14-03-2023 (Important News Clippings)

Afeias
14 Mar 2023
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Date:14-03-23

Married Or Partnered

Politics won’t defy a largely traditional society. So, civil unions may be a good first step for same-sex couples

TOI Editorials

GoI has told the Supreme Court it opposes same-sex marriage, arguing such marriages would not be ‘compatible’ with the ‘Indian family unit’, and ‘clearly distinct’ classes cannot be treated identically. The executive’s and the legislature’s views on this are informed substantially by much of Indian society’s traditionalism and conservatism. But it is SC’s job to uphold fundamental rights, with or without popular endorsement. CJI has, hearteningly, observed that “atypical manifestations of the family unit” deserve legal protection.

Parts of the world have already legally enshrined marriage equality. Religious leaders have also buckled – staunchly religious countries like Ireland have legalised same-sex marriage after a referendum, majority opinion has swung in places like Australia and the US. Taiwan’s courts have legalised it, and even in Japan, where same-sex marriage remains illegal, 256 municipalities and 12 prefectures have ‘partnership oath systems’. Other jurisdictions that have held off on legalising same-sex marriage allow registered civil unions or domestic partnerships, which seek no religious validation, but bring most of the rights and responsibilities of a legal couple – to be at a hospital bedside, to have and raise children together, to own and inherit assets or operate a bank account together, be counted as family in matters of tax or immigration, to qualify for spousal support, get employment benefits and so on.

These civil unions, which can be also applied to anyone regardless of sexual orientation or gender, are more popular than traditional marriage in places like France and northern Europe. This is something India’s courts and lawmakers should seriously study. In fact, if the political class is discomfited by the notion of queer marriage, it should see civil union as a smart solution. And those rightly demanding marriage equality can also see this as a step forward.

India has the Special Marriage Act, a civil law that operates outside the personal laws of each religious community. There can be no argument that this Act must allow all classes of citizens the right to marry. But stifling social conservatism is a reality that politicians won’t ignore. Therefore, civil unions can be a good beginning. And not just for queer couples. SC has had to intervene many times in favour of live-in heterosexual couples. Civil unions, therefore, are an option for any two people seeking legal basis for their relationship.


Date:14-03-23

Indian Documentaries, Up On Our Watch List

ET Editorials

This year’s Academy Awards point to a trend gestating for some time now. Kartiki Gonsalves’ Tamil film, The Elephant Whisperers, which won the Oscar for Best Documentary Short Film (along with RRR for Best Original Score for ‘Naatu Naatu’), will now be sought after by viewers on Netflix. Set in the Mudumalai National Park, the film is ostensibly about a wounded, frail baby elephant being reared to recovery and the bond that develops between him and his two human ‘parents’. But with its stunning cinematography and delicate storyline, The Elephant Whisperers is about humans cohabiting with species in nature as part of the same community. As one of the key characters tells us, ‘We live off the forest, but we also protect it. ’ This is a powerful, moving film the Oscar has deservedly brought up on our ‘Watch List’.

Another Indian documentary, Shaunak Sen’s All That Breathes, about two brothers in Delhi who devote their lives to rescuing injured birds, was nominated in the Best Feature Documentary category. Together, both films mark the quiet ‘rise to the surface’ of Indian documentary films.

Quality documentaries, from Gautam Ghose’s 1989 documentary on the life of shehnai maestro Bismillah Khan Sange-Meel Se Mulaqat (Meeting a Milestone) to Nishtha Jain’s 2012 Gulabi Gang, about a group of women in Bundelkhand who take up the fight against gender violence and caste oppression, have been around. But television, a vital platform for this genre worldwide, has largely shrugged these films off in India, citing lack of viewer interest. Streaming services may be changing that: bringing documentaries like Smriti Mundhra’s The Romantics on the cinematic ‘House of (Yash and Aditya) Chopras’ to our screens.


