11-05-2018 (Important News Clippings)
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Date:11-05-18
America Opts Out
Trump’s foreign policy moves are creating a global leadership vacuum
TOI Editorial
President Donald Trump has followed through on something he had been threatening to do for a while – pull the US out of the Iran nuclear deal. As the world tries to figure out how to cope with the fallout, a larger question looms about America’s global leadership role. The Iran nuclear deal is the third major international accord that Trump has junked – the other two being the Paris Climate Accord and the Trans-Pacific Partnership (TPP) trade agreement. He is also threatening to pull the plug on NAFTA and WTO.
In fact, much of Trump’s ‘America First’ policy approach now seems to be more like ‘America Alone’. The US has been at the core of many international and multilateral institutions created since 1945, and its withdrawal from them would create a dangerous vacuum at the heart of global affairs. The question then arises who can step into America’s shoes to shore up international stability. China may want to throw its hat into the ring, but the communist country is too insecure and focussed on narrow self-interest to play a global leadership role. And this won’t change anytime soon given China’s evident unilateralism in a variety of areas.
Europe could be an alternative, but it continues to present the Kissingerian dilemma: Who to dial if one wants to call Europe? France under Emmanuel Macron is keen to pursue a robust foreign policy. But it lacks America’s diplomatic or economic heft. Germany under Angela Merkel is too staid and Euro-centric. Another possible contender could be Japan, which has taken the initiative to keep the TPP going in a diluted form. But it has an aging society and is too much of a camp follower. Taken together, if America recedes from its leadership role, the world is likely to become more chaotic, disorderly and riven by conflict.
Date:11-05-18
Behemoth Arrives
Walmart deal will boost Indian retail and the entire start-up space
TOI Editorials
Walmart’s $16 billion deal to buy a 77% stake in domestic online retailer Flipkart is not just the largest ever e-commerce deal, it is also symptomatic of the churn taking place in the retail industry. Driven by rapid advances in information and communications technology, traditional boundaries are disappearing. The Walmart deal has come in the wake of a global trend where online and offline retail are rapidly converging. Therefore, this deal is a positive development not just for the retail industry but also the entire Indian e-commerce industry. It opens up space for more funding to start-ups.
Over the last couple of years, India witnessed early signs of convergence between offline and online retail. Amazon, the other US e-commerce giant operating here, not only entered into limited agreements with offline retailers, it picked up an equity stake in Shoppers Stop. Amazon also ventured into physical retailing in US where technology was used to eliminate traditional inconveniences such as a check-out queue. Consequently, retailing has evolved in the direction of an omni-channel business model. The implication is that e-commerce is not a zero sum game. It brings in a new dimension without totally destroying physical outlets.
