14-04-2023 (Important News Clippings)
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Date:14-04-23
State Your Case, Lordship
Judge recusals for vague reasons are increasing. CJI should lead the process for procedure
TOI Editorials
Now that another judge – the fourth, in fact – has recused himself from hearing the Maharashtra-Karnataka border wrangle on Belagavi, there’s an urgent need for the Supreme Court to reform the recusal system – in plain words, raise the bar for recusals. The judge reportedly recused himself since Karnataka is his home state. Let’s assume that this is the actual reason – reasons for recusal are mostly shrouded in opacity. Then it is mystifying, for all judges must belongto some state or the other. Would origin invariably impinge on judgment? The three other judges who earlier recused themselves from this particular case were from Karnataka too.
Recusal is a grave matter; it deals with the impartiality of a judge. Recusal is advised even if a judge believes he can be impartial but his conflict-of-interest (pecuniary or otherwise) or obiter dicta (views, remarks made in passing) is such that without recusal, the independence of the bench is seen to be under a cloud. However, when recusal is sought without substantial reason, it raises as much doubt –exiting a case abruptly halts proceedings, leaving all concerned in the lurch while a new bench is decided. Justifying non-recusal and allowing opaqueness about recusal are equally damaging to the trust reposed in the courts, especially since these are constitutional courts.
Citing state-of-origin as a source of bias surely fails the reasonfor-recusal test? Alas, there is no such codified test. India has no laiddown procedure for judges to stand down from cases. Judges have increasingly argued it is desirable to specify reasons for recusal to meet constitutional norms of transparency. Given the uptick in judges withdrawing on reasons that are apparently vague, a protocol is necessary. CJI should step in. Otherwise, recusals will engender more suspicion than admiration.
अपराधियों को राजनीति में आने से कैसे रोका जाए
संपादकीय
चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में कहा है कि अपराधियों को चुनावी राजनीति में आने से रोकना उसके वश की बात नहीं है। इसके लिए संसद को कानून बनाना होगा। दरअसल आज लोकसभा के 43% और राज्य सभा के 31% सांसदों पर आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं। लोक सभा सांसदों में लगभग हर तीसरे पर संगीन जुर्म के मामले हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि ऐसे सांसदों में बिहार (साक्षरता दर में सबसे पीछे) से भी हैं और केरल (सबसे साक्षर) से भी। तो क्या इसका यह निष्कर्ष निकाला जाए कि वोटर निरक्षर हो या शिक्षित, इससे फर्क नहीं पड़ता कि उसका नेता आपराधिक प्रवृति का है या नहीं? इस विरोधाभास के दो मूल कारण हैं। पहला, जनता का वोट देते समय पार्टी या जाति या सम्प्रदाय के प्रति रुझान होना और दूसरा, चूंकि हर दल उपरोक्त बातों के आधार पर ही टिकट देता है, लिहाजा अपराधी-दबंग लोग इस प्रक्रिया में लाए जाते हैं और जनता के पास विकल्प नहीं होता। सुप्रीम कोर्ट जिस याचिका पर सुनवाई कर रहा था, उसमें याचना यह थी कि ऐसे किसी भी व्यक्ति पर जिसके खिलाफ कोर्ट ने चार्ज फ्रेम कर दिए हों, उसे चुनाव लड़ने से रोका जाए। अभी तक कानूनन केवल उन्हीं लोगों को चुनाव से 6 साल के लिए वंचित किया जाता है, जिन्हें कोर्ट ने दो या दो साल से ज्यादा की सजा सुनाई हो ।
Date:14-04-23
सूचनाओं की होड़ में गलत तथ्यों की जांच कौन करेगा ?
डेरेक ओ ब्रायन, ( लेखक सांसद और राज्यसभा में टीएमसी के नेता हैं, इस लेख के सहायक-शोधकर्ता वर्णिका मिश्रा और आयुष्मान डे हैं। )
पहला दृश्य : यह 2018 है और अमित शाह राजस्थान में रैली को सम्बोधित कर रहे हैं। वे कहते हैं, हम जनता तक जो मैसेज चाहें, पहुंचा सकते हैं, फिर चाहे वह सही हो या गलत, भला लगे या बुरा। हम ऐसा इसलिए कर सकते हैं, क्योंकि हमारे वॉट्सएप समूहों से 32 लाख लोग जुड़े हैं।
दूसरा दृश्य : यह 2023 है और जेपी नड्डा कर्नाटक में एक रैली को सम्बोधित कर रहे हैं। वे कहते हैं, भारत के इतिहास में आज तक कोई प्रधानमंत्री मोदी जी जितना महान नहीं हुआ है। उन्होंने 22,500 विद्यार्थियों को लाने के लिए रूस-यूक्रेन युद्ध रुकवा दिया था। बाद में नड्डा के इस दावे को झूठा साबित कर दिया गया था, किसी विदेशी एजेंसी के द्वारा नहीं, बल्कि खुद भारत के विदेश मंत्रालय के द्वारा।
जब देश के गृह मंत्री और सत्तारूढ़ पार्टी के अध्यक्ष का यह ट्रैक रिकॉर्ड हो तो पिछले हफ्ते केंद्र सरकार द्वारा सूचना प्रौद्योगिकी नियमों में किए गए संशोधनों पर हमें करीब से नजर रखना होगी। सरकार ने खुद को एक फैक्ट-चेकिंग संस्था के रूप में नियुक्त कर दिया है! लेकिन वो इसे ठीक से परिभाषित करने में नाकाम रही है कि फर्जी जानकारी, गलत जानकारी और गुमराह करने वाली जानकारी में क्या अंतर है।
