13-09-2018 (Important News Clippings)

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13 Sep 2018
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Date:13-09-18

रघुराम राजन के बयान का आर्थिक इस्तेमाल हो

संपादकीय

भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता वाली संसदीय आकलन समिति के सामने जो बयान दिया है उसका राजनीतिक इस्तेमाल न करके आर्थिक इस्तेमाल होना चाहिए। दुर्भाग्य की बात है कि उस रिपोर्ट का ज्यादातर मीडिया समूहों और राजनेताओं ने एक ही निष्कर्ष निकाला है कि बैंकों का बट्‌टा खाते का कर्ज यूपीए सरकार की गलत नीतियों की देन है। यह सही है कि रघुराम राजन ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि ज्यादातर बट्‌टा खाते का कर्ज 2006 से 2008 की देन है और उस दौरान कोयला घोटाला होने के कारण सरकार कोई भी कठोर निर्णय लेने से झिझकने लगी थी। इसके बावजूद यह कैसे भुलाया जा सकता है कि 2014 का बट्‌टा खाते का कर्ज 2018 में तीन गुना हो चुका है। राजनेता और मीडिया ज्यादातर आंकड़ों और घटनाओं का सरलीकरण करते हैं लेकिन, समस्याओं की जड़ उससे कहीं ज्यादा उस व्यवस्था में होती है जो कुछ विशेष शक्तियां मिलकर तैयार करती हैं। इसीलिए रघुराम राजन ने यह भी माना है कि बट्‌टे खाते का कर्ज बैंकर, प्रोमोटर और परिस्थितियों से मिलकर तैयार होता है। उन्होंने जिन तीन बातों को सबसे ज्यादा दोषी बताया है कि वे हैं अतिआशावादी बैंकर, नीतिगत सुस्ती और बड़ा कर्ज देने में बरती गई असावधानी। उनका मानना है कि 2006 में ढांचागत परियोजनाएं समय से पूरी हो गईं और उनसे उत्साहित बैंकरों ने कर्ज देने में वास्तविक स्थिति का आकलन करना जरूरी नहीं समझा। राजन की बातों का जवाब अर्थशास्त्री और देश के पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को स्पष्ट तरीके से देना चाहिए। इसके बावजूद रघुराम राजन ने दूसरी बात भी कही है और उस पर गौर किया जाना चाहिए। उनका कहना है कि उन्होंने बैंक के कर्ज न देने वालों के नाम यूपीए और एनडीए दोनों सरकारों के कार्यकाल में पीएमओ को भेजे थे लेकिन, किसी ने कोई जवाब नहीं दिया। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जब 2016 में रघुराम राजन ने रिजर्व बैंक के गवर्नर के रूप में अपना कार्यकाल पूरा किया और दूसरा कार्यकाल चाहते थे तो मोदी सरकार ने ही उन्हें मना किया। रघुराम राजन चाहते थे कि बैंक अपना बहीखाता दुरुस्त करें और उससे इस सरकार को भी परेशानी हो रही थी। इसलिए रघुराम राजन की बातों को पूरे परिप्रेक्ष्य में ही लिया जाना चाहिए।


Date:13-09-18

मुस्लिम ब्रदरहुड विवेकानंद का विश्व बंधुत्व नहीं

आध्यात्मिक जीवनदृष्टि से समाज को जोड़ने वाले संघ की तुलना जेहादी गुट से करना देश का अपमान

डॉ. मनमोहन वैद्य सहसरकार्यवाह, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तुलना ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ के साथ करने पर संघ से परिचित और राष्ट्रीय विचार के लोगों को आश्चर्य होना स्वाभाविक है। भारत के वामपंथी, माओवादी और क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ के लिए राष्ट्र विरोधी तत्वों के साथ खड़े तत्वों को इससे आनंद होना भी अस्वाभाविक नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं कि राहुल जेहादी मुस्लिम आतंकवाद की वैश्विक त्रासदी से अनजान हैं। ऐसा भी नहीं है कि वे समाजहित में चलने वाले संघ कार्यों तथा उसे बढ़ते समर्थन के बारे में नहीं जानते। फिर भी वे ऐसा क्यों कह रहे हैं?