Date:14-03-23

स्वास्थ्य में स्तरीय शोध की तत्काल जरूरत है

संपादकीय

इन्फ्लुएंजा की H3N2 किस्म ज्यादा संक्रामक है। नीति आयोग ने केंद्र के सभी संबंधित मंत्रालयों के साथ स्थिति का जायजा लिया है। स्वास्थ्य मंत्रालय ने सभी राज्यों को अलर्ट रहने को कहा है और डॉक्टरों ने मास्क और सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करने की हिदायत दी है। विकास के इस दौर में दुनिया एक अदृश्य वायरस के सामने लगातार बौनी दिखाई दे रही है। यह सच है कि माइक्रोबायोलॉजी के क्षेत्र में सेलुलर बायोलॉजी, जेनेटिक इंजीनियरिंग और वायरोलॉजी अभी अपेक्षाकृत नई विधाएं हैं और इन पर शोध बहुत भरोसेमंद नहीं हैं। यह भी सच है कि जेनेटिक बदलाव या म्युटेशन को समझने के वैज्ञानिक टूल्स भी अभी इतनी तेजी से विकसित नहीं हो सके हैं, जितनी तेजी से स्वयं वायरस की प्रकृति बदल रही है। लेकिन विश्व के वैज्ञानिक समुदाय को इस नए संकट को देखते हुए पूरी बौद्धिक शक्ति इसमें झोंकनी होगी। मुश्किल यह है कि कुछ देश विज्ञान के नाम पर जेनेटिक बदलाव के प्रयोगों को गुप्त तौर पर कर रहे हैं ताकि इसे हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा सके। वुहान में किए जा रहे जेनेटिक शोध को चीन ने विश्व समुदाय को नहीं बताया था। हालांकि इन सबके लिए ‘नागोया प्रोटोकॉल’ तैयार किया गया और तब से डब्ल्यूएचओ ने कई बैठकें भी कीं, लेकिन वैश्विक रूप से सही प्रोटोकॉल और उसके तहत क्रांतिकारी रूप से शोध करने की स्थिति आज भी नहीं बनी है। रोजाना दुनिया के लिए खतरा बने वेश बदल कर पैदा होने वाले वायरस के खिलाफ वैश्विक स्तर पर जेनेटिक साइंस के शोध को नई ऊंचाइयां देनी होंगी और इनके म्युटेशन और प्रसार की शक्ति को रोकने के तरीके खोजने होंगे। ज्यादा आबादी वाले देशों में मास्क व सोशल डिस्टेंसिंग लंबे समय तक नहीं चला सकते।


Date:14-03-23

अ​धिक स्वतंत्र निर्वाचन आयोग की दिशा में

टी टी राम मोहन

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त और निर्वाचन आयुक्तों की नियु​क्ति एक ऐसी समिति द्वारा की जाएगी जिसमें प्रधानमंत्री, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष (उनकी अनुप​स्थिति में सबसे बड़े विपक्षी दल का नेता) तथा देश के मुख्य न्यायाधीश शामिल होंगे।

अब तक ये नियु​क्तियां राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री की सलाह पर की जाती हैं। देखा जाए तो इस मामले पर पूरा अ​धिकार प्रधानमंत्री के पास ही था लेकिन अब ऐसा नहीं होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है कि उसने जो प्रक्रिया सामने रखी है वह तब तक जारी रहेगी जब तक कि संसद इस विषय में कोई कानून नहीं बना देती। जैसा कि इस निर्णय में कहा भी गया है कि निर्वाचन आयोग के पास महत्त्वपूर्ण श​क्तियां हैं। निर्वाचन आयोग एक राजनीतिक दल का पंजीयन कर सकता है। वह राजनीतिक दलों को मान्यता दे सकता है और उन्हें चुनाव चिह्न आवंटित कर सकता है। जब किसी राजनीतिक दल का विभाजन होता है तो वह तय कर सकता है कि कौन सा धड़ा मूल पार्टी है। वह राजनीतिक दलों को आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन के लिए दंडित कर सकता है। किसी प्रत्याशी को चुनाव प्रचार करने से रोक सकता है। अगर इनमें से किसी भी श​क्ति का दुरुपयोग किया गया तो स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों की प्रक्रिया बा​धित हो सकती है। सभी राजनीतिक दल इस बात को लेकर मुखर रहे हैं कि चुनाव आयोग अपनी श​क्तियों का दुरुपयोग करता रहा है। इसके बावजूद किसी सरकार ने चुनाव आयोग की नियु​क्तियों में कार्यपालिका के दखल को कम करने का प्रयास नहीं किया। ये नियु​क्तियां अफसरशाही में से की जाती रहीं। कोई भी सरकार हो, वह ऐसे अफसरशाहों को चुनती रही जो उसके अनुकूल हों। बीते वर्षों में कई समितियों और स्वयं निर्वाचन आयोग ने नियु​क्ति प्रक्रिया में आमूलचूल बदलाव की अनुशंसा की लेकिन वह हो न सका।

