12-01-2023 (Important News Clippings)

Afeias
12 Jan 2023
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Date:12-01-23

Reckless spree

Authorities must heed science and people living near mines, dams.

Editorial

The land subsidence in Joshimath has become emblematic of a geological disaster that has in fact manifested across India, in the neighbourhood of several large resource-extraction projects. There have been reports of subsidence from the Jharia, Bhurkunda, Kapasara, Raniganj and Talcher coal mines; from Delhi and Kolkata due to the over-extraction of groundwater; and from Mehsana for hydrocarbons. Last year, land in Chamba, Himachal Pradesh, began to sag shortly after a hydroelectric power project began test runs, calling into question the effects of the Tapovan Vishnugad facility near Joshimath in Uttarakhand. In 2010, some months after a tunnel-boring machine nicked an underground aquifer near Joshimath, leading to substantial water discharge, two researchers wrote in Current Science that the “sudden and large scale dewatering of the strata has the potential” to trigger “ground subsidence in the region”. Determining whether the ongoing incident can be traced directly to the 2009 aquifer puncture is complicated by the lack of long-term scientific investigations of the area. On January 5, the NTPC issued a statement washing its hands of the unfolding crisis after locals began pointing fingers at Tapovan Vishnugad, as well as the Helang-Marwari bypass as part of the Char Dham project. Scientists from the Council of Scientific and Industrial Research-National Geophysical Research Institute set out on January 10 to examine the circumstances of the subsidence. Both the national and the State governments must heed the team’s findings, even if it means ceasing further construction work.

Experts and civil society have called on the government on many occasions to ease its dam-building spree, of late over rivers in the north and the Northeast; to moderate tourism in the regions to be sustainable; and to not blow off unstable hillsides to widen roads. Heavy rains in Aizawl in July triggered subsidence, exposing poor zoning enforcement and oversight of the regional carrying capacity. But in Joshimath, which is particularly prone to landslides, questions about zoning, carrying capacity and tipping points have all been set aside. The subsidence in Joshimath has captured the nation’s attention because it is a destination for both pilgrims and tourists, but it is far from being the site of the first or the deadliest incident. The government must undertake whatever repair and restoration efforts it is undertaking at Joshimath at all the other sites as well. Finally, the national and the State governments must listen to both science and the people already living near mines and dams. There is an argument to allow economically developing countries to emit more before becoming carbon-neutral, but it is not a free pass to plunder natural resources at the cost of climate justice.


Date:12-01-23

संघ प्रमुख के बयान को पूर्णता में देखना चाहिए

संपादकीय

आरएसएस प्रमुख ने एक इंटरव्यू में कहा कि ‘एक हजार साल से विदेशी आक्रांताओं से लड़ता हिन्दू अब जाग गया है। थोड़ी उग्रता स्वाभाविक है। इसका उपयोग हम अंदर की लड़ाई पर विजय पाने में करें… हिन्दू धर्म सबको साथ लेकर चलता है । इस्लाम को दे में कोई खतरा नहीं… आज जो मुसलमान हैं उन्हें कोई नुकसान नहीं। लेकिन उन्हें ‘हम बड़े हैं… एक समय राजा थे’ ये भाव छोड़ना होगा। ऐसा सोचने वाला कोई हिन्दू है तो उसे भी ये भाव छोड़ना पड़ेगा।’ इन वाक्यों को अलग-अलग कर देखने में कुछ लोग उग्रता को स्वाभाविक मान सकते हैं, लेकिन इन वाक्यों को पूर्णता में देखना होगा। संघ प्रमुख ने यह भी कहा है कि इसे अंदर की लड़ाई पर विजय के लिए इस्तेमाल करें। अंदर की लड़ाई यानी जातिवाद, संकीर्ण मानसिकता, दलित-प्रताड़ना और ऊंच-नीच के भेदभाव। उन्होंने मुसलमानों को अपने हर बयान में आश्वस्त किया, लेकिन सलाह दी कि वे अपने में बड़ा होने का भाव न रखें और ये न सोचें कि एक जमाने में वे शासक थे। इन बयानों के अंदर छिपे भाव को गौर से देखें तो ये सांप्रदायिक सौहार्द्र को मजबूत करने का एक बड़ा संदेश हैं। उन्होंने उसी तरह के सुधार हिन्दुओं की सोच में लाने की वकालत की है। आज जिस तरह के विभेद भारतीय समाज में धार्मिक वैमनस्यता पैदा कर रहे हैं, उसमें यह जरूरी है कि संघ प्रमुख का संदेश सही परिप्रेक्ष्य में और पूर्णता के साथ हिन्दू-मुसलमान दोनों के बीच जाए। ये न समझा जाए कि उन्होंने उग्रता को सही ठहराया है। यहां उग्रता विदेशी आक्रांताओं के जुल्म के सन्दर्भ में है जो मूलतः सुधारात्मक है।


