12-01-2024 (Important News Clippings)
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Date:12-01-24
The Speaker’s Court
The power to disqualify should be in independent hands
Editorial
The Maharashtra Assembly Speaker Rahul Narwekar’s ruling on the disqualification petitions filed by rival factions of the Shiv Sena demonstrates why the adjudicatory function under the anti-defection law should not be in the hands of Presiding Officers in the legislature. In a matter that many thought would decide the survival of the Eknath Shinde regime, the Speaker has ruled that there was no case to disqualify members of the Eknath Shinde faction, or 14 members in the Uddhav B. Thackeray (UBT) group. The ruling is based mainly on the finding that loyalists of Eknath Shinde, the Chief Minister now, constituted the ‘real political party’ when rival Shiv Sena factions emerged on June 21, 2022. Mr. Narwekar’s verdict conveniently draws upon some aspects of the Supreme Court’s final verdict of May 11, 2023, in which a Constitution Bench ruled that the Governor was wrong in asking the then Chief Minister, Uddhav Thackeray, to undergo a floor test and that the Speaker was wrong in recognising the Shinde faction’s appointee as the party’s whip. In contrast to the Court ruling, the Speaker has declared that Sunil Prabhu, an appointee of the UBT faction, ‘ceased to be the duly authorised whip’ from June 21, 2022, and that Bharat Gogawale of the Shinde group was “validly appointed” as the whip. As a result, Mr. Narwekar found no reason to sustain the charge that the Shinde loyalists violated any whip. He also ruled that there was no proof that the UBT group violated the other side’s whip as no such whip was served on them.
The Uddhav Thackeray group may approach the Supreme Court again, possibly on the ground that the Speaker’s ruling contradicts key conclusions of the Bench. While acknowledging the split in the Shiv Sena Legislature Party, the Court had said: “… no faction or group can argue that they constitute the original political party as a defence against disqualification on the ground of defection”. The Speaker has also referred to the Shinde faction’s “overwhelming majority” (37 out of 55 MLAs of the original party). On the other hand, the Court had observed that the percentage of members in each faction is irrelevant to the determination whether a defence to disqualification is made out. However, the Court had conceded that the Speaker may have to decide on which faction is the real party when adjudicating a question of defection. It favoured reliance on a version of the party constitution and leadership structure submitted to the Election Commission before rival groups emerged. It is these observations that the Speaker has utilised to determine which group is the real party. As long as defection disputes are in the hands of Speakers, and not any independent authority, political considerations will undoubtedly cast a shadow on such rulings.
संकीर्ण सोच समाज को जड़वत बनाती है
संपादकीय
कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने स्कूल-कॉलेजों में हिजाब पहनने पर लगी रोक खत्म करने की बात कही। लेकिन जैसे ही भाजपा ने इसे मुद्दा बनाया तो राज्य सरकार 24 घंटों में ही मुकर गई। भाजपा शासन में यह रोक लगी थी। जिस देश में बुनियादी शिक्षा और चिकित्सा सुविधा के हालात खराब हों, वहां अगर सरकारें यह तय करें कि कौन क्या पहनेगा या खाएगा / पीएगा, तो इसका सीधा मतलब है कि प्राथमिकताएं गलत हैं। 70 साल के शासन में अगर आईएमएफ और डब्ल्यूएचओ के अलावा सरकार की अपनी रिपोर्ट भी भयंकर कुपोषण की पुष्टि करती हों, तो वहां पहला काम होना चाहिए अपने नौनिहालों के संपूर्ण पोषण पर ध्यान । ताकि अगले 70-80 वर्ष तक देश का भविष्य बेहतर हो। फिर उन्हें बेहतर शिक्षा देकर उत्पादकता में भागीदार बनाएं, जिसके लिए आधुनिक स्किल की जरूरत है। उद्योग आज एक स्वर में कह रहे हैं कि देश में कौशल की कमी है और जो कुछ प्रशिक्षण संस्थाओं में सिखाया जा रहा है वह 40 साल पुरानी टेक्नीक्स पर आधारित है। लेकिन कहा जाता है कि वोट के याचक राजनीतिक दल सही फैसले नहीं ले पाते। क्योंकि याचना में नैतिक शक्ति नहीं होती । जातिवाद, साम्प्रदायिकता के अलावा संकीर्ण सोच समाज को जड़वत बनाती है