अब सर्वोच्च न्यायालय ने दखल देना उचित समझा। उसके निर्णय का स्वागत हुआ क्योंकि लोकतंत्र के लिए स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव जरूरी हैं। सही मायनों में स्वतंत्र निर्वाचन आयोग एक अनिवार्य शर्त है।

इस दौरान न्यायालय को कुछ कठिनाइयों का भी सामना करना पड़ा। संविधान के संबं​धित अनुच्छेद को पढ़ने पर लगता नहीं कि न्यायालय को हस्तक्षेप का अ​धिकार है। निर्वाचन आयुक्तों की नियु​क्ति से संबं​धित संविधान के अनुच्छेद 324(2) में कहा गया है, ‘निर्वाचन आयोग में मुख्य निर्वाचन आयुक्त तथा उतनी तादाद में निर्वाचन आयुक्त होने चाहिए, जितना कि राष्ट्रपति समय-समय पर तय करें। मुख्य निर्वाचन आयुक्त तथा अन्य आयुक्तों की नियु​क्ति संसद की ओर से राष्ट्रपति द्वारा इस बारे में बनाए गए कानून के अनुसार होनी चाहिए।’

संविधान ने निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति के लिए कानून बनाने का काम संसद पर छोड़ दिया। सर्वोच्च न्यायालय का 169 पन्नों का निर्णय पढ़ने लायक है क्योंकि यह इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप का न्यायिक और संवैधानिक आधार बताता है। उसने इस विषय में संविधान सभा की बहसों का भी उल्लेख किया। यह स्पष्ट है कि संविधान सभा के सदस्य नहीं चाहते थे कि निर्वाचन आयुक्त की नियु​क्ति पूरी तरह कार्यपालिका के हवाले हो। वे चाहते थे कि ये नियु​क्तियां कुछ तय मानकों के अनुसार हों। इन्हीं अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए भीमराव आंबेडकर ने संशोधन पेश किया जो संसद को इस नियु​क्ति प्रक्रिया के लिए कानून बनाने की इजाजत देता है।

संसद ने कानून पारित नहीं किया। हमारा निर्वाचन आयोग ऐसा नहीं है कि जो उस स्वतंत्रता की आश्व​स्ति देता हो जैसा कि संविधान निर्माताओं ने चाहा था। अदालती फैसले में अहम बात यह है उसने निर्वाचन आयोग की स्वायत्तता और नागरिकों के बुनियादी अ​धिकारों के इस्तेमाल को जोड़ दिया है।

मतदान का अ​धिकार बुनियादी अधिकार नहीं है। लेकिन मतदान के समय अ​भिव्य​क्ति की आजादी के अ​धिकार को सर्वोच्च न्यायालय अ​भिव्य​क्ति की आजादी का ही हिस्सा मानता है जो एक बुनियादी अ​धिकार है। मतदाता खुद को तब तक स्वतंत्र ढंग से अ​भिव्यक्त नहीं कर सकते जब तक कि उनके पास जरूरी सूचना न हो। एक स्वतंत्र निर्वाचन आयोग यह सूचना मुहैया करा सकता है।

