11-10-2019 (Important News Clippings)
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Date:11-10-19
Compete or perish
India’s slippage in competitiveness rankings must be a wake-up call
TOI Editorials
Economic growth is the single most important factor in lifting people out of poverty. The significance of economic growth has given rise to many studies which seek to find its underlying causes and measure them. Of the many causes, perhaps none surpasses improvements in productivity. The World Economic Forum’s latest iteration of its Global Competitiveness Report explores what matters for long term growth and measures the factors influencing productivity. The results should make India’s policy makers sit up and take notice, as India over the last year has slipped in terms of both global ranking and its score.
Of the 141 countries measured India stands 68th, down 10 ranks in relation to the previous year. This is worse than any other Brics country except Brazil. But what should really worry policy makers are the areas where India fares badly. Technology adoption, health indicators and skills base greatly influence a country’s long-run economic trajectory. In all these areas, India fares poorly. Unless the quality of human capital improves, it will be difficult to sustain high rates of growth. In the absence of high growth, poverty will prove difficult to eradicate or even curb.
It’s important to put the results in perspective. A single year cannot dramatically affect factors which influence long term growth. But the rankings should serve as a wake-up call and get the Centre to work to a plan. At the same time, government cannot ignore immediate challenges. The recent economic performance of Bangladesh and Vietnam, which rank 105th and 67th in the competitiveness index, has been impressive. Even if these countries are lagging in improving long term influencers, they have been quick to grab new opportunities. This has led to strong export performances and the creation of a base to improve other factors influencing productivity.
India has to take a leaf out of their book. In the legitimate pursuit of long term objectives, it cannot ignore immediate challenges. In this context, India needs to free up rigidities in its factor markets such as labour and land – that will help both in the short and long term. Such moves will complement the recent change in corporate tax policy and provide a base for a more competitive economy. In today’s world competitiveness matters – our economic stewards must focus relentlessly on it. They cannot shut out the rest of the world and act as if we exist on a different planet.
Date:11-10-19
Abusive law
Scrap sedition. Its distinction from free speech is lost not just on cops but also magistrates
TOI Editorials
The Muzaffarpur police decision to recommend closure of the sedition case it lodged against 49 eminent citizens was the right thing to do. Criticism of the government and writing a letter to the Prime Minister is not sedition and the police appear to have belatedly recognised this fundamental pillar on which democracy stands. The problem extends beyond police action. Continuance of a law that the British wielded to jail freedom fighters who questioned their misrule was bound to be abused by governments that followed.
There is little cause for relief over one case being closed as more will keep popping up in some state or another. If it is not the police and government which goes after critics it could be an overzealous individual like the serial litigant in this case, Sudhir Ojha, who drags hapless citizens to police or court accusing them of sedition. While the Muzaffarpur police say Ojha will face the music for filing the frivolous case, it cannot be forgotten that a magistrate, Suryakant Tiwari, had failed in his duty to separate fact from fiction.
