13-07-2021 (Important News Clippings)

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13 Jul 2021
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Date:13-07-21

Getting Population Policy All Wrong

ET Editorial

Uttar Pradesh and Assam want to pursue population policies to actively discourage families having more than two children, deploying penalties such as exclusion from welfare schemes and from eligibility for government jobs for contesting local polls. This is wrong-headed, as testified to by the experience of China, which, after enforcing a one-child norm, stares at a steep fall in working-age people and has been trying, without success, to get people to have more children.

The State should focus not on family size but on social development and economic progress, which work to stabilise the population. India is progressing on the population front. The total fertility rate (TFR) — the average number of children a woman will have in her lifetime — fell below 2.1%, the replacement level, in a majority of states, showed the National Family Health Survey-5 (NFHS; 2019-20) that covered 22 states in Phase 1. UP’s TFR declined to 2.7% in 2015-16 from 3.8% in 2005-06, according to NFHS-4 data. Policy must focus on improving social well-being, and educating and equipping the young for productive jobs. Such policies work: see the experience of Indian states, in particular those in the south, and of Bangladesh, which has brought its TFR well below 2.1.

Many who babble on about population explosion are oblivious of the danger of a society depressing its birth rate before it grows prosperous enough to save and provide, from the earnings of a shrinking population of those who work, for a growing dependent population. China, with a per-capita income of some $10,000, is now desperate to raise its birth rate. India, with a per-capita income one-fifth China’s, should draw the right lessons. Invest in people, and you get both prosperity and smaller families.


Date:13-07-21

The power of scrutiny

SC has struck a blow for inquisitorial powers of legislatures against social media companies

Editorial

The Supreme Court of India’s verdict last week, upholding the authority of a committee of the Delhi Assembly to summon a senior official of Facebook, is an extremely nuanced recognition of the extent of powers of State Assemblies in matters regulated by an Act of Parliament. The question mark about the powers arose in the first place because Facebook, whose India vice-president Ajit Mohan was repeatedly summoned by Delhi Assembly’s Committee on Peace and Harmony on the subject of the Delhi riots of 2020, argued before the Supreme Court that this was a case of overreach; and that Delhi’s law and order came under the central government. This was also the position taken by the central government, which argued that the Delhi Assembly had no jurisdiction in this matter. The social media platform also pointed out that it was governed by the IT Act of Parliament, and this is not therefore something that any State government can be concerned with. The Court, in upholding the summons, did not go merely by the legislative powers of a House. It rightly said, “The Assembly does not only perform the function of legislating; there are many other aspects of governance which can form part of the essential functions of the Legislative Assembly and consequently the committee.” Its point was that the “inquisitorial” and “recommendatory” powers of a House can be used for better governance. But it also cautioned the committee from “transgressing into any fields reserved for the Union Government”.

Significantly, the verdict comes amid a long phase of discordance over legislative turf between the central government and the Delhi government, something that the Bench led by Justice S.K. Kaul did note amid discussions about the spirit of federalism. Not just that. It also comes at a time when social media intermediaries are legally fighting some aspects of the new IT rules that govern them. Their responsibility toward the many legislatures will only become more heightened because of this verdict. The Court refused to buy the argument that social media intermediaries are “merely a platform for exchange of ideas without performing any significant role themselves”. It then linked what happens in these platforms to the real world. Misinformation on social media, the Court said, has had “a direct impact on vast areas of subject matter which ultimately affect the governance of States”. Given the constraints of the powers of the Delhi Assembly vis-à-vis law and order, the very fact that the Court found that its committee still could summon the Facebook India official without encroaching upon the turf of the Centre now opens the gates for scrutiny of social media platforms by other States, which however have significantly more powers with respect to law and order. The stage is set for more scrutiny.


