11-11-2019 (Important News Clippings)
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A new beginning
Verdict must herald end of mandir-masjid politics. Move on India, let the past not hold us hostage
TOI Editorials
On Saturday five judges of the highest court of the land, including the Chief Justice of India, put their best foot forward to deliver a unanimous verdict on what has been an intractable religious dispute, running on for more than a century. The judicial resolution by the topmost court came after India’s politicians proved themselves unequal to the task and all mediation efforts failed. Let the verdict now draw a line under the dispute, so that India can heal and move on. A good start has been made with most political parties welcoming the judgment. At stake is individual progress, communal harmony, national unity and constitutional morality. India’s multicultural ethos has always prided itself for tolerance to diversity and accepting the equality of religions.
In allocating the disputed land where Babri Masjid once stood for constructing a Rama temple, Supreme Court has recognised evidence of a long unbroken tradition of worship by Hindus at the site. By directing the central/ UP government to award five acres of land within Ayodhya city at a prominent location to build a mosque, SC was conscious that justice would not prevail if Muslims were not remedied for the 1949 desecration when idols were surreptitiously placed inside Babri Masjid followed by its unlawful destruction in 1992.
Those resorting to triumphalism must understand the spirit behind SC accepting the maintainability of Ram Lalla’s title claim. Piety and devotion of the faithful and not political, divisive or destructive machinations carried the day in favour of a temple at the site. The Centre as well as state governments must also accept and strictly uphold this judgment’s stipulation calling on them to abide by the Places of Worship (Special Provision) Act, 1991, which forbids the conversion of any other place of worship as it existed on August 15, 1947.
SC has invoked the Acquisition of Certain Area at Ayodhya Act, 1993, to direct Centre to create a trust to oversee temple construction. Only those willing to uphold the Places of Worship Act must find a place on the Board of Trustees, lest this creates a precedent and incentive for fuelling other mandir-masjid disputes. Picking up on Prime Minister Narendra Modi’s call to set aside bitterness and fear and move ahead as one for the country’s development, BJP and saffron parties must avoid triumphalism and drop future mandir-masjid agitations. Let there be no repeat of 1992. India has had enough.
Accept the judgment, focus on future
ET Editorials
All parties to the Ayodhya dispute should accept the unanimous verdict of the Supreme Court on the subject and allow the country to move on. Let a grand temple be built at the site and a grand mosque, too, in the place allotted for its construction in Ayodhya. It is welcome that the verdict has been met with relative calm and that no organization has made any attempt to vitiate the atmosphere. The court verdict makes it clear that any attempt to demolish any other place of worship would be wholly illegal. India needs to move beyond divisive politics of identity and focus on building the internal cohesion and economic strength needed to carve out and defend its own unique space in the world and in history.
The court has based its verdict on principles that are in accordance with the secular fundamentals of the Constitution. Archaeological and other evidence have been relied upon to settle the property dispute and, simultaneously, respect the sentiments of a majority of Hindus that Lord Ram was born at the site of the Babri mosque. True, the evidence in favour of a Hindu place of worship at the site is based on preponderant probability, rather than definitive. This is cause for some disquiet, but it is difficult to imagine how else it could be. But the court recognises demolition of the mosque in 1992 as a crime and closing off of the mosque for Muslim prayer since December 1949 as unjust. It is as recompense for this injustice that the court has directed the government to allot five acres of land in Ayodhya for building a mosque. This should preclude any notion that the verdict is endorsement of the illegal destructions of the mosque. It would be ideal if a mosque were to be built with the collective effort of all communities.
It is the duty of all concerned to not just maintain peace but also to work for sustainable unity and harmony among followers of different faiths. To that end, the focus must be on the future, rather than on the past. The campaign to build a temple at Ayodhya led to much division and violence. The point is to put this firmly behind us.
