14-03-2020 (Important News Clippings)
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Date:14-03-20
कार्यस्थल पर महिलाओं को पीछे धकेलने का षड्यंत्र
संपादकीय
शशि थरूर ने महिलाओं को मैन्स्ट्रुएशन लीव देने की वकालत की है। इसके लिए उन्होंने बाकायदा एक ऑनलाइन याचिका के समर्थन में ट्वीट किया है। बदले में इसके थरूर को सशक्त महिलाओं की बिरादरी की नाराजगी झेलनी पड़ी है। महिलाओं से जुड़ी इस रूटीन बायोलॉजी को हौव्वा बना देना उन्हें किसी भी लिहाज से सशक्त नहीं करेगा। गौरतलब है कि थरूर ने यह ट्वीट अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर किया था जो किसी भी लिहाज से महिला सशक्तिकरण को लेकर उठाया कदम नहीं हो सकता। महिलाओं की आबादी की आधी जनसंख्या और दुनिया की जनसंख्या का 26% हर महीने 2 से लेकर 7 दिनों तक मासिक धर्म से गुजरता है। वहीं कार्यस्थल पर आज भी महिलाओं के पास दुनियाभर के पुरुषों के मुकाबले एक तिहाई ही अधिकार हैं। अमेरिका जैसे देश में 42% महिलाओं ने माना कि उनके साथ दफ्तर में उनके जेंडर की वजह से भेदभाव होता है। जिसमें पुरुषों के मुकाबले कम वेतन मिलना, कम अहमियत वाला काम करवाना, प्रमोशन न देना और अलग-थलग महसूस करवाना शामिल है। यदि इन सब चुनौतियों के बीच महिलाओं को मैन्स्ट्रुएशन लीव दी जाने लगी तो महिलाओं और पुरुष सहकर्मियों के बीच की खाई और गहरी हो जाएगी। किसी भी लिहाज से यह छुट्टी उनके लिए मददगार साबित नहीं हो सकती। कितने ही उदाहरण है जब महिला खिलाड़ियों ने पीरियड्स के दौरान ही किसी महत्वपूर्ण टूर्नामेंट में भाग लिया और अपना बेहतरीन प्रदर्शन कर मेडल भी जीता। मासिक धर्म से जुड़ी सभी शारीरिक चुनौतियों का सामना करते हुए महिलाओं ने इस दौरान दफ्तर में लंबे वक्त तक काम करने, दौड़ने-भागने और एक्सरसाइज करने जैसे सभी काम किए हैं। यूं भी पहले ही छह महीने की बेहद अहम मैटरनिटी लीव मिलने पर देश के वर्किंग फोर्स में मौजूद पुरुष सहकर्मियों की प्रतिक्रिया कुछ ज्यादा उत्साहजनक नहीं रही है। यही नहीं इस लीव की लड़ाई के लिए कितनी महिलाओं को नौकरी छोड़नी पड़ी है और जिनकी जीत हुई उन्हें दफ्तर में फब्तियां झेलनी पड़ी हैं। तो क्या यह नई छुट्टी महिलाओं को कार्यस्थल पर और पीछे धकेलने का षड्यंत्र नहीं? थरूर यदि कुछ करना ही चाहते हैं तो मासिक धर्म से जुड़ी पाबंदियों के पाखंड को खत्म करने को लड़ें। जबकि वह खुद सबरीमाला में महिलाओं की एंट्री को गैरजरूरी कह चुके हैं।
Date:14-03-20
वित्तीय जगत और घोटाले
टी. एन. नाइनन
रजत गुप्ता ने अपनी किताब ‘माइंड विदाउट फियर’ में यह स्थापित करने का प्रयास किया है कि वह दोषी नहीं बल्कि पीडि़त हैं। मैकिंजी के भूतपूर्व बॉस का कहना है कि न्यूयॉर्क के अभियोजक उनके पीछे इसलिए पड़ गए क्योंकि वे वर्ष 2008 के वित्तीय घोटालों के बड़े जिम्मेदारों को नहीं पकड़ सके। उनका कहना है कि वे उन जैसे छोटे मोटे लोगों को पकड़कर सफलता दर्शाना चाहते थे। यह सच है कि बड़े निवेश बैंक चलाने वाले लोग धोखाधड़ी और छल-कपट में शामिल थे और बच निकले। परंतु इसमें कुछ भी नया नहीं था। अक्सर वित्तीय क्षेत्र के बड़े धोखेबाज यूं ही बच निकलते हैं। ब्याज दरों के निर्धारण की दृष्टि से अहम लाइबोर (लंदन इंटर-बैंक ऑफर्ड रेट) बाजार में छेड़छाड़ का सिलसिला दो दशक से अधिक समय तक चलता रहा। लेकिन एक ही यूबीएस कारोबारी को दंडित किया गया। इसी प्रकार 2008 के वित्तीय पतन के बाद मात्र एक छोटे कारोबारी को अवैध गतिविधियों के लिए दोषी ठहराया गया।