Date:12-01-23

सरकारों के साथ राज्यपालों की बढ़ रही है तकरार

राजदीप सरदेसाई, ( वरिष्ठ पत्रकार )

एक राष्ट्रीय राजधानी में सर्वाधिक संख्या में राजनीतिक वीवीआईपी होते हैं, लेकिन दिल्ली का बिग बॉस कौन है? क्या दिल्ली की यूनियन टेरिटरी को केंद्रीय गृह मंत्रालय नियंत्रित करता है? और क्या एक निर्वाचित मुख्यमंत्री के बजाय केंद्र के प्रतिनिधि के रूप में वहां विराजित लेफ्टिनेंट गवर्नर या एलजी ही सर्वोच्च सत्ता है? हालिया विवाद दिल्ली के एलजी वीके सक्सेना और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के बीच मेयर के चुनाव को लेकर उपजी तकरार से जुड़ा है। एलजी के द्वारा दिल्ली म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन में एल्डरमेन की नियुक्ति की गई। उन्होंने राज्य सरकार को दरकिनार करते हुए अपनी पसंद के प्रिसाइडिंग ऑफिसर को भी चुना। इससे भाजपा और ‘आप’ के पार्षदों में तनातनी की स्थिति निर्मित हो गई।

‘आप’ के द्वारा आरोप लगाए गए हैं कि क्या एलजी दोनों पक्षों के बीच न्यूट्रल अम्पायर की भूमिका निभाने के बजाय एक पक्ष के बारहवें खिलाड़ी की भूमिका निभा रहे हैं और निर्वाचित सरकार के अधिकारों में हस्तक्षेप कर रहे हैं? गवर्नमेंट ऑफ नेशनल कैपिटल टेरिटरी ऑफ देल्ही एक्ट 1992 के तहत पुलिस, लोकव्यवस्था और भूमि सम्बंधी मामलों के अलावा शेष में एलजी से अपेक्षित है कि वे मंत्रिपरिषद के सहायक व सलाहकार की भूमिका का निर्वाह करेंगे। यहां एलजी के सहायक व सलाहकार होने की उचित संवैधानिक व्याख्या यही की जा सकती है कि कार्यपालिका की शक्तियां निर्वाचित सरकार में निहित होंगी। लेकिन मार्च 2021 में भाजपा के बहुमत वाली संसद ने तुरत-फुरत में इस एक्ट में संशोधन करवा दिए, जिसके बाद निर्वाचित सरकार की निर्णय-क्षमता और स्वायत्तता घट गई और स्टेट कैबिनेट के लगभग हर निर्णय पर एलजी की सुपरवाइजरी शक्तियों में इजाफा हो गया। ये संशोधन एलजी को एडमिनिस्ट्रेटर का दर्जा देते हैं, जिसका यह मतलब है कि वे सरकार के निर्णयों को बायपास भी कर सकते हैं।

पिछले साल वीके सक्सेना के एलजी बनने के बाद लगभग हर मसले पर उनका केजरीवाल सरकार से सार्वजनिक टकराव रहा है। एलजी ने राजधानी की प्रशासनिक कमान सम्भाल ली है। ब्यूरोक्रेसी का रिपोर्टिंग-स्ट्रक्चर भी अब सीधे एलजी ऑफिस की ओर हो गया लगता है। अधिकारीगण अकसर मुख्यमंत्री और उनकी कैबिनेट को भी दरकिनार कर देते हैं। यह संवैधानिक लोकतंत्र के लिए विडम्बना ही है कि तीन बार के निर्वाचित मुख्यमंत्री को एक गैर-निर्वाचित सरकारी पदासीन का अधीनस्थ बना दिया गया है। अगर केजरीवाल सरकार को इस तरह से अशक्त बना दिया जाएगा तो अपने चुनावी वादों को पूरा नहीं कर पाने की स्थिति में उन्हें कैसे जवाबदेह ठहराया जा सकेगा? बीते आठ सालों से केंद्र सरकार और केजरीवाल के बीच रस्साकशी चलती आ रही है। चुनावों ने बताया है कि केजरीवाल ही दिल्ली के नम्बर एक नेता हैं। ‘आप’ ने स्थानीय मोहल्ला स्तर पर गहरी पैठ बनाई है और भाजपा अनेक प्रयास करने के बावजूद केजरीवाल को डिगा नहीं सकी है। ऐसे में एलजी के जरिए ही ‘आप’ की नेतृत्वशीलता में सेंध लगाना सम्भव है। पूरे देश में यह पैटर्न देखा जा रहा है।