Even a cursory read of the letter which condemns lynching and hate crimes would have disproved sedition. Yet an FIR was directed to be lodged. The Patna high court must take note of such judicial officers who fail to apply their mind. Over the years, Supreme Court orders have restricted the ambit of the sedition law to a direct and immediate incitement to violence akin to a “spark in a powder keg”. But the message hasn’t travelled down the judicial or police hierarchy. Given the repeated abuses, repealing the sedition provision in the Indian Penal Code is the only feasible solution before government and constitutional courts.
Date:11-10-19
देश के बुजुर्गों की अनदेखी क्योंकि वे वोट बैंक नहीं हैं
संपादकीय
देश के 12 करोड़ बुजुर्गों यानी वरिष्ठ नागरिकों की सरकारें अनदेखी करती रही हैं। सावधि जमा (एफडी) की ब्याज दर में लगातार गिरावट इस बात के संकेत हैं। अब दो से तीन साल तक के डिपाजिट पर मात्र 6.4 प्रतिशत ब्याज दिया जाएगा। देश में 4.10 करोड़ बुज़ुर्ग खातेदार हैं, जिनके 14 लाख करोड़ रुपए बैंकों में एफडी के रूप में जमा है। एक ऐसी अर्थव्यवस्था में, जिसमें आने वाले दिनों में ब्याज दरें काफी कम होने के संकेत हैं, बुजुर्गों की अनदेखी (सरकार इनके लिए मात्र 0.5 फीसदी ज्यादा ब्याज देती है और राष्ट्रीय बचत योजना में केवल 15 लाख रुपए की सीमा भी है) इस तथ्य से स्पष्ट है कि जहां हर किसान को प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि के रूप में 6000 रुपए हर वर्ष दे रही है वहीं कई राज्य सरकारें उन्हें खुश करने के लिए अलग से अनेक मनमोहक योजनाओं के तहत 6500 से 10,000 रुपए तक दे रही हैं। दुनिया के सभी कल्याणकारी राज्यों में एक सर्वमान्य सोच है कि देश का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) अगर बढ़ रहा है तो सामाजिक सुरक्षा योजनाएं ज्यादा शुरू की जाएं खासकर उनके लिए जो नहीं कमाते हैं। भारत में 1961 में कुल जनसंख्या में बुजुर्गों का प्रतिशत मात्र 5.6 था जो 2011 की मतगणना में 8.6 पाया गया और आज वह 11 प्रतिशत तक पहुंच गया है। इनमें शहरी बुजुर्ग मात्र 29 प्रतिशत है, जबकि ग्रामीण बुजुर्ग 71 प्रतिशत। 1961 में इस वर्ग का ‘निर्भरता अनुपात’ (दूसरे के सहारे रहना ) भी आज करीब 16 हो गया है यानी हर छठवें वृद्ध या हर तीसरे परिवार के वृद्ध दंपति को सहारे की जरूरत है। इस वर्ग की दो अक्षमताएं सबसे आम है- चलने में दुश्वारी और दिल की बीमारी। आर्थिक मजबूती कम होने पर सगे भी साथ छोड़ देते हैं और इलाज़ का खर्च बेतहाशा बढ़ता जाता है। लेकिन सरकार ने जहां अपने कर्मचारियों के लिए दिवाली गिफ्ट के रूप में महंगाई-भत्ते में पांच प्रतिशत का इजाफा किया वहीं निजी क्षेत्रों में नौकरी से रिटायर या गांव के बुजुर्ग के एक मात्र सहारे ‘ब्याज’ पर फिर चाकू चलाने की तैयारी है। बैंक के एक बड़े अधिकारी के अनुसार महंगाई दर भी कम हो रही है इसलिए बुजुर्गों को ज्यादा दिक्कत नहीं होगी। उन्हें शायद यह नहीं मालूम कि दवा और इलाज का खर्च किसी सरकारी नियंत्रण में नहीं है और घर में मूल्य सूचकांक देखकर नहीं, ‘बाबूजी’ की सालाना आमदनी देखकर सेवा होती है।
Date:11-10-19
भारत के लिए चीन को संदेश देने का समय
विवेक काटजू, (लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ दूसरी अनौपचारिक वार्ता के लिए चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग भारत आ रहे हैं। दोनों नेता 11-12 अक्टूबर को तमिलनाडु के मामल्लापुरम में मिलेंगे। दोनों के बीच ऐसी पहली वार्ता गत वर्ष अप्रैल में चीन के वुहान में हुई थी। इन बैठकों का मकसद यही है कि दोनों नेताओं के बीच द्विपक्षीय एवं अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर बहुत सहज माहौल में स्पष्टता के साथ विचारों का आदान-प्रदान हो। यह उम्मीद जताई गई कि इससे मैत्री भाव बढे़गा और द्विपक्षीय रिश्तों की राह सुगम होगी।
नेताओं के बीच मित्रता भाव रिश्ते बेहतर बनाने में मददगार होता है, लेकिन इसकी एक सीमा है, क्योंकि देशों की नीतियां हमेशा राष्ट्रीय हितों एवं राष्ट्रीय आकांक्षाओं से निर्धारित होती हैं। यह बात भारत-चीन संबंधों पर भी लागू होती है। महज 40 वर्षों से भी कम अवधि में चीन एक वैश्विक शक्ति बन गया है। वह दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। सैन्य मोर्चे पर बड़ी ताकत बनने के बाद वह विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी तेजी से तरक्की कर रहा है। उसकी महत्वाकांक्षाएं बढ़ती जा रही हैं और वह आक्रामक रूप से अपना प्रभाव बढ़ा रहा है। पूर्वी, दक्षिण-पूर्वी और दक्षिण एशिया में उसका दखल खास तौर पर बढ़ा है। चीन अपना वर्चस्व भारत सहित तमाम महत्वपूर्ण एशियाई देशों की कीमत पर बढ़ा रहा है।
