26-05-2017 (Important News Clippings)

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26 May 2017
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Date:26-05-17

Three years after

NDA government has been truly transformative on foreign policy, less so in other areas

As the NDA government completes three years at the Centre today, there is one arena where its rule has been truly transformative: foreign policy. Indian diplomacy has lost its hallmark diffidence and stepped up its game from introverted non-alignment to outward-looking and proactive multi-alignment. Above all it has been energised by the personal commitment of Prime Minister Narendra Modi, who set the tone for innovation during the NDA government’s inauguration itself by inviting neighbouring Saarc countries to the swearing-in ceremony.

Since then Modi has improved India’s engagement and cooperation with neighbouring countries (save Pakistan), invited foreign investment, engaged India’s diaspora in many countries, ramped up strategic ties with the US, complemented India’s ‘Look East’ programme with outreach to West Asia, looked to engage Pakistan while also moving to isolate it when Pakistan rebuffed his efforts and supported multiple terror strikes in India. NDA’s approach to economic policy has been less transformative as it has more or less continued, with some repackaging and rebranding, UPA’s approach of incremental reform grafted on to a populist framework.

Make in India is off to a slow start, balance sheets of public sector banks remain impaired by non-performing assets which holds back growth of credit, job generation hasn’t taken off and India doesn’t appear to be realising its demographic dividend. On the plus side NDA has scored well on macroeconomic stability, brought down fiscal deficits which soared during the UPA years, controlled inflation (helped, no doubt, by falling oil prices). But these gains may be threatened now by fiscal irresponsibility on the part of states: the loan waiver granted by the UP government after the BJP victory there could trigger a race to the bottom among states.

On social policy the atmosphere has turned distinctly worse with food bans, gau rakshaks being allowed to take the law into their hands, a spate of lynchings and an uptick in intolerance, accompanied by statements from BJP leaders which seem to equate dissent – which is normal in a democracy – with sedition. It’s worth remembering that the lynching of a Kashmiri trucker by gau rakshaks in late 2015 gave an enormous fillip to separatist agitation in Kashmir, now raging out of control. The good news for NDA, however, is that opposition parties are in utter disarray. This gives the government time to rectify its mistakes while accentuating its positives. Given a somewhat hostile international environment shaping up today, India needs to fire on all cylinders.


Date:26-05-17

ऑटोमेशन के दौर में रोजगार की धुंधली होती जा रही तस्वीर

ऑटोमेशन की वजह से नौकरियां जाने को लेकर हाल में मची उथल-पुथल को समझ पाना थोड़ा मुश्किल है। सभी को पता था कि यह जल्द ही आने वाला है लेकिन जब यह वास्तव में सामने आया तो अधिकतर लोग अचंभित नजर आने लगे। इस साल ऑटोमेशन के चलते सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में नौकरियां गंवाने वाले कर्मचारियों की संख्या उतनी अधिक नहीं है लेकिन भविष्य में यह आंकड़ा काफी परेशानी पैदा करने लायक हो सकता है। अगर कंपनियों और सरकार ने आईटी कर्मचारियों के प्रशिक्षण और कौशल विकास पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया तो स्थिति बिगड़ सकती है। उसके अभाव में बहुतेरे लोगों के लिए रोजगार की संभावनाएं क्षीण नजर आ रही हैं।