If other developments in retail are juxtaposed to the Walmart deal, there is a strong possibility that this FDI in e-commerce will prove beneficial to both consumers and traditional offline retailers. Homegrown offline retailers with a pan-India presence have been acquiring traditional retailers with limited geographical presence. The current trend of convergence, with global giants looking to partner with homegrown retailers, will help a segment of the industry that would otherwise have found raising adequate capital challenging and struggled to access cutting edge technology. The apprehensions of a section of India’s traditional retailers are, therefore, unfounded. The benefits of foreign investment will ripple out across the sector.
The full potential of these benefits can be unlocked only if government opts to bring its policy in line with market developments. India’s retail policy has been hamstrung by the influence of interest groups. It has led to a situation where policy is designed for a world where there is no convergence between offline and online. Consequently, developments in technology and the marketplace have surged ahead through loopholes. But this situation only undercuts ease of doing business. Government now needs to take a holistic view and bring policy and regulations in sync with the opportunities thrown up by technological advances.
Date:11-05-18
क्या कंपनी के स्वामित्व को लेकर बहस है सार्थक!
ए के भट्टाचार्य
आर्थिक राष्ट्रवाद के एक अपरिपक्व ब्रांड के हाल के उभार से अत्यधिक विवादास्पद सवाल पैदा हुए हैं, जिन पर इस समय राजनीतिक और सियासी हलकों में बहस जारी है। सवाल ये हैं कि क्या किसी भारतीय कंपनी के विदेशी कंपनी द्वारा अधिग्रहण की मंजूरी दी जानी चाहिए या क्या उन क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के नियमों को कड़ा किया जाना चाहिए, जिनमें भारतीय कंपनियों का विदेशी कंपनियां अधिग्रहण कर रही हैं। इसमें तर्क यह है कि सरकार को भारतीय कंपनियों की मदद करनी चाहिए और विदेशी कंपनियों के इन्हें अधिग्रहीत करने पर रोक लगाई जानी चाहिए। यह तर्क भारतीय जनता पार्टी के हिंदुत्व एजेंडा से पैदा हुआ है।
कुछ सप्ताह पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत ने कहा था कि भारतीय आकाश पर विदेशी कंपनियों का कब्जा नहीं होना चाहिए। उन्होंने एयर इंडिया को खरीदने की किसी विदेशी कंपनी को मंजूरी देने की जरूरत पर सवाल उठाया था। भागवत के बयान से यह बात भी सामने आई है कि भले ही नरेंद्र मोदी सरकार ने उदारीकरण, विनियमन और आर्थिक सुधारों को लेकर अपनी प्रतिबद्धता के खूब दावे किए हैं, लेकिन वह अब भी आरएसएस के निर्देश पर बड़े नीतिगत फैसले ले रही है। एक अन्य विवाद दिग्गज वैश्विक खुदरा कंपनी वॉलमार्ट के अग्रणी ऑनलाइन खुदरा कंपनी फ्लिपकार्ट में 77 फीसदी हिस्सा अधिग्रहीत करने को लेकर पैदा हुआ है। यह सवाल उठाया जा रहा है कि एमेजॉन से पूरे साहस के साथ मुकाबला करने के बाद कैसे एक भारतीय ऑनलाइन कंपनी को एक अमेरिकी कंपनी द्वारा अधिग्रहीत किया जा रहा है।
इस मुद्दे पर भी बहस शुरू हो सकती है कि क्यों एक भारतीय स्वास्थ्य कंपनी फोर्टिस को अधिग्रहीत करने की मलेशिया की आईएचएच हेल्थकेयर को मंजूरी दी जानी चाहिए। एक अन्य बोली भारतीय अस्पताल शृंखला मणिपाल समूह से आई है। लेकिन इस बोली को अमेरिकी की निवेश कंपनी टीपीजी से वित्तीय मदद मिली है। जिस तरह के आर्थिक राष्ट्रवाद के फैसले आ रहे हैं, वे भारतीय अर्थव्यवस्था को फायदे से ज्यादा नुकसान पहुंचा सकते हैं। वर्तमान बहस अजीब है। इसमें राष्ट्रीय हित की आहट सुनाई देती है, लेकिन यह आर्थिक तर्क को भी गलत साबित कर देती है। क्या बहुलांश विदेशी स्वामित्व वाली कंपनी विदेशी कंपनी बन जाती है? क्या विदेशी या भारतीय कंपनी का निर्धारण करने के लिए केवल स्वामित्व ही एकमात्र मापदंड होना चाहिए? उदाहरण के लिए क्या देश का दूसरा सबसे बड़ा निजी बैंक एचडीएफसी बैंक एक भारतीय कंपनी है? बंबई स्टॉक एक्सचेंज के मुताबिक इसकी बहुलांश हिस्सेदारी विदेशी संस्थागत निवेशकों के पास है।
