के बीच सीमा पर होने वाले तनाव को टालने पर सहमति बनी, लेकिन बात तब बनेगी जब इसके अनुकूल नतीजे भी सामने आएंगे।
चीन के साथ कारोबारी रिश्तों पर बात होनी आवश्यक थी, क्योंकि आपसी व्यापार का पलड़ा चीन के पक्ष में अधिक झुका है। चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा करीब 55 अरब डॉलर है। मामल्लपुरम में दोनों देश व्यापार और निवेश पर चर्चा के लिए एक नए तंत्र की स्थापना करने और उन सेक्टरों की पहचान करने को तैयार हुए जहां निवेश किया जा सकता है। चीन ने भारतीय कारोबारियों को निवेश का निमंत्रण भी दिया। दरअसल अमेरिका से तनातनी के चलते अमेरिकी कंपनियां वहां से अपना कारोबार समेटने के लिए तैयार हैं। यह चीन के लिए खतरे की घंटी है, क्योंकि उसकी विकास दर भी घट रही है।
कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि चीनी अर्थव्यवस्था अगले कुछ सालों में डगमगा सकती है। ऐसे में चीन का भारत की ओर देखना स्वाभाविक है। चीन को यह समझना चाहिए कि भारत के साथ कारोबारी और सामाजिक-सांस्कृतिक रिश्तों को नई दिशा देना उसके अपने हित में है। भारत और चीन न केवल क्षेत्र और आबादी के लिहाज से बड़े देश हैं, बल्कि दोनों व्यापक विविधता और प्राचीन संस्कृति वाले देश भी हैं। भारतीय प्रधानमंत्री ने यह सही कहा कि पिछले दो हजार साल में अधिकांश समय भारत-चीन आर्थिक महाशक्ति रहे हैं और वर्तमान सदी में भी दोनों देश इस स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं।
मामल्लपुरम में आतंकवाद के बढ़ते खतरे पर बात होना पाकिस्तान के लिए नसीहत है, लेकिन आखिर चीन इसकी अनदेखी कैसे कर सकता है कि वहां की राजनीति तो आतंकवाद और कट्टरपंथ की धुरी पर ही घूमती है। चीन अपने यहां के उइगर मुसलमानों पर इसी बहाने सख्ती कर रहा है कि वे आतंकवाद के रास्ते पर न जाने पाएं। कश्मीर पर नजर रखने की बात करने वाले चीन को यह पता होना चाहिए कि हांगकांग और तिब्बत के मसले उसकी कमजोर कड़ी हैं। उसे कश्मीर पर कुछ कहने से पहले अपने गिरेबां में झांकना चाहिए। इसके साथ ही उसे यह भी पता होना चाहिए कि भारत वैसा देश नहीं जिसे निर्देशित किया जा सके।
वास्तव में यह चीन की जिम्मेदारी है कि वह भारत की चिंताओं को समझे। इससे ही दोनों देशों के रिश्ते मजबूत हो सकते हैं। देखना है कि चीन भारत की चिंताओं का समाधान करने के लिए आगे आता है या नहीं? चीन को इस पर आत्मचिंतन करना होगा कि आखिर वह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारतीय हितों के खिलाफ अपनी वीटो पावर का इस्तेमाल क्यों करता रहा और इससे उसे बदनामी के सिवाय और क्या मिला? आज जब 21वीं सदी एशिया की सदी मानी जा रही है तब उचित यही है कि भारत-चीन मिलकर काम करें। ऐसा करके वे अपने हितों की रक्षा करने के साथ ही विश्व को भी दिशा दिखा सकते हैैं।
Date:14-10-19
आगे की राह
संपादकीय
मामल्लपुरम (महाबलीपुरम) में चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अनौपचारिक शिखर बैठक से भारत और चीन के रिश्तों में अहम बदलाव की आशा करना अतिरंजना था। वुहान में सन 2018 में हुई मुलाकात के बाद यह दूसरा अवसर था जब दोनों नेता इस तरह मिले। कश्मीर को लेकर तनाव, यात्रा से ऐन पहले अरुणाचल प्रदेश में सैन्य कवायद, एक बेल्ट-एक रोड पहल और भारत यात्रा के ऐन पहले पाकिस्तान और बाद में नेपाल के नेताओं से चिनफिंग की मुलाकात बताती