13-02-2020 (Important News Clippings)
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भारत में ई-कॉमर्स की परिस्थितियां
ई-कॉमर्स की कार्य पद्घति और पारंपरिक कारोबार पर उसके प्रभाव को स्पष्ट करते हुए देश में ई-कॉमर्स की गतिविधियों को लेकर विस्तार से जानकारी प्रदान कर रहे हैं
अजित बालकृष्णन
यदि आप निरंतर आ रही इन खबरों को लेकर भ्रमित हैं कि एक ओर ऑनलाइन शॉपिंग वेबसाइटों को भारी नुकसान हो रहा है तो वहीं दूसरी ओर निजी इक्विटी निवेशक बहुत बड़े पैमाने पर उनका बाजार पूंजीकरण भी कर रहे हैं, तो आप निश्चिंत हो जाइए क्योंकि इससे केवल आप ही भ्रमित नहीं हैं। इंटरनेट आधारित कारोबार जिस तरह चलते हैं, खासतौर पर उपभोक्ता ई-कॉमर्स से जुड़े कारोबार, उन्हें चलाने का तरीका पारंपरिक कारोबारों के संचालन के तरीके से अलग होता है। इन नई प्रक्रियाओं के सामने आने के बीच देश में उपभोक्ता ई-कॉमर्स के इर्दगिर्द छिड़े विवादों को लेकर तार्किक नीतिगत रुख अपनाने में अभी काफी वक्त लगेगा।
इंटरनेट आधारित किसी भी कारोबारी मॉडल के मूल में सबसे अहम बात होती है उत्पादक या आयातक तथा उपभोक्ता या ग्राहक के बीच थोक विक्रेताओं और डीलरों की कई परतों को खत्म करना। यदि मोबाइल फोन हेडफोन की बात करें तो चीन के शेनझेन प्रांत में मौजूदा निर्माता उसे शेनझेन की किसी कंपनी को बेचता है, जिसके भारत के साथ कारोबारी संपर्क होते हैं, वह उन हेडफोन को दिल्ली में किसी कारोबारी को बेचती है जो उनका आयातक कहलाता है। इसके बाद आयातक उन हेडफोन को मुंबई (महाराष्ट्र का थोक विक्रेता) में बेच देता है। यह थोक विक्रेता अब हेडफोन को पुणे में किसी वितरक को बेचता है। उक्त वितरक हेडफोन को पुणे के विमान नगर इलाके में किसी खुदरा दुकानदार को बेचता है। इसके बाद वह ग्राहक तक पहुंचता है।
इस पूरी कड़ी को जोड़ें तो विनिर्माता से लेकर पुणे में अंतिम उपभोक्ता के बीच पांच और कडिय़ां होती हैं। जब चीनी निर्माता और पुणे का उपभोक्ता इंटरनेट को अपना लेते हैं और इसके इस्तेमाल में दक्ष हो जाते हैं तो पुणे का उपभोक्ता उस हेडफोन को सीधे शेनझेन के विनिर्माता की वेबसाइट से ऑर्डर कर सकता है। इस प्रकार दोनों के बीच की पांच कडिय़ां गैर जरूरी हो जाती हैं। उनके लिए कोई काम ही नहीं बचा। उन्हें अपना कारोबार बंद करके सारे कर्मचारियों को निष्कासित करना होगा। जाहिर सी बात है बीच के पांच कारोबारियों के बाहर हो जाने से चीन के निर्माता द्वारा बने हेडफोन पुणे के उपभोक्ता के लिए नाटकीय रूप से सस्ते हो जाते हैं और निर्माता का मुनाफा भी काफी बढ़ जाता है। तार्किक सोच रखने वाले इसे स्वीकार करेंगे कि किफायत का अर्थ भी यही है और यह कुल मिलाकर अर्थव्यवस्था के लिए भी बेहतर है।
परंतु इसका छोर कहां है? एक बात तो यह कि इस शृंखला को समाप्त करने के लिए बड़ी तादाद में ई-कॉमर्स कंपनियां सामने आ गई हैं। ये निर्माताओं और अंतिम उपभोक्ता दोनों को सब्सिडी की सुविधा देकर इसे बढ़ावा देते हैं। उन्हें आशा है कि इससे उपभोक्ता खुदरा दुकान से खरीदारी करना बंद कर देंगे और उनकी साइट को प्राथमिकता देंगे। इस सब्सिडी से नुकसान होता है लेकिन निजी पूंजी और वेंचर कैपिटल तब तक उनको नकदी मुहैया कराएंगे जब तक कि उपरोक्त शृंखला के पांचों बिचौलिया तत्त्व पूरी तरह खत्म नहीं हो जाते।
