14-05-2018 (Important News Clippings)
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Date:14-05-18
More than one Mother’s Day
Time to further reduce maternal mortality rate
Bjorn Lomborg & Manorama Bakshi, (Lomborg is president, Copenhagen Consensus Centre, and Bakshi is senior adviser, India Consensus)
Life expectancy in India has increased almost four years in the last decade. Every 24 hours, India added more than nine hours to the life of a newborn — thereby ‘allowing’ a baby born today four more years of life. To a large extent, this progress is due to substantial reductions in infant and maternal mortality, dropping a quarter and a third over the last decade. Yet, India can do better. It ranks 145th out of 193 nations on infant mortality, and 129 of 184 nations on maternal mortality, according to the World Bank. New research by US India Policy Institute’s Abusaleh Shariff and People Research on India’s Consumer Economy’s Amit Sharma shows smart next steps for Rajasthan (goo.gl/4Z9mFr) and Andhra Pradesh
In 2005, the ministry of health and family welfare launched the Janani Suraksha Yojana (JSY), or Maternity Benefit Scheme. In addition to federal programmes, Rajasthan’s ANM Samvad (auxiliary nurse midwife dialogue) strengthens health staff capacity in delivering antenatal care (ANC), while Rashtriya Kishor Swasthya Karyakram focuses on adolescent health and improving nutritional status. Partnerships and Opportunities to Strengthen and Harmonise Actions for Nutrition (POSHAN) aims at community-based management of malnourished children. Shariff examines enhancing the successful JSY, which has worked at improving uptake, with 39% of Rajasthan pregnant mothers now making at least four ANC visits. Shariff suggests providing an incentive of Rs 2,000 to each mother. This could boost uptake to 61%. The total cost for Rajasthan is Rs 229 crore, with Rs 174 crore being cash incentives. The remainder is higher costs to the healthsystem and private costs to mothers.
This could reduce neonatal mortality by 8 per 1,000 live births, based on similar programmes, saving 2,764 infant lives in Rajasthan annually. If replicated nationally, analysis by Copenhagen Consensus suggests it could bring India 19 places ahead in the global infant mortality ranking. The new research uses cost-benefit analysis, which puts benefits — including health, social, environmental and economic benefits — into numbers, so policies can be compared. In this case, the benefits are estimated to be of Rs 2,086 crore annually. Every rupee achieves Rs 9 of benefits.
In Andhra Pradesh, 76% of women make at least four ANC visits. The Bhavita programme (initially ‘Maarpu’) aims to bring a quick decline in infant and maternal mortality rates and malnutrition, while the Talli-Bidda Express scheme focuses on providing safe and hygienic transportation from government facilities to homes for new mothers, babies and pregnant mothers who go for routine ANC visits. Infant and maternal mortality rates are lower than in Rajasthan, and mothers make more ANC visits. But here, too, the policy would have considerable benefits, estimated at six times the costs.
Shariff studies a breastfeeding mass media campaign, using TV advertisements and counselling. In Rajasthan, 58% of mothers exclusively breastfeed, while in Andhra Pradesh it’s 70%. Based on international evidence, a campaign could increase these to 90% and 93%, saving 12,628 infant lives in Rajasthan and 5,982 lives in Andhra Pradesh. In each state, the policy would have benefits worth around eight times the costs. By far, the most compelling case in the study is for expanding immunisation programmes in lagging districts. Just 55% of children in Rajasthan are fully vaccinated, and 65% in Andhra Pradesh. Based on a trial in Rajasthan, the study proposes setting up ‘immunisation camps’ in lagging districts, providing daal and meals worth Rs 685 to parents for vaccinating their children.
The policy would cost Rs 24 crore in Rajasthan and, if it raised the level of fully immunised children to the state average, would save 827 children annually. In Andhra Pradesh, the same policy would be cheaper at Rs 10 crore, saving 219 children. In both places, immunisation would generate benefits worth more than Rs 30 for every rupee spent. Both states, and India as a whole, inevitably have to make hard choices on where to spend limited funds. New data on costs and benefits closes evidence gaps, and helps ensure more good can be done with each rupee.