है कि इस मुलाकात से ऐसा कुछ हासिल नहीं होना था जो दोनों देशों के लिए बहुत अहम हो। परंतु इस दो दिवसीय आयोजन से तीन संकेत निकलते हैं जो बताते हैं कि रिश्तों में संतुलन कायम हो रहा है, आगे की राह नजर आ रही है। पहला संकेत कूटनीतिक है। अगर इस बैठक से कुछ अहम लाभ हासिल करना मुश्किल था तो इस तथ्य पर जोर दिया जाना चाहिए कि विभिन्न मतभेदों को भी बढऩे नहीं दिया गया। वह भी तब जब महज महीने भर पहले संयुक्त राष्ट्र महासभा में कुछ आक्रामकता नजर आई थी। ऐसा मोटे तौर पर इसलिए हुआ क्योंकि राष्ट्रपति चिनफिंग और प्रधानमंत्री मोदी का आपसी तालमेल बहुत अच्छा है।
मामल्लपुरम से यह संकेत निकला कि वे आपसी रिश्ते को महत्त्व देते हैं। दूसरा आश्वस्त करने वाला संकेत था व्यापारिक रिश्तों पर जोर और आर्थिक और व्यापारिक बातचीत के लिए मंत्रिस्तरीय व्यवस्था का गठन। इस वार्ता का नेतृत्व चीन के उप-प्रधानमंत्री और भारत के वित्त मंत्री करेंगे। इससे दोनों देशों के व्यापारिक असंतुलन को हल करने में मदद मिलेगी। चीन के साथ भारत का वार्षिक व्यापार घाटा 50 अरब डॉलर से अधिक है। बातचीत के जरिये आपसी निवेश और साझा विनिर्माण साझेदारी वाले क्षेत्र चिह्नित किए जाएंगे। चीन ने क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसीईपी) मुक्त व्यापार समझौते को लेकर भारत की चिंताओं को भी माना है और इससे भी मदद मिली है। भारत के नजरिये से देखें तो चीन आरसीईपी पर हस्ताक्षर की राह में प्रमुख बाधा है। चीन और भारत अब इन चिंताओं पर बातचीत को तैयार हैं जो चीन के सहज रुख को दर्शाता है। तीसरी और शायद सबसे अहम बात यह है कि बैठक में सीमा संबंधी मसलों को लेकर 2005 में तय दो प्रमुख सिद्धांतों को दोहराया गया। भारत की दृष्टि से दोनों अहम हैं। एक, बड़ी भौगोलिक विशिष्टताओं को सीमा का विभाजक मानना और दूसरा बसी हुई आबादी के हितों को ध्यान में रखना (सीमावर्ती कस्बे तवांग के लोगों के लिए अहम)। इससे पहले चीन के नेता इन सिद्धांतों से पीछे हट गए थे। ऐसे में मामल्लपुरम में उनका दोहराया जाना अहम है।
चीन द्वारा बार-बार भारत के पारंपरिक भू-राजनैतिक साझेदार नेपाल को धन और निवेश प्रस्ताव देना, दर्शाता है कि वह दक्षिण एशिया में अपने भू-राजनैतिक दखल के प्रयास कम नहीं करने वाला। न्यूयॉर्क में गत माह जापान, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका और भारत के विदेश मंत्रियों की बैठक (एशिया प्रशांत क्षेत्र में चीन को संतुलित करने के लिए) के साथ रखकर देखें तो यह स्पष्ट है कि इस द्विपक्षीय रिश्ते में दोनों में से कोई देश पीछे हटने को तैयार नहीं है।
भारत के लिए राहत की बात थी कि इस चर्चा में कश्मीर का मुद्दा नहीं उछला। इसके बजाय चिनफिंग ने मोदी को पाकिस्तानी प्रधानमंत्री की 8 अक्टूबर की पेइचिंग यात्रा के बारे में जानकारी दी। परंतु सबसे अहम बात यह है कि वुहान में हुई पिछली मुलाकात की तरह मामल्लपुरम में हुई अनौपचारिक मुलाकात ने एक बार फिर संवाद और संचार की महत्ता को रेखांकित किया है। मोदी ने अगले वर्ष तीसरी बैठक के चिनफिंग के न्योते को स्वीकार कर लिया है। उस लिहाज से देखें तो मामल्लपुरम ने दोनों देशों के रिश्ते को आगे बढ़ाने का काम किया है।
Date:14-10-19
Civilizational Chennai connect
As Modi and Xi meet at a heritage site, can the past point the way to the future?