तब विवाद होगा खत्म
संपादकीय
अयोध्या मामले के बहु-प्रतीक्षित निर्णय ने पूर्वी उत्तर प्रदेश के इस छोटे शहर में दशकों से चले आ रहे जमीन विवाद के आखिरकार खत्म हो जाने की उम्मीदें बढ़ा दी हैं। इस विवाद ने भारतीय राजनीति एवं समाज का स्वरूप बदल देने में अहम भूमिका निभाई है। उच्चतम न्यायालय अपने फैसले के पीछे की वजह कानूनी दायरे में ही रखने को लेकर खासा सजग रहा है। उसने इस बात पर जोर दिया है कि भले ही इस विवाद के राजनीतिक एवं धार्मिक निहितार्थ हो सकते हैं लेकिन वह इस मुद्दे को बेहद जटिल जमीन विवाद ही मानकर चला है।
दूसरे शब्दों में, यह निर्णय अयोध्या विवाद को इतिहास एवं धर्म के बारे में व्याख्यान देने का जरिया बनाने के बजाय धर्मनिरपेक्ष एवं संवैधानिक सिद्धांतों के आलोक में देखने का एक स्पष्ट प्रयास माना जा सकता है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस मामले में दिए अपने फैसले में विवादित जमीन को तीनों याचियों के बीच बांट दिया था। लेकिन व्यावहारिक तौर पर दो-तिहाई जमीन हिंदू समुदाय को मिली थी जबकि एक तिहाई जमीन मुस्लिम पक्ष को दी गई थी। हालांकि उस फैसले में ऐतिहासिक तथ्यों की कमी और धर्मशास्त्रीय विवरणों की अधिकता थी। लेकिन शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में न्यायक्षेत्र के धर्मनिरपेक्ष चरित्र पर कम दबाव डाला है।
इसके बावजूद अब भी ऐसे सवाल पूछे जा सकते हैं और पूछे जाने भी चाहिए कि सर्वोच्च न्यायालय अंतिम निष्कर्ष तक किस तरह पहुंचा? समूची विवादित जमीन हिंदुओं को देने के फैसले तक पहुंचाने वाले तर्कों में कई समस्याजनक बिंदु हैं। पहला, मुस्लिम समुदाय के दावे को ‘संभाव्यता के संतुलन’ के आधार पर पूरी तरह नकार देने वाला निष्कर्ष थोड़ा अटपटा है क्योंकि हिंदू पक्षकारों ने भीतरी परिसर में अनवरत पूजा होते रहने का सबूत कभी नहीं पेश किया। आशंका इस बात की है कि ‘संभाव्यता का संतुलन’ लागू करने को कुछ तबके इस रूप में भी देख सकते हैं कि न्यायालय ने अयोध्या की अंतिम स्थिति के बारे में राजनीतिक विमर्शों को ध्यान में रखा। दूसरा, न्यायालय का यह मत है कि समूची जगह एक ‘यौगिक’ इकाई है, लिहाजा उसमें किसी भी तरह का विभाजन नहीं हो सकता है।
वैसे पिछली सदी में जब्ती होने के पहले तक इस तरह का जमीन बंटवारा एक ऐतिहासिक परंपरा रही है। तीसरा, न्यायालय ने विवादित स्थल को दो हिस्सों- भीतरी परिसर एवं बाहरी परिसर के रूप में देखते हुए कहा है कि बाहरी परिसर में हिंदुओं की पूजा के रिकॉर्ड मौजूद हैं वहीं मुस्लिम पक्ष भीतरी परिसर में लगातार इबादत होने की बात साबित नहीं कर पाया है।
हालांकि कहीं व्यापक बिंदु यह है कि दोषपूर्ण होते हुए भी इस फैसले में यह क्षमता है कि लंबे समय से खिंचे चले आ रहे मामले को बंद किया जा सके। इस संदर्भ में, विवाद से जुड़े सभी हितधारक एवं राजनीतिक दल इस बात के लिए तारीफ के हकदार हैं कि सबने अपने बयानों में इसकी सियासी तपिश काफी हद तक कम कर दी। खुद प्रधानमंत्री ने भी फैसला आने के पहले देशवासियों को सजग करते हुए कहा था कि वे फैसले को ‘हार’ या ‘जीत’ के रूप में न देखें। यह उम्मीद की जाती है कि मंदिर के ट्रस्ट का गठन एवं प्रबंधन भी इसी तरह समावेशी हो और उसमें उन जख्मों को दोबारा हरा करने वाला विजयोल्लास न हो।
विवादित ढांचे के विध्वंस की 1992 में घटी घटना को लेकर काफी तीखे नजर आए न्यायालय को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि विध्वंस से संबंधित मामलों का निपटारा जल्द हो और दोषियों को सजा मिले। ऐसा होने पर ही अयोध्या विवाद सही मायनों में बंद हो सकेगा और भारत भी आगे बढ़ पाएगा। कानून को लागू किया जाना चाहिए और तभी राष्ट्रीय राजनीति अयोध्या की गहरी छाया से निकल सकती है।