इतना ही नहीं स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों का अर्थ यह है कि प्रत्याशी और राजनीतिक दलों के साथ किसी तरह का भेदभाव न हो। अगर ऐसा होता है तो यह समता के बुनियादी अ​धिकार का उल्लंघन होगा। अगर निर्वाचन आयोग स्वतंत्र नहीं हुआ तो नागरिक अ​भिव्य​क्ति और समता के अपने मूल अ​धिकार का प्रयोग नहीं कर पाएंगे। सर्वोच्च न्यायालय का मौजूदा हस्तक्षेप इस लिहाज से भी अहम है।

कार्यपालिका द्वारा निर्वाचन आयोग की नियु​क्तियां उसकी स्वायत्तता को किस प्रकार प्रभावित करती है? सर्वोच्च न्यायालय पहले कह चुका है कि अगर किसी व्य​क्ति को दूसरे के किसी कदम से लाभ होता है तो वह इसके बदले जरूर कुछ करेगा। निर्वाचन आयुक्त एक ऐसा पद है जिसे कई अफसरशाह लेना चाहते हैं। अगर कार्यपालिका किसी व्य​क्ति को इस पद पर नियुक्त करती है तो वह निश्चित रूप से कार्यपालिका के प्रति उपकृत महसूस करेगा। ऐसे में एक समिति द्वारा नियु​क्ति होने से उसके निष्पक्ष होने की संभावना बढ़ जाएगी।

सर्वोच्च न्यायालय कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच शक्ति विभाजन को लेकर पूरी तरह जागरूक है। वह समझता है कि निर्वाचन आयोग के सदस्यों की नियु​क्ति की प्रक्रिया तय करके वह विधायिका के क्षेत्र में दखल दे रहा है। निर्णय में इस मसले का भी ध्यान रखा गया।

न्यायालय ने कहा कि कानून बनाना पूरी तरह विधायिका का क्षेत्र नहीं है। समय-समय पर दुनिया भर की संवैधानिक अदालतों ने कानून बनाए हैं और नए अधिकारों का सृजन किया है। इतना ही नहीं सबसे बड़ी अदालत हर उस जगह पर दखल दे सकती है जहां वह देखते है कि कर्तव्यों का पालन नहीं हो पा रहा है।

संविधान निर्माताओं ने साफ तौर पर एक कानून की जरूरत की बात कही थी जो निर्वाचन आयोग के सदस्यों के चयन की प्रक्रिया बताए। संसद सात दशकों तक ऐसा कानून नहीं बना सकी जिसकी वजह से सर्वोच्च न्यायालय को दखल देना पड़ा।

न्यायालय की दलीलें बहुत ठोस हैं। उसके निर्णय को पढ़ने वाला कोई भी व्यक्ति समझ सकता है कि यहां न्यायपालिका ने अना​धिकार चेष्टा नहीं की है। उसने बस इस बात पर जोर दिया है कि जब तक संसद उपयुक्त कानून नहीं बना लेती है तब तक ऐसी व्यवस्था कायम रह सकती है। अब बेहतर यही होगा कि संसद खुद कोई ठोस हल सुझाए जो संविधान निर्माताओं के सोच के अनुरूप हो।