Srikanth Kondapalli , [ The writer is professor in Chinese Studies , JNU ]
If the first informal summit meeting at Wuhan between Prime Minister Narendra Modi and President Xi Jinping, held in April 2018, was to showcase the industrial hubs in the central Chinese city of Wuhan, the second such meeting at an Unesco heritage site will go down in history to remind China of not only the continuous civilizational resilience of India but also a shift in geo-political and geo-economic activity towards the Indo-Pacific region.
Firstly, Modi was sending a subtle message to Xi at the Mamallapuram temple complex. The Pallavas and Cholas who ruled the area, expanded their empires into Southeast Asia, refined the cultural traditions and enhanced trade. No land in the region was ever claimed by Indian rulers, unlike the 3.5 million sq km of South China Sea now under intense militarisation by China citing “historical claims”.
Secondly, Modi was highlighting the long tradition of literature, culture and trade exchanges between Indian civilisation with those of the east, living in harmony for centuries, unlike China that is not only occupying a portion of Kashmir but dividing India’s civilizational map through its “all weather” ties to Pakistan. As Pakistan gets sucked increasingly into the vortex of China’s “community of common destiny”, the Mamallapuram outing offers some issues to ponder.
It’s only recently that China’s leaders claimed that the country’s rise is not intended to acquire hegemony, that they will not acquire bases abroad nor keep their armed boots abroad. On the other hand, China began its operations at Djibouti base, even as it began refurbishing Hambantota and Gwadar ports. Hambantota was taken away from debt stricken Sri Lanka on a 99 year lease, reminiscent of the Hong Kong lease to Britain at the end of the Opium Wars.
Thirdly, on an “internal matter” of India, only a few days and weeks ago, China had gone to the United Nations Security Council for “back door negotiations” on how India is handling the Kashmir issue. Nothing came of it. Foreign Minister Wang Yi went to the UN General Assembly stating China’s new found mantra on not changing the “status quo” in Kashmir, forgetting that China’s $62 billion in investments and positioning of security guards in Pakistan occupied Kashmir are transforming the ground reality substantially.
During Prime Minister Imran Khan’s visit to China a day before Xi travelled to Chennai, both again reiterated that bonhomie. Surprisingly, as Foreign Secretary Vijay Gokhale stated after the informal summit meeting, Kashmir issue was never raised by the Chinese side in the talks. Instead, both reiterated their opposition to all forms of terrorism.
Fourthly, choosing the southern Indian maritime city on the shores of Bay of Bengal as the venue and the “Chennai connect” is in line with the Act East policy launched in 2015. Modi’s speech at Shangri-La dialogue in June 2018 set the tone for an “inclusive” architecture for the Indo-Pacific region, provided aspirant countries uphold openness, rule of law, freedom of navigation and overflight.
The Modi-Xi meeting decided to further the maritime links between the two countries, without endorsing China’s Maritime Silk Road. As the Indian statement, issued at the end of the meeting, stated, Tamil Nadu and Fujian province are chosen for sister state links, in addition to establishing an academy to study links between Mamallapuram and Fujian.
Quanzhou city in Fujian boasts of such links with a thriving community of sea-farers, temple architecture with granite rock imported lock, stock barrel from south India. The maritime museum at Quanzhou has replicas of ships used by Ming dynasty eunuch Zheng He who led seven expeditions as far as Africa and made Ceylon, among others, a tributary. Instead of an abrupt and aggressive posturing through Chinese submarine visits to the Indian Ocean, the second informal summit meeting provides scope for a gradualist step-by-step exploration of the maritime domains.
Fifthly, while China has been put on notice by Trump administration official Kiron Skinner on a possible “clash of civilisations” India, on the other hand, has been comfortable in projecting its cultural heritage abroad. The cultural shows at Houston, C3 (commerce, connect and culture) as a part of the Act East policy towards Southeast Asia, and renewing cultural linkages with the Indian Ocean states under Project Mausam are gaining ground. These will be further strengthened as a part of the Sagarmala initiative.
Sixthly, relative decline in growth rates in China as a result of the on-going and stifling tariff wars with the United States has led to a gradual re-location of manufacturing units to other regions in the Indo-Pacific taking advantage of labour wage differentials. Southeast Asian countries like Vietnam and Indonesia are the initial beneficiaries of these relocations. But there are also prospects for India in the coming years. The declaration from foreign secretary Gokhale that a high-level committee under finance minister Nirmala Sitharaman and Vice Premier Hu Chunhua to look into trade and investments is in this direction as well. We will have to wait and see what happens as previous promises from China for $20 billion investment in India never materialised.