Date:14-05-18
भावनात्मक विकास
ललित गर्ग
जीवन में बौद्धिक विकास से ज्यादा जरूरी है भावनात्मक विकास। सुख-शांति हासिल करने और सफल व सार्थक जीवन जीने के लिए भावनात्मक विकास के लक्ष्य पर ध्यान देना जरूरी है ताकि हर व्यक्ति अपनी भावनाओं पर नियंत्रण कर सके। जैसे मजबूत नींव पर बहुमंजिले भवन की स्थिरता बनी रहती है वैसे ही भावना हमारे जीवन की नींव है। हमारी भावना जितनी सकारात्मक और नियंत्रित होगी, हमारा जीवन उतना ही सफल और सार्थक बनेगा। भावनाओं पर अनियंत्रण से ही जीवन लड़खड़ाने लगता है। तभी तो आए दिन जीवन में भावनात्मक समस्याएं बढ़ती हुई नजर आ रही हैं।
आपके व्यवहार में आपकी भावनाएं जैसे क्रोध,ईर्ष्या , उल्लास, खुशी, निराशा, पीड़ा-कैसे अभिव्यक्त होती हैं, इसका सीधा प्रभाव मनुष्य के अवचेतन मन पर पड़ता है। आपका व्यवहार खींचे हुए फोटो की तरह मनुष्य के अवचेतन मन में फीड हो जाता है। दूसरी बात आप क्रोध और हर्ष की स्थिति में दूसरों के साथ कैसा बर्ताव करते हैं, इसका भी प्रभाव आपके भावनात्मक विकास पर पड़ता है। आज यह मुद्दा चिंता का विषय बनता जा रहा है कि व्यक्ति का अपनी भावनाओं पर नियंत्रण नहीं है। इन्हीं स्थितियों में व्यक्ति निराशा से अपने जीवन को कुंठित कर देता है, क्योंकि वह ईष्र्या, क्रोध जैसी नकारात्मक भावनाओं का सामना नहीं कर पाता।
भावनात्मक प्रतिभा के विकसित न होने के कारण ही भावना के प्रवाह में व्यक्ति अपने को नहीं संभाल पाता। नतीजतन अनहोनी घटनाएं दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाती हैं। ये घटनाएं हमें चेतावनी देती हैं कि आधुनिक मनुष्य किस भावदशा में अपनी जिंदगी जी रहे हैं। जेटयुग में जीने वाले व्यक्ति के बौद्धिक विकास का स्तर तो अच्छी तरह बढ़ रहा है, पर भावनात्मक विकास का स्तर घट रहा है। इसके कारण उसके जीवन में एक ठहराव-सा आ जाता है। उसे क्या करना है, कैसे करना है, इस तरह की वह कोई प्लानिंग ही नहीं कर पाता। ऐसा लगता है निषेधात्मक विचारों का कुछ ज्यादा ही दबाव मनुष्य के जीवन पर आ जाता है। इस कारण वह किसी के साथ सही तरीके से न रिश्ते निभा पाता है और न ही तालमेल बिठा पाता है। तभी तो आज भावनात्मक विकास का महत्व बढ़ रहा है।
Date:13-05-18
ईरान- अमेरिका और भारत
डॉ. दिलीप चौबे
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का ईरान के साथहुए ऐतिहासिक परमाणु समझौते से एक तरफा अलग होने का फैसला नई दिल्ली-तेहरान के द्विपक्षीय संबंधों को गहरे तक प्रभावित कर सकता है। पिछले डेढ़-दो दशकों से ईरान का जो आंतरिक और बाह्य ढांचा बना है, उसके कारण तेहरान से राजनयिक संबंध बनाना अपने आप में एक कूटनीतिक कला है। उसके ज्यादातर वैश्विक राजनय खुद के अस्तित्व से जुड़े हुए हैं। उसके खिलाफ वैश्विक प्रतिबंध, आर्थिक नाकेबंदी, भीतरी कलह और क्षेत्रीय वर्चस्व स्थापित करने की होड़ ईरान को अपना मित्र या सहयोगी बनाने के रास्ते में रुकावटें पैदा करते हैं। फिर, दोनों देशों की चुनौतियां आर्थिक ही नहीं राजनीतिक भी हैं। पिछले साल ही तेहरान के सर्वोच्च धार्मिक नेता अयातुल्ला खुमैनी ने ईद-उल-फितर के अवसर पर कश्मीरियों को यमन और बहरीन के पीड़ित मुसलमानों के साथ जोड़कर ऐसा संवेदनशील मुद्दा खड़ा कर दिया था कि यह भारत और ईरान की सरकारों के लिए सिर दर्द बन गया था।