Date:13-07-21

क्यों न केंद्र भी आबादी रोकने का यूपी जैसा कानून बनाये

संपादकीय

सबसे बड़ी आबादी वाले सूबे यूपी के सीएम नई आबादी नीति और कानून लेकर दो से ज्यादा बच्चे पैदा करने पर राज्य-प्रदत्त कई सुविधाएं और अधिकार रोकेंगे और कम बच्चों पर अभिभावकों को पुरुस्कृत करेंगे | आबादी नियंत्रण की नरम और समझाने भुझाने वाली कोशिशें चार से ज़्यदा दशकों से फेल रही है | सरकारी सकती जब विरोधी स्वर के खिलाफ यानि सोशल मीडिया या पत्रकारों को सरेआम अफसरों से पिटाई करवाकर दिखाई जाती है तो वह प्राशसनिक गुंडई होती है लेकिन जब आबादी रोखने के नरम प्रयास लगातार फेल हो रहे हो और देश की खुशहाली को कुछ लोगो की अज्ञानता दीमक की तरह खोखली कर रही हो तो यह सख्ती सभी को अच्छी लगेगी | यह संविधान सम्मत भी है क्योंकि अनुछेद 14 समानता के अधिकार के साथ राज्य को बोधगम्य विभेद ( इंटेलीजिबल डिफरेंशिया ) की इजाज़त देता है , यानि बच्चे कम करने वाले और ज़्यादा पैदा करने वाले में विभेद | आजादी के बाद से राजनीतिक कीमत के मद्देनज़र सरकारों ने सख्ती नहीं की | लिहाजा जीडीपी में भारत 5 वें नंबर पर होते हुए भी प्रतिव्यक्ति आय में 144 वें स्थान पर फिसल जाता है और मानव-विकास सूचकांक में 129 वें पर | लेकिन आबादी नियंत्रण संविधान की समवर्ती सूचि में है लिहाजा बेहतर होता की केंद्र इस पर कानून बनता क्योंकि यूपी ( कुल प्रजनन दर 2 .7 ) के अलावा बिहार दूसरी सबसे बड़ी आबादी है जहा से दर सबसे ज्यादा (3 .1 ) है | बिहार आबादी नियंत्रण पर दशकों से असफल है | सरकारों के निकम्मेपन का खामियाजा राज्य को ही नहीं देश को भोगना पड़ा है | यूपी के सीएम ने समुदाय की आबादी में संतुलन के नाम पर अल्पसंख्यको पर कटाक्ष तो किया लेकिन हकीकत ये है पिछले दो दशकों से इस समुदाय ने सबसे तेज़ी से आबादी वृद्वि की दर घटाई है और इसमें वह लगभग एससी वर्ग के बराबर है | इस रफ़्तार से वह दो दशकों में राष्ट्रीय औसत से भी नीचे आ जाएगा |


Date:13-07-21

आर्थिक असंतुलन दूर करे सरकार

भरत झुनझुनवाला, ( लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं )

भारत सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमणियन का कहना है कि भारत का घरेलू बाजार छोटा है, इसलिए आर्थिक विकास के लिए निर्यात को बढ़ाना होगा। संयुक्त राष्ट्र की संस्था अंकटाड के अनुसार चीन के निर्यात में 2019 की पहली तिमाही के मुकाबले 2021 की पहली तिमाही में 25 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसी अवधि में दक्षिण एशिया, जिसमें भारत प्रमुख है, से होने वाले निर्यात में दो प्रतिशत की गिरावट आई है। यह तब है जब 2020 में हमें आशा थी कि कोविड के कारण चीन के विरुद्ध भड़क रही भावना से विश्व भर में चीन से कम माल खरीदा जाएगा और बहुराष्ट्रीय कंपनियां चीन से निकलकर दूसरे देशों में कारोबार बढ़ाएंगी। यह अनुमान सही साबित नहीं हुआ। कोविड के बावजूद जहां चीन का निर्यात तेजी से बढ़ रहा है, वहीं हम अपने पुराने बाजारों से भी फिसल रहे हैं। हमारी इस फिसलन का एक बड़ा कारण देश की नौकरशाही है। यह सही है कि सरकार ने तकनीकी सुधारों से निर्यातकों को कई प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध कराई हैं और ईमानदार अधिकारियों की पदोन्नति दी है तथा भ्रष्ट अधिकारियों को सेवानिवृत्त किया है, लेकिन जमीनी स्तर पर नौकरशाही का अवरोध बरकरार है। किसी उद्यमी को निर्यात का ऑर्डर सप्लाई करना था। सप्लाई की आखिरी तिथि आ चुकी थी। उनका कंटेनर बंदरगाह पर जहाज में लादे जाने के लिए रखा हुआ था। उस समय बंदरगाह के अधिकारी ने कहा कि वह कंटेनर में रखे 25-25 किलो के 1600 बक्सों में प्रत्येक का वजन चेक करेंगे। इसमें कम से कम दो दिन का समय लगता। तब तक निर्यात की तारीख निकल जाती। सरकार को नौकरशाही के मूल चरित्र को समझकर जमीनी नौकरशाही पर नियंत्रण के लिए जन सहयोग की व्यवस्था करनी होगी। नौकरशाही सहयोग करे तो हम निर्यात में इजाफा कर सकते हैं।

