13-08-2019 (Important News Clippings)

Afeias
13 Aug 2019
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Date:13-08-19

An Unhappy Contrast

As of now, GoI’s welfare and security policies seem more confident than its economic management

Saubhik Chakrabarti

It’s too early to take a call on this but perhaps not too early to flag it – the surefootedness displayed by the BJP government on matters of national security and social policy is not yet visible in economic management. The ‘yet’ is important. It’s been around three months since BJP was re-elected with an overwhelming mandate. Fairness demands that we give the government some more time. But the contrast is already striking.

And this is not just because the dramatic Jammu & Kashmir reorganisation bills were shepherded adroitly. Even when there’s been less drama, the government has been quite efficient on matters of welfare and security.

The first Cabinet meeting of this term extended the farmer income support scheme. Then, the government made clean water availability a signature theme. Then, in the budget session that saw 28 bills being passed – a 10-year record – welfare-themed legislations were prominent. Included in this list are laws on banning triple talaq, a new consumer welfare regulator, minimum wages, making Aadhaar a voluntary KYC option for individuals, and banning unregulated deposits.

National security saw crucial, if not controversy-free, interventions via the passage of amendments to the Unlawful Activities (Prevention) Act and the National Investigation Agency Act.

This is a partial list – but even then it’s clear proof of a government knowing what it wants and doing what is required. In economic management, though, and sticking to the legislative record, perhaps the only example of such surefootedness was the swift drafting and passage of amendments to the Insolvency and Bankruptcy Code (IBC). These changes were necessary in part after the National Company Law Appellate Tribunal put operational and financial creditors on a par in bankruptcy resolution, putting lending banks at great risk.

The other major economic legislation was amending the Companies Act that penalises some violations of corporate social responsibility norms with jail terms for executives. This was a classic case of aiming a totally unnecessary government bazooka at a small corporate problem. And entirely predictably, it made business leaders even more antsy.

India Inc was antsy anyway because the passage of the biggest economic legislation of the budget session, the Finance Bill aka the Budget, didn’t seemingly do much to soothe concerns over macro, market and sectoral bad news.

And so, unusually for a government that has been so confident and assured in non-economic matters, its economic management has so far produced more questions than answers.

A sample of questions:

1. Has the government done enough to address a clear economic slowdown?
2. Is the slowdown structural or cyclical, meaning deeper or a soon-to-reverse variety?
3. If it’s the former, is there a structural consumption problem as well, meaning, have consumption appetites of India’s better off classes been satiated and therefore is increasing aam admi consumption the big challenge?
4. Even if it’s a cyclical slowdown we are facing, can sectoral problems be addressed by a gentle macro turnaround?
5. With the global economy not providing a growth impetus to India, can domestic policy take the economy beyond 6-6.5% growth rate in the next two or three years? Bear in mind that most economists reckon India’ absolute minimum annual average GDP growth rate should be 7% for any meaningfully quick economic transformation.

Given these questions, what are we hearing from the government?

Post-Budget, the finance ministry has held a number of consultations with industry and market leaders, and the media has reported that a revival package may be in the offing. Automobiles, real estate, credit markets and foreign portfolio investors (FPIs) are reportedly sectors/ actors that may get close attention in a revival package.

A point to note here is that the Budget itself hadn’t indicated any need for specific revival packages and that bar the market’s unhappiness over the new tax surcharge on the rich, which affects FPIs, none of the bad economic trends was unknown before the Budget. Therefore, there’s a question whether the Budget was a major lost opportunity, assuming there’s a post-Budget economic booster in the offing.

In his extensive interview with ET, the prime minister made a number of broad statements of intent. Significant among these was his asking bankers to lend more, assuring that their decisions taken “in good faith” won’t lead to “witch hunts”.

Linked to this was his argument that banks’ bad loans problem was getting tackled and that more lendable resources are being made available to financial credit suppliers and that this, plus improved capacity utilisation by industry will lead to an uptick in private investment. The PM’s central argument seemed to be that process improvement will lead to a growth revival.