Date:13-10-19
Sorry Greta, India needs more coal to power growth
Swaminathan S Anklesaria Aiyar
Greta Thunberg, the 16-year old Swedish girl who lectured the United Nations on climate change, is being touted as a possible Nobel Prize winner. She believes she and her white Swedish teenage friends have to save the world from us terrible oldies who created the oil and coal industries.
She will be appalled by the plea of India’s coal secretary, Subhash Chandra Garg, that India must urgently expand its coal production from 600 million tonnes a year to a billion tonnes per year to meet basic energy needs. Yet Garg is right. Thunberg made headlines by sailing to the US in a solar-powered-ship to avoid using fuel oil. Does she have any idea of the enormous electricity used to produce the solar cells in her ship?
India is a lower middle income country. Sweden is among the richest. Despite the green sermons, Sweden’s annual per capita carbon emissions are 4.5 metric tonnes, higher than India (1.7 metric tonnes), Pakistan (0.9 metric tonnes) or Bangladesh (0.5 metric tonnes). South Asians can double their carbon emissions without matching Sweden’s prodigality.
Widespread activist attempts to stop all oil and coal production are hypocritical. A total switch to solar and wind energy is impossible since these are produced only intermittently when the sun shines and wind blows, maybe 25% of the year on an average. For the rest of the time, India needs coal-based electricity. Maybe new electric storage technology will ultimately change that, but today India needs massive coal expansion for thermal power.
Current carbon emissions are just the tip of the iceberg. More than 90% of historical carbon emissions since the industrial revolution are the cumulative emissions of rich western countries and Japan. The share of developing countries, including India, is a tiny fraction. Sorry Greta, the problem is not that grown-ups like me have ruined your future but that rich Swedes are still emitting more carbon than coal-using Indians.
Economist Kirit Parikh once framed India’s policy as being “we will never emit more carbon per capita than the West”. This would allow India to raise its emissions six-fold or more without being worse than others. Modi has embraced renewables massively. Even so, for round-the-clock power, India will have to create much more coal-based capacity. If the West develops viable carbon-capture technologies, India will happily adopt those.
The greatest carbon emitters are small oil producers and island economies, led by Qatar (43.9 metric tonnes). Of the industrialised countries, the USA is easily the biggest emitter (16.5 metric tonnes) followed by Australia (15.4 metric tonnes), Canada (15.2 metric tonnes), Russia (11.9 metric tonnes), Japan (9.5 metric tonnes) and Germany (8.9 metric tonnes).
Coal India Ltd is a truly third-rate coal producer. Despite Modi’s rah-rah talk of renewables, imports of thermal coal in 2018 grew at a record 19% to 172 million tonnes. This is insane because India has the third largest coal reserves in the world. For India to be importing coal is like Kuwait to be importing oil. It is crazy.
India nationalised coal in the 1970s in the belief that the public sector would optimise coal production. What a hope! In underground mines, India’s output per man shift (OMS) is a pathetic 0.8 tonnes against no less than 40 tonnes in Australia. In open cast mines, India has improved recently from an OMS of 8.6 tonnes in 2007-08 to 16.6 tonnes in 2017-18, but this is still way behind Australia’s best (75 tonnes). Enough said.
Political parties have over the years slowly and reluctantly, chipped away at Coal India’s monopoly. First private production was allowed but only for captive consumption. Last year, full commercial mining was allowed, but no auctions took place. Earlier, foreign companies were allowed only a 25% stake in coal, but finally in August 100% FDI was allowed by the automatic route.
Is this too late? Globally, coal mining giants are under fire by activist investors and NGOs, and some are selling coal assets. The World Bank and some other financiers will not finance coal mines. But Indian banks will. India is one of the few countries where coal still has a big future for at least a decade or two.
Garg argues, rightly, for auctioning massive world-sized coal blocks, not the small ones of past years. Environmental and tribal clearance, plus railway links, must be obtained in advance, so that projects do not stall halfway. This requires a sea-change in culture that is absolutely necessary. India may one day become the world’s biggest solar energy producer but needs to underpin that with thermal power.
