12-12-2025 (Important News Clippings)
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विदेशी कंपनियों का भारत में निवेश स्वागतयोग्य है
संपादकीय
गूगल के बाद अब माइक्रोसॉफ्ट और अमेजन सहित करीब दो दर्जन कंपनियों का भी भारत में भारी निवेश करने को तैयार होना शुभ संकेत है। विख्यात टेक कंपनियों के अलावा दुनिया की बड़ी निर्माता कंपनियां भी सेमी-कंडक्टर चिप, ऑटो उद्योग, ऊर्जा और वित्त सेवा के क्षेत्र में निवेश करने जा रही हैं। गूगल के आंध्र प्रदेश में निवेश की घोषणा दो हफ्ते पहले हुई और माइक्रोसॉफ्ट और अमेजन की निवेश घोषणा ताजा है। टेक और चिप कंपनियों की भारत में रुचि का बड़ा कारण है ट्रम्प की मागा योजना, जिसके तहत अन्य देशों के इंजीनियरों की जगह अमेरिकी टेक युवाओं को नौकरी देने का दबाव है। अमेरिकी इंजीनियरों को रखने में कंपनियों को ज्यादा पगार देनी पड़ती है और ट्रम्प की अस्थिर नीतियों को भी झेलना पड़ता है। ट्रम्प के भारत विरोधी रुख के कारण भारतीय टेक युवाओं का यूएस जाना भी मुश्किल हो गया है। भारत में इकाइयां लगाने से न केवल कम वेतन में अच्छे इंजीनियर मिलेंगे, बल्कि तैयार उपभोक्ता बाजार भी मिलेगा। अमेजन के विस्तार के पीछे भी यही बाजार है, जिसका भविष्य मध्यम वर्ग की क्रय शक्ति बढ़ने से बेहतर रहेगा। फिलहाल अमेजन ने करीब 28 लाख लोगों को परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से अपनी व्यावसायिक प्रक्रिया से जोड़ा है। ईवी कार निर्माता विन्फास्ट ने भी 4 अरब डॉलर निवेश से उपक्रम शुरू करने का मन बनाया है।
आत्मनिर्भर बनने का सही रास्ता
दिव्य कुमार सोती, ( लेखक काउंसिल ऑफ स्ट्रैटेजिक अफेयर्स से संबद्ध सामरिक विश्लेषक हैं )
बीते दिनों जब दक्षिण कोरिया के बुसान में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग से भेंट की थी तो उन्होंने इस भेंट को जी-2 का नाम दिया था। यानी उन्होंने एक तरह से मान लिया कि अमेरिका के बाद चीन दूसरी विश्व महाशक्ति बन चुका है, जिसे रोकना अब उसके वश की बात नहीं है और सोवियत संघ के विघटन के बाद एकध्रुवीय विश्व अब फिर से द्विध्रुवीय है। अपने पहले कार्यकाल में ट्रंप चीन को सबक सिखाने की बातें किया करते थे, पर अब उनके सुर पूरी तरह बदल चुके हैं।
वैसे ट्रंप इस वार्ता से पहले ही चीनी उत्पादों पर 100 प्रतिशत टैरिफ लगाने की योजना को एक साल के लिए स्थगित कर चुके थे। फिलहाल चीनी उत्पादों पर अमेरिका 47 प्रतिशत का ही टैरिफ लगा रहा है। भारत जिसके साथ सामरिक साझेदारी को अमेरिकी नेता पिछले दो दशक से 21वीं सदी की सबसे महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय साझेदारी बताते नहीं थकते, उसके उत्पादों पर 50 प्रतिशत का टैरिफ है, जबकि अमेरिका अपने सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी देश चीन पर उससे कम टैरिफ लगा रहा है।
ट्रंप से जब ताइवान पर चीनी हमले के खतरे के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि वह जब होगा, तब देखेंगे। ट्रंप ने यह नहीं कहा कि वे ट्रेड डील का भय दिखाकर ताइवान को चीनी हमले से बचा लेंगे। इससे उलट ट्रंप हर तीन-चार दिन में भारत को लज्जित करने के लिए आपरेशन सिंदूर रुकवाने का झूठा दावा यह कहकर करते हैं कि उन्होंने व्यापारिक समझौता न करने का भय दिखाकर संभावित परमाणु युद्ध रुकवा दिया। रूस से कच्चा तेल भारत और चीन, दोनों ही आयात कर रहे हैं, पर ट्रंप प्रशासन हाथ धोकर भारत के ही पीछे पड़ा है। इस सबसे समझा जा सकता है कि चीन के सामने नतमस्तक अमेरिकी शासन तंत्र ने अब यह ठाना है कि अगर चीन विश्व की दूसरी महाशक्ति बन ही गया है और उसे रोकना उसके वश की बात नहीं रही है तो कम से कम भारत और रूस का उभार तो रोका ही जाए।
चीन की इस मजबूत स्थिति के पीछे उसकी सामरिक रूप से महत्वपूर्ण तकनीक के अनुसंधान और उत्पादन में पहल करने की दशकों की नीति रही है। चीनी रणनीतिकारों ने ऐसे सेक्टरों और तकनीकी उत्पादों को चिह्नित किया, जिनके माध्यम से अमेरिका और विश्व को अपने ऊपर निर्भर बनाया जा सके। परिणामस्वरूप चीन आज ऐसे कई उत्पादों की आपूर्ति शृंखलाओं को नियंत्रित करता है और उनके माध्यम से उसने ट्रंप के टैरिफ युद्ध का मुंहतोड़ जवाब दिया है। ट्रंप ने चीन के उत्पादों पर 100 प्रतिशत टैरिफ लगाने की धमकी दी तो उसने अमेरिका को रेयर अर्थ मैगनेट्स की आपूर्ति रोक दी, जिससे अमेरिका का उद्योग जगत परेशान हो उठा और ट्रंप को टैरिफ लगाने की अपनी योजना को स्थगित करना पड़ा। दुर्लभ भूगर्भीय खनिज आज अंतरिक्ष यानों, रक्षा उपकरणों, इलेक्ट्रिक कारों से लेकर हेडफोन बनाने के लिए आवश्यक हैं और ये आवश्यक होंगी, यह चीन बहुत पहले पहचान चुका था।
