12-01-2018 (Important News Clippings)

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12 Jan 2018
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Date:12-01-18

On right track

FDI liberalisation package is welcome, now boost Make in India

TOI Editorials 

The Narendra Modi government ushered a new wave of liberalisation in India’s foreign direct investment (FDI) regime on Wednesday. In keeping with its overall approach, this round liberalised some investment norms and simplified procedures. Government deserves credit for its FDI policy approach which has been consistent. This in turn has led to a noticeable increase in FDI flows over the last three years, with 2016-17 recording a high of $60.08 billion. It is important for the government to keep at it, as FDI brings in scarce capital as well as advanced technology and management practices.Some aspects stand out. NDA appears firmly committed to a disinvestment process for Air India. Civil aviation in India is a sector where there is a fair degree of competition and growth over the last decade has been driven by private carriers. By not only staying the course on Air India’s disinvestment but also bringing foreign investment rules in the airline on par with private carriers, NDA has underscored an important policy principle.

State dominance in commercial activities has left the government with a direct stake in too many businesses. To enable the creation of a competitive market in these areas, it is important to have a policy and regulatory approach which does not discriminate on the basis of ownership. This principle, which has been applied to Air India’s disinvestment process, should be extended to other sectors. Separately, a change in FDI procedures also highlights weaknesses in India’s manufacturing ecosystem. The mandatory domestic sourcing norms have been diluted to encourage FDI. It is a reminder of inefficiencies that plague the manufacturing sector. The true potential of FDI liberalisation can be harnessed only when Indian suppliers play a greater role.

The current FDI package thus needs to be supplemented with measures which strengthen Make in India. In terms of job creation and transforming India’s economic landscape, this is the most important task that remains to be carried out. Its success will depend not just on Centre removing all the entry and operational barriers to manufacturing, but also getting states to create a more conducive atmosphere on the ground so that India can be competitive internationally. These steps will not only catalyse more FDI but will also play a significant role in deepening India’s linkage to global supply chains. This combination will create a virtuous cycle, placing the economy on a high growth trajectory.


Date:12-01-18

शब्द में बदलाव करने का नहीं कोई महत्व

टीसीए श्रीनिवास-राघवन

बीते कई सौ सालों में दुनिया के अधिकांश देश उस द्वंद्व से गुजरते रहे हैं जिसे माक्र्सवादी ‘राज्य निर्माण’ कहते हैं। यह माक्र्सवादी अध्ययन की एक पूरी शाखा का नाम है। इस मामले में भी भारत की समस्या एकदम उलट रही है। सन 1947 में हमें एक मजबूत राज्य विरासत में मिला था लेकिन तमाम जानी और अनजानी वजहों से हम एक सुसंगत राष्ट्र बनाने में नाकाम रहे। कांग्रेस ने इसे राजनीतिक चुनौती के रूप में देखा क्योंकि मोहम्मद अली जिन्ना ने एक धर्म आधारित मुल्क की मांग की थी। भारत की विविधता ने कांग्रेस के रुख में मददगार भूमिका निभाई। ब्रिटिशों की अनपेक्षित विदाई से उपजी शुरुआती दिक्कतों ने भी यही किया। सन 1980 के दशक के अंत तक कश्मीर को छोड़कर राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया कमोबेश पूरी हो चुकी थी। देश के पूर्वोत्तर के इलाके पर भी लगातार यह दबाव बनाया जाता रहा कि वह भारतीय राष्ट्र का हिस्सा बन जाएं। यह दबाव काफी हद तक सिखों पर बनाए गए दबाव के समान ही था जिनमें से कुछ ने एक सिख राष्ट्र (खालिस्तान) की मांग के साथ पूरे 1980 के दशक में अशांति फैलाते रहे।

भारत अब एक संपूर्ण राष्ट्र राज्य बन चुका था। एक ऐसे समय में जबकि अन्य राज्य या तो ढह रहे थे या उन्हें नए सिरे से परिभाषित किया जा रहा था, यह अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि थी। इस उपलब्धि के सबसे अहम योगदानकर्ताओं में से एक बात यह भी थी कि तमाम भारतीय राजनीतिक दलों ने राष्ट्रीय स्तर पर या राज्य स्तर पर किसी एक धर्म को स्वीकार नहीं किया और भारत के एक राज्य के रूप में विकास में धर्म को एकदम बेमानी रखा गया। इसका यह मतलब नहीं कि कांग्रेस राजनीति में धर्म को नहीं लाई, जाहिर है उसने ऐसा किया लेकिन उसने यह भी सुनिश्चित किया कि धर्म को संविधान के प्राथमिक संस्करण में प्रतीकात्मक से ज्यादा स्थान नहीं मिले।

राष्ट्र और राज्य

कुछ हिंदू सामाजिक और राजनीतिक समूह हमेशा से इस रुख को चुनौती देते आए हैं। उनका कहना है कि भारत इकलौती ऐसी जगह है जहां 100 करोड़ हिंदू रहते हैं इसलिए इसे हिंदू राष्ट्र होना चाहिए। जो बात एकदम जाहिर नजर आ रही हो उस पर जोर देना न केवल अनावश्यक है बल्कि वह कहीं न कहीं गहरी असुरक्षा का भी बोध कराता है। उदाहरण के लिए आरएसएस हिंदुओं का शायद सबसे बड़ा समूह है उसे ‘राष्ट्रीय उद्देश्य’ की चिंता है। उसे लगता है कि देश में इसका अभाव है। उसका मानना है कि देश को हिंदू राष्ट्र घोषित करने से एक राष्ट्रीय उद्देश्य तैयार होगा। क्या वाकई ऐसा होगा? इस बीच राष्ट्र की बात करें तो इसका अर्थ राज्य नहीं होता। अधिकांश आलोचकों को इन दोनों के बीच का भेद ही नहीं पता। हालांकि अब तक भाजपा या आरएसएस ने हिंदू राज्य शब्द का इस्तेमाल नहीं किया है। उन्हें इस बात का जवाब देना होगा कि क्या वे इन दोनों को एक ही समझते हैं और इनका इस्तेमाल एक दूसरे के स्थान पर कर रहे हैं? मुझे ऐसा नहीं लगता है। परंतु अगर इस बारे में एक स्पष्टïीकरण दे दिया जाए तो बेहतर होगा। संभव है इनके कुछ लोग अनजाने में ऐसा कर रहे हैं। परंतु अगर ऐसा है तो भी कोई बहुत चिंतित होने की बात नहीं है।

इसकी वजह यह है कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 15 यह सुनिश्चित करता है कि राज्य अपने नागरिकों के बीच धर्म, नस्ल, जाति, लिंग, जन्म स्थान आदि किसी के आधार पर भेद नहीं करेगा। यह भेदभाव न होने की पर्याप्त गारंटी मानी जा सकती है। मुझे नहीं लगता कि भाजपा की सरकार या कोई अन्य सरकार अगर संविधान में से धर्मनिरपेक्ष शब्द हटाकर हिंदू राष्ट्र शब्द लिखवा दे तो भी वह उपरोक्त भावना को नहीं बदल सकती। जाहिर है भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करना एक थोथी कवायद बनकर रह जाएगा। अकेले इसी वजह से भी ऐसा नहीं किया जाना चाहिए। यह उतना ही निरर्थक होगा जितना कि कांग्रेस द्वारा संविधान में धर्मनिरपेक्ष शब्द जोड़ा जाना। ऐसा करने की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि इसकी बदौलत भारत कम या ज्यादा धर्मनिरपेक्ष नहीं हो गया।

बारो का शोध

इस संदर्भ में मैं चाहूंगा कि आप सब रॉबर्ट बारो का लेखन पढ़ें। उन्हें इस वर्ष अर्थशास्त्र के नोबल का दावेदार माना जा रहा है। उन्होंने राज्यों के धर्मों का विस्तार से अध्ययन किया है। उनके अध्ययन के दायरे में 188 देशों के आंकड़े शामिल हैं। उन्होंने इस संबंध में कुछ रोचक निष्कर्ष दिए हैं। उनका कहना है कि धर्म किसी राज्य की आर्थिक वृद्घि पर कोई असर नहीं डालता है। आर्थिक वृद्घि धर्म को लेकर तो प्रतिक्रिया नहीं देती लेकिन धार्मिकता को लेकर वह सकारात्मक होती है। वह यह भी कहते हैं कि धर्मिकता का गहन अनुपालन राज्य के धर्म से सकारात्मक ढंग से जुड़ा हुआ है और इस संबंध का काफी हिस्सा राज्य की धार्मिकता को लेकर धार्मिक गहनता से संबंधित होता है, बजाय कि इसके उलट होने के। कहा जा सकता है कि भाजपा और आरएसएस इसी से संचालित हो रहे हैं लेकिन यह स्पष्टï नहीं है कि किस दिशा में। अंत में बारो कहते हैं कि राज्य का धर्म उस वक्त अधिक संभावित होता है जबकि राज्य की आबादी एकेश्वरवादी होती है। हमें यह बात मुस्लिम मतावलंबियों में नजर आती है। ऐसे में कहा जा सकता है कि एकेश्वरवाद, हिंदुत्व और मुस्लिम, इन तीनों शब्दों से कम से कम भाजपा के भीतर कुछ लोगों के बीच विचार प्रक्रिया आरंभ होनी चाहिए।


