12-07-2019 (Important News Clippings)
To Download Click Here.
Date:12-07-19
Tamil Nadu’s bold initiative on water
ET Editorials
It is commendable that Tamil Nadu plans to build 10,000 check dams this fiscal along floodplains, water channels and streams, to shore up storage, recharge groundwater and deal with its current water crisis. India mismanages its water more than it is short of water, with the result that nearly half the population nationwide faces high to extreme water stress. The way ahead is to boost storage, recharge aquifers, economise usage, recycle, adopt realistic water pricing, and better allocate resources for upkeep and maintenance of water systems.
The water availability of a region or nation is largely determined by hydro-meteorological and geological factors, and the utilisable availability from annual precipitation is well above our requirement. But as Prime Minister Narendra Modi said in his radio talk, we have storage capacity for barely 8% of annual rainfall. And, what is worse, due to general neglect of maintenance in water storage and supply, the effective holding capacity is likely to be still lower. Further, rapid urbanisation and rising variability in rainfall patterns make it imperative that we transparently manage water resources nationally.
Some 80-90% of our water need is on account of agriculture, but there is no reason why water demand for the main crops here remains three-to-five times the global norms. Hence the pressing need for demand-side management, less-water intensive seeds, efficient pricing of irrigation water, and aligning cropping patterns with agro-climatic conditions. In tandem, we need stepped-up supply-side measures to treat urban sewage and duly recycle water. Our cities produce some 40,000 million litres of sewage daily but barely 20% is treated. Urban water rates are too low to induce conservation. This, and attendant governance across states need reform.
Date:12-07-19
देश की राजनीति में नैतिक पतन की नई ऊंचाई
संपादकीय
नैतिक पतन के कई स्वरूप होते हैं – व्यक्तिगत, संस्थागत या सामूहिक। व्यक्तिगत पतन ‘मान्य’ लोगों की सलाह या स्व-विवेक से रोका जा सकता है, संस्थागत पतन कानून बनाकर लेकिन, चूंकि प्रजातंत्र में संख्या देखी जाती है, लिहाज़ा सामूहिक पतन रोकना बेहद दुरूह होता है। भारत के राजनीतिक वर्ग में सामूहिक पतन के लक्षण आज़ादी के दो दशक बाद ही दिखने लगे थे, जब कांग्रेस का वर्चस्व तोड़कर दस राज्यों में गैर-कांग्रेस ‘संविद’ (संयुक्त विधायक दल) सरकारें बनीं। लेकिन बनने के दो साल में ‘आयाराम- गयाराम’ की संस्कृति इतनी बुलंद हुई कि कुछ विधायक सुबह एक दल में होते तो शाम को दूसरे दल में। इसी तरह कर्नाटक के विधानसभा चुनाव ने जनमत की कोख से एक विकृत शिशु पैदा किया। जो दल सबसे बड़ा था वह सरकार नहीं बना सका और दो अन्य दलों ने ‘पूर्ण बहुमत’ के नाम पर मिलकर सरकार बनाई। अचानक कुछ विधायकों को ‘ब्रह्मज्ञान’ मिला है कि जिस पार्टी से वे चुनकर आए हैं उसकी या उसकी सरकार की नीतियां गलत हैं और उन्हें दल बदलना चाहिए। फ़ौरन उनका स्वागत करने के लिए ‘ग्राही’ दल अपने किसी धनपशु नेता से विमान और होटल का इंतजाम कराता है और फिर शुरू होता ‘धन-बल’ या ‘पद-बल’ का एक अनंत नाटक। पतन की ऊंचाई तब ज्यादा स्पष्ट होती हैं, जब पहले दल का भी धन-पशु उनसे ‘रिसोर्टनुमा’ बाड़े में मिलने जाता है और इन विधायकों के ब्रह्मज्ञान का लाभ हासिल करने वाला दल अपनी राज्य सरकार की पुलिस को ताकीद करता है कि ‘ब्रह्मज्ञान में लीन’ विधायकों की तपस्या भंग करने वाले को बलपूर्वक बाहर करो। उत्तराखंड में भी इस ‘चुनावोपरांत’ मिलने वाले ब्रह्मज्ञान को हमने देखा। अति तो तब हुई जब बिहार में जनता दल (यू) ने जिस दल के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था उसे ठेंगा दिखाकर जिस दल के खिलाफ आग उगली थी उसके साथ सरकार बना ली। इस सरकार को भी फिर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 3 के तहत संविधान में निष्ठा और शुद्ध अंतःकरण से कर्तव्यों के निर्वहन की शपथ दिलाई गई। कर्नाटक में भी स्पीकर के ज्ञान या अदालत के आदेश पर फिर एक सरकार बनेगी और ‘शुद्ध अंतःकरण’ से प्रदेश की जनता की ‘सेवा’ करेगी नए ब्रह्मज्ञान के बाद। प्रसाद के रूप में किसी राष्ट्रवादी भाजपा या किसी 130 साल पुरानी कांग्रेस या किसी क्षेत्रीय दल को भी सत्ता सुख मिलेगा। देश का प्रजातंत्र चलता रहेगा।