वर्ष 1988 में राजीव गांधी के चीन दौरे के बाद से सभी भारतीय सरकारों ने चीन के साथ कई क्षेत्रों में मेलजोल बढ़ाने की हरसंभव कोशिश की। हालांकि दोनों देशों के बीच कुछ मुद्दों पर टकराव को देखते हुए इनमें एहतियात भी बरती गई। यह रणनीति एकदम सही रही, लेकिन इससे भारत-चीन के मतभेद दूर नहीं हुए। चीन ने भारतीय हितों को लेकर अपेक्षित गंभीरता नहीं दिखाई। चीन के रवैये से यही जाहिर होता रहा कि वह भारतीय हितों की अनदेखी करता है। हाल में जम्मू-कश्मीर में मोदी सरकार के संवैधानिक कदम पर उसकी प्रतिक्रिया से फिर इसकी पुष्टि हुई।
भारत द्वारा यह समझाने के बावजूद चीन ने विरोध दर्ज कराया कि अनुच्छेद 370 हटाने से पाक के साथ नियंत्रण रेखा या चीन के साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। चीन ने जम्मू-कश्मीर में बदले घटनाक्रम को लेकर दुनिया भर में भारत के खिलाफ जहर उगलने वाले पाकिस्तान से ही सहानुभूति जताई। पाकिस्तान की मनुहार पर चीन इस मसले को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की अनौपचारिक बैठक में भी ले गया जहां उसने भारत विरोधी रुख अपनाया। बैठक के बाद बयान जारी करने की उसकी मंशा पर अन्य सदस्यों ने पानी फेर दिया। इसके बाद चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में जम्मू-कश्मीर का उल्लेख करते हुए कहा कि यह मसला संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र, सुरक्षा परिषद प्रस्तावों और द्विपक्षीय समझौतों के अनुरूप सुलझाया जाना चाहिए।
चीन का रवैया पाकिस्तान के लिए मददगार रहा, क्योंकि सुरक्षा परिषद में जम्मू-कश्मीर के मसले पर चर्चा कब की इतिहास के पन्नों में दफन हो चुकी थी। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि चीन और पाकिस्तान की साठगांठ 1962 से चली आ रही है। इसी दुरभिसंधि के दम पर पाकिस्तान भारत को लगातार आंखें दिखाता रहा। उसके तेवर अब और ज्यादा तीखे हो रहे हैं। चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे के चलते उसे नया संबल मिला है। भारत ने इसका उचित ही विरोध किया है कि यह भारतीय संप्रभुता का उल्लंघन करने वाली परियोजना है। चीन ने कभी भी पाकिस्तान पर आतंकवाद को खत्म करने के लिए दबाव नहीं डाला। जैशे मुहम्मद के सरगना मसूद अजहर को अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित कराने की मुहिम को उसने तभी समर्थन दिया जब अमेरिका ने उसे सुरक्षा परिषद में बेनकाब करने की धमकी दी।
चीनी राष्ट्रपति के भारत दौरे से ठीक पहले पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान और सेना प्रमुख जनरल कमर बाजवा ने चीन का दौरा किया। यह दौरा इसी मंशा से किया गया कि भारत-चीन संबंधों में सुधार चीन-पाकिस्तान संबंधों की कीमत पर नहीं हो। यह भी महत्वपूर्ण है कि इमरान खान ने कश्मीर के संदर्भ में दक्षिण एशिया में शांति एवं सुरक्षा पर चर्चा का प्रस्ताव रखा। भारत इसकी अनदेखी नहीं कर सकता। उसे चीन को बताना होगा कि अपने हितों की रक्षा के लिए जो जरूरी कदम होंगे, उन्हें उठाने से वह हिचकेगा नहीं। अरुणाचल में हिम विजय सैन्य अभ्यास से यही संदेश गया।
पाकिस्तान के साथ-साथ चीन ने सभी दक्षिण एशियाई देशों में अपनी सक्रियता बढ़ाई है। इसके लिए वह अपने विशाल वित्तीय संसाधनों का इस्तेमाल कर रहा है। भारत की सुरक्षा के लिए इनके गहरे निहितार्थ हैं। भारत आर्थिक मोर्चे पर चीन की बराबरी तो नहीं कर सकता, लेकिन वह अपने पड़ोसियों के समक्ष यह पेशकश तो कर ही सकता है कि वे भी भारत की तरक्की के साथ प्रगति करें। इसके लिए आदर्श परस्पर भाव विकसित करना होगा। इस जुड़ाव से पड़ोसी देश भी चीन के साथ करार करते हुए भारत के सुरक्षा हितों को लेकर सचेत रहेंगे। मोदी सरकार यह रणनीति अपना तो रही है, पर अब इसे एक औपचारिक सिद्धांत के रूप में तब्दील करना होगा।
चीन हिंद महासागर के साथ ही हिंद प्रशांत क्षेत्र में भी सक्रियता बढ़ा रहा है। यहां अपनी मौजूदगी बढ़ाने के लिए भारत को सतर्क रणनीति अपनानी होगी। उसे अन्य देशों के साथ मिलकर मजबूत नेटवर्क बनाने होंगे। ये नेटवर्क इस क्षेत्र में सामरिक कड़ियों को सशक्त बनाएंगे।
इसमें संदेह नहीं कि मामल्लापुरम में दोनों नेताओं के बीच व्यापार एवं निवेश पर गहन चर्चा होगी। चीन को अपनी अर्थव्यवस्था में भारत के लिए दवा जैसे उन क्षेत्रों में दरवाजे खोलने की प्रतिबद्धता दिखानी होगी जिनमें भारत मजबूत है। वह तरीका विशुद्ध औपनिवेशिक है जिसमें चीनी फैक्ट्रियां भारतीय कच्चे माल का उपभोग करती हैं और भारत चीनी उत्पादों का आयात करता है। यह सिलसिला कायम नहीं रखा जा सकता। भारत को 5-जी जैसी शक्तिशाली संवेदनशील तकनीक में चीनी कंपनियों को प्रवेश देने से पहले सावधानी से पड़ताल करनी चाहिए।