फैक्ट-चेकिंग का कारोबार : आज देश में 50 करोड़ वॉट्सएप यूज़र और 30 करोड़ फेसबुक यूज़र हैं। ऐसे में भारत खुद को दुनिया का सबसे बड़ा फैक्ट-चेकिंग स्पेस कह सकता है। इंटरनेशनल फैक्ट-चेकिंग नेटवर्क या आईएफसीएन के द्वारा भारत में ग्यारह संस्थाओं को सत्यापित किया गया है। इनमें निष्पक्ष फैक्ट चेकिंग माध्यमों के अलावा अनेक ऐसे समाचार-संगठन शामिल हैं, जिनके पास अपने फैक्ट चेकिंग प्लेटफॉर्म्स हैं। किसी निश्चित और मानक संचालन-प्रणाली के अभाव में आईएफसीएन ही इकलौती अधिकृत संस्था बन जाती है। तमाम फंड्स भी उसके माध्यम से ही वितरित होते हैं। इसका यह भी मतलब है कि कोई वेरिफाइड फैक्ट-चेकर है, यह तय करने का एकाधिकार भी उसी के पास है। एक मायने में आज फैक्ट-चेकिंग एक कारोबार बन चुका है। कोई संस्था फलां संख्या में फैक्ट-चेक करती है और बदले में उसे भुगतान किया जाता है। इसमें क्वालिटी से ज्यादा क्वांटिटी का महत्व होता है। ऐसे माहौल में मासिक बिलिंग टारगेट पूरा करने के लिए जगजाहिर बातों के भी फैक्ट-चेक किए जाते हैं।
आज मेट्रो शहरों के युवा रोज औसतन दो घंटा अपने मोबाइल फोन से कंटेंट को एक्सेस करने में बिताते हैं। कंटेंट क्रिएटर्स समझ गए हैं कि उनका कंटेंट जितना सनसनीखेज होगा, उतने ही व्यूज़ उनको मिलेंगे, और उतनी ही उनकी कमाई होगी। इससे ज्यादा से ज्यादा फैक्ट-चेकर्स को भी काम मिलता है, लेकिन फैक्ट-चेकिंग की गुणवत्ता का कोई निश्चित मानदंड नहीं होने के कारण आउटपुट अच्छा नहीं मिलता।
बड़ी टेक-कम्पनियों की भूमिका : यहां फेसबुक जैसी बड़ी टेक-कम्पनियों की भूमिका पर भी नजर डालना जरूरी है। फेसबुक राजनेताओं के फैक्ट-चेक करने से इनकार करता है। मार्क जकरबर्ग ने अधिकृत तौर पर कहा है कि ऐसा इसलिए है, क्योंकि राजनेताओं की पहले ही बहुत सख्त निगरानी की जाती है। लेकिन जकरबर्ग सैन फ्रांसिस्को में बैठे हैं और उन्हें भारत जैसे देश के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य का कोई अंदाजा नहीं है। जब फेसबुक खुद ही राजनेताओं के फैक्ट-चेक नहीं करता तो उसके फैक्ट-चेकिंग पार्टनरों को भी इसमें कोई तुक नहीं नजर आती। कारण सरल है। क्योंकि तब उसका भुगतान कौन करेगा? यह जानी-मानी बात है कि फेसबुक के फैक्ट-चेकिंग पार्टनर कुछ मीडिया समूहों ने भाजपा के द्वारा निर्मित कंटेंट की जांच करने से इनकार कर दिया है।
गलत सूचनाओं से संघर्ष के लिए हमें समस्या की जड़ में जाना होगा और वह है भरोसेमंद मीडिया कंटेंट और जनसाक्षरता का अभाव। फैक्ट-चेक करना एक अल्पकालिक समाधान है, बड़ी चुनौती यह है कि आम यूज़र में वे बुनियादी कौशल कैसे विकसित करें, जिनकी मदद से वे गलत सूचनाओं को खुद ही पहचानकर उनके प्रसार पर रोक लगाएं। आज देश में सोशल मीडिया पर बेबुनियाद अफवाहें फैलाकर लोगों को निशाना बनाया जा रहा है। ऐसे में फेक-न्यूज़ का खुलासा करना ही काफी नहीं, गलत सूचनाओं के विरुद्ध लड़ाई को एक दूसरे स्तर पर ले जाना होगा। बेहतर होगा कि इसकी शुरुआत स्कूली छात्रों से करें। सरकार के तथ्यों की जांच करना मीडिया का काम है, लेकिन अब खुद सरकार ही फैक्ट-चेकर्स के तथ्यों की जांच करना चाह रही है। गलत सूचनाओं से संघर्ष के लिए हमें समस्या की जड़ में जाना होगा।
Date:14-04-23
यूपीआई की डिजिटल क्रांति सफल बनाएंगे छह मंत्र
विराग गुप्ता, ( लेखक और वकील )
सिंगापुर से समझौते के बाद यूपीआई यानी यूनिफाइड पेमेंट इंटरफेस का जलवा जी-20 और वैश्विक स्तर पर बढ़ना देश के लिए गौरव की बात है। नीति आयोग के पूर्व सीईओ अमिताभ कांत के अनुसार अमेरिका और यूरोप से 11 गुना और चीन से चार गुना ज्यादा डिजिटल पेमेंट भारत में हो रहे हैं। नोटबंदी के बाद 130 करोड़ आधार, 85 करोड़ इंटरनेट, 78 करोड़ स्मार्टफोन, 43.76 करोड़ जन-धन खाते, सस्ता डाटा और ई-कॉमर्स में बढोतरी से यूपीआई पेमेंट ने लम्बी छलांग लगाई है। 2022 के अंत में डिजिटल वॉलेट से 126 लाख करोड़ रुपए के लेन-देन हुए थे। इस क्रांति को भारतीय अर्थव्यवस्था की मजबूती में तब्दील करने के लिए सरकार और रिज़र्व बैंक को इन 6 मंत्रों पर मंथन की जरूरत है-
1. गूगल ने एक नया लाइव टीवी पेश किया है जिसमें 800 से ज्यादा टीवी चैनल फ्री में देख सकते हैं। यूपीआई के बाजार में फोन-पे और गूगल-पे के पास 80% से ज्यादा हिस्सेदारी है। बड़े पैमाने पर कारोबार कर रही डिजिटल पेमेंट कम्पनियों का बिजनेस मॉडल क्या है? कहीं ये कम्पनियां डेटा के अवैध कारोबार से तो मुनाफा नहीं कमा रहीं? पारदर्शित नहीं बरती गई तो डिजिटल कम्पनियां बैंकिंग और देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान भी पहुंचा सकती हैं।
2. फेसबुक और वाट्सएप जैसी कम्पनियां पिछले कई सालों से अवैध तरीके से डेटा के कारोबार के साथ लोगों की गोपनीयता का उल्लंघन कर रहे हैं। इस मामले में केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा है कि मॉनसून सत्र में डेटा सुरक्षा कानून का विधेयक पेश किया जाएगा। पिछले कई सालों से लम्बित यह कानून क्या लोकसभा चुनावों के पहले लागू हो पाएगा?