Date:12-01-24
राम मंदिर पर विपक्ष का रुख वाकई हैरान करने वाला है
पवन के. वर्मा, ( राजनयिक, पूर्व राज्यसभा सांसद )
इन दिनों पूरा देश ही 22 जनवरी को अयोध्या में होने वाले राम मंदिर के उद्घाटन की खुशी में उत्सव मना रहा है। जब मैं पूरे देश की बात करता हूं तो मेरा मतलब भारी बहुमत से है, क्योंकि लोकतंत्र में कुछ लोगों के असहमत होने की गुंजाइश हमेशा रहती है। लेकिन जो बात मुझे आश्चर्यचकित और चिंतित करती है, वो है इस महत्वपूर्ण अवसर पर भी इस सीमा तक हो रही राजनीति।
श्रीराम के बहुप्रतीक्षित धाम का निर्माण भाजपा का अपना प्रोजेक्ट नहीं है। यह सुप्रीम कोर्ट के फैसले का परिणाम है, और इसीलिए यह एक गैर-राजनीतिक घटना है। मंदिर-निर्माण की देखरेख के लिए न्यायिक रूप से स्वीकृत ट्रस्ट का गठन किया गया था और वही उद्घाटन-कार्यक्रम की व्यवस्था कर रहा है।
यह पद्धति मर्यादा पुरुषोत्तम से जुड़े मूल्यों के अनुरूप ही है, क्योंकि यह उचित-प्रक्रिया का पालन करती है, और देश की सर्वोच्च अदालत के फैसले के अनुरूप न्यायसंगत है। 1992 में भाजपा-संघ के कार्यकर्ताओं-स्वयं सेवकों द्वारा कानून को हाथ में लेकर बाबरी मस्जिद को ध्वस्त करना जरूर ‘अमर्यादित’ था, क्योंकि यह गैरकानूनी तरीके से किया गया था। वास्तव में- उस समय के शीर्ष भाजपा नेतृत्व- जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी शामिल थे- ने उस घटना पर गहरा खेद जताया था।
क्या भाजपा इस घटना से राजनीतिक फायदा उठा रही है? उत्तर जाहिराना तौर पर हां है, लेकिन यह स्वाभाविक भी है। मंदिर निर्माण का बीड़ा भाजपा-संघ ने दशकों से उठा रखा था। शायद जब आडवाणी ने 1990 में रथ यात्रा शुरू की, तब इसकी प्रेरणा आस्था और राजनीति दोनों रही होगी, क्योंकि पार्टी को 1984 की अपमानजनक हार से उबारने के लिए एक मजबूत भावनात्मक मुद्दे की जरूरत थी।
लेकिन आज इस भव्य मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा तब की जा रही है, जब पार्टी बहुमत से सत्ता में है और उसका नेतृत्व नरेंद्र मोदी जैसे करिश्माई नेता कर रहे हैं। यह स्वाभाविक ही है कि इसका लाभ भाजपा को मिलेगा, खासकर तब जब उद्घाटन चुनावों की पूर्व संध्या पर किया जा रहा है।
लेकिन मुझे विपक्ष के रुख पर ताज्जुब है। यदि उन्होंने मंदिर निर्माण को मंजूरी देने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया था, तो अब वे इसे केवल भाजपा का पार्टीगत मामला नहीं मान सकते। वास्तव में वे केवल एक ही तरीके से भाजपा को इससे होने वाले राजनीतिक लाभ का शालीनता से मुकाबला कर सकते हैं, और वह है इस बात पर जोर देना कि श्रीराम सभी के हैं, उन पर किसी एक पार्टी या नेता का एकाधिकार नहीं है। लेकिन एक तरफ न्यायिक प्रक्रिया का स्वागत करना और दूसरी तरफ उद्घाटन-समारोह का न्योता ठुकराना अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने वाली रणनीति है।
वास्तव में विपक्षी दलों का जोर तो श्रीराम पर भाजपा के बराबर ही दावा करने पर होना चाहिए था। उन्हें पुरजोर तरीके से कहना चाहिए था कि मंदिर-निर्माण उन सभी लोगों की जीत है, जो श्रीराम में विश्वास करते हैं, ताकि उसका श्रेय लेने के भाजपा के नैरेटिव को कमजोर किया जा सके। दार्शनिक दृष्टि से भी ऐसा करना उचित ही होता। रामचरितमानस में जब श्री राम वनवास के दौरान रहने के लिए एक उपयुक्त स्थान की खोज में मदद के लिए वाल्मीकि से पूछते हैं, तो ऋषि उत्तर देते हैं :
‘पूछेहु मोहि कि रहौं कहं मैं पूछत सकुचाऊं। जहं न होहु तहं देहु कहि तुम्हहि देखावौं ठाऊं॥’ अर्थात्, आप मुझसे पूछते हैं कि मैं कहां आवास बनाऊं? जबकि मैं आपसे आदर से कहता हूं कि पहले मुझे वह स्थान बताएं, जहां आप नहीं हैं! लेकिन अफसोस कि इस मुद्दे पर भी अरुचिकर राजनीति चल रही है। भाजपा भी दोषहीन नहीं है। उसके कुछ अति-उत्साही सदस्य खुले तौर पर कह रहे हैं कि ‘अयोध्या तो झांकी है, आगे बहुत कुछ बाकी है’। किसे आमंत्रित किया जाए और किसे नहीं, इस पर जंग छिड़ी है।
कांग्रेस ने समारोह में आने से इनकार कर दिया है। वह हमेशा की तरह दुविधा में थी कि मंदिर का राजनीतिकरण करने के लिए भाजपा की निंदा करे, या उद्घाटन में भाग ले, या इसे धर्मनिरपेक्षता पर हमला कहे, या न्याय यात्रा के माध्यम से इससे ध्यान भटकाए।
अखिलेश यादव एक अलग पटरी पर चले गए हैं; उद्धव ठाकरे की शिवसेना भी शामिल नहीं हो रही है; केरल में माकपा भाजपा को बढ़ावा देने के लिए कांग्रेस पर हमला कर रही है, और ओवैसी कह रहे हैं कि संविधान खतरे में है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम सोच रहे होंगे कि मेरे नाम पर यह क्या-क्या हो रहा है!