चीन को तीन जरूरी संदेश अवश्य समझने चाहिए। एक यह कि भारत उसके साथ संघर्ष नहीं चाहता, लेकिन अपने हितों की रक्षा से पीछे नहीं हटेगा। डोकलाम गतिरोध इसका सटीक उदाहरण है। दूसरा यह कि भारत व्यापार एवं निवेश सहित तमाम क्षेत्रों में चीन के साथ सहयोग करना चाहता है, लेकिन यह एकतरफा नहीं हो सकता और चीन को भारत की चिंताओं पर गौर करना होगा। तीसरा यह कि भारत उसके साथ सीमाओं का शांतिपूर्ण समाधान चाहता है और इस मामले में वह ज्यादा अड़ियल रुख न अपनाए। इसमें संदेह नहीं कि शी चिनफिंग के साथ वार्ता के दौरान ऐसे तमाम बिंदुओं पर मोदी मंथन जरूर करेंगे।
Date:11-10-19
कृषि और छोटे उद्योगों के पास उच्च वृद्धि की कुंजी
बड़ी कंपनियों को राहत देने से आर्थिक वृद्धि की रफ्तार तेज करने में मदद मिलने की संभावना कम है। इसके लिए कृषि एवं छोटे उद्योगों में व्यापक सुधार की जरूरत है। बता रहे हैं नितिन देसाई
नितिन देसाई
कॉर्पोरेट कर में की गई हालिया कटौती ने शेयर बाजार को उत्साह से भर दिया है लेकिन यह भारतीय अर्थव्यवस्था को पांच लाख करोड़ डॉलर के लक्ष्य तक पहुंचाने के लिए वृद्धि दर के जरूरी स्तर के करीब भी नहीं है। कॉर्पोरेट कर में कटौती से आय बढ़ेगी लेकिन उससे निवेश को बढ़ावा नहीं मिलेगा जब तक कि कंपनियों को मांग बढऩे के स्पष्ट संकेत न दिखें। बुनियादी उपभोक्ता उत्पादों की मांग बढ़ाने का स्वाभाविक तरीका यह है कि रोजगार गारंटी योजना मनरेगा पर खर्च बढ़ाकर ग्रामीण अर्थव्यवस्था में पैसे डाले जाएं। अगर इसका मतलब एफआरबीएम के बजट गतिरोधों को तोडऩा ही है तो होने दीजिए। मुद्रास्फीति नियंत्रण की सनक ऐसी अर्थव्यवस्था में गलत है जहां बड़ा खतरा वृद्धि का बेपटरी होना और बढ़ती बेरोजगारी है। महंगे उपभोक्ता एवं पूंजीगत उत्पादों के मामले में राहत केवल तभी आएगी जब वृद्धि एवं रोजगार सृजन की स्थिति सुधरती है और ऋण बाजार की सेहत बेहतर होती है।
तात्कालिक मांग बढ़ाने पर जोर देने वाला कीन्स मॉडल अच्छा शुरुआती कदम माना जाएगा। लेकिन हमें सकल सावधि निवेश में वर्ष 2011-12 के शीर्ष स्तर की तुलना में आई पांच फीसदी गिरावट पर भी ध्यान देने की जरूरत है। इस गिरावट का बड़ा हिस्सा गैर-कॉर्पोरेट क्षेत्र का है। इस गिरावट में कुछ योगदान नोटबंदी एवं जीएसटी जैसे गतिरोधों का भी रहा है। लेकिन गिरावट का बड़ा कारण कृषि एवं छोटे उद्योगों के लिए हमारे नीतिगत प्रारूप का पुराना पड़ जाना है जो अब इन क्षेत्रों के विकास की संभावनाओं का दोहन कर पाने में सक्षम नहीं रह गया है। इन क्षेत्रों का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में योगदान करीब आधा है।
हमारी कृषि नीति 1960 के दशक के मध्य में बनाई गई थी। उस समय हम खाद्यान्नों की भारी कमी से जूझ रहे थे। उसमें हरित क्रांति की तकनीकों का इस्तेमाल करने के लिए किसानों को मनाने पर जोर दिया गया था। चावल और गेहूं जैसे खाद्यान्नों की उदार मूल्यों पर सार्वजनिक खरीद का भरोसा दिलाया जाता था। लेकिन इस नीतिगत परिप्रेक्ष्य का अब कोई औचित्य नहीं है। साठ के दशक में आए बहुचर्चित सूखे से ऐन पहले भारत में चावल और गेहूं का प्रति व्यक्ति उत्पादन करीब 100 किलोग्राम था। वर्ष 2018-19 में यह बढ़कर 160 किलोग्राम प्रति व्यक्ति हो चुका है और गेहूं एवं चावल के भंडारों का बढ़ता आकार अधिक उत्पादन की तस्दीक करता है।
बहरहाल साठ के दशक में गेहूं एवं चावल की उपज के लिए तगड़ा प्रोत्साहन देकर खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने की रणनीति आज के दौर में अपनी अहमियत खो चुकी है। गेहूं एवं चावल का अंशदान फसल के उपज मूल्य के एक तिहाई से भी कम है। गन्ने की बात करें तो चीनी मिलें अक्सर समय पर भुगतान नहीं करती हैं और सहकारी समितियां भी खरीदे गए दूध का भुगतान ठीक से नहीं करती हैं। इस तरह हमारे किसानों की उपज का करीब 80 फीसदी हिस्सा बाजार जोखिमों के अधीन होता है और वे उपज को मनचाही जगह पर बेचने से रोकने वाले कानूनों से भी बंधे हुए हैं। यह एकांगी व्यवस्था किसानों को हतोत्साहित करती है जिससे परेशान होकर कई बार वे पारिस्थितिकी के हिसाब से गलत फसल चुन लेते हैं और सरकार पर सब्सिडी का बोझ बढ़ा देते हैं।