इसी सप्ताह तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि ने एक स्पीच देकर राज्य की विधानसभा से बहिर्गमन किया, जो कि अभूतपूर्व घटना थी। वे विधेयकों को लम्बित किए हुए हैं और बहुत समय से राजनीतिक बयान देते आ रहे हैं। उन्होंने तमिलनाडु का नाम तक बदलने की बात कह दी थी। केरल में राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान की मुख्यमंत्री पी. विजयन से तू-तू-मैं-मैं चलती ही रहती है। पंजाब में राज्यपाल ने विधानसभा का विशेष सत्र बुलाने से इनकार कर दिया। महाराष्ट्र में राज्यपाल बीएस कोशियारी पर आरोप लगा था कि उन्होंने शिवसेना के विद्रोही धड़े का समर्थन करते हुए नई सरकार के गठन में फुर्ती दिखाई थी, जबकि सर्वोच्च अदालत में दलबदल याचिकाएं लम्बित थीं। तेलंगाना में मुख्यमंत्री केसीआर और राज्यपाल तमिलसाई सुंदरराजन के बीच तनातनी जारी रहती है। 2009 से 2022 के दरमियान जगदीप धनखड़ पश्चिम बंगाल के राज्यपाल थे और इस दौरान मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से उनका निरंतर टकराव होता रहा। बीते साल उन्हें उपराष्ट्रपति बना दिया गया। एक द्रमुक प्रवक्ता ने इस पर कटाक्ष किया था कि इसने एक मिसाल कायम कर दी है, अगर कोई राज्यपाल गैर-भाजपाई राज्य सरकारों को खुलेआम चुनौती देगा तो उसे इसका पुरस्कार अवश्य दिया जाएगा! देश में कुछ राज भवनों में निवासरत गैर-निर्वाचित संवैधानिक पदासीनों के द्वारा जिस तरह के राजनीतिक पक्षपात का प्रदर्शन किया जा रहा है, वह लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के लिए चिंता का विषय बन गया है।


Date:12-01-23

जनगणना की जिम्मेदारी पूरी करना अब जरूरी है

विराग गुप्ता, ( लेखक और वकील )

बिहार में जातिगत गणना के खिलाफ पीआईएल पर सुप्रीम कोर्ट में अगले हफ्ते सुनवाई होगी। संविधान की सातवीं अनुसूची और 1948 के कानून के अनुसार जनगणना कराने का अधिकार केंद्र सरकार को ही है। लेकिन ओबीसी के बारे में आयोग बनाने के साथ सामाजिक-आर्थिक सर्वे कराने के बारे में राज्य सरकारों को हक हासिल है। बिहार से पहले कर्नाटक में 2014 में जातिगत जनगणना हो चुकी है। समान नागरिक संहिता पर कानून बनाने का केंद्र को हक है। लेकिन इस बारे में कई राज्यों में बनाई गई समितियों को सुप्रीम कोर्ट ने हरी झंडी दिखा दी है। हर 10 साल में कराई जाने वाली जनगणना को 2021 में पूरा करने में केंद्र सरकार विफल रही है। इसलिए बिहार की जातिगत गणना का राज्य के भाजपा नेता भी विरोध नहीं कर पा रहे। केंद्रीय जनगणना को टालने और राज्यों में जातिगत गणना से उपजे विवादों के चार पहलुओं को समझना जरूरी है।

1. संसाधनों की बर्बादी : ओबीसी की 52 फीसदी आबादी को 27 फीसदी आरक्षण का लाभ देने के लिए मंडल आयोग ने अविभाजित भारत की सन् 1931 की जनगणना को आधार माना था। उसके बाद से इस मामले पर तथ्यपरक काम के बजाय वोट बैंक की राजनीति और मुकदमेबाजी हो रही है। पिछली बार 2011 की जनगणना में ओबीसी की गणना के लिए जाति के कॉलम को शामिल करने पर तत्कालीन गृहमंत्री चिदम्बरम ने वीटो लगा दिया था। उसके बाद चलताऊ तरीके से ग्रामीण विकास और आवास मंत्रालयों के माध्यम से सामाजिक-आर्थिक सर्वे किया। आधार और वोटर लिस्ट अपडेट हो रही है। जन्म और मृत्यु के रजिस्ट्रेशन की वजह से जनगणना के अनुमानित आंकड़े भी उपलब्ध हैं। इसलिए बड़ी जरूरत शैक्षणिक, आर्थिक और सामाजिक सर्वेक्षण की है। केंद्र और राज्य की सरकारें सभी तरह के आंकड़ों को साझा और सार्वजनिक करें तो सरकारी कर्मचारियों की सरदर्दी कम हो सकती है।