Date:12-01-18

कृषि ऋण

संपादकीय

आधिकारिक दावों पर यकीन करें तो कृषि क्षेत्र को दिया जाने वाला संस्थागत ऋण चालू वर्ष में 10 लाख करोड़ रुपये के तय लक्ष्य को पार कर जाएगा। साल दर साल यह देखने को मिल रहा है कि वास्तविक ऋण वितरण आमतौर पर उदार ढंग से तय किए गए सालाना लक्ष्य को पार कर जाते हैं। कहने का अर्थ यह कि न तो किसानों के संकट और न ही साहूकारों के कर्ज पर उनकी निर्भरता कम होने का नाम ले रही है। ग्रामीण क्षेत्र की ऋण मांग का करीब 40 फीसदी अभी भी असंगठित क्षेत्र से पूरा होता है जिसमें कमीशन एजेंट और साहूकार-महाजन शामिल हैं। वर्ष 2010 के शुरुआती दिनों से अब तक कुल ऋण 10 गुना से अधिक बढ़ गया है। जाहिर सी बात है कि कृषि क्षेत्र के लिए संस्थागत ऋण में लगातार इजाफा किए जाने के बावजूद उद्देेश्य प्राप्ति नहीं हो पा रही है। सरकार द्वारा ब्याज दर में कमी के बाद सस्ते बैंक ऋण भी जरूरतमंदों तक पूरी तरह नहीं पहुंच पा रहे हैं। इसके असली जरूरतमंद छोटे और मझोले किसान हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संस्थान समेत तमाम अन्य अध्ययन और सर्वेक्षण तथा हाल ही में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज ने भी इस संबंध में तमाम संकेत पकड़े हैं। उदाहरण के लिए 2 लाख रुपये से कम का ऋण जो आमतौर पर जरूरतमंद किसानों को जाता है, उसमें बहुत कमी आई है। सन 1990 के दशक में जहां उसकी हिस्सेदारी 90 फीसदी थी, वहीं अब यह आधे से भी कम रह गया है। इसी तरह एक करोड़ रुपये तक या उससे अधिक के भारी ऋण में इजाफा हो गया है। इसके अलावा कुल कृषि ऋण का करीब आधा जनवरी और मार्च के बीच बंटता है जबकि उस वक्त किसानों की ऋण संबंधी आवश्यकताएं न्यूनतम होती हैं क्योंकि रबी की फसल कट चुकी होती है और खरीफ की बुआई अभी दूर होती है। एक और विचित्र बात यह है कि करीब एक चौथाई प्रत्यक्ष कृषि ऋण उन बैंक शाखाओं से जारी किए जाते हैं जो अद्र्ध शहरी, शहरी और मेट्रो शहरों में होती हैं।

इस तरह बैंकों के लिए भी सीधे किसानों को जोखिम भरा ऋण देने के कृषि संबंधी उद्यमों को ऋण देना अधिक सुरक्षित और सहज लगता है। कृषि ऋण की निरंतर माफी की वजह से ग्रामीण इलाकों में ऋण चुकाने की प्रवृत्ति कम हुई है। इसके चलते भी बैंक किसानों को कर्ज देने से बचते हैं। यही वजह है कि भारी भरकम सब्सिडी वाले कई कृषि ऋण या तो गैर कृषि क्षेत्र के लोगों को जाते हैं या फिर उन किसानों को जिनका रिकॉर्ड कर्ज चुकाने के मामले में बेहतर है। दूसरी ओर, सहकारी ऋण की बात करें तो उसकी हालत भी बेहद खराब है। भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा हाल में जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक प्राथमिक सहकारी बैंकों और कृषि तथा ग्रामीण विकास बैंकों का फंसा हुआ कर्ज वर्ष 2015-16 तक 37 फीसदी बढ़ गया।राजनीतिक हस्तक्षेप ने भी चिंता बढ़ाने का काम किया है। ऐसे में वित्त मंत्रालय ने आगामी बजट से पहले राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) से सहकारी ऋण संस्थानों की सेहत का नए सिरे से आकलन करने को कहकर सही किया। नाबार्ड इन संस्थानों और राज्य सरकारों की वित्तीय मदद करता है। इससे केंद्र सरकार को अपनी नीति को नए सिरे से तैयार करने में मदद मिलेगी। जब तक सहकारी बैंकों और वाणिज्यिक बैंकों से जुड़े ऐसे मुद्दों को हल नहीं किया जाता ताकि कृषि ऋण सही ढंग से लक्षित हो तब तक केवल कृषि ऋण में इजाफा करने से काम नहीं चलेगा।


Date:12-01-18

कैसे कामयाब मेक इन इंडिया?

प्रधानमंत्री दावोस में नया भारत बनाने में मदद का आह्वान करेंगे। ‘मेक इन इंडिया’ का नारा जबरदस्त है लेकिन अब तक ऐसा कुछ नहीं बना जो वैश्विक स्तर पर आकर्षण का केंद्र बने। बता रहे हैं अजय छिब्बर

अजय छिब्बर

सन 1991 में उदारीकरण की शुरुआत के बाद और वर्ष 2000 से 2013 के बीच सहज वैश्विक माहौल के बीच देश का गैर तेल निर्यात करीब 18 फीसदी वार्षिक की दर से बढ़ा। इस बीच देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 8 फीसदी की दर से वृद्घि हुई जो अब तक की सबसे तेज वृद्घि है। परंतु इस नीति का हम अब तक पूरा लाभ ले चुके हैं। देश का निर्यात वित्त वर्ष 2013-14 में 31,500 करोड़ डॉलर था जो वित्त वर्ष 2016-17 तक घटकर 27,700 करोड़ डॉलर रह गया। सुधार के कुछ संकेत मिले हैं लेकिन अगर देश वित्त वर्ष 2025-26 तक 5 लाख करोड़ डॉलर मूल्य की अर्थव्यवस्था बनना चाहता है तो उसे निर्यात को 1 लाख करोड़ डॉलर मूल्य से ऊपर ले जाना होगा। आयात में इजाफा हो रहा है जिसका नुकसान घरेलू उद्योग जगत को उठाना पड़ रहा है। वास्तविक विनिमय अधिमूल्यित बना हुआ है। वित्त वर्ष 2016-17 में आयात 38,300 करोड़ डॉलर रहा जिसे वर्ष 2025-26 तक 1.2 लाख करोड़ डॉलर तक सीमित रखना होगा। इससे देश कहीं अधिक प्रतिस्पर्धी बनेगा। एक सफल व्यापार नीति को एक प्रतिस्पर्धी औद्योगिक नीति की आवश्यकता है।

नेटवक्र्ड उत्पादों के क्षेत्र में भारत मोटे तौर पर नदारद नजर आता है। भारत इस क्षेत्र में वैश्विक व्यापार के 0.5 फीसदी के बराबर यानी 2,500 करोड़ डॉलर का निर्यात करता है। इसमें असेंबल किए हुए निर्यात की हिस्सेदारी 1,500 करोड़ डॉलर का और घटकों की हिस्सेदारी 1,000 करोड़ डॉलर की है। जबकि इस क्षेत्र में चीन की हिस्सेदारी 20 फीसदी है। कोरिया की हिस्सेदारी 5 फीसदी, सिंगापुर की 3.5 फीसदी, मलेशिया की 2 फीसदी, थाईलैंड की 2 फीसदी और वियतनाम की 1 फीसदी है। वैश्विक मूल्य शृंखला (जीवीसी) में देश की कमजोर स्थिति की वजह खराब लॉजिस्टिक्स, बिजली आपूर्ति की अनिश्चितता और अपेक्षाकृत ज्यादा श्रम विवाद हैं।भारत चुनिंदा उत्पादों के मामले में सफल रहा है। उसने न केवल व्यापार व्यवस्था को उदार बनाया बल्कि कई सामरिक नीतियों को भी बदला। उदाहरण के लिए असेंबल किए हुए वाहन निर्यात में भारत की सफलता में 10 वर्षीय योजना की अहम भूमिका रही। नैशनल ऑटोमोटिव टेस्टिंग ऐंड रिसर्च ऐंड डेवलपमेंट पॉलिसी ने भी इसमें अहम भूमिका निभाई। नेट्रिप्स के तहत 2016 तक 15,000 करोड़ डॉलर के उत्पादन का लक्ष्य तय किया गया था। इससे देश चुनिंदा श्रेणियों में वरीयता हासिल करने में कामयाब रहा।

वाहन क्षेत्र की तरह देश इलेक्ट्रॉनिक्स, दूरसंचार, हार्डवेयर, इलेक्ट्रिकल मशीनरी, कंप्यूटर और ऑफिस मशीन आदि के क्षेत्र में भी बड़ा केंद्र बन सकता है, बशर्ते कि इसे ऐसी ही योजना मुहैया कराई जाए और क्षेत्र का निर्यात मौजूदा 1,500 करोड़ डॉलर से बढ़ाकर 2025 तक 15,000-20,000 करोड़ डॉलर किया जा सके। इसके लिए बेहतर लॉजिस्टिक्स, कुशल प्रबंधन, अच्छी बिजली आपूर्ति और शोध आदि की आवश्यकता होगी। फिलहाल ऐसा नजर नहीं आता। भारत एयरोनॉटिक्स और वाहन कलपुर्जा के बड़े केंद्र के रूप में उभर रहा है। इस क्रम में एफडीआई जुटाने का सचेतन प्रयास किया जा रहा है। इसमें 30 फीसदी की घरेलू आपूर्ति की शर्त रखी जा रही है। भारत कई उद्योगों में कलपुर्जा आपूर्ति का गढ़ बन सकता है। वह विकसित देशों में अपना निर्यात 1,000 करोड़ डॉलर से बढ़ाकर 10,000 करोड़ डॉलर कर सकता है। इस प्रकार वह सचेत ढंग से जीवीसी में शामिल हो सकता है।

