12-07-2018 (Important News Clippings)

Afeias
12 Jul 2018
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Date:12-07-18

Decriminalise Gays

Government stays passive, Supreme Court should uphold rights to liberty, equality and privacy

TOI Editorials

The Union government’s decision to leave the decriminalisation of homosexuality to the wisdom of the Supreme Court puts the ball squarely in the judiciary’s court. This is almost a restating of the erstwhile UPA government’s position where a Group of Ministers did not find fault with the 2009 Delhi high court judgment that decriminalised homosexuality but left it to SC to take a “final view”. Leading political parties seem to fear the ire of conservative voters even though their leaders like Sonia Gandhi and Arun Jaitley were critical of the 2013 SC judgment that recriminalised homosexuality.

The 2013 judgment was untenable and subsequent SC rulings made no bones about this. In April 2014, SC upheld the transgender community’s demand for acceptance as the third gender and the individual’s right to choose their own gender identity. Last year’s pathbreaking judgment that recognised privacy as a fundamental right saw five judges take exception to the 2013 verdict’s opinion that LGBTs constituted “a miniscule fraction of the country’s population” and very few prosecutions were initiated in 150 years, thus yielding no sound basis for Delhi high court declaring that Section 377 of the Indian Penal Code violated the rights to equality, life and personal liberty.

In the privacy judgment, Justice Chandrachud wrote, “Sexual orientation is an essential attribute of privacy. Discrimination against an individual on the basis of sexual orientation is deeply offensive to the dignity and self-worth of the individual. … Their rights are not ‘so-called’ but are real rights founded on sound constitutional doctrine.” The British who bequeathed us the IPC have come to accept homosexuality. But India has clung harder and longer to colonial social mores that criminalised homosexuality, adultery and suicide.

In this regard, delineating the right to privacy was important because it tells both state and society where to get off. The state must not intrude into the choices made by consenting adults. Equally, it is obliged to take measures that protect the individual’s privacy. For instance, National Aids Control Organisation attributed the higher prevalence of HIV/AIDS among gay men to a disabling environment which stigmatised them and discouraged patients from accessing NACO’s free services. Time and again, judges have spoken up for religious, sexual, ethnic and linguistic minorities while Parliament and assemblies have baulked. They must do so again on 377.


Date:12-07-18

गलत सुझाव

संपादकीय

कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) ने सुझाव दिया है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को किसानों का कानूनी अधिकार बना दिया जाए। यह सलाह गलत और अव्यावहारिक है। बीते छह दशकों में पर्याप्त विस्तार के बावजूद देश में फसलों की सरकारी खरीद का बुनियादी ढांचा सीमित क्षेत्रों तक सीमित रहा है। इस दौरान चुनिंदा फसलों के बमुश्किल एक तिहाई उत्पादकों की उपज ही खरीदी जाती रही है। ऐसे में इसे सभी क्षेत्रों में और पारंपरिक रूप से घोषित 23 फसलों के लिए कानूनी रूप दे पाना व्यावहारिक नहीं लगता। परंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि एमएसपी को आधारभूत उत्पादन लागत से 50 फीसदी अधिक करने के बाद राशि किसानों को नहीं मिलेगी। मौजूदा खुली खरीद की प्रक्रिया ऐसा करने का उचित तरीका नहीं है। यह मूल्य समर्थन की घाटे वाली व्यवस्था है जो अपेक्षाकृत बड़े किसानों को फायदा पहुंचाती है क्योंकि उनका विपणन लायक फसल अधिशेष ज्यादा होता है। इस व्यवस्था की खामियां कीमतों में विसंगति, फसल बुआई के रुझान में बदलाव और चावल-गेहूं जैसे अन्न तथा दालों के भारी भंडार के रूप में सामने आई हैं।