कृषि नीति का जोर चुनिंदा फसल या आगत-केंद्रित दखल से हटकर व्यापक समर्थन पर होना चाहिए जो फसल और बागवानी से लेकर पशुधन को भी समाहित करे। कृषि शोध एवं विस्तार, बाजार ढांचे का विकास, कृषि प्रसंस्करण और भंडारण गतिविधियों में सभी फसलों एवं सभी क्षेत्रों को तवज्जो दी जानी चाहिए। यह कृषि एवं कृषि प्रसंस्करण में कंपनियों एवं परिवारों दोनों के निवेश को बढ़ावा देगा। हालांकि बड़ा बदलाव यह होगा कि अपनी उपज बेचने को लेकर किसानों पर लगी सभी तरह की पाबंदियां हटा दी जाएं। खरीदारों और संगठित कृषि प्रसंस्करण इकाइयों के बीच उपज खरीद के लिए प्रतिस्पद्र्धा होने पर उस उत्पाद की कीमतों में होने वाली उठापटक कम हो सकती है। ऐसा होने पर कृषि उपज खरीद को लेकर अधिक विश्वसनीय एवं स्थिर नीति बन सकेगी जबकि अभी सरकार हर मौसम में उपज की घट-बढ़ पर घबराहट में फैसले लेने लगती है। हालांकि इससे कृषि को सब्सिडी देने की जरूरत खत्म नहीं होगी क्योंकि दूसरे देशों में कृषि सब्सिडी जारी रहेगी। लेकिन इसका आधार कृषि उत्पादन में दी जाने वाली सब्सिडी न होकर आय समर्थन हो सकता है।
विनिर्माण एवं सेवा क्षेत्र में सक्रिय सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम इकाइयों का जीडीपी में योगदान करीब 30 फीसदी है। सूक्ष्म इकाइयों में करीब 10.7 करोड़ लोगों को रोजगार मिलता है जबकि छोटी एवं मझोली इकाइयां 30 लाख रोजगार देती हैं। विनिर्माण, कारोबार एवं अन्य सेवा वर्ग में इनकी हिस्सेदारी एक-एक तिहाई है। खासकर कारोबार क्षेत्र की सूक्ष्म एवं लघु इकाइयां नोटबंदी की वजह से बुरी तरह प्रभावित हुई थीं क्योंकि उनका कारोबार मूलत: नकदी पर चलता था। कुछ महीनों बाद ये इकाइयां जीएसटी के सही तरीके से लागू नहीं होने से दोबारा प्रभावित हुईं। इसके चलते फौरी तौर पर कई इकाइयां बंद हो गईं। जीडीपी, निर्यात एवं रोजगार में इन इकाइयों की बड़ी हिस्सेदारी को देखते हुए उपभोग व्यय वृद्धि में सुस्ती, निर्यात ठहराव और पारिवारिक निवेश में गिरावट को काफी हद तक समझा जा सकता है।
हमारे कई छोटे उद्योग कर दायरे से बाहर रहने की वजह से न केवल बचे रहे बल्कि फले-फूले भी। लेकिन जीएसटी के आने के बाद ऐसा हो पाना काफी मुश्किल हो रहा है। छोटे उद्योगों को कर दायरे में लाना वांछनीय है लेकिन ध्यान इस रास्ते में आने वाली अड़चनें दूर करने पर होना चाहिए। लेकिन मुख्य ध्यान एक ऐसे नीतिगत प्रारूप पर होना चाहिए जो स्थायी रूप से छोटा बने रहने का ही पोषण न करती हो। लघु उद्योग नीति ऐसे आग्रहों पर आधारित थी जो उन्हें बड़ा होने से हतोत्साहित करती थी। अच्छा प्रदर्शन कर रहे कई छोटे उद्यमी भी छोटे कारखानों की संख्या बढ़ाकर मिलने वाले लाभ को बढ़ाने का तरीका अपनाते थे। इन उत्पादों को मिलने वाले लाभ अब खत्म हो चुके हैं और कारखाना अधिनियम, दुकान एवं प्रतिष्ठान अधिनियम एवं श्रम कानूनों में नियामकीय विसंगतियां बरकरार हैं लेकिन छोटी इकाइयां अब भी छोटी ही बनी रहना चाहती हैं।
मानकों का पालन करने वाले कानूनों को स्वरोजगार में लगे लोगों के अलावा सब पर लागू किया जाए। बड़ी इकाइयों के मानकों में थोड़ी शिथिलता लाने और छोटी इकाइयों के मानकों को सख्त करने की जरूरत होगी। औपचारिक एवं अनौपचारिक क्षेत्र का विभेद इतिहास हो जाना चाहिए। कुछ मायनों में जीएसटी ऐसा कर रहा है। चुकाए गए कर का क्रेडिट मिलने से छोटी इकाइयां भी जीएसटी नेटवर्क में शामिल होने को बाध्य हो रही हैं। छोटे-बड़े अवरोध खत्म होने से कंपनियों के आकार का भी नया ढांचा उभरेगा जिससे आर्थिक सूझबूझ, छोटी इकाइयों के क्रेडिट प्रवाह में सुधार और गैर-कॉर्पोरेट उद्यम निवेश को बल मिलेगा। परिवार के स्तर पर किए जाने वाले निवेश में इसका बड़ा हिस्सा होता है। परिवारों की बचत एवं निवेश में सुधार हालात में बदलाव का लिटमस टेस्ट है।
उच्च वृद्धि की राह पर जाने के लिए निर्यात वृद्धि जरूरी है और वर्ष 2011-12 के बाद से निर्यात के स्थिर मूल्य होने से यह मुद्दा तात्कालिक अपरिहार्य बन जाता है। कुल निर्यात में 45-50 फीसदी अंशदान रखने वाले कृषि एवं छोटे उद्यमों के लिए आधुनिक एवं सुधरी नीति अपनाने से बड़ी मदद मिलेगी। निश्चित रूप से इसे व्यापार सहूलियत में दूसरे विशिष्ट सुधारों और वैश्विक प्रतिस्पद्र्धा पर केंद्रित विनिमय दर नीति की जरूरत पड़ेगी। सरल शब्दों में, हमें बड़ी कंपनियों से परे देखना होगा और अपने किसानों एवं छोटे उद्यमियों की वृद्धि संभावनाओं को नई उड़ान देनी होगी।
Date:10-10-19
क्या हम अब भी साथ चलेंगे
जोरावर दौलत सिंह, (फेलो, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च)
भारत और चीन के रिश्तों में आई हालिया स्थिरता ने मानो पूर्व के अशांत दौर की यादें मिटा दी है। देखा जाए, तो साल 2014 से 2017 के बीच हमने आपसी संबंधों में जो तनाव, कड़वाहट और अविश्वास देखा था, वह दरअसल चीन की नीतियों और इरादों को लेकर बढ़ती अनिश्चितता का नतीजा था। वह शीत-युद्ध के बाद के दौर का एक असामान्य टकराव था, जिसे 2018 में थाम लिया गया। पहले वुहान सम्मेलन की राह भी तभी साफ हो पाई, और शुक्रवार से शुरू हो रहे चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के भारत दौरे का भी यही संदेश है।