विख्यात जर्मन दार्शनिक हेगेल ने कहा था कि मध्यम वर्ग पर नियंत्रण के लिए ऊपर से शासन और नीचे से जनता के दबाव, दोनों की जरूरत होती है। सरकार केवल ऊपर से सफाई कर रही है और नीचे से जनता का सहयोग नहीं ले रही है। इसी कारण नौकरशाही बेलगाम है। हमारे उद्यमियों के पास विश्व की अद्यतन तकनीक है। देश में श्रम भी सस्ता है। ऐसे में हमारा निर्यात तेजी से बढ़ना चाहिए, लेकिन हो इसका उलटा रहा है, क्योंकि नौकरशाही के अवरोध हमारे निर्यात पर ग्र्रहण लगा रहे हैं। नौकरशाही को नियंत्रित करने के लिए प्रत्येक सरकारी दफ्तर से संबंधित उपभोक्ताओं की एक सक्षम निगरानी समिति बनाई जानी चाहिए। नीति परिवर्तन के अभाव में निर्यात आधारित आर्थिक विकास कठिन दिखता है।

सेवा क्षेत्र के निर्यात की स्थिति भी अच्छी नहीं है। इंडिया ब्रांड इक्विटी फाउंडेशन की रपट के अनुसार सेवा क्षेत्र के मैनेजरों का खरीद सूचकांक (जो बाजार से खरीद करने की प्रवृत्ति को दर्शाता है) फरवरी 2021 में 55.3 से घटकर मार्च 2021 में 54.6 रह गया। यानी सेवा क्षेत्र का भी संकुचन हो रहा है। यह महत्वपूर्ण है, क्योंकि विश्व बाजार में सेवा का हिस्सा बढ़ता जा रहा है। भारत के पास बड़ी संख्या में इंजीनियर और अंग्र्रेजी बोलने वाले युवा हैं। इनके द्वारा सॉफ्टवेयर इत्यादि उत्पादों को बनाकर निर्यात किया जा सकता है। इन संभावनाओं को भी हम पर्याप्त रूप से नहीं भुना पा रहे। इसका मूल कारण हमारी शिक्षा व्यवस्था है, जिसका लक्ष्य सिर्फ नौकरियां हासिल करने के लिए छात्रों को प्रमाण पत्र बांटना रह गया है। इस समस्या का भी हल निकालना होगा।

दूसरा विषय घरेलू मांग का है। हमारी आर्थिक विकास दर वर्ष पिछले कुछ समय से लगातार घटने पर है। अत: समस्या कोविड की नहीं, बल्कि कुछ समय से लागू आर्थिक नीतियों की है। विशेष यह है कि 2014 से हमारा सेंसेक्स उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है। इस वर्ष इसमें लगभग 15 प्रतिशत की और वृद्धि होगी और सेंसेक्स 58000 के स्तर को छू सकता है। कौतूहल का विषय है कि आर्थिक विकास दर गिर रही है और सेंसेक्स उछल रहा है। बताते चलें कि सेंसेक्स में मुख्य रूप से बड़ी कंपनियों की भागीदारी होती है। इसलिए हम ऐसा कह सकते हैं कि समग्र अर्थव्यवस्था संकुचित हो रही है और इस संकुचन के बावजूद बड़े उद्यमी बढ़ रहे हैं। इसका कारण यह दिखता है कि जीएसटी लागू करने से बड़े उद्यमियों के लिए एक राज्य से दूसरे राज्य को माल भेजना आसान हो गया है, लेकिन यह छोटे उद्योगों पर भारी पड़ा। जीएसटी से बड़े उद्यमी बढ़े और छोटे उद्यमी संकुचित हुए।

नोटबंदी का भी ऐसा ही प्रभाव रहा, क्योंकि छोटे उद्यमी ही नकद में ज्यादा काम करते थे। सरकार ने हाईवे इत्यादि बुनियादी संरचना में भारी निवेश किए। ऐसे निवेश से भी बड़े उद्यमियों को लंबी दूरी तक माल ले जाने में सुविधा हुई। छोटे उद्यमियों का बाजार आसपास के क्षेत्रों में ही सीमित रहता है। हाईवे आदि बनाने में जो मशीनें और माल उपयोग किए गए जैसे जेसीबी, सीमेंट, स्टील, तारकोल इत्यादि, ये भी बड़े उद्यमियों के द्वारा ही बनाए और सप्लाई किए जाते हैं। विकास के इस मॉडल का परिणाम यह हुआ है कि छोटे उद्यमी समाप्तप्राय हो गए हैं। छोटे उद्यमियों के समाप्तप्राय होने से देश के आम आदमी की क्रय शक्ति घटी है, क्योंकि छोटे उद्यमों में ही अधिक संख्या में आम आदमी को रोजगार मिलते हैं। अत: घरेलू बाजार का संकुचन एक तरह से सरकारी नीतियों के कारण है।