भारत जैसे देशों की बात करें तो यहां यह चार स्तरीय शृंखला यानी भारतीय आयातक-राज्य स्तरीय वितरक, शहर स्तर का वितरक और दुकान, ही वह क्षेत्र है जहां आर्थिक शक्ति निहित है। इन वितरण कारोबार पर काबिज लोग ही चैंबर्स ऑफ कॉमर्स, रोटरी क्लब और लॉयंस क्लब आदि का नेतृत्व करते हैं और स्थानीय सहकारी बैंकों तथा शैक्षणिक संस्थानों के बोर्ड में होते हैं। दूसरे शब्दों मे कहें तो यही लोग देश के कारोबारी जगत के भद्र जन हैं। दूसरे दृष्टिकोण से देखें तो यह चार स्तरीय शृंखला ही जीडीपी के 30 से 40 फीसदी और देश के रोजगार में 55 फीसदी के लिए उत्तरदायी है। इस शृंखला को पूरी तरह समाप्त करने से देश में आधे रोजगार समाप्त हो जाएंगे।
उपभोक्ता व्यवहार के वे कौन से रुझान हैं जो दुनिया भर में उपभोक्ता उत्पाद ई-कॉमर्स कंपनियों के व्यवहार को आकार दे रहे हैं? शुरुआती सवाल यह है कि सन 1990 के दशक में अपनी शुरुआत के बाद से ऑनलाइन शॉपिंग का आकार कितना बढ़ा है? इसके विश्वसनीय आंकड़े केवल अमेरिका के लिए उपलब्ध हैं: अमेरिकी सरकार के आंकड़ों के अनुसार सन 2019 की अंतिम तिमाही में वहां खुदरा ई-कॉमर्स बिक्री कुल खुदरा बिक्री के 10.5 फीसदी के बराबर थी। परंतु यह समग्र आंकड़ा कई गतिविधियों को छिपा लेता है। उदाहरण के लिए कई पारंपरिक ऑफलाइन डिपार्टमेंट स्टोर मसलन वॉलमार्ट आदि ऑनलाइन बिक्री बढ़ा रहे हैं। वहीं पारंपरिक रूप से ऑनलाइन रहे एमेजॉन जैसे बाजारों ने उत्पादों पर अपना लेबल लगाना शुरू कर दिया है। ऑनलाइन ई-कॉमर्स कुछ श्रेणियों मसलन किताबों, फैशन, उपभोक्ता इलेक्ट्रॉनिक्स आदि में फलफूल रहा है लेकिन अन्य क्षेत्रों में उसे अभी प्रभाव बनाना है।
परंतु लगातार बढ़ते ऑनलाइन उपभोक्ता आपूर्ति के लिए वसूले जाने वाले शुल्क से नाराज हैं और वे एक या दो दिन के भीतर आपूर्ति चाहते हैं। इसे हासिल करने के ऑनलाइन कंपनियां गोदामों में निवेश कर रही हैं और उद्योग पर दबदबा बरकरार रखने के लिए उन्हें आपूर्ति शुल्क और उत्पाद मूल्य पर सब्सिडी भी देनी पड़ रही है। सब्सिडी का ऐसा इस्तेमाल इसलिए हो रहा है क्योंकि अमेरिकी वित्तीय समुदाय में यह विश्वास है कि जो विजेता होगा, सबकुछ उसका ही होगा। यानी बाजार की शीर्ष कंपनी को सबसे अधिक मुनाफा होगा।
सन 2020 में भारत की दुविधा 19वीं सदी के आखिरी दौर में हमारे समक्ष मौजूदा दुविधा से अलग नहीं है। उस वक्त कपड़ा बनाने और बुनाई मशीनों के आगमन के बाद देश के हथकरघा बुनकरों की आजीविका खतरे में पड़ गई थी। ऐसी मशीनों के इस्तेमाल ने लोगों को बड़े पैमाने पर बेरोजगार किया था लेकिन इससे सूती कपड़ा सस्ता और जनसुलभ भी हुआ था। वह केवल जमींदारों और अमीरों के लिए सस्ता नहीं हुआ था। उपभोक्ता ई-कॉमर्स से जुड़े विवादों से अपनी आंखें मूंद लेने का परिणाम यह हो सकता है कि यदि ई-कॉमर्स की प्रगति प्रभावित हुई तो देश की अर्थव्यवस्था कम प्रतिस्पर्धी रह जाएगी। चुनिंदा कंपनियों खासकर विदेशी कंपनियों का दबदबा होने का अर्थ राष्ट्रीय स्तर पर आत्मघाती होगा। देश के प्रतिस्पर्धा कानून में सुधार के लिए काफी प्रयास करने होंगे। इसके अलावा यदि हमें ई-कॉमर्स की पूरी क्षमताओं का लाभ लेना है तो प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से संबंधित कानून और वेंचर फंडिंग से जुड़े कराधान कानून में भी सुधार करना होगा।
सुप्रीम कोर्ट की सकारात्मक सलाह पर गौर करे सरकार
संपादकीय