यदि येस बैंक और राणा कपूर को ध्यान में रखते हुए देश के वित्तीय घोटालों की बात की जाए तो बैंक के निदेशक मंडल और वरिष्ठ प्रबंधन से कोई सवाल नहीं पूछा जा रहा है। यह मामला वर्ष 2018 में आईएलऐंडएफएस के पतन के मामले से कतई अलग नहीं है। इससे जुड़े बड़े खिलाडिय़ों से अब तक कोई सवाल तक नहीं किया गया है, अभियोजन की बात तो दूर है। यदि देश में सभी धोखाधड़ी करने वालों के खिलाफ मामला चले तो अत्यधिक दबाव के चलते देश में अभियोजन की व्यवस्था ही चरमरा जाएगी। जैसा कि वित्तीय जगत में हो रहा है, यदि एक व्यक्ति अकेले ही एक बड़ी फर्म को ध्वस्त कर सकता है तो ऐसे में अपने पैसे के लिए किस पर यकीन किया जाए? वैश्विक निवेश फर्म बैरिंग सिंगापुर में एक धोखेबाज कारोबारी के कारण ढह गई थी। प्रश्न यह है कि जब एक पूरा संस्थान भ्रष्ट हो जाता है तो उस दौरान नियामक क्या कर रहा होता है? डॉयचे बैंक एक समय जर्मन प्रतिष्ठान का स्तंभ हुआ करता था। डेविड एनरिच ने अपनी हाल में जारी पुस्तक ‘डार्क टावर्स’ में विस्तार से बताया है कि डॉयचे बैंक धनशोधन से लेकर बाजार में छेड़छाड़ करके अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों का उल्लंघन करने, रूसी कुलीनों से समझौते करने तथा अधिकारियों और नियामकों को रिश्वत देकर सरकार को धोखा देने जैसे कामों में लिप्त था।
देश के जमाकर्ताओं और निवेशकों को अब पता चल रहा है, वित्तीय जगत बहुत खतरनाक स्थान है। बैंकों का पतन हो सकता है, बाजार से छेड़छाड़ की जा सकती है, निवेश संबंधी उपाय रातोरात महत्त्वहीन हो सकते हैं, अंकेक्षक चेतावनी देने से चूक सकते हैं, बोर्ड निदेशक असावधान हो सकते हैं और नियामक अक्षम साबित हो सकते हैं। परंतु चिंता करने की क्या बात है, क्योंकि भारतीयों के पास सरकारी बैंकों के रूप में सुरक्षित ठिकाने तो हैं ही? दिक्कत की बात केवल यह है कि इन सुरक्षित ठिकानों की अपनी लागत है और इसमें ढेर सारा पैसा लगता है। पांच वर्ष पहले जब सरकारी बैंकों में समस्या शुरू हुई तब सरकार ने घोषणा की कि वह सन 1969 के बैंक राष्ट्रीयकरण के बाद का सबसे व्यापक सुधार पैकेज पेश कर रही है। सरकार ने 70,000 करोड़ रुपये का पैकेज घोषित किया। पांच वर्ष बाद सरकार उस राशि का पांच गुना बैंकों को दे चुकी है और अभी और राशि दी जा सकती है। बचतकर्ताओं का पैसा तब तक सुरक्षित है जब तक करदाता बोझ उठा रहे हैं। निजी बैंक भी सुरक्षित हैं क्योंकि भारत में बैंक नाकामी मुश्किल है।
कई निजी बैंक अन्य बैंकों में समाविष्ट हो गए। ग्लोबल ट्रस्ट बैंक, सेंचुरियन बैंक, टाइम्स बैंक आदि इसका उदाहरण हैं। खुशकिस्मती से ये सभी छोटे बैंक थे। यदि बड़े बैंक नाकाम हों तो? यह कहा जा चुका है कि बेहतर प्रबंधकों की जरूरत है ताकि सरकारी बैंक निजी क्षेत्र से लोगों को काम पर रख सकें। परंतु राणा कपूर तो बैंक ऑफ अमेरिका में कई वर्ष रहे थे। येस बैंक में उनका स्थान डॉयचे बैंक के एक बदकिस्मत अधिकारी ने लिया और आईएलऐंडएफएस का संचालन सिटी बैंक के एक पूर्व बैंकर के हाथ में था। ऐसी स्थिति में कोई राहत नजर नहीं आती। बाजार की समझ बढ़ाने और शुरुआती चेतावनियों पर ध्यान देने के साथ-साथ जवाबदेही बढ़ाने और अभियोजन में सुधार लाने, ढांचागत व्यवस्था और आंतरिक निर्भरता को लेकर समझ बढ़ाने की जरूरत है। केवल ऐसा करके ही भरोसा बहाल किया जा सकता है। पैसा एक ऐसी चीज है जो आपको वह करने पर मजबूर करता है जो आप नहीं करना चाहते। वित्तीय जगत में अगला घोटाला हमेशा तैयार रहता है।