निश्चित तौर पर सरकारी खरीद आधारित बाजार समर्थन के विकल्पों की कोई कमी नहीं है। बल्कि सीएसीपी ने खुद कुछ विकल्पों का जिक्र किया है जिन्हें वह मौजदा व्यवस्था से बेहतर मानती है। सरकार के नीतिगत थिंकटैंक नीति आयोग ने भी कुछ नए विचार पेश किए हैं जिन्हें आजमाया जा सकता है। एक तरीका जिसे सीएसीपी और नीति आयोग दोनों का समर्थन मिला है, वह है भावांतर भुगतान योजना। यह योजना मध्य प्रदेश तथा कुछ अन्य राज्यों में लागू की जा चुकी है। इस योजना के तहत किसानों को केवल मूल्य राशि में हो रहे नुकसान का भुगतान किया जाता है, शेष बाजार गतिविधियां यथावत रहती हैं। सीएसीपी का कहना है कि यह तरीका किफायती है। उसने इसे देशव्यापी स्तर पर अपनाए जाने की वकालत की है। हालांकि इस व्यवस्था में भी समस्याएं हैं लेकिन वे ऐसी नहीं हैं कि उनसे निजात नहीं पाई जा सके।

सरकार की ओर से किसानों को फसल की आकर्षक कीमत दिलाने के लिए जो भी योजनाएं चलाई जा रही हैं उनकी कुछ न कुछ वित्तीय कीमत चुकानी पड़ती है। यह कीमत बाजार दरों और फसल की कवरेज के हिसाब से साल दर साल अलग-अलग हो सकती हैं। फसल कटाई के बाद उसकी कीमतों में भारी गिरावट समस्या बनी हुई है। ऐसा प्रमुख तौर पर बाजार की गड़बडिय़ों और कृषि बाजार को लेकर समुचित बुनियादी ढांचा नहीं होने की वजह से होता है। जब तक कृषि विपणन में जरूरी सुधार नहीं होंगे तब तक बिचौलियों के द्वारा, ग्रामीण बाजारों के कारोबारियों द्वारा अथवा कृषि उपज विपणन समितियों द्वारा संचालित मंडियों के द्वारा किसानों का शोषण जारी रहेगा। बीते कुछ दशकों में कृषि उत्पादन में तो जबरदस्त वृद्धि हुई है लेकिन मंडियों का नेटवर्क उस तेजी से नहीं विकसित हो सका है। आधिकारिक अनुमान बताते हैं कि 80 प्रतिशत से अधिक छोटे और सीमांत किसानों को अपनी उपज गांव के हाट में बेचनी पड़ती है क्योंकि उनके आसपास मंडी नहीं है। इस वर्ष के बजट में 22,000 से अधिक हाटों का उन्नयन कर उन तक सड़क बनाने का प्रस्ताव रखा गया है। अच्छी बात यह है कि इन्हें एपीएमसी अधिनियम की निगरानी से बाहर रखा जा रहा है। किसानों और खुदरा शृंखलाओं तथा कृषि प्रसंस्करण उद्योगों के बीच सीधे लेनदेन को भी प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। इससे बिना महंगाई बढ़ाए किसानों को उपज के अच्छे दाम मिलने तय होंगे। जब तक उत्पादन, मांग और आपूर्ति का तालमेल नहीं बनेगा तब तक उपज पैदा होने के बाद कीमतों में आने वाली गिरावट को रोकना मुश्किल होगा। किसानों को फसल के अच्छे दाम न मिलने की यह बड़ी वजह है।


Date:11-07-18

जलवायु संकट का एक पहलू है आबादी

अनिल पी जोशी पर्यावरणविद्

कहा जाता है कि मानव आबादी वर्ष 1350 में ब्लैक डैथ (प्लेग) के बाद लगातार बढ़ी है। जनसंख्या वृद्धि 1350 के बाद शुरू हुई और उसका कारण था बेहतर स्वास्थ्य व अधिक खाद्य उत्पादन। इसकी वृद्धि दर वर्ष 1980 के बाद घटी पर पूर्णांक संख्या फिर भी बढ़ी ही है। एक हालिया शोध ने ये बताया है कि पांच जुलाई 2018 को 763.4 करोड़ लोग धरती पर है। यह भी माना जाता है कि पृथ्वी चार अरब लोग बेहतर जीवन जी सकते हैं और यह धरती 16 अरब से ज्यादा आबादी का भार नहीं ढो सकती, यानी यह उसकी अंतिम सीमा है। यह भी माना जा रहा है कि जनसंख्या वर्ष 2040-50 तक आठ से 10.5 अरब तक पहुंच जायेगी। क्योंकि प्रति वर्ष 7.4 करोड़ लोग धरती पर बढ़ते जा रहे है। दुनिया में 7 देश ऐसे हैं जिनके कारण वर्ष 2050 तक आधी आबादी का कारवां होगा।