Date:14-03-23

अवधारणा बनाम अधिकार

संपादकीय

समलैंगिक विवाह को मौलिक अधिकार बनाने की मांग स्वाभाविक ही संवैधानिक तकाजे और विवाह संबंधी सामाजिक अवधारणा के बीच बहस का विषय बन गई है। सर्वोच्च न्यायालय में हलफनामा दायर कर केंद्र सरकार ने कहा कि वह समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने के पक्ष में नहीं है। भारतीय समाज में विवाह की अवधारणा एक स्त्री और पुरुष के बीच के संबंधों पर आधारित है, जिससे संतानोत्पत्ति हो सके। अगर समलैंगिक विवाह को मान्यता दी जाती है, तो उससे स्वीकृत सामाजिक मूल्यों और व्यक्तिगत कानूनों के बीच का नाजुक संतुलन बुरी तरह प्रभावित होगा। एक समलैंगिक जोड़े ने सर्वोच्च न्यायालय में अपने विवाह को मान्यता देने की गुहार लगाई थी, जिस पर अदालत ने सरकार से जवाब मांगा था। उसी संबंध में केंद्र का ताजा जवाब आया है। हालांकि समलैंगिक विवाह को मान्यता देने संबंधी कई याचिकाएं दिल्ली उच्च न्यायालय और दूसरी अदालतों में लंबित हैं। इस तरह सर्वोच्च न्यायालय में उठे मामले में जो भी फैसला आएगा, वह तमाम ऐसी याचिकाओं में मिसाल बनेगा। केंद्र के हलफनामे के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले पर विचार के लिए संविधान पीठ का गठन कर दिया है, जो इससे संबंधित संवैधानिक पहलुओं पर विचार करने के बाद किसी निर्णय पर पहुंच सकेगी।

सरकार के इस तर्क को सिरे से नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि भारत जैसे देश में विवाह स्त्री और पुरुष का एक पवित्र बंधन माना जाता है। इसलिए समाज कभी दो समान लिंग के व्यक्तियों का पति-पत्नी की तरह रहना स्वीकार नहीं कर सकता। ऐसे में कोई भी सरकार ऐसा कोई विधान बनाने को तैयार नहीं हो सकती, जो सामाजिक मूल्यों के विरुद्ध जाता हो। मगर सवाल यह भी है कि जब समाज खुद बदलती स्थितियों के मुताबिक अपने मूल्यों में बदलाव करता रहता है, तो कानूनों में लचीलापन लाने से क्यों परहेज होना चाहिए। दुनिया के करीब तीस देशों में समलैंगिक विवाह को मान्यता प्राप्त है, पर वहां भी लंबे संघर्ष के बाद ही समलैंगिकों को यह अधिकार मिल सका। इसी तरह भारत में भी साढ़े चार साल पहले तक समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी में रखा गया था, मगर सर्वोच्च न्यायालय ने दो समलैंगिकों को साथ रहने की कानूनी आजादी प्रदान कर दी। पर उन्हें विवाह की इजाजत देने को लेकर कई कानूनी अड़चनें हैं, जो दूसरे विवाहों के लिए बनाए गए हैं। मसलन, घरेलू हिंसा, संबंध विच्छेद के बाद गुजारा भत्ता, ससुराल-मायका, पितृ-मातृधन पर अधिकार जैसे मसले जटिल साबित होंगे। उन देशों में भी इन पक्षों पर उलझन बनी हुई है, जहां समलैंगिक विवाह को मान्यता प्राप्त है।

मगर इसका दूसरा संवैधानिक पहलू यह भी है, जिसके आधार पर विवाह को मान्यता प्रदान करने की गुहार लगाई गई ह, कि जब हर व्यक्ति को अपनी पसंद के व्यक्ति से विवाह करने का मौलिक अधिकार प्राप्त है, तो फिर समलैंगिकों को इससे वंचित क्यों रखा जा सकता है। मगर सरकार इसे मौलिक अधिकार के क्षेत्र में नहीं मानती। सर्वोच्च न्यायालय के सामने यही पेच है, जिसे संविधान पीठ विचार करके सुलझाने का प्रयास करेगी। कई विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि ऐसे जोड़ों को विवाह की कानूनी इजाजत न मिलने से वे न सिर्फ एक मौलिक अधिकार, बल्कि अनेक अधिकारों से वंचित रह जाते हैं। सर्वोच्च न्यायालय समलैंगिक जोड़ों के प्रति उस तरह नहीं देख सकता, जिस तरह आम समाज देखता है। इसलिए स्वाभाविक ही उसके फैसले की तरफ निगाहें लग गई हैं।