3. परंपरागत बैंकिंग में केवाईसी की सख्त व्यवस्था को डिजिटल पेमेंट कम्पनियां नजरअंदाज कर रही हैं। यूपीआई के विस्तार के साथ लोगों में डिजिटल साक्षरता का प्रसार उस अनुपात में नहीं हुआ। रेगुलेटर की सुस्ती से जनता का डेटा, फोन नम्बर और बैंक खातों के विवरण थर्ड पार्टी को लीक हो रहे हैं। साइबराबाद पुलिस ने एक गैंग का पर्दाफाश किया है, जिसने 70 करोड़ डेटा की चोरी की है। पुलिस ने एक गिरोह का पर्दाफाश किया है जो लोगों के निजी डाटा को चीनी कम्पनी के सर्वर पर अपलोड करने के बाद ही लोन की रकम जारी करती थी। साइबर और वित्तीय अपराध पूरे देश में महामारी की तरह फैल रहे हैं. इससे निपटने के लिए बनाई गई टोल फ्री नम्बर और हेल्पलाइन की सुविधा के बावजूद अधिकांश लोगों को ठगी के पैसे वापस नहीं मिलने से लोगों का ऑनलाइन पेमेंट पर भरोसा कमजोर हो रहा है।
4. संसद द्वारा बनाए गए कानूनों के तहत चल रहे बैंक अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। उनके अनेक सामाजिक उत्तरदायित्व हैं, जिनसे बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन भी होता है। आरबीआई के डिप्टी गवर्नर टी. रबीशंकर ने पिछले साल आगाह करते हुए कहा था कि डिजिटल पेमेंट के अराजक विस्तार से परम्परागत बैंकिंग व्यवस्था खतरे में पड़ सकती है। यूपीआई के बाद एटीएम, क्रेडिट कार्ड और डेबिट कार्ड के इस्तेमाल में कमी आई है। डिजिटल कम्पनियों को क्रेडिट लाइन के तहत लोन जारी करने की इजाजत मिलने से बैंकों में सन्नाटा और बढ़ सकता है।
5. कारोबार बढ़ाने और रिझाने के लिए शुरुआती दौर में कम्पनियां ग्राहकों को इंसेंटिव और बोनस देती थीं। लेकिन अब बड़े विस्तार के बावजूद ये कंपनियां नियमों और मर्चेंट डिस्काउंट रेट (एमडीआर) जैसे भुगतान के दबाव से बाहर रहना चाहती हैं। बैंक इन कम्पनियों को करोड़ों रुपए की स्विचिंग फीस का भुगतान करते हैं, लेकिन बदले में इन कम्पनियों से उन्हें कोई आमदनी नहीं होती। नेशनल पेमेंट कॉरपोरेशन ऑफ इण्डिया ने इन कम्पनियों का एकाधिकार रोकने के लिए नवम्बर 2020 में 30% की कारोबारी लिमिट (टीपीएपी) का नियम बनाया था, जिसे अभी तक लागू नहीं किया गया।
6. लॉकडाउन के बाद पूरी दुनिया में डिजिटल पेमेंट बढ़ने से बैंक करेंसी का चलन कम हो गया। लेकिन भारत में डिजिटल पेमेंट की क्रांति के बावजूद नगदी की बढोतरी खतरनाक है। डिजिटल के औपनिवेशिक दौर में बचपन में पढ़े गए लेख को नए सिरे से समझने की जरूरत है। उसमें कहा गया था कि ‘विज्ञान एक अच्छा सेवक लेकिन खराब स्वामी है।’ 21वीं सदी में आत्मगौरव से भरपूर इतिहास को लिखने के लिए पुख्ता लगाम से डिजिटल के घोड़े की सवारी करने की जरूरत है। यूपीआई सिस्टम में 381 बैंक शामिल हैं, जिनमें रोजाना औसतन 26 करोड़ ट्रांजेक्शन हो रहे हैं। वहीं क्षमता प्रतिदिन 100 करोड़ ट्रांजेक्शन की है। पर कुछ पहलुओं पर गौर करने की जरूरत है।
Date:14-04-23
बदलते वक्त में प्राकृतिक खेती की जरूरत
नृपेंद्र अभिषेक नृप
कृषि में बढ़ते रासायनिक खादों और दवाओं के उपयोग से फसलों और फिर इसका सीधा प्रतिकूल प्रभाव स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। प्राकृतिक खेती एक रासायनिक खाद मुक्त यानी पारंपरिक कृषि पद्धति है। इसे कृषि-पारिस्थितिकी आधारित विविध कृषि प्रणाली माना जाता है, जो जैव विविधता के साथ फसलों, पेड़ों और पशुधन को एकीकृत करती है। सरकार ने देश भर में प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिए भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति यानी बीपीकेपी को प्रश्रय देकर राष्ट्रीय प्राकृतिक खेती मिशन की शुरुआत की है, ताकि किसान खेतों में रासायनिक खादों का उपयोग कम कर सकें।
राष्ट्रीय प्राकृतिक खेती मिशन के तहत पंद्रह हजार क्लस्टर यानी समूह विकसित करके साढ़े सात लाख हेक्टेयर क्षेत्र को इसकी परिधि में लाया जाएगा। प्राकृतिक खेती शुरू करने के इच्छुक किसानों को क्लस्टर सदस्य के रूप में पंजीकृत किया जाएगा और इसके साथ ही प्रत्येक क्लस्टर में पचास हेक्टेयर भूमि के साथ पचास या उससे अधिक किसानों को शामिल किया जाएगा। क्लस्टर एक गांव भी हो सकता है और उसमें दो-तीन आसपास के गांवों को भी शामिल किया जा सकता है।
इस मिशन के तहत बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए तीन वर्ष तक प्रति वर्ष पंद्रह हजार रुपए प्रति हेक्टेयर की वित्तीय सहायता मिलेगी। इस वित्त पोषण में इस बात का ध्यान रखा जाएगा कि किसान प्राकृतिक खेती के लिए प्रतिबद्ध हों। अगर कोई किसान प्राकृतिक खेती का उपयोग नहीं करता है, तो उसे बाद की किस्तों का भुगतान नहीं किया जाएगा। इन सबके अलावा, प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिए क्रियान्वयन ढांचे, संसाधनों, क्रियान्वयन की प्रगति, किसान पंजीकरण, ब्लाग आदि की जानकारी प्रदान करने वाला एक वेब पोर्टल भी शुरू किया गया है।