इसकी वजह यह है कि उनके राजनीतिक सलाहकारों ने उन्हें यकीन दिला दिया है कि संघ की बुराई करने से, संघ के खिलाफ बोलने से उन्हें राजनीतिक फायदा हो सकता है। आरोपों को साबित करने की ज़िम्मेदारी उनकी नहीं है। वास्तव में संघ भारत की परम्परागत अध्यात्म आधारित सर्वांगीण और एकात्म जीवनदृष्टि के आधार पर संपूर्ण समाज को एक सूत्र में जोड़ने का कार्य कर रहा है। इसकी तुलना जेहादी मुस्लिम ‘ब्रदरहुड’ से करना समस्त भारतीयों और देश की महान संस्कृति का घोर अपमान है। वास्तव में जेहादी मुस्लिम मानसिकता और उनके कारनामें देखें तो उसके साथ ‘ब्रदरहुड’ शब्द बेमेल है। यह कथित ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ सलाफी सुन्नी मुसलमानों के अलावा अन्य मुसलमानों को भी स्वीकार नहीं करता, उन्हें मुसलमान मानने से ही इनकार करता है।

दो दिन पहले 11 सितंबर को स्वामी विवेकानंद के विश्वविख्यात शिकागो व्याख्यान को 125 वर्ष पूरे हुए। उन्होंने भारत की सर्वसमावेशी एकात्म और सर्वांगीण जीवन दृष्टि के आधार पर विश्वबंधुत्व का विचार रखा था। स्वामी विवेकानंद ने अपने ऐतिहासिक उद्‌बोधन की शुरुआत ही ‘मेरे अमेरिकन भाइयो और बहनो’ से की थी, जिसे सुनकर पूर्ण सभागार अचंभित और उत्तेजित हो उठा और तालियों की ध्वनि से गूंज उठा था। उन्होंने कहा था- ‘मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूं, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति, दोनों की ही शिक्षा दी है। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, वरन् समस्त धर्मों को सच्चा मानकर स्वीकार करते हैं। मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है, जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है। मुझे यह बतलाते हुए गर्व होता हैं कि हमने अपने वक्ष में यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था’ वे आगे कहते हैं- ‘साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी वीभत्स वंशधर धर्मांधता इस सुंदर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी है। वह पृथ्वी को हिंसा से भरती रही है, उसको बारम्बार मानवों के रक्त से नहलाती रही है, सभ्यताओं का विध्वंस करती और पूरे-पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही है। यदि ये वीभत्स दानवता न होती, तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता।’ डॉ. अाम्बेडकर ने ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ में स्पष्ट कहा है- ‘इस्लाम एक बंद समुदाय है (closed corporation) और वह मुसलमान और ग़ैर-मुसलमान के बीच जो भेद करता है वह वास्तविक है। ‘इस्लामिक ब्रदरहुड’ यह समस्त मानवजाति का समावेश करने वाला ‘विश्वबंधुत्व’ नहीं है। यह मुसलमानों का मुसलमानों के लिए ही ‘बंधुत्व’ है। जो उसके बाहर है उनके लिए तिरस्कार और शत्रुता के सिवा और कुछ भी नहीं है।’ मुस्लिम ब्रदरहुड सर्वत्र शरिया का राज्य लाना चाहता है। संघ हिंदू राष्ट्र की बात करता है, जो सभी को स्वीकार करते हुए स्वामी विवेकानंद द्वारा प्रतिपादित ‘विश्वबंधुत्व’ (यूनिवर्सल ब्रदरहुड) का प्रसार करता है।

सोचिए, जेहादी कट्टर ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ की तुलना स्वामी विवेकानंद के विश्वबंधुत्व के साथ कैसे हो सकती है! ऐसे महान विचारों को लेकर चलने वाले संघ के बारे में राहुल गांधी बार-बार ऐसा वैमनस्यपूर्ण विचार क्यों रखते होंगे? एक ज्येष्ठ स्तम्भ लेखक ने दो वर्ष पूर्व लिखा था, ‘कांग्रेस किसी भी हद तक जाकर सत्ता में आने का प्रयास करती है और पार्टी की बौद्धिक गतिविधि उन्होंने कम्युनिस्टों को सौंप दी है।’ कांग्रेस की बौद्धिक गतिविधि जब से कामरेडों ने संभाल ली है तब से पार्टी ऐसी असहिष्णुता का परिचय देते हुए राष्ट्रीय विचारों का घोर विरोध करने लगी है। स्वतंत्रता के पूर्व कांग्रेस में हिंदू महासभा, क्रांतिकारियों के समर्थक, नरम, गरम आदि सभी प्रकार के लोगों का समावेश था। बाद में भी 1962 के चीन के आक्रमण के समय संघ के स्वयंसेवकों ने जान की बाजी लगाकर सेना की जो सहायता की उससे प्रभावित होकर पंडित नेहरू ने 1963 के गणतंत्र दिवस परेड में शामिल होने के लिए संघ के स्वयंसेवकों को निमंत्रित किया, जिसमें 3 हजार स्वयंसेवक शामिल हुए थे। 1965 में पाकिस्तान के आक्रमण के समय देश के प्रमुख नेताओं की आपात बैठक प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्रीजी ने बुलाई, जिसमें सरसंघचालक गुरुजी को बुलाया गया। इस बैठक में एक कम्युनिस्ट नेता द्वारा शास्त्रीजी से बार-बार ‘आपकी सेना क्या कर रही थी?’ पूछने पर श्री गुरुजी कहा- ‘ये आपकी सेना क्या कह रहे हैं? हमारी सेना कहें। आप क्या किसी दूसरे देश के हैं?’