चीन ने 1960 के दशक में ही इन दुर्लभ खनिजों के बारे में जानने-समझने के लिए अपने लोगों को अमेरिका भेजना प्रारंभ कर दिया था। 1970 के दशक में चीनी सरकार ने इन खनिजों का औद्योगिक उत्पादन प्रारंभ कराया और 1980 के दशक में दुर्लभ खनिजों से जुड़े उद्योगों को सामरिक रूप से महत्वपूर्ण सेक्टर का दर्जा दे दिया। जिसके चलते इस सेक्टर को चीन में सरकारी सब्सिडी और निवेश मिलने लगा। इसका प्रभाव यह हुआ कि 1990 के दशक में ही चीन ने दुर्लभ खनिज उत्पादन में अमेरिका को पीछे छोड़ दिया। आज चीन विश्व के 85 प्रतिशत दुर्लभ खनिज शोध उद्योग को नियंत्रित करता है।
ऐसे कई क्षेत्र हैं जिनमें अमेरिका और यूरोप आज चीन पर निर्भर हैं। चीन आज विश्व के 60 प्रतिशत सेमीकंडक्टर चिप्स, 75 प्रतिशत लिथियम बैटरियां, 80 प्रतिशत सोलर पैनल, 95 प्रतिशत पोलिसिलिकान वैफर बनाता है। भविष्य की क्वांटम कंप्यूटिंग के लिए आवश्यक 60 प्रतिशत घटक चीन ने अभी से बनाने शुरू कर दिए हैं। इसलिए ट्रंप चीन के सामने नतमस्तक हैं। अमेरिका चीन पर प्रतिबंध लगा सकता है तो चीन भी जवाब में अमेरिका को ऐसी वस्तुओं का निर्यात रोक सकता है, जिनके चलते अमेरिका की अर्थव्यवस्था डूब सकती है।
इसकी तुलना में भारत के पास ऐसा क्या है, जो अमेरिका से सौदेबाजी के लिए उपयोग किया जा सके? हमने ऐसे कौन से सामरिक उद्योग विकसित किए हैं, जो विश्व को हम पर निर्भर बनाते हों? अमेरिका द्वारा आयात की जाने वाली जेनरिक दवाओं में से 25-30 प्रतिशत अवश्य भारत में बनती हैं, परंतु उनके लिए 60-75 प्रतिशत कच्चा माल या एपीआइ भारत चीन से आयात करता है। आर्थिक सुधारों के 35 वर्षों बाद यह बेहद शर्मनाक स्थिति है।
चीन ने दुनिया को खुद पर निर्भर बनाने के लिए सामरिक सेक्टरों और तकनीकी में दशकों तक बिना लाभ की आकांक्षा किए निवेश किया है। भारत में न तो नेता ये करने को तैयार हैं और न ही उद्योगपति। उद्योगपति नई तकनीकों के विकास की जगह वस्तुओं और आमजन को सेवाएं देकर लाभ कमाने में व्यस्त हैं। जब चीन जैसे देश किसी तकनीकी में प्रभुत्व बना लेते हैं तो उसके 10-20 साल बाद याद आता है कि हमें भी यह करना चाहिए। तब तक वह तकनीक पुरानी हो चुकी होती है। हमारा सरकारी तंत्र आज तक यह नहीं समझ पाया कि बढ़त उसे हासिल होती है, जो सबसे पहले किसी क्षेत्र में कदम बढ़ाता है।
किसी क्षेत्र में पहल करने वाला देश ही सही अर्थों में आत्मनिर्भर होता है। अगर भारत को सही अर्थों में आत्मनिर्भर बनाना है और विश्व को अपने पर निर्भर बनाना है तो यह देखना होगा कि आज से दस-बीस साल बाद दुनिया की आवश्यकता क्या होगी और उन तकनीकों पर अभी से अनुसंधान और निवेश करना होगा, ताकि समय आने पर ऐसी सामरिक तकनीकी हम विश्व बाजार को दे सकें और उसे अपने पर निर्भर बना सकें। अगर हम किसी भी तकनीकी के क्षेत्र में बीस साल विलंब से शुरुआत करेंगे तो न तो कभी सही अर्थों में आत्मनिर्भर बन सकेंगे और न ही वैश्विक आर्थिक महाशक्ति।
Date: 12-12-25
इंडिगो संकट में नियामक की भूमिका पर सवाल
एके भट्टाचार्य

जरा एक शहर में हजारों अपार्टमेंट के साथ एक विशाल आवासीय परिसर की कल्पना करें ! इन अपार्टमेंट के बनने और लोगों के रहने के लिए पहुंचने के कई महीनों बाद उस क्षेत्र के नगर निगम अधिकारियों को अचानक इस बात का एहसास होता है कि निवासियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए इस आवासीय परिसर में सिक्योरिटी गार्ड पर्याप्त संख्या में नहीं हैं।
इसके बाद नगर निगम के अधिकारी इन अपार्टमेंट का निर्माण करने वाली रियल एस्टेट कंपनी से कहते हैं वह एक निश्चित समय सीमा के भीतर आवश्यक संख्या में सुरक्षा गाडों की व्यवस्था करे। रियल एस्टेट कंपनी यह शर्त पूरा करने के लिए समय सीमा बढ़ाने का अनुरोध करती है और नगर निगम के अधिकारी शुरू में इस पर सहमत भी हो जाते हैं। मगर बाद में वे विस्तारित समय सीमा समाप्त होने के बाद नगर निगम दिशानिर्देश प्रभावी कर देते हैं।