Date:12-10-19
Green versus green
On Aarey, a plea to Mumbaikars to give precedence to long-term benefits of Metro
Savio Rodrigues , [The writer is Founder & Editor-in-Chief, GoaChronicle.com and IndianExpose.com. He is also a social entrepreneur and an environmental rights activist]
Mumbai is clearly divided over the Aarey Depot issue. On one side, there are citizens who believe that pollution in Mumbai has reached devastating levels with resultant impact on the health of the common Mumbaikar. So, we need to have a robust public transport system, the Mumbai Metro, to ease dependency on vehicular transportation. Their belief is that reduction in vehicular traffic will improve the city’s environmental conditions. On the other side, we have citizens who believe that the felling of trees at the Aarey Milk Depot site will further deteriorate the environmental conditions in Mumbai because the city needs to retain its green cover.
To be honest, both groups are logical, both love Mumbai and both are environmentally conscious. To the people of Mumbai, the toughest decision is to be able to balance the long-term environmental benefits with the short-term environmental gains.
The Mumbai Metro Rail Corporation Limited (MMRCL) has felled 2,141 trees. It was granted this permission by the Tree Authority; this permission was challenged at the Bombay High Court. The court dismissed the petition and allowed MMRCL to proceed with its scheduled work on the project. The protestors leading one group of concerned citizens approached the Supreme Court, which has ordered a status quo on the cutting off trees.
I have studied the Mumbai Metro Line -3 (MML-3) project over the last several weeks and have come to understand that MML-3 will carry 17 lakh passengers every day and thereby removing 6.5 lakh vehicle trips off the road, which will, in turn, reduce 2.61 lakh tonnes of CO2 pollution every year. If the same amount of pollution is to be reduced just by planting trees, Mumbai would need more than two crore trees, for which there is no space in the city.
Mumbai is so polluted due to the large number of vehicles in the city. In my understanding, the temporary strain on the environment caused by cutting 2,141 trees at Aarey Milk Colony in terms of CO2 sequestration, will be compensated just by four days of Metro Line 3 operations. The damage envisaged over the trees’ lifetime will be compensated by 80 days operations.
The MMRCL in its communication has stated that it has adopted sustainable mitigation measures for the temporary environmental strain the project might cause. It has planted 14,346 trees with 6”x 12” girth and 12-15 feet height of native variety and also planted 9,500 trees as per the Forest Department norms under CSR. A total 23,846 trees have been planted at different locations, including the degraded areas of Borivali National Park. The trees are of native varieties like Sita Ashok, Kadamb, Arjun and Kanchan. The MMRCL reportedly intends to plant 3,000 more trees and is in discussion with the Maharashtra government to find suitable land to plant these trees.
Every day, at least 10 people die on suburban rail tracks either because of trespassing or by falling from crowded trains. About the same number of people get injured. The loss of 3,500-4,000 lives every year for the past many years has been a matter of great concern for India’s financial capital.
Many families have been devastated by the untimely death of their bread earner in such mishaps. Precious lives can be saved only if there is a substantial capacity expansion of rail-based public transport, the Metro. The entire Metro network, I understand, will have the capacity to carry more than one crore passengers by 2041. This would lead to a safer commute on suburban trains as well.
Metro Line-3 will be the most important and efficient corridor of the Mumbai Metro network. It has a huge potential to provide Mumbaikars a safer, more comfortable and reliable mode of transport.
Tree cutting may cause temporary strain to the environment but the benefits of Metro-3 in terms of reduction in pollution, reduction in traffic congestion and saving of lives substantially outweigh this environmental strain.
As a former resident of Mumbai, and someone who travels to Mumbai quite often on work, I am clear that Mumbai needs a robust transport system such as the Metro. I am emotional about the issue, every Mumbaikar would be. But being emotional cannot make us blind to the truth about the dual need of the MML-3: To save the environment and save lives.
Shifting the Metro Aarey Depot is not only illogical at this point of time but also financially unviable. It will also not meet the deadline of the Metro’s commencement of operations. The MML-3 project is registered with the United Nations Framework for Climate Change under the Clean Development Mechanism. That gives me confidence that MML-3 project will walk the path of environmental sensitivities and sustainable development.
I appeal to all Mumbaikars. Let’s come together to make Mumbai greener with a robust and ecological sound transport system project.