व्यक्ति, समाज और मर्यादा
साकेत कुमार सहाय
ईमानदारी मात्र एक गुण नहीं, बल्कि स्वस्थ आचरण है। यह परस्पर साहचर्य, विश्वास, प्रेम और प्रगाढ़ता का पर्याय है। व्यक्ति अगर अपने जीवन में ईमानदार है, तो सहज ही लोग उस पर विश्वास करेंगे। अगर हम अपने जीवन में कोई भी कार्य बेईमानी से करते हैं, तो उसका अपराधबोध जीवन भर हमारा पीछा नहीं छोड़ता। इसलिए जरूरी है कि हम ईमानदारी को अपनी जीवनशैली का अनिवार्य अंग बनाएं। इसके लिए शुरू से ही परिवार, समाज और संस्थानों को अनुशासित तथा ईमानदार जीवन निर्माण के तत्त्वों की स्थापना के लिए कार्य करना होगा। हम अपने दैनिक जीवन में रोज ही ऐसी घटनाएं देखते हैं, जिनमें काफी लोग अपने कर्तव्य और दायित्व से विमुख होते हैं। कई कर्मचारी अपने कार्यालय में देर से आते हैं, मगर पूछने पर दोष किसी और पर मढ़ते हैं।
छोटे-छोटे आचरण ही हमारे अंदर भ्रष्ट आचार-व्यवहार की नींव डालते हैं। इसलिए आवश्यकता है कि हम अपने बच्चों में प्रारंभ से ही ईमानदार और अनुशासित जीवन जीने का बीज रोपें और उसे सींचे। हमारी शिक्षा-व्यवस्था अपनी जड़ों की ओर लौटे। इसके लिए शिक्षा-व्यवस्था में बदलाव की आवश्यकता है। वर्तमान मानसिकता एक ज्ञानवान समाज के मुकाबले धनवान समाज को ज्यादा ललचायी नजरों से देखती है, जो हमारे समाज में व्याप्त बेईमानी और अन्य सामाजिक समस्याओं का कारण है। आवश्यकता इस बात की है कि प्रत्येक व्यक्ति समाज में एक आदर्श प्रतिमान स्थापित करने की कोशिश करे।
आज भ्रष्टाचार हमारे सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक जीवन का हिस्सा-सा बन गया है। बिना इसके किसी काम की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसमें आकंठ डूबा व्यक्ति अपनी गलती आसानी से दूसरे के मत्थे मढ़ देता है या उसके लिए ये सारी बातें ऐसी होती हैं, जैसे दूध में पानी मिला होता है। आज हर विभाग में भ्रष्टाचार दैत्याकार रूप ले चुका है। अब व्यक्ति की पहचान सिर्फ उसके पैसे से होती है। यह पैसा उसने किस प्रकार और कैसे कमाया, यह कोई नहीं देखता। ऐसा इसलिए भी होता है कि ज्यादातर लोग किसी न किसी रूप में यही कर रहे हैं। जो नहीं कर पा रहा, वह इसके प्रयास में है। पद, रसूख के बावजूद जो ईमानदार है, वह बिल्कुल आज के दौर में महात्मा की तरह है। पर दुर्भाग्य यह भी है कि ऐसे लोगों को कई बार परिवार, समाज भी बर्दाश्त नहीं करता। वर्तमान में लोभ-लिप्सा की वजह से भ्रष्ट व्यवस्था शीर्ष पर विराजमान है और यह व्यवस्था देश के विकास में सबसे बड़ी बाधा बन गई है।
ईमानदार बनने के लिए हमें अपनी उन प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाना होगा, जो हमें चादर से ज्यादा पांव फैलाने को उकसाती हैं। रोटी, कपड़ा और मकान हमारे जीवन की अहम जरूरत है, पर हमारी ये जरूरतें लगातार बढ़ती जाती हैं और फिर हमारी सारी शक्ति उनकी पूर्ति में लग जाती है। इस तरह इन आवश्यकताओं की पूर्ति में हम खुद एक पैसा कमाने की मशीन बन कर रह जाते हैं। युवाकाल में हमारे रचनात्मकता के स्वप्न धरे के धरे रह जाते हैं। नतीजतन आज सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक जीवन के प्रत्येक पक्ष में सच्ची निष्ठा और ईमानदारी का अभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। आवश्यकता इस बात की है कि हम जीवन के प्रत्येक पक्ष के असली मकसद से जुड़ें। असली मकसद ही इंसान को सफलता के पथ पर अग्रसर और उसकी प्रगति को चिर स्थायी बनाता है।
