12-10-2017 (Important News Clippings)

Afeias
12 Oct 2017
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Date:12-10-17

Grant living will

A less taxing passage can be a dying person’s last wish. It should not be denied

TOI Editorials

The Union government’s diffidence over incorporating a provision for “living will” in its draft passive euthanasia bill doesn’t pass muster. Living wills allow people to declare in advance that their life must not be prolonged by life support systems if they slide into a vegetative state or go into irreversible coma. The government has told Supreme Court that living will can make the elderly vulnerable to greedy relatives who have an eye on their wealth. This is another example of the state adopting paternalistic stances negating choices people make.The government has accepted passive euthanasia as law after the 2011 SC judgment. Passive euthanasia involves a high court setting up a medical board to take a decision on withdrawing life support after close relatives of a patient make a request. This is consonant with the right to live and die with dignity. But there is a stronger case for living will. It is an extension of passive euthanasia but has greater moral force because it allows an individual to exercise bodily autonomy even when consciousness has seeped out of the body.

By allowing passive euthanasia but rejecting living wills government is contradicting itself. The present government has trained its guns at India’s colonial legacy – and rightly so. Yet it fails to recognise how that legacy guides the state in curbing individual freedom and autonomy. It also ignores how Indic religious practices such as santhara, samadhi and iccha mrityu grant individuals the power to attain mortality at a time and place of their choosing.Even otherwise, medical ethics and human rights place a moral obligation upon doctors and relatives to accept patients’ preferences. Many countries – the US, Ireland and Germany, to name a few – have passed laws allowing advance healthcare directives. A living will is not a manifesto courting death or an invitation to crime. It is merely a recognition that death cannot be annulled. This is why society as well as legal and medical institutions need to have a conversation about what constitutes a “good death”. This conversation cannot be denied, nor the privacy and dignity of the individual effaced, simply by exercising the lordly prerogative of the state or medical practitioners claiming to act in the interest of – but without the consent of – the dying individual.


Date:12-10-17

जीवन और मृत्यु के बीच दुविधा में खड़ा इंसाफ

सुप्रीम कोर्ट, सरकार और कामन काज़ संस्था मानव सभ्यता के गहरे दार्शनिक सवालों में उलझ गई है।

संपादकीय

लिविंग विल यानी जीवन की वसीयत के मुद्‌दे पर चर्चा के बहाने सुप्रीम कोर्ट, सरकार और कामन काज़ संस्था मानव सभ्यता के गहरे दार्शनिक सवालों में उलझ गई है और इसका समाधान उन सवालों के जवाब देगा जो बीमारी और बुढ़ापे के साथ खड़े होते हैं लेकिन, मृत्यु के साथ समाप्त नहीं होते। मशहूर वकील प्रशांत भूषण की संस्था ने न्यायालय के समक्ष यह प्रश्न उठाया है कि क्यों न अदालत नागरिक को स्वस्थ रहते हुए यह वसीयत करने की इजाजत दे कि उसे बीमारी की अंतिम अवस्था में वेंटिलेटर पर न रखा जाए। उनका कहना है कि मनुष्य का यह अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 में दिए गए जीवन के अधिकार का हिस्सा है और अगर कोई पीड़ादायक मृत्यु के बजाय सहज मृत्यु की वसीयत लिखना चाहता है तो उसे वैसा हक मिलना चाहिए। सरकार का कहना है कि ऐसा अधिकार दिए जाने के खतरे हैं और अपने बुजुर्गों से ऊबे लोग इसका दुरुपयोग कर सकते हैं। सवाल यह भी है कि उस वसीयत के वास्तविक होने या मरीज की हालत खराब होने को कौन प्रमाणित करेगा। इन बहसों की पृष्ठभूमि में निष्क्रिय इच्छामृत्यु (पैसिव यूथेनेसिया) का वह फैसला है जो अदालत ने 2011 में अरुणा शानबाग नामक नर्स के मामले में दिया था। दुष्कर्म की शिकार वह नर्स तकरीबन 42 साल से अस्पताल में अचेत अवस्था में पड़ी थी। यह प्रश्न विधि आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति पीवी रेड्‌डी की 241 वीं रिपोर्ट के संदर्भ में भी उठ रहा है, जिन्होंने निष्क्रिय इच्छामृत्यु के अधिकार को संवैधानिक बताए जाने के बाद रिपोर्ट दी थी। इस सवाल को 1970 के दशक में इवान इलीच ने अपनी पुस्तक मेडिकल नेमेसिस(चिकित्सीय अभिशाप) में भी उठाया था। उनका कहना था कि मृत्यु को अनावश्यक तरीके से आगे बढ़ाने के पीछे संवेदनहीनता के साथ आर्थिक कारण भी हैं। पुस्तक में उनकी वह मशहूर टिप्पणी भी थी कि मानव स्वास्थ्य के साथ अस्पताल बहुत बड़ी त्रासदी हैं। यह सवाल भी है कि प्राकृतिक मृत्यु जैसी घटना जिस पर न तो चिकित्सीय विज्ञान का नियंत्रण है और न ही न्यायालय का, उस पर बड़े-बड़े प्रश्नों की कितनी सार्थकता है। हो सकता है इस बहस में यह संभावना भी छुपी हो कि एक दिन मृत्यु मेडिकल विज्ञान के सामने परास्त हो जाएगी तब ये बहसें नज़ीर की तरह से काम करें।