कर्मचारी और संगठन दोनों ही तकनीक के मोर्चे पर हो रही तीव्र प्रगति के साथ कदमताल नहीं कर पा रहे हैं। मसलन, कंप्यूटर प्रोसेसर की क्षमता हरेक 18 महीनों में दोगुनी हो जाती है। इसका मतलब है कि प्रोसेसर हरेक पांच साल में 10 गुना अधिक शक्तिशाली हो जाता है। ऐसे में सभी को तकनीकी बेरोजगारी जैसी शब्दावली के लिए तैयार हो जाना चाहिए। इस पर कोई संदेह नहीं है कि तकनीकी प्रगति का कौशल, पारिश्रमिक और नौकरी पर गहरा असर पड़ता है। तीव्र गणना क्षमता वाले सस्ते कंप्यूटरों और बड़ी तेजी से बुद्धिमान हो रहे सॉफ्टवेयर की जुगलबंदी ने मशीनों की क्षमता को उस स्तर तक पहुंचा दिया है जिसे कभी मानव की सीमा से परे समझा जाता था। अब बोले गए शब्दों को समझ पाने, एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करने और खास पैटर्न को पहचान पाने में भी ये सक्षम हो चुके हैं।
ऐसे में आश्चर्य नहीं है कि अतीत के कॉल सेंटर कर्मचारियों की जगह सवालों के खुद-ब-खुद जवाब देने वाले सिस्टम लेने लगे हैं। कृत्रिम बुद्धिमत्ता या ऑटोमेशन बड़ी तेजी से कारखानों से निकलकर उन क्षेत्रों में भी तेजी से पैठ बना रहा है जो बड़ी संख्या में रोजगार देते रहे हैं। रोजमर्रा का अनुभव बताता है कि तकनीकी बदलाव ने पिछले दो दशकों में किस तरह से कम और मध्यम स्तर की दक्षता वाली नौकरियों का सफाया ही कर दिया। क्या कोई भी कंपनी (एयर इंडिया जैसी को छोड़कर) सचिवों, टाइपिस्टों, टेलीफोन, कंप्यूटर ऑपरेटर और क्लर्कों की भारी-भरकम फौज को बरकरार रख पाई है? इन्फोसिस के प्रबंध निदेशक विशाल सिक्का ऑटोमेशन के चलते चलन से बाहर हो जाने की समस्या के बारे में पिछले कुछ समय से लगातार बोलते रहे हैं। कंपनी की तरफ से शुरू किया गया ‘ज़ीरो डिस्टेंस’ कार्यक्रम इसी सोच को बयां करता है। ग्राहकों के साथ संपर्क के स्तर पर ही आकार लेने वाले विचारों को फलने-फूलने का मौका देने के लिए यह कार्यक्रम शुरू किया गया है। कंपनी ने अपने कर्मचारियों के भीतर से करीब 300 लोगों की पहचान की है।
सिक्का ने इन्फोसिस के कर्मचारियों को नव वर्ष पर दिए अपने पहले बधाई संदेश में ही गंभीर चेतावनी दी थी। उन्होंने कहा था, ‘इस समय तकनीक के क्षेत्र में सबसे बड़ा गतिरोध ऑटोमेशन और कृत्रिम बुद्धिमत्ता के ज्वारीय उफान के चलते आ रहा है जो आसानी से तकनीकी नौकरियों को बेदखल कर सकते हैं। खुद को आगे रखने के लिए जरूरी है कि उन्हें अपने सपनों की दुनिया से बाहर निकलना चाहिए और महज मशीनी तौर पर अपना काम पूरा करने के बजाय उपभोक्ताओं के लिए अधिक मूल्यवान कार्य करने पर ध्यान देना होगा।’ सिक्का ने अपने संदेश में कहा था, ‘अगर हम संकीर्ण जगह में ही सिमटे रह गए, केवल लागत पर ही ध्यान देते रहे और कोई समस्या आने पर प्रतिक्रिया में ही समाधान तलाशते रहे तो हम बच नहीं पाएंगे।’ अब ज्यादा चर्चा बड़े डाटा और डाटा विश्लेषण की हो रही है जिसके चलते परंपरागत आईटी पेशेवरों और प्रबंधकों के सामने अपनी क्षमता का विस्तार करने या फिर नौकरी गंवाने की चुनौती खड़ी होने लगी है। अब यह पूरी तरह साफ हो चुका है कि हमारी दुनिया का डिजिटल रूपांतरण हो जाने से परंपरागत आईटी सेवा उद्योग गंभीर खतरे में आ चुका है।
ब्रिटेन के ऑक्सफर्ड मार्टिन स्कूल के कार्ल बेनेडिक्ट फ्रे और माइकल ए ऑजबर्न ने ‘द फ्यूचर ऑफ एम्प्लॉयमेंट’ शीर्षक से जारी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि अमेरिका में इस समय उपलब्ध नौकरियों में से करीब आधी नौकरियां अगले दो दशकों में ऑटोमेशन की वजह से खत्म हो जाएंगी। रिपोर्ट के अनुसार, ‘हमारा अनुमान है कि अमेरिका के कुल रोजगार का 47 फीसदी हिस्सा ऑटोमेशन के चलते गहरे खतरे में होगा। इसका मतलब है कि अनुषंगी कारोबार भी अगले एक या दो दशकों में ऑटोमेशन की जद में आ जाएंगे।’ उद्योगों में लगे रोबोट विवेक और निपुणता बढऩे से अब पहले से अधिक उन्नत होते जा रहे हैं। वे रोजमर्रा से अलग हटकर भी विस्तृत मानवीय गतिविधियों को अंजाम देने में सक्षम होंगे। तकनीकी क्षमता के लिहाज से देखें तो उत्पादन कार्यों में बड़े पैमाने पर लगे लोगों की नौकरी अगले एक दशक में लुप्त होने की आशंका है।लेकिन मुद्दा यह है कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता या ऑटोमेशन को रोका नहीं जा सकता है क्योंकि इससे कंपनियों को आकर्षक रिटर्न मिलता है और जो काम इंसान नहीं कर सकते हैं उन्हें भी इसके जरिये बखूबी अंजाम दिया जा सकता है। जैसे, बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप का आकलन है कि अमेरिका में एक वेल्डिंग कर्मचारी पर प्रति घंटे लागत रोबोटिक वेल्डर की तुलना में तिगुनी होती है। ऐसी स्थिति में कंपनियां उन्हीं लोगों को काम पर रखेंगी जिनके पास ऊंचे दर्जे के काम अंजाम देने की क्षमता होगी। भारत जैसे देश के लिए तो यह मामला और भी अधिक गंभीर है जहां एक करोड़ से भी अधिक लोग हर साल रोजगार की दौड़ में शामिल हो जाते हैं। सार्थक काम की बात छोड़ दीजिए, जब लोग अपनी नौकरी ही नहीं बचा पाएंगे तो उससे काफी गंभीर सामाजिक समस्याएं खड़ी हो सकती हैं। ऐसे में नौकरी की चाह रखने वालों के लिए अपनी काबिलियत बढ़ाने और नए सिरे से कौशल बढ़ाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।