कार्यपालिका सुप्रीम कोर्ट की नकारात्मक टिप्पणी को भले ही नजरअंदाज कर दे, लेकिन कम से कम सकारात्मक सलाह पर तो गौर करना ही चाहिए। यह सही है कि हाईकोर्ट में नियुक्ति को लेकर कॉलेजियम की तीन बार भेजी गई अनुशंसा के बावजूद सरकार करीब छह दर्जन से ज्यादा नियुक्ति-पत्र जारी नहीं कर रही है। अभी तक की परंपरा, नियम और सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी है कि कॉलेजियम की दोबारा भेजी गई अनुशंसा मानने के लिए सरकार बाध्य होगी। अदालत ने पिछले दो महीनों में कई बार सुनवाई के दौरान सरकार को चेतावनी भी दी कि आईबी की सकारात्मक रिपोर्ट और कॉलेजियम के बार-बार अपनी बात दोहराने के बाद भी सरकार नियुक्ति-पत्र नहीं दे रही है। इसके अलावा पिछले दिसंबर में भारत के मुख्य न्यायाधीश ने जोधपुर में हाईकोर्ट भवन के शिलान्यास के अवसर पर राष्ट्रपति, केंद्रीय कानून मंत्री और तमाम न्यायमूर्तियों की मौजूदगी में न्याय में देरी की समस्या के सार्थक समाधान के लिए एक नई सलाह दी थी। उन्होंने कहा था कि ‘हर वाद को अदालत जाने से पहले मध्यस्थता की प्रक्रिया से गुजरा जाए और इसके लिए प्रत्येक जिले की सभी अदालतों में संस्थाएं और साधन विकसित किए जाएं, मध्यस्थता से उभरे निष्कर्ष को अदालती फैसले की ताकत प्रदान की जाए’। दो माह बाद भी सरकार ने उस पर ध्यान नहीं दिया। मुख्य न्यायाधीश ने दो दिन पहले भारतीय मध्यस्थता परिषद और फिक्की द्वारा आयोजित तीसरे अंतरराष्ट्रीय सम्मलेन के अवसर पर फिर कहा कि किसी भी विवाद को अदालत में ले जाने से पहले मध्यस्थता की प्रक्रिया से गुजरना न्याय प्रक्रिया में विलंब को खत्म करने में क्रांतिकारी साबित होगा। उन्होंने कहा कि वैकल्पिक वाद निपटारा तंत्र आज भी अनौपचारिक रूप से प्रचलित है, लेकिन इसे अगर कानूनी जामा पहना दिया जाए तो सस्ता और त्वरित न्याय देने में काफी बड़ी भूमिका निभाएगा। उन्होंने इस सन्दर्भ में ऋषि याज्ञवल्क्य की न्याय व्यवस्था और संबंधित सस्थाओं का भी जिक्र किया। ध्यान रहे कि जोधपुर के समारोह में कानून मंत्री ने कहा था कि ‘महिलाएं आज चीख-चीखकर न्याय मांग रही हैं और मैं सुप्रीम कोर्ट से आग्रह करूंगा कि ऐसे अवसर की गंभीरता को संज्ञान में ले’।
Date:13-02-20
हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत की बड़ी भूमिका चाहते हैं ट्रम्प
महाभियोग की कार्यवाही से दोषमुक्त होने के बाद पहली विदेश यात्रा पर आएंगे अमेरिकी राष्ट्रपति
ललित झा
कई हफ्तों तक चली अटकलों के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के 24 व 25 फरवरी को अहमदाबाद व नई दिल्ली के दौरे की औपचारिक घोषणा कर दी गई। ट्रम्प की यह पहली भारत यात्रा कई मायनों में महत्वपूर्ण है। यह उनके पूर्ववर्ती राष्ट्रपतियों द्वारा स्थापित संबंधों की निरंतरता को भी दर्शाती है। बराक ओबामा पहले ऐसे राष्ट्रपति थे, जो अपने पहले ही कार्यकाल में भारत आए थे। असल में उन्होंने 2010 व 2015 में दो बार भारत आकर नया कीर्तिमान बनाया था। बिल क्लिंटन और जॉर्ज बुश अपने दूसरे कार्यकाल के अंत में ही भारत आए थे। इन सभी ने भारत के साथ संबंधों को नए स्तर पर पहुंचाया था। ट्रम्प का इरादा इन संबंधों को उस नई ऊंचाई पर ले जाने का है, जहां पर अमेरिका के बहुत करीबी सहयोगी व मित्र हैं। एक रियल एस्टेट कारोबारी के तौर पर ट्रम्प पहले भी भारत आ चुके हैं।