पिछले एक दशक से तीन ऐतिहासिक कारक भारत-चीन रिश्ते को आकार देने में जुटे हैं। इनमें से कुछ कारक दोनों देशों को प्रतिस्पद्र्धा की ओर धकेल रहे हैं, तो कुछ उन्हें आपसी सहयोग और सहकार्य के लिए प्रेरित करते हैं। इन कारकों में पहला है, बदलती विश्व व्यवस्था और एशिया का उभार (खासकर 2008 की वैश्विक मंदी के बाद)। दूसरा कारक यह सोच है कि अंतरराष्ट्रीय और एशियाई मामलों को कुशलता से संभाल पाने में पश्चिम सफल नहीं हो पा रहा, जिसके कारण भारत, चीन और अन्य उभरती ताकतों पर नई व्यवस्था बनाने का भरोसा बढ़ गया है। इस नई भूमिका में वैश्विक स्थिरता को कायम रखने और नई शासकीय संस्थाओं व मानदंडों को मिलकर विकसित करने के लिए आपसी सहयोग और समन्वय की दरकार है। तीसरा कारक है, दक्षिण एशिया को लेकर चीन की 2013 और 2014 की नीतियां, जिनमें उसने अपने आस-पास और उप-महाद्वीप के अन्य देशों के साथ मजबूत रिश्ते बनाने की बात कही। बेल्ट ऐंड रोड इनीशिएटिव और चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे की विधिवत घोषणा इसी की कड़ी थी।
बेशक ये तीनों कारक 2017 तक भारत-चीन रिश्ते को नया रूप देते रहे, मगर यह महाद्वीप पारस्परिक क्रिया-प्रतिक्रिया का बड़ा अखाड़ा भी बना रहा, जिस कारण दोनों पक्षों ने प्रतिस्पद्र्धात्मक सोच और नीतियां अपनाईं। इस दौरान किस कदर तनाव और अविश्वास पैदा हुआ, यह चीन के अपने दक्षिण-पश्चिम इलाकों में संबंध-विस्तार करने के फैसले और उस पर भारत की प्रतिक्रियाओं से समझा जा सकता है। डोका ला प्रकरण ने तो इस सवाल को कहीं गहरा बना दिया था कि यदि अपने-अपने नियंत्रण वाले सीमावर्ती इलाकों में सामने वाले देश की कोई हरकत होती है, तो दोनों देश किस तरह की प्रतिक्रिया देंगे?
सीमा विवाद और आपसी संघर्ष की आशंका ही वे बडे़ कारण थे कि दोनों देशों के नेतृत्व ने इन जटिल ऐतिहासिक कारकों का गंभीर मूल्यांकन किया।
उभरती बहुध्रुवीय व्यवस्था और एशिया के पुनरोदय की व्यापक पृष्ठभूमि, वैश्वीकरण के भविष्य पर अनिश्चितता और दोनों देशों की राष्ट्रीय विकासात्मक प्राथमिकताओं (अपने अवाम के लिए सामाजिक-विकासात्मक सुविधाएं हासिल करने और अर्थव्यवस्था में आमूल-चूल बदलाव के लिए उन्हें लंबा रास्ता तय करना है) ने दोनों देशों के नेतृत्व को इस निष्कर्ष पर पहुंचाया कि क्षेत्रीय तनाव का कम होना उनके हित में है।
अप्रैल, 2018 में वुहान में हुई ‘अनौपचारिक बैठक’ का उद्देश्य यही था, जिसमें दोनों पक्षों ने बिगड़ते आपसी रिश्तों को संभालने और संबंधों की नई इबारत लिखने का प्रयास किया। तेजी से बदलते अंतरराष्ट्रीय परिवेश में अपने जटिल संबंधों को दुरुस्त करने के लिए दोनों नेतृत्व ने तत्काल रूपरेखा भी बनाई। उल्लेखनीय है कि 1988 की ‘मॉडस विवेंदी’ (राजीव गांधी की सरकार के समय भारत-चीन संबंधों को दी गई नई दिशा) यह समझते हुए तैयार की गई थी कि दशकों पुराने क्षेत्रीय विवाद के बावजूद दोनों पक्ष आपसी रिश्तों को आगे बढ़ाते रहेंगे। मगर उसमें ऐसा कुछ नहीं था, जो भू-राजनीतिक सामंजस्य को संभव बना सके या विवादित मसलों का उस गहराई और व्यापकता में समाधान निकाल सके, जैसा हाल के वर्षों में द्विपक्षीय रिश्तों को परिभाषित करने में किया गया है।
‘वुहान 1.0’ में कुछ ऐसे मानदंडों को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया था, जो दोनों देशों के नीति-निर्माताओं और नौकरशाहों के लिए दिशा-निर्देश के रूप में काम कर सकता था। यह पांच आधार पर तैयार किया गया था।
पहला, स्वतंत्र विदेश नीति के साथ दो बड़ी शक्तियों के रूप में ‘भारत और चीन का साथ-साथ उदय’ एक सच्चाई है। दूसरा, बदलती वैश्विक सत्ता में आपसी रिश्ते को फिर से महत्व मिला है और यह ‘स्थिरता के लिए सकारात्मक कारक’बन गया है। तीसरा, दोनों पक्ष ‘एक-दूसरे की संवेदनशीलता, चिंता और आकांक्षाओं का सम्मान’ करने का महत्व जानते हैं। चौथा, दोनों नेतृत्व सीमा के तनाव को कम करने के लिए ‘अपनी-अपनी सेना को दिशा-निर्देश’ देंगे और आखिरी, दोनों पक्ष ‘साझा हित के सभी मामलों पर अधिक से अधिक संवाद करेंगे’, जिसमें एक वास्तविक ‘विकासात्मक साझेदारी’ भी शामिल है।
हालांकि ‘वुहान पहल’ की यह कहकर आलोचना की गई थी कि इसमें आपसी मतभेदों को दूर करने का कोई ठोस खाका बनता नहीं दिख रहा। इसमें कुछ हद तक सच्चाई भी थी। फिर भी, तथ्य यही है कि दोनों देशों ने आपसी प्रतिस्पद्र्धा और अविश्वास को काफी कम किया। मुमकिन है कि अनिश्चित अंतरराष्ट्रीय परिस्थिति ने दोनों को ऐसा करने को प्रेरित किया हो। दावा यह भी किया गया है कि अमेरिका के साथ चीन की रणनीतिक प्रतिस्पद्र्धा ने बीजिंग को नई दिल्ली से करीब किया है। बेशक यह सही है, मगर इन बहसों में इसकी बहुत ज्यादा चर्चा नहीं की जाती कि चीन के साथ सैन्य, आर्थिक व कूटनीतिक तनाव कम करने का फायदा भारत को भी मिला है।