Date:26-05-17

सामरिक साझेदारी

केंद्रीय मंत्रिमंडल ने रक्षा मंत्रालय की सामरिक साझेदारी नीति को मंजूरी दे दी है। इसके साथ ही उन छह भारतीय कंपनियों के चयन का मार्ग प्रशस्त हो गया है जो विदेशी निर्माता कंपनियों के साथ मिलकर हेलीकॉप्टर, विमान, पनडुब्बी और हथियारबंद वाहन बनाने का काम करेंगी। इस नीति का ब्योरा सार्वजनिक कर उसे रक्षा खरीद नीति 2016 में शामिल किया जाना है। मोटे तौर पर देखा जाए तो मंत्रालय इन साझेदारों के चयन में धीरेंद्र सिंह समिति (2015) और वी के अत्रे कार्यबल (2016) की अधिकांश अनुशंसाओं को मानने का इच्छुक है। ये साझेदार विदेशी कंपनी के साथ साझा उद्यम बनाएंगे और चार तय श्रेणियों में रक्षा मंत्रालय के निविदा जारी करने पर हथियार खरीद की प्रक्रिया में हिस्सा लेंगे। पिछले रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने इस सिलसिले में काफी पहल की और अब मौजूदा रक्षा मंत्री अरुण जेटली ने भी इस नीति को जल्द से जल्द लागू करने के संकेत दे दिए हैं। वायु सेना इस घटनाक्रम से प्रसन्न होगी। उसने पहले ही विश्वस्तरीय कंपनियों से संपर्क कर रखा है क्योंकि वह देश में ही एक इंजन वाले लड़ाकू विमान बनवाना चाहती है। नौसेना की छह पारंपरिक पनडुब्बी तैयार करने की मांग अब आगे बढ़ेगी और सेना को हथियारबंद वाहन और हेलीकॉप्टर की जरूरत पूरी करने में मदद मिलेगी।