यह अकाट्य सत्य है कि जिंदगी की शुरुआत शून्य से होती है और शून्य पर ही खत्म हो जाती है। अंत में हमारा मूल्यांकन सिर्फ हमारे कर्मों से होता है। उसी के दम पर हम याद किए जाते हैं, न कि पैसों की वजह से। हर इंसान का यह दायित्व बनता है कि वह जब तक जिए, इस संसार में अच्छे कर्म करे, ताकि जब वह इस संसार से विदा हो तो पूरा जग उसके लिए रोए। अच्छे कर्मों की यह सोच हमें सत्य और ईमानदारी की राह की ओर उन्मुख करेगी। इससे हमारे अंदर समाज और राष्ट्र के प्रति सच्ची निष्ठा उपजेगी।
हालांकि यह नहीं कहा जा सकता कि हमारे समाज में सर्वत्र भ्रष्टाचार और असत्य का बोलबाला है। पर, अगर व्यापक रूप में देखें तो यही निष्कर्ष निकलता है कि समाज में नैतिकता और मर्यादा का तेजी से क्षरण हो रहा है। हम जैसा सोचते हैं वैसा ही बनते हैं। समाज में भ्रष्टाचार की उपज एक दिन में नहीं हुई होगी, यह सब कुछ नया भी नहीं है, बल्कि यह सब कम या ज्यादा सदा विद्यमान रही है। पर समाज में चंूकि नैतिकता का स्तर पहले अप्रतिम था तथा अनैतिक कार्यों के लिए कठोर दंड का प्रावधान था। पर समय के साथ यह स्थिति बद से बदतर होती गई।
ब्रिटिश गुलामी को भी इसके लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। पर दोषी ठहराने से क्या होगा? देश तो हम सभी का है। इसलिए यह प्रवृत्ति कि यह सब दो सौ वर्षों की गुलाम मानसिकता, सामंतवादी प्रवृत्ति आदि की उपज है। इसके लिए सबसे अधिक दोषी हमारा समाज, हमारी आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था है। आधुनिक समाज धनिकों को ही योग्य मानती है, चाहे वह धन किसी भी प्रकार से कमाया हुआ हो। शीघ्र धनवान बनने और चमक-दमक को ही तरक्की समझ लेने की मानसिकता ही हमें गलत करने को उकसाती है, जिसका परिणाम है ऐसी स्थिति। जरूरत है इस घाव के रक्त शोधन की।
समाज में ईमानदारी, निष्ठापूर्ण कार्य-व्यवहार की स्थापना के लिए जरूरी है कि भ्रष्ट परिस्थितियों के निर्माण के मूल में काम करने वाली विकृत मनस्थिति में बदलाव लाने की कोशिश की जाए। अन्यथा एक समस्या का उपचार होने से पहले ही दस नई समस्याएं उठ खड़ी होती हैं। हमें इन समस्याओं के समूल विनाश के लिए उनकी जड़ तक जाना और उनके मूल स्रोत को नष्ट करना होगा। इसके लिए पहली आवश्यकता है जनमानस में जड़ें जमाई हुई निकृष्ट स्वार्थपरकता को निरस्त करके चरित्र निष्ठा की उच्च स्तरीय आस्थाओं का प्रतिमान स्थापित किया जाए। राष्ट्र, समाज और संगठन के प्रति ईमानदार होना हमारी चरित्र निष्ठा का महत्त्वपूर्ण पक्ष है। यह सही है कि वर्तमान में हमारे देश में व्याप्त भ्रष्ट परिस्थितियों से कोई भी संतुष्ट नहीं। इन परिस्थितियों से निपटने के लिए जरूरी है कि जीवन के सभी क्षेत्रों में ईमानदारी और कानून के नियमों का पालन हो।
सरकारी हो या निजी, दोनों तरह की संस्थाओं में ईमानदारी की व्यवस्था कायम होना बेहद जरूरी है। इसके लिए संवैधानिक तंत्र यानी कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका को यह सुनिश्चित करना होगा कि समाज और व्यवस्था में ईमानदारी तथा पारदर्शिता से सभी कार्य संपन्न हों। इसके साथ यह भी महत्त्वपूर्ण है कि सभी अपने स्तर पर ईमानदारी के सिद्धांत का प्रतिबद्धता से पालन करें। ईमानदार जीवन शैली को अपना कर ही हम एक सशक्त समाज एवं राष्ट्र का निर्माण कर सकेंगे।
ऑटोमेशन से औरतों की नौकरियां खतरे में