भारत की सबसे बड़ी विमानन कंपनी इंडिगो को क्या कहेंगे? इसकी 37 फीसदी हिस्सेदारी प्रवासी भारतीयों समेत इस विमानन कंपनी के प्रवर्तकों के पास है। अन्य 13 फीसदी हिस्सेदारी विदेशी संस्थागत निवेशकों के पास है। क्या इसे एक भारतीय कंपनी माना जाना चाहिए? अगर आप फ्लिपकार्ट की हिस्सेदारी को देखें तो इसे स्वामित्व के लिहाज से भारतीय कंपनी करार देना मुश्किल होगा, जबकि आम धारणा है कि यह एक भारतीय कंपनी है। फ्लिपकार्ट अभी भारतीय स्टॉक एक्सचेंजों पर सूचीबद्ध नहीं है और इसके हिस्सेदारों में सॉफ्टबैंक, टाइगर ग्लोबल, नैस्पर्स , ईबे और टेनसेंट शामिल हैं। असल में फ्लिपकार्ट में भारतीय हिस्सेदारी केवल सचिन बंसल और बिन्नी बंसल की है, जिनके पास करीब 5-5 फीसदी हिस्सेदारी है।
अब भारतीय कंपनी की परिभाषा को लेकर ऐसी भ्रामक सोच को विराम देने का सही वक्त है। नियमन के लिहाज से जो कंपनी भारत में पंजीकृत है, वह भारतीय कंपनी है। जब यह मुख्य रूप से भारतीय बाजार में ही परिचालन करती है और अपने कर्मचारियों के रूप में भारतीयों की नियुक्ति करती है और भारत से खरीदे गए कच्चे माल और कलपुर्जों का इस्तेमाल करती है तो वह भारतीय कंपनी से भी आगे निकल जाती है। स्वामित्व मायने रखता है, लेकिन एक सीमा तक। क्या कोई व्यक्ति पूरे निश्चय के साथ यह तर्क दे सकता है कि मारुति सुजूकी लिमिटेड एक भारतीय कंपनी नहीं है? निस्संदेह स्वामित्व के लिहाज से यह जापानी कंपनी है। लेकिन यह किन मायनों में महिंद्रा ऐंड महिंद्रा या टाटा मोटर्स से कम भारतीय है? हां, सरकार कुछ रणनीतिक क्षेत्रों में आर्थिक सुरक्षा और भूराजनीतिक दृष्टिकोण से एफडीआई की सीमा रख सकती है। लेकिन अगर ये क्षेत्र आर्थिक सुरक्षा और भूराजनीति के लिहाज से रणनीतिक क्षेत्रों में नहीं आते हैं तो आज की दुनिया में विभिन्न क्षेत्रों के लिए अलग-अलग एफडीआई सीमा तय करना तर्कसंगत नहीं है।
इसलिए किसी व्यक्ति को वॉलमार्ट के फ्लिपकार्ट को अधिग्रहीत करने में स्वामित्व के लिहाज से क्यों चिंतित होना चाहिए? ऑनलाइन खुदरा के लिए उपलब्ध तरजीही एफडीआई रूट इस्तेमाल करने और फ्लिपकार्ट का अधिग्रहण कर भारतीय बाजार में प्रवेश करने के लिए वॉलमार्ट को क्यों दोष दिया जाना चाहिए। इसी तरह एचडीएफसी बैंक, फ्लिपकार्ट या इंडिगो को क्यों भारतीय कंपनी माना जाना चाहिए, जबकि उनकी बहुलांश हिस्सेदारी भारतीयों या भारतीय कंपनियों के पास नहीं है। भारत की आर्थिक नीति की बहस को इस आधार पर एक संकीर्ण लॉबी की बंधक बनाने की मंजूरी नहीं दी जानी चाहिए कि कोई कंपनी भारतीयों के स्वामित्व वाली है या विदेशियों की। बल्कि मानदंड यह होना चाहिए कि क्या ये कंपनियां भारतीय बाजारों में परिचालन करती हैं, भारत के कच्चे माल का इस्तेमाल करती हैं या क्या वे भारत में रोजगार देती हैं। इसी से भारत के आर्थिक हित पूरे होंगे, न कि स्वामित्व के मसलों में उलझे रहने से।
Date:11-05-18
हमारी अहमियत समझ रहा चीन
आरपी सिंह, (लेखक सेवानिवृत्त ब्रिगेडियर हैं)
भारत अब महाशक्ति बनने की राह पर है। वह पहले ही वैश्विक मसलों में अहम भूमिका निभाता आ रहा है। आने वाली पीढ़ी के लिए एक स्वस्थ, समृद्ध और पर्यावरणीय रूप से सतत भविष्य निर्माण की रूपरेखा बनाने में उसकी राय को तवज्जो दी जाती है। साथ ही भारत अब उन औद्योगिक देशों में शामिल हो गया है जो बड़े पैमाने पर संसाधनों का दोहन कर रहा है। भौगोलिक आकार, भू-रणनीतिक स्थिति, तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था, सशक्त होते सैन्य बल के साथ ही भारत के बढ़ते राजनीतिक प्रभाव को अमेरिका सहित दुनिया के अधिकांश देशों ने स्वीकार किया है। आज ताकतवर देशों का प्रत्येक गुट भारत को अपनी ओर आकर्षित करने की फिराक में लगा है, क्योंकि उसके साथ से दुनिया में शक्ति के संतुलन का पलड़ा उस गुट के पक्ष में झुक सकता है।
दूसरी ओर चीन वैश्विक मामलों में भारत को बराबर का साझेदार मानने को लेकर हिचकता है। पिछले कुछ समय से बीजिंग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के धैर्य की परीक्षा के लिए भारत के प्रति ‘कभी गर्म तो कभी नर्म वाली नीति अख्तियार करता आया है। यह बात अब छिपी नहीं रह गई है कि चीन भारत पर शिकंजा कसने के लिए उसके आसपड़ोस में ‘मोतियों की माला के रूप में सामरिक घेरेबंदी करने में जुटा है। इसी तरह वन बेल्ट, वन रोड यानी ओबोर और मेरीटाइम सिल्क रूट भी चीन के बढ़ते भू-राजनीतिक रुतबे का प्रतीक है। बीजिंग दुनियाभर में बंदरगाहों और एयरफील्ड में अपनी पैठ बढ़ा रहा है। साथ ही अपने सैन्य बलों के आधुनिकीकरण के साथ ही अपने व्यापारिक साझेदार देशों के राजनीतिक-सैन्य नेतृत्व को प्रभावित करने में भी जुटा है। इस पर बीजिंग का यही कहना है कि चीनी नौसेना की बढ़ती ताकत शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए ही है जिसका एकमेव मकसद अपने क्षेत्रीय व्यापारिक हितों को रक्षा करना है, लेकिन चीनी गतिविधियों ने एशिया-प्रशांत क्षेत्र में सुरक्षा को लेकर गंभीर सवाल खड़े किए हैं।