2. मुकदमेबाजी : अदालतों से अनुच्छेद-15, 16 और 343 की व्याख्या से शैक्षणिक, सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन के नए वर्गीकरण हो रहे हैं। संविधान के 103वें संशोधन से ईडब्ल्यूएस के आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट की मान्यता के बाद 99 फीसदी आबादी आरक्षण के दायरे में आने से 50 फीसदी लिमिट पार होना तय है। रोहिणी आयोग की अंतरिम रिपोर्ट के अनुसार ओबीसी की 2633 जातियों में से 983 को आरक्षण का लाभ नहीं मिलने पर उपजातियों की गणना की बात होने लगी है। स्थानीय निकायों में आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के ट्रिपल टेस्ट फॉर्मूले को लागू करने के लिए राज्यों के पास आंकड़े नहीं हैं। गवर्नेंस से जुड़े मामलों के बजाय वोट बैंक के मामलों में मुकदमेबाजी बढ़ने से न्यायिक सिस्टम चरमरा रहा है।

3. प्रवासी वोटर और पीडीएस : जनसंख्या के आधार पर वित्त आयोग राज्यों के लिए संसाधन आवंटित करता है। खाद्य सुरक्षा कानून के तहत आबादी के अनुसार राज्यों को सस्ता अनाज मिलता है। नई जनगणना नहीं होने से लगभग 12 करोड़ गरीब पीडीएस के लाभ से वंचित हो सकते हैं। आम चुनावों के पहले सरकारी पदों में बम्पर भर्ती में आरक्षण लागू करने के लिए भी नवीनतम डाटा जरूरी है। चुनाव आयोग के रिमोट ईवीएम पर हो रही चर्चा के अनुसार देश में 45 करोड़ लोग प्रवासी हैं। दूसरे राज्यों में बसी इस प्रवासी आबादी को किस राज्य का माना जाए? इस सवाल के जवाब से संसद और राष्ट्रपति चुनावों में राज्यों का दबदबा बदल सकता है।

4. संसद में राज्यों का प्रतिनिधित्व : फिलहाल 2001 की पुरानी जनगणना के अनुसार ही संसद में राज्यों का प्रतिनिधित्व है। 84वें संविधान संशोधन के अनुसार 2021 की जनगणना के अनुसार 2026 में विधानसभा और संसद की सीटों के परिसीमन का प्रावधान है। उस बड़ी संवैधानिक कवायद के बाद ही 2029 के आम चुनाव होने चाहिए। नए साल की शुरुआत में राम मंदिर के निर्माण की तारीख की घोषणा और बिहार में जातिगत जनगणना की शुरुआत से अगले आम चुनावों के लिए धर्म और जाति का एजेंडा सेट-सा लगता है। जाति और धर्म के नाम पर वोटबैंक और अफवाहों की सियासत को खत्म करने के लिए जनगणना के अधिकृत और वैज्ञानिक आंकड़े जरूरी हैं। राष्ट्रीय जनगणना का संवैधानिक उत्तरदायित्व पूरा हो ताे बिहार समेत अन्य राज्यों में जाति-गणना का रिवाज कम होगा। वोटबैंक और अफवाहों की सियासत को खत्म करने के लिए जनगणना के अधिकृत और वैज्ञानिक आंकड़े जरूरी हैं। जनगणना का दायित्व पूरा हो ताे बिहार समेत अन्य राज्यों में जाति-गणना का रिवाज कम होगा।


Date:12-01-23

विकासशील देशों की आवाज बनता भारत

विवेक देवराय और आदित्य सिन्हा, ( देवराय प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष और आदित्य सिन्हा प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद में अपर निजी सचिव (अनुसंधान) हैं )