Date:14-03-23

सामाजिक ढांचा न बिगड़े

संपादकीय

समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने का विरोध करके केंद्र ने ठीक ही किया है। ऐसे विवाहों से व्यक्तिगत कानूनों और स्वीकार्य सामाजिक मूल्यों का संतुलन बिगड़ने की आशंका गलत नहीं है। उच्चतम न्यायालय के समक्ष दाखिल हलफनामे में सरकार ने कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के जरिये इसे वैध करार दिये जाने के बावजूद, याचिकाकर्ता देश के कानूनों के तहत समलैंगिक विवाह के लिए मौलिक अधिकार का दावा नहीं कर सकते हैं। केंद्र का यह कथन कितना समीचीन है कि विवाह, कानून के एक संस्था के रूप में, विभिन्न विधायी अधिनियमों के तहत कई वैधानिक परिणाम हैं। इसलिए, ऐसे मानवीय संबंधों की किसी भी औपचारिक मान्यता को सिर्फ दो वयस्कों के बीच गोपनीयता का मुद्दा नहीं माना जा सकता है। अपने हलफनामे में केंद्र ने कहा कि भारतीय लोकाचार के आधार पर ऐसी सामाजिक नैतिकता और सार्वजनिक स्वीकृति का न्याय करना और उसे लागू करना विधायिका का काम है। केंद्र ने कहा कि भारतीय संवैधानिक कानून न्यायशास्त्र में किसी भी आधार के बिना पश्चिमी निर्णयों को इस संदर्भ में आयात नहीं किया जा सकता है। सच है कि समलैंगिक व्यक्तियों के बीच विवाह को न तो किसी असंहिताबद्ध कानून या किसी संहिताबद्ध वैधानिक कानूनों में मान्यता दी जाती है और न ही इसे स्वीकार किया जाता है। इसलिए भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के बावजूद, याचिकाकर्ता देश के कानूनों के तहत समलैंगिक विवाह को मान्यता देने के मौलिक अधिकार का दावा नहीं कर सकते हैं। केंद्र का यह तर्क कितना समसामयिक है कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकार कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अधीन हैं और इसे देश के कानूनों के तहत मान्यता प्राप्त करने के लिए समलैंगिक विवाह के मौलिक अधिकार को शामिल करने के लिए विस्तारित नहीं किया जा सकता है, जो वास्तव में इसके विपरीत है। वस्तुत: विवाह/मिलन/संबंध तक सीमित विवाह की प्रकृति में विषमलैंगिक होने की मान्यता पूरे इतिहास में आदर्श है और राज्य के अस्तित्व और निरंतरता दोनों के लिए मूलभूत आधार है। इस स्थिति में कोई भी परिवर्तन पूरे सामाजिक ढांचे को बिगाड़ सकता है। इस मामले में आधुनिकता की होड़ में पश्चिम का अंधानुकरण करने की जरूरत नहीं है। बहरहाल वह मामला संविधान पीठ को चला गया है जो 18 अप्रैल से इसकी सुनवाई करेगी।


Date:14-03-23

भारतीय सिनेमा का बिगुल नाटू-नाटू

जयंती रंगनाथन, ( कार्यकारी संपादक, हिंदुस्तान )

फिल्मों के लिए दिया जाने वाला सबसे पहला और सबसे महत्वपूर्ण पुरस्कार है ऑस्कर। 1929 में पहली बार यह पुरस्कार दिया गया था। 94 साल से ऑस्कर की विरासत चली आ रही है और पूरी दुनिया में इसे सबसे प्रतिष्ठित माना जाता है।