Date:13-03-20
तनाव का पिरामिड जो दंगों की भूमिका बनता है
विभूति नारायण राय
अक्सर सांप्रदायिक हिंसा के बाद यह पड़ताल होती है कि दंगे शुरू कैसे हुए? दोनों पक्ष दूसरे को शुरुआत का दोषी ठहराकर अपने पक्ष की ज्यादतियों को वैध ठहराने की कोशिश करते हैं। बरसों पहले एक फेलोशिप पर काम करते हुए मेरा भारतीय समाज के एक दिलचस्प यथार्थ से साक्षात्कार हुआ। एक ही जैसी परिस्थिति में दो शहरों की प्रतिक्रियाएं एक-दूसरे से पूरी तरह से भिन्न हो सकती हैं। एक शहर में कोई छोटी सी घटना बड़ी हिंसा का कारण बन जाती है और दूसरी जगह बहुत बड़ी वारदात भी लोगों को उत्तेजित नहीं कर पाती। अध्ययन के दौरान मैंने पाया कि सांप्रदायिक तनाव एक पिरामिड की शक्ल में निर्मित होता है। यह नहीं माना जाना चाहिए कि जिस क्षण किसी शहर में हिंसा भड़की, उसी समय समय दंगों की शुरुआत हुई। कोई आबादी पिछले कुछ समय से अपने को इस हिंसा के लिए तैयार कर रही होती है, किसी खास बिंदु पर उसका विस्फोट हो जाता है।
दंगा तभी नहीं शुरू होता, जब पुलिस की लापरवाही या नेताओं के भड़काऊ भाषणों जैसे तमाम कारणों से उत्तेजना का पिरामिड बनता जाता है। पिरामिड का शीर्ष एक ऐसे बिंदु से बनता है, जिसे हम प्रस्थान-बिंदु कह सकते हैं। इस बिंदु पर कोई भी कार्रवाई, जिसमें दो अलग धमार्ं को मानने वाले शामिल हों और जिसके मूल में संघर्ष छिपा हो, बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा करा सकती है। अगर कहीं पर तनाव का यह पिरामिड उपस्थित न हो, तो कई बार बहुत गंभीर सांप्रदायिक घटना भी दंगा नहीं करा पाती। जलगांव और महाड़ के दंगों (1970) की जांच करने वाले जज डीपी मदान ने सही कहा था कि अगर हमें किसी दंगे के बारे में सतही राय बनानी है, तो हमेशा लगेगा कि दंगा किसी इतनी गैर-मामूली घटना से शुरू हुआ था कि हम ताज्जुब करते रह जाएंगे कि कैसे इतनी छोटी सी बात आगजनी, लूटपाट और हत्याओं का कारण बन गई।
पिछले कुछ महीनों से देश की राजधानी दिल्ली अपने को दंगों के लिए तैयार कर रही थी। संसद और उसके बाहर जो कुछ हो रहा था, वह हिंदू-मुस्लिम रिश्तों को तल्ख बनाने और तनाव के पिरामिड को उस बिंदु तक पहुंचाने में कामयाब हो गया, जहां पहुंचने के बाद कभी भी दंगा शुरू हो सकता था। कपिल मिश्रा का भड़काऊ बयान सिर्फ तात्कालिक बहाना था। नागरिकता संशोधन कानून और फिर देश भर में एनआरसी कराने की धमकी जैसी चीजें ताबड़-तोड़ एक के बाद एक हो रही थीं। दुर्भाग्य से सोशल मीडिया पर इन्हें एक संप्रदाय की विजय और दूसरे की पराजय के रूप में चित्रित किया जा रहा था। लगातार कमजोर हो रहा सांप्रदायिक सौहार्द का धागा अंत मे 23/24 फरवरी को टूट ही गया।
हिंसा का फौरी कारण बनी जाफराबाद मेट्रो स्टेशन के सामने रास्ता रोककर बैठे प्रदर्शनकारियों को दी गई कपिल मिश्रा की धमकी। लेकिन इसके पहले दो महीने से अधिक से शाहीन बाग में महिलाओं ने एक ऐसी सड़क चलने वालों के लिए अनुपलब्ध करा दी थी, जिसका उपयोग रोज लाखों लोग दिल्ली और नोएडा के बीच आवागमन के लिए करते हैं। शाहीन बाग आंदोलन को इतिहास में राष्ट्रीय प्रतीकों के रचनात्मक उपयोग के लिए याद किया जाएगा, लेकिन यह भी सच है कि लंबा खिंचने के कारण इसने धार्मिक उन्माद बढ़ाने में भी मदद की। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय में देरी होती गई और प्रदर्शनकारियों के पास कोई एग्जिट स्ट्रैटिजी नहीं थी।