ट्रम्प ने भारत व अमेरिका में रहने वाले भारतवंशियों के साथ अपने संबंधों का संकेत 2016 के चुनाव से पहले न्यू जर्सी में हजारों भारतीय अमेरिकियों को संबाेधित करते हुए दे दिया था। उन्होेंने कहा था कि अगर वे चुनाव जीतते हैं तो वह भारत व भारतीय अमेरिकियों के सबसे अच्छे दोस्त साबित होंगे। उन्होंने यह बात साबित भी की है। मई 2019 में जब भारत में चुनाव चल रहे थे तो ट्रम्प प्रशासन ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अजहर महमूद को वैश्विक आतंकी घोषित कराने के लिए दिन-रात काम किया था। पुलवामा हमले के बाद पहली बार अमेरिका ने सार्वजनिक तौर पर कहा था कि भारत को आत्मसुरक्षा का अधिकार है। अमेरिका के बाद ही दुनिया के अन्य प्रमुख देशों ने भी इसे दोहराया था।
महाभियोग की सुनवाई से दोषमुक्त होने के बाद ट्रम्प की किसी देश की यह पहली यात्रा है। अहमदाबाद में जब वह एक रैली में करीब एक लाख लोगों को संबोधित करेंगे, तो यह विदेशों में उनकी लोकप्रियता को भी प्रदर्शित करेगा और उनके विरोधियों को भी इससे करारा जवाब मिलेगा, जो दावा करते हैं कि ट्रम्प विदेशों में लोकप्रिय नहीं हैं। इस रैली में बड़ी संख्या में भारतीय अमेरिकी भी शामिल हो सकते हैं। ट्रम्प का मानना है कि भारत के साथ मजबूत संबंध अमेरिका के हित में हैं और दुनिया में शांति के लिए यह द्विपक्षीय रिश्ता जरूरी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बारे में वे कहते हैं कि भारत के पास आज ऐसा नेतृत्व है, जो दोनों लोकतांत्रिक देशों के संबंधों को वहां ले जाने में सक्षम है, जिसके बारे में पूर्व में सपना ही देखा गया है। दोनों देशों की अंदरूनी चुनौतियों को देखते हुए इसमें समय लगेगा, लेकिन इस यात्रा से वह अपने लगभग तय माने जा रहे अगले कार्यकाल के दौरान इन संबंधों को उस स्तर पर ले जाना चाहेंगे, जहां से इनकी वापसी न हो सके।
ट्रंप चाहते हैं कि इन संबंधों का आधार रक्षा, आतंकवाद का विरोध और कूटनीति के साथ ही दोनों देशों बीच व्यापार और एक-दूसरे देश के लोगों से संपर्क को बढ़ाना भी होना चाहिए। आने वाले वर्षों में ऊर्जा के क्षेत्र में व्यापार महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। पिछले कुछ वर्षों में अमेरिका से भारत का ऊर्जा आयात 2019 तक शून्य से करीब 420 अरब रुपए (छह अरब डॉलर) पहुंच गया है और इसके इस साल दोहरी संख्या में पहुंचने की उम्मीद है। ट्रम्प के साथ इस यात्रा में उनके साथ कई प्रमुख अमेरिकी सीईओ भी दिखें तो चौंकने की जरूरत नहीं है।
ओबामा द्वारा शुरू की गई परंपरा का पालन करते हुए ट्रम्प ने भी पाकिस्तान में न रुकने का फैसला किया है। देखा जाए तो पाकिस्तान के मामले में वह अपने पूर्ववर्ती से एक कदम आगे ही गए हैं। उन्होंने आतंक के खिलाफ लड़ाई में प्रभावी भूमिका न निभाने की वजह से पिछले दो सालों से पाकिस्तान को सभी तरह की सुरक्षा व वित्तीय मदद देनी बंद की हुई है। हालांकि, अभी ट्रम्प की यात्रा की बारीकियों पर काम हो रहा है, लेकिन यह तय है हिंद-प्रशांत क्षेत्र पर उनका फोकस रहेगा। किसी को यह नहीं भूलना चाहिए कि ट्रम्प प्रशासन ने ही पहले के प्रशांत कमान को हिंद-प्रशांत क्षेत्र के रूप में मान्यता दी। इस कदम से चीन खुश नहीं है। इसलिए ट्रम्प प्रशासन चाहता है कि भारत हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अहम भूमिका निभाए और सुनिश्चित करे कि इस क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय कानूनों का पालन हो और वैश्विक शांति को किसी तरह का बड़ा नुकसान पहुंचाने वाली कोई कार्रवाई न हो। इसके लिए अमेरिकी सरकार भारत को हर तरह के टूल व मदद देने को तैयार है।