लेकिन एक अनिश्चितता अब भी है। क्या जेटली द्वारा तेजी से आगे की जा रही इस नीति में रक्षा निर्माण भारत को स्थानांतरित करने की बात शामिल है। भारतीय कंपनियों तथा विदेशी साझेदारों के लिए एक अहम समस्या यह है कि भारत में उत्पादन करने वाले संयुक्त उद्यमों के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर 49 फीसदी की सीमा निर्धारित की गई है। विदेशी कंपनियों की शिकायत है कि यह सीमा उनको संयुक्त उद्यम में इस्तेमाल होने वाली तकनीक पर पूरा नियंत्रण नहीं देती। ऐसे में देश में उच्च तकनीकयुक्त उपकरण नहीं बन पाएंगे क्योंकि विदेशी कंपनियां उच्च तकनीक वाले घटक, सिस्टम्स आदि की आपूर्ति विदेश से करेंगी। भारतीय कंपनियां अलग वजह से दुखी हैं। उनकी शिकायत है कि 51 फीसदी की न्यूनतम हिस्सेदारी से उन पर सारा जोखिम आ गया है जबकि सारे पत्ते तो विदेशी साझेदार के हाथ में होंगे। यानी तकनीकी ज्ञान तो उनके पास होगा।
चिंता तो यह भी है कि नई सामरिक साझेदारी नीति बहुत संकीर्ण सोच वाली है। इसका लक्ष्य केवल यह नहीं होना चाहिए कि वह सिस्टम्स का एकीकरण करे। यानी विदेशों में बने उपकरणों और हथियारों को भारत में एक सैन्य प्लेटफॉर्म पर असेंबल करे। इसके बजाय नीति ऐसी होनी चाहिए कि भारत में रक्षा उपकरणों और हथियार के निर्माण का पूरा माहौल तैयार किया जा सके। इसमें पहली, दूसरी और तीसरी श्रेणी के आपूर्तिकर्ता, कलपुर्जे और अन्य सामान निर्माता सब शामिल हों। इसके अलावा बाद में रखरखाव, मरम्मत, सुधार और उनको उन्नत बनाने की पूरी व्यवस्था भी भारत में होनी चाहिए। फिलहाल इस नीति में यह सब शामिल नहीं है। न ही इसमें वैश्विक निर्माता कंपनियों की जटिल निर्माण शृंखला को स्थान दिया गया है। कई भारतीय रक्षा कंपनियों के अधिकारी मानते हैं कि भारतीय कंपनियों के बजाय उन विदेशी निर्माता कंपनियों को वरीयता दी जानी चाहिए। इसमें बहुलांश हिस्सेदारी और सहयोगी छोटे कारोबारियों से चर्चा आदि शामिल है। इसमें निर्माण का एक खास हिस्सा भारत में करने की शर्त होनी चाहिए। मंत्रालय यह सुनिश्चित कर सकता है कि संयुक्त उद्यम पर सामरिक नियंत्रण हो। वहां भी जहां बहुलांश हिस्सेदारी विदेशी साझेदार के पास हो।  इसमें केवल भारतीय कर्मचारियों का होना, इसका भारतीय धरती पर होना और भारतीय अधिकारियों द्वारा इसका संचालन होना मात्र यह तय कर सकता है। इस नीति को वैश्विक रक्षा उद्योग की हकीकत से वाकिफ होना चाहिए।