कपिल मिश्रा ने प्रदर्शनकारियों को तीन दिन का समय मेट्रो का रास्ता खाली करने के लिए दिया था, पर वह भूल गए कि एक बार माहौल बनाने के बाद जरूरी नहीं कि हिंसा आपके नियंत्रण में रहे। कुछ ही देर में सीएए समर्थक और विरोधी उस हिंसक स्थिति में पहुंच गए, जिसे सांप्रदायिक दंगा कहा जा सकता है। जब हिंसा शुरू हुई, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप दिल्ली मे थे, इसलिए यह सोचना कि कपिल मिश्रा या उनकी पार्टी हिंसा भड़काने के लिए वही समय चुनेगी, नासमझ सरलीकरण होगा, मगर यह समझ भी उचित नहीं है कि मुसलमानों ने पुलिस पर हमला कर दंगा शुरू किया। दंगा स्वत:स्फूर्त जरूर था, पर उसके भड़कने के लिए तनाव का पिरामिड बन कर तैयार था और वह प्रस्थान-बिंदु 23 फरवरी को आ ही गया। अगर सांप्रदायिक हिंसा को रोकना हो, तो हमें समय रहते तनाव के पिरामिड को ध्वस्त करना चाहिए।
Date:13-03-20
गहराता संकट
संपादकीय
अफगानिस्तान में घटनाएं जिस तेजी से करवट ले रही हैं, उससे इस देश के भविष्य को लेकर कोई अच्छे संकेत नहीं मिल रहे। अमेरिका और तालिबान के बीच शांति समझौता हुए अभी एक पखवाड़ा भी नहीं गुजरा है कि देश नए संकटों में धंसता जा रहा है। शांति समझौते से लगा था कि अफगानी जनता अब हिंसा और युद्ध से मुक्ति पा जाएगी। लेकिन इस समझौते की बुनियाद में कुछ ऐसे मुद्दे मौजूद हैं जिनसे अफगानिस्तान ज्यादा बड़ी मुश्किलों से घिरता जा रहा है। डेढ़ दशक से भी ज्यादा से समय से अमेरिकी और नाटो सैनिक अफगानिस्तान में अड्डा बनाए हुए थे और तालिबान उनके साथ युद्धरत था। ऐसे में अमेरिकी-नाटो सैनिकों की वापसी तालिबान और अफगानी जनता के लिए उम्मीदें लिए हुई थी। लेकिन शांति समझौते के बाद तालिबान की बढ़ती हिंसा ने उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। सबसे बड़ा मुद्दा पांच हजार तालिबान कैदियों की रिहाई का है। हालांकि राष्ट्रपति अशरफ गनी ने अब जिस तरह से तालिबान कैदियों को छोड़ने की मांग मान ली है, उससे साफ है कि वे कहीं न कहीं भारी दबाव में हैं। भले वह दबाव अमेरिका का हो, या तालिबान नेताओं का या देश के राजनीतिक हालात का। शांति समझौते के बाद गनी ने कड़ा रुख अपनाया था और तालिबान कैदियों की रिहाई से साफ इनकार कर दिया था।
बड़ा सवाल यह है कि आखिर गनी को अपना रुख बदलने को क्यों मजबूर होना पड़ा? जबकि वे इस बात को अच्छी तरह समझ रहे हैं कि तालिबान कैदियों की रिहाई के दूरगामी नतीजे क्या होंगे। समझौते में अमेरिका ने तालिबान कैदियों की रिहाई का जो वादा किया था, उसमें अफगानिस्तान की निर्वाचित सरकार की कोई भूमिका नहीं थी, न ही राष्ट्रपति अशरफ गनी से इस बारे में कोई सलाह-मशविरा किया था। गनी की आपत्ति इसी बात को लेकर थी कि तालिबान कैदियों की रिहाई का फैसला अमेरिका कैसे कर सकता है! यह अमेरिका के अधिकार के दायरे के बाहर है। समझौते में जिस तरह से अफगान सरकार को दरकिनार किया गया, उसका मतलब साफ है कि अमेरिका किसी भी कीमत पर अफगानिस्तान से पिंड छुड़ाने में लगा था। उसे इससे कोई मतलब नहीं था कि बाद में तालिबान यहां क्या करेगा। इसलिए यह शांति समझौता अफगानिस्तान के लिए नए और गंभीर संकटों को जन्म देने वाला है। तालिबान कैदियों की रिहाई की बात मानने को बाध्य होना इस बात का