देश का दवा उद्योग का भी विकास हुआ क्योंकि भारत ने सन 1970 के दशक में एक गैर ट्रिप्स (ट्रेड रिलेटेड अस्पेक्ट्स ऑफ इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स) अनुपालित पेटेंट नीति विकसित की। इसकी मदद से दवा उद्योग का मजबूती से विकास हुआ और सन 2005 में जब ट्रिप्स अनुपालित अधिनियम पेश किया गया तो उसकी आंतरिक शोध विकास क्षमता ने उसे विश्व बाजार में प्रतिस्पर्धी बनाए रखा। भारत डिजाइन, वास्तु, अंकेक्षण, लॉजिस्टिक्स आदि के मामले में सूचना प्रौद्योगिकी सेवाओं का एक बड़ा आपूर्तिकर्ता देश है। परंतु खुद अपने देश में इनका बहुत अधिक इस्तेमाल नहीं होता। कुछ लोग हैं जो कहते हैं कि भारत को सेवा या विनिर्माण पर ध्यान देना चाहिए। यह सही चयन नहीं है। इसके बजाय भारत इलेक्ट्रॉनिक्स और इलेक्ट्रिकल मशीनरी, रक्षा उपकरण और हरित तकनीक जैसे कई क्षेत्रों में विश्वस्तरीय सेवाएं दे सकता है।कुछ लोग कहते हैं कि केवल छोटे और मझोले उद्यमों पर ध्यान देने की आवश्यकता है। भारत को हर प्रकार के उद्यमों में तेज वृद्धि की जरूरत है। उसे बड़ी मझोली और छोटी कंपनियों के बीच तालमेल के साथ समझौता करने की जरूरत है। हमें मझोले आकार की कंपनियां चाहिए जिनमें 100-500 कर्मचारी हों। दुखद बात यह है कि भारत अपने पारंपरिक श्रम आधारित निर्यात क्षेत्र यानी वस्त्र, चमड़ा और जूते-चप्पल में पिछड़ रहा है। यह निर्यात घटकर 3,000 करोड़ डॉलर रह गया है। हाल के वर्षों में भारत का निर्यात कुशल श्रम और पूंजी आधारित उद्योगों की ओर स्थानांतरित हुआ है। अब यह विकसित बाजारों से अफ्रीका और एशिया के विकासशील क्षेत्रों में स्थानांतरित हो गया है। यूरोपीय संघ के 2 लाख डॉलर के निर्यात में भारत की हिस्सेदारी केवल 4,000 करोड़ डॉलर की है। लैटिन अमेरिका और कैरेबिया के कुल 80,000 करोड़ डॉलर के आयात में भारत का योगदान महज 1,000 करोड़ डॉलर का है।

सामरिक व्यापार नीति का अर्थ बाजारों को खोलना भर नहीं है। भारत को दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों के मुक्त व्यापार समझौते की समीक्षा करनी चाहिए। ऐंटी डंपिंग के लिए अस्थायी शुल्क की जरूरत हो सकती है लेकिन शुल्क का दायरा विश्व व्यापार संगठन के ढांचे के मुताबिक हो। निर्यात को एक लाख करोड़ डॉलर के स्तर पर पहुंचाने के लिए वर्ष 2025-26 तक उसे सालाना 18 फीसदी की दर से बढ़ाना होगा। हम सन 2000 से 2013 के बीच ऐसी तेज वृद्धि हासिल कर चुके हैं। उदारीकरण के 25 साल बाद इस नए भारत को सामरिक व्यापार और उद्योग नीति की आवश्यकता है जिसमें पारंपरिक श्रम आधारित निर्यात को बढ़ावा देने, नेटवर्क वाले उत्पादों की गुंजाइश बनाने तथा अधिमूल्यित विनिमय दर से बचने और बेहतर व्यापार समझौते करने की काबिलियत हो। सरकार और निजी क्षेत्र मिलकर भारत को एक नए क्षितिज पर ले जा सकते हैं।


Date:12-01-18

आधार पर बेजा चिंताएं

संपादकीय

आधार कार्ड संबंधी डाटा की सुरक्षा को लेकर हाल में चिंताएं बढ़ी हैं। लेकिन क्या इन चिंताओं का आधार सचमुच पुख्ता है? हाल ही में एक अंग्रेजी अखबार ने खबर छापी कि आधार के डाटा बैंक में सेंध लगाने वाला एक नेटवर्क वॉट्सएप के जरिए सक्रिय है। इस धंधे से जुड़े लोग महज 500 रुपए में लॉग-इन नेम और पासवर्ड बेच रहे हैं, जिनके जरिए भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) के पास मौजूद तकरीबन एक अरब व्यक्तियों की सूचनाएं हासिल की जा सकती हैं। स्वाभाविक है कि इससे लोगों की फिक्र बढ़ी। यूआईडीएआई की इसके लिए तारीफ की जानी चाहिए कि उसने इन चर्चाओं को गंभीरता से लिया। बुधवार को उसने आधार डाटा की सुरक्षा और मजबूत करने के उपाय घोषित किए। इसके तहत आधार कार्ड का उपयोग करते समय 12 अंकों का आधार नंबर बताना जरूरी नहीं रह जाएगा। आम उपयोग के लिए लोग खुद यूआईडीएआई की वेबसाइट पर जाकर अपने आधार नंबर से अस्थायी वर्चुअल आईडी प्राप्त कर सकेंगे। इससे स्थायी आधार संख्या की गोपनीयता बनी रहेगी।

साफ है, यूआईडीएआई लोगों की चिंताओं को लेकर संवेदनशील है। साथ ही डाटा हिफाजत के दोहरे इंतजाम करने में वो सक्षम है। इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखें, तो आधार कार्ड योजना को लेकर बार-बार उठाए जाने वाले सवालों की प्रासंगिकता संदिग्ध नजर आती है। इसी बात पर यूआईडीएआई के पूर्व अध्यक्ष नंदन नीलेकणि ने भी जोर दिया है। कहा है कि आधार को बदनाम करने की सुनियोजित मुहिम चलाई जा रही है। स्मरणीय है कि ऐसा अभियान तभी शुरू हो गया था, जब पूर्ववर्ती यूपीए सरकार ने आधार कार्ड की योजना बनाई। बुद्धिजीवियों का एक हिस्सा तब से कह रहा है कि इससे लोगों की निजता का उल्लंघन होगा और आमजन की निजी सूचनाएं लीक होंगी, जिसका लाभ कॉर्पोरेट सेक्टर उठाएगा। लेकिन ऐसा कैसे होगा, इस बारे में कोई प्रामाणिक तथ्य सामने नहीं है।

बहरहाल, बेहतर यह होगा कि ऐसे लोग सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का इंतजार करें। कोर्ट की संविधान पीठ आधार को लेकर उठी तमाम आपत्तियों पर गौर कर रही है। इसी महीने वो इसकी सुनवाई शुरू करने वाली है। इस बीच अपुष्ट रिपोर्टों के जरिए आधार को लेकर संदेह का माहौल बनाना कतई वांछित नहीं है। यह ध्यान में रखना चाहिए कि ये अपने ढंग की अनोखी योजना है। इससे तमाम भारतीयों को विशिष्ट पहचान-पत्र मिल रहा है। इसके जरिए सरकारी योजनाओं का वे बेहतर ढंग से लाभ उठा सकते हैं। साथ ही कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने के क्रम में दशकों से जारी भ्रष्टाचार नियंत्रित हो रहा है। हकीकत यह है कि इस योजना ने सारी दुनिया का ध्यान खींचा है। इतनी बड़ी परियोजना में कुछ दिक्कतें आना या खामियां उभरना अस्वाभाविक नहीं है। ऐसी बातों को जरूरत से ज्यादा बढ़ा-चढ़ाकर पेश नहीं किया जाना चाहिए। अपेक्षित यही है कि सभी इस बारे में रचनात्मक रुख अपनाएं। बाकी चिंताओं के लिए सबको सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की प्रतीक्षा करनी चाहिए, जिसके सामने आधार से संबंधित सभी पहलू व पक्ष रखे जाएंगे।


Date:12-01-18

आओ बनाएं महासंत के सपनों का भारत –

एम. वेंकैया नायडू (-लेखक देश के उपराष्‍ट्रपति हैं)

उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।

‘उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक कि लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए। उपनिषदों से निकले इस श्लोक को स्वामी विवेकानंद ने बहुत लोकप्रिय बनाया। सभी भारतीयों, विशेषकर युवाओं के लिए यह प्रेरणा का महामंत्र होना चाहिए, जिन्हें शिक्षा व समर्पण के साथ नए भारत का निर्माण करना है। भारत के लिए शायद इससे बेहतर अवसर कभी नहीं रहा कि वह अपनी वास्तविक क्षमताओं को पहचान सके, जिसकी 65 फीसदी से अधिक आबादी युवाओं की है। भारत पहले ही दुनिया की प्रमुख आईटी शक्ति के रूप में स्थापित हो चुका है, जहां जीडीपी में सेवा क्षेत्र का महती योगदान है। हालांकि भारत के चतुर्दिक एवं सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक है कि विनिर्माण, कृषि, ऊर्जा और बुनियादी ढांचे का भी समुचित विकास हो, ताकि देश दस से पंद्रह वर्षों की अनुमानित अवधि से पहले ही दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन सके। मिशिगन यूनिवर्सिटी में पत्रकारों के समूह से स्वामी विवेकानंद ने कहा था, ‘फिलहाल यह आपकी सदी है, लेकिन 21वीं सदी भारत की होगी। शंकालु और निराशावादी अभी भी इस बात पर संदेह कर सकते हैं कि क्या भारत सभी वर्जनाओं को धता बताते हुए दुनिया की प्रमुख अर्थव्यवस्था बन पाएगा, लेकिन विकास के हालिया रुझानों से उम्मीद की तमाम किरणें नजर आती हैं।

विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और तमाम अन्य वैश्विक एजेंसियों का मानना है कि भारत विकास की सही दिशा में अग्र्रसर है। हालांकि हमें कुछ बाधाओं और चुनौतियों पर भी गौर करना होगा। तमाम तरह की विचारधाराओं में उभरते पूर्वाग्र्रहों से निपटना होगा। नए भारत की बुनियाद को मजबूत बनाने के लिए सामाजिक सौहार्द, शांतिपूर्ण समावेशन के साथ ही समाज में समानता की राह में आने वाले अवरोधों को दूर करना होगा। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि भारत की आत्मा उसके गांवों में बसती है। ऐसे में जब तक गांवों में रहने वालों का विकास नहीं होगा, तब तक सही मायनों में देश की तरक्की नहीं हो सकती। ऐसे में विकास की होड़ में पिछड़ गए लोगों के उत्थान को ध्यान में रखकर आगे बढ़ने की जरूरत है, जिसमें गांवों के सर्वांगीण विकास का लक्ष्य तय किया जाए। इसके साथ ही खेती-किसानी को आकर्षक पेशा बनाकर किसानों की आमदनी भी दोगुनी करनी होगी। खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करते हुए किसानों के कल्याण को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी।

हाल के दौर में यह देखने को मिला है कि देश की वृद्धि और विकास से जुड़े वास्तविक व सार्थक मुद्दों के बजाय निरर्थक मसलों ने सार्वजनिक विमर्श में अपनी जगह बनाई। मुझे लगता है कि संवाद के दो सबसे सशक्त माध्यमों मीडिया और सिनेमा को इस परिप्रेक्ष्य में गंभीर आत्म-विश्लेषण करने की आवश्यकता है। हमें सकारात्मक बदलाव के वाहकों की दरकार है। हमें ऐसे लोगों की जरूरत है जो तार्किकता, निष्पक्षता, आशा, साहस और शांति के पक्ष में आवाज बुलंद कर सकें। हम संसदीय लोकतंत्र हैं, जिसमें देश के विकास की कहानी को मूर्तरूप देने में जनप्रतिनिधियों की अहम भूमिका है। उन्हें दूसरों के लिए आदर्श बनना चाहिए।

स्वामी विवेकानंद ने 1893 में विश्व धर्म संसद में ऐतिहासिक व्याख्यान में कहा था, ‘मुझे अपने धर्म पर गर्व है, जिसने दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकार्यता की शिक्षा दी। हम न केवल सार्वभौमिक सहिष्णुता में विश्वास करते हैं, बल्कि सभी धर्मों को मूल रूप में स्वीकार करते हैं। मुझे अपने देश पर भी गर्व है, जिसने सभी धर्मों और सभी देशों के लोगों को शरण दी। उन्होंने यह भी कहा था कि यह खूबसूरत धरती लंबे समय से तमाम खांचों में बंटे समाज, धर्मांधता और उसके खतरनाक प्रभावों से बदसूरत होती जा रही है। इसकी वजह से हिंसा बढ़ी और कई बार खूनखराबे तक हुए। इससे इंसानी सभ्यता नष्ट हुई व उसकी चपेट में सभी देश आ गए। यदि यह दानव नहीं होता तो आज मानव समाज अधिक विकसित होता। धार्मिक एकता की साझा जमीन के संदर्भ में उन्होंने कहा था कि किसी एक धर्म द्वारा दूसरे धर्म पर जीत हासिल करने के बाद शांति और एकता की उम्मीद करना बेमानी है।

सभी धर्मों के लोगों के बीच शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के लिए धार्मिक सहिष्णुता की महत्ता का संदेश देने के लिए ही मैंने विश्व धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद द्वारा दिए गए भाषण का उल्लेख किया। समस्या तब उत्पन्न् होती है, जब अज्ञानी और उन्मादी धर्मांध दूसरों पर अपनी राय थोपते हुए अपने मत को ही सर्वोपरि बनाने पर आमादा होते हैं। वे चाहे किसी भी धर्म के हों, इस तरह का व्यवहार स्वीकार नहीं किया जा सकता और न ही किया जाना चाहिए। सभी पक्षों, विशेषकर राजनीतिक दलों द्वारा जातिगत दीवारें ध्वस्त किए जाने के प्रयासों की जरूरत है। चुनावी राजनीति में धनबल, जाति, समुदाय की लेशमात्र भूमिका न हो व लोग प्रत्याशियों के चरित्र, क्षमताओं और आचार-व्यवहार के आधार पर ही जनप्रतिनिधियों का चुनाव करें।मैं महसूस करता हूं कि आज भारत की भांति दुनिया का कोई और देश नहीं है जो युवाओं की इतनी बड़ी आबादी के साथ तरक्की की राह पर तेजी से अग्र्रसर है। स्वामी विवेकानंद ने व्यक्ति एवं चरित्र निर्माण मिशन का उल्लेख करते हुए कहा था, ‘व्यक्ति निर्माण ही मेरे जीवन का लक्ष्य है। मैं न तो कोई नेता हूं और न ही समाज सुधारक। मेरा काम ही व्यक्ति और चरित्र निर्माण का है। मुझे केवल आत्मा की फिक्र है और जब वह सही होगी तो सब कुछ स्वत: ही सही हो जाएगा।

स्वामी विवेकानंद चाहते थे कि शिक्षा का उद्देश्य ही जीवन निर्माण, व्यक्ति निर्माण और चरित्र निर्माण होना चाहिए। हमें ऐसे ज्ञानी, कुशल और सही दृष्टिकोण वाले व्यक्तियों की जरूरत है जो सामाजिक कायाकल्प को रफ्तार दे सकें। सर्व-साक्षरता और उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा, जिसमें सार्वभौमिक मूल्यों का उचित समावेश हो, इसके लिए जरूरी बुनियाद होगी, जिसे हमें निश्चित रूप से मजबूत बनाना चाहिए। स्वामी विवेकानंद जाति और नस्ल से परे मानवता के उत्थान में विश्वास रखते थे। मानवता की प्रगति और अस्तित्व के लिए उन्होंने अध्यात्म की अहमियत पर बल दिया। वे सिद्ध आध्यात्मिक उपदेशक थे, जिन्होंने पश्चिमी दुनिया का योग और वेदांत से साक्षात्कार कराया। साथ ही ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान युवाओं में देशभक्ति की भावना भी प्रज्ज्वलित की। विश्व धर्म संसद में अपने ऐतिहासिक भाषण से उन्होंने हिंदुत्व और उसके जीवन दर्शन के सही स्वरूप से पूरे विश्व का परिचय कराया। विवेकानंद पश्चिम और पूरब के बीच एक सेतु की भांति रहे, जिन्होंने मानवता की आध्यात्मिक आधारशिला को सशक्त बनाने में अतुलनीय योगदान दिया। युवा पीढ़ी को उनके आदर्शों का अनुसरण करना चाहिए। स्वामी विवेकानंद एक महान राष्ट्र निर्माता थे। देश की प्रगति में अवरोध पैदा करने वाले कुछ शरारती तत्वों के कुत्सित प्रयासों के दौर में उनकी शिक्षाएं कहीं अधिक समीचीन हैं। भारतीय हमेशा से ही ‘सर्वधर्म समभाव में विश्वास करने वाले और सदैव शांति एवं सौहार्द की कामना करने वाले रहे हैं। शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व ही हमारा मूल मंत्र रहा है। ऐसे में हमें अपनी समृद्ध सभ्यता की विशेषताओं का स्मरण कर उसे पुनर्जीवित करना चाहिए।


Date:11-01-18

जेल सुधार का इंतजार

पीयूष द्विवेदी

भारतीय समाज में जेल को लेकर अमूमन यही धारणा देखने को मिलेगी कि वह एक यंत्रणा-स्थल है, जहां अपराधी को उसके अपराधों के लिए तकलीफदेह तरीके से रख कर दंडित किया जाता है। इस धारणा को एकदम गलत तो नहीं कह सकते, मगर यह पूरी तरह सही भी नहीं है। निस्संदेह जेल में व्यक्ति को कठिन परिस्थितियों में ही रहना होता है, पर इसका यह अर्थ नहीं कि वह यंत्रणा-स्थल है। अगर है, तो वैसा होना नहीं चाहिए। वास्तव में, जेल का उद्देश्य किसी भी अपराधी को उसके अपराध के लिए दंडित करने के साथ-साथ उसे स्वयं में सुधार लाने का एक अवसर देना भी होता है। इसी मकसद को ध्यान में रख कर जेलों में कैदियों को पढ़ने-लिखने से लेकर उनका कौशल-विकास करने तक के अवसर उपलब्ध कराए जाते हैं।अभी पिछले दिनों ही खबर आई कि मथुरा के केंद्रीय कारागार में ग्रेटर नोएडा के एक शिक्षण संस्थान ने पुस्तकालय खोलने का निर्णय लिया है। बिड़ला इंस्टीट्यूट आॅफ टेक्नोलॉजी ऐंड मैनेजमेंट ने उस जेल में पंद्रह सौ पुस्तकें देते हुए पुस्तकालय स्थापित करने का फैसला किया है। इससे पूर्व यह संस्थान आगरा, मेरठ, गौतमबुद्ध नगर, गाजियाबाद, लखनऊ और अलीगढ़ की जेलों में भी पुस्तकालय स्थापित कर चुका है। निस्संदेह यह एक सार्थक कदम है।