Date:12-07-19
सोशल मीडिया पर निगरानी
संपादकीय
जानकारी के मुताबिक मानव संसाधन विकास मंत्रालय यह सुनिश्चित करने का प्रयास कर रहा है कि उसके नियंत्रण में आने वाले करीब 900 उच्च शिक्षण संस्थान सकारात्मक सोशल मीडिया प्रोफाइल तैयार करें। इससे यह संकेत मिल सकता है कि मंत्रालय की प्राथमिकताएं सही नहीं हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि मंत्रालय का काम एक ऐसे अहम क्षेत्र का प्रबंधन करना है जहां सीमित संसाधनों के साथ ढेरों समस्याएं मुंह बाये खड़ी हैं। बहरहाल, सोशल मीडिया संबंधी पहल में एक परेशान करने वाली बात यह है कि इसकी अनुशंसाओं में उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे करीब तीन करोड़ छात्रों से यह कहना भी शामिल है कि वे अपने सोशल मीडिया खातों को अपने संस्थान के खाते से जोड़ें। इससे तमाम छात्र व्यापक निगरानी ढांचे के शिकार हो सकते हैं। इसके साथ ही निजता भंग होने की आशंका भी प्रबल हो जाएगी।
हाल ही में उच्च शिक्षा संस्थानों को जारी पत्र में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के सचिव ने यह अनुशंसा की है कि प्रत्येक उच्च शिक्षा संस्थान अपने कर्मचारियों में से एक को सोशल मीडिया प्रमुख के रूप में नियुक्त करे। यह व्यक्ति फेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम पर संस्थान की प्रोफाइल की देखरेख करेगा। यह व्यक्ति हर सप्ताह संस्थान के बारे में कुछ सकारात्मक खबर भी जारी करेगा और मंत्रालय तथा अन्य उच्च शिक्षण संस्थानों की प्रोफाइल के साथ लिंक करने के बाद रीट्वीट करने, सकारात्मक पोस्ट का प्रसार करने इन संस्थानों की अन्य अच्छी खबरों का प्रसार करने का काम करेगा। इस व्यक्ति की तलाश 31 जुलाई तक की जानी है। यही व्यक्ति छात्रों से यह अनुरोध करेगा कि वे अपने सोशल मीडिया खाते को संस्थान के प्रोफाइल के साथ जोड़ें। छात्रों से भी कहा जाएगा कि वे उच्च शिक्षण संस्थानों के बारे में सकारात्मक खबरों का प्रचार प्रसार करें। द क्विंट द्वारा जानकारी चाहे जाने पर मंत्रालय ने कहा कि छात्रों के खातों को लिंक करने का काम स्वैच्छिक होगा। व्यवहार में देखा जाए तो छात्रों और संस्थानों के बीच का सत्ता समीकरण ऐसा है कि अनुरोध की जगह यकीनन निर्देश ले लेगा।
संभव है कि छात्रों के ट्विटर, फेसबुक या इंस्टाग्राम खातों को बिना उनकी निजी जानकारी हासिल किए भी संस्थान के साथ जोड़ा जा सके लेकिन तब भी मंत्रालय को बहुत बड़े पैमाने पर डेटा विश्लेषण करना होगा। इससे सोशल मीडिया इस्तेमाल करने वालों की गोपनीयता समाप्त हो जाएगी क्योंकि उनके खाते उनकी पहचान और संस्थान के नाम के साथ नजर आएंगे। सरकार की आलोचना करने पर आमतौर पर सरकार समर्थक ट्रोल (सोशल मीडिया पर किसी के पीछे पड़ जाने वाले) हमलावर हो जाते हैं और कुछ मामलों में तो आलोचकों को गिरफ्तार तक किया गया है, ऐसे में यह गंभीर मसला है। अगर सोशल मीडिया की निगरानी शुरू हो गई तो जो छात्र असहमति जताते हैं, उन्हें कई तरह से इसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है। जाहिर है इसका अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बहुत गहरा असर पड़ सकता है। छात्रों को सकारात्मक पोस्ट को बढ़ावा देने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा लेकिन उन्हें यह भी पता होगा कि मंत्रालय उनकी पोस्ट पढ़ रहा है। इसके अलावा ऐसे लिंक खातों का डेटाबेस चुनावों को प्रभावित करने की मंशा रखने वाले किसी भी संस्थान के लिए सोने की खान हो सकता है। मंत्रालय की गतिविधियों को बढ़ावा देने तथा अच्छी खबर के प्रसार के अन्य तरीके भी हैं। उदाहरण के लिए मंत्रालय आसानी से सकारात्मक प्रतिपुष्टि और टिप्पणियों की ऑनलाइन व्यवस्था कर सकता है। सोशल मीडिया खाते लिंक करने की राय प्रतिगामी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन है। सोशल मीडिया पर लोग एक दूसरे से अनौपचारिक बातचीत करते हैं, मंत्रालय को इतने बड़े पैमाने पर उसकी निगरानी करके सकारात्मक सोशल मीडिया प्रोफाइल नहीं तैयार करनी चाहिए।
Date:11-07-19
ताकि मिले बढ़ती आबादी का फायदा
विश्व जनसंख्या दिवस पर देश की आबादी के बदलते स्वरुप , उसके तत्काल और दूरगामी प्रभाव व नई चुनौतियों की चर्चा
सुरेश शर्मा, (प्रोफेसर और प्रमुख पॉपुलेशन रिसर्च सेंटर)