Date:26-05-17

सुधारों के सिलसिले ने बदली तस्वीर

भारत की व्यापक व जटिल प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार को लेकर साठ के दशक से ही चर्चा होती रही है। हाल के समय में देश में दो प्रशासनिक सुधार आयोग 1996 और 2005 में गठित किए गए। दोनों आयोगों ने अपनी रिपोर्ट पेश कीं, लेकिन उनकी कई सिफारिशों पर अब तक अमल नहीं हो सका। किंतु पिछले तीन वर्षों में ऐसी कई नई पहल की गई हैं, जिनसे पता चलता है कि सरकार प्रशासन में सुधार की गति को तेज करना चाहती है तथा प्रशासनिक व्यवस्था को अधिक कुशल, निर्णायक एवं समावेशी बनाना चाहती है। इनमें योजनाओं की परिणाममूलक निगरानी, उच्चतम स्तर पर परियोजनाओं में तेजी लाना, राज्यों में प्रतिस्पर्धा की भावना पैदा करना, मंत्रालयों के एकांगी रूप से काम करने की प्रवृत्ति को तोड़ना और सरकार में प्रतिभाओं का समावेश करना शामिल है।

पिछले तीन सालों में पहला महत्वपूर्ण सुधार यह हुआ है कि प्रशासनिक ध्यान इनपुट और आउटपुट से हटकर परिणाम पर केंद्रित हो गया है और उसकी समीक्षा और निगरानी स्वयं प्रधानमंत्री द्वारा की जा रही है। आम आदमी को प्रक्रिया, कार्यप्रणाली, समितियों के गठन आदि से कोई लेना-देना नहीं होता। उसे तो बस परिणाम चाहिए। स्वाभाविक तौर से जनकेंद्रित और सहभागितापूर्ण शासन व्यवस्था सृजित करने के लिए पहला कदम यही हो सकता है कि व्यवस्था को परिणामोन्मुख बनाया जाए। जहां सड़क परियोजनाओं का आकलन क्षमता, गतिशीलता, गुणवत्ता व सुरक्षा के पैमाने से किया जा रहा है, वहीं रेलवे के मामले में परिचालन अनुपात, यात्री और माल ढुलाई से होने वाली प्राप्ति, पूंजीगत व्यय, रेलवे स्टेशनों का पुनर्विकास और सुरक्षा उपायों को मुख्य पैमाना माना गया है। सुधारों के तहत ही पहली बार नीति आयोग द्वारा तैयार किया गया परिणाम आधारित बजट मुख्य बजट के साथ संसद में प्रस्तुत किया गया।

परिणाममूलक समीक्षाएं कई क्षेत्रों में की जा रही हैं। कुल बजट परिव्यय में 72 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखने वाले 15 बुनियादी ढांचा और सामाजिक क्षेत्रों की परियोजनाओं की समीक्षा की गई है। समीक्षा के बाद कई निर्णय भी लिए गए। जैसे वित्त वर्ष 2017 में रेलवे के शेयर को 33 प्रतिशत से बढ़ाकर 35 प्रतिशत करने का निर्णय लिया गया, ताकि 2032 तक इसे 50 प्रतिशत करने का लक्ष्य प्राप्त किया जा सके। सांस्थानिक सुधार के तहत भारतीय चिकित्सा परिषद की भी समीक्षा की गई है। समिति ने काफी बदलावों की सिफारिश करते हुए एमसीआई की जगह राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग बनाने का प्रस्ताव किया है, ताकि इंस्पेक्टर राज की पुरानी व्यवस्था समाप्त हो और चिकित्सा शिक्षा में बड़े सुधार किए जा सकें।