भविष्य की बात करें, तो भारत की चीन-नीति के तीन लक्ष्य होने चाहिए। पहला, एशिया में एक समावेशी सुरक्षा ढांचा का निर्माण करना, जो पारस्परिक आर्थिक निर्भरता को प्रभावित किए बिना बहुध्रुवीय व्यवस्था बनाने में मदद करे। दूसरा, निष्पक्ष और नियम-आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था बनाना, जो भारत और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के हितों को बेहतर ढंग से जाहिर कर सके और तीसरा, पड़ोस में भू-राजनीतिक स्थिरता और सतत आर्थिक विकास सुनिश्चित करना। इन लक्ष्यों तक पहुंचने में चीन महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है, लिहाजा भारतीय नीति-निर्माताओं को ऐसी विदेश नीति बनानी चाहिए, जो इन तीनों लक्ष्यों को पूरा करने में मदद करे। बेमतलब की प्रतिस्पद्र्धा अन्य देशों की ही मदद करेगी।
Date:10-10-19
संकट में संस्था
संपादकीय
मंदी का असर सिर्फ देशों की अर्थव्यवस्था पर ही नहीं दिख रहा, बल्कि दुनिया का सबसे बड़ा और ताकतवर माने जाने वाला वैश्विक निकाय संयुक्त राष्ट्र भी घोर आर्थिक संकट से जूझ रहा है। हालांकि यह कोई पहला मौका नहीं है जब इस वैश्विक संस्था ने पैसे की कमी की बात कही हो। कई साल से ऐसा हो रहा है जब साल के आखिर में इसके बजट पास होने की बात आती है तो हमेशा कटौती पर जोर दिया जाता है। पिछले साल संयुक्त राष्ट्र ने अपने सालाना बजट में साढ़े अट्ठाईस करोड़ डालर से ज्यादा की कटौती थी। संयुक्त राष्ट्र कोई कमाऊ संस्था नहीं है। उसका खर्चा सदस्य देशों के योगदान से ही चलता है। लेकिन लंबे समय से समस्या यह बनी हुई है कि सदस्य देश अपने हिस्से का योगदान नहीं दे रहे हैं। जो देश दे रहे हैं वे भी कटौती कर रहे हैं। ऐसे में संस्था के पास पैसे की आवक घट रही है और संकट बढ़ता जा रहा है। सवाल यह उठता है कि यह विश्व संस्था अपने को कैसे बचा पाएगी। अगर पैसा नहीं होगा तो धीरे-धीरे कामकाज ठप होते जाएंगे और यह निष्प्रभावी होती चली आएगी।
संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुतारेस ने हाल में संस्था की माली हालत पर जिस तरह से चिंता व्यक्त की है और सदस्य देशों को चेताया है, वह गंभीर स्थिति का संकेत है। अब हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि कर्मचारियों को वेतन देने तक के लिए पैसे के लाले पड़ रहे हैं। गुतारेस ने संयुक्त राष्ट्र सचिवालय में काम करने वाले सैंतीस हजार कर्मचारियों को इस बारे में बता दिया है कि अब वेतन और भत्तों में कटौती होगी। अबकी बार यह नौबत इसलिए आई है कि इस साल के जरूरी बजट का जो पैसा सदस्य देशों से आना था, उसका अभी तक सत्तर फीसद ही आया है। पिछले महीने संगठन को तेईस करोड़ डॉलर की नगदी का संकट झेलना पड़ा। ऐसी ही हालत इसी महीने भी बनी रहेगी। सवाल है ऐसे में किया क्या जाए? सिर्फ वेतन और भत्तों में कटौती से काम नहीं चलने वाला है। इसीलिए महासचिव ने खर्च में कमी के लिए दूसरे उपायों की भी बात कही है। जैसे सम्मेलनों और बैठकों को टाला जाएगा, इनमें कमी की जाएगी। संयुक्त राष्ट्र के अधिकारियों की विदेश यात्राओं पर भी अंकुश लगाया जाएगा। कुल मिला कर संस्था के कामकाज पर असर पड़ना तय है।
आज बदलते विश्व में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो गई है। शांति मिशनों से लेकर क्षेत्रीय विवादों के समाधान तक में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता। छोटे से छोटा देश तक अपने विवादों के समाधान की उम्मीद लिए संयुक्त राष्ट्र का दरवाजा इसलिए खटखटाता है कि उसे पता है कि इस संस्था का बुनियादी मकसद ही विश्व शांति के लिए काम करना है। दुनिया के देशों में कानूनी विवाद सुलझाने के लिए अंतरराष्ट्रीय न्यायालय है, तो यूनिसेफ जैसी संस्था की अपनी बड़ी भूमिका है। ऐसे में अगर इन संस्थाओं के बजट में कटौती होती है तो इसका नुकसान बड़े देशों के बजाय छोटे मुल्कों को ज्यादा होगा। संयुक्त राष्ट्र के ज्यादातर शांति मिशन तीसरी दुनिया के देशों में या फिर पश्चिम एशिया के युद्धग्रस्त क्षेत्रों में चल रहे हैं। ऐेसे में खर्च में कटौती का खमियाजा उन देशों के नागरिकों को ही उठाना पड़ेगा। अगर संयुक्त राष्ट्र को बचाए रखना है तो सदस्य देशों को अपने निहित स्वार्थों से ऊपर उठना होगा और योगदान के मसले पर राजनीति बंद करनी होगी
Date:10-10-19
For a happy childhood
India requires multiple interventions to prevent mental health disorders among adolescents
Soumya Swaminathan is Chief Scientist at the World Health Organization, Lakshmi Vijayakumar is the founder of SNEHA, a suicide prevention centre, and Sukriti Chauhan is a Director at Global Health Strategies.