श्रीराम के धाम का निर्माण भाजपा का अपना प्रोजेक्ट नहीं है। यह सुप्रीम कोर्ट के फैसले का परिणाम है, और इसीलिए यह एक गैर-राजनीतिक घटना है। मंदिर-निर्माण के लिए गठित ट्रस्ट ही उद्घाटन-कार्यक्रम की व्यवस्था कर रहा है।
Date:12-01-24
सरकार की ‘गारंटी’ पूरी करने के लिए चार बड़े काम जरूरी
विराग गुप्ता, ( सुप्रीम कोर्ट के वकील )
बच्चे अच्छे अंकों से पास हों और स्कूल भी टॉप ग्रेड में रहे, इसके लिए प्राचार्य सहित सभी शिक्षकों का योगदान जरूरी है। इसी तरह प्रधानमंत्री की गारंटी से 2028 तक देश को 5 खरब (ट्रिलियन) व 2047 तक 30 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने के लिए इन सभी संवैधानिक संस्थानों को ठोस भूमिका निभाना होगी :
1.संसद : आम चुनावों में राम मंदिर की लहर के बाद अगले चुनावों के लिए काशी और मथुरा की थीम तैयार हो रही है। भाजपा ने पालमपुर अधिवेशन में 1989 में राम मंदिर पर संसद से कानून बनाने की मांग की थी। क्योंकि आस्था से जुड़े मसलों का अदालत से फैसला नहीं हो सकता। चीफ जस्टिस चंद्रचूड ने खुलासा किया है कि अयोध्या फैसले के साथ जारी बेनामी परिशिष्ट पर 5 जजों की सहमति थी। इससे जाहिर होता है कि मंदिर जैसे मामलों का निपटारा करने में जजों की भी अनेक सीमाएं हैं। काशी और मथुरा में सिविल अदालतों से हिंदू पक्ष जीत जाए तो भी 1991 के धर्म-स्थल कानून की वजह से मस्जिदों को हटाना मुश्किल होगा। मध्यकालीन धार्मिक मुद्दों पर लम्बे समय की मुकदमेबाजी से विदेशी निवेश और ईज ऑफ डुइंग बिजनेस प्रभावित होते हैं। इसलिए धर्मस्थल कानून के दायरे से काशी और मथुरा को बाहर निकालने के लिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के इंतजार के बजाय सरकार को संसद के माध्यम से कानूनी बदलाव करना चाहिए।
2.सरकार : पीएम के अनुसार मोदी की गारंटी वाली विकसित भारत यात्रा से कोई भी हकदार सरकारी योजना के लाभ से छूटना नहीं चाहिए। लेकिन पश्चिम बंगाल समेत कई विपक्षी राज्यों में केंद्र की योजनाओं में हजारों करोड़ के घोटाले के आरोप हैं। साइबर अपराधों और वित्तीय धोखाधड़ी को रोकने के लिए गृह मंत्रालय की 1930 हेल्पलाइन कारगर है। अयोध्या में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए 31 भाषाओं में टूरिस्ट गाइड मैप बन रहा है। इसमें भारत की 22 और विदेशों की 9 भाषाओं में विवरण शामिल होंगे। उसी तरीके से घोटाला खत्म करने और समाज की अंतिम पायदान तक सरकारी योजनाओं का लाभ देने के लिए सुपर ऐप बनाने की जरूरत है। उसमें केंद्र और राज्यों की सभी योजनाओं की जानकारी, ऑनलाइन एप्लाई करने की सुविधा और लाभ नहीं मिलने पर ऑनलाइन शिकायत दर्ज कराने के साथ हेल्पलाइन की सुविधा होनी चाहिए।
3.सुप्रीम कोर्ट : नए कानूनों को सफल बनाने के लिए अदालतों के सिस्टम को ठीक करना बहुत जरूरी है, जिसकी शुरुआत जजों की नियुक्ति प्रणाली को ठीक करने से होनी चाहिए। मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में संसद से बनाए गए एनजेएसी कानून को सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में रद्द कर दिया था। उस फैसले के अनुसार कॉलेजियम में पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ाने के लिए मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर (एमओपी) में बदलाव करना था। पिछले 8 सालों में एमओपी फाइनल किए बगैर हजारों जजों की नियुक्ति दुर्भाग्यपूर्ण है। पिछले महीने संसदीय समिति को दी जानकारी के अनुसार एमओपी पर सरकार की तरफ से कोई कार्रवाई लम्बित नहीं है। सरकारी हस्तक्षेप के बगैर एमओपी में बदलाव करके सुप्रीम कोर्ट को उसे तुरंत लागू करना चाहिए। इससे न्यायपालिका में पारदर्शिता और विश्वसनीयता के साथ जजों के फैसलों की विश्वसनीयता भी बढ़ेगी।