कोई विकल्प नहीं देख रियल एस्टेट कंपनी इस नतीजे पर पहुंचती है कि जब तक वह नगर निगम के अधिकारियों द्वारा तय शर्त को पूरा नहीं कर लेती तब तक कुछ परिवारों को आवासीय परिसर से बाहर निकलने के लिए कहेगी। इस तरह, एक यह खास उपाय अमल में लाया जाता है क्योंकि रियल एस्टेट कंपनी के लिए परिसर में रहने वाले परिवारों की संख्या के अनुपात में सुरक्षा गाडों का न्यूनतम अनुपात बनाए रखना जरूरी है। चूंकि सुरक्षा गार्ड रखने में कुछ समय लग सकता है, इसलिए यह उन अपार्टमेंट में रहने वाले कई परिवारों को बेदखल करने का फैसला करती है। इसके बाद चारों तरफ अफरा-तफरी मच जाती है।
अधिकांश भारतीयों के लिए यह कहानी कुछ जानी-पहचानी लग रही है। जी हां, हम भारत की सबसे बड़ी विमानन कंपनी इंडिगो द्वारा पिछले सप्ताह रद्द की गई हजारों उड़ानों के बारे में बात कर रहे हैं। एक विमानन कंपनी और एक रियल एस्टेट कंपनी के बीच तुलना उचित नहीं है। फिर भी यह तुलना हमें यह समझने में मदद करती है कि वास्तव में इंडिगो को क्या हुआ और भारत के नागर विमानन क्षेत्र की नियामक प्रणाली में क्या खामी है। तेजी से कारोबार फैलाने की चाह रखने में कोई हर्ज नहीं है मगर यह बेतरतीब ढंग से नहीं किया जाना चाहिए। जब विमानन क्षेत्र के नियामक नागर विमानन महानिदेशालय (डीजीसीए) ने पायलटों के लिए न्यूनतम अनिवार्य साप्ताहिक आराम के घंटे 33 फीसदी बढ़ाने का निर्णय लिया तो इंडिगो सहित सभी विमानन कंपनियों को यह अवश्य समझ लेना चाहिए था कि उनके पास अपने दैनिक उड़ान कार्यक्रम अपरिवर्तित रखते हुए अपने पायलटों की संख्या बढ़ाने के सिवा कोई अन्य विकल्प नहीं है।
डीजीसीए ने जनवरी 2024 में अपने नए दिशानिर्देशों की घोषणा की जिन्हें जून 2024 से लागू किया जाना था। मगर विमानन कंपनियों तुरंत इनका क्रियान्वयन करने की स्थिति में नहीं थीं इसलिए नियामक ने दो चरणों में इन्हें लागू करने की व्यवस्था दी। ये दिशानिर्देश आंशिक रूप से जुलाई 2025 और पूर्ण रूप से नवंबर 2025 तक लागू किए गए। एयर इंडिया ने बिना किसी खास परेशानी से हालात संभाल लिया क्योंकि उसके काफी विमान पहले से ही उड़ान नहीं भर रहे थे। इससे उसके पास पायलट पर्याप्त संख्या में उपलब्ध थे और दूसरी बात यह थी कि यह इंडिगो की तुलना में कम उड़ानों का परिचालन करती है।
दूसरी तरफ, इंडिगो जनवरी 2024 में रोजाना 2,000 उड़ानों का परिचालन कर रही थी और उसने एक साल बाद यह संख्या बढ़ाकर 2,200 तक पहुंचा दी। एक रियल एस्टेट कंपनी के लिए सुरक्षा गार्डों को काम पर रखना अपेक्षाकृत आसान है मगर किसी विमानन कंपनी के लिए पायलट नियुक्त करना काफी कठिन है। प्रतिद्वंद्वी विमानन कंपनियों से पायलटों को झटकना भी आसान नहीं है क्योंकि इनके लिए सख्त नियम हैं ( कमांडर के लिए 12 महीने सह पायलट के लिए छह महीने की नोटिस अवधि)। इसके अलावा उपलब्ध पायलटों की संख्या भी सीमित है और एक पायलट को विमान उड़ाने के लिए पात्र होने में कई लंबी जटिल प्रमाणन प्रक्रियाओं से गुजरना होता है। यहां तक कि विदेशी पायलट नियुक्त करने में भी कई महीनों का इंतजार करना पड़ता है।
इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए इंडिगो को यह पहले ही समझ लेना चाहिए था कि पायलटों की कमी की समस्या आसानी से हल होने वाली नहीं है। डीजीसीए द्वारा इन दिशानिर्देशों को अगले साल फरवरी तक स्थगित करने से बहुत मदद नहीं मिलेगी जब तक कि इंडिगो अपनी दैनिक उड़ानों की संख्या कम करने का फैसला नहीं करती है। आखिर इंडिगो का शीर्ष प्रबंधन पिछले 23 महीनों में क्या कर रहा था ? शायद, इंडिगो प्रबंधन को उड़ान ड्यूटी समय सीमा (एफडीटीएल) के मानदंडों को स्थगित करने और अपनी उड़ानों की संख्या कम किए बिना उन्हें जारी रखने के लिए नियामक को मनाने की अपनी क्षमता पर बहुत अधिक विश्वास था ।
इन हालात में नियामक की भूमिका बेहद महत्त्वपूर्ण हो जाती है और शायद उतनी ही विमानन कंपनी की भी अगर इंडिगो नए दिशानिर्देशों का जिम्मेदारी से पालन करने में विफल रही तो नियामकों ने भी कोई उल्लेखनीय कदम नहीं उठाए । केवल विमानन नियामक ही नहीं अपने उत्तरदायित्वों के निर्वहन करने में विफल रहा बल्कि प्रतिस्पर्द्धा नियामक ने भी एक विमानन कंपनी के बाजार में दबदबे पर ध्यान नहीं दिया। इस वर्ष तक देश में कुल हवाई उड़ानों का 65 फीसदी हिस्सा इंडिगो ने अपने पाले में कर लिया था। क्या भारतीय प्रतिस्पर्द्धा आयोग (सीसीआई) ने इस बात की जांच की कि कहीं इंडिगो प्रतिस्पर्द्धा अधिनियम की धारा 4 के तहत उपभोक्ताओं का