क्या यह कम आश्चर्य की बात है कि माओवाद प्रेरित जितने आंदोलन हुए उन्हें कांग्रेस ने खुला समर्थन दिया है। ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे- इंशा अल्लाह, इंशा-अल्लाह अथवा ‘भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी जारी’ जैसे नारे लगाने वालों का खुला समर्थन कांग्रेस के नेताओं ने किया है! समाज में जातीय विद्वेष भड़काकर संविधान की धज्जियां उड़ाते हुए की गई हिंसा का समर्थन जब कांग्रेस करती है तब इस पार्टी के शरीर का कब्जा कर बैठी माओवादी आत्मा का स्पष्ट परिचय मिलता है। ऐसी देश विघातक ताकतों को कांग्रेस का समर्थन देखकर आश्चर्य कम और दुःख अधिक होता है।

125 वर्ष पहले विवेकानंद ने समुद्र पार जाकर भारत की इस सनातन सर्वसमावेशी संस्कृति की विजय पताका फहराई। आज उसी देश का एक नेता समुद्र पार जाकर इसी भारतीय संस्कृति की तुलना ‘इस्लामिक ब्रदरहुड’ से कर विवेकानंद का, इस भारत की महान संस्कृति का और भारत का अपमान कर रहा है। लोकतंत्र में विभिन्न दलों में मतभेद तो हो सकते हैं पर राष्ट्रीय हित के मुद्‌दों पर अपनी राजनीतिक पहचान से भी ऊपर उठकर एक होने से ही राष्ट्र प्रगति करेगा और अंतर्गत और बाह्य संकटों को मात देकर अपनी समस्याओं का समाधान ढूंढ़ सकेगा।


Date:13-09-18

द्विपक्षीय वार्ता के बहुआयामी निहितार्थ

टू प्लस टू वार्ता में रक्षा के मोर्चे पर कई अहम कदम उठाए गए, तो कुछ क्षेत्रीय घटनाक्रमों पर दोनों देशों का रुख-रवैया समान रहा।

विवेक काटजू , (लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं)

कूटनीतिक लिहाज से बीते कुछ दिन काफी अहम रहे। इस दौरान भारत और अमेरिका के बीच टू प्लस टू वार्ता का पहला दौर संपन्न् हुआ। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पेंपियो और रक्षा मंत्री जेम्स मैटिस से मुलाकात की। असल में यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के दिमाग की उपज है कि द्विपक्षीय वार्ता के लिए ऐसे अनूठे प्रारूप को तैयार किया जाए। यह आयोजन दर्शाता है कि दोनों देश अपने रिश्ते को वास्तविक रूप से रणनीतिक साझेदारी में बदल चुके हैं। अमूमन द्विपक्षीय संबंधों के सभी पहलुओं का दारोमदार विदेश मंत्री पर होता है। जब सतत एवं सुनियोजित रूप से इसमें रक्षा मंत्री भी शामिल हो जाएं, तो इसका अर्थ होता है कि दोनों देश प्रतिरक्षा एवं सुरक्षा के अहम क्षेत्रों में विशेष ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं। आज भारत और अमेरिका कई साझा खतरों के मुहाने पर हैं, विशेषकर हिंद-प्रशांत क्षेत्र में उनके लिए ज्यादा जोखिम हैं। ऐसे में परस्पर सहयोग से दोनों को लाभ होगा। टू प्लस टू वार्ता में रक्षा के मोर्चे पर कई अहम कदम उठाए गए, तो कुछ क्षेत्रीय घटनाक्रमों पर दोनों देशों का रुख-रवैया एक जैसा रहा।