इसके साथ ही चीन कूटनयिक एवं मीडिया सूत्रों के माध्यम से चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे यानी सीपीईसी और क्षेत्रीय सहयोग के लिए बांग्लादेश-चीन-भारत-म्यांमार (बीसीआईएम) से जुड़ने के लिए भारत को लुभाने की भी यदा-कदा कोशिशें भी करता है, क्योंकि केवल भारत के पास ही वह क्षमता है जो इस क्षेत्र में चीनी जहाजों के बेड़े को अपने दखल से प्रभावित कर सकता है। साथ ही साथ चीनी सरकारी मीडिया भी गाहे-बगाहे भारत को धमकाता रहता है कि अगर भारत ने दक्षिण एशियाई देशों के साथ चीन के संबंधों में दखल दिया तो बीजिंग इस पर पलटवार जरूर करेगा। उसका आरोप है कि भारत दक्षिण एशिया और हिंद महासागर को अपनी थाती समझता है और भारत-पाकिस्तान संबंधों में तनाव से इस क्षेत्र में चीनी परियोजनाएं प्रभावित नहीं होनी चाहिए। चीन का कहना है कि हिंद महासागर भारत का नहीं है तो भारत भी इस पर यही जवाब देता है कि दक्षिण चीन सागर भी चीन की बपौती नहीं। हालांकि भारत के खिलाफ चक्रव्यूह तैयार करने के लिए बीजिंग बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल में बुनियादी ढांचा परियोजनाओं पर पानी की तरह पैसा बहा रहा है।
भारत ने भी चीन की इस चाल का कुशलता से जवाब दिया है। चीन की 14 देशों के साथ कुल 22,147 किलोमीटर लंबी सीमा है और आठ देश उसके सामुद्रिक पड़ोसी हैं। इनमें पाकिस्तान को छोड़कर अधिकांश देशों के साथ उसके रिश्ते असहज हैं। फिर जापान, ताइवान, फिलीपींस और वियतनाम के साथ जमीन एवं समुद्री सीमा विवाद भी हैं। आसियान देश भी चीनी प्रभुत्व को लेकर खासे खिन्न् हैं। वहीं भारत ने चीन के पड़ोसियों विशेषकर दक्षिण कोरिया, जापान, ताइवान, म्यांमार, लाओस और वियतनाम से रणनीतिक गठजोड़ कर अपनी स्थिति बेहतर की है। चीन की काट निकालने के लिए इस साल गणतंत्र दिवस पर आसियान नेताओं को बुलाना मोदी की दक्षिण-पूर्व एशियाई नीति का अहम हिस्सा था। भारत और वियतनाम की रणनीतिक साझेदारी तेजी से परवान चढ़ी है। इस प्रकार चीन को काबू में रखने की मोदी की रणनीति काफी हद तक कारगर होती दिख रही है।
वहीं अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ भी चतुष्कोणीय साझेदारी की बात निर्णायक पड़ाव पर है। चीन के करीबी पाकिस्तान को अलग-थलग करने की भारतीय रणनीति भी रंग ला रही है। मोदी की विदेश नीति बहुत ही व्यावहारिक है। उन्होंने दुनिया के महत्वपूर्ण नेताओं के साथ आत्मीय रिश्ते बनाए हैं। ओबोर के जवाब में कहीं अधिक लोकहितैषी एशिया-अफ्रीका वृद्धि गलियारा और बीजिंग के बीसीआईएम के जवाब में बिम्सेटक को कूटनीति का मास्टरस्ट्रोक कहा जा सकता है। इसराइल और अरब देशों में सऊदी अरब एवं ईरान के साथ बराबर संतुलन से रिश्ते साधे जा रहे हैं। स्टॉकहोम में सफलतापूर्वक नॉर्डिक सम्मेलन संपन्न् हुआ। रूस और अमेरिका की तनातनी में भी अपने हित सुरक्षित रखे। अपनी इन खूबियों के चलते ही मोदी अधिकांश विश्व नेताओं को लुभाते हैं। उन्होंने डोकलाम सैन्य गतिरोध को भी बखूबी संभाला, मालाबार युद्धाभ्यास भी सही दिशा में आगे बढ़ा, वायुसेना के हालिया युद्धाभ्यास ‘गगन शक्ति में आसमान में हमारी मारक शक्ति का प्रदर्शन हुआ। भारत-तिब्बत सीमा पर सुरक्षाबलों की समुचित तैनाती और उत्तरी सीमा पर सेना और उसके साजोसामान को समुन्न्त बनाने के साथ ही अत्याधुनिक हथियारों की खरीद ने भी चीन को भारत के बढ़ते कद का एहसास कराया है कि उसकी सैन्य शक्ति की और ज्यादा अनदेखी नहीं की जा सकती।