इस प्रकार के और भी कदमों की जानकारी जब-तब सामने आती रहती है। पर इस तरह के छिटपुट प्रयासों के बरक्स भारत की अधिकतर जेलों की स्थिति किसी भी प्रकार से ठीक नहीं है, और इसके मद््देनजर जेल सुधार की मांग उठती रहती है। विडंबना यह है कि जेल सुधार के मकसद से कई समितियां जब-तब गठित की गर्इं, पर उनकी सिफारिशें ठंडे बस्ते में डाल दी गर्इं।पिछले वर्ष सितंबर में सर्वोच्च न्यायालय ने कैदियों की बाबत, 2013 में दाखिल एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए जेल सुधार की खातिर निर्देश जारी किए गए थे। याचिका में कहा गया था कि देश भर की 1382 जेलों में बंद कैदियों की स्थिति बेहद खराब है, ऐसे में जेल सुधार के लिए निर्देश जारी किए जाने चाहिए। प्रश्न यह है कि आखिर जेलों की दुर्दशा का कारण क्या है? जेलों की दुर्दशा के मुख्य कारणों को समझने के लिए इस आंकड़े पर गौर करना आवश्यक होगा। देश की सभी जेलों में कुल मिला कर 3,32,782 लोगों को रखने की क्षमता है, जबकि राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की 2015 की रिपोर्ट के अनुसार इनमें 4 लाख 11 हजार से ज्यादा लोग बंद हैं। यह 2015 का आंकड़ा है। ज्यादा संभावना यही है कि कैदियों की संख्या कम होने के बजाय और बढ़ी ही होगी। मगर मोटे तौर पर स्थिति यही है कि भारतीय जेलों में उनकी क्षमता से बहुत अधिक कैदी भरे हुए हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह अदालतों की कछुआ चाल है। मुकदमे लंबे समय तक घिसटते रहते हैं और इसके चलते काफी संख्या में विचाराधीन कैदी फैसले के इंतजार में जेल में रहने को अभिशप्त रहते हैं।

ऐसे में, अगर जेलें और बदहाल होती हैं तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं होगी। तिस पर गजब यह कि जेलों में मौजूद कुल कैदियों में से लगभग दो तिहाई कैदी विचाराधीन हैं। यानी तो तिहाई फीसद कैदी ऐसे हैं, जिनके मामलों में अभी कुछ भी सिद्ध नहीं हुआ है, लेकिन उनको भी जेल में रखा गया है। इनमें तमाम कैदी निर्दोष भी हो सकते हैं, साथ ही, बहुत-से कैदी ऐसे भी हो सकते हैं, जो अपने ऊपर लगे आरोप के लिए संभावित सजा की अधिकतम अवधि से अधिक समय जेल में बिता चुके हों। पर ऐसे लोगों का दर्द सुनने वाला कोई नहीं है। समझा जा सकता है कि जेलों में कैदियों की यह ठूसमठूस कितनी बड़ी और व्यापक समस्या है। इस समस्या से कैदी और कारागार, दोनों की दुर्दशा हो रही है, जिसके समाधान की फिलहाल कोई संभावना नहीं दिखाई देती।

किसी भी व्यवस्था पर जब उसकी क्षमता से अधिक भार डाल दिया जाता है, तो वह अव्यवस्था में परिवर्तित हो जाती है। भारतीय जेलों की दुर्दशा का मूल कारण यही है। अब जिस जेल में उसकी क्षमता से अधिक कैदी रहेंगे तो स्वाभाविक रूप से उसकी खान-पान से लेकर सुरक्षा तक, सारी व्यवस्थाओं पर सीमा से अधिक बोझ पड़ेगा और परिणामस्वरूप ये व्यवस्थाएं चरमराने लगेंगी। यही कारण है कि अकसर जेल में खराब खाने से लेकर शौच आदि से संबंधित अव्यवस्थाओं की बातें सामने आती रहती हैं। उनमें कैदी नारकीय जीवन जी रहे हैं। स्थितिजन्य कारणों से आए दिन उनके बीच लड़ाई-झगड़े भी होते हैं। विभिन्न जेलों से कैदियों के संदिग्ध स्थितियों में मरने, उनके हंगामा मचाने और भागने की खबरें आती रहती हैं। इनके पीछे मूल वजह अव्यवस्था ही होती है। पर जेल अधिकारियों और कर्मचारियों का उत्पीड़न भरा व्यवहार भी कई बार ऐसी घटनाओं का कारण बनता है।कहना न होगा कि जेल सुधार की पहली सीढ़ी यही है कि न्यायिक प्रक्रिया को दुरुस्त किया जाए, जिससे कैदियों की ठूसमठूस भीड़ में कमी आए। इसके बाद ही जेल से संबंधित अन्य सुधारों पर बात करना उपयुक्त होगा।

स संबंध में पिछले वर्ष सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए जेल सुधार के निर्देश काफी हद तक कारगर हो सकते हैं। न्यायालय द्वारा निर्देशित जेल सुधारों में प्रमुखत: कैदियों के परिजनों और वकीलों से उनकी बात-मुलाकात को बढ़ावा देने, हिंसक प्रवृत्ति के कैदियों की काउंसलिंग की व्यवस्था करने, पुलिस अधिकारियों को कैदियों के प्रति उनके दायित्वों के बारे सुशिक्षित करने, कैदियों की स्वास्थ्य संबंधी आवश्यकताओं पर ध्यान देने आदि बातें शामिल हैं। निस्संदेह ये हिदायतें जेल सुधार की दिशा में कारगर सिद्ध हो सकती हैं, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय को इन निर्देशों से पूर्व न्यायिक प्रक्रियाओं की सुस्ती दूर करने के लिए भी निचली अदालतों को कुछ निर्देश देने चाहिए थे।जेल सुधार की खातिर अब तक कोई ठोस कदम भले न उठाया गया हो, लेकिन देश में आजादी के बाद जेल सुधार से संबंधित सुझावों के लिए समय-समय पर समितियों का गठन जरूर किया गया। इनमें वर्ष 1983 की मुल्ला समिति, 1986 की कपूर समिति और 1987 की अय्यर समिति प्रमुख हैं। इन समितियों ने अपने-अपने स्तर पर जेलों की हालत की पड़ताल कर सुधार के लिए विविध सुझाव भी दिए। लेकिन इन सारी समितियों की सिफारिशें धूल खा रही हैं। यह भी एक बड़ा कारण है कि जेलों की हालत बद से बदतर होती गई है।आज जेल सुधार के लिए एक चरणबद्ध योजना पर काम करने की आवश्यकता है।

इसमें सबसे पहले तो जेलों में जमी कैदियों की अनावश्यक भीड़ को कम करने के कदम उठाए जाने चाहिए। इसका असल समाधान तो न्यायिक तंत्र के दुरुस्तीकरण से ही होगा, लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक ऐसे कैदियों को चिह्नित करके जमानत पर रिहा किया जा सकता है जिन पर किसी संगीनअपराध का अभियोग न हो या जिन्होंने अपने ऊपर लगे अभियोग की संभावित अधिकतम सजा से ज्यादा वक्त जेल में बिता लिया हो। जेलों में भीड़ कम होते ही अव्यवस्था संबंधी बहुत-सी समस्याएं स्वत: समाप्त हो जाएंगी। फिर, कैदियों की मानसिकता बदलने, उन्हें कोई कौशल सिखाने, सत्साहित्य के प्रति उनमें रुचि जगाने और रिहाई के बाद एक बेहतर इंसान के रूप में जीवन की नई पारी के लिए तैयार करने जैसी गतिविधियों पर ध्यान दिया जा सकता है। एक लोकतांत्रिक और मानवाधिकारों का लिहाज करने का दम भरने वाले देश में जेल सुधार से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता।