देश-दुनिया की तमाम सरकारों और नीति-निर्माताओं के लिए आज यह याद करने का दिन है कि जनसंख्या और उससे जुड़े मसलों का हल उनकी विकास-नीतियों के मूल में होना चाहिए। भारतीय संदर्भ में देखें, तो 1920 के दशक तक हमारे हिस्से में अत्यधिक जन्म-दर और मृत्यु-दर रही है, पर उसके बाद से इसमें लगातार गिरावट देखी गई। जन्म-दर, मृत्यु-दर और जनसंख्या वृद्धि का परस्पर संबंध किसी देश की जनसंख्या का स्वरूप तय करता है। यह बदलाव विभिन्न सामाजिक-आर्थिक, राजनीतिक और तकनीकी कारणों से संभव होता है। भारत में मृत्यु और जन्म-दर में कमी की कई वजहें रहीं। मसलन, लोगों के नजरिए में आया बदलाव, सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की सुधरती हालत, राजनीतिक स्थिरता, पोषण में सुधार, गर्भ-निरोधक उपायों का प्रचार-प्रसार, मेडिकल सुविधाओं में बेहतरी, परिवार नियोजन कार्यक्रम आदि। इन्हीं सब कारणों से देश में धीमी जनसंख्या वृद्धि संभव हो पाई। हाल की ‘सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम (एसआरएस) स्टैटिस्टिकल रिपोर्ट 2017’ के मुताबिक तो देश में जन्म-दर 20.2 है, जबकि शहरी भारत में 16.8। इसी तरह, भारत की मृत्यु-दर 6.3 है, जबकि शहरी क्षेत्रों में यह आंकड़ा 5.3 ही है।
बेशक भारत की जनसंख्या को लेकर कई तरह की सकारात्मक बातें कही जाती हैं, लेकिन उन सबमें ‘जनसांख्यिकी लाभांश’ को छोड़कर बाकी सब महत्वहीन हैं। जनसांख्यिकी लाभांश दरअसल वह स्थिति है, जब जनसंख्या पिरामिड में आर्थिक रूप से सक्रिय आबादी की संख्या आश्रित आबादी (बच्चे और बुजुर्ग) से अधिक हो। नया आर्थिक सर्वेक्षण यही बताता है कि देश अपने जनसांख्यिकीय लाभांश का कई तरह से फायदा उठा सकता है। लेकिन जैसा आप बोते हैं, वैसा ही काटते हैं। इसीलिए यदि भारत अपने जनसांख्यिकीय लाभांश का अधिकतम लाभ उठाना चाहता है, तो उसे मानव पूंजी में अच्छा-खासा निवेश करना होगा। मगर इसका यह अर्थ भी नहीं कि देश के सभी हिस्सों में इसका समान रूप से लाभ मिलेगा। इसमें क्षेत्रवार अंतर हो सकता है। लेकिन हां, इसका लाभ मिलेगा जरूर।
फिलहाल, कुल प्रजनन-दर में गिरावट के साथ-साथ जनसंख्या पिरामिड का आधार भी सिकुड़ रहा है। इसका अर्थ है कि देश फिर से जनसांख्यिकीय लाभांश का गवाह बन सकता है। अनुमान है कि साल 2041 तक देश की कुल आबादी में 58.9 प्रतिशत हिस्सा 20-59 आयु वर्ग के लोगों का होगा। इसके कई पहलू होंगे। जैसे, हमें कहीं अधिक रोजगार के अवसर पैदा करने होंगे, शारीरिक के साथ-साथ गुणवत्तापूर्ण मानसिक स्वास्थ्य मुहैया कराने होंगे, श्रम बल में अधिकाधिक भागीदारी के साथ-साथ महिलाओं को स्वायत्तता देनी होगी और श्रम कानूनों में सुधार करना होगा। यानी, सरकारों को इस रूप में सक्रिय होना होगा कि वह वक्त सिर्फ जनसांख्यिकीय परिघटना का नहीं, बल्कि एक ऊर्जावान और आकांक्षी जनसांख्यिकीय लाभांश का गवाह बने।
बुजुर्ग होती आबादी का बढ़ना भारत की एक अन्य सच्चाई है। इसको लेकर कारगर नीति बनाने की जरूरत है। बुजुर्ग आबादी की जरूरतों को पूरा करने, उन्हें जरूरी सामाजिक सुरक्षा देने और उनसे जुड़े तमाम मसलों के निपटारे के लिए देश को तैयार होना होगा। अभी भारत में 60 या उससे अधिक उम्र के लोगों की संख्या 10.42 करोड़ है। साल 2041 तक इसके 23.94 करोड़ होने का अनुमान है। साफ है, आने वाले दशकों में जनसंख्या के लिहाज से भारत की वही स्थिति होगी, जो अभी चीन की है।
सुखद बात है कि आर्थिक सर्वेक्षण में इस बाबत तीन महत्वपूर्ण नीतियों का जिक्र किया गया है। पहली, प्राथमिक शिक्षा पर खास ध्यान इस सोच के साथ दिया गया है कि स्कूल जाने वाले विद्यार्थियों की संख्या में गिरावट आने से स्कूल गैर-उत्पादक हो जाएंगे और संसाधनों की बर्बादी होगी। नामांकन घटने से दुनिया भर में स्कूल बंद हुए हैं, और यह खासतौर से उन देशों की सच्चाई है, जो अभी बुजुर्ग होती अधिकाधिक आबादी का सामना कर रहे हैं। लिहाजा सर्वशिक्षा अभियान की शुरुआत बेशक देश के शैक्षणिक ढांचे की कमी को दूर करने के उद्देश्य से हुई थी, लेकिन अब इसमें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा-व्यवस्था को शामिल करना होगा। यदि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा व्यवस्था के संकेतकों में सुधार नहीं हो रहा, तो स्कूलों की संख्या बढ़ाने का कोई औचित्य नहीं है। आंकड़े भी यही बताते हैं कि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में प्राथमिक स्कूलों की संख्या भले ही काफी अधिक हो, लेकिन छात्रों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मुहैया कराने में वे नाकाम रहे हैं।
देश के प्रमुख राज्यों में 5-14 आयु वर्ग की संख्या में अनुमानित गिरावट का भी यही संकेत है कि वहां स्कूलों में कम नामांकन हो रहा है। ऐसी सूरत में, प्रत्येक स्कूल में बच्चों की संख्या अपेक्षाकृत कम होगी। इससे या तो कुछ शिक्षण संस्थान मिलकर एक हो जाएंगे या फिर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सेवा की उपलब्धता बेहतर होगी। सरकारों को ऐसे जिलों की पहचान करनी होगी, जहां एक से तीन किलोमीटर के दायरे में मौजूद स्कूलों में नामाकन दर अधिक होने के बाद भी कक्षा में 50 से कम बच्चे हैं। इन स्कूलों का भार उन्हें उठाना होगा। यह स्कूलों के मजबूत एकीकरण को बढ़ावा देगा, जिससे संसाधनों के संतुलित वितरण में आसानी होगी और स्कूलों में छात्रों की आमद भी प्रभावित नहीं होगी।