मेरा तर्क जीएसटी, नोटबंदी और हाईवे के विरोध में नहीं है, परंतु इनसे जुड़ी समस्याओं पर विचार तो करना ही होगा। इसका एक उपाय है कि श्रम सघन उत्पादों और आम जन की खपत के उत्पादों पर जीएसटी की दर घटाई जाए। बुनियादी संरचना में निवेश की दिशा को झुग्गी-झोपड़ियों और गांव में बिजली और सड़क की तरफ मोड़ा जाए, जिससे हमारे छोटे उद्योग पुन: बढ़ें, रोजगार के अवसर सृजित हों, घरेलू बाजार में मांग बने और अर्थव्यवस्था का विस्तार हो। इन कठिन परिस्थितियों के मेरे आकलन के विपरीत मई के प्रथम सप्ताह में देश के निर्यात में वृद्धि हुई है और बिजली की खपत भी बढ़ी। मेरा मानना है ये अकस्मात घटनाएं हैं, जिन पर भरोसा नहीं करना चाहिए, क्योंकि 2014 से आज तक का रिकॉर्ड इसके विपरीत है। सरकार को चाहिए कि मौजूदा मुश्किल हालात को नीतिगत उपायों से दुरुस्त करे। अन्यथा हम फिसलते ही जाएंगे।


Date:13-07-21

सतह पर आया जनसंख्या का मसला

डॉ. जयंतीलाल भंडारी, ( लेखक अर्थशास्त्री हैं )

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने हाल में उत्तर प्रदेश जनसंख्या नीति 2021-2030 जारी की। इस नई जनसंख्या नीति का उद्देश्य जनसंख्या स्थिरीकरण का लक्ष्य प्राप्त करना, मातृ मृत्यु और बीमारियों के फैलाव पर नियंत्रण, नवजात और पांच वर्ष से कम आयु वाले बच्चों की मृत्यु रोकना और उनकी पोषण स्थिति में सुधार करना है। उत्तर प्रदेश की तरह देश के अन्य राज्यों में ही नहीं, वरन राष्ट्रीय स्तर पर जनसंख्या नियंत्रण कानून के लिए आगे बढ़ने की भी जरूरत है। ज्ञात हो कि इन दिनों देश की जनसंख्या से संबंधित विभिन्न रिपोर्टों में कहा जा रहा है कि भारत में तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण आर्थिक-सामाजिक चुनौतियां लगातार विकराल रूप लेती जा रही हैं। ऐसी स्थिति में भारत में जहां एक ओर जनसंख्या विस्फोट को रोकना जरूरी है, वहीं दूसरी ओर जनसंख्या में कमी से भी बचना होगा। इसी परिप्रेक्ष्य में जहां देश में कुछ राज्य दो बच्चों की जनसंख्या नीति के लिए आगे बढ़ रहे हैं, वहीं राष्ट्रीय स्तर पर सुप्रीम कोर्ट से भी जनसंख्या नियंत्रण कानून की मांग की जा रही है। सप्रीम कोर्ट में जनसंख्या नियंत्रण कानून की मांग करने वाले याचिकाकर्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय ने कहा है कि देश में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधन, कृषि भूमि, पेयजल और अन्य मूलभूत जरूरतों की उपलब्धता की तुलना में जनसंख्या लगातार चिंताजनक स्थिति निर्मित करते हुए दिखाई दे रही है। याचिका में यह भी मांग की गई है कि चूंकि जनसंख्या नियंत्रण समवर्ती सूची में हैं, इसलिए कोर्ट केंद्र सरकार को निर्देश दे कि वह नागरिकों के गुणवत्तापरक जीवन के लिए कड़े और प्रभावी नियम, कानून और दिशानिर्देश तैयार करे।

चूंकि संसाधनों को विकसित करने की रफ्तार जनसंख्या वृद्धि की दर से कम है इसलिए तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या देश की र्आिथक-सामाजिक समस्याओं की जननी बनकर विकास के लिए खतरे की घंटी दिखाई दे रही है। बढ़ती जनसंख्या के कारण देश गरीबी, स्वास्थ्य, शिक्षा, कौशल और सार्वजनिक सेवाओं की कारगर प्राप्ति जैसे मापदंडों पर बहुत पीछे नजर आ रहा है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम द्वारा राष्ट्रीय स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन स्तर के मुद्दों पर प्रकाशित मानव विकास सूचकांक 2020 में 189 देशों की सूची में भारत 131वें पायदान पर है। वैश्विक भूख सूचकांक 2020 में 107 देशों की सूची में भारत 94वें स्थान पर है। विश्व बैंक द्वारा तैयार 174 देशों के वार्षिक मानव पूंजी सूचकांक 2020 में भारत का 116वां स्थान है। यह सूचकांक मानव पूंजी के प्रमुख घटकों स्वास्थ्य, जीवन प्रत्याशा, स्कूल में नामांकन और कुपोषण पर आधारित है।