दिल्ली आगमन से पहले पोंपियो कुछ घंटों के लिए इस्लामाबाद में भी रुके। उनके साथ अमेरिकी सेना प्रमुख जनरल जोसेफ डनफोर्ड भी थे। पोंपियो और डनफोर्ड ने नए प्रधानमंत्री इमरान खान और पाक सेना प्रमुख जनरल कमर बाजवा से मुलाकात की। इस समय अमेरिका-पाकिस्तान संबंध मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं। अमेरिका ने पाकिस्तान को दी जाने वाली सैन्य मदद रोककर अपनी नाखुशी भी जाहिर की और फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स यानी एफएटीएफ के जरिए उस पर दबाव भी बढ़ा दिया है। पाकिस्तान का विदेशी मुद्रा भंडार लगातार सिकुड़ रहा है। उसे आर्थिक मदद की दरकार है। इसके लिए वह अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की शरण में जाने की तैयारी कर रहा है। आईएमएफ में अमेरिका का तगड़ा रुतबा है। उसने पहले ही संकेत दिए हैं कि वह यह गवारा नहीं करेगा कि आईएमएफ से मिली रकम से पाकिस्तान चीनी कर्ज चुकाए। ऐसे संकेतों के बावजूद अमेरिका यह चाहता है कि पाकिस्तान अफगानिस्तान में स्थायित्व लाने में उसकी मदद करे, यानी इस्लामाबाद तालिबान को अफगान सरकार के साथ शांति वार्ता के लिए तैयार करे। इस्लामाबाद में पोंपियो ने इमरान खान सरकार से अफगानिस्तान में शांति लाने की दिशा में और अधिक प्रयास करने के लिए कहा, लेकिन तथ्य यह है कि पाकिस्तान की मदद रोकने और तीखे तेवर दिखाने के बावजूद अमेरिका ने पाकिस्तान पर शिकंजा उतना कड़ा नहीं किया, जितना जरूरी था। ऐसा शायद इसलिए किया गया, क्योंकि अफगान-पाकिस्तान सीमा पर तालिबान की शरणगाहों का सफाया करने के लिए अमेरिका वहां अपनी फौज भेजने का इच्छुक नहीं है। चूंकि पाकिस्तान जानता है कि दुनिया की बड़ी शक्तियां उसे आर्थिक दलदल में नहीं धंसने देंगी, इसलिए वह अपने रवैये से पीछे नहीं हट रहा है। चूंकि पाकिस्तान परमाणु हथियारों के जखीरे पर बैठा है, इसलिए शायद अमेरिका भी उसके स्थायित्व की चिंता कर रहा है।

टू प्लस टू वार्ता के संदर्भ में यह महत्वपूर्ण रहा कि उसकी धुरी रक्षा क्षेत्र पर टिकी रही। खासतौर से हिंद-प्रशांत क्षेत्र और भारत के पश्चिम में जारी घटनाक्रम पर विचार हुआ। रक्षा क्षेत्र में भारत-अमेरिकी सहयोग द्रुत गति से आगे बढ़ रहा है। अमेरिका भारत को उच्च तकनीक वाले हथियार देने के साथ ही उनकी तकनीक भी साझा करने को तैयार है, ताकि उन्हें भारत में भी तैयार किया जा सके। इसके लिए अमेरिका चाहता है कि भारत कुछ समझौतों पर दस्तखत करे। ये समझौते यह सुनिश्चित करेंगे कि भारत अमेरिकी हथियारों और तकनीक की प्रणालियां दूसरे देशों को लीक नहीं करेगा। संचार क्षेत्र से जुड़ा कोमकोसा ऐसा ही एक समझौता है, जिस पर काफी लंबे समय से बात चल रही थी। इस पर टू प्लस टू वार्ता के दौरान मुहर लग गई। यह समझौता भारतीय और अमेरिकी सुरक्षा बलों के बीच संचार के मोर्चे पर बेहतर तालमेल बनाएगा।