आने वाले दशकों में ‘बुजुर्ग देश’ की चुनौतियों से पार पाने के लिए हमें सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की कमी को भी तत्काल दूर करना होगा। भारत ने कई विशिष्ट कार्यक्रमों के कारण मातृ और बाल स्वास्थ्य के क्षेत्र में शानदार नतीजा हासिल किया है। लिहाजा, अब प्रौढ़ आबादी की देखभाल संबंधी योजनाओं में न सिर्फ निवेश किए जाएं, बल्कि स्वास्थ्य सेवाओं तक उनकी सम्मानजनक पहुंच सुनिश्चित की जाए। वैसे बुजुर्गियत से पार पाने का एक रास्ता सेवानिवृत्ति की आयु में वृद्धि भी है। सही रूपरेखा के साथ इस बदलाव का स्वागत किया जा सकता है। जीवन प्रत्याशा में बढ़ोतरी कई देशों में सेवानिवृत्ति आयु में वृद्धि की मुख्य वजह रही है। लिहाजा यह कहना गलत नहीं होगा कि जनसंख्या के मौजूदा परिदृश्य में जनसांख्यिकी लाभांश और
बुजुर्ग होती आबादी ही हमारे विकास के दो ऐसे चरमराते पहिए हैं, जिनको सबसे अधिक ग्रीस यानी चिकनाई की जरूरत है।
Date:11-07-19
गुणवत्ता बढ़े आबादी की
प्रो,आर.बी. सिंह, (भूगोल विभागाध्यक्ष, दिल्ली विश्वविद्यालय)
भारत में 35 करोड़ 56 लाख लोग 24 वर्ष की आयु होने के कारण विश्व में युवाओं की सर्वाधिक संख्या भारत में है। समय आ गया है कि हम युवाओं को शिक्षा एवं स्वास्य सुविधा मुहैया करा के जनसंख्या की गुणवत्ता को बढ़ाते हुए जनांकियीय दबाव से उबरते हुए लाभ की ओर बढ़ें। इसके लिए स्वच्छ भारत, उज्ज्वला योजना, मेक इन इंडिया तथा स्केलिंग इंडिया (कौशल विकास) जैसी महत्त्वाकांक्षी योजनाएं अहम योगदान दे सकती हैं
प्रजनन स्वास्य एवं लिंग समानता जनसंख्या गुणवत्ता और सतत विकास के मुख्य आधार हैं। कुछ समय पहले जनसंख्या के चौंकाने वाले आंकड़े आए हैं। विश्व की जनसंख्या 7.6 बिलियन (अरब) है, जो 1800 में 1 बिलियन थी। अनुमान है कि 2030 के मध्य में यह 8.6 बिलियन और 2050 में 9.8 बिलियन हो जाएगी। आने वाले आठ सालों में भारत की आबादी चीन से भी अधिक हो जाएगी। जब हम प्रजनन दर विश्व के रेश्यो में देखते हैं तो वह 3.2 प्रति बच्चा प्रति स्त्री 1990 में था। 2019 में 2.5 में हो गया। 2050 में 2.2 होने का अनुमान है।
भारत के संदर्भ में प्रति स्त्री प्रजनन दर 2.2 है। संयुक्त राष्ट्र संघ 25 सितम्बर, 2015 के बाद सतत विकास की परिकल्पना लाया, उसमें जनसंख्या वृद्धि महत्त्वपूर्ण बाधक है। इसमें ध्यान देने वाली बात है कि जो गरीब देश हैं, वहां जनसंख्या वृद्धि तेजी से हो रही हैं। इनमें भारत, चीन, नाईजीरिया, पाकिस्तान, इथोपिया, कांगो, तंजानिया, इंडोनेशिया और मिस महत्त्वपूर्ण देश हैं। इन देशों में जनसंख्या वृद्धि गरीबी दूर करने, समानता लाने, भूख और पोषण खत्म करने और स्वास्य एवं शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने में मुख्य बाधक हैं। जीवन प्रत्याशा भी विश्व औसत से 7 साल कम है। इसमें एक महत्त्वपूर्ण कारण स्वास्य पर कम खर्च किया जाना है। भारत में सबसे कम खर्च स्वास्य पर है। 1994 में जनसंख्या व विकास पर विश्वस्तरीय कांफ्रेंस, जो काहिरा में हुआ था, में दो मुख्य विषय लिंग समानता तथा प्रजनन स्वास्य उभरकर आया।
लिंग समानता स्त्रियों के सशक्तिकरण तथा उनकी गरिमा से जुड़ा हुआ मसला है। शिशु मृत्यु दर का 1950 से विश्लेषण करें तो विश्व के हरेक क्षेत्रों में यह कम ही हुआ है। लेकिन दक्षिण एशिया, जिसमें भारत सम्मिलित है, में अभी भी काफी ज्यादा है। जनांकिकीय परिवर्तन में भौगोलिक विभिन्नताएं हैं। दक्षिण भारतीय राज्य केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में यह बदलाव तेजी से हो रहा है, जबकि बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान में बहुत धीमी गति से। एक और ध्यान देने वाली बात यह है कि भारत में 35 करोड़ 56 लाख लोग 24 वर्ष की आयु होने के कारण विश्व में युवाओं की सर्वाधिक संख्या भारत में है। उसके बाद चीन (26 करोड़), इंडोनेशिया (67 लाख), अमेरिका (65 लाख) आदि आते हैं। समय आ गया है कि हम युवाओं को शिक्षा एवं स्वास्य सुविधा मुहैया करा के जनसंख्या की गुणवत्ता को बढ़ाते हुए जनांकियीय दबाव से उबरते हुए लाभ की ओर बढ़ें। इसके लिए स्वच्छ भारत, उज्ज्वला योजना, मेक इन इंडिया तथा स्केलिंग इंडिया (कौशल विकास) जैसी महत्त्वाकांक्षी योजनाएं अहम योगदान दे सकती हैं। यदि हम विश्व के बहुत गरीब 10 देशों को लें तो उनमें भारत का प्रथम स्थान है। इसलिए हम प्रजनन स्वास्य तथा लिंग समानता में सुधार लाकर महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं। जब हम प्रजनन स्वास्य की बात करते हैं, तो एक आंकड़ा उद्धृत करना आवश्यक है कि करीब 23 फीसद एडोलसेंस (13 से 19 साल के युवा) वो प्रजनन तथा बच्चे के जन्म से जुड़ीं बीमारियों से संबंधित हैं।