Date:11-01-18

राष्ट्रगान की गरिमा

संपादकीय

तकरीबन सवा साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने सिनेमाघरों में फिल्म के प्रदर्शन से पहले परदे पर राष्ट्रध्वज के साथ राष्ट्रगान बजाना अनिवार्य किया था। पर उसके कई अन्य पहलुओं पर तभी से बहस चल रही थी कि फिल्मों के पहले राष्ट्रगान बजाने और उसके सम्मान में लोगों के खड़े होने की शर्त कितनी व्यावहारिक होगी। इस बीच कई जगहों से इस मसले पर विवाद की खबरें भी आर्इं। इसी स्थिति के मद्देनजर अब सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले पर पुनर्विचार किया और मंगलवार को उसमें संशोधन करते हुए आदेश जारी किया कि अब फिल्मों से पहले राष्ट्रगान बजाना अनिवार्य नहीं, स्वैच्छिक होगा। हालांकि इस मसले पर खुद केंद्र सरकार ने भी हलफनामा दाखिल कर अदालत से उस फैसले से पहले की स्थिति बहाल करने का आग्रह किया था। जाहिर है, सिनेमाघरों में फिल्म प्रदर्शन के पहले राष्ट्रगान के मसले पर सुप्रीम कोर्ट ने अपनी राय साफ कर दी है। अब इस मुद्दे पर बारह सदस्यों वाली अंतर-मंत्रालयी समिति विचार करेगी और अगले छह महीने में अपने सुझाव पेश करेगी।इसी संदर्भ में एक मामले की सुनवाई के दौरान पिछले साल चौबीस अक्तूबर को अदालत ने कुछ महत्त्वपूर्ण राय जाहिर की थी, जिसके मुताबिक लोगों को अपनी राष्ट्रभक्ति साबित करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है। यह नहीं माना जा सकता कि अगर कोई व्यक्ति राष्ट्रगान बजाए जाने के दौरान खड़ा नहीं होता तो उसकी राष्ट्रभक्ति में कमी है। दरअसल, जब सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तहत सिनेमाघरों में फिल्मों के पहले राष्ट्रगान और उस वक्त लोगों के खड़ा होने का नियम अनिवार्य किया गया था, तो कई अप्रिय घटनाएं सामने आई थीं। राष्ट्रगान के दौरान मजबूरीवश खड़ा नहीं हो पाने वाले किसी दर्शक से न केवल दुर्व्यवहार किया गया, बल्कि कुछ के साथ मारपीट भी की गई। इस स्थिति की विडंबना तब ज्यादा अफसोसनाक शक्ल में सामने आई जब पांवों से लाचार एक विकलांग व्यक्ति को भी राष्ट्रगान के दौरान खड़ा न हो पाने के बदले हिंसक बर्ताव झेलना पड़ा। हालांकि इस बात की आशंका पहले से थी कि भावनाओं से जुड़े किसी भी मामले में जबरन थोपा गया व्यवहार अपेक्षित नतीजे नहीं देगा।

यों भी राष्ट्रगान सहित देश के लिए अपनी भावनाएं जाहिर करने के सभी प्रतीकों के प्रति सम्मान जताना सामाजिक व्यवहार का सहज और स्वाभाविक हिस्सा होना चाहिए। पर सिनेमा घरों में मनोरंजन के लिए जाने वाले लोग कई बार ऐसे विषय पर बनी फिल्में देखते हैं, जिनका राष्ट्रभक्ति से कोई लेना-देना नहीं होता या फिर राष्ट्र के प्रति भावनाएं भी मनोरंजन के मौके में घुल-मिल जाती हैं। जबकि राष्ट्रगान के समय कुछ तय नियम-कायदे या औपचारिकताएं हैं और उनका खयाल रखा जाना चाहिए। यह अंदाजा लगाना सहज है कि सिनेमा घरों में फिल्म के पहले या फिर मनोरंजन के माहौल में उन नियमों का कितना पालन होता होगा। इस संदर्भ में अदालत की यह टिप्पणी गौरतलब है कि अगली बार सरकार चाहेगी कि लोग सिनेमाघरों में टी-शर्ट और हल्के कपड़े पहन कर आना बंद कर दें, क्योंकि उससे राष्ट्रगान का अनादर होता है। यों भी, राष्ट्रगान या देश के प्रति निष्ठा जताना भावनाओं से जुड़ा मामला है और इसकी गरिमा बनी रहनी चाहिए। बिना किसी खास वजह के बेमौके या फिर मनोरंजन के माहौल में राष्ट्रगान की अनिवार्यता से इसके प्रति भावनाओं की गंभीरता में कमी आएगी। इसलिए कोशिश यह होनी चाहिए कि राष्ट्र से जुड़े प्रतीकों की अहमियत और उसके प्रति सम्मान का भाव बरकरार रहे ।


Date:11-01-18

Aadhaar Of Injustice

Linking it to ration cards ends up denying poor their rightful entitlements

Anjali Bhardwaj , Amrita Johri (Bhardwaj and Johri work on issues related to transparency, accountability and right to food)

In September 2017, 11-year-old Santoshi, resident of Simdega district of Jharkhand, succumbed to starvation. According to her mother, she died “asking for rice, but there was not a single grain at home”. She was deprived of her subsidised ration as her family’s ration card was cancelled because it was not linked to Aadhaar. Marandi in Jharkhand met the same fate — he could not avail of his share of ration supplies since his Aadhaar Based Biometric Authentication (ABBA) failed. Similar cases of starvation deaths have been reported from other states too, including Shakina Ashfaq from Bareilly in Uttar Pradesh, who could not present herself at the ration shop for ABBA due to ill health.

When the Narendra Modi government came to power riding on the promise of fighting corruption and ensuring effective service delivery, it was assumed that it will put in place a strong anti-corruption and grievance redress framework to ensure that no one is denied their rightful entitlements. However, instead of operationalising anti-corruption legislation like the Lokpal or implementing the grievance redress and social audit provisions in various laws, the government has been pushing Aadhaar as the ultimate solution to corruption.

This is inexplicable as Aadhaar can, at best, tackle only identity fraud, where an individual colludes with the system to be included multiple times in the list of beneficiaries. This accounts for a tiny proportion of corruption. In programmes like the PDS, the major reason for corruption is quantity and quality fraud with ration shopkeepers refusing to give people their full share of rations or pilfering good quality foodgrain and replacing them with poor quality stock. Aadhaar can do nothing to tackle this corruption, which can only be eradicated through greater transparency and effective accountability measures.

There is overwhelming evidence to show that mandatory linking of Aadhaar to ration cards has led to large-scale exclusions from benefits guaranteed under the National Food Security Act. Those who are not enrolled in the Aadhaar database are unable to apply for ration cards. Even if someone has an Aadhaar number, but it is not “linked”, benefits are denied. Finally, in states like Jharkhand and Rajasthan where Point-of-Sale devices have been installed in fair price shops, if the biometrics of beneficiaries don’t match or the cardholder cannot be present in person, they are unable to access their entitlements.

Instead of recognising and rectifying the problem, the government has been brazenly labelling those who are excluded due to Aadhaar as “bogus”, proudly claiming as “savings” the funds saved from denying basic services to the most vulnerable.On February 7, 2017, PM Modi said in Parliament that using Aadhaar and technology, in two-and-a-half years his government had discovered “nearly 4 crore, meaning 3.95 crore bogus ration cards” which resulted in savings of about Rs 14,000 crore. The PM, however, did not provide any details of “bogus” cardholders. An RTI filed to the PMO seeking a state-wise break-up of bogus cards and the names of bogus card-holders revealed there was no evidence to back the claims.

The PM’s speech was subsequently corrected to state, “nearly 4 crore, meaning 2.33 crore bogus ration cards were found”, presumably to bring the figure in line with information provided by the Union food minister in response to a Parliamentary question in which a state-wise break-up of bogus ration cards was given. The figures provided by the minister, however, also did not match with the data disclosed by various states under the RTI Act. For instance, for Odisha while the minister quoted a figure of more than 7 lakh bogus ration cards, under the RTI Act the state food department replied that there were no bogus ration cards in the state. For Jharkhand, the minister quoted a figure of almost 8,000 bogus ration cards, while the state food department held that “this information is not available in the department”. Interestingly, the PM was silent on whether action was taken against corrupt officials who made “bogus” cards.

In the Global Hunger Index 2017, India ranked 100 among 119 countries. The question is: Instead of ensuring delivery of essential foodgrains, can the country afford to adopt systems which exclude the most vulnerable?A government intent on tackling corruption should put in place effective and strong institutions which empower people to report corruption and seek accountability from the executive. It should not treat people as thieves unless they can prove their innocence, in this case by getting an Aadhaar number to show that they are genuine and not “ghosts”.


Date:11-01-18

The bamboo curtain

Amending Indian Forest Act to have it classified as a grass is a welcome step. But there is still clutter and contradiction in India’s forest laws.

Bibek Debroy (The writer is chairman, Economic Advisory Council to the PM. Views are personal.)

Perhaps it has something to do with the increased popularity of Feng Shui. Many people give gifts of lucky bamboo. It is supposed to bring good luck and fortune, especially if received as gifts. (However, better count the number of stalks in your vase. Most numbers are fine, but four is terrible.) We can call it “lucky bamboo”, or “friendship bamboo”, or “Chinese water bamboo”, but the plant doesn’t originally come from China. It comes from Africa.

However, that’s more like ancestral origins. Today, we do import significant quantities from China, mostly through Mumbai. In the harmonised system used for customs, it will figure under the broad four-digit head of 0602 — live plants. Depending on the kind of lucky bamboo, there will be a further eight-digit disaggregation. It will feature as Dracaena Sanderiana or Dracaena Braunii. It belongs to the plant kingdom and the genus is Dracaena, characteristic of some trees and shrubs.

Whatever we may choose to call it, it is not bamboo. Similarly, bamboo may belong to the plant kingdom, but even if we choose to call it a tree, it is not a tree. It belongs to the family Poaceae, which means it is a kind of grass. There are complicated botanical differences between grass and a tree. But one is simple to understand. A tree’s stem is solid, while a bamboo’s is hollow.The Indian Forest Act (IFA) of 1927 has recently been amended, formalising what was initially done through an ordinance. The Statement of Objects and Reasons stated, “The said Act, inter alia, in clause (7) of section 2 defines ‘tree’, which includes palms, bamboos, stumps, brush-wood and canes. The bamboo, though taxonomically a grass is treated as tree for the purpose of the said Act, and therefore, attracts the requirement of permit for transit under the said Act. Although, many States have exempted felling and transit of various species of bamboos within the States, the inter-State movement of bamboos require permit when being in transit through other States. The farmers are facing hardships in getting the permits for felling and transit of bamboos within the State and also for outside the State, which has been identified as major impediment of the cultivation of bamboos by farmers on their land… Hence, it was decided to amend clause (7) of section 2 of the said Act so as to omit the word ‘bamboos’ from the definition of tree, in order to exempt bamboos grown on non-forest area from the requirement of permit for felling or transit under the said Act, and would encourage bamboo plantation by farmers resulting in the enhancement of their income from agricultural fields.”