4.चुनाव आयोग : आईटी मंत्री अश्विनी वैष्णव ने एक इंटरव्यू में विदेशी टेक कंपनियों को नियंत्रित करने के लिए ठोस और प्रभावी कानूनी ढांचे पर जोर दिया। भाजपा सांसद और पूर्व मंत्री जयंत सिन्हा ने एक लेख में चुनावी प्रक्रिया में एआई के खतरों पर आगाह किया है। लेकिन पिछले कई साल की कोशिशों से साफ है कि ठोस और स्पष्ट कानून लागू करने के बजाए सरकार टेक कंपनियों को मनमाफिक तरीके से कंट्रोल करना चाहती है। इससे अराजकता बढ़ने के साथ चुनावों से जुड़े कानून बेमानी हो गए हैं।
चुनाव आयोग सभी पार्टियों के आईटी सेल के खिलाफ लाचार है। हमारे प्रतिवेदन पर 10 साल पहले 2013 में सोशल मीडिया के इस्तेमाल के नियमन और खर्चों को जोड़ने के लिए चुनाव आयोग ने नोटिफिकेशन जारी किया था। उसे अपग्रेड करके सख्ती से लागू करने के बजाय आयोग ने 2019 के चुनावों में सोशल मीडिया से जुड़े ठोस नियमों को तिलांजलि दे दी। संविधान के अनुच्छेद-324 और आरपी एक्ट के तहत मिले अधिकारों के अनुसार आयोग को ठोस नियम और उन्हें लागू करने का सिस्टम बनाने की जरूरत है। तभी विदेशी कम्पनियों के हस्तक्षेप के बगैर स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों से भारत में लोकतंत्र के साथ संवैधानिक व्यवस्था सफल हो सकेगी।
संविधान के अनुच्छेद-324 और आरपी एक्ट के तहत मिले अधिकारों के अनुसार चुनाव आयोग को ठोस नियम और उन्हें लागू करने का सिस्टम बनाने की जरूरत है। तभी स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों से संवैधानिक व्यवस्था सफल हो सकेगी।
आर्थिक प्रगति में रोड़ा हैं रेवड़िया
जीएन वाजपेयी, ( सेबी और एलआइसी के पूर्व चेयरमैन हैं )
बीते दिनों कुछ विदेशी फंड मैनेजर्स से बात करने का अवसर मिला। वहां लघु एवं मध्यम अवधि की तेज वृद्धि को लेकर भारत की चहुंओर प्रशंसा हुई तो उन जोखिमों पर भी चर्चा हुई, जो संभावित वृद्धि के समक्ष कुछ खतरे उत्पन्न कर सकते हैं। इनमें रूस-यूक्रेन युद्ध, इजरायल-हमास संघर्ष, ताइवान स्ट्रेट में संभावित टकराव और अन्य क्षेत्रों में सीमा संबंधी टकरावों से उत्पन्न होने वाले भू-राजनीतिक जोखिम शीर्ष पर थे। इसके बाद ‘प्रतिस्पर्धी लोकलुभावनवाद’ चिंता के एक बड़े कारण के रूप में सामने आया। असल में उदार बाजार, स्वतंत्र उद्यम और लोकतांत्रिक ढांचे वाली पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में विषमता बढ़ने के अंतर्निहित जोखिम विद्यमान होते हैं।
हालांकि ऐसी व्यवस्था में अर्थशास्त्री ट्रिकल डाउन थ्योरी की वकालत करते हैं, जिसमें आर्थिक वृद्धि का लाभ ऊपर से नीचे की ओर हस्तांतरित होता है। सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार वाली लोकतांत्रिक व्यवस्था में नेताओं का पूरा ध्यान किसी भी तरह से सत्ता हासिल करने पर होता है। इसके लिए वे साम-दाम-दंड-भेद जैसी हरसंभव तरकीब का सहारा लेते हैं। एक प्रभावशाली लोकतांत्रिक व्यवस्था केवल समतावादी दृष्टिकोण के साथ ही पनपती है और जब भी यह पटरी से उतरती दिखे तो राज्य की शक्ति का उपयोग समता और निष्पक्षता को बहाल करने पर होना चाहिए। जब बढ़ती विषमता से आर्थिक राष्ट्रवाद और भू-राजनीतिक तनाव बढ़ता है तब ‘तुलनात्मक लाभ’ के सिद्धांत को तिलांजलि दे दी जाती है।
भारत राज्यों का एक संघ है। यहां राज्यों की स्वतंत्र विधायिका एवं राजनीतिक कार्यपालिका है। संविधान ने स्पष्ट कार्य विभाजन किया है। इसके तहत संघ सूची के विषयों पर केंद्र ही कानून बना सकता है। राज्य सूची के विषयों पर राज्य सरकार विधि बनाती है। तीसरी, समवर्ती सूची में केंद्र और राज्य, दोनों सरकारें कानून बनाने की पहल कर सकती हैं। चूंकि भारत एक बहुदलीय लोकतंत्र है तो मतदाताओं के पास विकल्पों की कमी नहीं। मतदाता अपनी पसंद एवं प्राथमिकता के आधार पर केंद्र और राज्यों में सरकारें चुनते हैं। इस पहलू ने ‘प्रतिस्पर्धी लोकलुभावनवाद’ को बढ़ावा दिया है। इसके चलते चुनावों में मुफ्त योजनाओं एवं आकर्षक पेशकशों की बाढ़ आ गई है, जिसने राज्य के वित्तीय संसाधनों पर दबाव बढ़ा दिया है।