दिल्ली चुनाव के बड़े सबक
आरती आर जेरथ
दिल्ली के मतदाताओं ने अरविंद केजरीवाल के गुड गवर्नेंस को बहुत बड़ा ‘थम्स-अप’ दिया है। जिस भारी बहुमत से उन्होंने सत्ता में वापसी की है, और उनका जो वोट शेयर है, उसका सीधा सा मतलब यही है कि दिल्ली की जनता को उनका पांच साल का शासन पसंद आया है। केजरीवाल के लिए यह चुनाव काफी महत्वपूर्ण था, बल्कि एक तरह से यह उनके राजनीतिक जीवन-मरण का चुनाव था। वह सियासत में बेहद नए हैं, ऐसे में यदि वह यह चुनाव हार जाते, तो एक तरह से उनके सियासी सफर पर विराम लग सकता था। लेकिन उन्होंने दिखा दिया है कि अब वह दिल्ली में एक बड़ी ताकत हैं और उन्होंने अपनी जड़ें जमा ली हैं।
दिल्ली एक वक्त कांग्रेस पार्टी का गढ़ हुआ करती थी। शीला दीक्षित ने लगातार 15 वर्षों तक इस पार्टी की तरफ से यहांं पर राज किया, लेकिन कांगे्रस अब यहां लगभग खत्म हो गई है और आम आदमी पार्टी ने उसकी जगह ले ली है। कांग्रेस के करीब-करीब सारे वोट आम आदमी पार्टी की तरफ चले गए हैं।
भाजपा ने इस चुनाव में अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी। गृह मंत्री अमित शाह तो तकरीबन हरेक विधानसभा क्षेत्र में लोगों के बीच गए, उन्होंने काफी पदयात्राएं कीं, वह गली-गली, घर-घर गए; भाजपा ने 250 से अधिक अपने सांसदों को दिल्ली की झुग्गियों-कॉलोनियों में उतार दिया था, यहां तक कि पुणे-कर्नाटक-बिहार से कार्यकर्ता बुलाए गए थे, कई-कई मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री दिन-रात लगे हुए थे, लेकिन जिस तरह से पार्टी ने अपना चुनावी अभियान चलाया, खासकर ‘गोली मारो…’ और ‘शाहीन बाग के लोग घर में घुसकर बलात्कार कर लेंगे’ जैसी बातों को दिल्ली के मतदाताओं ने खारिज कर दिया। इसमें कोई दोराय नहीं कि पूरी ताकत से चुनाव लड़ने का उसे वोट प्रतिशत में फायदा हुआ है, लेकिन वह इतना भी नहीं बढ़ सका कि उसे कोई निर्णायक बढ़त दिला सके।
साफ है, दिल्ली ने पूरे देश को यह बड़ा संदेश दिया है कि ऐसा चुनावी अभियान नहीं चलेगा। मेरे पास जो सूचना है, उसके आधार पर मैं कह सकती हूं कि दिल्ली के नौजवानों, खासकर छात्रों को भाजपा नेताओं की भाषा काफी नागवार गुजरी और अब यह साफ है कि उन्होंने इस तेवर को नकार दिया है। ऐसा नहीं कि दिल्ली के लोगों के मन में सीएए कोई मुद्दा नहीं था, मेरी राय में इसके लिए समर्थन है, लेकिन जिस तरह से भारतीय जनता पार्टी ने शाहीन बाग पर ही पूरे चुनाव को केंद्रित करने की कोशिश की, वह लोगों को अच्छा नहीं लगा।
दूसरी तरफ, केजरीवाल एक सकारात्मक चुनाव अभियान चला रहे थे। वह मतदाताओं के बीच अपने शासन का रिपोर्ट कार्ड लेकर गए थे। और यह पिछले 15-20 दिनों की बात नहीं है। उन्होंने काफी होशियारी के साथ अपना प्रचार अभियान डिजाइन किया था। लोकसभा चुनाव के फौरन बाद, जब वह तीसरे नंबर पर आ गए थे और उनकी पार्टी का वोट प्रतिशत लगभग 18 प्रतिशत तक गिर गया था, उन्होंने अपना ध्यान दिल्ली पर केंद्रित कर दिया और एक तरह से खुद को फिर से गढ़ा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना से वह दूर रहे, जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने का उन्होंने समर्थन किया, सीएए का विरोध तो किया, लेकिन प्रधानमंत्री पर जो तीखे सियासी हमले वह कर रहे थे, उसे बंद कर दिया, बल्कि दिल्ली के विकास के लिए उन्होंने केंद्र सरकार के साथ पूरा सहयोग करने की बातें कहीं, वह प्रधानमंत्री मोदी से मिलने भी गए। इस तरह, उन्होंने बड़ी समझदारी से विरोधियों द्वारा थोपी गई अराजक नेता की छवि को बीते छह महीने में किनारे लगा दिया।