यद्यपि इस समय करीब 141 करोड़ आबादी वाला चीन दुनिया में सबसे ज्यादा आबादी वाले देश का दर्जा रखता है, लेकिन संयुक्त राष्ट्र द्वारा जून 2019 में जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत के 2027 तक सबसे ज्यादा आबादी वाले देश के तौर पर चीन से आगे निकल जाने का अनुमान है। ज्ञातव्य है कि भारत दुनिया का पहला देश है, जिसने अपनी जनसंख्या नीति बनाई थी, लेकिन जनसंख्या वृद्धि दर आशा के अनुरूप नियंत्रित नहीं हो पाई। एक आकलन के मुताबिक 2020 में भारत की जनसंख्या करीब 138 करोड़ पर पहुंच गई थी। दुनिया की कुल जनसंख्या में भारत की हिस्सेदारी लगभग 17.5 फीसद है, जबकि पृथ्वी के धरातल का मात्र 2.4 प्रतिशत हिस्सा ही भारत के पास है।

एक ऐसे समय में जब चीन जनसंख्या और विकास के मॉडल में अपनी भूल संशोधित कर रहा है, तब जनसंख्या और अर्थ विशेषज्ञ चीन के जनसंख्या परिवेश से भारत को कुछ सीख लेने की सलाह देते हुए दिखाई दे रहे हैं। उनका मत है कि भारत में जहां एक ओर जनसंख्या विस्फोट को रोकना जरूरी है, वहीं जनसंख्या में ऐसी कमी से भी बचना होगा कि भविष्य में विकास की प्रक्रिया और संसाधनों का दोहन मुश्किल न होने पाए। मौजूदा परिवेश में यह जरूरी है कि ‘हम दो हमारे दो’ की नीति को दृढ़तापूर्वक अपनाया जाए। इससे जहां भविष्य में श्रमबल चिंताओं से दूर रहकर विकास की डगर पर लगातार आगे बढ़ा जा सकेगा, वहीं तेजी से बढ़ती जनसंख्या से निर्मित हो रही गरीबी, बेरोजगारी, कुपोषण, शहरीकरण, मलिन बस्ती फैलाव जैसी कई चुनौतियों को नियंत्रित भी किया जा सकेगा।

इसमें कोई दो मत नहीं कि यदि देश में जनसंख्या नियंत्रित रही तो भारत के युवाओं को उपयुक्त शिक्षण और प्रशिक्षण से मानव संसाधन के रूप में उपयोगी बनाया जा सकता है। भारत की जनसंख्या में करीब 50 प्रतिशत से ज्यादा उन लोगों का है, जिनकी उम्र 25 साल से कम है। ऐसे में वे कुशल मानव संसाधन बनकर देश के लिए आर्थिक शक्ति बन सकते हैं। कोविड-19 के बीच देश के साथ-साथ दुनिया के कई देशों की अर्थव्यवस्थाओं को संभालने में भारत की कौशल प्रशिक्षित नई पीढ़ी प्रभावी भूमिका निभा रही है। वर्क फ्रॉम होम की प्रवृत्ति को व्यापक तौर पर स्वीकार्यता से आउटसोर्सिंग को बढ़ावा मिला है। कोरोना की चुनौतियों के बीच भारत के आइटी सेक्टर द्वारा समय पर दी गई गुणवत्तापूर्ण सेवाओं से वैश्विक उद्योग-कारोबार इकाइयों का भारत की आइटी कंपनियों पर भरोसा बढ़ा है।

हम उम्मीद करें कि उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा प्रस्तावित जनसंख्या नीति और असम द्वारा तैयार की जा रही दो बच्चों की जनसंख्या नीति की तरह देश के अन्य प्रदेश भी आर्थिक और बुनियादी संसाधनों की चुनौतियों के बीच उपयुक्त जनसंख्या वृद्धि दर के लिए दो बच्चों की नीति तैयार करने के लिए दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ेंगे। उम्मीद यह भी है कि सुप्रीम कोर्ट केंद्र सरकार को राष्ट्रीय स्तर पर जनसंख्या नियंत्रण के लिए उपयुक्त दिशा निर्देश देने के लिए आगे बढ़ेगा। इससे ही समाज और देश विकास की डगर पर अपेक्षित तेजी के साथ आगे बढ़ता हुआ दिखाई दे सकेगा।