टू प्लस टू वार्ता के बाद जारी संयुक्त बयान में दोनों देशों ने पाकिस्तान को आईना दिखाते हुए कहा कि वह सुनिश्चित करे कि दूसरे देशों में आतंक फैलाने के लिए उसकी धरती का इस्तेमाल न हो। नि:संदेह पाकिस्तान के लिए यह कड़ा संदेश है, लेकिन और बेहतर स्थिति तब होती, जब अमेरिकी मंत्रीद्वय अपने बयानों में भी इसका जिक्र करते। उन्होंने मुंबई आतंकी हमलों के दोषियों को सजा दिलाने की कवायद को आगे बढ़ाने के अलावा आतंक का कोई और उल्लेख नहीं किया। मुंबई हमले का जिक्र शायद इसलिए किया गया, क्योंकि उसमें अमेरिकी नागरिक भी मारे गए थे। वास्तव में अमेरिका अभी भी भारत व पाकिस्तान को लेकर संतुलन साधना दिख रहा है। अमेरिकी मंत्रियों के बयान इसी कड़ी का हिस्सा जान पड़ते हैं। दरअसल महाशक्तियां इसी तरह कूटनीति के जरिए अपने राष्ट्रीय हितों को पोषित करती हैं।

साझा बयान अफगानिस्तान पर भी रोशनी डालता है। इसमें अमेरिका ने अफगानिस्तान के विकास और वहां स्थायित्व लाने में भारत की अहम भूमिका का स्वागत किया। यह भी अमेरिकी रणनीति का हिस्सा है। अमेरिका पाकिस्तान को संदेश देना चाहता है कि यदि वह अपनी अफगान नीति में बदलाव नहीं करता तो वह अफगानिस्तान में व्यापक भूमिका के लिए भारत को बढ़ावा देगा। पाकिस्तान इससे खुश नहीं होगा, क्योंकि वह अफगानिस्तान में भारत की कोई भूमिका नहीं चाहता। इसकी संभावना कम ही है कि पाकिस्तान अपनी अफगान नीति में बदलाव करेगा।

साझा बयान में अमेरिकी मंत्रियों ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र को अंतरराष्ट्रीय कानूनों के दायरे में आवाजाही के लिहाज से खुला क्षेत्र बनाने की पैरवी की। कनेक्टिविटी परियोजनाओं पर बयान में कहा गया कि इन्हें दूसरे देशों की संप्रभुता का सम्मान करते हुए विकसित करना चाहिए और यह तय किया जाए कि इसकी आड़ में कुछ देश कर्ज के मकड़जाल में न फंस जाएं। इसके जरिए चीन पर निशाना साधा गया जो हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपनी आक्रामक नीतियों के चलते भारत और अमेरिका के लिए चुनौती बन रहा है। साफ है कि चीन को काबू में रखने के लिए अमेरिका भारत को अपने करीब लाना चाहता है। भारत को चीन से चौकस रहने की जरूरत है, लेकिन इसके साथ ही उससे सहयोग के भी संकेत दिखाने होंगे।

रणनीतिक साझेदारों के सामने सहयोग वाले क्षेत्रों के साथ कुछ ऐसे मुद्दे भी होते हैं, जहां उनके हित मेल नहीं खाते। ऐसे मामलों में दोनों को एक-दूसरे के प्रति संवेदनाएं दिखानी होती हैं। ऐसा न होने पर साझेदारी दम तोड़ देती है। ईरान और रूस को लेकर अमेरिका को यह बात ध्यान रखनी चाहिए। इन दोनों देशों से भारत के व्यापक हित जुड़े हुए हैं। अमेरिका को चाहिए कि वह रूस से रक्षा खरीद और ईरान से तेल खरीद के रास्ते में अड़ंगा न लगाए।


Date:13-09-18

भविष्य के जोखिमों के आकलन की चुनौती

श्याम सरन

यह बात स्पष्ट है कि हमारी धरती की पर्यावास पूंजी निहायत संगठित तरीके से और लगातार नष्टï हो रही है। इसमें हमारी भूमि, वन, नदियां, समुद्र और हवा सभी शामिल हैं। इससे आने वाली पीढिय़ों का अस्तित्व खतरे में पड़ता नजर आ रहा है। जिस तेजी से हमारे प्राकृतिक संसाधन नष्ट हो रहे हैं, उसकी भरपाई होना बहुत मुश्किल नजर आ रहा है। इसकी वजह तो एकदम स्पष्टï है लेकिन ऐसी नीतियों का क्रियान्वयन करना खासा मुश्किल है जो पर्यावास को हो रहे इस नुकसान को कम कर सके या पर्यावरण सुधार में स्थायित्व ला सके। दरअसल हमारी आकलन व्यवस्था में ऐसे पूर्वग्रह निहित हैं जिनके आधार पर आर्थिक गतिविधियों और लागत लाभ अनुपात का आकलन किया जाता है। उदाहरण के लिए वनों की कटाई तब तक जारी रहेगी जब तक लकड़ी बाजार में अच्छे दाम पर बिकती रहेगी। लकड़ी कीमत जंगल में उगे वृक्ष की तुलना में तो अधिक ही होती है।