With over 18% of India’s population aged 10-17, the future of the country will be driven by this segment. The government has introduced many initiatives for their health, nutrition, education and employment. The goal should be for them to thrive, be productive adults and be happy.
Suicide among adolescents
But a happy childhood is fast becoming a challenge for many. Recent data suggest that mental health disorders are on the rise among 13-17-year-olds, with one out of five children in schools suffering from depression. According to the National Mental Health Survey of 2016, the prevalence of mental disorders was 7.3% among 13-17-year-olds. With many resorting to self-harm, statistics suggest that suicide among adolescents is higher than any other age group. According to the Global Burden of Disease Study 1990-2016, in India, the suicide death rate among 15-29-year-olds was highest in Karnataka (30.7), Tripura (30.3), Tamil Nadu (29.8), and Andhra Pradesh (25.0). India’s contribution to global suicide deaths increased from 25.3% in 1990 to 36.6% in 2016 among women. Though suicides among women have decreased overall, the highest age-specific suicide death rate among women in 2016 were for ages 15-29 years and 75 years or older.
Half of all mental health disorders in adulthood starts by 14 years of age, with many cases being undetected. Those who suffer from depression and anxiety in adulthood may often begin experiencing this from childhood and it may peak during adolescence and their early 20s.
Studies relate suicidal behaviour to absenteeism from school, sexual and/or physical abuse and depression, bullying and peer pressure. Overall, a poor social environment and difficulties in discussing problems with parents increase the odds of poor mental health. Even as many can identify feeling sad and distressed, only about 8% can label it as depression. Most are unable to correctly identify approaching mental health professionals as a good solution due to the stigma around mental health issues and lack of understanding of how good support can help them feel and do better.
The good news is that parents and peers can play an important role by being understanding and communicative. There is evidence that technology can create loneliness, isolation and unrealistic expectations for adolescents. By moving away from strict rules and diktats, parents should gently discuss the role of technology to bring adolescents to the realisation that limiting screen time and engaging in social activities may improve how they feel.
By learning more about mental health, parents and school administrations should sensitise themselves about what constitutes ‘warning signs’ like erratic sleep patterns and mood swings. Peer support systems and trained counsellors can encourage dialogue around seeking support and better coping mechanisms.
Creating awareness
A new approach is required for disseminating mental health awareness backed by progressive government policies, based on evidence-based approaches. A 2010 Lancet study highlighted interventions conducted with 10,000 adolescents across 10 European countries, with a key success around ‘Youth Behaviour and Mental Health’ segment. This resulted in adolescents with mental health challenges receiving psychological support via 45-minute sessions, which ensured a reduction in suicidal ideas and behaviour. Projects with a similar approach, such as SPIRIT (Suicide Prevention and Implementation Research Initiative) in India, aim to reduce suicides among targeted adolescents and implement research-based suicide interventions. They also aim to empower regional policymakers to integrate evidence generated from implemented research on suicide prevention in policymaking. India requires multiple similar interventions for change.
Date:10-10-19
Lessons from Aarey
Governance cannot be a cat and mouse game with the people. They must be treated as stakeholders
Editorial
The tumult in Mumbai over the cutting of trees for building a depot for one of the many metro lines coming up in the city carries many governance lessons. One of them is transparency, to which governments pay much lip service, while acting in exactly the opposite way. In the case of the Aarey controversy, this has been quite literally so. The Bombay High Court had ruled in favour of felling over 2,000 trees in a small patch of Mumbai’s largest green area to make way for the project. Those opposed to the cutting believed they had recourse to further legal options, but felt cheated when Mumbai Metro Rail Corporation Limited, acting with secrecy and stealth and under cover of darkness, began cutting trees in Aarey within hours of the judgment. There was no need for this unseemly haste, even if the government feared appeals against the High Court order and further delays. After all, governance cannot be a cat and mouse game with the people. It is not as if those opposing the specific location of the car shed are against the metro.
Delhi Metro showed the way in how people can be won over by the simple method of talking to them. The first managing director of Delhi Metro Rail Corporation, E Sreedharan, placed much emphasis on interactions with residents along the metro route to explain to them the benefits the transport system would bring. As a result, Delhi Metro was able to cut more than 31,000 trees and transplant 6,000 more without much opposition, while also finding a way to accommodate the concerns of tree activists at the location of one car shed.
Another issue that the controversy has highlighted is the high value people accord to trees, green areas, and open spaces in India’s overcrowded, poorly planned cities. Aarey is spread over 1,278 hectares, and the car shed will take up just 33 hectares of this space. Environmentalists have made the case that this patch is a vital part of the entire “urban forest”, precious in concrete-filled Mumbai. As more and more small towns become cities, and generate demands for better infrastructure, clearer definitions of forests and green areas are needed. Regardless of whether one opposes big infrastructure projects, or supports them, debate of the kind that has been sparked over the environment costs of the Aarey Metro Line 3 car shed since the time the project was first mooted, is healthy and necessary. India cannot aspire to leadership in the fight against climate change in the international arena, and at the same time dismiss or discourage conversations on the environment at home.