At this point, we do not either know whether there will be a so-called revival package – and what form it will take – or whether the assumption that process improvement will sooner rather than later change the economic tempo will bear out.

Therefore, it is fair to conclude that the questions we asked are difficult to answer as yet from what we can discern on government thinking on economic management. And that given the real dips in many economic numbers, such uncertainty can legitimately be a cause for worry.

So, to go back to the contrast we pointed out at the beginning of this commentary, such an approach doesn’t characterise the government’s management of social welfare and national security issues.

To put it mildly, this is not a contrast India can afford for too long.


Date:13-08-19

जलवायु परिवर्तन से जुड़ी प्रवासन की बढ़ती समस्या

सुनीता नारायण

मैं एक ऐसी तस्वीर साझा कर रही हूं जो मेरे जेहन से निकल ही नहीं रही है। हम एक कमरे में कैद हैं और वहां मौजूद छोटी सी खिड़की से देख पा रहे हैं कि बाहर का मौसम बेहद खराब हो चुका है। जंगलों में आग लगी हुई है, गर्म हवाएं चल रही हैं, तेज बारिश हो रही है और तूफान आया हुआ है। यह सबकुछ पहले जताई आशंकाओं के अनुरूप है लेकिन हमारी चीखें नहीं सुनी जा रही हैं। ऐसा लग रहा है मानो यह सब कहीं और चल रहा है, मानो यह हकीकत न हो।

मुझे पता है कि यह बहुत नाटकीय प्रतीत होता है लेकिन यह तथ्य है। तेजी से बदलते मौसमी रुझानों और पृथ्वी पर बढ़ती गर्मी का असर हमारे सामने है। लेकिन हमारा ध्यान व्यापार युद्घ, ब्रेक्सिट, आव्रजन, अर्थव्यवस्था, राष्ट्रवाद, युद्घ जैसी बातों में लगा हुआ है। मानव इतिहास में जलवायु परिवर्तन शायद इससे बुरे वक्त में नहीं हो सकता था। हम इससे निपटने में असमर्थ नजर आ रहे हैं।

यही वह वक्त है जब यह स्पष्ट हो चला है कि चीजें हमारे नियंत्रण से बाहर हैं। हर वर्ष हमें कहा जाता है कि यह सबसे गर्म वर्ष है। अगले वर्ष यही कहानी दोहराई जाती है। इसके बाद एक नया रिकॉर्ड टूटता है। हालात निरंतर बिगड़ते जा रहे हैं। हम सबको यह पता है, हम इसे महसूस कर सकते हैं।

हमें यह समझने की आवश्यकता है कि अपने अस्तित्व की चुनौती से जूझ रहे लोगों के लिए इसका क्या मतलब है? बात चाहे सूखे की हो या बाढ़ की, लोगों को इनकी वजह से मजबूरन काम की तलाश में एक जगह से दूसरी जगह जाना होता है। ये लोगों को घर से बाहर निकलने पर मजबूर करते हैं। कई बार यह अस्थायी होता है और कई बार उनका यह प्रवास स्थायी हो जाता है। लेकिन अब जलवायु परिवर्तन का खतरा मुंह बाये हमारे सामने खड़ा है।

अमिताभ घोष अपने नए उपन्यास गन आइलैंड में हमें प्रवासियों की पीढिय़ों से मिलाते हैं। जहां अतीत और वर्तमान में लोगों को नई आजीविका की तलाश में अपना घर बार छोड़कर निकलना पड़ा। प्रवासी हमेशा से बदलाव का मानवीय चेहरा रहे हैं, चाहे वह अच्छा हो या बुरा। यह भी सच है कि प्रवास केवल मजबूरन नहीं किया जाता बल्कि कई बार लोग दूसरी जगह बेहतर भविष्य की उम्मीद में भी अपना घरबार छोड़ते हैं।