राज्यों के सरकारी खजाने पर कर्ज के बोझ की स्थिति से व्यापक तस्वीर और बेहतर रूप से सामने आती है। वित्त वर्ष 2022 के संशोधित अनुमानों के अनुसार पंजाब का कर्ज राज्य के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीएसडीपी का 53.3 प्रतिशत रहा। इसके बाद राजस्थान, बिहार, केरल और बंगाल जैसे राज्य मौजूद थे, जिन पर कर्ज उनकी जीएसडीपी के 34 से 39 प्रतिशत के दायरे में था। एफआरबीएम समीक्षा से जुड़ी एनके सिंह समिति ने अनुशंसा की थी कि यह अनुपात 25 प्रतिशत से ऊपर नहीं जाना चाहिए। वास्तविकता यह है कि आधे से अधिक राज्य इस सीमा रेखा को लांघ चुके हैं।
दुनिया के दूसरे कोनों पर दृष्टि डालें तो अमेरिका और यूरोपीय संघ भी ऊंचे राजकोषीय घाटे की गिरफ्त में हैं। वहां बढ़ती विषमता विशेषकर कोविड महामारी के दौरान उठाए गए उपायों के चलते कर्ज का अंबार लगता गया। ऐसे में ‘अनियंत्रित घाटा’ और ‘कर्ज का सैलाब’ इन समृद्ध अर्थव्यवस्थाओं के लिए भी चिंता का सबब बना हुआ है। इस साल कई देशों में चुनाव भी होने हैं। इस तथ्य को देखते हुए अंतरराष्ट्रीय वित्त संस्थान (आइआइएफ) ने चेताया है कि भू-राजनीतिक तनावों के बीच होने वाले चुनावों में भारत, दक्षिण अफ्रीका और अमेरिका में सरकारी उधारी बड़े पैमाने पर बढ़ सकती है, जिससे वित्तीय अनुशासन बिगड़ सकता है। एक प्रभावी एवं स्पष्ट तंत्र के अभाव में राजकोषीय घाटा और कर्ज भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए एक बड़ी चुनौती रहे हैं। एक वक्त दिवालिया होने की स्थिति में जा पहुंचे देश को अपना सोना बैंक आफ इंग्लैंड के पास गिरवी तक रखना पड़ा था। ऐसी परिस्थितियों में लोकलुभानवाद को लेकर अपेक्षित रूप से सतर्क रहना बहुत आवश्यक हो गया है।
चूंकि राजनीतिक दल किसी भी सूरत में सत्ता में बने रहना या उसे वापस पाना चाहते हैं तो उसके लिए उन्हें रेवड़ियों का सहारा लेने से भी कोई संकोच नहीं। इसमें भी प्रतिद्वंद्वी को मात देने के लिए बड़ी-बड़ी घोषणाओं की अंतहीन होड़ चल पड़ी है। इन रेवड़ियों से मतदाताओं को भले ही कुछ तात्कालिक लाभ मिल जाए, लेकिन बड़े दूरगामी नुकसान उठाने पड़ सकते हैं। इससे राजस्व घाटा और कर्ज बढ़ता है तो उस पूंजीगत निवेश के लिए बहुत सीमित संसाधन बचते हैं, जो आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाने के लिए कहीं अधिक आवश्यक होता है। पूंजीगत निवेश के अभाव से पिछड़ापन हावी रहता है। छह दशकों तक देश ऐसी ही स्थितियों से जूझता रहा है। ऐसे में रेवड़ियों का लंबा चलने वाला सिलसिला अर्थव्यवस्था की गाड़ी को पटरी से उतार सकता है।
इस स्थिति से बचने का यही उपाय है कि राजनीतिक दल अपने स्तर पर संयम का परिचय दें। इन रेवड़ियों के माध्यम से जरूरतमंद लोगों तक वस्तुएं एवं सेवाएं पहुंचाने का विचार तो अच्छा है, लेकिन यह काम राज्यों को अपनी वित्तीय स्थिति के अनुरूप ही करना चाहिए। यदि बेहिसाब तरीके से चुनावी रेवड़ियां बांटी गईं तो अंतत: वही परिणाम निकलेगा जैसा दुनिया के दूसरे हिस्सों में देखने को मिला है। इसके परिणामस्वरूप मुद्रा की हैसियत कमजोर होती है, जिससे सामाजिक असंतोष बढ़ता है। भारत में ऐसी स्थितियां बनने से 2047 तक विकसित राष्ट्र बनने की उसकी आकांक्षा पर तुषारापात हो जाएगा। यह अच्छी बात है कि केंद्र की मौजूदा सरकार इसे लेकर चिंतित है और उसने अपने स्तर पर अभी तक स्थितियों को नियंत्रण में रखा है। हालांकि यदि चुनावी घोषणाओं का सिलसिला ऐसे ही चलता रहा तो आगे की आर्थिक राह फिसलन भरी हो सकती है। अपने यहां करोड़ों लोगों की आर्थिक बदहाली को देखते हुए हमें सदैव विवेक के साथ काम करना होगा। यदि लोगों की आर्थिक स्थिति में सुधार करना ही लक्ष्य है तो राज्य को उन्हें तात्कालिक मदद के जरिये खुद पर आश्रित करने के बजाय वृद्धि के ऐसे पौधे रोपने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, जिससे लोगों को निरंतर रूप से फल प्राप्त होते रहें।