दूसरी महत्वपूर्ण पहल है ‘प्रगति यानी सक्रिय शासन और समयबद्ध क्रियान्वयन। इस पहल के तहत बुनियादी ढांचा व सामाजिक क्षेत्र की ऐसी महत्वपूर्ण परियोजनाओं पर प्रधानमंत्री के स्तर पर चर्चा और समीक्षा की जा रही है, जिनके अमल में दिक्कतें आ रही हैं अथवा जिनके पूरा होने में देरी हो रही है। ‘प्रगति की कई महत्वपूर्ण विशेषताएं हैं, जैसे यह चुनिंदा परियोजनाओं के सभी पक्षों को अपने विचार रखने और मुद्दों के समाधान के लिए मंच उपलब्ध कराता है, अधिकारियों को स्पष्ट और निश्चित समयसीमा के भीतर काम पूरा किए जाने के लिए जिम्मेदारियां सौंपता है, केंद्र और राज्यों को एक ही मंच पर लाकर विकास परियोजनाओं में तेजी लाता है। इससे मुख्य परियोजनाओं पर देश के शीर्ष अधिकारियों की निगरानी बनी रहती है। यह विभिन्न् सरकारी एजेंसियों के बीच के गतिरोध को भी खत्म करता है। इसके जरिए सर्वोत्तम कार्यशैलियों को साझा करना भी संभव हो पाता है। अब तक 18 ‘प्रगति बैठकें हो चुकी हैं और 8.31 लाख करोड़ रुपए से अधिक की राज्य परियोजनाओं की गति को तेज किया गया है। रेलवे, राष्ट्रीय राजमार्ग, बिजली, कोयला, नागर विमानन से जुड़ी ये परियोजनाएं पिछले कई वर्षों से देरी से चल रही थीं। इस पहल से विभिन्न् राज्यों की परियोजनाओं की गति में तेजी आई है। परियोजनाओं के अलावा 16 मंत्रालयों/विभागों के 38 अग्रणी कार्यक्रमों, योजनाओं और शिकायतों की भी समीक्षा की गई है। ‘प्रगति के लागू होने के बाद से अफगानिस्तान में सलमा बांध, पटना में गंगा पर रेल-सह-सड़क सेतु, भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण और भारतीय महापंजीयक के आधार नामांकन में काफी तेजी आई है। ‘प्रगति कई अर्थों में एक अनूठी व्यवस्था साबित हुई है। इसने केंद्र और राज्य के बीच दीवारों को तोड़ा है, परिणाम व लक्ष्य की ओर ध्यान केंद्रित किया है और क्रियान्वयन की निगरानी हेतु एक पारदर्शी मंच उपलब्ध कराया है।

तीसरा प्रमुख प्रशासनिक सुधार रैंकिंग के जरिए राज्यों और जिलों के बीच प्रतिस्पर्धा की भावना जगाने का है। व्यवसाय करने की सुगमता की दृष्टि से राज्यों की रैंकिंग के फलस्वरूप राज्य सरकारों ने मूलभूत सुधार करने शुरू कर दिए हैं। प्रतिस्पर्धा के दबाव ने तेलंगाना, झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे नए राज्यों को तेजी से आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया है। स्वच्छ भारत पहल के तहत स्वच्छता की दृष्टि से जिलों की रैंकिंग का भी बड़ा प्रभाव पड़ा है। इसने नगर निकायों के स्तर पर बदलाव को प्रोत्साहित किया है।

चौथा मुख्य सुधार सचिवों के समूहों का गठन करना रहा है। पिछले वर्ष विभिन्न् विषयों पर आठ ‘सचिव समूहों का गठन किया गया था। इन समूहों को संयुक्त सचिवों के इसी प्रकार के समूहों द्वारा सहायता प्रदान की गई। इन समूहों का एक अनूठा पहलू यह था कि इनमें ऐसे वरिष्ठ अधिकारियों को शामिल किया गया जिनके विभाग इन विषयों से सीधे संबंधित नहीं थे। इसने रचनात्मक विचारों को प्रोत्साहित किया। इस वर्ष इन समूहों को अपनी सिफारिशों को क्रियान्वित कराने का दायित्व सौंपा गया है।