Date:12-10-19
अबी अहमद को नोबेल
संपादकीय
अगर किसी बहुत बडे़ समाजसेवी के खाते में न जाए, तो नोबेल शांति पुरस्कार अक्सर विवाद में आ जाता है। उस समय तो यह विवाद सबसे ज्यादा होता है, जब पुरस्कार राजनीतिक कारणों से दिया गया हो या फिर किसी सक्रिय राजनीतिज्ञ को इससे सम्मनित किया गया हो। लेकिन इथियोपिया के प्रधानमंत्री अबी अहमद अली को दिए गए इस साल के नोबेल शांति पुरस्कार से शायद ऐसे विवाद चस्पां नहीं होंगे। 43 वर्षीय अबी अहमद के पास जो उपलब्धियां हैं, वे उनकी उम्र से कहीं ज्यादा बड़ी हैं। नौ साल पहले उन्होंने राजनीति में कदम रखा था और महज आठ साल के भीतर वह इस पिछड़े, गरीब और जातीय युद्ध में उलझे अफ्रीकी देश के प्रधानमंत्री बन गए। पिछले वर्ष जब उन्होंने प्रधानमंत्री पद संभाला, तो दशकों से अजीबोगरीब जटिलता वाले गृह युद्ध में फंसे इथियोपिया के लिए वह लोकतंत्र का एक आश्वासन बनकर आए। बदलाव के लिए उन्होंने ‘हथियार नहीं, विचार’ का जो नारा दिया, उसने सभी जातीय समूहों को आकर्षित किया। हालांकि खुद अपने जीवन की शुरुआत उन्होंने सरकार के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध लड़ रहे संगठन के सैनिक के रूप में की थी। लोकतंत्र के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का सबसे बड़ा उदाहरण तब मिला, जब उन्होंने न सिर्फ सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा कर दिया, बल्कि 18 महीनों तक इथियोपिया की जेल में रहने के बाद अमेरिका में निर्वासित जीवन बिता रहीं लोकतंत्र समर्थक इथियोपियाई नेता बिरटुकन मिडेस्का को न सिर्फ वापस बुलाया, बल्कि उन्हें चुनाव आयोग का अध्यक्ष भी बनाया।
अबी अहमद ने न सिर्फ अपने देश के विभिन्न जातीय समूहों को साथ लेने की कोशिश की, बल्कि पड़ोसी देशों से भी रिश्ते सुधारे। एरिट्रिया और इथियोपिया का आपसी झगड़ा दो दशक से ज्यादा पुराना था, जो लगातार उलझता रहा। अबी ने इस झगडे़ पर विराम लगाकर रिश्तों को सामान्य बनाने की पहल की। इसके लिए जिस सीमावर्ती कस्बे को लेकर दोनों देशों में विवाद था, उसे उन्होंने एरिट्रिया के हवाले कर दिया। यही नहीं, दोनों देशों के बीच की सीमाओं को भी खोल दिया गया। यह सचमुच जैसा काम है, वैसा हाल-फिलहाल का कोई दूसरा उदाहरण हमारे सामने नहीं है। अबी अहमद को इस वर्ष का नोबेल शांति पुरस्कार इसीलिए दिया गया है।
देश के भीतर और बाहर के तनावों को कम करने का सीधा फायदा भी इथियोपिया को मिला। वे संसाधन, जो तमाम झगड़ों में खर्च हो रहे थे, विकास के लिए उपलब्ध हो गए। इसके साथ ही अबी अहमद ने पिछली माक्र्सवादी सरकार की अर्थव्यवस्था को बदला। न सिर्फ निजीकरण का दौर शुरू किया, बल्कि उदारवाद को व्यापक स्तर पर विस्तार दिया। परिणामस्वरूप, इस समय इथियोपिया की गिनती दुनिया की सबसे तेजी से विकास कर रही अर्थव्यवस्थाओं में होने लगी है। हालांकि यह भी सच है कि बदहाली ने अभी भी इस देश का पीछा नहीं छोड़ा है और वहां बेरोजगारों की एक बड़ी फौज है, जो कभी भी किसी राजनीतिक संकट का कारण बन सकती है। तमाम अफ्रीकी देशों की तरह इथियोपिया में भी बदहाली की जड़ें काफी गहरी हैं, इसलिए हल आसान नहीं है। पर अनिश्चय के इसी सूखे के बीच अबी अहमद अली एक उम्मीद भरे बादल के रूप में सामने आए हैं। क्या बाकी दुनिया, खासकर अफ्रीका के अन्य देश उनसे कोई सबक लेंगे?