सरोकार माशा
आर्टििफशियल इंटेलिजेंस यानी एआई ने बहुत से काम करने शुरू कर दिए हैं। एआई मशीन आदमियों का स्थान लेने लगी हैं। हॉर्वर्ड बिजनेस रिव्यू के एक आर्टकिल का कहना है कि बढ़ते ऑटोमेशन यानी स्वचालन से पुरु षों के मुकाबले महिलाएं ज्यादा प्रभावित होंगी क्योंकि महिलाएं कुछ खास तरह के क्षेत्रों में ज्यादा बड़ी संख्या में काम करती हैं। अमेरिका में 94 फीसद सेक्रेटरी और एडमिनिस्ट्रेटिव असिस्टेंट्स महिलाएं हैं। ऑटोमेटेड असिस्टेंट्स, स्मार्टर ईमेल, कैलेंडर और फाइनांशियल सॉफ्टवेयर उनका स्थान लेने में कामयाब हो जाएंगे। वैसे, एआई से जुड़ी नौकरियों में भी औरतों की मौजूदगी बहुत कम है। र्वल्ड इकोनॉमिक फोरम और लिंक्डइन के 2018 के आंकड़ों में कहा गया है कि आर्टििफशियल इंटेलिजेस से जुड़ी नौकरियों में महिलाओं को हिस्सा सिर्फ 22 फीसद है। इनमें वरिष्ठ पदों पर तो और भी कम औरतें हैं। एआई तकनीक के साथ प्रयोग करने, उन्हें लागू करने वाले पुरु ष ही होंगे तो एक किस्म का बेखबर पक्षपात होता रहेगा। यों मशीनों को आदमियों से ज्यादा वस्तुनिष्ठ माना जाता है। मतलब वे लिंग, जाति, धर्म, भाषा के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकतीं। लेकिन आखिर उन्हें बनाने वाले तो इनसान ही हैं। मशीनों द्वारा भी भेदभाव किया जा सकता है-इसका सबूत पिछले दिनों अमेजॉन जैसी टेक्नोलॉजी कंपनी ने दिया था। उसका एआई रिक्रूटमेंट टूल नौकरियों की भर्ती में महिलाओं के मुकाबले पुरु षों को तरजीह देता था। इसके बाद अमेजॉन ने इस टूल का इस्तेमाल करना बंद किया। ऑटोमेशन से महिलाओं की नौकरियां खतरे में पड़ेंगी, यह भारत के सिलसिले में भी सही है। मैकिन्से ग्लोबल इंस्टीट्यूट के एक सर्वेक्षण में कहा गया है कि 2030 तक ऑटोमेशन के चलते 12 मिलियन औरतों को नौकरियों से हाथ धोना पड़ेगा। जिन क्षेत्रों पर सबसे ज्यादा असर होगा-वे हैं कृषि, वानिकी, मत्स्य, परिवहन और वेयरहाउसिंग। इससे बचना है तो नौकरियों के इच्छुक लोगों को अपने कौशल में बदलाव करना होगा। नई-नई चीजें सीखनी होंगी। महिलाओं की श्रम बल भागीदारिता दर 27 फीसद है। उन्हें पहले ही अपने-अपने कार्य क्षेत्रों में पारंपरिक रु कावटों से जूझना पड़ता है। पुरु षों के मुकाबले कम वेतन मिलता है। पदोन्नति में भेदभाव किया जाता है। कई बार यौन शोषण का मुकाबला भी करना पड़ता है। भारत में महिलाएं सबसे ज्यादा कृषि क्षेत्र से जुड़ी हैं। इसलिए उनके रोजगार पर सर्वाधिक असर होगा। भारत में कृषि क्षेत्र में श्रमशील महिलाओं का हिस्सा 60 फीसद से अधिक है। इसका नतीजा होगा कि औरतों का 28 फीसद रोजगार खतरे में पड़ेगा और पुरु षों का 16 फीसद। ऐसा न हो, इसके लिए 1 से 11 मिलियन औरतों को कृषि से गैर-कृषि पेशों में शिफ्ट करना होगा। उन्हें अपने कौशल में बदलाव करना होगा। यह आंकड़े घबराहट पैदा करते हैं कि देश में खेतों से लेकर शहरों तक औरतों के लिए नौकरियों और रोजगार का टोटा हो गया है। खेतों में काम के लिए मशीनों का इस्तेमाल हो रहा है। मैनुअल वर्क यानी हाथ के काम करने वाली औरतों का रोजगार छिन रहा है। शहरों में छोटे कारोबार ठप हो रहे हैं, और यहां भी औरतें बेरोजगार हो गई हैं। यह भी सच है कि 90 फीसद औरतें अनौपचारिक क्षेत्र में काम करती हैं। पिछले कई सालों में आर्थिक नीतियों ने छोटे कारोबारियों के लिए जीना दूभर किया है। इसका असर सीधा औरतों के रोजगार पर पड़ा है। ऐसे में ऑटोमेशन रही-सही कसर भी पूरी कर देगा तो औरतों के रोजगार का होगा क्या..यह बड़ा सवाल है।