Date:13-07-21

कूटनीति की परीक्षा

संपादकीय

अफगानिस्तान के बदतर होते हालात भारत के लिए गंभीर चिंता का विषय बन गए हैं। भारत ने कंधार स्थित अपने वाणिज्य दूतावास से सभी भारतीय राजनयिकों और कर्मचारियों को वापस बुला लिया है। मजबूरी में उठाया गया यह कदम इस बात का प्रमाण है कि अफगानिस्तान में भारत असुरक्षित महसूस कर रहा है। हालांकि पिछले हफ्ते ही भारत ने कहा था कि कंधार और मजार-ए-शरीफ में मिशन बंद नहीं किए जाएंगे। कहने को कंधार में वाणिज्य दूतावास का दफ्तर औपचारिक तौर पर खुला है और स्थानीय अफगानी कर्मचारी काम कर रहे हैं। लेकिन कंधार अब तालिबान के कब्जे में है। ऐसे में दूतावास के कर्मचारी तालिबान की मानेंगे या भारत की, यह सोचने की बात है। पिछले हफ्ते तुर्की ने भी बाल्ख प्रांत में अपना वाणिज्य दूतावास बंद कर दिया था। चीन ने भी अफगनिस्तान में काम करने वाले अपने नागरिकों को निकालना शुरू कर दिया है। दूसरे देश भी इसी तरह का कदम उठाने जा रहे हैं। ये स्थितियां अफगानिस्तान की आने वाले दिनों की तस्वीर बताने के लिए काफी हैं।

अफगानिस्तान में भयानक हिंसा और राजनीतिक अस्थिरता का दौर लौट आया है। सत्ता पर कब्जे के लिए पिछले कई दिनों से तालिबान लड़ाकों और अफगान सेना के बीच लड़ाई चल रही है। तालिबान ने देश के पचासी फीसद हिस्से पर कब्जे का दावा किया है। तालिबान लड़ाके जिस ताकत से हमले कर रहे हैं उससे अफगान सैनिकों के हौसले पस्त पड़ गए हैं। बड़ी संख्या में अफगान सैनिक या तो ताजिकिस्तान भाग गए हैं या फिर तालिबान की फौज में शामिल हो रहे हैं। इससे लग रहा है कि अब वह दिन दूर नहीं जब देश की सत्ता फिर से तालिबान के हाथ में होगी। तालिबान की ताकत इसलिए बढ़ गई है कि परोक्ष रूप से चीन और पाकिस्तान उसके साथ हैं। तालिबान की मदद के लिए पाकिस्तानी सेना लड़ाके भी तैयार कर रही है। तालिबान ने तो चीन को अपना दोस्त भी बता दिया है। अपने नियंत्रण वाले इलाकों में तालिबान ने फिर से शरीयत कानून थोप दिए हैं। तालिबान के खौफ से बड़ी संख्या में लोग पड़ोसी देशों में भाग रहे हैं। पाकिस्तान ने पांच लाख शरणार्थियों के आने की संभावना जताई है। दो लाख अफगानी पहले ही देश छोड़ चुके थे।

यह संकट भारत के लिए भी कम गंभीर नहीं है। अगर तालिबान सत्ता हथियाने में कामयाब हो गया तो भारत के लिए मुश्किलें और बढ़ जाएंगी। भारत के समक्ष धर्मसंकट यह खड़ा हो रहा है कि अफगानिस्तान की निर्वाचित सरकार का समर्थन करे या तालिबान के साथ हाथ मिलाने की कूटनीति पर कदम बढ़ाए। इस हकीकत से इनकार नहीं किया जा सकता है कि बिना तालिबान का समर्थन किए अफगानिस्तान में किसी का भी टिक पाना संभव नहीं है। दो दशक पहले भी जब तालिबान सत्ता में था तो भारत ने उसे मान्यता नहीं दी थी और कोई संबंध नहीं रखा था। इसकी कीमत कंधार विमान अपहरण कांड में तीन आतंकियों की रिहाई के रूप चुकानी पड़ी थी। पिछले दो दशकों में भारत ने अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में बड़ा योगदान दिया है। सड़क परियोजनाओं से लेकर नया संसद भवन बनाने, शिक्षा के क्षेत्र में मदद देने जैसे बड़े कदम उठाए हैं। पर तालिबान के रहते यह सब आसान नहीं होगा। दूसरा खतरा यह भी है पाकिस्तान भारत के खिलाफ तालिबान का इस्तेमाल करने से बाज नहीं आएगा। सच्चाई तो यह है कि बदलते हालात में तालिबान और भारत एक दूसरे की मजबूरी भी हैं। यह वक्त भारत की कूटनीति की परीक्षा का है। अब देखना यह होगा कि भारत तालिबान को कैसे और कहां तक साध पाता है।