विकसित देशों ने संसाधनों के मामले में विकासशील देशों के साथ पारंपरिक रूप से अन्याय ही किया है। इसने दुनिया के इन दोनों ध्रुवों के बीच असमानता की खाई को चौड़ा किया है। दिसंबर में साउथ सेंटर द्वारा जारी ‘इलिसिट फाइनेंशियल फ्लोज एंड स्टोलन असेट रिकवरी’ अध्ययन में पुन: इसी रुझान की पुष्टि हुई है। ऐसे में विकासशील देशों के हितों की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पैरवी अपरिहार्य हो गई है। इसी दायित्व की पूर्ति के लिए भारत 12 जनवरी से दो दिवसीय ‘वाइस आफ ग्लोबल साउथ समिट’ का आयोजन करने जा रहा है। इसमें 120 से अधिक देशों के प्रतिनिधि जुटकर एक मंच पर अपना दृष्टिकोण एवं प्राथमिकताओं को साझा करेंगे। इस आयोजन का उद्देश्य विकासशील देशों में सहयोग एवं एकता का भाव बढ़ाना है। भारत हमेशा से विकासशील देशों की आवाज को मुखरता से उठाने के मामले में अग्रणी रहा है। असल में वैश्विक समुदाय में भारत की स्थिति बहुत अनोखी है। विकासशील देशों में गिनती होने के बावजूद भारत विशाल आबादी और तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था वाला देश है। इससे भारत को अंतरराष्ट्रीय संबंधों विशेषकर विकासशील देशों के संदर्भ में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की गुंजाइश मिल जाती है। संप्रति भारत कम से कम तीन स्तरों पर विकासशील देशों की चिंताओं को लेकर आवाज बुलंद कर रहा है। जैसे कि मौजूदा सरकार के दौर में भारत ने अंतरराष्ट्रीय संगठनों और मंचों पर सक्रियता से सहभागिता आरंभ की है। फिर चाहे संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की अध्यक्षता हो या जी-20 की कमान, भारत ने समय के साथ एक नेतृत्वकर्ता का अवतार लिया है। वह विश्व व्यापार संगठन और विश्व बैंक सहित तमाम मंचों पर विकासशील देशों के हितों की पुरजोर वकालत कर रहा है।

दूसरा स्तर विकासशील देशों के साथ प्रगाढ़ संबंध बनाने का है। गत वर्षों के दौरान भारत ने तमाम विकासशील देशों विशेषकर अफ्रीकी और दक्षिण अमेरिकी देशों के साथ आर्थिक सहयोग एवं सांस्कृतिक आदान-प्रदान के आधार पर मजबूत रिश्ते गांठे हैं। इससे विकासशील विश्व के हितों के पक्ष में माहौल बनाने का उपयुक्त मंच तैयार हुआ है। तीसरा पहलू दक्षिण-दक्षिण सहयोग की कड़ी के रूप में भारत की महारत से जुड़ा है। ऐसे सहयोग में गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने अहम भूमिका निभाई। वर्ष 2009 में दक्षिण-दक्षिण सहयोग पर आयोजित उच्चस्तरीय संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के नैरोबी दस्तावेज में भी इसकी स्वीकारोक्ति हुई। बेलग्रेड में 1961 में हुए गुटनिरपेक्ष देशों के पहले सम्मेलन में विकासशील देशों के बीच व्यापारिक संबंधों को मजबूत बनाने की स्पष्ट प्रतिबद्धता जताई गई। हालांकि, विकासशील देशों में सहयोग की प्रक्रिया 1968 में तभी जाकर शुरू हो पाई, जब भारत, मिस्र और यूगोस्लाविया ने व्यापार समझौता किया। वर्ष 1972 में गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने अपने सदस्य देशों और अन्य विकासशील देशों के बीच आर्थिक सहयोग को स्वीकृति प्रदान की थी। हाल के दौर में विकासशील देशों को कोविड रोधी वैक्सीन उपलब्ध कराना भी दक्षिण-दक्षिण सहयोग के प्रति भारत के निरंतर प्रयासों का प्रमाण है।

दुनिया में चुनिंदा विकासशील देश ही हैं, जो अन्य विकासशील देशों या अल्पविकसित देशों में निवेश करते हैं। इस प्रकार के निवेश में चीन और भारत अग्रणी हैं, जो अन्य देशों में भी विकास कार्यों को विस्तार दे रहे हैं। हालांकि, चीन कर्ज के जाल में फंसाने के लिए कुख्यात हो चला है। चीन की कर्ज जाल में फंसाने वाली रणनीति कई देशों की संप्रभुता पर आघात करने वाली सिद्ध हुई है। चीन अपनी आर्थिक एवं वित्तीय ताकत का इस्तेमाल बुनियादी ढांचे से जुड़ी परियोजनाओं के लिए विकासशील देशों को कर्ज की आड़ में लुभाता है और फिर जब वह देश उसके इस जाल में फंस जाता है तो इसका परिणाम वहां चीन के राजनीतिक प्रभाव एवं रणनीतिक लाभ के रूप में निकलता है। इस चीनी परिपाटी को लेकर चिंता व्यक्त की जाने लगी है कि इससे आर्थिक अस्थिरता और यहां तक कर्जदार देशों के समक्ष दिवालिया होने तक का संकट पनप सकता है। पड़ोस में श्रीलंका और पाकिस्तान ही इस चीनी कर्ज जाल में फंसने के भुक्तभोगी हैं। इसी के चलते श्रीलंका हंबनटोटा बंदरगाह चीन को 99 साल के लिए लीज पर देने को विवश हुआ। पाकिस्तान ने भी चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे यानी सीपैक के लिए बीजिंग से भारी-भरकम कर्ज लिया है और यही आशंका जताई जा रही है कि उसके लिए उसकी भरपाई बेहद कठिन होगी। नतीजतन उसे अपने कई रणनीतिक ठिकाने चीन के हाथों गंवाने पड़ सकते हैं। इसी तरह कोविड काल में आर्थिक झंझावात में फंसा इक्वाडोर भी चीनी कर्ज चुकाने में नाकाम रहा।