जब तक मनोवृत्तियां नहीं बदलतीं तब तक सुधार संभव नहीं होता। नए चिंतन और नवोन्मेषी विचारों को लाने के लिए अनेक पहल की रूपरेखा तैयार की गई है। संसाधनों के आवंटन पर ध्यान केंद्रित करने वाले योजना आयोग को समाप्त करने, 1175 पुराने कानूनों को खत्म करने, रेल और संघीय बजट को मिलाने जैसे सभी कदम भारत को व्यवसाय करने की दृष्टि से सरल और सुगम स्थान बनाने और शासन की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए उठाए गए हैं। वार्षिक बजट में योजनागत और गैर-योजनागत व्यय के बीच भेद को समाप्त करने जैसे उपायों से राजस्व घाटे को कम करने की बजाय पूंजीगत व्यय को बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करने में मदद मिलेगी और इसके नतीजतन राजकोषीय घाटे को कम करने की प्रक्रिया में तेजी आएगी। सुधारों के तहत ही निजी क्षेत्र के प्रतिभाशाली युवाओं को सरकार के माध्यम से सार्थक बदलाव लाने का मौका देने की भी शुरुआत की गई है। ऐसे अनेक युवाओं ने डिजिधन मेलों में अपना योगदान दिया था। हालांकि इन सभी सुधारों का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देने में समय लग सकता है, लेकिन उनकी दिशा सही और गति तेज है।


Date:25-05-17

इन मंदिरों से सीखें पर्यावरण संरक्षण का पाठ

यह परंपरा भी है और संस्कार भी। जयपुर के ताड़केश्वर मंदिर की खासियत है कि यहां शिव लिंग पर चढ़ने वाला पानी नाली में बहाने की बजाय चूने से बने कुंड परवंडी के जरिये धरती के अंदर इकट्ठा किया जाता है। यह प्रक्रिया उस इलाके में भूजल-संतुलन का बड़ा जरिया है। संभव है कि प्राचीन परंपरा में शिव लिंग पर जल चढ़ाने का असली मकसद इसी तरह भविष्य के प्रकृति-प्रकोप के हालात में जल को सहेजकर रखना हुआ करता हो। उस काल में मंदिरों में नाली तो होती नहीं थी। यह एक सहज प्रयोग है और बहुत कम खर्च में शुरू किया जा सकता है। यदि दस हजार मंदिर इसे अपना लें और हर मंदिर में औसतन 1,000 लीटर पानी रोजाना चढ़ाया जाता हो, तो कल्पना कीजिए, कितना पानी संरक्षित किया जा सकेगा।

जयपुर के इस मंदिर के बारे में मान्यता है कि यहां शिव जी की प्रतिमा भूमि के भीतर से अवतरित हुई है। चौड़ा रास्ता स्थित इस मंदिर का निर्माण 1784 ईस्वी में हुआ था। शायद इसी मंदिर से प्रेरणा लेकर जयपुर के ही एक ज्योतिषी और सामाजिक-कार्यकर्ता पंडित पुरुषोत्तम गौड़ ने पिछले 13 वर्षों में राजस्थान के करीब 300 मंदिरों में जल संरक्षण का ढांचा विकसित किया है। समाज सेवा और ज्योतिष के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए गौड़ को कई सम्मान मिल चुके हैं। गौड़ ने वर्ष 2000 में अपना जलाभिषेक अभियान शुरू किया था। वह मंदिरों में 30 फीट गहरा गड्ढा बनवाते हैं और शिवलिंग से आने वाले पानी को रेत के फिल्टरों से गुजारकर जमीन में उतारते हैं। इसके अलावा प्रतिमाओं पर चढ़ाए जाने वाले दूध को भी जमा करने के लिए पांच फीट के गड्ढे की अलग से व्यवस्था है। हिसाब लगाया गया था कि शहर में 300 से ज्यादा मंदिर हैं, जहां श्रावण महीने में रोजाना कम से कम 4.5 करोड़ लीटर जल भगवान शिव और अन्य देवी-देवताओं पर अर्पित किया जाता है। इस प्रक्रिया से जल-संरक्षण तो हुआ ही, मंदिरों के आसपास रहने वाली कीचड़ और गंदगी से भी छुटकारा मिला।