Date:12-10-17

वंचितों की व्यापक बराबरी का सवाल

बद्री नारायण

आज की राजनीतिक गोलबंदी एवं सत्ता की राजनीति के केंद्रीय शब्द हैं ‘अस्मिता की चाह और ‘विकास। जब ‘अस्मिता की चाह पर चर्चा होती है तो सामाजिक एवं राजनीतिक अस्मिता की बात होती है, परंतु किसी भी सामाजिक समूह के ‘अस्मिता निर्माण की प्रक्रिया में ‘धर्म की क्या भूमिका होती है, इस पर हम न तो संवेदनशील हैं और न ही सजग। जब भी राजनीतिक दल दलित, वनवासी एवं वंचित समूहों की अस्मिता को समझकर उस पर अपनी राजनीतिक कार्ययोजना बनाना चाहते हैं तो उसमें उनके भीतर बैठी ‘धार्मिक सम्मान की चाह को नजरअंदाज कर देते हैं। दलित एवं उपेक्षित सामाजिक समूहों पर शोध करते हुए हमने पाया है कि उनमें ‘धार्मिक अस्मिता एवं सम्मान की चाह सामाजिक सम्मान की चाह में ही अंतर्निहित है। उनके लिए समाज में सम्मान का मतलब धार्मिक स्पेस में बराबर हिस्सेदारी भी है। ऐसा नहीं है कि धार्मिक स्पेस की चाह आज जगी है और पहले नहीं थी, बल्कि यह तब से ही पैदा हुई जबसे उनमें अस्पृश्यता के एहसास का उद्भव हुआ। अस्पृश्यता से मुक्ति का संबंध उनके लिए रोटी-पानी एवं हिंदू धर्म में बराबरी की चाह से ही जुड़ा रहा है। शायद इसीलिए डॉ. आंबेडकर ने महाड़ सत्याग्र्रह एवं मंदिरों में प्रवेश जैसे आंदोलन शुरू किए थे। न केवल आंबेडकर ने, बल्कि आर्य समाज एवं आज के अनेक सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलनों ने भी दलितों के लिए मंदिर प्रवेश जैसे आंदोलनों की वकालत की। इसी क्रम में कुछ समय पहले तरुण विजय के नेतृत्व ने उत्तराखंड के एक मंदिर में दलित प्रवेश आंदोलन को भी देखा जा सकता है।