शोषण करने के लिए अपने बाजार प्रभुत्व का दुरुपयोग तो नहीं कर रहा ? क्या उसने इस पहलू पर ध्यान दिया कि नए एफडीटीएल मानदंड लागू होने के बाद आने वाले समय में पायलटों की संभावित कमी के बावजूद किस तरह इंडिगो खुशी-खुशी अपनी उड़ानें बढ़ा रही थी और नए दिशानिर्देशों के तहत अपनी उड़ान सेवाएं देने के लिए अधिक पायलटों को काम पर रखने की एक ठोस योजना के साथ तैयार नहीं थी ? क्या ऐसी लापरवाही उपभोक्ताओं का शोषण करने के लिए अपने बाजार प्रभुत्व का दुरुपयोग करने जैसा नहीं है ? आखिरकार, उड़ानों के बड़े पैमाने पर रद्द होने के कारण उपभोक्ताओं ( यात्रियों) का शोषण हुआ। अगर प्रतिस्पद्ध नियामक थोड़ा अधिक सतर्क रहता और अपनी जिम्मेदारियों के प्रति सचेत होता तो ऐसी नौबत नहीं आती! एक बड़ी समस्या डीजीसीए के कारण हुई। वर्ष 1994 में वायु निगम अधिनियम देश में अधिसूचित निजी विमानन कंपनियों को परिचालन की सुविधा देने के लिए निरस्त कर दिया गया था। यह अधिनियम 1953 में भारत में नागर विमानन का राष्ट्रीयकरण करने के लिए पारित किया गया था। डीजीसीए राष्ट्रीयकरण से पूर्व भी अस्तित्व में था और वह नागर विमानन मंत्रालय के एक संलग्न कार्यालय के रूप में कार्य करता रहा। अचरज की बात है कि डीजीसीए को वर्ष 2020 में सुरक्षा निरीक्षण करने के साथ-साथ नागर विमानन क्षेत्र को विनियमित करने के लिए वैधानिक शक्तियां भी दी गई।
सुधारों को बढ़ावा देने वाली पीवी नरसिम्हा राव, अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह और यहां तक कि नरेंद्र मोदी ( अपने पहले कार्यकाल में ) सरकारें क्या कर रही थीं? मोदी सरकार द्वारा दूसरे कार्यकाल के दौरान वर्ष 2020 में लिए गए निर्णय से थोड़ा ही फर्क पड़ा। डीजीसीए अपनी वेबसाइट पर अब भी स्वयं को नागर विमानन मंत्रालय के एक संलग्न कार्यालय के रूप में परिभाषित करता है। डीजीसीए का संचालन ज्यादातर सेवारत सरकारी अधिकारी ही कर रहे हैं। इतना ही नहीं, डीजीसीए में कर्मचारियों की भारी कमी है और स्वीकृत पदों में आधे रिक्त हैं। क्या डीजीसीए को नागर विमानन मंत्रालय के केवल एक संलग्न कार्यालय के रूप में नहीं बल्कि एक स्वतंत्र वैधानिक रूप से अनुमोदित नियामक के रूप में सशक्त करने का समय नहीं आ गया है ? डीजीसीए का वैधानिक रुतबा केवल कागजों पर है और इस बीच नागर विमानन मंत्रालय इस बात पर अधिक ऊंचे स्वरों में बात कर रहा है। कि इंडिगो के खिलाफ क्या कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए।
इंडिगो विवाद का सबसे अधिक जटिल पहलू यह है कि नियामकों ने किस तरह बिना उचित निगरानी के कमजोर और अप्रभावी ढंग से काम किया है। वहीं नागर विमानन मंत्रालय इंडिगो के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने और अन्य विमानन कंपनियों के लिए हवाई किराए की सीमा तय करने की धमकी देने में अधिक सक्रिय और मुखर हो गया है। सरकार और संसद हवाई यात्रियों की चिंता दूर करने के लिए अपने अधिकारों की सीमा में हैं लेकिन उनका प्राथमिक कार्य उपयुक्त एवं ठोस नीतियां बना कर यह सुनिश्चित करना है कि नियामक उन्हें लागू करने में पूरी तरह सशक्त एवं सक्षम हों। इसके साथ ही सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ऐसी समस्याओं को भांपने और अग्रिम उपचारात्मक उपाय करने में विफल रहने के लिए उन्हें बख्शा नहीं जाए। समय आ गया है कि सरकार डीजीसीए को पर्याप्त रूप से सशक्त बनाकर नियामक स्तर पर खामियां दूर करे ताकि नागर विमानन क्षेत्र में दोबारा ऐसी अराजकता की स्थिति उत्पन्न न हो । इंडिगो का व्यवहार गैर-जिम्मेदाराना था मगर नियामक तंत्र भी उतना ही गैर- जिम्मेदार और अप्रभावी साबित हुआ। विमानन क्षेत्र में वर्तमान संकट देश में नियामक ढांचे में सुधार करने का एक अवसर है।
पाबंदी की राह
संपादकीय

इसमें कोई दोराय नहीं कि इंटरनेट की सुविधा ने दुनिया के दायरे को बहुत छोटा बना दिया है, लेकिन इसके समांतर एक सच यह भी है कि आभासी दुनिया में सोशल मीडिया के बहुतेरे मंचों पर सीमाओं से परे लोगों के बीच संवाद का विस्तार हुआ है, तो यथार्थ के धरातल पर लोग एक-दूसरे से दूर भी होते गए हैं। यह बहुत संभव है कि आस-पड़ोस के बच्चे सोशल मीडिया के किसी मंच पर तो आपस में दोस्त हों, संवाद करते हों और साथ में कोई गेम खेलते हों, लेकिन वास्तव में वे कभी नहीं मिलते। यानी आभासी दुनिया में बच्चों का दायरा विस्तृत होता है, लेकिन यथार्थ के धरातल पर वे अकेले होते हैं। ऐसे में बिना आहट के एकाकीपन का दंश बच्चों के भीतर उतरता है, जो उन्हें आत्मघाती अवसाद के घेरे में ला दे सकता है। किसी एप के संजाल में फंसे बच्चों के मनोवैज्ञानिक परेशानियों का शिकार होने से लेकर आत्महत्या करने तक की खबरें आती रही हैं।