लकड़ी जब वृक्ष की अवस्था में होती है तो वह वातावरण में फैले कार्बन का अवशोषण करती है और हवा में नमी पैदा करती है। उसकी जड़ें मिट्टी को बांधकर रखती हैं। इन तमाम पर्यावास संबंधी सेवाओं का मूल्यांकन नहीं हो सकता है क्योंकि उनकी कीमत का आकलन करना खासा मुश्किल काम है। अर्थशास्त्री बाह्यता की अवधारणा से वाकिफ हैं। इसे ऐसी लागत या ऐसे लाभ के रूप में व्याख्यायित किया जाता है जो किसी ऐसे पक्ष को प्रभावित करे जो लागत या लाभ के लिए खुद काम न कर रहा हो। स्थायित्व से जुड़ी अधिकांश चुनौतियों में बाह्यïता बतौर कारक मौजूद रहती है। मिसाल के तौर पर जो कारक हमारी नदियों में प्रदूषक तत्त्व डाल रहे हैं वे हमारे समाज पर एक किस्म का बोझ डाल रहे हैं। यह बोझ उनके बहीखातों में नजर नहीं आएगा। जलवायु परिवर्तन इसलिए घटित हो रहा है क्योंकि पृथ्वी के वातावरण में ग्रीनहाउस गैस एकत्रित हो गई हैं।

इसके लिए औद्योगिक राष्ट्रों द्वारा दशकों तक जीवाश्म ईंधन जलाया जाना उत्तरदायी है। परंतु इस चुनौती की कीमत तो समूची पृथ्वी चुका रही है। मौजूदा लेखा व्यवस्था इतनी तैयार नहीं है कि वह बाह्यता का आकलन कर सके, क्योंकि लागत और लाभ को कुछ देशों पर लागू नहीं किया जा सकता है। ऐसे में वैश्विक चुनौतियों से निपटने की प्रभावी प्रक्रिया तय कर पाना मुश्किल होता जा रहा है। जलवायु परिवर्तन जैसी समस्या से निपटने के लिए समग्र प्रतिक्रिया की आवश्यकता है। इसके बोझ को भी साझा तरीके से बांटना होगा। जोखिम के आकलन और उसे कम करने की बात करें तो ये हमारी अर्थव्यवस्था के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। हम निरंतर लाभ के अनुमान को जोखिम के समक्ष तोलते हैं। परंतु हम जिन लेखा उपकरणों का प्रयोग करते हैं वे प्राय: तत्काल प्रभाव और प्रमाण को लेकर पूर्वग्रह से ग्रस्त होते हैं।

यानी कम परिमाण वाली बातों की कई बार अनदेखी कर दी जाती है। परंतु परिमाणात्मक प्रमाण की अनुपस्थिति का यह अर्थ नहीं होता है कि उनका प्रभाव नहीं होगा। परंतु दिक्कत यह है कि हमारा जोखिम का आकलन अक्सर ऐसी ही बातों पर आधारित होता है। हमारी लेखा व्यवस्था की यह अंतनिर्हित कमी अक्सर पर्यावास से संबंधित चुनौतियों के कमतर मूल्यांकन की वजह बनती है। इस तरह धीरे-धीरे इसका आकार काफी बढ़ जाता है। उदाहरण के लिए हिमालय में बर्फ का पिघलना। अंटार्कटिका और आर्कटिक में बर्फ की चादर भले ही धीरे-धीरे पिघल रही हो लेकिन एक सीमा के बाद इसमें काफी तेजी आ सकती है। हमारे आकलन के उपाय ऐसे नहीं हैं कि वे दीर्घावधि के इन जोखिमों का सही आकलन कर सकें। जैसा कि हमने पहले भी देखा है ये कारक भी बाह्यता का हैं। इनका वास्तविक प्रभाव सामने आने में समय लगेगा।