Date:12-01-24
सीबीएएम एक अवसर
संपादकीय
वर्ष 2023 के मध्य में जब से यूरोपीय संघ ने कार्बन बॉर्डर एडजस्टमेंट मेकनिज्म (सीबीएएम) की घोषणा की, तब से भारतीय उद्योग जगत ने खुलकर इसके प्रति अपने पूर्वग्रह जताए। यह व्यवस्था आयात पर उत्सर्जन शुल्क लगाती है।
सलाहकार सेवा प्राइसवाटरहाउसकूपर्स (पीडब्ल्यूसी) द्वारा पर्यावरण, सामाजिक और कारोबारी संचालन यानी ईएसजी में कर पारदर्शिता को लेकर हुए एक हालिया सर्वेक्षण में 67 फीसदी प्रतिक्रियाओं में कहा गया कि सीबीएएम उनकी आपूर्ति श्रृंखलाओं को प्रभावित कर सकता है। ये आशंकाएं गलत नहीं हैं।
दिल्ली स्थित सेंटर फॉर एनर्जी, एन्वॉयरनमेंट ऐंड वाटर ने अनुमान लगाया है कि इससे कर लागत बढ़ने और प्रतिस्पर्धा पर असर पड़ने से यूरोपीय संघ को होने वाले 43 फीसदी भारतीय निर्यात प्रभावित होगा। यूरोपीय संघ हमारा दूसरा सबसे बड़ा विदेशी बाजार है।
उदाहरण के लिए इस्पात क्षेत्र में भारतीय मिलों का कार्बन उत्सर्जन प्रतिस्पर्धियों की तुलना में अधिक है। इसलिए कुछ अनुमानों के मुताबिक सीबीएएम व्यवस्था में इसकी कीमत 56 फीसदी तक बढ़ सकती है।
कार्बन बॉर्डर टैक्स जनवरी 2026 से लागू होगा। यह 2030 तक कार्बन उत्सर्जन में 55 फीसदी कमी करने के लक्ष्य का हिस्सा है। परंतु भारतीय निर्यातकों को पहले से ही जटिल अनुपालन चुनौतियों का अंदाजा हो गया है। ऐसा अक्टूबर 2023 में यूरोपीय संघ के साथ उत्सर्जन डेटा साझा करने के लिए सात कार्बन सघन क्षेत्रों की कंपनियों की अनिवार्य परीक्षण अवधि की शुरुआत के साथ ही हो गया। अधिकांश भारतीय कंपनियां सीबीएएम को एक संरक्षणवादी उपाय मानती हैं और इसकी वजह भी है।
भारत सरकार बहुपक्षीय मंचों पर इसके खिलाफ अपील करने पर विचार कर रही है। यह अपील ‘साझी किंतु विभेदित जवाबदेही’ के सिद्धांत के तहत की जा सकती है। टीकाकारों ने भी सुझाया है कि भारतीय कंपनियां अपने निर्यात बाजार में विविधता लाएं और उन देशों को निर्यात बढ़ाएं जहां उत्सर्जन के मानक इतने सख्त नहीं हैं। उदाहरण के लिए लैटिन अमेरिका और अफ्रीका को निर्यात बढ़ाया जा सकता है।
ये उचित और आवश्यक प्रतिक्रियाएं हैं लेकिन इनमें समय लग सकता है। परंतु वैश्विक जलवायु परिवर्तन प्रतिबद्धताओं और इस कवायद की जरूरत को देखते हुए भारतीय उत्पादकों के लिए बेहतर यही होगा कि वे अधिक सक्रियता दिखाते हुए सीबीएएम की चुनौती से पार पाने के तरीके तलाशने की कोशिश करें।
निश्चित तौर पर सीबीएएम के लक्ष्यों में से एक यह सुनिश्चित करना है कि यूरोपीय संघ ही नहीं बल्कि विश्व स्तर पर बदलाव आए। पीडब्ल्यूसी का अध्ययन दिखाता है कि अधिकांश कंपनियां इस बात को समझती हैं कि शुरुआती बदलाव में जोखिम कम करने के अवसर निहित हैं। सर्वे में शामिल आधी कंपनियों ने कहा कि उनकी विशुद्ध शून्य की प्रतिबद्धता है और वे सक्रिय ढंग से ऐसे तरीके तलाश कर रही हैं ताकि उन लक्ष्यों को हासिल किया जा सके। इनमें से करीब आधी कंपनियों ने 2030 तक विशुद्ध शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य तय किया है।
कार्बन सघन उद्योगों मसलन स्टील, सीमेंट और उर्वरक आदि में नवीकरणीय ऊर्जा की दिशा में हो रहे परिवर्तन में भी इसे महसूस किया जा सकता है। आंशिक तौर पर ऐसा राज्य के स्वामित्व वाली ग्रिड बिजली आपूर्ति की संरचनात्मक कमी को दूर करने के लिए तथा आंशिक तौर पर कम लागत वाले ईएसजी फंड तक पहुंच बनाने के लिए किया जाता है।