पूरी दुनिया आपस में इस कदर जुड़ी हुई है कि इसके कई तरह के असर हमारे सामने हैं। एक तो यह कि एक देश का कार्बन डाई ऑक्साइड पूरी दुनिया के वातावरण को प्रभावित करता है। दूसरा दुनिया भर के समाचार मोबाइल टेलीफोनी की गति से एक जगह से दूसरी जगह जाते हैं। इस संदर्भ में देखें तो लोगों का एक जगह से दूसरी जगह आना जाना भी बढ़ेगा।

सवाल यह है कि इस तेज गति से हो रहे प्रवासन को लेकर हमारी प्रतिक्रिया क्या होगी। प्रवासन पहले ही कई देशों की राजनीति को प्रभावित कर रहा है। भारत में हम इस बात पर चर्चा करते हैं ‘बाहरी लोगों’ की गणना कैसे की जाए। हमें यह भी पता नहीं कि एक बार उनकी गिनती हो जाने के बाद क्या होगा? यूरोप में जनता का मिजाज उन तस्वीरों से निर्धारित हो रहा है जिनमें नौकाओं पर सवार लोग बड़ी तादाद में अवैध तरीके से देश पहुंच रहे हैं। अमेरिका में दीवार खड़ी की जा रही है और लाखों लोग अमेरिका प्रवेश की आकांक्षा लिए खड़े हैं। सोशल मीडिया से लेकर तमाम सार्वजनिक जगहों पर यह सब चर्चा का विषय है। प्रवासियों को लेकर चल रही बहस वास्तविक है और इससे निपटने की हमारी प्रतिक्रिया काफी हद तक नाकाफी है। हमारे कदम और शब्द इसके लिए नाकाफी हैं। यही वजह है कि समाज में पहले ही इसे लेकर असुरक्षा और भय का माहौल बन गया है। इससे समुदायों के बीच कड़वाहट बढ़ रही है और ध्रुवीकरण हो रहा है। इसका फायदा राष्ट्रवादी दल उठा रहे हैं।

याद कीजिए कि अमेरिका के टैक्सस शहर के अल पासो में जब एक श्वेत व्यक्ति ने लोगों पर गोलीबारी की तो उसने कहा कि वह यह काम दुनिया को जलवायु संकट से बचाने के लिए कर रहा है। उसने अपने ब्लॉग पर दलील दी थी कि अमेरिकी कभी अपनी जीवनशैली नहीं त्यागेंगे, हालांकि वह मानता है कि यह पूरी पृथ्वी को नष्ट कर रही है। उसका जवाब है कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को समाप्त करने से अमेरिकी जीवन शैली को निभाना संभव होगा। वह लोगों को मारकर अमेरिका में प्रवेश करने से रोकना चाहता था।

अतीत में मैंने ऐसी हरकतों को पागलपन कहकर खारिज किया था। परंतु अब हम ऐसी जगह पहुंच रहे हैं जहां संकट के दो कोण मिलेंगे और स्थितियां विस्फोटक होंगी। अभी भी हमारे पास प्रवासन को लेकर समुचित आंकड़े नहीं हैं। हम जलवायु कारणों से बने शरणार्थियों के बारे में सहजता से इसलिए बात करते हैं क्योंकि इस समस्या की प्रकृति और गंभीरता को समझना आसान नहीं।

कहने का अर्थ यह नहीं है कि प्रवासन बुरा है। सच तो यह है कि तमाम शहर और देश बने ही इसलिए क्योंकि लोग एक जगह से दूसरी जगह जाकर बसे। हमारे देश में आंतरिक प्रवासन की समस्या रोजगार से जुड़ी है। हर क्षेत्र में बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो बाढ़ या सूखाग्रस्त क्षेत्रों से वहां आए हैं। कई लोग रोजगार की तलाश में आते हैं।