अरविंद केजरीवाल ने अपना पूरा फोकस स्थानीय मुद्दों पर रखा। उनकी सरकार ने स्कूलों में जो काम किया, जिस पैमाने पर मोहल्ला क्लीनिक खुले, सीसीटीवी कैमरे लगाए गए, महिलाओं की सुरक्षा के लिए बसों में जो मार्शल नियुक्त हुए, बिजली-पानी के मामले में प्रदेश के लोगों को जो राहत दी गई, इन सबको मिलाकर उन्होंने अपने प्रचार अभियान की रूपरेखा तय की। और फिर उन्होंने प्रशांत किशोर की भी मदद ली। भारतीय जनता पार्टी ने जब शाहीन बाग वाला तीर छोड़ा और इस लड़ाई में केजरीवाल को खींचने की कोशिश की, ताकि हिंदू बनाम मुस्लिम धु्रवीकरण किया जा सके और केजरीवाल को राष्ट्र-विरोधी कहा जा सके, उसमें वह बिल्कुल नहीं फंसे। भाजपा की यह रणनीति विफल रही।
बेशक कुछ लोगों को इस बात से आपत्ति रही है कि केजरीवाल ने जेएनयू के मुद्दे पर कुछ नहीं बोला, जामिया के बच्चों या शाहीन बाग को सपोर्ट नहीं किया, लेकिन मेरी राय ने उन्होंने बहुत सोच-समझकर यह नहीं किया, क्योंकि उनको मालूम था कि इस बहस में उलझे, तो उनका गवर्नेंस का मुद्दा खत्म हो जाएगा।
दिल्ली चुनाव ने भारतीय जनता पार्टी को एक बड़ा सबक पढ़ाया है कि प्रदेश के चुनाव आप राष्ट्रीय मुद्दों पर नहीं लड़ सकते। इसके लिए आपको स्थानीय मुद्दों पर आना होगा। दिल्ली से पहले झारखंड और हरियाणा चुनावों ने भी इस पार्टी को यही संदेश दिया था। पार्टी के तौर पर भाजपा को यह मानना पडे़गा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भले उसे लोकसभा चुनाव में जीत दिला सकते हैं, मगर राज्यों में जो नेता हैं, उनकी अपनी अपेक्षाएं-महत्वाकांक्षाएं हैं, अगर हर राज्य में पार्टी नेतृत्व को महत्वहीन किया जाएगा, तो उसका हश्र भी कांग्रेस पार्टी जैसा ही होगा। उसके लिए राज्यों में नेतृत्व खड़ा करना बहुत जरूरी है।
अब बिहार में चुनाव है, उसके बाद पश्चिम बंगाल और असम के चुनाव हैं। अगर पार्टी का प्रदर्शन इन राज्यों में भी ठीक नहीं रहा, तो विपक्ष की स्थिति मजबूत होगी। यह ठीक है कि अभी केंद्र में विपक्ष के पास कोई नेता नहीं है, जो नरेंद्र मोदी को चुनौती पेश कर सके, लेकिन एक-एक करके भाजपा यदि प्रदेश हारती गई, तो प्रधानमंत्री मोदी अपनी योजनाएं और नीतियां देश में कैसे लागू करा पाएंगे? आखिर ये योजनाएं राज्य सरकार के जरिए ही जमीन पर उतरती हैं। इसलिए भाजपा को आत्ममंथन करना पडे़गा कि वह कैसे अब अपनी राजनीति को जनाकर्षक बना सकेगी।
आम आदमी पार्टी जिस दिल्ली मॉडल की बात करती है, उसमें विपक्ष के लिए बड़ा संदेश है कि भाजपा को यदि हराना है, तो राष्ट्रीय मसलों पर नहीं, स्थानीय मुद्दों पर फोकस कीजिए। ममता बनर्जी ने अरविंद केजरीवाल के इस सूत्र को पकड़ लिया है, अब वह प्रधानमंत्री पर तीखे हमले नहीं कर रही हैं, बल्कि महंगाई, अर्थव्यवस्था और अपनी गवर्नेंस पर लोगों के बीच जा रही हैं।
First call: on India-Sri Lanka ties
India and Sri Lanka share close ties, but distrust and differences remain