महात्मा गांधी ने दलितों में निहित हिंदू धर्म में उनके सम्मान को समझा था और इसके लिए अनेक प्रयास भी किए थे। उसके बाद आर्य समाज के प्रयासों का एक केंद्रीय तत्व दलित, अस्पृश्य एवं वंचितों की धार्मिक अस्मिता का निर्माण कर उन्हें वैदिक संस्कृति से जोड़ते हुए सम्मान दिलाना था। 1920 के आसपास स्वामी अछूतानंद का आदि हिंदू आंदोलन दलितों को धार्मिक अस्मिता प्रदान करने का ही प्रयास था। हमें यह समझना होगा कि ऐसे समूहों को रोटी के साथ ही धार्मिक स्पेस भी चाहिए। ऐसा धार्मिक स्पेस जहां उन्हें बराबरी का एहसास हो, दैनंदिन जीवन के संघर्षों और टकराहट को झेलने के लिए आध्यात्मिक एहसास तो हो ही, बराबरी पर टिके हुए ऐसे भाईचारे का भी एहसास हो जो उन्हें दैनंदिन जीवन एवं समाज में नहीं दिखाई पड़ता। उन्हें ऐसे धार्मिक स्पेस की जरूरत है, जहां वे अपने दुखों से उबरने की कामना करते हुए अपने देवता के समक्ष रो सकें। कितना दुर्भाग्य है कि हमने समाज में उन्हें ‘रोने का स्पेस भी नहीं दिया।जो मार्क्स धर्म को जनता का ‘अफीम कहते हैं, वे ही यह भी कहते हैं कि धर्म ‘दुखी हृदय की आर्त पुकार है। अगर कभी आप बनारस में लगने वाले रविदास मेले में जाएं तो रविदास की मूर्ति के सामने लाइन में लगे तमाम महिलाएं-पुरुष अश्रुपूर्ण नेत्रों से रविदासजी की मूर्ति पर सिक्कों से लेकर सोना फेंकते दिखाई देंगे। दलितों में जो समूह आर्थिक रूप से मजबूत भी हो गया है, उन्हें भी धार्मिक स्पेस एवं सम्मान की चाह है। रविदास मेले में आपको रोटी-प्याज खाते गरीब के साथ-साथ कोट-टाई पहने ऑस्ट्रेलिया के एनआरआई भी खासी तादाद में मिल जाएंगे।

कबीर पंथ, रविदास पंथ, शिवनारायण पंथ ऐसे ही ‘धार्मिक स्पेस हैं, जिन्हें उपेक्षित समूहों ने अपने ‘दुख की पुकार के लिए, बराबरी की चाह एवं सामाजिक सम्मान की आकांक्षा से विकसित किया है। दलितों में छिपी इसी चाह को समझते हुए कांशीराम और मायावती ने दलित जनता को अपने साथ जोड़ने के लिए दलित समूहों के संतों और गुरुओं को सम्मान देने की रणनीति पर लंबे समय तक कार्य किया। कबीर, रविदास जैसे संतों की मूर्तियां बनवाईं और उनके ‘स्मृति स्थल विकसित किए। शायद इतना स्पेस भी दलित समाज के लिए काफी नहीं था। उन्हें और अधिक स्पेस चाहिए था। उन्हें हिंदू धर्म के देवी-देवताओं के भी मंदिर चाहिए। जो आर्थिक रूप से थोड़े मजबूत हैं, उन्हें धार्मिक तीर्थों और धार्मिक उत्सवों को खुलकर मनाने की भी छूट चाहिए। उनमें से अनेक ने बौद्ध धर्म को अपने धार्मिक स्पेस के रूप में अपने लिए आविष्कृत किया ही है। साथ ही गांवों में रहने वाले तमाम दलितों को ‘अपने कुलदेवता पूजने की भी छूट चाहिए। पहले जहां खेतों-बागों में पीपल के पेड़ के नीचे मिट्टी के चबूतरे पर मूर्ति रखकर पूजा की जाती थी, वहां अब छोटे मंदिर विकसित होने लगे हैं। जैसे-जैसे गांवों में दलित-वंचित समूह आर्थिक रूप से थोड़ा बेहतर होता जा रहा है, वैसे-वैसे उन्हें भव्य मंदिर भी चाहिए। शायद इसी भाव की अभिव्यक्ति उनमें विकसित हो रही ‘मंदिर की चाह में प्रस्फुटित होती है।