दुनिया भर में सोशल मीडिया पर अति सक्रियता के मानसिक और शारीरिक दुष्प्रभावों के मद्देनजर बच्चों के लिए इसके इस्तेमाल पर रोक लगाने या सीमित करने के सुझाव सामने आते रहे हैं। इस क्रम में आस्ट्रेलिया ने एक ठोस पहल करते हुए अपने यहां सोलह वर्ष से कम के बच्चों के लिए सोशल मीडिया के उपयोग पर बुधवार से पाबंदी लागू कर दी है। हालांकि संदेश भेजने और गेम खेलने वाले कुछ मंचों को इस प्रतिबंध से अलग रखा गया है। आस्ट्रेलिया में इस सख्त नियम के लागू होने के बाद बच्चों को उनका बचपन वापस मिलने की उम्मीद की जा रही है, लेकिन यह इस बात पर निर्भर करेगा कि प्रतिबंध के लागू होने का स्वरूप क्या है और क्या वास्तव में सोशल मीडिया के संजाल से बच्चे बच सकेंगे। आज आधुनिक तकनीकी के दौर में इंटरनेट पर मौजूद किसी मंच पर पहुंचने के लिए कुछ बच्चे भी जिस तरह वैकल्पिक और उचित – अनुचित रास्ता निकाल लेते हैं, वैसे में पाबंदी कितनी कामयाब होगी, यह देखने की बात होगी। वहीं सोशल मीडिया के उपयोग के लिए निर्धारित उम्र के प्रमाण के तौर पर अगर किसी दस्तावेज की मांग की जाती है, तो उसकी संवेदनशीलता, सुरक्षा और दुरुपयोग को लेकर नए सवाल खड़े होंगे !
हमारे आदर्श हमारी विरासत का आधार
संपादकीय
राष्ट्र निर्माण केवल नीतियों, विकास योजनाओं या संस्थागत ढांचे से नहीं होता, बल्कि उस भावनात्मक और वैचारिक विरासत से होता है जिसे हम अपने आदर्शो के रूप में स्वीकार करते हैं। आदर्श किसी भी समाज की आत्मा होते है वही समाज के चरित्र को दिशा देते है, उसके विचारों को आकार देते है और उसके भविष्य की रूपरेखा तय करते है। इसी संदर्भ में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने हाल ही में यह स्पष्ट संदेश दिया कि हमारे आदर्श कोई विदेशी आक्रांता नहीं हो सकते, क्योंकि हमारी असली प्रेरणा शक्ति हमारे अपने नायक, हमारे अपने पूर्वज, और हमारी अपनी गौरवशाली परंपरा है। भारत की सभ्यता सहस्त्राब्दियों से चली आ रही वीरता, त्याग और धर्मनिष्ठा की ऐसी परंपरा से भरी है जो विश्व के किसी भी देश से तुलना में कहीं अधिक समृद्ध और व्यापक है। भगवान राम का आदर्श मर्यादा का है। वे एक राजा ही नहीं, बल्कि आदर्श पुत्र आदर्श पति और आदर्श प्रशासक के रूप में पूजे जाते है। भगवान कृष्ण ने युद्धभूमि में अर्जुन को धर्म का ज्ञान दिया, और बताया कि कर्तव्य किसी भी कठिन परिस्थिति में सर्वोपरि है। महाराणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी महाराज जैसे वीरो ने विदेशी सत्ता के सामने न झुकने का इतिहास रचा। गुरु गोविंद सिंह ने अपने चारों पुत्रों का बलिदान कर भी धर्म और मानवता की रक्षा को सर्वोपरि रखा रानी लक्ष्मीबाई की वीरता आज भी भारतीय नारी शक्ति का प्रतीक है।
इन सभी महापुरुषों की विरासत को देखकर यह प्रश्न ही उठता है कि जब हमारे पास इतनी समृद्ध और प्रेरणादायक परंपरा है, तब हम किसी विदेशी आक्रांता को आदर्श क्यों मानें? इतिहास हमें यह सिखाता है कि विदेशी आक्रांताओं का उद्देश्य शासन, विस्तार और लूट रहा। वे किसी भी रूप में हमारे सामाजिक, आध्यात्मिक या सांस्कृतिक हितों के संवाहक नहीं थे। इसलिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की यह टिप्पणी केवल राजनीतिक वक्तव्य नहीं, बल्कि इतिहास और राष्ट्रचेतना की कसौटी पर एक बिल्कुल सही और समयानुकूल संदेश है। इसके साथ ही उन्होंने समाज को भाषा और क्षेत्रीय भावनाओं के आधार पर विभाजित करने के खतरों की ओर भी ध्यान दिलाया। विशेष रूप से जाट क्षेत्र या किसी अन्य क्षेत्रीय पहचान को समाज के बीच दूरी पैदा करने का माध्यम बनाना न केवल अविवेकपूर्ण है, बल्कि राष्ट्रहित के विरुद्ध भी है। भारत की शक्ति उसकी विविधता में है, लेकिन यह विविधता तभी सार्थक है जब वह एकता की बनियाद पर बनी हो। विभाजन का विचार समाज को कमजोर करता है, जबकि साझा पूर्वजों और साझा गौरव की भावना हमें जोड़ती है। हमारे नायक हमारे सैनिक है। उनमें से परमवीर चक्र विजेता जनरल बिपिन रावत जैसे सेनापति राष्ट्र गौरव, साहस और कर्तव्यनिष्ठा के सर्वोच्च प्रतीक है। वे हमारी सैन्य परंपरा के उस स्वाभिमान को आगे बढ़ाते है, जिसने सदियों से इस देश की रक्षा की है जब हमारे वीर सैनिक अपने जीवन की परवाह किए बिना सीमाओं पर डटे रहते है, तब यह स्वाभाविक है कि उनकी प्रेरणा हमारे अपने महान पूर्वजों के बलिदान और आदर्शों से ही आती है।