भारत में कम उम्र में बच्चा पैदा करने के कारण मातृत्व मृत्यु दर काफी ज्यादा है तथा युवा स्त्रियों में अवैध तथा असुरक्षित अबॉर्शन की समस्या अभी बनी हुई है। प्रति वर्ष 22 मिलियन असुरक्षित अर्बाशन होता है। इसमें 15 फीसद युवतियां, जिनकी उम्र 15-19 साल है-तथा 26 फीसद 20-24 साल के हैं। दो बच्चों के बीच में गैप अभी भी काफी कम है, जिसे हमें जागरूकता द्वारा बढ़ाने का प्रयास करना पड़ेगा। कुछ सव्रे के अनुसार ग्रामीण भारत में युवा महिलाएं परिवार नियोजन, प्रजनन आदि के बारे में कभी बात नहीं करतीं। करीब चालीस प्रतिशत अपने पति तथा सास से कभी-कभी परिवार नियोजन के बारे में बात कर लेती हैं। शादी के बाद अपने घर भी जाने की बारंबारता बहुत ही कम है। इसलिए अपनी सहेलियों से भी बात करने का काफी कम मौका मिलता है। भारत तथा कई विकासशील देशों ने परिवार नियोजन तथा प्रजनन स्वास्य पर कई योजनाएं चलाई है। मगर एक अनुमान के अनुसार करीब विकासशील देशों में 225 मिलियन औरतों को परिवार नियोजन की आवश्यकता की पूर्ति नहीं हो पाती। इसमें वित्तीय तथा स्वीकृति न मिलना, स्टिग्मा आदि प्रमुख कारण हैं। परिवार नियोजन की आवश्यकता पूरी न हो पाने से 74 मिलियन अनियोजित गर्भधारण होता है। 28 मिलियन करीब अनियोजित बच्चे पैदा होते हैं। इसके साथ ही 36 मिलियन सालाना गर्भपात होते हैं।
जरूरी है कि भारत, इंडोनेशिया, नाइजीरिया आदि परिवार नियोजन तथा प्रजनन स्वास्य पर अधिक ध्यान दें। एक अनुमान के अनुसार यदि 9.4 बिलियन डॉलर हम वार्षिक खर्च आधुनिक कंट्रासेप्टिव्स पर खर्च करें तो अप्रत्याशित गर्भधारण 70 फीसद कम कर सकते हैं। 74 फीसद असुरक्षित गर्भपात कम कर सकते हैं, 25 फीसद मातृत्व मृत्यु कम कर सकते हैं और 18 प्रतिशत शिशु मृत्यु कम कर सकते हैं। यदि हम स्त्रियों की कंट्रासेप्टिव्स आवश्यकता पूरी कर दें तो असुरक्षित गर्भपात 20 मिलियन से कम होकर 5 मिलियन पर आ जाएगा। मातृत्व मृत्यु जो असुरक्षित गर्भपात से होती हैं, 22 हजार से 4200 रह जाएगी। पोषण तथा प्रजनन स्वास्य में भी गहरा संबंध है। यूएनएफपीए भारत को 1984 में संपन्न आईसीपीडी में तैयार समग्र रणनीति को कार्यान्वित करने में सहयोग कर रहा है। जनसंख्या और विकास को अलग करके नहीं देखा जा सकता। जनांकियीय लाभ के लक्ष्यों की पूर्ति के लिए भारत में महिला सशक्तिकरण के साथ-साथ शिक्षा और स्वास्य में ध्यान देने की जरूरत है। यहां तक कि पर्वतीय क्षेत्रों में स्त्री और बच्चे एनीमिया तथा कम वजन से ग्रसित हैं।
इसके लिए मिड डे मिल योजना काफी प्रभावित हो रही है। अभी भी विश्व में 1.4 बिलियन लोग कृषि पर आश्रित हैं, अत: फूड प्रोसेसिंग को कारगर रूप से लागू करने के लिए छठे उद्योग की संकल्पना भारत में जरूरी हो गई है। छठे उद्योग का तात्पर्य है प्राथमिक वन, द्वितीयक दो और तृतीयक तीन। जैसे कृषि उत्पादन को हम प्रसंस्करण में परिवर्तित कर दें तथा उसमें बाजारीकरण जोड़ दें तो किसानों की आमदनी दोगुनी हो जाएगी। वर्तमान सरकार का यह महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम है। हमें जनजातीय और अनु. जाति महिलाओं पर विशेष ध्यान देना होगा। माइक्रो फाइनेंस द्वारा मजबूती प्रदान कर और सेल्फ हेल्प ग्रुप से जोड़कर के उनको विकास की मुख्यधारा में अधिक से अधिक साझेदारी दिलाई जा सकती है।
Date:11-07-19
दांव पर कानून-व्यवस्था
अरविंद जयतिलक
सुरक्षा और कानून-व्यवस्था के साथ खिलवाड़ ही है कि देश में पुलिस के लाखों पद रिक्त हैं और राज्य सरकारें इसे भरने को तैयार नहीं हैं। नतीजा कानून-व्यवस्था दांव पर है और अपराधियों का हौसला बुलंद है। गृह मंत्रालय द्वारा जारी ताजा आंकड़ों से उद्घाटित हुआ है कि देश में 5.28 लाख पुलिस पद रिक्त हैं, जिनमें से लगभग 1.29 लाख पद उत्तर प्रदेश में हैं। इसी तरह महाराष्ट्र में 26,195, मध्य प्रदेश में 22,355, छत्तीसगढ़ में 11,916, झारखंड में 18,931, गुजरात में 21,070, राजस्थान में 18,003, हरियाणा में 16,844, बिहार में 50,291, पश्चिम बंगाल में 48,981 ओडिशा में 10,322 आंध्र प्रदेश में 17,933, तमिलनाडु में 22,420 पद रिक्त हैं।
गृह मंत्रालय के आंकड़ों पर गौर करें तो 2017 में राज्यों में पुलिस की स्वीकृत संख्या लगभग 28 लाख थी। लेकिन अभी तक सिर्फ 19 लाख पुलिसकर्मियों की ही नियुक्ति की जा सकी है। यहीं वजह है कि भारत का हर भू-भाग कानून के अनुपालन, अपराध और हिंसा के लिहाज से अति संवेदनशील बना हुआ है। याद होगा अभी गत वर्ष ही सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकारों को ताकीद किया था कि वे राज्यों में पुलिस के रिक्त पड़े पदों को जल्द भरें।