देश में गैर-रासायनिक खेती को प्रोत्साहित करने के लिए खरीद पर भले जोर दिया जा रहा हो, पर हकीकत में सारे प्रयास अभी तक आधे-अधूरे हैं। सरकार ने 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य रखा था, लेकिन इसमें अभी तक कोई विशेष सफलता हाथ नहीं लगी है। उत्पादन और मूल्य प्राप्ति में अनिश्चितता की वजह से किसान उच्च लागत वाली कृषि के दुष्चक्र में फंस गया है। लगातार गिरता उत्पादन और फसलों में बढ़ती बीमारियां कृषि क्षेत्र की जटिलताओं को और बढ़ा रही हैं। इस स्थिति से किसानों को बाहर निकालने और उनके दीर्घकालिक कल्याण के लिए प्राकृतिक खेती की तरफ रुख करने से सकारात्मक परिणाम मिल सकते हैं।
दुनिया की बढ़ती जनसंख्या एक गंभीर समस्या है। लोगों को भोजन की आपूर्ति के लिए मानव द्वारा अधिक से अधिक उत्पादन करने के लिए तरह-तरह के रासायनिक खादों, जहरीले कीटनाशकों का उपयोग, प्रकृति के जैविक और अजैविक पदार्थो के बीच आदान-प्रदान के चक्र यानी ‘इकोलाजी सिस्टम’ को प्रभावित करता है, जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति खराब हो जाती है, साथ ही वातावरण प्रदूषित होता और मानव स्वास्थ्य में गिरावट आती है।
भारत में ग्रामीण अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार कृषि है और यह बड़ी आबादी की आय का मुख्य साधन भी है। हरित क्रांति के समय बढ़ती जनसंख्या और आय के मद्देनजर उत्पादन बढ़ाने पर जोर दिया गया। तब अधिक उत्पादन के लिए खेती में अधिक मात्रा में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग पर जोर दिया गया। अब इसकी वजह से सीमांत और छोटे किसानों के पास कम जोत में अत्यधिक लागत आ रही है और जल, भूमि, वायु प्रदूषित हो रहा है, खाद्य पदार्थ भी जहरीले हो रहे हैं। इसलिए इन सभी समस्याओं से निपटने के लिए प्राकृतिक कृषि पर सरकार बल दे रही है।
प्राकृतिक खेती एक अनूठा माडल है, जो कृषि-पारिस्थितिकी पर निर्भर है। इसका उद्देश्य उत्पादन की लागत को कम करना और सतत कृषि को बढ़ावा देना है। प्राकृतिक खेती मिट्टी की सतह पर सूक्ष्म जीवों और केंचुओं द्वारा कार्बनिक पदार्थों के विखंडन को प्रोत्साहित करती और धीरे-धीरे मिट्टी में पोषक तत्त्वों को जोड़ती है। हालांकि, जैविक खेती में जैविक खाद, वर्मी-कंपोस्ट और गाय के गोबर की खाद का उपयोग किया जाता है तथा इन्हें जोते हुए खेत में प्रयोग किया जाता है।
भारत सरकार द्वारा सहायता प्राप्त प्राकृतिक कृषि क्षेत्र अब 4.09 लाख हेक्टेयर तक पहुंच गया है। इस कार्य के लिए आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और केरल सहित आठ राज्यों में 49.81 करोड़ रुपए का आबंटन किया गया है। भारत में वर्तमान में शून्य बजट प्राकृतिक कृषि पर ध्यान दिया जा रहा है। इसके तहत प्राकृतिक खेती के तरीकों का एक समूह तथा एक जमीनी किसान आंदोलन तैयार हो रहा है, जो भारत के विभिन्न राज्यों में फैल रहा है। शून्य बजट प्राकृतिक कृषि एक ऐसी पद्धति है, जो लागत कम करने के साथ ही जलवायु पर निर्भर कृषि तथा किसानों को स्थानीय संसाधनों का उपयोग करने के लिए प्रोत्साहित करती और कृत्रिम उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग को समाप्त करती है। इस तरह मृदा स्वास्थ्य और मानव स्वास्थ्य को नुकसान से बचाती है।
शून्य बजट प्राकृतिक खेती, एक अनूठा तरीका है, जिसमें बाजार से बीज, उर्वरक और पौधों के संरक्षण, रसायनों जैसे महत्त्वपूर्ण उपादानों की खरीद के लिए कोई मौद्रिक निवेश करने की आवश्यकता नहीं होती है। यह व्यापक, प्राकृतिक और आध्यात्मिक कृषि प्रणाली है। किसान उर्वरकों और कीटनाशकों के बिना फसल की स्थानीय किस्मों को उगा सकते हैं। चूंकि यह शून्य बजट खेती है, इसलिए इसमें किसी संस्थागत ऋण की आवश्यकता नहीं होगी और मानव श्रम पर निर्भरता भी कम से कम हो जाएगी। शून्य बजट प्राकृतिक खेती विभिन्न कृषि सिद्धांतों के माध्यम से मिट्टी की उर्वरता में सुधार लाने की एक कारगर पद्धति है।