दूसरी ओर, भारत अपनी हैसियत और प्रभाव का इस्तेमाल अंतरराष्ट्रीय समुदाय के बीच विकासशील देशों के हितों की पैरवी और उनमें सहयोग बढ़ाने के लिए करता है। ‘वाइस आफ ग्लोबल साउथ समिट’ आयोजन भी इसी कड़ी का हिस्सा है। कोविड महामारी के बाद यह दुनिया के अधिकांश देशों के जुटान का पहला बड़ा अवसर है, जहां वे समकालीन चुनौतियों पर चर्चा के लिए जुटेंगे। यह विकासशील देशों के समक्ष चिंताओं और आशंकाओं को सामने रखने का मंच होगा। प्रधानमंत्री मोदी पहले ही कह चुके हैं कि जी-20 की अध्यक्षता के दौरान भारत की प्राथमिकताएं केवल सदस्य देशों के आधार पर तय नहीं होंगी। उसमें ग्लोबल साउथ यानी विकासशील देशों की आवाज का भी समुचित समावेश होगा।

वस्तुत:, महामारी के बाद वाले दौर में दक्षिण-दक्षिण सहयोग और अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। दुनिया उससे उबरने और नई वास्तविकताओं से ताल मिलाने में लगी है। ऐसे परिदृश्य में दक्षिण-दक्षिण सहयोग की कड़ी गरीबी के दुष्चक्र, अस्थिरता और आर्थिक असमानता को समाप्त करने में सहायक बनने के साथ ही राष्ट्रीय विकास रणनीतियों को सिरे चढ़ाने में मददगार होगी। इस पूरी प्रक्रिया में भारत की भूमिका महत्वपूर्ण होने जा रही है।


Date:12-01-23

त्रासदी की जवाबदेही

संपादकीय

जोशीमठ में प्राकृतिक त्रासदी को राष्ट्रीय आपदा घोषित करने के लिए हस्तक्षेप की मांग करते हुए एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में डाली गई। हालांकि अदालत ने इस पर तत्काल सुनवाई से इनकार करते हुए कहा कि हर जरूरी चीज सीधे न्यायालय के पास नहीं आनी चाहिए। पीठ ने स्पष्ट कहा कि इस पर गौर करने के लिए लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित संस्थाएं हैं। दरअसल, याचिकाकर्ता ने दावा किया कि यह घटना बड़े पैमाने पर औद्योगीकरण के कारण हुई है। उन्होंने उत्तराखंड के लोगों के लिए तत्काल वित्तीय सहायता और मुआवजे की मांग की। सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका और अदालत की टिप्पणी के आईने में देखें तो विधायिका और नौकरशाही बनाम लोकहित के कई मुद्दे उठ खड़े हुए हैं। इसमें दो राय नहीं कि लोकतंत्र की मूल भावना, परंपरा और मर्म को लोकतांत्रिक संस्थाएं ही जिंदा रखती हैं, दीर्घजीवी और लोकतंत्र की जड़ें गहरी बनाती हैं। इस लिहाज से देखें तो उत्तराखंड में जोशीमठ में खड़े हो रहे व्यापक प्राकृतिक आपदा के मद्देनजर वहां के लोगों की मुश्किलों को समझा जा सकता है। लेकिन स्थानीय स्तर पर जिस तरह का संकट पैदा हुआ है, उसमें प्राथमिक स्तर पर वहां की सरकार और संबंधित विभागों की जिम्मेदारी बनती है कि वे इसका तात्कालिक और दीर्घकालिक समाधान निकालें। दूसरी ओर, आम जनता का भी यह हक है कि वह सबसे पहले स्थानीय स्तर पर उन संस्थाओं से अपनी जिम्मेदारी निभाने की मांग करें, जिन्हें लोकतंत्र में इसी काम के लिए बनाया गया है।