अनेक वजहों के साथ ही भारत की इस्राइल और सऊदी अरब के साथबढ़ती नजदीकियों के कारण यह आरोप लगाया गया था। ईरान के दोनों के साथ शत्रुतापूर्ण संबंध हैं। हालांकि ईरान की भू-रणनीतिक स्थिति भारत के लिएअहम है। लिहाजा, राष्ट्रपति हसन रुहानी का समर्थन करना भारत के हित में है। लेकिन ट्रंप के फैसले से ईरान पर दोबारा आर्थिक प्रतिबंध लग सकता है, जो नई दिल्ली-तेहरान के द्विपक्षीय संबंधों को प्रभावित कर सकता है। 2015 में ईरान से यह परमाणु समझौता अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, चीन, फ्रांस और जर्मनी ने साथमिलकर किया था। इसके मुताबिक, ईरान को अपना संवर्धित यूरेनियम भंडार कम करना था, और अपने परमाणु संयंत्रों को निगरानी के लिए खोलना था। इसके बदले में ईरान पर जो आर्थिक प्रतिबंध लगाए गए थे, उनमें रियायतें दी गईथीं। ट्रंप ने अपने प्रचार अभियान के दौरान इस समझौते को दोषपूर्ण बताया था। ट्रंप का मानना है कि इस समझौते के बाद भी ईरान चोरी-छुपे अपने परमाणु कार्यक्रम को जारी रखे हुएथा। जाहिर है कि ट्रंप के फैसले के बाद ऐसी आशंका है कि ईरान अपनी परमाणु गतिविधियों को बढ़ाएगा।
नई दिल्ली और तेहरान के बीच दक्षिणी ईरान में चाबहार बंदरगाह को विकसित करने का समझौता हुआ है। ईरान पर संभावित अमेरिकी प्रतिबंध का असर इस बंदरगाह के निर्माण पर भी पड़ सकता है। भारतीय कंपनियां इस बंदरगाह पर पहला बर्थ (लंगर डालने की जगह) बना चुकी हैं, और इसका संचालन भी इन्हें सौंप दिया गया है। चाबहार बंदरगाह भारत के लिएअहम है। इसके जरिए वह मध्य एशिया के देशों तक अपना सामान भेज पाएगा। दरअसल, इसके जरिए भारत चीन की अति महत्त्वाकांक्षी ‘‘वन बेल्ट, वन रोड’ परियोजना को बेअसर कर सकता है। अगर अमेरिकी प्रतिबंध की वजह से इस बंदरगाह पर कोईअसर पड़ता है, तो ईरान की सरकार चीन-पाकिस्तान को इस परियोजना में शामिल कर सकती है। यह भारत के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है। देखना होगा कि भारत-ईरान संबंधों पर अमेरिकी प्रतिबंधों को बेअसर करने के लिए भारत क्या करता है! सच में यह भारतीय राजनय की अग्नि-परीक्षा होगी।
Date:13-05-18
वंशवाद बुरा तो क्या व्यक्तिवाद अच्छा है
राजकिशोर
कर्नाटक विधानसभा चुनाव की सबसे असुंदर बात यह है कि शुरू से आखिर तक लगता रहा कि चुनाव कर्नाटक के राज्य स्तर के नेता नहीं, बल्कि नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी लड़ रहे हैं। 2019 में क्या हो सकता है, इसकी एक झांकी इस चुनाव से मिल सकती है। मोदी को उम्मीद है कि कर्नाटक चुनाव के बाद कांग्रेस पीपीपी (पंजाब, पुड्डुचेरी और परिवार) की पार्टी बन कर रह जाएगी। दूसरी ओर, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल कहते हैं कि कांग्रेस को दो सौ से ज्यादा सीटें मिलीं तो वे प्रधानमंत्री बन सकते हैं। प्रधानमंत्री पद के लिए कांग्रेस के उम्मीदवार राहुल गांधी की सबसे बड़ी आलोचना यह है