आज की राजनीति में आदर्शों और मूल्यों का विषय अक्सर विवादों में उलझ जाता है, जबकि वास्तव में यह आज भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कभी था। समाज को जोड़ने वाले आदर्श ही उसे मजबूत बनाते है। हमें यह समझना होगा कि इतिहास को विकृत कर विदेशी आक्रांताओं में नावक ढूंढने से न राष्ट्र का भला होगा और न समाज का भारत को एकता, स्वाभिमान और अपनी सांस्कृतिक विरासत की पहचान चाहिए और इसके लिए जरूरी है कि हमारे आदर्श वही हों, जिनकी जड़ें इसी मिट्टी में है। समय की मांग है कि हम अपनी नई पीढ़ी को सही इतिहास, सही प्रेरणा और सही आदर्श दें क्योंकि राष्ट्र उन्हीं हाथों में सुरक्षित होते है जिनके दिल में अपनी विरासत के प्रति गर्व होता है।
Date: 12-12-25
सोशल मीडिया की मार से बच्चों को बचाएं
प्रांजल शर्मा, ( डिजिटल नीति विशेषज्ञ )
सोशल मीडिया के अतिशय इस्तेमाल से किशोरों और बच्चों को बचाने के मामले में ऑस्ट्रेलिया दुनिया भर में सबसे आगे हो गया है। उसके ई-सेफ्टी कमिश्नर का लिया गया एक फैसला विश्व भर में चर्चा का विषय बन रहा है। ई-सेपटी कमिश्नर जूली इनमैन ग्रांट ऑस्ट्रेलियाई सरकार की स्वतंत्र ऑनलाइन संरक्षा नियामक हैं। वहां 16 साल से कम उम्र के बच्चों और किशोरों के लिए कई सोशल मीडिया मंचों पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया है।
इस फैसले का मकसद ऑनलाइन नुकसान के खतरे में फंसे ऑस्ट्रेलियाई नागरिकों की मदद करना और सुरक्षित, अधिक सकारात्मक ऑनलाइन अनुभवों को बढ़ावा देना है। दुनिया में अपनी तरह की पहली एजेंसी होने के कारण, ई-सेफ्टी ऑनलाइन खतरों को रोकने, नुकसान के असर को कम करने और सुरक्षित डिजिटल स्पेस बनाने में सबसे आगे है। यहां के ऑनलाइन उद्योग का ‘एज- रिस्ट्रिक्टेड मैटीरियल कोड’ उन सेवा प्रदाता कंपनियों पर लागू होता है, जो एप स्टोर, सोशल मीडिया सेवा, उपकरण मुहैया कराने, ऑनलाइन पोर्नोग्राफी व जेनरेटिव एआई सर्विस जैसी गतिविधियों से जुड़ी हैं।
ऑनलाइन इंडस्ट्री और लोगों को ‘सोशल मीडिया मिनिमम एज ऑब्लिगेशन (एसएमएमएओ या सोशल मीडिया के उपयोग के लिए बाध्यकारी न्यूनतम उम्र ) ‘ मानने के लिए ई-सेफ्टी ने सोचा कि कुछ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को एक निश्चित आयु वर्ग तक के लिए प्रतिबंधित कर दिया जाए। इसे अमलीजामा पहचाते हुए उन्होंने 10 दिसंबर, 2025 से 16 साल से कम उम्र के ऑस्ट्रेलियाई किशोरों व बच्चों को सोशल मीडिया अकाउंट बनाने से रोकने के लिए उपरोक्त कानून बनाया है। इसके तहत फेसबुक, इंस्टाग्राम, किक, रेडिफ, स्नैपचैट, थ्रेड्स, टिकटॉक, टवीट्च, एक्स (पहले ट्विटर) और यू-ट्यूब को प्रतिबंधित कर दिया गया है । ई – सेफ्टीने जिन सेवाओं को इस कानून के दायरे से बाहर रखने का फैसला किया है, वे हैं-
डिसकॉर्ड, गिटहब, गूगल क्लासरूम, लेगो प्ले, मैसेंजर, पिंटेरेस्ट, रॉबलॉक्स, स्टीम, स्टीम चैट, वाट्सएप और यू-ट्यूब किड्स ।
कुछ महीने पहले इस लेखक से इनमैन ग्रांट ने कहा था, ‘ई- सेफ्टी कमिश्नर हानिकारक गतिविधियों और कंटेंट को रोकने के लिए है। इसके तहत हम बाल यौन शोषण और आतंकवाद समर्थक अवैध व प्रतिबंधित सामग्री किसी व्यक्ति के अंतरंग क्षणों की तस्वीरें उनकी सहमति के बगैर साझा करने, बच्चों को साइबर धमकी देने और वयस्कों द्वारा साइबर दुरुपयोग पर ध्यान केंद्रित करते हैं। हम नुकसान की आशंकाओं को कम करने के लिए प्रौद्योगिकी सेक्टर को उनके उत्पादों व सेवाओं के डिजाइन और विकास में सुरक्षा उपायों को शामिल करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। ऑनलाइन नुकसान को रोकने के बुनियादी कार्यक्रमों के तहत अनुसंधान, शिक्षण और प्रशिक्षण तो खैर हैं ही।’
ग्रांट का स्पष्ट मानना था कि ‘सभी देशों के नागरिकों को साइबर दुनिया का देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप एक सजग उपयोगकर्ता बनने का व्यावहारिक कौशल प्रशिक्षण जरूर दिया जाना चाहिए। उन्हें मालूम होना चाहिए कि समस्या होने पर मदद कहां से लेनी हैं ?”