प्राकृतिक खेती कई अन्य लाभों, जैसे कि मिट्टी की उर्वरता और पर्यावरणीय स्वास्थ्य की बहाली, और ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन का शमन या उनमें कमी लाते हुए किसानों की आय बढ़ाने का मजबूत आधार प्रदान करती है। यह प्राकृतिक या पारिस्थितिकीय प्रक्रियाओं, जो खेतों में या उसके आसपास मौजूद होती हैं, पर आधारित होती है। किसानों की आमदनी दोगुना करने के साथ ही अनाज का उत्पादन भी वर्तमान की तुलना में दोगुना करने के सरकार द्वारा निर्धारित लक्ष्य खेती की इसी विधि से हासिल किए जा सकते हैं। यही नहीं, शून्य बजट प्राकृतिक खेती के तहत जो फसल उगाई जाती है उसकी पैदावार भी काफी अच्छी होती है।
‘भारत में आर्गेनिक और प्राकृतिक खेती से संपूर्ण लाभ के प्रमाण’ नामक रिपोर्ट प्राकृतिक खेती के दृष्टिकोण और फायदे के बारे में सबूतों के आधार पर बताती है कि गैर-रासायनिक खेती को व्यापक विस्तार दिया जा सकता है। यह रिपोर्ट भविष्य की नीतियों के लिए एक स्पष्ट रास्ता दिखाती है कि सिर्फ पैदावार के बजाय जैविक या प्राकृतिक खेती के विभिन्न फायदों को समग्रता से देखा जाना चाहिए। वैज्ञानिक समुदाय और नीति निर्माता इन तथ्यों पर ध्यान देंगे और गैर-रासायनिक खेती को प्रोत्साहित करेंगे। 2014-19 के बीच 504 बार दर्ज पैदावार के परिणाम बताते हैं कि प्राकृतिक खेती के जरिए उच्चतम पैदावार इकतालीस फीसद, आंशिक रसायन आधारित एकीकृत खेती में पैदावार तैंतीस फीसद और रासायनिक खेती में महज छब्बीस फीसदी पैदावार रही। इन सबके अलावा एक अच्छी बात यह है भी कि इस बार के आम बजट में रासायनिक खेती की जगह प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने की घोषणा की गई है। इसमें राज्यों को भी प्रोत्साहित करने की बात कही है, ताकि वे अपने कृषि विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम को नए सिरे से प्राकृतिक खेती के आधार पर तैयार कर सकें। समय की मांग है कि इस दिशा में और बड़े कदम उठाए जाने चाहिए।
Date:14-04-23
सशक्त राष्ट्र के निर्माता
आचार्य पवन त्रिपाठी
20 वीं सदी में भारत के राजनीतिक एवं सामाजिक परिदृश्य को जिन दो महान शख्सियतों ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया है, वो हैं महात्मा गांधी और बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर । यदि कहा जाए कि दोनों पुण्य आत्माओं का महत अवदान मूल्यांकन से परे हैं, तो यह अतिशयोक्ति न होगी। स्वयं गांधी जी कहा करते थे कि डॉ. आंबेडकर की उपलब्धियां ‘दृढ़ हौसले का चमत्कारिक नतीजा’ हैं।
आज आंबेडकर जयंती का अवसर है। बाबासाहेब के जीवन को समग्र रूप से आत्मसात करने का पल है। बाबासाहेब का जीवन एक कालखंड मात्र नहीं था, बल्कि संघर्ष की ऐसी कहानी थी, जिसमें समाज के हर वर्ग के लिए कुछ आदर्श एवं मूल्य निहित हैं। उनके जीवन में समाज के प्रति समर्पण और समाज निर्माण का एक अद्भुत संकल्प स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। जिन संघर्षो और अवरोधों के बीच बाबासाहेब ने अपने जीवन को जिया उसकी शायद ही कोई दूसरी मिसाल हो । भारतीय समाज व्यवस्था, आर्थिक तंत्र, राजनैतिक प्रक्रियाओं एवं सभ्यता की उपलब्धियों के प्रति बाबासाहेब की समझ अतुलनीय थी।
भारतीय संविधान के निर्माण में उनके अभूतपूर्व योगदान के लिए उन्हें ‘भारतीय संविधान का पितामह’ कहा जाता है। भारतीय संविधान में बहुमूल्य योगदान तथा इस देश को एक नई दिशा देने वाले बाबासाहेब समता, स्वतंत्रता और समरसता के सौंदर्य के स्वाभाविक प्रतीक पुरुष थे। संविधान के प्रति उनकी भावना इस हद तक जुड़ी थी कि वे कहते थे संविधान मात्र वकीलों का दस्तावेज नहीं, बल्कि हमारे जीवन का माध्यम है।’ उन्होंने यह भी कहा था, ‘यदि मुझे लगेगा कि संविधान का दुरुपयोग हो रहा है तो सबसे पहले मैं ही इस संविधान को जलाऊंगा।’ देश की आजादी के बाद, देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती एक ऐसे समावेशी, आदर्श एवं भविष्यवादी संविधान की रचना की थी, जो देश को एक दिशा दे सके और आने वाले कालखंड में भारतीय प्रजातंत्र की जड़ों को मजबूती प्रदान करता रहे। आज हमारे पास एक ऐसा विस्तृत, सशक्त और समावेशी संविधान है, जिसमें समाज के सभी वर्ग, वर्ण, धर्म या संप्रदाय गौरव महसूस करते हैं। पूरा श्रेय बाबासाहेब को ही जाता है। इस संविधान की सबसे खूबसूरत बात यही है कि यह समाज के सभी वर्गों को समानता, एकरूपता एवं एकात्मकता के साथ लेकर चलने की बात करता है। समानता के समर्थक बाबासाहेब ने शिक्षा को लिंगेतर माना और कहा था, ‘शिक्षा का अधिकार जितना पुरुष का है, उतना ही महिलाओं का भी।’ सन 1951 में बाबासाहेब ने ‘भारत के वित्तीय कमीशन’ की स्थापना की। देश में प्रजातंत्र को मजबूती देने के लिए निष्पक्ष चुनाव आयोग की परिकल्पना उन्हीं की थी। उनकी सोच का ही सुखद परिणाम है कि आज भारत दुनिया के सबसे बड़े और सशक्त लोकतंत्र के रूप में सुस्थापित है।