कि वे वंशवाद का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। वस्तुत: वंशवाद जातिवाद की ही किस्म है। जातिवाद में पहले से तय रहता है कि किसकी संतान किस पेशे में जाएगी। राजा का बेटा राजा, पुरोहित का बेटा पुरोहित, बनिए का बेटा बनिया और सफाईदार का बेटा सफाईदार। सदियों से स्थापित इस परंपरा से बचने का कोई उपाय न था। जो इसकी कोशिश करता था, उसे जाति और समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता था। राजा के बेटे को राजा बनने के लिए कोई योग्यता अर्जित नहीं करनी होती थी।
अपने पिता का स्वाभाविक उत्तराधिकारी होता था। यह भी जानता था, और प्रजा भी जानती थी। इसलिए संक्रमण में सामान्यत: किसी प्रकार का विघ्न नहीं आता था।राजतंत्र अब रहा नहीं। सत्ता का जनतंत्रीकरण हो चुका है। पेशों की जड़ता भी कुछ हद तक खत्म हो गई है। इस जनवादी क्रांति के कारण ही लालू प्रसाद और मायावती जैसे नेता सत्ता में आ सके हैं। लेकिन कुछेक उदाहरणों को छोड़ दें और विचार करें कि सफल राजनेता समाज के किस तबके से आ रहे हैं, तो साफ दिखेगा कि यह अमीर और उच्चवर्णीय तबका है, जो राजनीति को मैनपॉवर सप्लाई कर रहा है अर्थात राजतंत्र कानूनी रूप से समाप्त हो चुका है, पर जातितंत्र और अमीरतंत्र बचा हुआ है। पुराना राजतंत्र व्यक्ति पर आधारित था, यह राजतंत्र वर्ग पर आधारित है। चूंकि राजनीति का कोई शुद्ध या जनपक्षीय रूप बचा नहीं है, इसलिए यह बात किसी को अखरती भी नहीं है।एक सफल राजनेता की संतानों को क्या करना चाहिए? उन्हें राजनीति में आना चाहिए या नहीं? कई बार उत्तर दिया जाता है कि जब जज का बेटा जज, डॉक्टर का बेटा डॉक्टर, वकील का बेटा वकील और प्रोफेसर का बेटा प्रोफेसर बनता है, तब तो किसी को कोई आपत्ति नहीं होती, फिर मंत्री के बेटे को मंत्री बनते देख किसी की छाती क्यों फटने लगती है? इस तुलना में कपट यह है कि अन्य सभी पेशों के लिए कुछ परिभाषित योग्यताएं अर्जित करनी पड़ती हैं।
परीक्षाएं पास करनी होती हैं, और अपने पेशे में अपने बल पर स्थापित करना होता है। वकील का बेटा वकील बन सकता है, पर जरूरी नहीं कि उसकी वकालत पिता जितनी ही सफल हो। लेकिन नेता और मंत्री बनने पर ये शर्ते लागू नहीं होतीं। सत्ताधारी पिता अपनी संतानों को सहज ही सत्ता में बैठा सकता है। किसी नेता की मृत्यु हो जाने पर पार्टी भी उसकी संतान को वही दर्जा दे देती है।इस तुलना में एक कपट और है। वकालत, डॉक्टरी या प्रोफेसरी जीविकाएं हैं। इनमें समाज का भला मुख्य नहीं है। वह एक बाई-प्रोडक्ट है, मुख्य बात पर्याप्त पैसा कमाना है, जिसके बाद रुतबा अपने आप बढ़ जाता है। वकील और डॉक्टर जैसे-जैसे सफलता की सीढ़ियां चढ़ते हैं, वैसे-वैसे उनकी फीस बढ़ती जाती है। बड़े डॉक्टर बड़े लोगों का इलाज करते हैं, और छोटे वकील छोटे लोगों के मुकदमे लड़ते हैं। क्या राजनीति भी इसी कार्य-समूह में आती है? गंदे से गंदा राजनेता भी नहीं कहेगा कि मैं तो रुपया कमाने के लिए राजनीति में आया हूं। सरकारी कर्मचारियों को पब्लिक सर्वेंट कहा जाता है, नेता दावा करते हैं कि सबसे बड़े पब्लिक सर्वेंट हैं।