इस वक्त जब हम एसएस राजमौलि की बहुभाषीय (मूल तेलुगू) फिल्म आरआरआर के लोकप्रिय गाने नाटू-नाटू को सर्वश्रेष्ठ मौलिक गीत और द एलिफेंट व्हिस्परर्स को सर्वश्रेष्ठ डॉक्यूमेंट्री का ऑस्कर मिलने की खुशियां मना रहे हैं, मैं जरा पीछे जाना चाहूंगी। आज हमने जो हासिल किया है, उसकी तैयारी बहुत पहले से हो रही थी। मैं उस समय को याद करना चाहती हूं, जब दादा साहब फाल्के ने मुंबई के अमेरिका-इंडिया पिक्चर पैलेस में द लाइफ ऑफ क्राइस्ट फिल्म देखी थी। बात है सन 1910 की। फाल्के पहली बार पिक्चर देख रहे थे और अभिभूत होकर ताली बजा रहे थे। इसके बाद लगातार कई दिनों तक उन्होंने यह फिल्म देखी, अपनी पत्नी को भी दिखलाई। फिर एक दिन निर्णयात्मक स्वर में बोले, ‘मैं भी हिंदी में धार्मिक और मिथकीय चरित्र पर फिल्में बनाऊंगा।’ उनकी बात पर यकीन किसी को न हुआ, पर अगर उन्होंने उस दिन यह निर्णय नहीं लिया होता, तो शायद आज हम खुशियां नहीं मना रहे होते।

फिल्म बनाने की तकनीक सीखने के लिए फाल्के पानी जहाज से इंग्लैंड गए और वहां तीन महीने रहकर जब मुंबई आए, तो उनके मन में ख्वाब जन्म ले चुका था। उनके लिए इस सपने को पूरा करना कतई आसान नहीं था। लगातार फिल्में देखते रहने से उनकी आंखें जवाब देने लगीं, पर वह रुके नहीं। 1913 में पहली हिंदी फिल्म राजा हरिश्चंद्र बना ही डाली। वह एक शुरुआत थी हिन्दुस्तान में फिल्म निर्माण व फिल्म से आम लोगों के जुड़ने की। मूक फिल्मों के दौर में भी यह बात साफ हो गई थी कि हिन्दुस्तानियों के लिए फिल्म देखना तीन घंटे के मनोरंजन से कहीं अधिक है।

एक बेहतर दौर आया, जब एक तरफ, मुंबई में राज कपूर, महबूब खान, वी शांताराम, गुरु दत्त जैसे दिग्गज थे, तो बंगाल में सत्यजित रे, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन जैसे माहिर निर्देशक। दक्षिण भारत में तेलुगू, तमिल व मलयालम सिनेमा भी फल-फूल रहे थे। के बालचंद्र, एनटी रामाराव, अडूर गोपाल कृष्णन जैसे कई निर्माता-निर्देशक हुए, जो भारतीय सिनेमा को दुनिया के सामने बहुत सम्मान और चाहत के साथ ले गए।

हमारी फिल्में तब भी हॉलीवुड की फिल्मों से बहुत अलग होती थीं और आज भी हैं। हम हिन्दुस्तानियों का डीएनए और हमारी समझ भी अलग है। वही फिल्में लोगों तक पहुंचतीं और चल पाती थीं, जिनमें कला, मनोरंजन और संदेश के साथ कोई सपना भी होता था। हमारे सुख-दुख के साथ जुड़ा सिनेमा जीवन के साथ जुड़ गया। राज कपूर जब टखने से ऊपर पैंट और ढीली शर्ट पहनकर आवारा हूं गाते हैं, तो लोग उनके किरदार को आत्मसात कर लेते हैं। मदर इंडिया, दो आंखें बारह हाथ, मुगल-ए-आजम, श्री420 जैसी फिल्मों ने विदेश में भी खूब नाम कमाया। सत्यजित रे की पथेर पांचाली को कान्स में सर्वश्रेष्ठ ह्यूमन डॉक्यूमेंट का पुरस्कार मिला था। यह फिल्म बाफ्ता पुरस्कारों के लिए भी नामांकित की गई थी।

उन्नीस सौ सत्तर के दशक के बाद फिल्मों को नए नायक और अभिप्रायों की जरूरत पड़ी। यह वह वक्त था, जब मुंबई में एंग्री यंग मैन और दक्षिण में नायकन अपनी छाप छोड़ने लगा था। आजादी के पच्चीस साल बाद देश के नौजवान उद्देश्यहीन, कुंठित व बेरोजगारी से बेहाल थे और इन सबको फिल्मों में जैसे आवाज मिल गई। ‘हालचाल ठीकठाक है, सब कुछ ठीकठाक है, बीए किया है, एमए किया, लगता है सब कुछ ऐंवे किया, आपकी दुआ से सब ठीकठाक है’, इस स्वर के साथ नई पीढ़ी को अपना नायक मिल गया, जो अकेले खलनायक से लड़ने चल पड़ता था।