यही दृष्टि यही विजन आज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कार्यशैली में भी देखने को नजर आता है। ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास, सबका प्रयास की उनकी सोच शत-प्रतिशत बाबासाहेब के जीवन- अनुभव और आदर्शों से ही प्रेरित है। एक बार प्रधानमंत्री जी ने बाबासाहेब के बारे में कहा था कि ‘अगर बाबासाहेब नहीं होते तो आज मैं भी नहीं होता!’ निश्चित रूप से, बाबासाहेब के विजन का ही परिणाम है कि समाज के अंतिम छोर पर खड़ा व्यक्ति अपनी सामर्थ्य से सर्वोच्च शिखर को हासिल कर सकता है। मोदी जी हमेशा बाबासाहेब के विचारों से प्रभावित और प्रेरित रहे हैं। जब वे 2010 में गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने एक भव्य ‘संविधान गौरव यात्रा’ आयोजित की थी। ऐसा करने वाले वे देश के पहले और अकेले राजनेता हैं। केवल यही नहीं, उनकी यह पदयात्रा बाबासाहेब के विचारों और संविधान के प्रति उनकी अटूट आस्था एवं निष्ठा का परिचायक है। समाज और राष्ट्र की प्रगति और उत्थान को लेकर बाबासाहेब के विचार अनुकरणीय हैं। वे हमेशा मानते थे कि अगर किसी समाज की प्रगति को नापना हो तो वहां की महिलाओं के शिक्षा के स्तर को जांच लें। माननीय प्रधानमंत्री जी की ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ की सोच उनकी इसी सोच का विस्तार है, जिसे मोदी जी ने नीतिगत रूप से लागू किया है। स्वच्छ भारत, अंत्योदय योजना, उज्ज्वला योजना, डीबीटी, जनधन खाता, राष्ट्रीय शिक्षा नीति जैसे उनके प्रयास बाबासाहेब की आर्थिक सामाजिक सशक्तीकरण के सपनों को पूरा करने का अनूठा प्रयास है। कश्मीर विषय पर भी बाबासाहेब की सोच और उनके विचार एकदम स्पष्ट थे। संविधान की रचना के समय जब धारा 370 को लेकर चर्चा हो रही थी, एक घटना को जानना बहुत ही जरूरी है। प्रधानमंत्री नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को इस विषय पर बाबासाहेब से मिलकर चर्चा करने की सलाह दी थी।
डॉ. आंबेडकर ने शेख अब्दुल्ला से मुलाकात के दौरान कहा, ‘यदि आप चाहते हैं कि भारत आपकी सीमाओं की रक्षा करे, आपकी सड़कें बनवाए, आपको खाना, अनाज पहुंचाए, फिर तो इस राज्य को भी वही स्टेटस मिलना चाहिए, जो देश के दूसरे राज्यों का है। इसके उलट, आप चाहते हैं कि भारत सरकार के पास आपके राज्य में सीमित अधिकार रहें और भारतीय लोगों के पास कश्मीर में कोई अधिकार नहीं रहे, अगर आप इस प्रस्ताव पर मेरी मंजूरी चाहते हैं तो मैं कहूंगा कि ये भारत के हितों के खिलाफ है। भारतीय कानून मंत्री के हिसाब से मैं ऐसा कभी नहीं करूंगा।’ मोदी ने बाबासाहेब के जीवन से जुड़े पांच विशेष स्थलों को ‘पंच तीर्थ’ के रूप में विकसित किया, ताकि आने वाली पीढ़ी को उनके जीवन और आदशों से प्रेरणा मिलती रहे।
डॉ. अविडकर कहा करते थे, ‘हम शुरू से लेकर अंत तक भारतीय हैं और मैं चाहता हूँ कि भारत का प्रत्येक मनुष्य भारतीय बने, अंत तक भारतीय रहे और भारतीय के अलावा कुछ न बने।’ उनके अनुसार, ‘महान प्रयासों को छोड़कर इस दुनिया में कुछ भी बहुमूल्य नहीं है।’ आज मोदी जी ने बाबासाहेब के इन्हीं आदर्शों को ‘राष्ट्र सर्वप्रथम, हमेशा सर्वप्रथम ‘ के सिद्धांत के रूप में आत्मसात कर लिया है। एक बार फिर हम उनके एक अन्य कथन को अपने जीवन का मूलमंत्र बनाएं- ‘जीवन लंबा नहीं, बल्कि बड़ा और महान होना चाहिए।’ बाबासाहेब के जन्मदिन पर उनके प्रति हम सबकी यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
अभी हम आंबेडकर का बहुत असर देखेंगे
बद्री नारायण, ( निदेशक, जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान )
बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की जो निर्मिति है, वह लोकतंत्र की यात्रा के साथ-साथ विकसित और व्यापक होती जा रही है। आंबेडकर ऐसे समय में आए, जब औपनिवेश का समय था, तब उन्होंने वंचित समाज के मुद्दे उठाए। उस समय उनका जो प्रभाव था, आज उससे कई गुना ज्यादा हो गया है। उन्होंने पूरे समाज को प्रभावित किया और हम देख रहे हैं, लोकतंत्र में उनकी जगह निरंतर बढ़ती चली जा रही है।
आज चाहे कोई राजनीतिक दल हो, कोई भी विचार हो, आंबेडकर सबकी जरूरत बन गए हैं। भारतीय समाज की आज जो राजनीति है, उसके अधिकतर हिस्से को आंबेडकर ने प्रभावित कर रखा है। वह आज भी समाज को संबोधित कर रहे हैं और इसका सिद्धांत भी है और व्यवहार भी। वह समस्या भी बताते हैं और समाधान भी देते हैं, इसलिए आंबेडकर हमारे लोकतंत्र में विचार-व्यवहार में निरंतर साथ खड़े मिलते हैं। उनके निर्माण में नए-नए रंग जुड़ते जा रहे हैं, जैसे एक तरफ आंबेडकर वाम की जरूरत हैं, तो दक्षिणपंथ की भी जरूरत हैं। वह दलित समूह की जरूरत तो हैं ही, व्यापक भारतीय राजनीति की भी जरूरत हैं।