मोदी अपने को प्रधान सेवक कहना पसंद करते हैं। हर नेता बताता है कि राजनीति धंधा नहीं, जन सेवा है। ऐसी स्थिति में स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं है कि जन सेवक का बेटा जन सेवक बने, यह एक स्वाभाविक घटना है। लेकिन यह वाक्य तभी अर्थपूर्ण होगा जब जन सेवा से कोई मौद्रिक लाभ न होता हो, बल्कि घर का पैसा जाता हो। वंशवाद बुरा है, तो व्यक्तिवाद भी कम बुरा नहीं। कोई एक आदमी पूरी पार्टी पर हावी हो जाए और अपने को हजार का नोट तथा दूसरों को पांच-दस रु पये का नोट मानने लगे, तब जनतंत्र के विलाप के दिन आ जाते हैं। अपनी बेटी इंदिरा गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाने से पहले जवाहरलाल नेहरू वंशवादी नहीं थे, पर व्यक्तिवादी जरूर थे। कांग्रेस के बड़े नेता सरदार पटेल से उनका टकराव तब तक बना रहा जब तक सरदार जीवित थे। व्यक्तिवाद समाज का बुनियादी लक्षण है। जिसके पास थोड़ी-सी भी सत्ता आ जाती है, अहंकार से पागल हो जाता है। देश में व्यक्तिवादी नेताओं की लंबी परंपरा है, इंदिरा गांधी, मोरार जी देसाई, संजय गांधी, ज्योति बसु, एनटी रामाराव, मायावती, लालू प्रसाद, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर, आदि-आदि। भाजपा के नेता नरेन्द्र मोदी देश के सबसे बड़े व्यक्तिवादी नेता हैं। उनके सामने उनकी पार्टी बौनी नजर आती है। वंशवाद की आलोचना सही है, पर व्यक्तिवाद की भर्त्सना कब शुरू होगी?
Date:12-05-18
Resolve for the river
It will require much political will from the Centre to meet its March 2019 deadline to clean up the Ganga.
Editorial
On Thursday, Union water resources minister Nitin Gadkari made two important announcements. He said that the government will “try to ensure improvement” in the Ganga’s “water quality by 70 to 80 per cent by March 2019”. If his ministry attains this target, it would have fulfilled a major promise in the BJP’s manifesto for the 2014 Lok Sabha elections: “Ensuring the cleanliness, purity and uninterrupted flow of the Ganga on priority.” In fulfilling this objective, the water resource minister’s second announcement laid down a major policy shift. “The government won’t approve any new hydropower project on the river Ganga,” Gadkari said.
The Ganga cleanup plan has so far focused on creating sewage treatment plants (STPs), crematoria development, biodiversity conservation and rural sanitation programmes. This overwhelming reliance on sewage cleanup has rightly been criticised because 50 to 60 per cent of the population in cities along the Ganga lives outside the sewerage network. The waste generated in these areas does not reach the STPs; it flows directly into the river. Beset by numerous dams, the Ganga does not have enough water to clean up this sewage. The decision to not allow more dams will help the river to improve its self-cleansing property.