हमारी धरती पर कितनी आबादी होनी चाहिए यह चर्चा बहुत पुरानी है। प्राचीन लेखक तेर्तुल्लियन ने दूसरी सदी में ये कहा था कि आबादी पृथ्वी की क्षमताओं के अनुसार ही होनी चाहिये। यह भी बड़ी अजीब सी बात है कि 750 साल पहले मतलब उद्योग क्रांति से भी पहले दुनिया की संख्या बहुत धीमी गति से बढ़ती थी परंतु 19वीं सदी में आते आते यह संख्या अरबों में पहुंच गई। 18वीं सदी की इसी उद्योग क्रांति के बाद जनसंख्या वृद्धि भी हुई और साथ में प्राकृतिक संसाधनों का शोषण भी हुआ। इस सदी के अंत में जहां जनसंख्या अरब थी वो 20वीं सदी में आते आते 1.6 अरब हो गई और 20वीं सदी के अंत तक छह अरब पर पहुंच गई। वैसे थॉमस मॉल्थस जैसे विद्वान ने कभी यह भविष्यवाणी की थी कि मानव जाति संसाधनों की तुलना में कई गुना बढ़ जायेगी।

यह पृथ्वी कितनी आबादी का भारत ढो सकती है यह बहस भले ही सदियों से चल रही हो लेकिन 1994 से इसके विश्लेषण भी शुरू हो गए। तब इंटर ऐकेडमिक पैनल ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि इसके कारण पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण जैसे मुद्दे खड़े होंगे। यूनाईटेड नेशन पॉपूलेशन असेंसमेंंट की वर्ष 2004 की रिपोर्ट के अनुसार 2050 तक जनसंख्या स्थिर हो जाएगी। पर 2014 में साइंस मैगजीन ने इसका खंडन करते हुए बताया कि यह जनसंख्या वृद्धि अगली सदी तक चलेगी। वर्ष 2017 में ही 50 नोबेल पुरुस्कार विजेताओं ने सामूहिक रूप से एक पेटीशन में कहा कि अधिकतम मानव जनसंख्या और पर्यावरणीय क्षति दुनिया के दो बड़े खतरे बन चुके हैं। और इसी वर्ष 184 देशों के 15364 वैज्ञानिको ंने माना कि बढ़ती जनसंख्या ही बिगड़ती सामाजिक, आर्थिक व पारिस्थितिकीय का कारण है।
पर आबादी कभी बहस का बड़ा मुददा नहीं बन पाती, क्योंकि इससे कईं चीजें जुड़ी हुई है। जनसंख्या के आर्थिक, सामाजिक व राजनैतिक पहलू जब भी चर्चा में आते है तो कई तरह के विवादों में अटक जाते हैं। हम जनंसख्या पर चर्चा से कतई नहीं कतरा सकते क्योंकि स्थिति लगातार विस्फोटक होती जा रही है। खासतौर से जब दुनिया के हर तीसरें व्यक्ति को भरपेट भोजन नहीं हासिल होता है। आधी आबादी के सर पर अपनी छत नहीं है, स्वास्थय सेवाएं मात्र 30-40 प्रतिशत लोगों तक ही पहुंचती हैं। इसी के चलते गांवों से शहरों की ओर पलायन बढ़ा है।

इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि अगर एक हैक्टेयर खेती 22 टन ही धान पैदा कर सकती है और उससे 1000 लोगों का ही पेटभर सकता है तो आगे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। इसके साथ ही हमें बाकी प्राणियों के बारे में भी सोचना होगा। एक रिपोर्ट के अनुसार 1.4 लाख प्रजातियां धरती से विलुप्त होने की कगार पर है। जिनमें से 801 वन्यजीव भी शामिल है। वल्र्डवाइड फंड फॉर नेचर की एक रिपोर्ट के अनुसार- आबादी अगर इसी रफ्तार से बढ़ती रही तो हमें डेढ गुना बड़ी पृथ्वी की आवश्यकता पड़ेगी। दूसरी तरफ बढ़ती जनसंख्या के कारण साफ पेयजल की उपलब्धता पर सीधा असर पड़ा है। बढ़ता वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, मिटटी व ध्वनि प्रदूषण सीधा बढ़ती जनसंख्या के कारण है।