तब सर्वोच्च अदालत ने राज्य सरकारों के उदासीन रवैये का संज्ञान लेते हुए उत्तर प्रदेश समेत बिहार, पश्चिम बंगाल, झारखंड, तमिलनाडु और कर्नाटक के गृह सचिवों को तलब किया। याद होगा गत वर्ष गृह मंत्रालय ने दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग की 153 अति महत्त्वपूर्ण सिफारिशों पर विचार करने के लिए मुख्यमंत्रियों का सम्मेलन बुलाया था। सम्मेलन में पुलिस सुधार पर चिंतन-मनन होना था। एजेंडा के तहत पुलिस जांच, पूछताछ के तौर-तरीके, जांच विभाग को विधि-व्यवस्था विभाग से अलग करने, महिलाओं की 33 फीसद भागीदारी बढ़ाने के अलावा पुलिस की निरंकुशता की जांच के लिए विभाग बनाने पर भी र्चचा की जानी थी। मगर इस सम्मेलन में अधिकांश मुख्यमंत्री अनुपस्थित रहे। नतीजा कोई रोडमैप तैयार नहीं हो सका। पुलिस सुधार के लिए जब गृह मंत्रालय द्वारा राज्यों से राय मांगी गई तो सिर्फ आधा दर्जन राज्यों ने ही पुलिस सुधारों पर अपनी राय से गृह मंत्रालय को अवगत कराया। आज भी राज्य सरकारें पुलिस सुधार के मसले पर अपना रुख स्पष्ट करने को तैयार नहीं हैं।
यह स्वीकारने में तनिक भी हर्ज नहीं कि भारतीय पुलिस की छवि ठीक नहीं है। जिस तरह पिछले एक दशक में फर्जी एनकाउंटर, थानों में हत्या और बलात्कार जैसी घटनाएं उजागर हुई हैं, उससे पुलिस और थानों पर भरोसा बने रहना कठिन होता जा रहा है। गृह मंत्रालय के हालिया रिपोर्ट से स्पष्ट है कि राज्य सरकारों ने पुलिस के रिक्त पड़े पदों को भरने और उनके आचरण को सुधारने के लिए तनिक भी जहमत नहीं उठाया। यहां ध्यान देना होगा कि पुलिसकर्मियों की कमी की वजह से सिर्फ कानून-व्यवस्था ही दांव पर नहीं है। पुलिस की कमी की वजह से काम के बोझ का दबाव इस कदर बढ़ गया है कि पुलिस के जवान मानसिक तनाव में आने लगे हैं। ऐसा नहीं है कि राज्य सरकारें इस वस्तुस्थिति से अवगत नहीं हैं। लेकिन उनके रवैये से साफ है कि वे लोगों की सुरक्षा, कानून-व्यवस्था का अनुपालन और पुलिस के रिक्त पदों को भरने को लेकर तनिक भी गंभीर हैं। रिक्त पदों के कारण ही आज देश में एक लाख की आबादी पर बमुश्किल 144 पुलिसकर्मी हैं, जो कि आबादी के लिहाज से बेहद कम हैं। सच कहें तो आज की तारीख में लोगों में यह धारणा घर कर गई है कि पुलिस प्रशासन सत्ताधारियों के इशारे पर नाचता है और रिश्वत लेकर अपराधियों को बचाता है। सही लोगों को भी झूठे मुकदमे में फंसाने की धौंस देता है। सत्ता के इशारे पर लाठियां बरसाता है।
अच्छी बात यह है कि केंद्र की मोदी सरकार ने गत वर्ष पुलिस सुधार की दिशा में ठोस पहल करते हुए पुलिस आधुनिकीकरण के लिए अगले तीन साल में 25,060 करोड़ रुपये खर्च करने का फैसला किया है। यह पहल इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि 14 वें वित्त आयोग की रिपोर्ट के आधार पर केंद्रीय राजस्व में से राज्यों का हिस्सा 32 प्रतिशत से 42 प्रतिशत करने के बाद पुलिस सुधारों के लिए केंद्रीय सहायता बंद हो गई थी और राज्य सरकारें अपने हाथ खड़े कर चुकी थी। लेकिन उम्मीद है कि केंद्र सरकार की पहल से पुलिस सुधार की गति तेज होगी और राज्य सरकारें अपना दायित्व निभाएंगी।
Date:11-07-19
A case for nutrition counselling
It is a low-cost measure that offers lifelong benefits
Bjorn Lomborg is president ofthe copenhagen consensus center. Shireen Vakil heads the policy and advocacy unit of the Tata Trusts.
The Integrated Child Development Services (ICDS) scheme is one of the world’s largest programmes for early childhood care and development. Now, a new study suggests that nutrition and health counselling delivered under the programme’s auspices is one of the best possible investments that can be made by any government.
This timely, non-partisan report is by India Consensus, a partnership between Tata Trusts and Copenhagen Consensus, which has undertaken a first-of-its-kind analysis of 100 government programmes. These were identified by NITI Aayog for their role in supporting India’s efforts to achieve the Global Goals.
The Global Goals have a dizzying array of 169 targets, such a long list that no country on Earth can achieve all of them. That’s why the unique India Consensus economic analysis approach is vital: it adds new knowledge about costs and benefits. This way, it can be clearer which programmes achieve the most good for every rupee spent.
Researchers have identified twelve programmes that have phenomenal benefits for every rupee spent. Among the top programmes is nutrition and health counselling.