Implementing it, however, will not be an easy proposition given that the BJP governments in states in the river’s upstream — Himachal Pradesh and Uttarakhand — lay much store by hydroelectricity projects. In April, the Himachal Pradesh chief minister announced that his government is working on a policy to “tap the hydroelectric potential of the state”. The Uttarakhand government, too, has more than 30 hydroelectricity projects on its anvil, most of which have been stalled due to instructions from the National Ganga River Basin Authority and the Supreme Court. The state has repeatedly sought the Centre’s assistance to get these projects back on track. Is the Centre’s new policy a signal to Uttarakhand to rethink these projects? More importantly, will the Centre, in an election year, have the political will to ask the BJP-ruled states to backtrack on their emphasis on hydroelectricity development?
Meeting the March 2019 target to clean up the Ganga will require resolve of a somewhat different order. So far, the government has spent barely a fifth of the Rs 20,000 crore sanctioned under the National Mission for Clean Ganga. Only a fourth of sewage infrastructure projects envisaged under the mission has been completed. Gadkari believes these projects will be implemented by the end of the year. If its performance in the past four years is any indicator, his ministry will need to pull up its socks to stand up to the minister’s claims.
Date:12-05-18
A time to think fast
The U.S.’s exit from the Iran nuclear deal puts India in a spot on many counts.
Happymon Jacob, (Happymon Jacob is Associate Professor of Disarmament Studies, Centre for International Politics, Organization and Disarmament, School of International Studies, Jawaharlal Nehru University)
American President Donald Trump’s decision to withdraw from the Joint Comprehensive Plan of Action (JCPOA), popularly called the Iran nuclear deal, is bound to have serious implications for the international system, and for India. To be sure, the least affected will be the U.S.; European Union countries will be moderately affected due to the business ties with Iran; and the most affected will be countries closer to the region, in particular India. Moreover, for a U.S. administration that has made it a habit of accusing other countries of “undermining the rules-based order”, this action has severely undermined the rules-based global order.
Unreasonable act
Washington’s decision is unjustified and unreasonable for several reasons. For one, the International Atomic Energy Agency (IAEA) has consistently maintained that Tehran has complied with the strictures of the JCPOA without fail. Moreover, Iran has signed the Nuclear Non-Proliferation Treaty (NPT) which prohibits it from developing nuclear weapons, and has agreed to ratify the IAEA’s Additional Protocol five years from now which will grant IAEA inspectors wide-ranging access to monitor nuclear-related activities in Iran. And yet Mr. Trump has thoughtlessly undone the outcome of negotiations that went on for close to two years.
Second, the argument that since the provisions of the JCPOA will become less strict over the years enabling Iran to move towards nuclear-weapon capability is not a credible rationale for undoing the deal. In fact, if indeed there are concerns about Iran potentially moving towards a nuclear option, efforts should be made to engage Tehran in negotiations rather than undo what has already been achieved. This is a classic case of throwing the baby out with the bathwater. With regard to Iran’s involvement in the various West Asian conflicts and “promotion of terrorism”, Iran is not the only country engaging in them. And in any case the way out, again, is diplomatic engagement rather than further unsettle an already volatile region.
The implications
The global non-proliferation regime has taken a direct hit from the U.S.’s decision to renege on the Iran deal. It is important to understand that norms, rules, persuasion and good faith make up the moral foundation of the non-proliferation regime, and the inability of the great powers to abide by them will dissuade non-nuclear weapons states from signing on to or abiding by new or existing agreements, protocols or regimes. Second, even though Mr. Trump might think that playing hardball with Tehran will help him to extract concessions from Pyongyang, it is equally possible that the North Koreans will think twice before entering into any agreement with the untrustworthy Trump administration.