जयापुरा बनारस के पास प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गोद लिया गांव है। वहां मुसहर जाति की एक बस्ती है, जिसका नाम ‘अटलनगर रखा गया है। उसके प्रवेश पर ही पेड़ के पास एक छोटा मंदिर बनाया गया है जिसमें ‘शिवजी के साथ ‘शबरी माता की एक छोटी मूर्ति लगाई गई है। गांव में मुहसर जाति के लोग बहुत दिनों से चाह रहे थे कि, ‘काश उनके लिए शबरी माता का मंदिर होता, लेकिन उनके पास ‘शबरी माता का एक छोटा मंदिर बनाने की न तो आर्थिक शक्ति है और न ही सामाजिक ताकत। आज वे इस मंदिर के बन जाने से बहुत खुश हैं और गर्व से कहते हैं कि यहां पचास कोस तक शबरी माता का दूसरा कोई और मंदिर नहीं है। ऐसे ही सपेरा जाति में ‘गोगा पीर का मंदिर बनाने की चाह है जो सांपों के देवता माने जाते हैं, परंतु इस प्रयोजन के लिए उनके पास भी आर्थिक-सामाजिक शक्ति का अभाव है। वे कहते हैं कि अगले चुनाव में नेताओं के समक्ष वे अपनी यह मांग रखेंगे।

देश के विभिन्न् हिस्सों में दलितों की अनेक जातियां हैं और सभी जातियों के अपने-अपने देवता और नायक हैं। इन देवताओं के मंदिर अथवा परिसर विकसित होने से उनमें आत्मसम्मान का भाव तो बढ़ता ही है, उन्हें अपना धार्मिक स्पेस भी मिलता है, जहां वे अपने लोगों के बीच अपने तौर-तरीकों के पूजा-पाठ कर सकते हैं। बिहार में दुसाध जाति एक प्रभावी दलित जाति है। उनकी बस्तियों के पास आपको अनेक देवी-देवताओं के मंदिर तो दिखेंगें ही, वहीं चूहड़मल, सहलेस, राहु एवं गोरेया देव के मंदिर भी मिलेंगे। मैैं सिर्फ यह नहीं कहना चाह रहा हूं कि प्रत्येक दलित जाति के जातीय देवताओं के मंदिर हों। मेरा बस इतना कहना है कि अन्य सामाजिक समूहों की तरह दलित एवं वंचित सामाजिक समूहों में भी समाज में धार्मिक स्पेस की चाह रही है और मौजूदा दौर में यह और बढ़ रही है। उन्हें भी धार्मिक बराबरी एवं अपने दुख-दर्द का बयान करने के लिए देवस्थान चाहिए। वे भी हिंदू धर्म के अनेक देवी-देवताओं में जिसे चाहें, उसे पूजने की छूट चाहते हैं। वे अपनी जाति से जुड़े कुलदेवता का भी मंदिर चाहते हैं। कुछ बौद्ध के रूप में रहना चाहते हैं, कुछ रविदासी, कबीरपंथी एवं शिवनारायणी के रूप में अपनी धार्मिक अस्मिता चाहते हैं। कई के जातीय देवता उनकी अस्मिताओं के महत्वपूर्ण प्रतीक चिह्न हैं। उनके लिए सम्मानित जीवन का तात्पर्य रोजी-रोटी की बेहतरी के साथ साथ ‘धार्मिक स्पेस की प्राप्ति भी है और हमें उनकी यह आकांक्षा समझनी होगी।