फिर मौजूदा भू-राजनीतिक कारकों की बारी आती है। चीन के साथ ट्रेड वार पर आमादा अमेरिकी राष्ट्रपति को देखते हुए भी चीन को भारत के साथ की अहमियत मालूम पड़ी होगी। यही वे कारण हैं, जिनको ध्यान में रखते हुए जिनपिंग ने मोदी को दो दिन की अनौपचारिक वार्ता के लिए वुहान आमंत्रित किया। वुहान में कोई औपचारिक एजेंडा भले ही नहीं था, लेकिन इसने भविष्य के लिए जरूर कुछ मुद्दे तय कर दिए हैं। दोनों नेता अपनी सेनाओं के बीच बेहतर संवाद पर सहमत हुए हैं, ताकि सीमा पर हालात सहज रहें। सीमा विवाद के मामले में उन्होंने विशेष प्रतिनिधियों पर भरोसा जताया है जो उचित, पारदर्शी और परस्पर स्वीकार्य समझौते को आकार देंगे। इस बीच सरहद पर शांति के महत्व को भी भलीभांति समझा गया है।
चीनी मीडिया इस पर खासा उत्साहित जरूर रहा, लेकिन बड़ी-बड़ी बातों के बावजूद अभी भी कुछ पेंच फंसे हुए हैं। मसलन सीमा विवाद, हिंद महासागर में धींगामुश्ती और जिनपिंग की महत्वाकांक्षी परियोजना ओबोर पर आपत्ति जैसे मसलों पर तनातनी का भाव है। मोदी ने संकेत दिए हैं कि सीपीईसी को लेकर भारत की आपत्ति यही है कि वह कश्मीर के विवादित क्षेत्र से गुजर रहा है। पाकिस्तानी आतंकियों को चीन की शह पर भी नई दिल्ली नाराज है। वहीं अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ भारत की चौकड़ी पर भी चीन अपनी चिंता जाहिर कर चुका है। दलाई लामा और अन्य निर्वासित तिब्बती नेताओं की भारत में मौजूदगी पर भी चीन आशंकित है।
वुहान से भले ही कोई प्रत्यक्ष परिणाम न निकला हो, लेकिन एक बात स्पष्ट है कि यह सम्मेलन विश्व स्तर पर भारत की धमक का मंच बना, जहां चीन ने भी इस पहलू को विनम्रता के साथ स्वीकार किया।
Date:10-05-18
सुधार पर सुस्त रवैया
संपादकीय
यह ठीक नहीं कि कई राज्य राशन प्रणाली में सुधार को लेकर अपेक्षित उत्साह नहीं दिखा रहे हैं। इसका कोई औचित्य नहीं कि भाजपा या उसके सहयोगी दलों के शासन वाले राज्य भी सुस्ती का परिचय दें, लेकिन तथ्य यही है कि राशन की दुकानों को प्वाइंट ऑफ सेल यानी पॉस मशीनों से लैस करने में जो राज्य पीछे हैं, उनमें उत्तर प्रदेश, बिहार और असम की भी गिनती की जा रही है। यह स्थिति तब है जब केंद्र सरकार लगातार इस पर जोर दे रही है कि सभी राज्य पात्र लोगों को ही राशन देना सुनिश्चित करने के लिए राशन की दुकानों में पॉस मशीनें लगाएं। राज्य सरकारें इससे अनभिज्ञ नहीं हो सकतीं कि राशन प्रणाली अभी भी खामियों से मुक्त नहीं हो सकी है। राशन प्रणाली में व्याप्त भ्रष्टाचार का पता इससे चलता है कि जब राशन कार्डों की छानबीन का अभियान चला, तो करीब दो करोड़ राशन कार्ड फर्जी पाए गए। जाहिर है कि दो करोड़ लोगों के हिस्से का राशन अपात्र यानी भ्रष्ट तत्वों के पास जा रहा था।
आखिर जब पॉस मशीनें इस बंदरबांट पर लगाम लगाने में समर्थ हैं, तो फिर इसका क्या मतलब कि राशन दुकानों को इन मशीनों से लैस करने में आनाकानी का परिचय दिया जाए? यह आनाकानी भ्रष्टाचार के साथ-साथ एक तरह से संसाधनों के दुरुपयोग की भी अनदेखी है। इसके अतिरिक्त यह राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के प्रति खोखली प्रतिबद्धता का भी सूचक है। यह गनीमत है कि उत्तर प्रदेश में तो राशन की दुकानों को पॉस मशीनों से लैस करने का काम धीमी गति से ही सही, कुछ आगे बढ़ रहा है, लेकिन बिहार जहां का तहां नजर आ रहा है। कुछ ऐसी ही स्थिति पश्चिम बंगाल सरकार की भी है। हैरत नहीं कि ममता सरकार इस जरूरी काम की अनदेखी केंद्र सरकार के प्रति अपना विरोध जताने के लिए कर रही हो।
जो भी हो, राज्यों के लिए उचित यही है कि वे जन-कल्याण की योजनाओं को सही तरह से लागू करने के प्रयासों को दलगत राजनीति से परे रखें। एक अनुमान के अनुसार फर्जी राशन कार्ड रद्द किए जाने से ही करीब दस हजार करोड़ रुपए की बचत हुई है। यह इसलिए संभव हो सका, क्योंकि पॉस मशीनों को उपभोक्ताओं के आधार नंबर से जोड़ने से पात्र लोगों की पहचान पुख्ता हो जाती है। यह प्रयोग इसी बात को रेखांकित करता है कि जन-कल्याण की योजनाओं को तकनीक के जरिए संचालित करके एक ओर जहां भ्रष्टाचार पर लगाम लगाई जा सकती है, वहीं वास्तविक जरूरतमंदों की सही तरह से मदद की जा सकती है। मुश्किल यह है कि जब भी सरकारी योजनाओं को तकनीक से लैस करने की बात होती है तो संकीर्ण राजनीतिक कारणों से उसका विरोध शुरू हो जाता है। इसी प्रवृत्ति के चलते आधार कार्ड का मामला सुप्रीम कोर्ट के समक्ष है। बेहतर है कि राज्य सरकारें राशन प्रणाली में सुधार लाने के मामले में अपनी प्रतिबद्धता का परिचय दें, क्योंकि इस प्रणाली में काफी कुछ सुधार के बाद भी उसे दुरुस्त करना शेष है और इसी वजह से उसके मूल्यांकन की एक योजना शुरू करनी पड़ रही है।