प्रमाण है कि राष्ट्रपति गनी कहीं न कहीं कमजोर साबित हो रहे हैं। यह अफगानिस्तान में तालिबान का नए सिरे से उदय भी होगा। अभी देखना यह होगा कि तालिबान कैदियों की रिहाई की कवायद कैसे सिरे चढ़ती है। जहां तालिबान एक साथ कैदियों की रिहाई की मांग पर तुला है, वहीं गनी सरकार ने टुकड़ों-टुकड़ों में रिहाई करने की बात कही है। जाहिर है, भारी दबाव के बावजूद गनी संतुलन बनाए रखने की रणनीति पर चल रहे हैं। पिछले हफ्ते गनी ने दूसरी बार अफगानिस्तान के राष्ट्रपति पद की शपथ ली थी। लेकिन उनके प्रतिद्वंद्वी अब्दुल्ला अब्दुल्ला ने भी अपने को समानातंर राष्ट्रपति घोषित करते हुए एक समारोह में बाकायदा राष्ट्रपति की शपथ ले ली। पिछले साल सितंबर में हुए राष्ट्रपति चुनाव में अब्दुल्ला अब्दुल्ला ने गनी पर चुनाव धांधली का आरोप लगाया था। ऐसे में यह राजनीतिक टकराव तालिबान को फायदा पहुंचाएगा और अब्दुल्ला अब्दुल्ला तालिबान को हवा देकर गनी के लिए बड़ा खतरा बनेंगे। अगर गनी सारे तालिबान कैदियों को छोड़ भी देते हैं तो इस बात की क्या गारंटी है कि तालिबान उन्हें सत्ता में बने रहने देगा!
Date:13-03-20
Welcome Ruling by Allahabad High Court
ET Editorial
It is welcome that the Allahabad High Court ordered the government of Uttar Pradesh to take down the posters and hoardings it had put up, bearing pictures of those whom it had accused of rioting and causing damage to public property. There are essentially three related grounds for invalidating the government’s move. One, there is no law, on the basis of which the government could publicly display the names of such people.Two, these people were merely accused, not found guilty by any process of law. They are innocent till proven guilty.And, three, public display of these people’s names and pictures amounted to wanton breach of their right to privacy.
Instead of complying with the high court’s order, the Uttar Pradesh government challenged the order in the Supreme Court. The highest court concurred that there was no legal basis for the state government’s action and did not stay the high court order, which gives the government time till March 16 to comply with the order. The UP government was well within its right to take the matter to the apex court. On its part, the highest court of the land has referred the case to a larger bench of the Supreme Court, which is slated to take it up on March 16. It would be better if the state government takes down the offensive hoardings immediately while the larger bench examines the finer points of law.The court saw in the posters the unlawful invasion of privacy of those accused of taking part in riots and causing damage to public property. In the febrile atmosphere that breeds hatred towards so-called ‘anti-nationals’ — essentially anyone opposing the government of the day — and people hurl threatening slogans to ‘shoot down traitors’, any individual pictured on those posters runs the risk of being physically assaulted. More than privacy is at stake. UP’s government must understand this.