अन्य कंपनियां हरित हाइड्रोजन तकनीक का परीक्षण कर रही हैं। इस बदलाव का तात्कालिक परिणाम ऊंची लागत के रूप में सामने आ सकता है लेकिन दीर्घावधि में भारतीय उद्योग जगत के पास यह अवसर है कि वह अधिक मजबूत प्रतिस्पर्धी के रूप में सामने आए। देश का हालिया औद्योगिक इतिहास दिखाता है कि कंपनियों को ऐसी चुनौतियों से लाभ हुआ है।
उदाहरण के लिए सन 1990 के दशक में उत्तर प्रदेश के संगठित कालीन बुनाई उद्योग ने जर्मनी द्वारा बाल श्रमिकों के तैयार किए गए तथा कैंसरकारक रंगों वाले कालीनों के आयात पर प्रतिबंध लगाए जाने के बाद तत्काल सबक ले लिया। आज इस इलाके में ये दोनों समस्याएं नहीं नजर आतीं।
भारत स्वयं उन कपड़ों के आयात पर रोक लगा चुका है जिनमें एजो डाई का इस्तेमाल किया जाता है। सीबीएएम भी ऐसा ही अवसर हो सकता है जिसके जरिये कम कार्बन उत्सर्जन के साथ बड़ी छलांग लगाई जा सकती है।
Date:12-01-24
विवेकानंद के दर्शन से कदमताल
शिव प्रकाश, ( भाजपा के राष्ट्रीय सह संगठन मंत्री हैं )
कोलकाता के विश्वनाथ दत्त एवं भुवनेश्वरी देवी के संभ्रांत परिवार में 12 जनवरी, 1863 को एक बालक का जन्म हुआ। भगवान शिव की तपस्या के बाद जन्मे इस बालक को बचपन में नाम मिला नरेंद्रनाथ दत्त इस बालक को प्रेम से परिवार के लोग नरेन के नाम से बुलाते थे। संन्यास दीक्षा के बाद नरेन स्वामी विवेकानंद के नाम से प्रसिद्ध हुए। 11 सितम्बर, 1893 को शिकागो (अमेरिका) में आयोजित एक कार्यक्रम के ऐतिहासिक भाषण से यह संत संपूर्ण विश्व में प्रसिद्ध हो गया। स्वामी जी का यह भाषण हिन्दु धर्म की विशेषताओं एवं मान्यताओं को विश्व भर में पुनर्पतिष्ठित करने में सफल हुआ।
गुलामी के कालखंड में स्वामी विवेकानंद ने भारतीय समाज में स्वाभिमान जगाने का कार्य किया। अस्पृश्यता निवारण, अशिक्षा को दूर करना, उद्योगों का विकास एवं महिला उत्थान जैसे अनेक विषयों पर उन्होंने भारत के विकास की नई दृष्टि दी, जो आज भी हमारे लिए प्रेरक मार्गदर्शन है। भोग- विलासिता एवं सांप्रदायिकता के संघर्ष में फंसे वैश्विक समुदाय को भी उन्होंने विश्व शांति का मार्ग दिखाया यशस्वी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के जीवन पर स्वामी विवेकानंद के विचारों की अमिट छाप दिखाई देती है। विद्यार्थी काल में ही मोदी रामकृष्ण मिशन (राजकोट) से जुड़ गए थे। राजकोट शाखा के तत्कालीन प्रमुख स्वामी आत्मस्थानंद से उन्होंने संन्यास दीक्षा की इच्छा भी व्यक्त की थी। स्वामी आत्मास्थानंद ने ही उन्हें समाज के लिए कार्य करने की प्रेरणा दी। यह प्रेरणा ही प्रधानमंत्री के लिए गरीब कल्याण एवं स्वाभिमानी समृद्ध भारत गढ़ने की प्रेरणा बन गई। रामकृष्ण मिशन के साथ उनका संबंध आज भी जीवंत बना है।
स्वामी विवेकानंद गुलामी की मानसिकता के संबंध में कहते हैं, ‘परतंत्रता रूपी इस अंधकार ने भारत के स्वाभिमान को ऐसा ग्रहण लगाया कि भारतवासी आत्मविश्वास ही खो बैठे।’ आत्महीनता का परिणाम हुआ कि हमारे महापुरुष, इतिहास, ज्ञान, कला एवं संस्कृति सभी में दोष देखने की प्रवृत्ति एवं विदेशी नकल को आधुनिकता का पर्याय मान लिया गया।
प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण में 15 अगस्त, 2023 को स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर भारत को विकसित भारत बनाने का संकल्प दोहराया। अमृत काल की इस बेला में उन्होंने प्रत्येक भारतीय को पंच प्रण का पालन करने का आग्रह किया। इसमें भारतीय समाज को सभी प्रकार की गुलामी छोड़ने का भी प्रण था। 22 जनवरी 2024 को श्रीराम मंदिर में भगवान श्रीराम के विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा इसी स्वाभिमान को जगाने के अनेक प्रयासों में से एक है।