Third, Washington’s unilateral and dictatorial withdrawal from the deal would create deep fissures in the time-tested but increasingly shaky trans-Atlantic security partnership. Not least because it implies potential secondary sanctions against those European companies which are engaged in business deals with Iran. Here again, the U.S. does not have much to lose given its almost non-existent business contacts with Iran.
Besides, Mr. Trump’s Iran decision follows a pattern of similar unilateral steps — such as the withdrawal from the Paris climate accord and formal recognition of Jerusalem as Israel’s capital. Let alone the loss of face suffered by European leaders and the financial losses by their countries’ firms, U.S. unilateralism has deep-running implications for the global security and governance architecture, and other multilateral arrangements and regimes. It is in this context that what French Foreign Minister Jean-Yves Le Drian said becomes significant: “The deal is not dead. There’s an American withdrawal from the deal, but the deal is still there.” The argument has found support in several global capitals.
Hassan Rouhani, the moderate President of Iran, who negotiated the nuclear deal, might lose his standing in the country as hardliners pitch for more aggressive steps, including developing a nuclear weapon capability and more military engagement in the neighbourhood. The chief of staff of the Iranian Armed Forces, Maj. Gen. Mohammad Bagheri, has said that the “Iranian people never favoured the nuclear deal”. This is an indication of the hardline Iranian responses in the offing as and when sanctions are reimposed.
Iran’s refusal to fall in line might prompt Israel and the U.S. to carry out attacks against Iran leading to Iranian counter-strikes against American allies in the region, or even Israel. This would further destabilise a region already reeling under terrorism, wars and internal conflicts. Americans, and the international community, should remember how the misguided military campaign against the Saddam Hussein regime in Iraq turned out to be a huge geopolitical disaster.
India’s Persian dilemmas
While the U.S. has almost nothing to lose in reneging on the JCPOA, India has a lot to lose both economically and geopolitically, and it will take deft diplomacy to adapt to the changing alignments. A more unstable West Asia would ipso facto mean more difficult choices for New Delhi. More conflict in the region would adversely impact the welfare and safety of Indian expatriates in West Asia, leading to a sharp decline in the remittances they send home, and an assured hike in oil prices. Low crude oil prices had given India the much-needed economic cushion in the past few years — that phase of cheaper oil has now ended. Recall how the U.S. war on Iraq had a debilitating impact on Indian workers and the West Asian remittances. India also had to abandon the Iran-Pakistan-India pipeline in 2008 thanks to U.S. sanctions against Iran.
The Narendra Modi government’s efforts to maintain a fine balance between India’s relations with Iran on the one hand and with the U.S., Israel and Saudi Arabia on the other will be seriously tested in the days ahead. The new warmth between Iran and India could attract American ire. What is even more worrying is that unlike the last time when the U.S. imposed sanctions on Iran, and India had to choose the U.S. over Iran, the geopolitical realities are starkly different this time. Not only are the Americans going it alone this time, but the the regional ganging-up against the U.S. and in support of Iran will be more pronounced this time around, making India’s ability to make a clear choice more difficult.
India’s dreams of accessing Central Asia via Iran could also be dashed with the return of American sanctions against Iran. India’s projects in Iran’s Chabahar port have been widely viewed in New Delhi as a crucial plank of its Iran-Afghanistan-Central Asia strategy. With U.S. sanctions again tightening around Tehran, New Delhi may find it hard to continue with this project. As a matter of fact, thanks partly to India’s dilly-dallying on Chabahar during the previous round of U.S. sanctions against Iran, Iran had invited Pakistan to the Chabahar project. Some have even suggested a potential link between Chabahar and Gwadar in Pakistan.
Given that there is little consensus around Mr. Trump’s withdrawal from the JCPOA, several of the dissenting parties might look for ways of thwarting U.S. efforts at isolating Iran. Such efforts, especially those led by China and Russia, both parties to the JCOPA, would have implications for the Southern Asian region as well. If indeed China manages to bring together a group of regional powers, including Russia, Iran, Pakistan and interested others, to counter Washington’s influence in the region, New Delhi might find itself in a corner.