Empowering the mother
As a behavioural change intervention, nutrition and health counselling is relatively low cost for every person that is reached. It’s important to note that this programme does not provide food, but instead provides information to the mother, making it more likely that the child will receive more and better food. And that in turn leads to lifelong benefits.
Many studies have now demonstrated that these benefits can be large. Improving the nutrition and health outcomes of the children of mothers reached makes this a highly cost-effective intervention.
Two analyses were undertaken in Andhra Pradesh and Rajasthan, looking at a six-year campaign of nutrition counselling and hand-washing. The average cost of counselling sessions for each woman was estimated at ₹1,177 and ₹1,250 for Andhra Pradesh and Rajasthan respectively. Based on previous studies, it is estimated that counselling leads to a 12% reduction in stunting. This leads to better cognitive skills.
Quantifying the benefits
Quantifying the increase in earnings shows that the per unit benefit for Andhra Pradesh and Rajasthan comes to ₹71,500 and ₹54,000.
What these figures mean is that the investment generates returns to society worth ₹61 and ₹43, respectively, for every rupee spent. While the analysis will differ for other States, these results show that nutritional counselling is a phenomenal investment. It’s relevant to note that these figures take into account the challenges of nutrition counselling: it’s a relatively difficult intervention to implement and ensure that every person is reached. But even if India’s implementation problems were worse than other countries studied by researchers, it is unlikely to make the investment less impressive. The takeaway point is that, among all the ways that the Indian government is spending money to achieve Global Goals targets, adding additional resources to nutrition counselling would be a phenomenal investment.
The preliminary results of this analysis show that there are many policies that can achieve amazing outcomes. If India were to spend ₹50,000 crore more on achieving the Global Goals, focussing on the most phenomenal programmes identified so far by India Consensus would create extra benefits for India worth ₹20 lakh crore — more than the entire Indian public consumption.
With returns like this at stake, there are compelling reasons to look favourably at approaches including nutrition counselling.
Date:11-07-19
Turning down the heat
There is enormous potential in mitigating climate change through forest restoration
Sujatha Byravan,is scientist who studies science, technology and development policy
During the run-up to the Paris climate change meeting in 2015 (COP-21) under the United Nations Framework Convention on Climate Change, each country decided the level and kind of effort it would undertake to solve the global problem of climate change. These actions were later referred to as nationally determined contributions (NDCs).
India made a number of promises that would lead to the reduction of greenhouse gas emissions, or mitigation, and actions to adapt to living in a warmer world, or adaptation. Many of its described programmes and plans were intended to enable India to move to a climate-friendly sustainable development pathway. Primarily, by 2030, there will be reductions in the emissions intensity of the GDP by about a third and a total of 40% of the installed capacity for electricity will be from non-fossil fuel sources. India also promised an additional carbon sink — a means to absorb carbon dioxide from the atmosphere — of 2.5 to 3 billion tonnes of carbon dioxide equivalent through additional forest and tree cover by the year 2030. Trees and other vegetation fix carbon as part of photosynthesis and soil too holds organic carbon from plants and animals. The amount of soil carbon varies with land management practices, farming methods, soil nutrition and temperature.
Enhancing green cover
India has yet to determine how its carbon sink objectives can be met. In a recent study, the Forest Survey of India (FSI) has estimated, along with the costs involved, the opportunities and potential actions for additional forest and tree cover to meet the NDC target. Given that forest and green cover already show a gradual increase in recent years, one might use this increase as part of the contribution towards the NDC. Or one might think of the additional 2.5-3 billion tonnes of CO2 equivalent sink as having to be above the background or business-as-usual increase.
The additional increase in carbon sinks, as recommended in this report, is to be achieved by the following ways: restoring impaired and open forests; afforesting wastelands; agro-forestry; through green corridors, plantations along railways, canals, other roads, on railway sidings and rivers; and via urban green spaces. Close to three quarters of the increase (72.3 %) will be by restoring forests and afforestation on wastelands, with a modest rise in total green cover.
The FSI study has three scenarios, representing different levels of increase in forest and tree cover. For example, 50%, 60% or 70% of impaired forests could be restored. The total increase in the carbon sink in these scenarios could be 1.63, 2.51 or 3.39 billion tonnes of CO2 equivalent by 2030, at costs varying from about ₹1.14 to ₹2.46 lakh crore. These figures show that the policy has to be at least at a medium level of increase to attain the stated NDC targets.
Natural forests
A recent study in Nature by Simon Lewis and colleagues provides insights into what works well with regard to green cover. Locking up the carbon from the atmosphere in trees, ground vegetation and soils is one of the safest ways with which to remove carbon. If done correctly, the green cover increase will provide many other benefits: it will improve water quality, store water in wetlands, prevent soil erosion, protect biodiversity, and potentially provide new jobs. The authors estimate that allowing land to be converted into forests naturally will sequester 42 times the carbon compared to land converted to plantation, or six times for land converted to agroforestry.
Another study in Science by Jean-François Bastin and colleagues estimates that it is possible to add 0.9 billion hectares of canopy cover worldwide, potentially mitigating up to two-thirds of historical greenhouse gas emissions. This would then prevent or delay the worst impacts from climate change.
Restoration type is key
Taken together, these studies indicate that while there is enormous potential in mitigating climate change through forest restoration, the amount of carbon stored depends on the type of forest restoration carried out. The most effective way is through natural forest regeneration with appropriate institutions to facilitate the process. Vast monocultures of plantations are being proposed in some countries, including in India, but these hold very little carbon; when they are harvested, carbon is released as the wood is burned.
Besides, some of the trees selected for the plantations may rely on aquifers whose water becomes more and more precious with greater warming. Such forms of green cover, therefore, do not mitigate climate change and also do not improve biodiversity or provide related benefits. India, therefore, needs first to ensure that deforestation is curtailed to the maximum extent. Second, the area allocated to the restoration of impaired and open forests and wastelands in the FSI report should be focussed entirely on natural forests and agroforestry.