हमारे देश में ऐसे लोगों से जुड़ा कोई आंकड़ा नहीं है क्योंकि पिछली जनगणना दशक भर पहले हुई थी। परंतु शहरों के आसपास अवैध बस्तियों को देखकर यह तय है कि बड़ी तादाद में लोग एक जगह से दूसरी जगह जा रहे हैं। इसका राजनीति पर प्रत्यक्ष प्रभाव नजर आता है। हालात आगे और खराब होंगे।

मैं इस लेख का समापन नहीं कर रही हूं क्योंकि मेरे पास कोई निष्कर्ष नहीं है। परंतु मैं मानती हूं कि अब वक्त आ गया है कि हम जलवायु परिवर्तन की प्रकृति पर मानवीय ढंग से चर्चा करें।


Date:13-08-19

ब्याज दरें घटाने से नहीं बनेगी बात

सस्ते कर्ज से आर्थिक विकास की रणनीति तभी कारगर होती है, जब उपभोक्ता व निवेशकों में भविष्य को लेकर भरोसा हो।

डॉ. भरत झुनझुनवाला , ( वरिष्ठ अर्थशास्त्री एवं आईआईएम, बेंगलुरु के पूर्व प्रोफेसर हैं )

फिलहाल दुनिया भर में ब्याज दरें घटाने की होड़ चल रही है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व पर दबाव बना रखा है कि हाल में की गई कटौती को जारी रखते हुए आगे भी ब्याज दरें घटाने पर काम करें। न्यूजीलैंड, थाईलैंड और भारत के केंद्रीय बैंकों ने भी पिछले महीने ब्याज दरों में कटौती की है। चीन ने आधिकारिक रूप से घोषणा नहीं की, परंतु माना जा रहा है कि वहां भी अंदरखाने ब्याज दरों में कटौती की गई है।

ब्याज दरों में कटौती के पीछे सोच यह है कि ब्याज दर कम होंगी तो उपभोक्ता कर्ज लेकर बाइक अथवा टीवी खरीदेंगे, जिससे बाजार में मांग बढ़ेगी। इसके साथ ही ब्याज दर न्यून होने से निवेशकों के लिए कर्ज लेकर फैक्ट्री लगाना आसान हो जाएगा और वे बाइक एवं टीवी इत्यादि बनाने के कारखाने लगाएंगे। इस प्रकार उपभोक्ता की मांग और निवेशक की आपूर्ति के बीच एक सही चक्र स्थापित हो जाएगा, लेकिन प्रश्न है कि क्या वास्तव में ऐसा होगा? इसकी पड़ताल के लिए हम अमेरिकी अर्थव्यवस्था का विश्लेषण कर सकते हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि अमेरिका द्वारा अपनाई गई नीतियों को ही दुनिया के तमाम देश अपनाते नजर आ रहे हैं।

अमेरिकन बैंक एसोसिएशन की एक विज्ञप्ति के अनुसार अमेरिका में श्रमिकों के वेतन दबाव में हैं और वे कर्ज के बोझ तले दबते जा रहे हैं। हालांकि रोजगार के अवसर भी बढ़े हैं। इसका अर्थ है कि जो लोग अब तक बेरोजगार थे, उन्हें अब रोजगार मिल गया है, लेकिन रोजगार पाए हुए लोगों की तुलना में बेरोजगार लोगों की संख्या बहुत कम है। बाजार में मांग की गति जानने के लिए जो श्रमिक काम कर रहे हैं, उनकी खपत पर विचार करना होगा। वे दोहरा झटका झेल रहे हैं। एक तो उनके वेतन पर दबाव है और दूसरा, वे कर्ज के बोझ तले दबे हैं। फिर भी वे भारी मात्रा में खपत कर रहे हैं। इससे अमेरिकी अर्थव्यवस्था की विकास दर तीन प्रतिशत के मजबूत स्तर पर टिकी हुई है। इस बीच अहम प्रश्न यही है कि वेतन पर दबाव की स्थिति में भी वे कर्ज लेकर खपत क्यों कर रहे हैं?