Date:10-05-18
बढ़ता तापमान ही है असली तूफान
अनिल प्रकाश जोशी (पर्यावरणविद्)
कभी मौसम का इंतजार किया जाता था। किसी भी मौसम का। भीषण सर्दी-गरमी के कष्ट अपनी जगह रहते थे, लेकिन ये मौसम भी जो देते थे, उसे याद रखा जाता था। अब मौसम डराते हैं। किस तरह डराते हैं, यह पिछले एक सप्ताह में हमने देख लिया। देश के 13 राज्यों में आंधी-तूफान के डर ने सड़कों को खाली कर दिया, स्कूलों में छुट्टी की घोषणा कर दी गई और आपदा राहत की एजेंसियों को तैयार रहने के लिए कहा गया। यह डर किसी अफवाह की वजह से नहीं था। इससे पहले दो मई को जब उत्तर भारत में धूल भरी आंधी के साथ तूफान आया, तो 130 से भी ज्यादा लोगों की जान गई थी। दहशत का कारण यह आंकड़ा भी था, लेकिन आशंकाएं निराधार नहीं थीं।
मौसम विभाग भी इसकी लगातार चेतावनी दे रहा था। यह हाल अकेला भारत का नहीं है। मौसमी आपदाओं की अति दुनिया भर को परेशान करने लगी है। अमेरिका में हरीकेन ने टेक्सॉस व लूसियाना में पिछले वर्ष बड़ी तबाही मचाई थी, हजारों लोग बेघरबार हो गए थे। हाल ही में कैलिफोर्निया में बर्फीले तूफान ने बड़ा कहर ढाया। पर्यावरण बदलाव के साथ ही पूरी दुनिया में जो हो रहा है, उसे समझने की जरूरत है। सच यह है कि ये विभिन्न नामों के बवंडर प्रकृति से छेड़छाड़ का ही नतीजा हैं। पश्चिम एशिया और दक्षिण यूरोप में लूसीफर बवंडर उस बड़ी लू की ही देन था, जो इन क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन के कारण चली थी।
हमें एक सरल सी बात समझ लेनी होगी कि तूफान तापक्रमों के अंतरों से पैदा होते और चलते हैं। मैदानों में उच्च तापमान और दूसरे इलाकों में निम्न तापमान का अंतर हवाओं का रुख बदलता है व उच्च तापमान के कारण रिक्तता को भरने के लिए हवाएं चलती हैं। जितना बड़ा यह अंतर होगा, उतना ही तेज तूफान व बवंडर होगा। हाल में ही आया बवंडर पाकिस्तान बॉर्डर के गांव नवाबशाह के उच्च तापमान के कारण बना था। वहां अप्रैल के अंत में तापमान 50 डिग्री सेल्सियस पार कर गया था। इस तरह के तूफान को वैज्ञानिक भाषा में डाउन बस्र्ट भी कहते हैं और यही बवंडर राजस्थान, पंजाब व उत्तर प्रदेश में पहुंचने पर थंडर स्टॉर्म बना। इसी समय गरमी के कारण बंगाल की खाड़ी में उच्च तापक्रम में वाष्पोत्सर्जित हवा ने भी इस बवंडर का साथ दिया। यह पिछले 20 साल में सबसे बड़ा तूफान था।
दुनिया भर में घट रही ऐसी चरम मौसमी आपदाएं बड़े खतरों की ओर संकेत कर रही हैं। और इन सबके पीछे एक ही कारण है, धरती का बढ़ता तापमान। माना जाता है कि अगर तापमान इसी तरह बढ़ता रहा, तो इस सदी के अंत तक तापक्रम में नौ डिग्री फारेनहाइट तक बढ़ोतरी हो जाएगी। डर यह है कि शायद उसके बाद वापसी असंभव होगी। इस बदलाव में एक बड़ा कारण वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड का बढ़ता घनत्व भी है। अब दुनिया के सबसे बड़े देश अमेरिका को ही लीजिए, जहां वर्ष 1981 से 2016 के बीच में तापक्रम 1.8 डिग्री फारेनहाइट बढ़ा है। इस देश में टॉरनेडो से लेकर बर्फीले तूफान व बाढ़ ने पिछले कुछ दशकों से तबाही मचा रखी है। बढ़ता तापक्रम मात्र बवंडरों को जन्म नहीं दे रहा है, बल्कि इससे समुद्री तल में वर्ष 1880 के बाद से लगातार बढ़ोतरी हुई है। लगभग आठ इंच तक यह तल बढ़ चुका है। सब कुछ ऐसा ही रहा, तो वर्ष 2100 तक के अंत तक यह एक से चार फीट तक बढ़ जाएगा, क्योंकि ग्लेशियर पहाड़ों से चलकर समुद्र में पिघलते हुए पहुंच जाएंगे और समुद्रों में उच्च ज्वार-भाटा व समुद्री तूफान की आवृत्ति बढ़ जाएगी।
अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के अनुसार, 1895 से आज तक सबसे ज्यादा गरम वर्ष दुनिया में 2016 ही रहा है। यही वह साल था, जब सभी तरह की त्रासदियों ने दुनिया को घेरा था। बढ़ते तापक्रम व जलवायु परिवर्तन के कारण मौसम में अनायास अंतर भी देखा जा रहा है और कभी अचानक तापमान का गिर जाना या मानसून का एहसास दिला जाना, इसी से जुड़ा है। धरती के बढ़ते तापक्रम का एक और पहलू है और वह है बज्रपात, यानी बिजली का गिरना। एक अध्ययन के अनुसार, अगर यही चलन रहा, तो इस सदी के अंत तक बज्रपात की रफ्तार 50 फीसदी बढ़ जाएगी, क्योंकि हर एक डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने पर बिजली गिरने की रफ्तार 12 फीसदी बढ़ जाती है।