Editorial
By making New Delhi their first stop abroad, Sri Lanka’s new President Gotabaya Rajapaksa, who visited in November, and Prime Minister Mahinda Rajapaksa, after a five-day tour, have signalled hope of beginning a new India-Sri Lanka chapter. Contrary to their last stint which ended in 2015, when Mahinda Rajapaksa was President, and his younger brother Gotabaya was Defence Secretary, and ties underwent a strain for several reasons, New Delhi too has indicated that it would like to make a fresh start, working on development projects, including a joint India-Japan proposal for the East Container Terminal at Colombo. Mahinda Rajapaksa has also discussed extending the $400-million Line of Credit and India’s further assistance for nationwide housing. Air connectivity to Sri Lanka’s north and east is already being improved — there is a flight from India to Jaffna, and another one being proposed for Batticaloa. On security, Mr. Rajapaksa and Prime Minister Narendra Modi discussed intelligence sharing, training and the utilisation of a special $50-million Line of Credit extended by India after last year’s Easter Sunday bombings. India, Sri Lanka and the Maldives are expected to revive their trilateral on security, including joint maritime security talks and anti-terror cooperation. Finally, Mr. Rajapaksa reaffirmed his belief that among Sri Lanka’s friendships, India is seen as a “relative”, given their history and culture.
The bonhomie is palpable, but the faultlines were also visible. Prime Minister Modi said India hopes that the “expectations of the Tamil people for equality, justice, peace, and respect” would be realised and that devolution of powers according to the 13th amendment would be taken forward. Mr. Rajapaksa has given no commitment on this and said, in an interview to The Hindu, that he favoured the 13A but not solutions that were “unacceptable to the majority [Sinhala] community”. India’s case for the special status for the North and East also comes across as contrary to the Modi government’s strong stand about removal of the special status for Jammu and Kashmir. Mr. Rajapaksa has ruled out taking forward the MoU signed by his predecessor Ranil Wickremesinghe allowing Indian participation in energy and infrastructure projects in Trincomalee; an Indian stake in “Mattala airport” is not on the cards either. However, of note is his appeal for India to help Sri Lanka deal with its debt crisis — nearly $60-billion outstanding in foreign and domestic, and about $5-billion a year in repayments. New Delhi must consider his request for a three-year moratorium and be upfront about its response, in contrast to the past when New Delhi did not take up an offer to develop Hambantota port, and ceded space to China. Ignoring or rebuffing the new request could damage bilateral ties far more.