The text of the actual amendment is remarkably short in comparison. Second 2(7) of the IFA explained that tree “includes palms, bamboos, stumps, brush-wood and canes”. That “bamboo” was removed.

Incidentally, Section 2(6) of the IFA defines “timber” to include trees “when they have fallen or have been felled” and Section 2(4)(a) defines “forest-produce” to include “timber”. I am not going to burden you with more quotes, but do note Section 2(4)(b) of IFA too. “When found in, or brought from a forest”, plants that are not trees will be “forest-produce”. That’s the reason the recent IFA amendment only affects bamboo grown in non-forest areas.

Should the IFA have been amended? It certainly should have. But does it demolish the bamboo curtain? It doesn’t, because there is a lot more of clutter. Think of something like the Wildlife (Protection) Act of 1972. What is wildlife? In this piece of legislation, wildlife is essentially defined by naming mammals, amphibians/reptiles, birds etc. in specific schedules. Protecting endangered species is a different argument. But that apart, what is “wild” about say, a tiger? Is it wild because the species is “wild” or is it “wild” because it is found within a wildlife park? If wildness is an attribute of the species, then should people have been allowed to farm emus? If wildness is an attribute of that specific confined geographical area, then, for argument’s sake, a domestic cat found inside a wildlife park should be classified as “wild”.

Hence, the first tension is this bamboo anywhere versus bamboo in forest/non-forest areas. (Almost all, if not all, bamboo in the Northeast will be in forest areas.) Second, while IFA doesn’t define “forest”, notwithstanding the Forest Rights Act (FRA) of 2006, are we clear about what is “forest”, or will it be left to the courts (such as in the Godavarman case) to determine what is a forest? Third, where is “forest” in the Seventh Schedule? Today, forests feature as Entry 17A in the Concurrent List. But this is after the 42nd Amendment, famous for other reasons. Before that, “forests” featured in the State List. We, therefore, have a Union government cum state government angle, with several states (Assam, Odisha, Maharashtra, Madhya Pradesh, Karnataka) enacting legislation/rules on the cutting or transit of bamboo. Fourth, under FRA, is there clarity between the rights of the forest department vis-à-vis community rights? Think of a piece of bamboo in transit. In the absence of chips embedded into it, how does one establish it originated in a non-forest area?

Legislation on forests in India have a colonial and complicated legacy, the antecedents go back to 1865, not 1927. Bamboo has suffered in the process, “in the skirts of the forest like fringe upon a petticoat”. There is still a lot of cleaning up to do.


Date:11-01-18

विदेशी निवेश को हरी झंडी

संपादकीय

विदेशी निवेश एक बार फिर चर्चा में आ गया है। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआई पर कई बड़े फैसले किए हैं। ये सभी फैसले काफी महत्वपूर्ण हैं, इसलिए यह भी कहा जा रहा है कि सरकार ने एक तरह से नई विदेशी निवेश नीति ही बना दी है। इन फैसलों में एक एअर इंडिया में विदेशी निवेश को लेकर है और कई अन्य फैसले अलग-अलग उद्योगों में विदेशी निवेश की इजाजत को लेकर हैं। सार्वजनिक क्षेत्र की भारतीय वायु सेवा एअर इंडिया में 49 फीसदी तक विदेशी निवेश हो सकेगा। इसके दो अर्थ हैं। एक तो यह कि सरकार ने अब यह पूरी तरह से स्वीकार कर लिया है कि लगातार घाटे में चल रही इस एयरलाइन्स में और ज्यादा सार्वजनिक पूंजी झोंकना निरर्थक है और दूसरा यह कि विदेशी निवेश के बावजूद इसका नियंत्रण विदेशी हाथों में नहीं पहुंचेगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि इसके बाद एअर इंडिया पेशेवर प्रबंधन के हाथों में पहुंच जाएगी और बाजार की दूसरी एयरलाइन्स से स्पद्र्धा भी कर सकेगी। सबसे बड़ी बात यह है कि वह सार्वजनिक धन की बर्बादी के दौर से बाहर निकल आएगी। अभी तक भारत में जो निजी एयरलाइन्स काम कर रही हैं, उनमें भी 49 फीसदी विदेशी निवेश की इजाजत है, मगर एअर इंडिया को इससे अलग रखा गया था, अब उस पर भी यही नियम लागू होगा।

मंत्रिमंडल के ताजा फैसलों में सबसे महत्वपूर्ण है एक ब्रांड का कारोबार करने वाली खुदरा कंपनियों को शत-प्रतिशत विदेशी निवेश की इजाजत देना। ऐसे मामले में अभी तक उन्हें सरकार की विशेष इजाजत की जरूरत पड़ती थी, पर अब इस रास्ते को पूरी तरह खोल दिया गया है। हालांकि मल्टी ब्रांड खुदरा कारोबार पर सरकार अभी भी मौन है। यह ऐसा क्षेत्र है, जिसमें पिछली सरकार ने ही निवेश की इजाजत दे दी थी, लेकिन तब भारतीय जनता पार्टी इसके विरोध में थी। यह अलग बात है कि भाजपा सरकार बनने के बाद उस नीति को बदला नहीं गया, लेकिन मल्टी ब्रांड विदेशी निवेशकों ने दूर रहने में ही भलाई समझी। खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश हमेशा से विवाद का मसला रहा है। यही वजह है कि बुधवार को मंत्रिमंडल का फैसला आने के कुछ मिनट बाद ही भारतीय खुदरा कारोबारी संघ का इसके खिलाफ बयान भी आ गया। इसी के साथ ही मंत्रिमंडल ने विनिर्माण उद्योग के लिए शत-प्रतिशत एफडीआई के रास्ते को पूरी तरह खोल दिया है। इमारतें बनाने से लेकर कॉलोनी बसाने तक के कारोबार में लगी कंपनियों को भी अब विदेशी निवेश के लिए अलग से इजाजत लेने की जरूरत नहीं पड़ेगी। विदेशी निवेश पर मंत्रिमंडल के तमाम दूसरे फैसलों में एक यह भी है कि विद्युत एक्सचेंज के लिए भी 49 फीसदी तक विदेशी निवेश हो सकेगा।

सरकार ने विदेशी निवेश के वे रास्ते खोले हैं, जिनके रोजगार के कई अवसर निकल सकें। इसीलिए सिंगल ब्रांड रिटेल में यह शर्त रखी गई है कि इसमें लगी कंपनियों को पांच साल के भीतर 30 फीसदी भारतीय माल उपयोग में लेना होगा। विकास दर का मामला भले ही सही राह पर जाता दिख रहा हो, लेकिन सरकार इस आलोचना से बचना चाहती है कि देश में रोजगार रहित विकास हो रहा है। हालांकि देश में रोजगार की समस्या अभी तक काफी बड़ी बनी हुई है और वह इतने भर से सुलझ जाएगी, यह उम्मीद तो नहीं की जा सकती, पर ऐसे प्रयास भी जरूरी हैं। अभी ऐसे बहुत सारे क्षेत्र हैं, जहां विदेशी निवेश के मामले में हिचक दिखाई देती है और इसे दूर करके हम कई और नए अवसर पैदा कर सकते हैं। लेकिन बेरोजगारी की समस्या बड़े पैमाने पर तभी दूर हो सकेगी, जब विदेशी निवेश के बाद स्वदेशी उद्योग भी उनसे मुकाबले के लिए डटकर खड़ा हो जाएगा।


Date:11-01-18

खत्म हुई अनिवार्यता

संपादकीय

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सिनेमाघरों में फिल्मों के प्रदशर्न से पहले राष्ट्रगान की अनिवार्यता समाप्त करते हुए स्वैच्छिक करारा देने के फैसले का आम तौर पर स्वागत किया गया हैइसके द्वारा न्यायालय ने 30 नवम्बर, 2016 के अपने ही आदेश में संशोधन किया है.उस आदेश में न्यायालय ने सिनेमाघरों में फिल्म के प्रदर्शन से पहले राष्ट्रगान बजाना अनिवार्य किया था. उस दौरान सारे दरवाजे बंद रखने और सभी लोगों के सावधान की मुद्रा में खड़ा होना था.दरअसल, इस आदेश को लेकर देश में दो प्रकार के मत बन गए थे. एक मत यह था कि इस आदेश की अवहेलना होने की संभावना है और ऐसा होता है तो यह राष्ट्रगान का अपमान होगा. दूसरा मत था कि देशभक्ति की भावना जगाने और बनाए रखने के लिए यह आदेश आवश्यक है. हालांकि राष्ट्रगान के व्यापक अपमान की खबर सामने नहीं आई.

कोई खड़ा नहीं हुआ तो लोग उसे जबरन खड़ा करते पाए गए या फिर उसके साथ अभद्र व्यवहार की भी खबरें आई. दरअसल, सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में यह मत व्यक्त किया था कि वह इसकी अनिवार्यता को खत्म करे. केंद्र सरकार ने इस मुद्दे पर विचार के लिए 12 सदस्यीय अंतर-मंत्रालयीय समिति गठित की है. जाहिर है, समिति उसक सारे पहलुओं पर विचार कर अपनी रिपोर्ट देगी.तो आगे का फैसला उस निर्णय के आधार पर होगा. किंतु यह सामान्य समझ की बात है कि सिनेमा हॉल में राष्ट्रगान की अनिवार्यता को बड़ी संख्या में लोगों ने एकदम उचित नहीं माना था. सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में एक नया नियम बना दिया. राष्ट्रगान हमारी भावनाओं से जुड़ा हुआ है. आम व्यक्ति के अंदर अपने देश के प्रति भक्ति का भाव होता है.