वर्ष 1970 से लेकर वर्ष 2015 के बीच में उर्जा के उपभोग में कई गुना बढ़ोतरी हुई है। मतलब 1970 में अगर उर्जा के उपयोग को शून्य मान लें तो 2010 में ये 150 गुना बढी वा 2025 तक आते-आतें ये 250 गुना हो जाएगी और इसके लिये हद से ज्यादा प्रकृति का शोषण होगा। हम जानते हैं कि दुनिया में बाल व शिशु मृत्यु दर बढ़ती गरीबी के कारण है। भुखमरी, कुपोषण व नई नई बीमारियों को सीधे-सीधे बढ़ती जनसंख्या से जोड़ा जा सकता है। दिक्कत यह है कि दुनिया में कुपोषित और अल्पपोषित लोगों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है। हालत यहां तक पहुंच गई है कि ब्रिटेन जैसे सक्षम देश को अपनी आबादी के लिये खाद्य पदार्थों का आयात करना पड़ता है। लेकिन हर देश के लोग इतने खुशकिस्मत नहीं हैं, जिन देशों की आर्थिक स्थिति इतीन अच्छी नहीं हैं कि वे बड़ी मात्रा में आयात कर सकें वहां लोग कुपोषण और अल्पलोषण के शिकार हैं।

अगर जनसंख्या की यह ही गति रही तो यह तो तय है कि अन्न से लेकर पानी और प्राणवायु तक सब पर बड़ा संकट आएगा। आज भी इन सभी संसाधनों पर पड़ने वाला दबाव साफ देखा जा सकता है। यह सब पिछले दो दशकों में ज्यादा गहरा हुआ है तो कल्पना की जा सकती है कि अगले 2-3 दशकों में परिस्थितियां कहां पहुंच जाएंगी। हमें बढ़ती जनसंख्या पृथ्वी की क्षमताओं और वर्तमान परिस्थितियों पर बड़ी और निर्णायक चर्चा अब करनी ही होगी। वर्ना यह दुनिया पहले संसाधनों के संकट और फिर उनके लिए युद्ध की ओर बढ़ेगी।


Date:11-07-18

Certifying Eminence

But reform in higher education will remain a work in progress until the patronage model is completely abandoned.

Editorial

The government has conferred the status of Institution of Eminence (IoE) on three public and private educational institutions, unshackling them from restrictions under which higher education has laboured so far, and poising them for a leap into the global top 100 listings. Is this a game-changer in the higher education sector in the country? Yes and no. IoEs will have unprecedented freedom to fund activities and customise courses, bringing creativity to higher education. At the same time, the model for the sector remains dependent on state patronage. Besides, entry into the global education race could now become an overriding concern. To gauge institutions principally by their prospective rankings, without regard for the relevance of outcomes, would be reductionist.

A patronage system cannot but be controversial. Following the selection of three private IoEs, there is already a debate, for instance, over why the Reliance Foundation’s greenfield Jio Institute has been chosen but KREA University, led by former RBI governor Raghuram Rajan and with considerable business and academic eminence on board, has been left out. A little more transparency in the selection process, and the public sharing of benchmarks and guidelines, may prevent such controversies in the future. Besides, the knowledge economy does not consist of multi-disciplinary universities alone, but by all accounts only they seem to be eligible for the IoE tag. Both in the interest of parity and for fear of losing opportunity, a separate category could be created to accommodate sectoral institutions, like the Indian Institutes of Management.

In the last instance, academic freedom depends, in great measure, on financial freedom. Public IoEs are to be rewarded with a Rs 1,000-crore handout, but their private competitors must fend for themselves. This distinction is rather pointless. All institutions, irrespective of their ownership, should be encouraged to compete for both public and private funds, and should be allowed to invest. For example, Trinity College in Cambridge, which claims 32 Nobel laureates as its own, has derived considerable incomes from land bought in the 1930s in Felixstowe, where Britain’s first container terminal was built later. Can Indian public universities ever hope for such commercial freedoms?