बदलते जलवायु व तापमान को तूफान तक ही सीमित नहीं समझा जाना चाहिए, यह बर्फ पिघलने का भी सबसे बड़ा कारण बन गया है। एक अध्ययन के अनुसार, वर्ष 1960 से 2015 तक उत्तरी अमेरिका, यूरोप और एशिया में जहां एक तरफ तेज रफ्तार से बर्फ पिघली है, तो वहीं दूसरी तरफ ऊंचे इलाकों में बर्फ जमने में लगभग 10 फीसदी की कमी आई है। जलवायु परिवर्तन का एक बड़ा असर इस रूप में भी सामने आया है कि पहाड़ों में बर्फ पड़ने के समय में भी एक बड़ा अंतर आ चुका है। हिमालय में बर्फ गिरने का उचित समय नवंबर-दिसंबर ही होना चाहिए, ताकि उसे जमने के लिए पर्याप्त समय मिल सके। जबकि जनवरी-फरवरी में पड़ी हुई बर्फ तत्काल पिघल जाती है। इस घटना को सरलता से नहीं लिया जा सकता, क्योंकि जहां एक तरफ बर्फ जमने में संकट आ चुका है, वहीं बढ़ते तापक्रम के कारण हिमखंडों के पिघलने की रफ्तार तेजी से बढ़ रही है और यह पूरी दुनिया में हो रहा है।
इन सब घटनाओं के शुरुआती संकेत 18वीं शताब्दी से ही मिलने शुरू हो गए थे, जब दुनिया में औद्योगिक क्रांति का जन्म हुआ। इसके ही बाद हम विकास के एक वीभत्स चक्रव्यूह में फंसते चले गए। आज हालात ये हैं कि कभी बवंडरों से या फिर बाढ़ से या फिर शीतलहर से दुबके पड़े हैं। इससे मुक्त होने का रास्ता अगर कहीं है, तो इन घटनाओं को समझने और इन पर सोचने का है, ताकि इससे निपटने की रणनीति तैयार की जा सके। वरना कभी एक बड़ा तूफान हमारे सामने खड़ा होगा।
Date:10-05-18
खोखले वादे
संपादकीय
ईरान के साथ परमाणु समझौते से अलग होते हुए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा कि वह आने वाले दिनों में कहीं बेहतर करार करने में सफल होंगे, जो ईरान की बैलिस्टिक मिसाइलों और क्षेत्र में उसके प्रभाव को नियंत्रित करेगा। क्या ट्रंप की ये बातें भरोसा जगाती हैं? उनकी ठीक यही भंगिमा तब भी थी, जब उन्होंने पेरिस जलवायु समझौते से अमेरिका को बाहर निकाला था। मगर नतीजा सिफर रहा। अमेरिका में कहीं बेहतर ‘हेल्थकेयर’ लाने का उनका वादा भी खोखला साबित हुआ है। साफ है, अब तक उन्होंने बार-बार खुद को एक ऐसे नेतृत्व के रूप में ही पेश किया है, जो न सिर्फ समझौतों को खत्म करने में निपुण है, बल्कि जिसके पास नीति की गहरी समझ या कूटनीतिक दृष्टि का अभाव है। नए समझौते करने का तो उसमें कतई धीरज नहीं है। जहां तक मध्य-पूर्व में परमाणु हथियारों की जारी प्रतिस्पद्र्धा से खतरे की बात है, तो ऐसा कोई संकेत नहीं दिख रहा कि ट्रंप की ख्याली नई योजना से ईरान सहमत है।
आशंका अब इसी की ज्यादा है कि मंगलवार की घोषणा के बाद वह फिर से एक मजबूत परमाणु कार्यक्रम की ओर बढ़ेगा, करीबी यूरोपीय मित्र राष्ट्रों के साथ हमारे रिश्ते कड़वे होंगे, अमेरिका की विश्वसनीयता को चोट पहुंचेगी, मध्य-पूर्व में व्यापक युद्ध की आशंका गहराएगी और उत्तर कोरिया के साथ परमाणु हथियार कार्यक्रम को लेकर एक प्रभावी समझौता पर पहुंचना मुश्किल होगा। ट्रंप अक्सर ही अपने पूर्ववर्ती बराक ओबामा के फैसले को पलटते दिखे है। फिर चाहे वह 2016 के पेरिस एग्रीमेंट से बाहर निकलना हो या फिर ‘डिफर्ड एक्शन फोर चाइल्डहुड एराइवल्स प्रोग्राम’ को बंद करना। सत्ता में आते ही उन्होंने ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप से पीछे हटने की घोषणा की ही थी। ईरान परमाणु करार से अमेरिका अलग होकर उत्तर कोरिया को भी कोई अच्छा संदेश नहीं दे रहा। ट्रंप बेशक किम जोंग-उन के साथ कूटनीति की मेज पर आए हैं, पर क्या अमेरिका के साथ होने वाले संभावित समझौते के टिकाऊपन पर उत्तर कोरिया को सुबहा नहीं होगा? जाहिर है, ईरान से कहीं अधिक हमारा दांव उत्तर कोरिया पर लगा है।
Date:10-05-18
अमेरिका बनाम ईरान
संपादकीय