वक्त के साथ उनके साथ नए-नए तत्व जुड़ते जा रहे हैं। उन्होंने दलित समाज, भारतीय समाज और लोकतंत्र के लिए भी खूब चिंतन किया है। आंबेडकर के प्रभाव में दलित व वंचित समुदाय लगातार सतर्क और जागरूक होते जा रहे हैं। आंबेडकर के प्रभाव में इन समुदायों का लोकतांत्रिक मूल्य भी बढ़ता जा रहा है। जाहिर है, जब उसका मूल्य बढ़ रहा है, तो सबकी जरूरत भी बढ़ रही है। इन समुदायों में जागरूकता बढ़ने में शिक्षा की भी बड़ी भूमिका है, आंबेडकर खुद भी शिक्षा को बहुत मूल्यवान मानते थे। राजनीति में भी आंबेडकर के नए-नए स्वरूप बन रहे हैं। दक्षिण भारत में एक अलग तरह का आंबेडकरवादी आंदोलन है, महाराष्ट्र में अलग आंबेडकर हैं, तो उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्यों में अलग हैं।
एक पहलू यह भी है कि आंबेडकर ने अपने विचारों से जो चेतना पैदा की, वह अलग से रेखांकित करने योग्य है। ऐसा अक्सर देखा गया है कि जब कोई विचारक चला जाता है, तो वह बहुत प्रासंगिक नहीं रह जाता है। एक समय आता है, जब लोग विचारक को भूल जाते हैं। अगर आंबेडकर को हम देखें, तो वह अपने समय में चुनाव हार गए थे, लेकिन आज आंबेडकर इतने सशक्त हैं कि उनके नाम पर सत्ता परिवर्तन हो सकता है। उनके नाम पर सरकार जा सकती है और बन भी सकती है।
इसके अलावा प्रशासन में भी आंबेडकर का असर पड़ा है। जो समूह चेतस हुए हैं, वह शासन-प्रशासन और विकास में अपनी हिस्सेदारी के लिए लगातार प्रयासरत हैं। यह आज के समय का सच है कि हर जगह वंचिंतों को हिस्सा देना पड़ रहा है। अब सवाल यह है कि जब इतनी हिस्सेदारी मिल रही है, तो दलित या वंचित समूहों में इतनी गरीबी या इतना अभाव क्यों है? इसकी एक ही वजह है कि शिक्षा का प्रसार अभी उतने गहरे तरीके से नहीं हुआ है। वंचित समूह में अभी तक एक छोटा हिस्सा ही शिक्षित व जागरूक हुआ है। जैसे-जैसे उन तक चेतना पहुंचेगी, शिक्षा पहुंचेगी, उनमें विकास की आकांक्षा भी बढ़ेगी। अच्छे जीवन की कामना की चाह पैदा होगी, जब यह चाह पैदा होगी, तब लक्ष्य प्राप्त करने की शक्ति भी आएगी।
ऐसे में, आंबेडकर का अभी तक जो असर हुआ है, वह बहुत थोड़ा ही है। उनका बहुत बड़ा असर होना शेष है, जब ऐसा होगा, तब यह एक बड़ा खजाना होगा, जिससे भारतीय समाज संपन्न और सजग होगा। जब तमाम वंचितों तक रोशनी पहुंचेगी, तब हमारा लोकतंत्र भी बदल जाएगा।
अब प्रश्न उठता है कि जब यह होगा, तो उसके पहले क्या बदलाव होंगे? वास्तव में ऐसे बदलाव होने भी लगे हैं। वामपंथी पार्टियां और भाजपा भी आंबेडकर को याद कर रही हैं, उन्हें जरूरी मान रही हैं। अपनी योजनाओं में आंबेडकर को शामिल करके चल रही हैं। सभी राजनीतिक पार्टियां जब यह काम करने लगेंगी, तब आंबेडकर की चेतना धीरे-धीरे हर जगह फैल जाएगी। उनका नाम-विचार फैलेगा। एक समय आएगा, जब गुणात्मक परिवर्तन होगा और तब बड़े बदलाव आएंगे, वंचित-दलित ज्यादा बड़े पैमाने पर संगठित होंगे।
आजादी की लड़ाई जब चल रही थी, तब एक तरफ गांधी उसका प्रतिनिधित्व कर रहे थे, तो दूसरी तरफ, आंबेडकर भी अलग स्तर पर सक्रिय थे। वह आजादी को व्यापक स्वरूप में देख रहे थे। उनका यह कहना था कि आजादी मिले, तो दलित मुक्ति भी हो, यह नहीं कि आजाद तो हम हो जाएं, लेकिन वंचितों की स्थिति जस की तस रहे। आजादी की लड़ाई में वह भले आगे न दिखे हों, ट्रेन न जलाए हों, नारे न लगाए हों, लेकिन वह आजादी के व्यापक विचार पर काम कर रहे थे। आजादी मिलने के बाद जो भारत बनना था, उस पर चिंतन शुरू कर चुके थे। एक पक्ष यह मानता है कि गांधीजी के संदर्भ में उनका विरोध सही नहीं था, लेकिन वंचित-दलितों का तबका यह मानता है कि उस समय यह विवाद होना जरूरी था। आंबेडकर को लगता था कि गांधीजी दलित मुद्दों को ठीक से संबोधित नहीं कर रहे हैं। आंबेडकर आधुनिकतावादी थे, बाहर से पढ़कर आए थे, गांधी भी बाहर पढ़े थे, लेकिन वह भारतीय पारंपरिक मानस के दायरे में थे। गांधीजी चाहते थे कि आजादी के बाद सब मिलकर काम करें, बाघ और बकरी भी एक घाट पर मिल जाएं, पर तब बकरी का पक्ष रखने वाला भी तो कोई होना चाहिए था और यह काम आंबेडकर ने किया। गांधीजी और आंबेडकर का विरोधाभास होना ही था। यह सकारात्मक था, अगर यह नहीं होता, तो भारतीय आजादी भी पूरी नहीं होती। आज गांधीजी भी जरूरी हैं और आंबेडकर भी।