यही वजह है कि केरल में आई बाढ़ जैसी अप्रत्याशित घटनाएं हमारे सामने अचानक आती हैं। पश्चिमी घाट में घने जंगलों के कटने से संभव है कि खनन उद्योग और छोटे मोटे औद्योगिक केंद्र विकसित हुए हों। इससे पारंपरिक संदर्भ में रोजगार और समृद्धि भी आए होंगे लेकिन इस क्रम में पर्यावरण को जो बेतहाशा नुकसान पहुंचाया गया उसकी कीमत केरल के लोगों को इस भयावह बाढ़ रूपी आपदा के रूप में चुकानी पड़ी। जाहिर सी बात है हमारे पास इस नुकसान के आकलन का कोई उपाय नहीं था। यह मानना सही नहीं है कि हम जिस चीज का आकलन नहीं कर सकते, उसका अस्तित्व ही नहीं है। ऐसा सोच आपदा को न्योता देता है।

पर्यावरण के स्थायित्व का एक और पहलू है जो पारंपरिक आकलन व्यवस्था के लिए चुनौती बना हुआ है। अगर हम संयुक्त राष्ट्र के स्थायी विकास लक्ष्यों पर विचार करें तो अलग-अलग क्षेत्रों के बीच जानकारी का आंतरिक संबंध चौंकाने वाला है।  खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कृषि उत्पादन बढ़ाने के क्रम में हम बीज, उर्वरक, कीटनाशक और पानी आदि का आकलन करते हैं लेकिन यह भी ध्यान देने की आवश्यकता है कि रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक किसानों और उनके परिजनों के स्वास्थ्य के लिए खासे नुकसानदेह साबित हो सकते हैं।

यह स्वास्थ्य सुरक्षा को खतरा है लेकिन स्वास्थ्य की लागत को कृषि उत्पादन की लागत में शामिल ही नहीं किया जाता। खेती में पानी का प्रचुर उपयोग होता है इससे भूजल स्तर में कमी आ रही है। इससे जल सुरक्षा को खतरा उत्पन्न हो रहा है लेकिन यह लागत भी कृषि उत्पादन लागत में शामिल नहीं की जाती है। स्थायित्व की एक जटिल अवधारणा है जो विभिन्न आर्थिक गतिविधियों से संचालित होती है। हमारी आकलन व्यवस्था इनको समेट पाने में नाकाम है, खासकर जब विविध स्रोत इसमें शामिल हों तब।

दुनिया इस समय पर्यावरण को लेकर आपात स्थिति से दो-चार है। हो सकता है हमें तब तक संकेत न मिले जब तक हालात बहुत खराब न हो जाएं। जरूरत इस बात की है कि हम तत्काल ऐसे शोध और डिजाइन व्यवस्था को अपनाएं जो पर्यावास के संबंध में स्थायित्व हासिल करने में हमारी सहायता करें, बजाय कि मौजूदा खपत के आधार पर अपने भविष्य को जोखिम में डालने के। भारत को अपनी पहल इस दिशा में ले जानी चाहिए क्योंकि पर्यावास की चुनौतियां दिन पर दिन कठिन रूप ग्रहण करती जा रही हैं। मानव जाति के लिए बेहतर और स्थायित्व भरा भविष्य तैयार करने के लिए यह आवश्यक है कि हम वैश्विक प्रयासों में अपना योगदान दें।


Date:12-09-18

फसल खरीद के लिए पीएम-आशा को मंजूरी

संजीव मुखर्जी

केंद्र सरकार ने खरीफ फसलों की कटाई का सीजन शुरू होने से पहले आज गेहूं एवं चावल से इतर फसलों की अपनी बहुप्रतीक्षित खरीद प्रणाली की घोषणा कर दी। इन फसलों की खरीद बढ़े न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर की जाएगी। इसके अलावा मध्यवर्ती शीरे और गन्ने के रस से उत्पादित एथनॉल की खरीद कीमतें बढ़ाई गई हैं। फसल खरीद की खातिर अगले दो वित्त वर्षों के लिए 150 अरब रुपये से अधिक आवंटित किए गए हैं। इस राशि में से 62 अरब रुपये इस साल खर्च किए जाएंगे। इसके अलावा नेफेड जैसी खरीद एजेंसियों को 160 अरब रुपये से अधिक की अतिरिक्त बैंक गारंटी मिलेगी। यह गारंटी वर्तमान 290 अरब रुपये के अलावा होगी।