Date:13-07-21

विरोध औचित्यहीन

अवधेश कुमार

उत्तर प्रदेश की नई जनसंख्या नीति पर कई हलकों से आ रही नकारात्मक प्रतिक्रियाएं दुखद अवश्य हैं पर अनपेक्षित नहीं। भारत में जनसंख्या नियंत्रण और इससे संबंधित नीति पर जब भी बहस होती है तो तस्वीर ऐसी ही उभरती है। हालांकि सलमान खुर्शीद जैसे वरिष्ठ नेता बयान दुर्भाग्यपूर्ण कहा जाएगा। वे कह रहे हैं कि पहले नेता‚ मंत्री और विधायक बताएं कि उनके कितने बच्चे हैं‚ और उनमें कितने अवैध हैं। सपा सांसद सफीकुर्रहमान बर्क यदि कह रहे हैं कि कोई कानून बना लीजिए बच्चे पैदा होने हैं‚ वे होंगे‚ अल्लाह ने जितनी रूहें पैदा की हैं‚ सब धरती पर आएंगी तो किसी को हैरत नहीं होगी।

लंबे समय से देश में सोचने–समझने वालों का बड़ा तबका आबादी को नियंत्रण में रखने के लिए किसी न किसी तरह की नीति लागू करने की आवाज उठाता रहा है। पिछले वर्ष प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने १५ अगस्त को लाल किले से अपने भाषण के लिए आम लोगों से सुझाव मांगे तो सबसे ज्यादा संख्या में जनसंख्या नियंत्रण कानून का सुझाव आया था। अर्थशा्त्रिरयों समाजशा्त्रिरयों ने लगातार बढ़ती आबादी पर चिंता प्रकट की है। प्रश्न है कि जनसंख्या नियंत्रण नीति में ऐसा क्या है जिसके विरुद्ध तीखी प्रतिक्रिया होनी चाहिएॽ क्या वाकई यह एक मजहब यानी मुसलमानों के खिलाफ है‚ जैसा आरोप लगाया जा रहा हैॽ

उत्तर प्रदेश विधि आयोग ने जब जनसंख्या नियंत्रण नीति का दस्तावेज जारी किया तो सूक्ष्मदर्शी यंत्रों से दोष निकालने वालों ने एक–एक शब्द छान मारा। उसमें किसी तरह के मजहब का कोई जिक्र नहीं था। इसमें दो से ज्यादा बच्चा पैदा करने पर सरकारी नौकरियों में आवेदन करने का निषेध या सरकारी सुविधाओं से वंचित करने या फिर राशन कार्ड में चार से अधिक नाम नहीं होने का बिंदु सभी मजहबों पर समान रूप से लागू होगा। कहीं नहीं लिखा कि केवल मुसलमानों पर लागू होगा। आबादी मान्य सीमा से न बढ़े‚ उम्र‚ लिंग और मजहब के स्तर पर संतुलन कायम रहे‚ यह जिम्मेवारी भारत के हर नागरिक की है। विरोध का तार्किक आधार हो तो विचार किया जा सकता है। लेकिन इसे मुसलमानों को लक्षित नीति कहना निराधार है। नीति में 2026 तक जन्म दर को प्रति हजार आबादी पर 2.1 तथा 2030 तक 1.9 लाने का लक्ष्य रखा गया है। क्या यह एक मजहब से पूरा हो जाएगाॽ जनसंख्या नियंत्रण के लिए हतोत्साहन और प्रोत्साहन‚ दोनों प्रकार की नीतियों या कानून की मांग की जाती रही है। इसमें दो से अधिक बच्चों को कई सुविधाओं और लाभों से वंचित किया गया है‚ तो उसकी सीमा में रहने वाले‚ दो से कम बच्चा पैदा करने वाले या दो बच्चा के साथ नसबंदी कराने वालों के लिए कई प्रकार के लाभ और सुविधाओं की बातें हैं। अपनी आबादी के जीवन गुणवत्ता तथा क्षमता विकास किसी सरकार का उद्देश्य होना चाहिए। इसमें बच्चों और किशोरों के सुंदर स्वास्थ्य‚ शिक्षा के लिए भी कदम हैं।