आज आंबेडकर से बहुत कुछ सीखा जा सकता है, पर उनमें दो गुण ऐसे हैं, जो हर भारतीय में होने चाहिए। समानता के प्रति वह प्रतिबद्ध थे, वह हर चीज को समानता की दृष्टि से देखते थे और हर भारतीय में समानता के प्रति आग्रह आज बहुत जरूरी है। दूसरा गुण यह है कि आंबेडकर पढ़ते बहुत थे, उनमें ज्ञान की आकांक्षा बहुत थी। यह एक ऐसा गुण है, जिसकी कमी को आज भारतीय राजनीति में भी सबसे ज्यादा महसूस किया जा रहा है। एक अच्छे लोकतंत्र के लिए ज्ञान की आकांक्षा हर किसी में होनी ही चाहिए।
Date:14-04-23
सरकार से जुड़ी फर्जी खबरों को रोकने की गंभीर कोशिश
पवन दुग्गल, ( साइबर कानून विशेषज्ञ )
ऑनलाइन दुनिया में खुद से जुड़ी भ्रामक और फर्जी सूचनाओं के खिलाफ सरकार सक्रिय हो गई है। सूचना प्रौद्योगिकी नियम-2021 में संशोधन करके एक ऐसी नियामक इकाई के गठन का फैसला किया गया है, जो सरकार से जुड़ी सूचनाओं की सच्चाई बताएगी। यह न सिर्फ ‘फैक्ट चेक’ करेगी, बल्कि ‘फर्जी’ और ‘झूठी’ सूचनाओं के रूप में ऐसी खबरों को चिह्नित भी करेगी। ऐसी खबरों को ऑनलाइन मंचों से हटाना अनिवार्य होगा। ऐसा न करने पर संबंधित व्यक्ति के खिलाफ कानूनी कार्रवाई भी की जा सकेगी।
जाहिर है, ऑनलाइन खबरों और सूचनाओं की विश्वसनीयता सुनिश्चित करने के लिए यह सब किया जा रहा है। ऐसा करना जरूरी था। खासतौर से, कोरोना-काल के बाद से भारत फर्जी खबरों के एक नए दौर से गुजर रहा है। इसमें भारतीय इंटरनेट उपभोक्ता डिजिटल ऑथर, डिजिटल ट्रांसमीटर और डिजिटल ब्रॉडकास्टर बन गए हैं। यह एक नई क्रांति है, जिसे मैं ‘भारत की महान उल्टी क्रांति’ कहता हूं। इसमें हर कोई बिना सोचे-समझे इंटरनेट पर डाटा की उबकाई कर रहा है। उसे यह तक नहीं पता कि इससे उसकी निजता कितनी प्रभावित हो रही है? इन सबसे घर-घर तक फेक न्यूज का जाल पहुंच गया है। चूंकि इससे निपटने के लिए कोई खास कानून अपने देश में अब तक नहीं बन सका है, इसलिए आईटी नियमों के तहत सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के लिए दिशा-निर्देश जारी किए गए और अब फैक्ट चेक करने वाली नियामक इकाई बनाने की बात कही गई है। सरकार मानती है कि सरकारी एजेंसियों व संस्थानों के संदर्भ में कई तरह की फर्जी खबरें प्रसारित होने लगी हैं, जिनका निवारण जरूरी है। यह इकाई केवल सरकार से जुड़ी सूचनाओं की विश्वसनीयता जांचेगी, बाकी खबरों से इसका कोई सरोकार नहीं होगा। यह एकमात्र ऐसी इकाई होगी, जो बताएगी कि सरकार के बारे में प्रकाशित जानकारी सच है या गलत? उसका फैसला सर्वोपरि होगा।
चूंकि मौजूदा सरकार पारदर्शिता पर ज्यादा भरोसा करती है, इसलिए वह चाहती है कि लोगों तक सत्यापित सूचना पहुंचे। अगर कोई शख्स फैक्ट चेक यूनिट के नतीजों से खुद को पीड़ित महसूस करेगा, तो उसके पास ऊपरी अधिकारियों और विभाग के पास अपनी शिकायत दर्ज करने का मौका होगा। कई लोग इसीलिए भी इसकी आलोचना कर रहे हैं, क्योंकि उनकी नजर में यह अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का हनन है। वे अन्य देशों का उदाहरण दे रहे हैं। उनका यह भी मानना है कि यह कवायद सरकार द्वारा अपने विरुद्ध प्रसारित होने वाली खबरों को नियंत्रित करने का एक प्रयास है और इससे सरकार विरोधियों को निशाना बनाया जाएगा। ऐसी आशंकाएं खारिज नहीं की जा सकतीं, पर यदि किसी को लगता है कि इससे उसके अधिकारों को चोट पहुंच रही है, तो वह मानवाधिकारों की रक्षा के लिए हाईकोर्ट में संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत और सर्वोच्च न्यायालय में अनुच्छेद 32 के तहत याचिका दायर कर सकता है। हालांकि, हमें यह समझना चाहिए कि मौलिक अधिकार असीमित नहीं है। सरकार इसके प्रयोग पर ‘औचित्यपूर्ण’ प्रतिबंध लगा सकती है।
इस प्रयास को सकारात्मक नजर से देखना होगा। सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म इतने दूषित हो चुके हैं और वहां इस तरह के भ्रामक नैरेटिव गढ़े जा रहे हैं कि सरकार के सामने कहीं-न-कहीं अपना पक्ष रखना जरूरी हो गया है। पूर्व में, ऐसे कई लोग हिरासत में लिए जा चुके हैं, जिन्होंने सच के साथ छेड़छाड़ करके माहौल खराब करने की कोशिश की थी।
इसके अलावा, सरकार के पास इतना अधिकार तो होना ही चाहिए कि वह अपने खिलाफ प्रसारित की जा रही बातों पर सफाई दे सके। हालांकि, सरकार चाहे, तो इस इकाई के कथित दुरुपयोग से जुड़ी चिंताओं का इलाज सिर्फ एक उपाय से कर सकती है। वह इस फैक्ट चेक यूनिट को स्वायत्त बना सकती है। फिलहाल इसकी पूरी रूपरेखा सामने नहीं आई है, पर माना जा रहा है कि मौजूदा नियम-कानूनों के आधार पर ही इसका गठन होगा। लोगों के व्यापक हित को देखते हुए ऐसे प्रयासों का हमें स्वागत करना चाहिए।