Date:12-10-17

विसंगति की समाप्ति

संपादकीय

सुप्रीम कोर्ट ने दूरगामी महत्व का फैसला दिया है। इससे बच्चों को यौन अपराधों से बचाने का कानून अधिक सुसंगत बनेगा। साथ ही बाल विवाह के प्रचलन के कारण समाज में जारी विसंगति पर लगाम लगाने में मदद मिलेगी। यौन अपराधों से बाल संरक्षण अधिनियम-2012 (पॉस्को) के तहत 18 वर्ष से कम उम्र की लड़की के साथ यौन संबंध बनाना संगीन जुर्म है। लेकिन यदि वह लड़की विवाहित हो और 15 साल की हो चुकी हो, तो उसके पति को उसके साथ ऐसा रिश्ता बनाने की छूट मिल जाती थी। यह एक अवांछित विसंगति थी। अगर 18 साल की आयु तक कोई लड़की यौन संबंध की सहमति देने योग्य नहीं मानी जाती, तो फिर उसके विवाहित हो जाने से भी इस हकीकत पर कोई फर्क नहीं पड़ता। इसी तरह भारत में विवाह की वैधानिक उम्र लड़कों के लिए 21 साल और लड़कियों के लिए 18 साल है। दुर्भाग्यपूर्ण यथार्थ यह है कि इस कानून का खूब उल्लंघन होता है। लेकिन अब 18 साल से छोटी किसी भी लड़की से यौन संबंध बनाना दुष्कर्म माना जाएगा, भले ही वो युवती पत्नी ही क्यों न हो।

सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले का अर्थ है कि बाल विवाह के खिलाफ पहले से मौजूद प्रावधानों के अलावा एक और कठोर प्रावधान अस्तित्व में आ गया है। अब यह कानून लागू करने वाली एजेंसियों की जिम्मेदारी है कि वे इन प्रावधानों पर सख्ती से अमल सुनिश्चित कराएं। वैसे अनुभव यही है कि सामाजिक परंपरा और आम संस्कृति से जुड़े मामलों में कानून या न्यायिक निर्णय पूर्ण प्रभावशाली नहीं हो पाते। खासकर महिलाओं की सामाजिक हैसियत सुधारने से संबंधित वैधानिक प्रावधान भारतीय समाज में अपने उद्देश्य को अब तक पूरी तरह प्राप्त नहीं कर पाए हैं। बाल विवाह और दहेज प्रथा का जारी रहना इस बात की मिसाल है। प्रधान न्यायाधीशजस्टिस दीपक मिश्र की अध्यक्षता वाली बेंच ने इस तथ्य का जिक्रकिया कि आजादी के 70 साल बाद भी बाल विवाह सामाजिक यथार्थ बने हुए हैं। ऐसा क्यों है, इस पर पूरे समाज को आत्म-मंथन करना चाहिए।

दरअसल, असली चुनौती सामाजिक मानसिकता को बदलने की है। इसके लिए समाज सुधार और जन-जागरूकता के व्यापक आंदोलनों की आवश्यकता है। अफसोस की बात यह है कि आजादी के बाद समाज सुधार के महत्व को भुला दिया गया। उधर, भारतीय दंड संहिता की (दुष्कर्म विरोधी) धारा 375 में 15 साल से ऊपर की विवाहिताओं से पति द्वारा यौन संबंध बनाने की छूट बरकरार रखी गई। सुप्रीम कोर्ट ने उचित ही इस मामले में कानून निर्माताओं के विवेक पर सवाल खड़ा किया। अब अपेक्षित है कि सरकारें सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर अमल को सुनिश्चित करने के उपयुक्त उपाय करें। पुलिस व्यवस्था को चुस्त करने के साथ-साथ लोगों में जागरूकता लाने का व्यापक अभियान उन्हें शुरू करना चाहिए। नाबालिग युवतियों को जबरन यौन संबंधों की मानसिक एवं शारीरिक पीड़ा से बचाना हर सभ्य समाज का दायित्व है। अब वक्त आ गया है, जब हम सब यह दायित्व उठाएं और सुप्रीम कोर्ट की भावना के मुताबिक कानून पर अमल सुनिश्चित करने में सहायक बनें।