While using a carbon lens to view forests has potential dangers, involving local people and planting indigenous tree varieties would also reduce likely difficulties. Instead of plantations, growing food forests managed by local communities would have additional co-benefits. Once natural forests are established, they need to be protected. Protecting and nurturing public lands while preventing their private enclosure is therefore paramount. Active forest management by local people has a long history in India and needs to expand to meet climate, environment and social justice goals.
Date:11-07-19
A demographic window of opportunity
In India, investing in the laggard States will ensure their role as being the greatest contributors of the future
Sonalde Desai, [Professor of Sociology, University of Maryland]
Last month, the United Nations released the 26th revision of World Population Prospects and forecast that India will overtake China as the most populous country by 2027. The only surprise associated with this forecast is the way it was covered by the media. Is this good news or bad news? Is it news at all?
Is this news? Not really. We have known for a long time that India is destined to be the most populous country in the world. Population projections are developed using existing population and by adjusting for expected births, deaths and migration. For short-term projections, the biggest impact comes from an existing population, particularly women in childbearing ages. Having instituted a one-child policy in 1979, China’s female population in peak reproductive ages (between 15 and 39 years) is estimated at 235 million (2019) compared to 253 million for India. Thus, even if India could institute a policy that reduces its fertility rate to the Chinese level, India will overtake China as the most populous country.
The element of surprise comes from the date by which this momentous event is expected. The UN revises its population projections every two years. In 2015, it was predicted that India would overtake China in 2022, but in the 2019 projections it is 2027. The UN has revised India’s expected population size in 2050 downward from 1,705 million in 2015 projections to 1,639 million in 2019 projections. This is due to faster than expected fertility decline, which is good news by all counts.
Like it or not, India will reign as the most populous country throughout most of the 21st century. Whether we adjust to this demographic destiny in a way that contributes to the long-term welfare of the nation or not depends on how we deal with three critical issues.
Population control
First, do we need to adopt stringent population control policies? History tells us that unless the Indian state can and chooses to act with the ruthlessness of China, the government has few weapons in its arsenal. Almost all weapons that can be used in a democratic nation, have already been deployed. These include restriction of maternity leave and other maternity benefits for first two births only and disqualification from panchayat elections for people with more than two children in some States along with minor incentives for sterilisation.
As demographer Judith Blake noted, people have children, not birth rates and few incentives or disincentives are powerful enough to overcome the desire for children. Ground-level research by former Chief Secretary of Madhya Pradesh Nirmala Buch found that individuals who wanted larger families either circumvented the restrictions or went ahead regardless of the consequences. As one of her informants noted, “The sarpanch’s post is not going to support me during my old age, but my son will. It does not really matter if I lose the post of sarpanch.”
Second, if punitive actions won’t work, we must encourage people to have smaller families voluntarily. There are sharp differences in fertility among different socio-economic groups. Total Fertility Rate (TFR) for the poorest women was 3.2 compared to only 1.5 for the richest quintile in 2015-16. To get to TFR of 1.5, a substantial proportion of the population among the top 40% must stop at one child.
In western societies, low fertility is associated with the conflict that working women face between work and child rearing and the individual’s desire to enjoy a child-free life. Not so for Indian couples. In India, couples with one child do not consume more nor are women in these families more likely to work. My research with demographer Alaka Basu from Cornell University shows that it is a desire to invest in their children’s education and future prospects that seems to drive people to stop at one child. Richer individuals see greater potential for ensuring admission to good colleges and better jobs for their children, inspiring them to limit their family size. Thus, improving education and ensuring that access to good jobs is open to all may also spur even poorer households into having fewer children and investing their hopes in the success of their only daughter or son. Provision of safe and easily accessible contraceptive services will complete this virtuous cycle.
Population and policy
Third, we must change our mindset about how population is incorporated in broader development policies.
Population growth in the north and central parts of India is far greater than that in south India. What should we do about the old policies aimed at not rewarding States that fail to control population growth? These policies include using the 1971 population to allocate seats for the Lok Sabha and for Centre-State allocation under various Finance Commissions. In a departure from this practice, the 15th Finance Commission is expected to use the 2011 Census for making its recommendations. This has led to vociferous protests from the southern States as the feeling is that they are being penalised for better performance in reducing fertility.
There is reason for their concern. Between the 1971 and 2011 Censuses, the population of Kerala grew by 56% compared to about 140% growth for Bihar, Uttar Pradesh and Madhya Pradesh. A move to use the 2011 Census for funds allocation will favour the north-central States compared to Kerala and Tamil Nadu.
However, continuing to stay with a 1971 Census-based allocation would be a mistake. Cross-State subsidies come in many forms; Centre-State transfers is but one. Incomes generated by workers in one State may also provide the tax revenues that support residents in another State. The varying pace of onset and end of demographic transition creates intricate links between workers in Haryana today and retirees in Kerala and between future workers in Uttar Pradesh and children in Tamil Nadu.
Demographic dividend provided by the increasing share of working age adults is a temporary phase during which child dependency ratio is falling and old-age dependency ratio is still low. But this opportunity only lasts for 20 to 30 years. For States such as Kerala and Tamil Nadu which experienced fertility decline early, this window of opportunity is already past.
As the United Nations Population Fund estimates, over the next 20 years, the window of opportunity will be open for moderate achievers such as Karnataka, Haryana and Jammu & Kashmir. As the demographic window of opportunity closes for these States, it will open for Uttar Pradesh, Bihar and other States that are the last to enter fertility transition. This suggests that workers of Bihar will be supporting the ageing population of Kerala in 20 years.
The focus areas
In order to maximise the demographic dividend, we must invest in the education and health of the workforce, particularly in States whose demographic window of opportunity is still more than a decade away. Staying fixated on the notion that revising State allocation of Central resources based on current population rather than population from 1971 punishes States with successful population policies is shortsighted. This is because current laggards will be the greatest contributors of the future for everyone, particularly for ageing populations of early achievers. Enhancing their productivity will benefit everyone.
It is time for India to accept the fact that being the most populous nation is its destiny. It must work towards enhancing the lives of its current and future citizens.