ऐसा ही प्रयोग लखनऊ  के सदर स्थित द्वादश ज्योतिर्लिंग मंदिर में भी हुआ है। यहां भगवान शंकर के जलाभिषेक का जल नालियों की बजाय सीधे जमीन के अंदर जाता है। कोई 160 साल पुराने इस मंदिर का वर्ष 2014 में जीर्णोद्धार किया गया।12 ज्योतिर्लिंग की स्थापना उनके मूल स्वरूप के अनुसार की गई है। यहां करीब 40 फीट गहरे सोख्ते में सिर्फ अभिषेक का जल जाता है, जबकि दूध और पूजन सामग्री का अलग इस्तेमाल किया जाता है। बेल-पत्र और फूलों को एकत्रित करके खाद बनाई जाती है। चढ़ाए गए दूध से बनी खीर का वितरण प्रसाद के रूप में होता है। यहीं मनकामेश्वर मंदिर में भी सोख्ता बनाया गया है और चढ़ावा के फूलों से अगरबत्ती बनाई जाती है, बेल-पत्र और अन्य पूजन सामग्री से खाद। बड़ा शिवाला और छोटा शिवाला में  चढ़ावा के दूध की खीर भक्तों में वितरित होती है और जल को भूमिगत किया जाता है।

मध्य प्रदेश के शाजापुर जिला मुख्यालय पर प्रसिद्ध मां राजराजेश्वरी मंदिर में चढ़ने वाले फूल अब व्यर्थ नहीं जाते। इनसे जैविक खाद बनाई जा रही है। इसके लिए केंचुए लाए गए हैं। आसपास के किसान इस खाद का खूब इस्तेमाल कर रहे हैं। ये फूल अब न तो गंदगी फैलाते हैं, न नदी प्रदूषित करते हैं। मंदिर प्रांगण में वर्मी कम्पोस्ट तैयार करने के लिए चार टैंक बनाए गए हैं, जिनका वैज्ञानिक इस्तेमाल खाद बनाने में होता है। यहां तैयार होने वाली जैविक खाद में पोषक तत्वों और कार्बनिक पदार्थों के अलावा मिट्टी को उर्वरित करने वाले सूक्ष्म जीवाणु भी बहुतायत में होते हैं, जो मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ाने में खासे कारगर साबित हुए हैं। मंदिर में चढ़ाए गए फूलों को खाद में बदलने का काम दिल्ली के मशहूर झंडेवालान मंदिर में भी हो रहा है। इसके अलावा वाराणसी, देवास, ग्वालियर, रांची के पहाड़ी मंदिर सहित कई स्थानों पर चढ़ावे के फूल-पत्ती को कम्पोस्ट में बदला जा रहा है। अब जरूरत है कि मंदिरों में पॉलिथीन थैलियों के इस्तेमाल और प्रसाद की बर्बादी पर रोक लगे। इसके साथ ही शिवलिंग पर दूध चढ़ाने की बजाय उसे अलग से एकत्र करके जरूरतमंद बच्चों तक पहुंचाने की व्यवस्था भी की जाए। इसके व्यापक सामाजिक परिणाम मिलेंगे।


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