ऐसा प्रतीत होता है कि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के आक्रामक स्वभाव और आत्मविश्वास से वह अमेरिकी जनता को भविष्य पर भरोसा दिला रहे हैं। उसी भविष्य पर भरोसे के चलते अमेरिकी नागरिक वेतन में गिरावट के बावजूद कर्ज लेकर खपत कर रहे हैं। इस खपत के कारण अमेरिकी अर्थव्यवस्था सुदृढ़ है। जैसे मौसम विभाग भविष्यवाणी करे कि वर्षा अच्छी होगी तो किसान चारों तरफ सूखा दिखने के बावजूद खेत में बुआई करने लगते हैं। वैसे ही अमेरिकी उपभोक्ता खपत में जुटे हैं।

दूसरा प्रश्न है कि अमेरिका की विकास दर इतनी मजबूत क्यों है? खासतौर से तब जब चीन के साथ उसका ट्रेड वार लगातार गहराता जा रहा है। अमेरिकी निर्यात दबाव में हैं। उसकी प्रतिस्पर्द्धा क्षमता में भी कोई खास सुधार नहीं हुआ है। ऐसी स्थिति में विकास का स्रोत कहां है? रोजगार कहां से बढ़ रहे हैं?

इसके पीछ कहानी यह है कि अमेरिकी उपभोक्ताओं द्वारा टैक्सी और मसाज पार्लर जैसी तमाम सेवाओं की अधिकाधिक खपत की जा रही है। इन सेवाओं में रोजगार ज्यादा बनते हैं। इसलिए अमेरिका में उत्पादन स्थिर रहने और उसकी प्रतिस्पर्द्धा क्षमता भी सीमित रहने के बावजूद रोजगार बन रहे हैं। सारांश यह है कि इस समय अमेरिका में जो आर्थिक प्रगति हो रही है और रोजगार बन रहे हैं, उसका आधार ब्याज दरों में कटौती नहीं, बल्कि राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा जनता में आत्मविश्वास पैदा करना है।

अमेरिकी सरकार की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। राष्ट्रपति ट्रंप ने बड़ी कंपनियों पर और अमीरों पर आयकर में भारी कटौती की थी। इससे अमेरिकी सरकार के राजस्व में वृद्धि नहीं हो रही है। वर्ष 2017 में राष्ट्रपति ट्रंप के सत्तारूढ़ होने के समय अमेरिकी सरकार का राजस्व 3320 अरब डॉलर था, जो वर्ष 2019 में 3440 अरब डॉलर होने का अनुमान है। यानी इसमें बहुत ही मामूली वृद्धि हुई है, लेकिन अमेरिकी सरकार के खर्च तेजी से बढ़ रहे हैं। इसी अवधि में अमेरिकी सरकार के खर्च 3900 अरब डॉलर से बढ़कर 4500 अरब डॉलर होने का अनुमान है। राजस्व में 120 अरब डॉलर की वृद्धि के मुकाबले खर्चों में 600 अरब डॉलर की वृद्धि हुई है। इन खर्चों को पोषित करने के लिए अमेरिकी सरकार भारी मात्रा में अंतरराष्ट्रीय बाजार से कर्ज ले रही है। ऐसे में अमेरिका के मौजूदा तीव्र विकास का असली स्रोत यही है कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने जनता में भविष्य को लेकर आशा का संचार किया, जिसके चलते अमेरिकी जनता वेतन के दबाव में होने के बावजूद कर्ज लेकर खपत कर रही है। दूसरी तरफ अमेरिकी सरकार ने टैक्स कटौती की है। इसके चलते अपने बढ़े हुए खर्चों की भरपाई के लिए भारी मात्रा में कर्ज लेना पड़ रहा है। यानी अमेरिकी उपभोक्ता और अमेरिकी सरकार दोनों कर्ज के बोझ तले दबे जा रहे हैं और इसके दम पर ही अमेरिकी आर्थिक विकास में तेजी कायम है। इस आर्थिक विकास की कुंजी ब्याज दरों की कटौती में नहीं, बल्कि आत्मविश्वास के कारण लिए जाने वाले कर्ज में है।