हालिया दिशा-निर्देश गहन शोध पर आधारित हैं। नए नियमों के तहत बच्चों को उनकी उम्र के लिहाज से हानिकारक सामग्री से दूर रखने के साथ-साथ सर्व इंजनों को निर्देश दिए गए हैं कि वे ऑस्ट्रेलियाई लोगों द्वारा आत्महत्या, आत्म-क्षति और विषपान से संबंधित जानकारी मांगने पर उचित मानसिक स्वास्थ्य सहायता प्रदान करें। ई सेफ्टी कमिश्नर ने कहा कि बच्चों और किशोरों को अनजाने में ही अनुचित कंटेंट देखने को मिल जाते हैं। उन्होंने बताया, ‘यह हमारे अपने शोध में भी सामने आ चुका है। मेरे शोध में तीन में एक युवा ने हमें बताया कि उन्होंने 13 वर्ष की आयु से पहले ही अश्लील तस्वीरें देखी हैं और ऐसी सामग्रियों से उनका सामना अक्सर व आकस्मिक होता रहा है। कई किशोरों ने तो इसे परेशान करने वाला बताया।
अब डिजिटल दुनिया में होने वाले नुकसानों की निगरानी के लिए वैश्विक स्तर पर कई संगठन खड़े हो चुके हैं। विश्व आर्थिक मंच ने ऑनलाइन हानिकारक कंटेंट से निपटने के लिए ‘ग्लोबल कोलिशन ऑफ डिजिटल सेफ्टी’ बनाया है। यह संस्था नए ऑनलाइन सुरक्षा विनियमन के लिए सर्वोत्तम तरीकों के आदान- प्रदान, ऑनलाइन जोखिम को कम करने और डिजिटल साक्षरता कार्यक्रमों में परस्पर सहयोग बढ़ाने की दिशा में काम करेगी।
कम उम्र में अनुचित ऑनलाइन कंटेंट के अलावा, सोशल मीडिया और डिजिटल सामग्री का अत्यधिक उपयोग भी एक बड़ी समस्या है। बच्चे और किशोर डिवाइस स्क्रीन पर अत्यधिक समय बिता रहे हैं। यह उनके मानसिक-शारीरिक स्वास्थ्य को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रहा है। इंटरनेशनल जर्नल ऑफ इंडियन साइकोलॉजी की एक रिपोर्ट के अनुसार, इंस्टाग्राम और स्नैपचैट का उपयोग करने वाले 11 वर्ष से कम उम्र के बच्चों में समस्याग्रस्त डिजिटल व्यवहार की आशंका अधिक होती है। जैसे, केवल ऑनलाइन दोस्त बनाना और ऐसी साइटों पर जाना, जो माता-पिता को पसंद नहीं है। साथ ही उनके ऑनलाइन उत्पीड़न में शामिल होने की भी आशंका प्रबल होती है।
सोशल मीडिया एप्स पर बहुत अधिक समय बिताने से चिड़चिड़ापन, खाने के विकार और आत्मसम्मान में कमी की समस्या हो सकती है। किशोरियों के लिए ये स्थितियां विशेष रूप से चिंताजनक हैं। रिपोर्ट बताती है कि 13 से 17 वर्ष की 46 प्रतिशत किशोरियों ने कहा कि सोशल मीडिया ने उन्हें अपने शरीर के बारे में बुरा महसूस कराया। यह संकट भारत समेत पूरी दुनिया में एक जैसा है। नियामक एजेंसियां ऐसे प्लेटफॉर्मों पर लॉग इन करने के लिए पहचान और उम्र को बुनियादी मानदंड बनाने की मांग कर रही हैं। कुछ लोग इससे उपयोगकर्ता की गोपनीयता भंग होने की चिंता जता रहे हैं, लेकिन इंटरनेट को ज्यादा सुरक्षित बनाने के लिए ज्यादा पारदर्शिता और जवाबदेही जरूरी है।
जेनएआई चैटबॉट के आने के बाद यह पक्का करना और भी जरूरी हो गया है कि डिजिटल मीडिया के बारे में जानकारी और उपयोगकर्ताओं को स्मार्ट तरीके से नियंत्रित किया जाए, ताकि किशोर उपभोक्ताओं की सुरक्षा हो सके। भारतीय कानून प्रवर्तन एजेंसियों और नीति-निर्माताओं को बच्चों और कमजोर समुदायों की सुरक्षा के लिए इसी तरह की तैयारी करनी चाहिए।
Date: 12-12-25
दक्षिण और उत्तर को जोड़ती एक नई सांस्कृतिक यात्रा
वी कामकोटि, ( निदेशक,आईआईटी, मद्रास )
भारत के परस्पर भौगोलिक सांस्कृतिक जुड़ाव की कहानी को सबसे सुंदर अभिव्यक्ति इसके महान ऋषियों की यात्राओं में मिलती है। इन महान संतों में एक बहुत सम्मानजनक नाम है अगस्त्यर या अगस्त्य ऋषि, जो उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिणी समुद्र तक फैली सभ्यता की गहन निरंतरता को दिखाते हैं।