एक वक्त हमारी फिल्मों के लिए अंडर वर्ल्ड का लगा पैसा, वीडियो पायरेसी, बंद होते सिंगल स्क्रीन चुनौती थे। धीरे-धीरे हमने इन चुनौतियों से पार पा लिया और आज यहां तक पहुंच गए कि हमारी फिल्में कथानक, तकनीक और प्रस्तुति के लिहाज से किसी भी हॉलीवुड फिल्म से कमतर नहीं हैं। हॉलीवुड के पास अगर अवतार है, तो हमारे पास बाहुबली है। उनके पास एक्शन थ्रिलर मिशल इंपॉसिबल और टॉपगन हैं, तो हमारे पास स्पाई सीरीज टाइगर और पठान हैं। हमारी फिल्में विदेश में भी अब अरबों का व्यवसाय कर रही हैं और यही वजह है कि हॉलीवुड के महान कलाकार और निर्देशक अब हिन्दुस्तानी फिल्मों का हिस्सा बनने को आतुर हैं।

सही मायने में पैन इंडिया की बात तो अब जाकर हुई है। तेलुगु और तमिल में बनने वाली फिल्में हिंदी में डब होकर उसी दिन रिलीज होती हैं और सफलता भी पाती हैं। इसलिए जब एसएस राजमौलि अपनी फिल्म आरआरआर के साथ ऑस्कर के लिए जाते हैं, तो समूचा हिन्दुस्तान इस फिल्म से इत्तफाक रखता है।

एक बात और। ऑस्कर में नामांकित होना और अवॉर्ड पाना कतई आसान नहीं है। सालों से हमारे फिल्मकार अपनी फिल्में वहां ले जाते रहे हैं और अपनी पहचान बनाने की कोशिश करते रहे हैं। मदर इंडिया, लगान और सलाम बॉम्बे जैसी फिल्में ऑस्कर में नामांकित होकर अंतिम दौर तक पहुंची थीं। हर साल हमारे यहां से ऑस्कर के लिए फिल्म नामांकित होती है। इसके बाद यह निर्माता और उनकी टीम का दायित्व होता है कि वहां जाकर अपनी फिल्म की मार्केटिंग करें और चयन समिति के सदस्यों को अपनी फिल्म दिखाएं। राजमौलि और उनकी टीम ने यह काम बखूबी किया है। नाटू-नाटू गाना बेशक संगीतकार एमएम कीरवानी की सर्वश्रेष्ठ धुन नहीं है, पर यह गाना हम हिन्दुस्तानियों का सही तरह से प्रतिनिधित्व करता है। आजादी की लड़ाई में जूझ रहे नायकों को जब नाचने की चुनौती मिलती है, तो वे ऐसा समा बांध देते हैं कि अंग्रेज स्त्री-पुरुष भी थिरकने से खुद रोक नहीं पाते हैं। इस गीत की सुंदरता इसके शब्दों या धुन में नहीं, बल्कि उस रौनक में है, जो अब हम सबके भीतर है।

वैसे नाटू-नाटू को गोल्डन ग्लोब अवॉर्ड मिलने के बाद से ही ऑस्कर का दावेदार माना जा रहा था, पर जो अवॉर्ड भारतीय डॉक्यूमेंट्री शॉर्ट फिल्म द एलिफेंट व्हिस्परर्स को मिला है, वह भी लगभग तय माना जा रहा था। दक्षिण भारत के एक गांव के दंपती और उनके गोद लिए हाथी के बच्चे रघु पर बनी बेहद खूबसूरत और दिल को छूने वाली मानवीय फिल्म है। ये दोनों उपलब्धियां हम हिन्दुस्तानियों को विश्व-पटल पर कहीं ऊंचा स्थापित करती हैं।