जाहिर है कि कर्ज लेकर आर्थिक विकास हासिल करने की रणनीति की अपनी एक सीमा है और यह ज्यादा दिनों तक कारगर नहीं रहती। एक समय आता है, जब निवेशक समझ जाते हैं कि कर्ज लेने वाले की आंतरिक स्थिति डांवाडोल है और वे या तो कर्ज देना बंद कर देते हैं या फिर उसके लिए ऊंचा ब्याज मांगते हैं। इस संदर्भ में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की अर्थशास्त्री गीता गोपीनाथ ने कहा है कि वर्तमान में हो रहा आर्थिक विकास जोखिम भरा है और विश्लेषकों के बीच सहमति है कि ब्याज दरें घटाकर हम देशों को आर्थिक संकट से नहीं उबार पाएंगे।

अब यदि भारत में रिजर्व बैंक ब्याज दरें घटा भी दे, तो भी आत्मविश्वास के अभाव में उपभोक्ता एवं निवेशक दोनों ही कर्ज लेने में कतराएंगे। ध्यान करें कि बीते समय में रिजर्व बैंक ने कई बार ब्याज दरों में कटौती की है, लेकिन हमारी अर्थव्यवस्था में सुधार के संकेत नहीं दिख रहे हैं। इसका स्पष्ट अर्थ है कि भविष्य में आत्मविश्वास बढ़ने पर ही उपभोक्ता एवं निवेशक कर्ज लेते हैं। यानी सस्ता कर्ज स्वयं में अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने का मंत्र नहीं है। सस्ता कर्ज केवल उस समय उपयोगी होता है, जब उपभोक्ता एवं निवेशक को भविष्य पर भरोसा होता है। बीते समय में तमाम उद्यमियों ने कहा है कि सरकारी अधिकारी उन्हें चोर की दृष्टि से देखते हैं। हाल में कैफे कॉफी डे के संस्थापक द्वारा आत्महत्या किए जाने के पीछे भी यही कारण बताया जा रहा है। ऐसे में सरकार को चाहिए कि वह जनता और निवेशकों से वार्ता करे। निवेशकों को सम्मान दे और उनके मन में भविष्य के प्रति जो आशंका दिख रही है, उसका निवारण करे जिससे कर्ज लेकर खपत एवं निवेश का आदर्श चक्र स्थापित हो सके।


Date:12-08-19

सकारात्मक समझौता

संपादकीय

पूर्वोत्तर लंबे समय से अशांत है। वहां कुछ अलगाववादी संगठन और कई जातीय संगठन सुरक्षा व्यवस्था के लिए लगातार चुनौतियां पेश करते रहे हैं। इन संगठनों पर कई बार लगाम कसने के लिए कड़े कदम उठाए गए, तो कई बार बातचीत के जरिए उन्हें मुख्यधारा से जोड़ने के प्रयास भी हुए, मगर कोई उल्लेखनीय सकारात्मक नतीजा नहीं निकल सका। ऐसे में त्रिपुरा के एक विद्रोही समूह का केंद्र सरकार के साथ समझौते में हिंसा का रास्ता छोड़ने का संकल्प लेना और संविधान में विश्वास जताना आंतरिक सुरक्षा की दृष्टि से नई उम्मीद जगाता है। बताते चलें कि शनिवार को केंद्र सरकार, त्रिपुरा सरकार और सबीर कुमार देबवर्मा के नेतृत्व वाले नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ त्विप्रा; एनएलएफटी-एसडी ने हस्ताक्षर किए। इस समूह के अट्ठासी सदस्यों ने हथियार डाल कर मुख्यधारा में शामिल होने का संकल्प लिया। इस संगठन पर तीन सौ से ऊपर हिंसक घटनाओं के मामले दर्ज हैं। इस पर गैरकानूनी गतिविधियां निरोधक कानून के तहत प्रतिबंध लगा हुआ था। अब इसके साथ समझौते के बाद सरकार इनके आवास, शिक्षा और पुनर्वास संबंधी सुविधाएं जुटाएगी। इस समझौते से पूर्वोत्तर में सक्रिय दूसरे विद्रोही और अलगाववादी संगठनों के भी मुख्यधारा में लौटने की उम्मीद जगी है।