इस खरीद योजना को प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण अभियान (पीएम आशा) नाम दिया गया है। योजना में तीन विकल्प दिए गए हैं। पहला, मूल्य समर्थन योजना (पीएसएस)। दूसरा, मध्य प्रदेश की भावांतर जैसी कीमत अंतर भुगतान योजना (पीडीपीएस)। तीसरी, दाम घटने पर प्रायोगिक आधार पर निजी कारोबारियों से खरीद कराकर स्टॉक करना। राज्य इन तीन योजनाओं में किसी को भी अपनाने के लिए स्वतंत्र होंगे, लेकिन एक ही फसल के लिए एक साथ दो योजनाएं नहीं चला सकते। सूत्रों ने कहा कि कीमत अंतर भुगतान योजना में 25 फीसदी तक के सरप्लस उत्पादन के लिए धन मुहैया कराया जाएगा। वहीं निजी कारोबारियों से खरीद कराने की योजना में उन्हें एमएसपी पर 15 फीसदी तक प्रोत्साहन राशि मुहैया कराई जा सकती है।

हालांकि किसान संगठनों ने एमएसपी खरीद घोषणा की आलोचना की। उन्होंने कहा कि इसमें कुछ नया नहीं है और इन योजनाओं के बारे में लोग पहले ही जानते हैं। जय किसान आंदोलन के अविक साहा ने कहा, ‘इस फैसले में कुछ नया नहीं है। यह पुरानी योजनाओं की रीपैकेजिंग है। जहां तक निजी कारोबारियों की भागीदारी का सवाल है, पूरी समस्या की जड़ ही मंडी हैं, जो एमएसपी का भुगतान नहीं करती हैं। इसके अलावा धन मुहैया कराने का तरीका भी बहुत स्पष्ट नहीं है।’

उन्होंने कहा कि खरीफ सीजन की उड़द की फसल बड़ी मात्रा में बाजार में आ चुकी है और इसके दाम एमएसपी से 40 फीसदी कम बने हुए हैं। बाजरे का भी यही हाल है। हालांकि सरकार को भरोसा है कि नए प्रस्ताव से किसानों की आमदनी बढ़ाने में मदद मिलेगी। कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने कहा, ‘पीएम-आशा का मकसद उपज की लाभप्रद कीमतें मुहैया कराना है, जिनकी घोषणा 2018 के केंद्रीय बजट में की गई है। यह एक ऐतिहासिक फैसला है।’ सरकार ने कहा है कि मध्य प्रदेश की भावांतर योजना की तर्ज पर बनाई गई कीमत अंतर भुगतान योजना केवल तिलहनों के लिए होगी।


Date:12-09-18

Dial A Service

Delhi government has made a new promise. Its success, and failure, will be tracked in a fast urbanising country.

Editorial

Delhi government’s ambitious phone-a-sahayak scheme to get doorstep delivery of government services within a limited time frame is set to be an eye-catching exercise in urban-centric administration. The scheme, launched on Monday, promises to offer 40 services at Rs 50 each and has roped in VFS, a global outsourcing agency, to execute it.

The services, so far, include applications for caste certificates, registration of marriages, Delhi family benefit scheme, learner’s and driver’s licences, new water and sewer connections and old-age pension schemes, among others. But, unlike the selection of pizzas, which makes the anticipation of their 30-minute-delivery promise so exciting, the test of Chief Minister Arvind Kejriwal’s new initiative will not be the range of services it offers. Instead, it will depend on how efficiently it guides consumers past administrative red tapes, that often straitjacket such application procedures.

Of course, Delhi — and Kejriwal — are not the first to try and mobilise the Right to Service Act (RSA) to greater efficacy. Only recently, the Manipur government announced a single-window services centre in Imphal, to be operational from November, that will also include door-to-door delivery of government services. In August 2010, Madhya Pradesh had become the first state in India to enact the RSA. Bihar enacted the bill next, in July 2011, followed by several other states, including Punjab, Kerala, Rajasthan, Himachal Pradesh, West Bengal and Jharkhand. Most states, however, have failed to fully capitalise on the RSA’s potential, meeting with moderate to poor success rates. Will the Delhi government succeed where others have not done very well so far — that will be the question.

In a country where policy-making has largely addressed itself to, and focussed upon the rural electorate, the Delhi government’s endeavour indicates a recognition of the changing dynamics of new India, where urban migration is fast reworking the rules of engagement between the metropolitan and the rural. It also marks the ruling Aam Aadmi Party’s (AAP) return to what fuelled its striking rise in the political landscape, despite the high bar set for new entrants, in the first place — a party born of and in the city, and committed to combating its malaises, including corruption and infrastructural failure — embracing in its fold the migrant labourer, the working class and the city’s elite in one sweep.

Like it has made visible efforts towards revitalising the educational infrastructure in government schools, if AAP can make a success of this new scheme in the national capital, it could contribute to the still evolving template of urban politics in a fast urbanising country.