स्वामी विवेकानंद शिक्षा द्वारा मनुष्य की लौकिक एवं पारलौकिक, दोनों प्रकार की उन्नति चाहते थे। नई शिक्षा नीति के माध्यम से सभी नागरिकों को उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा भारतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा एवं भारत को वैश्विक ज्ञान महाशक्ति बनाने का संकल्प स्वामी जी के विचारों का शिक्षा में प्रकट रूप है। स्वामी विवेकानंद गरीबों की पीड़ा को देखकर व्यथित थे। अमेरिका के वैभव से भारत की गरीबी की तुलना करते हुए वह रात्रि भर रोते रहे। इसी पीड़ा को व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा था कि अब हमारा एकमात्र लक्ष्य होना चाहिए, ‘दरिद्र देवो भव’ स्वामी जी ने भारत की उन्नति का घोषणा पत्र ही जैसे लिखा हो, उन्होंने कहा, ‘इस देश को उठने दो गरीबों की झोपड़ी से मल्लाह की नौकाओं से, लोहार की भट्ठियों से, किसानों के खेत-खलिहानों से मोचियों की झोपड़ी से, गिरिकंदराओं से, यह देश तो वहीं बसता है।’ प्रधानमंत्री मोदी ने इस घोषणा पत्र को साकार रूप देना प्रारंभ किया। समाज के अलग-अलग वर्ग के गरीबों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अनेक योजनाएं प्रारंभ कीं।
स्वच्छता अभियान, उज्ज्वला योजना, प्रत्येक गांव को विद्युत आपूर्ति के लिए उजाला योजना, आयुष्मान भारत, जल जीवन मिशन आदि अनेक योजनाएं गरीब उत्थान के लिए मील का पत्थर साबित हुई। चार करोड़ से अधिक परिवारों को आवास, 1 करोड़ 36 लाख युवाओं के लिए कौशल विकास विभाग रोजगार उपलब्धि का माध्यम बना। 80 करोड़ लोगों को प्रति माह अन्न पहुंचाना, गरीब की रोटी की समस्या का समाधान है। गरीब की रोटी के विषय पर स्वामी विवेकानंद ने कहा था, ‘गरीब को पहले रोटी दो तब गीता सुनाओ क्योंकि उसकी आवश्यकता रोटी है।’
समाज के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले हमारे छोटे-छोटे शिल्पकार हैं, जिन्हें प्रधानमंत्री ने भारत का निर्माण करने वाले विश्वकर्मा कहा है। इनमें बढ़ई, लोहार, सोनार, सुतार, कुम्हार, मूर्तिकार, मोची, धोबी आदि श्रेणी के लोग आते हैं। ऐसे वर्गों के लिए प्रधानमंत्री विश्वकर्मा योजना के माध्यम से 30 लाख परिवारों को लगभग 1.5 करोड़ लोगों को सहायता मिलेगी। ठेला लगाकर एवं रेहड़ी- पट्टी के माध्यम से सामान बेचने वाले वेंडर जैसे लघु उद्यमों के माध्यम से जीवन यापन करने वालों को प्रधानमंत्री स्वनिधि योजना के माध्यम से सहायता उपलब्ध करा कर उनके घर में रोशनी पहुंचाने का कार्य किया गया है।
शिकागो धर्म सभा के अवसर पर स्वामी विवेकानंद ने अपने भाषण में शिव महिमा स्त्रोत से एक मंत्र को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा था-
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषां ।
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ।।
समस्त धर्मों में एक ही परमात्मा का दर्शन सबका लक्ष्य एक ही गंतव्य है, यह भाव उन्होंने व्यक्त किया था। संपूर्ण विश्व में योग की प्रतिष्ठा, कोरोना में ‘जान भी जहान भी’ के आधार पर विश्व को सहायता, जी-20 में ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का आदर्श वाक्य स्वामी विवेकानंद द्वारा प्रस्तुत विचारों का प्रकटीकरण है। स्वामी विवेकानंद जी का यह आह्वान ‘उठो, जागो और अपने लक्ष्य की प्राप्ति तक मत रुको को नरेन्द्र मोदी ने अपने जीवन का आदर्श मान लिया है। बिना रुके, बिना थके यह कर्मयोद्धा उत्तिष्ठ भारत के लक्ष्य की प्राप्ति में लगा है। हम सभी भारतवासी स्वामी विवेकानंद के विचारों से प्रेरणा लेकर प्रधानमंत्री मोदी के साथ अपने कदम ताल मिलाएं एवं अमृत काल में भारत को समृद्ध, सुरक्षित, गौरवयुक्त, स्वाभिमानी भारत बनाकर विश्व का तमस हटाने का संकल्प लें। स्वामी विवेकानंद के जन्म दिवस पर यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।