पूर्वोत्तर के मणिपुर, त्रिपुरा और नगालैंड में कई अलगाववादी संगठन सक्रिय हैं। इनके असंतोष की बड़ी वजह वहां विकास योजनाओं पर ध्यान न दिया जाना है। छिपी बात नहीं है कि ये राज्य लंबे समय से उपेक्षित रहे हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य और दूसरी बुनियादी सुविधाओं का वहां घोर अभाव है। इसलिए वे अलग होने की मांग करते हुए हिंसा का रास्ता अख्तियार करते रहे हैं। हालांकि हथियार के बल पर उन्हें मुख्यधारा में लाने और भारतीय संविधान में विश्वास जताने पर विवश करने की कोशिशें भी हुईं, कुछ संगठनों के साथ संघर्ष विराम के समझौते भी हुए, पर विकास कार्यक्रमों को ठीक से लागू न किए जा सकने की वजह से उनका असंतोष बार-बार फूटता रहा। इन संगठनों के असंतोष का शिकार ज्यादातर वहां तैनात सुरक्षा बल होते रहे हैं। चूंकि पूर्वोत्तर के इलाके दुर्गम हैं, वहां विद्रोही संगठनों पर नजर रखना सुरक्षा बलों के लिए चुनौती भरा काम रहा है। इन संगठनों का गुस्सा उन राजनेताओं पर भी फूटता रहा है, जो केंद्र के साथ निकटता बनाते रहे हैं। मगर अब शायद इन अलगाववादियों को यह समझ आने लगा है कि मुख्यधारा में शामिल होकर ही विकास कार्यक्रमों को आकार दिया जा सकता है। त्रिपुरा के विद्रोही संगठन एनएलएफटी के समझौते से यही संकेत मिलता है।

पूर्वोत्तर के विद्रोही संगठनों का मन बदलने के पीछे कुछ वजहें साफ है। इस इलाके में विद्रोह की वजह विकास गतिविधियां संचालित न होने के अलावा केंद्र के साथ वहां के लोगों का कोई संवाद न रहना भी रही है। केंद्र सरकार ने इस तरफ ध्यान केंद्रित किया। खासकर त्रिपुरा में 2015 में केंद्र सरकार ने एनएलएफटी के साथ बातचीत का सिलसिला शुरू किया। उसके बाद से इस संगठन ने किसी हिंसक घटना को अंजाम नहीं दिया। इसी तरह मणिपुर और नगालैंड के दूसरे संगठनों के साथ भी बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ। एनएलएफटी के साथ हुए समझौते के बाद केंद्र सरकार ने कहा है कि वह त्रिपुरा सरकार की विकास योजनाओं संबंधी रूपरेखा पर भी गंभीरता से विचार कर रही है। इसी तरह पूर्वोत्तर के दूसरे राज्यों में भी विकास गतिविधियां तेज की गई हैं।