अगस्त्य मुनि का योगदान एक क्षेत्र या परंपरा तक सीमित नहीं है। उन्हें तमिल व्याकरण का पहला संहिताकार, प्रारंभिक संगम साहित्य का मार्गदर्शक और सिद्ध चिकित्सा, योग व खगोल विज्ञान का मूल प्राधिकारी माना जाता है। अगस्त्य मुनि की विरासत तमिलनाडु की मिट्टी में समाई हुई है। इसकी पश्चिमी घाट की तलहटी में स्थित तेनकासी उनकी स्मृतियों से ओतप्रोत है। भाषायी वर्गीकरण से परे भी उनकी भूमिका है; उन्हें सिद्ध चिकित्सा के प्रणेता के रूप में देखा जाता है, जो दक्षिण में फली फूली स्वदेशी चिकित्सा परंपरा है। और भारतीय वैदिक चिंतन से दार्शनिक आधार प्राप्त करती है।
अगस्त्य ऋषि की असाधारण यात्रा की कथा उन्हें एकता की शक्ति के रूप में स्थापित करती है। प्राचीन ग्रंथों के अनुसार, जब कैलाश पर्वत पर शिव और पार्वती के विवाह के दौरान ब्रह्मांड का संतुलन बिगड़ गया, तो अगस्त्यमुनि को ब्रह्मांडीय संतुलन को बहाल करने के लिए दक्षिण की ओर यात्रा करने का निर्देश मिला। उत्तर से दक्षिण की यह प्रतीकात्मक यात्रा ज्ञान, सद्भाव और आध्यात्मिक व्यवस्था के प्रसार के उनके मिशन का प्रतीक थी, जिसने तमिल समाज को अत्यधिक समृद्ध किया। उनकी इस यात्रा ने दुनिया की सबसे प्राचीन और परिष्कृत सांस्कृतिक परंपराओं में से एक को पोषित किया, जिससे यह सिद्ध हुआ कि बौद्धिक आदान-प्रदान प्राचीन भारत की आधारशिला थी।
‘अगस्त्यर अभियान’ अगस्त्य मुनि की तेनकासी से काशी तक की महान यात्रा को याद करता है। यह महज एक सांस्कृतिक यात्रा नहीं है, बल्कि एक पुनर्खोज है, जो न केवल स्थानों को, बल्कि युगों-युगों के हृदय और इतिहास को जोड़ती है। दक्षिण भारत की विरासत के केंद्र से वैदिक ज्ञान के चिरस्थायी केंद्र काशी तक की यह यात्रा आधुनिक समाज को विभाजित करने वाले कृत्रिम द्वंद्व को मिटा देती है। जैसे-जैसे इस अभियान के यात्री उन भू-स्थलों से गुजरते हैं, जहां कभी ऋषि अगस्त्य के पदचिह्न गूंजते थे, वे एक जीवंत संस्कृति से रू-ब-रू होते हैं, जहां अगस्त्य मुनि की शिक्षाएं आज भी कायम हैं। वे साक्षात् देखते हैं कि कैसे उनकी कहानियां स्थानीय परंपरा में मंदिर के अनुष्ठानों से लेकर आस-पास के समुदायों की लोक स्मृतियों में जीवित हैं।
इसका हर पड़ाव एक अध्याय बन जाता है, जो एक ऐसे भारत को प्रकट करता है, जहां संस्कृति को जिया जाता है, गाया जाता है और पूजा जाता है और यह दर्शाता है कि हमारा आध्यात्मिक भूगोल परस्पर कितनी गहराई से जुड़ा हुआ है। परस्पर संबद्ध ज्ञान प्रणालियों का अस्तित्व यह दर्शाता है कि अगस्त्य मुनि जैसे ऋषियों ने किस प्रकार एक साझा बौद्धिक विरासत का निर्माण किया, जो पहाड़ों, नदियों और उत्तर से दक्षिण तक फैली हुई थी।
काशी पहुंचना इस अभियान का भावनात्मक चरम बिंदु है। यह उस प्राचीन मार्ग की वापसी और दो महान सभ्यतागत केंद्रों के पुनर्मिलन का प्रतीक है। काशी के घाटों पर खड़े होकर इसके दक्षिण भारतीय प्रतिभागी एक आश्चर्यजनक सुपरिचय का अनुभव करते हैं। उन्हें एक दूरस्थ स्थान पर अपनापन महसूस होता है, क्योंकि यहां के रीति-रिवाज, मंत्रोच्चार और दार्शनिक परंपराएं तमिलनाडु के आध्यात्मिक वातावरण से मेल खाती हैं। साझी पहचान की यह भावना हमें याद दिलाती है कि एकीकरण और पारस्परिक सम्मान हमेशा से भारतीय सभ्यता की आधारशिला रहे हैं। यह बताती कि राष्ट्र की विविधता कोई व्यवधान नहीं है, बल्कि एक लयबद्ध प्रवाह है, जो सहस्राब्दियों से सामंजस्यपूर्ण रहा है।
अगस्त्यर अभियान का मूल उद्देश्य नई पीढ़ी के लिए सांस्कृतिक सेतु का पुनर्निर्माण करना, उनमें भाषायी खुलेपन और साझी विरासत को बढ़ावा देना है। यह अभियान प्रत्येक भारतीय को यह स्वीकार करने के लिए आमंत्रित करता है कि राष्ट्र की एकता किसी बाध्यता की नहीं, सदियों पुराने सह-अस्तित्व की उपज है।