मसलन‚ 11 से 19 वर्ष के किशोरों के पोषण‚ शिक्षा और स्वास्थ्य के बेहतर प्रबंधन के अलावा‚ बुजुर्गों की देखभाल के लिए व्यापक व्यवस्था भी की जाएगी। नई नीति में आबादी स्थिरीकरण के लिए स्कूलों में हेल्थ क्लब बनाने का प्रस्ताव भी है। डिजिटल हेल्थ मिशन की भावनाओं के अनुरूप प्रदेश में नवजातों‚ किशोरों और बुजुर्गों की डिजिटल ट्रैकिंग कराने की भी योजना है। जनसंख्या नियंत्रण कानून का ही नहीं‚ सामाजिक जागरूकता का भी विषय है‚ और इस पहलू पर फोकस किया गया है। उत्तर प्रदेश की जनसंख्या वृद्धि दर राष्ट्रीय औसत से लगातार ज्यादा रही है। 2001–2011 के दौरान प्रदेश की जनसंख्या वृद्धि दर 20.23% रही जो राष्ट्रीय औसत वृद्धि दर 17.7% से अधिक है। इसे अगर राष्ट्रीय औसत के आसपास लाना है‚ तो किसी न किसी प्रकार के कानून की आवश्यकता है। यह कानून इसी आवश्यकता की पूर्ति करता है। हालांकि वर्तमान अंतरराष्ट्रीय प्रवृत्ति जनसंख्या बढ़ाने की है। एक बच्चा कानून कठोरता से लागू करने वाले चीन को तीन बच्चे पैदा करने की छूट देनी पड़ी है क्योंकि इस कारण वहां आबादी में युवाओं की संख्या घटी है जबकि बुजुर्गों की बढ़ रही है। अनेक विकसित देश इसी असंतुलन के भयानक शिकार हो गए हैं। युवाओं की संख्या घटने का अर्थ काम करने वाले हाथों का कम होना है‚ जिसका देश की आर्थिक –सामाजिक प्रगति पर विपरीत असर पड़ता है। दूसरी ओर बुजुर्गों की बढ़ती आबादी का मतलब देश पर बोझ बढ़ना है। इसलिए अनेक देश ज्यादा बच्चा पैदा करने के लिए प्रोत्साहनों की घोषणा कर रहे हैं।

भारत में भी इस पहलू का विचार अवश्य किया जाना चाहिए। हम अगर भविष्य की आर्थिक महाशक्ति माने जा रहे हैं‚ तो इसका बड़ा कारण हमारे यहां युवाओं की अत्यधिक संख्या यानी काम के हाथ ज्यादा होना भी है। जनसंख्या नियंत्रण की सख्ती से इस पर असर पड़ेगा और भारत की विकास छलांग पर ग्रहण लग सकता है। किंतु यह भी सही है कि तत्काल कुछ समय के लिए जनसंख्या वृद्धि कम करने का लक्ष्य पाया जाए और उसके बाद भविष्य में ढील दी जाए। चीन ने कहा भी है कि एक बच्चे की नीति से उसने 46 करोड़ बच्चे का जन्म रोकने में सफलता पाई। सच है कि भारत में हिंदू‚ जैन‚ सिख और बौद्ध की आबादी वृद्धि दर लगातार नीचे आई है‚ तो मुसलमानों और कहीं–कहीं ईसाइयों की वृद्धि दर बढ़ती है। यह सलाह भी दी जाती रही है कि चूंकि भारत में जनसंख्या नियंत्रण की कठोर नीति लागू करना संभव नहीं‚ इसलिए हिंदुओं‚ सिखों‚ बौद्धों और जैनियों ज्यादा बच्चा पैदा करने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। इन्हें तीन बच्चे पैदा करने की प्रेरणा देने के लिए अभियान चलाने की भी सलाह दी जाती रही है।

हम चाहे जो भी तर्क दें लेकिन गैर–मुस्लिमों में उनकी आबादी वृद्धि को लेकर व्यापक चिंता है। जिस देश का मुस्लिम मजहब के आधार पर विभाजन हो चुका है‚ वहां इस तरह का भय आधारहीन नहीं माना जा सकता। कुछ कट्टर मजहबी और राजनीतिक नेता आबादी वृद्धि को संसदीय लोकतंत्र में अपनी ताकत का आधार बनाकर उकसाते हैं। सच कहें तो उत्तर प्रदेश सरकार ने साहसी फैसला किया है। हालांकि आबादी में उम्र संतुलन के प्रति लगातार सतर्क रहना होगा ताकि युवाओं की आबादी और उद्यमी हाथों में विश्व में नंबर एक का स्थान हमसे न छिन जाए।