दरअसल, जोशीमठ त्रासदी ने लोकतंत्र के इन स्तंभों को लेकर जो सवाल खड़े किए हैं, उन्हें कुछ तथ्यों के आईने में समझने की जरूरत है। वहां भूस्खलन और धंसाव की समस्या को लेकर पिछले सैंतालीस वर्षों में कई अध्ययन कराए गए, लेकिन उनकी रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। वैज्ञानिकों ने हर बार आगाह किया, लेकिन इसके बाद भौगोलिक-तकनीकी अध्ययन कराने की ओर से आंखें फेर ली गई़़। उपचारात्मक कार्य नहीं हो पाए और आज स्थिति सबके सामने है। पुराने भूस्खलन क्षेत्र में बसे जोशीमठ में पूर्व में अलकनंदा नदी की बाढ़ से भूकटाव हुआ था। साथ ही घरों में दरारें भी पड़ी थीं। वर्ष 1976 से लेकर 2022 तक की अनेक अध्ययनों की संस्तुतियों में जोशीमठ क्षेत्र का भूगर्भीय सर्वेक्षण, भूमि की पकड़, धारण क्षमता, पानी के रिसाव के कारण समेत कई अध्ययन कराने की जरूरत बताई गई। वैज्ञानिकों के अनुसार जोशीमठ सिस्मिक जोन पांच में आता है और भूकंप व भूस्खलन की दृष्टि से काफी संवेदनशील स्थान है। इन तथ्यों को लेकर राष्ट्रीय ताप विद्युत निगम (एनटीपीसी) की तपोवन विष्णुगढ़ जल विद्युत परियोजना और हेलंग बाईपास का निर्माण कार्य को लेकर सवाल उठते रहे।

अब जबकि जोशीमठ में पानी सिर से ऊपर बहने लगा है और हाल में वैज्ञानिकों के दल ने दोबारा सर्वेक्षण कर अपनी रिपोर्ट शासन को सौंपी है, तब जाकर सरकार की नींद टूटी है। सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में इस संकट को राष्ट्रीय आपदा घोषित करने की मांग करते हुए कहा गया है कि ‘मानव जीवन और पारिस्थितिकी तंत्र की कीमत पर कोई भी विकास नहीं होना चाहिए। अगर किसी भी स्तर पर ऐसा होता है तो फिर राज्य और केंद्र सरकार को इसे तत्काल रोकने के लिए कदम उठाने चाहिए।’ यह तर्क विधायिका और कार्यपालिका के रुख पर सवाल उठाता है। हालांकि जब विधायिका और कार्यपालिका अपना काम ठीक से न करें तो अदालत का आसरा होता है। लेकिन तथ्य यह भी है कि देश के लोकतांत्रिक ढांचे में एक व्यापक संस्थागत ढांचा बना हुआ है। इस मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने इन्हीं संस्थाओं की प्रासंगिकता की ओर ध्यान दिलाया है।


Date:12-01-23

कृत्रिम बुद्धिमत्ता की अगुवाई में भविष्य के लिए रहिए तैयार

विद्या महांबारे, ( प्रोफेसर, अर्थशास्त्र, जीएलआईएम )

कोड करने की क्षमता आज एक श्रेष्ठतम कौशल है, पर कल की मुख्य दक्षताओं या कौशलों के लिए अलग-अलग अभिरुचि व प्रशिक्षण की जरूरत पड़ेगी। मूल कोडिंग और प्रोग्रामिंग की तुलना में कुशलता, समेकित सोच व अभिव्यक्ति कहीं अधिक मूल्यवान व आवश्यक बन जाएगी। समय के साथ मानविकी की मांग बढ़ेगी। अकादमिक विषयों के रूप में मानविकी को हीन या फैशन से बाहर नहीं माना जाएगा। ऐसा भारत और विदेश के शीर्ष कॉलेजों में पहले से ही होने लगा है। महान ज्ञानी मशीनों तक पहुंच रखने वाले लोगों और युवाओं के लिए खुद को विशेषज्ञ या बुद्धिजीवी के रूप में स्थापित करना कठिन होता जाएगा।