Date:12-08-19

बाढ़ का कहर

संपादकीय

इस बार महाराष्ट्र, गुजरात से लेकर कर्नाटक और केरल तक में बाढ़ से जो तबाही मची है उससे यह तो साफ है कि मौसम विभाग की भारी बारिश की चेतावनी के बावजूद सरकारों ने बचाव के शायद ही कोई पर्याप्त उपाय पहले से किए हों। पिछले चार दिनों में इन राज्यों में हुई भारी मानसूनी बरसात ने ऐसा कहर बरपाया कि ज्यादातर जगहों पर राष्ट्रीय राजमार्ग तक पांच-छह फीट पानी में डूब गए। गांव के गांव जलमग्न हैं। हल्दी की खेती के लिए मशहूर महाराष्ट्र के सांगली जिले की हालत तो बहुत खराब है। इस जिले के कई गांव बीस-बीस फुट पानी में डूब गए हैं। इन राज्यों में बाढ़ से मरने वालों का सरकारी आंकड़ा दो सौ से ऊपर है। बेघरों की तादाद तो लाखों में है। सांगली और कोल्हापुर जिलों में बाढ़ के पानी की निकासी बढ़ाने के लिए कर्नाटक ने अलमाटी बांध से भारी मात्रा में पानी छोड़ा है। गुजरात में नर्मदा नदी पर बने सरदार सरोबर बांध के तीस में से छब्बीस गेट खोलने पड़ गए। हालत यह है कि केरल के चौदह, कर्नाटक के अठारह, महाराष्ट्र के ग्यारह और गुजरात के सात जिले भयानक बाढ़ की चपेट हैं और इन जिलों में रेड अलर्ट जारी किया चुका है। कुछ इलाके तो ऐसे हैं जहां पहली बार बाढ़ आई है। हालांकि सभी सरकारों ने बचाव और राहत कार्य शुरू तो किए हैं लेकिन वे ऊंट के मुंह में जीरा साबित हो रहे हैं। ऐसे में ज्यादातर बाढ़ग्रस्त इलाकों, खासतौर से ग्रामीण इलाकों में लोग बाढ़ के पानी में फंसे हैं।

ऐसा नहीं है कि बाढ़ कोई अनायास ही आई हो। मौसम विभाग ने भारी बारिश को लेकर पहले ही चेतावनी जारी कर दी थी। इस बात का अनुमान शायद सरकार को नहीं रहा होगा कि लगातार मूसलाधार बारिश से नदियां उफन कर बड़े इलाकोें में फसलों को अपनी चपेट में ले लेंगी। हालात इसी से बिगड़े। सांगली में तो पांच-छह घंटे की भारी बारिश में समंदर जैसे हालात बन गए। अभी समस्या यह है कि ज्यादातर राज्यों में लोगों को बाढ़ ग्रस्त क्षेत्रों से सुरक्षित निकालने का भी बंदोबस्त नहीं हो पाया है। जाहिर है राज्यों के पास बाढ़ जैसी आपदा से निपटने के स्थायी और पर्याप्त इंतजाम नहीं हैं।

हालांकि एनडीआरएफ की टीमें लगी हैं लेकिन पानी में फंसे लोगों की तादाद लाखों में है। नौ सेना और वायुसेना के हेलिकॉप्टर इन इलाकों में खाने के पैकेट और दवाइयां गिरा रहे हैं, लेकिन सबसे ज्यादा बड़ा खतरा पानी में फंसे लोगों की जान का है। असम के तैंतीस जिले बाढ़ की चपेट में हैं और पिछले चार दशकों में वहां पहली बार इतनी भयानक बाढ़ आई है। राज्य में 1980 में बाढ़ नियंत्रण बोर्ड बनाया गया था लेकिन आज तक सरकार ने ऐसे कोई स्थायी उपाय नहीं किए जो राज्य को हर साल आने वाली बाढ़ से बचा सकें। बिहार के भी कई जिले बाढ़ की चपेट में आ चुके हैं। समस्या यह है कि हम पिछली घटनाओं से कोई सबक नहीं लेते। पिछले साल केरल को बाढ़ के जिस विकराल रूप का सामना करना पड़ा था उससे हमने कुछ नहीं सीखा। सवाल है कि बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा से निपटने के लिए ठोस योजनाएं क्यों नहीं बनाई जातीं? सरकारें इसे एक फौरी और मौसमी संकट मान कर चलती हैं। इस वक्त ज्यादातर बाढ़ ग्रस्त राज्यों के पास ठोस आपदा प्रबंधन प्रणाली नहीं है। वरना लोग जैसा संकट झेलने को मजबूर हैं वैसा शायद नहीं होता।