Date:11-10-17

निराशा एक रोग है, फिर इससे शर्माना कैसा

अगर आप भारत के 36 करोड़, 40 लाख किशोरों-नौजवानों (10 से 29 वर्ष) को अलग करके एक नया मुल्क बनाएं, तो वह दुनिया का तीसरा सबसे अधिक आबादी वाला देश होगा। हर देश के नौजवानों की तरह हमारे यहां के युवाओं को भी वयस्कता की राह की मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। आंतरिक तौर पर वे तरह-तरह की चिंताओं, निजी संघर्षों, हार्मोन संबंधी बदलावों, तनावों और गहरी भावनाओं से जूझ रहे हैं, तो बाहरी तौर पर वे आज उस भारत में जी रहे हैं, जो तेजी से बदल रहा है, और जिसमें संभावनाओं के साथ-साथ नकारात्मकता से निपटने की दुश्वारियां भी हैं।ये तमाम तरह के दबाव, बदलती जीवन-शैली और समाज जेनेटिक व जैविक कारकों के साथ मिलकर भारतीय नौजवानों में निराशा पैदा कर रहे हैं। एशियन जर्नल ऑफ साइकाइट्री में पिछले साल प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक, विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले युवाओं में निराशा की दर बढ़कर 53.2 फीसदी पर पहुंच गई है। तमाम अध्ययन बताते हैं कि भावनात्मक पीड़ा और तकलीफ देने के अलावा बढ़ रही निराशा उन्हें आत्मघाती रवैये की तरफ धकेलने लगी है, मसलन वे अविवेकपूर्ण तरीके से ड्राइविंग करने लगे हैं, असुरक्षित यौन-संबंध बनाने लगे हैं, किशोर वय लड़कियां गर्भ धारण कर ले रही हैं, वे ड्रग्स लेने लगे हैं, शराब के लती बनने लगे हैं और स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई बीच में ही छोड़ने लगे हैं। और इसकी चरम परिणति है खुदकुशी।

क्या आप जानते हैं कि भारत के नौजवानों की मौत की सबसे बड़ी वजह क्या है? यह है आत्महत्या। साल 2015 में सिर्फ खुदकुशी के कारण हमने 14 से 29 साल तक के 51,792 युवाओं को खो दिया। साफ है, निराशा अब एक टाइम बम बन चुकी है, मगर अफसोस की बात यह है कि ज्यादातर लोग यह जानते ही नहीं कि वे इसके शिकार हैं। किसी काम में दिलचस्पी न पैदा होना, मिजाज का चिड़चिड़ापन, कमजोरी, बेचैनी, खाने में कमी-बेशी, ज्यादा सोना या फिर नींद ही न आना, याददाश्त कमजोर होना या मौत व खुदकुशी के बारे में सोचना, इसके कुछ आम लक्षण हैं। यहां तक कि अगर लोग यह जानते भी हैं कि वे हताशा के शिकार हैं, तो उनमें से ज्यादातर बदनामी के डर से इससे उबरने के लिए किसी की मदद लेना नहीं चाहते। यह एक आम धारणा है कि निराश होने का मतलब उदास होना, जबकि वास्तव में इनमें फर्क है। अगर आप में या आपके किसी भी जानने वाले में ऊपर के लक्षणों में से कोई भी दो सप्ताह या उससे ज्यादा वक्त तक बना रहता है, तो आपको पेशेवर मदद लेने की सलाह दी जाती है।