ये बातें सामान्य सी लग सकती हैं, पर बदलाव रातोंरात न सही, अपेक्षाकृत तेजी से होगा। चौथी औद्योगिक क्रांति हमारे जीने और काम के तरीके में बुनियादी बदलाव लाएगी, ऐसा होने भी लगा है। नवंबर महीने में चैटजीपीटी की शुरुआत बदलाव की एक झलक है। जीपीटी या जनरेटिव प्रीट्रेंड ट्रांसफॉर्मर, एक अत्याधुनिक भाषा प्रसंस्करण कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) मॉडल है। यह कोडिंग सहित कई सरल और जटिल कार्यों के लिए इंसान जैसे आउटपुट या नतीजे देता है। एआई, रोबोटिक्स और इंटरनेट ऑफ थिंग्स (आईओटी) का इस्तेमाल करने वाली ऐसी तकनीकों का विकास आने वाले समय में हमारे काम करने के तरीकों को बदल देगा। इन तकनीकों को माइक्रोसॉफ्ट जैसे रोजमर्रा में इस्तेमाल होने वाले सॉफ्टवेयर में शामिल कर लिया जाएगा।

तेजतर्रार तकनीकी सुधारों के साथ एआई के अगले संस्करणों के इस्तेमाल की लागत कम हो गई है, जिससे वे लोगों को ज्यादा सुलभ होने लगे हैं। इन तकनीकों का प्रभावी इस्तेमाल करने वालों की उत्पादकता बढ़ेगी। मिसाल के लिए, चैटबॉट से गुणवत्तापूर्ण नतीजे या आउटपुट लेने के लिए अच्छे से संकेत या निर्देश देना महत्वपूर्ण है। यह जानना महत्वपूर्ण हो जाएगा कि क्या पूछना है और कैसे पूछना है। ऐसी कई प्रौद्योगिकियां हैं, जो परस्पर संवाद कर सकती हैं, जबकि हमें यह जानने की जरूरत है कि इसे कैसे व्यवस्थित किया जाए।

मनमाफिक इस्तेमाल के लिए तमाम उपलब्ध तकनीकों को एकीकृत करने के लिए उच्चस्तरीय कोडिंग जानना कारगर होगा। एआई तकनीक पिछले डाटा या आंकड़े के आधार पर काम करती है और इसे लगातार अपडेट किया जाता है। हालांकि, अभी यह नहीं बताया जा सकता कि क्या बड़े बदलाव होने वाले हैं, पर जो लोग इसे महसूस कर सकते हैं, उन्हें आने वाले समय में प्रमुखता मिलेगी। चूंकि यह ज्ञान अनुभव और अभ्यास से आता है, इसलिए खुद को कुशल न बनाने वाले युवा घाटे में रहेंगे। भविष्य में जीपीटी मॉडल इंसानों की तरह लेखन में महारत हासिल कर लेंगे, यह बताना मुश्किल हो जाएगा कि किसी सामग्री को मशीन ने लिखा है या व्यक्ति ने। असली आवाज के साथ जीवंत डिजिटल अवतारों की भी उम्मीद है, लेकिन एआई आमने-सामने के संवाद में इंसान की जगह नहीं ले सकता। सीधे संवाद और सम्मेलनों में निवेश को फिर से महत्व मिलेगा। अर्थशास्त्री टायलर कोवेन ने अपने हालिया ब्लॉग पोस्ट में पहले ही इस ओर इशारा किया है।

जैसे-जैसे प्रत्यक्ष आयोजन फिर प्रमुखता पाएंगे, महिलाओं का एक समूह शायद वंचित हो सकता है। पिछले कुछ वर्षों में जूम जैसी तकनीकों ने महिलाओं को कार्य से संबंधित यात्रा से बचाकर लाभ पहुंचाया है। हालांकि, ऐसी महिलाओं को भी भविष्य में फायदा होगा। वे सॉफ्ट स्कील या सहज कौशल में स्वाभाविक ही बेहतर हैं। जैसे-जैसे कार्य स्वचालित होते जाएंगे, वैसे-वैसे सॉफ्ट स्किल्स की मांग बढ़ती जाएगी।

हां, आने वाले समय में साहित्यिक चोरी का पता लगाना अधिक समय लेने वाली और निरर्थक प्रक्रिया बन जाएगी। पूरे देश में स्कूल और कॉलेज व्यवस्था को लचीला बनाना होगा। उदाहरण के लिए, कंप्यूटर विज्ञान को मनोविज्ञान, व्यावसायिक अध्ययन और गणित के साथ लेना संभव हो जाना चाहिए। अभी ऐसा नहीं है। एक बात तय है कि काम का स्वरूप तेजी से बदल रहा है। आज के विजेताओं से अलग होंगे कल के विजेता, तो एक नए भविष्य के लिए तैयार हो जाइए।