राष्ट्रगान के प्रति सम्मान का भाव हमारी देशभक्ति से जुड़ा अवश्य होता है. किंतु यदि कोई राष्ट्रगान के समय सावधान की मुद्रा में खड़ा नहीं हुआ इसका यह अर्थ निकालना उचित नहीं है कि उसकी देशभक्ति में कोई कमी है. सर्वोच्च न्यायालय के पहले के फैसले का कुछ लोगों ने ऐसा ही अर्थ निकालना आरंभ कर दिया था. वैसे भी सिनेमाहॉल में राष्ट्रगान को अनिवार्य करना माहौल के अनुरूप सुसंगत नहीं लगता.अगर कोई सिनेमा हॉल राष्ट्रगान बजाता है तो उसका स्वागत होना चाहिए, लेकिन इसे अनिवार्य बनाना उचित नहीं है. सर्वोच्च न्यायालय ने इसके बारे में कुछ कहा भी नहीं था. इसलिए अच्छा है कि सरकार ने इसे अंतरमंत्रालीय समिति को मामला सौंप दिया है. छह महीने के अंदर आने वाली रिपोर्ट की हमें प्रतीक्षा करनी चाहिए.


Date:11-01-18

प्रवासियों को संदेश

संपादकीय

प्रवासी भारतीयों के सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जो कुछ कहा है उसका उद्देश्य एक ही है, देश को, दुनिया को और दुनिया भर में फैले भारतवंशियों के अंदर यह विश्वास पैदा करना कि भारत अब तेजी से बेहतरी की दिशा में बदल रहा है.उनके पूरे भाषण में भारत के वर्तमान एवं भविष्य के प्रति गहरे आत्मविश्वास की झलक थी तो वैचारिकता का प्रकटीकरण भी था. यह पहला प्रवासी सम्मेलन है, जिसमें केवल जनप्रतिनिधि प्रवासी शामिल हो रहे हैं. कुल 124 सांसदों और 17 मेयरों ने इसमें शिरकत किया है.इसीलिए इसका नामकरण किया गया है, प्रथम प्रवासी भारतीय सांसद सम्मेलन. प्रवासी भारतीयों का सम्मेलन एक ऐसा मंच होता है, जहां से आप अपने देश का बेहतर परिदृश्य उल्लिखित करके उनको भावनाओं से जोड़ते हैं और उनको भी भारत के लिए कुछ करने को प्रेरित करते हैं. प्रधानमंत्री के नाते मोदी का यही दायित्व है.हम यह तो नहीं कहते कि अर्थव्यवस्था की जो तस्वीर उन्होंने पेश की वाकई सब कुछ वैसा ही है, लेकिन देश की एक सकारात्मक छवि पेश करने और उपस्थित सांसदों एवं मेयरों को अपनी माटी के लिए योगदान करने की प्रेरणा देने का दायित्व उन्होंने बखूबी निभाया है. आज दुनिया का शायद ही कोई देश हो जहां भारतवंशी नहीं रहते हों. अलग-अलग देशों में अलग-अलग क्षेत्रों में उनका योगदान है.

वो नीति-निर्माण से लेकर विज्ञान, अर्थ, व्यवसाय, कला-साहित्य-संस्कृति आदि हर क्षेत्र में प्रभावी भूमिका निभा रहे हैं. इस समय भारतीय मूल के लोग मॉरीशस, पुर्तगाल और आयरलैंड में प्रधानमंत्री हैं. भले वे बाहर बस गए, लेकिन भारत के प्रति उनका लगाव अंतर्मन में अवश्य रहता है. प्रवासी सम्मेलनों और दुनिया भर के भारतवंशियों के साथ संपर्क बढ़ाने का अनेक लाभ भारत को मिला है.वे राजनय के क्षेत्र में दो देशों के बीच अच्छे संबंधों का मामला हो, विदेशी पर्यटकों को भारत की ओर आकर्षित करने, पूंजीनिवेश सहित वाणिज्य-व्यवसाय को बढ़ावा देने और साहित्य एवं संस्कृति के क्षेत्र में जुड़ाव का हो..उनकी भूमिका पिछले कुछ सालों में काफी महत्त्वपूर्ण हो रही है. प्रधानमंत्री ने दुनिया भर के प्रवासी भारतीय सांसदों से भारत की प्रगति में हिस्सेदार बनने और देश के आर्थिक विकास में उत्प्रेरक की भूमिका निभाने की अपील की. देखना होगा इस अपील का फिर से असर कैसा होता है.


Date:11-01-18

On playing National Anthem in cinema halls: Not by diktat alone

EDITORIAL

Supreme Court does right to make playing of the national anthem before a film optional

By making it optional for cinema halls to play the national anthem before every show, the Supreme Court has at last removed the coercive element it had unfortunately introduced by an interim order in November 2016. Laying down a judicial rule that the anthem must be played on certain occasions in specific places, in the absence of any statutory provision to this effect, was unnecessary and opened the court to charges of over-reach. With the Centre saying this directive could be placed on hold, and that it would set up an inter-ministerial committee to recommend regulations for the presentation of the national anthem, the court has said it is not mandatory to play it in cinema halls. The panel will also suggest changes in the Prevention of Insults to National Honour Act, 1971, or in the Orders relating to the anthem issued from time to time. Justice D.Y. Chandrachud, one of the three judges on the Bench, had at an earlier hearing doubted the wisdom of asking patrons of cinema to visibly demonstrate their patriotism each time they entered a theatre to watch a film, remarking that there was no need for an Indian to “wear his patriotism on his sleeve”. He had asked at what point would such “moral policing” stop if it were to be prescribed that some kinds of apparel should not be worn at the movies as they could amount to showing disrespect to the national anthem. The court’s order also had some unintended, but not unforeseen, consequences. The audience began looking for signs of ‘disrespect’ and there were reports of vigilantism, with people beaten up or harangued for not standing up.

Even those who contend that “constitutional patriotism” and the demonstration of respect for the national anthem require the framing of such mandatory measures cannot explain why cinema houses should be singled out or why such rules shouldn’t apply to other halls or enclosures where meetings and performances take place. This is not to suggest that symbols of national honour are undeserving of respect. Neither is it to question the idea that citizens must show due respect whenever the anthem is played or the flag is displayed. But as the Bench has pointed out, “the prescription of the place or occasion has to be made by the executive keeping in view the concept of fundamental duties provided under the Constitution and the law.” In a mature democracy, there is really no need for any special emphasis, much less any judicial direction, on the occasion and manner in which citizens ought to display and demonstrate their patriotism. If rules are needed for the purpose, it is for Parliament to prescribe them by law. As subscribers to common democratic ideals, citizens should be presumed to have a natural respect for symbols of national honour, and should not have to be made unwilling participants in a coercive project.


Date:11-01-18

 On H-1B visa rules: Visa heartache

EDITORIAL

Fears of Indians being deported from the U.S. over the H-1B visa may be alarmist
The United States’ H-1B visa has for decades been a source of nail-biting tension in India. The latest case in point was a scare that President Donald Trump’s administration was toying with the idea of new regulations that would restrict extension of the visa by those awaiting a green card. Leaving aside technical reasons why such regulations may not take off, the contentious history of the H-1B visa should have given pause to alarmist claims between 500,000 and 750,000 Indians in the U.S. would have to “self-deport”. The majority of the 65,000 H-1B regular-cap visas and 20,000 H-1B advanced-degree visas made available each year are scooped up by Indian nationals, many assimilated into the backbone of the U.S. tech industry. Nevertheless, given the number of times that protectionist rhetoric has identified this visa category as a soft target, and the relatively high frequency of spikes in political pressure to protect American jobs, one would expect a more nuanced reaction than unbridled panic. In the past, even during the Obama administration, the bipartisan Comprehensive Immigration Reform plan called for the tightening of qualifying conditions for the H-1B visa. As recently as 2017, four bills were tabled in the U.S. Congress mooting new proposals to clamp down on H-1B visas. None came to fruition. The last salvo was Mr. Trump’s executive order in April, which was accompanied by much fist-banging but ultimately only called for modest changes, mainly a multi-agency study on what reforms are required.

The apparently endless cycles of heartache over the H-1B visa stem from a fundamental reality: that the visa itself is designed to be a non-immigrant entry ticket into the U.S. economy, but over time it has metamorphosed into a virtual pathway to permanent residency and citizenship, particularly in the case of Indian nationals. The most important reason for this is that most of these “speciality occupation” workers — primarily experts in fields such as IT, finance, accounting, and STEM subjects — fill a real void in the U.S. labour force. It is not only Indian tech firms whose employees get awarded H-1B visas, but it is to a great extent a visa that Silicon Valley giants such as Microsoft, Intel, Amazon, Facebook and Qualcomm rely on for their staffing needs. Thus, there is a self-limiting dimension to any reform that purports to slash H-1B allocations, so that no President or lawmaker would want to be seen as causing economic pain to the companies on whose coat-tails the U.S.’s reputation as a global tech leader rides. Indian policymakers, who appear to be aware of this subtle truth, should focus their efforts on quiet back-channel lobbying, and eschew knee-jerk reactions every time the “Buy American, Hire American” rhetoric echoes in Washington.


 

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