साल 2014 में, जब मैं तकलीफ में थी, अकेलेपन से जूझ रही थी, और रह-रहकर रो पड़ती थी, तब मुझे इस बात का इलहाम ही नहीं था कि मैं निराशा की शिकार हूं। मैं रोज की तरह बाहर निकलती थी, कैमरे का सामना कर रही थी, इंटरव्यू दे रही थी, ऑटोग्राफ दे रही थी, लेकिन किसी ने यह नहीं देखा कि मैं तब कुछ ‘अलग’ महसूस कर रही थी। मेरी सांसें असामान्य थीं, मैं बात-बेबात रो पड़ती थी, बिस्तर में पड़े रहना चाहती थी। मगर मेरी खुशकिस्मती है कि मां ने समझ लिया कि यह सामान्य उदासी से कुछ अलग है और उन्होंने मुझे जरूरी मदद दिलाई। मैं अन्ना चांडी व श्याम भट की विशेषज्ञ सलाहों और अपने माता-पिता, बहन व दोस्तों की मदद से दवा, थेरेपी और जीवनशैली में बदलाव लाकर इस निराशा से उबर गई। इसके तुरंत बाद मैंने ‘लाइव लव लाफ फाउंडेशन’ की शुरुआत की। यह एक चैरिटेबल ट्रस्ट हैै, जो भारत में मानसिक स्वास्थ्य, खासकर चिंता और निराशा की दिशा में काम करता है। यह संगठन मानसिक बीमारी को लेकर जागरूकता फैलाने के साथ-साथ लोगों को इस बात के लिए प्रोत्साहित भी करता है कि वे इससे उबरने के लिए जरूरी उपचार कराएं। मैं आपसे कहना चाहती हूं कि अगर आप निराशा के शिकार हैं, तो यह कोई शर्म की बात नहीं है। कृपया इसे छिपाएं नहीं। यह आपकी गलती नहीं कि आप हताश हैं। इससे मुक्ति की दिशा में पहला कदम है इसे स्वीकार करना। निराशा या हताशा किसी को भी हो सकती है, और जिंदगी के किसी मोड़ पर हो सकती है। बस यह समझिए कि आप अकेले नहीं हैं, और उम्मीद कायम है।


Date:11-10-17

Measuring judicial merit

In making collegium decisions public, the Supreme Court must also reason out its measurement of ‘merit’

Shamnad Basheer

Indian judges wield power like no others. For, which other judiciary can boast a free hand in crafting policy on an almost daily basis, setting up booze free zones, mandating theatrical standing for the national anthem and even controlling a circus called cricket. However, what truly sets apart India’s higher judiciary is the enviable freedom to select its very own: through that cosy cabal of a clique that we call the “collegium”.

This is a freedom ferreted out from a rather tortuous reading of the Constitution some decades ago when the Supreme Court decided that the collegium would predominate over judicial appointments, to the near exclusion of all other stakeholders. Since then the judiciary has zealously guarded this self-anointed power, and even struck down a parliamentary enactment (National Judicial Appointments Commission Act) that sought to substitute the collegium with a structure that might have tilted the balance in favour of the executive.

A controversial collegium

Little wonder then that the collegium continues to court one controversy after another — the latest being the unfortunate transfer of Justice Jayant Patel, just as he was on the verge of taking over as the Chief Justice of the Karnataka High Court. Some attribute this “punishment” transfer to his role in the Ishrat Jahan case, where he ordered a CBI inquiry into an alleged “encounter” killing.All of this forces us to ask that eternally enigmatic question: how do we judge our judges? For this, we must have some measurable metric of merit, and a transparent one at that. One that is well reasoned and turns (in turn) on how well the judge in question “reasons”. In the Justice Patel case, one of the key demands by a local bar association which protested this seemingly arbitrary transfer was: pray, what are the “reasons”?

Indeed, “reasoning” constitutes the chief raison d’etre for the public legitimacy of the judiciary. As a famous U.S. judge once noted, “The political branches of government claim legitimacy by election, judges by reason.”I was therefore struck when a recently appointed judge at the Delhi High Court publicly pronounced at a conference that judges need not give “reasons” for issuing intellectual property (IP) injunctions, since they know best and decide with “conviction”. This was a bit ironical, since just a few months prior to this conference, a former judge of the Rajasthan High Court had gone on record with his strong “conviction” that peacocks propagate their progeny not through sex, but through tears.Clearly there is much to be said for conviction. And to lowly “reason”, we must therefore return. Fortunately, the collegium has now decided to make its “reasons” public — at least, some of it. Last Friday, the apex court released resolutions pertaining to the selection of judges for the Kerala and Tamil Nadu High Courts.

Given that the collegium has operated in a shroud of secrecy for more than two decades now, this is nothing short of revolutionary. Unfortunately, this path-breaking development for judicial transparency falls a bit short on some counts. For one, it does not detail the “metric” or methodology for measuring judicial merit. Rather, while assessing the quality of judgments penned by the candidate as a trial court judge, it simply states: “As regards Smt. T. Krishnavalli… Judgment Committee has awarded her Judgments as ‘Good/Average’.” And similarly for “Shri R. Pongiappan”.We are not told as to who or what this “Judgment” committee is. Or which “judgments” of the said candidates were being considered? Or even what counted as a “good” judgment, as opposed to an “average” one. Most problematically though, we’re left wondering how “average” judgment writing skills made the cut to one of the highest constitutional posts?

Legal legibility

If we’re serious about judicial merit, we have to be more rigorous in our measurement, particularly on factors such as the quality of the “judgment”, i.e. how well the judge writes and reasons out her decision.To this end, we must begin with legal clarity or “legibility”. Access to law means nothing if it takes specialised legal genius to determine the essence of a ruling. Given the verbosity of some decisions, it is well-nigh impossible to locate the “ratio” of a decision (legal terminology for the operative part of a judgment). Illustratively, the Ayodhya verdict ran into more than 1,000 pages, guaranteeing that not many people in the entire country would have read it.One might be forgiven for thinking that this volubility encodes a great deal of insightful judicial analysis. Hardly. As Justice Ruma Pal, a former judge of Supreme Court, once lamented: “Many judgments are in fact mere compendia or digests of decisions on a particular issue with very little original reasoning in support of the conclusion.”

Add to this frame the rather tortuous language and purple prose deployed by those that think themselves to be the next Justice Krishna Iyer in the making. And one can well understand why, when other jurisdictions are busy engaging in a critical analysis of the law, we’re still stuck with: what precisely is the law? In March this year, the Supreme Court castigated a High Court judge for rendering a decision in language so dense that it bordered on the mystical. But a quick search revealed that just a week ago, the very same judge issued another decision in similarly spirited language.

If we are serious about judicial merit, we have to do better than this. Granted, the strength of judgment writing alone cannot be the sole criterion, and one has to also assess other attributes such as integrity, collegiality, work ethic, fairness, independence, etc. But these are not as readily amenable to empirical measurement as is “judicial reasoning”.The collegium resolutions do speak to some of these more subjective virtues, but again in a rather rushed and inscrutable manner. Sample this statement about a candidate’s supposed integrity (or lack of it): “As regards Shri A. Zakir Hussain (mentioned at Sl. No. 3 above), keeping in view the material on record, including the report of Intelligence Bureau, he is not found suitable for elevation to the High Court Bench.”

And similarly, for a certain “Dr K Arul”.

Just three lines disposing of Mr. Hussain and Dr. Arul. No mention of the quality of their judgments, what colleagues had to say about their collegiality, etc. But simply some undisclosed “material on record” and a secret IB report. The very same IB that allegedly ambushed one of our finest lawyers, Gopal Subramanium, and thwarted his chances of travelling to the apex court.In order to uphold constitutional values such as judicial independence, our judges were compelled to arrogate to themselves the power to pick their very own. At the very least, they must ensure that those that are picked are truly meritorious: and certainly above “average”.

Work in progress

The latest move by the collegium marks a monumental milestone in our judicial history. While it needs to be applauded with all the vigour we have, we also have to be mindful that this is only the beginning, and much more remains to be done. To begin with, the collegium needs to make public its methodology for measuring “merit”. Institutional alternatives to the collegium make no sense, unless one first works out an optimal metric for measuring merit.Quoting from the superhero series Spiderman, a Supreme Court judge once said: “With great power comes great responsibility.” And “accountability”, if I might add.