अमेरिका द्वारा ईरान के साथ हुए अंतरराष्ट्रीय नाभिकीय समझौते से अलग होने की घोषणा से पूरी दुनिया में हलचल मच गई है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप बराक ओबामा काल में हुए इस समझौते की लगातार आलोचना करते रहे हैं। उनका यह भी आरोप रहा है कि ईरान ने इसका लाभ उठाकर अपनी आर्थिक स्थिति तो ठीक की लेकिन नाभिकीय हथियार बनाना बंद नहीं किया। बावजूद इसके, जिस तरह उनके यूरोपीय मित्र देश समझौते से अलग न होने का अनुरोध कर रहे थे उससे ऐसा लग रहा था कि वो तत्काल ऐसा नहीं करेंगे। जुलाई 2015 में ओबामा प्रशासन के समय अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, चीन, फ्रांस और जर्मनी और यूरोपीय संघ के साथ मिलकर ईरान ने यह समझौता किया था। समझौते के अनुसार ईरान को अपने संवर्धित यूरेनियम के भंडार को कम करना था और अपने नाभिकीय संयंत्रों को निगरानी के लिए खोलना था। समझौते के अनुसार ईरान पर लगे आर्थिक प्रतिबंधों में आंशिक रियायत दी गई थी। जाहिर है, समझौते से अलग होने के बाद ईरान पर फिर से आर्थिक प्रतिबंध लागू हो जाएगा।
हालांकि अमेरिका ने कहा है कि इन प्रतिबंधों को तुरंत नहीं लगाया जाएगा, बल्कि इसके लिए 90 और 180 दिन की प्रतीक्षा की जाएगी। उन्हीं उद्योगों पर प्रतिबंध लगाए जाएंगे, जिनकी र्चचा 2015 समझौते में की गई थी। इनमें ईरान का तेल सेक्टर, विमान निर्यात, कीमती धातु का व्यापार और ईरानी सरकार के अमेरिकी डॉलर खरीदने की कोशिशें शामिल हैं। ट्रंप ने साफ किया कि जो भी ईरान की मदद करेगा, उन्हें भी प्रतिबंध झेलना पड़ेगा। साफ है कि इस फैसले का प्रभाव केवल ईरान पर नहीं, बल्कि पूरी दुनिया पर पड़ेगा। ईरान के राष्ट्रपति ने कहा है कि अमेरिका के इस फैसले के बावजूद उनकी सरकार विश्व शक्तियों के साथ नाभिकीय समझौते के लिए प्रतिबद्ध है। लेकिन यह भी कह दिया है कि वे यूरेनियम संवर्धन को फिर से शुरू करने के लिए भी तैयार हैं। अमेरिका के इस कदम का ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी ने समर्थन नहीं किया है। रूस और चीन द्वारा समर्थन करने का तो प्रश्न ही नहीं है। यानी अमेरिका के इस कदम को विश्व समुदाय का समर्थन मिलना मुश्किल है। हमारा मानना है कि ब्रिटेन, फ्रांस एवं जर्मनी ट्रंप को मनाने की कोशिश करें और ईरान भी यह विास दिलाए कि वह किसी सूरत में नाभिकीय हथियार नहीं बनाएगा।
Date:10-05-18
महाबली की मनमानी
संपादकीय
ईरान को परमाणु बम बनाने से रोकने के लिए अमेरिका ने मित्र देशों के साथ मिल कर ईरान से जो करार किया था, उससे वह पीछे हट गया है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने संयुक्त कार्यवाही के लिए कार्ययोजना यानी जेसीपीओए से अलग होने और ईरान पर फिर से प्रतिबंध थोपने का जो एकतरफा फैसला किया है, उससे वैश्विक समुदाय सकते में है। ट्रंप का यह कदम दुनिया को नए तनाव में झोंकने वाला है। ईरान भी अमेरिका की कार्रवाई से बौखलाया है। इस समझौते पर हस्ताक्षर करने वालों में अमेरिका के अलावा ब्रिटेन, फ्रांस, चीन, रूस और जर्मनी और यूरोपीय संघ शामिल थे। करीब डेढ़ दशक तक ईरान के साथ तनावपूर्ण रिश्तों और वार्ताओं के कई दौर के बाद यह करार हो पाया था। ट्रंप ने ईरान को कट्टरपंथी देश बताते हुए सीरिया में युद्ध भड़काने का आरोप लगाया है। ट्रंप का कहना है कि ईरान समझौते का पालन नहीं कर रहा है। हालांकि ब्रिटेन, फ्रांस, रूस, चीन और जर्मनी ने अमेरिका के इस कदम से असहमति जताई है और ईरान के साथ हुए समझौते को जारी रखने का फैसला किया है। ट्रंप ने ईरान को लेकर जो हठधर्मिता भरा रुख दिखाया है, वह नए खतरे की आहट है। साफ है कि ट्रंप का यह कदम ईरान को घेरने की तैयारी है।
अमेरिका और ईरान के बीच जिनेवा में 2015 में हुए इस समझौते का मकसद ईरान का परमाणु कार्यक्रम सीमित करना था। यानी शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए तो ईरान के परमाणु रिएक्टर चलें, लेकिन परमाणु बम नहीं बनाया जाए। यह समझौता ईरान को घेरने का बड़े देशों का अभियान था। अमेरिका और ईरान के रिश्ते दशकों तक तनावपूर्ण रहे और इस दौरान दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंध भी नहीं रहे। समझौता न करने की वजह से ईरान को वर्षों कड़े आर्थिक प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा। इस समझौते के तहत ईरान को अपने उच्च संवर्धित यूरेनियम भंडार का अट्ठानबे फीसद हिस्सा नष्ट करने और मौजूदा परमाणु सेंट्रीफ्यूज में से दो तिहाई को भी हटाने की बात थी। समझौते में कहा गया था कि संयुक्तराष्ट्र के निरीक्षक ईरान के सैन्य प्रतिष्ठानों की निगरानी करेंगे। इसके अलावा ईरान के हथियार खरीदने पर पांच साल और मिसाइल बनाने पर प्रतिबंध आठ साल तक रहना था। समझौते पर हस्ताक्षर के बदले ईरान को तेल और गैस के कारोबार, वित्तीय लेन-देन, उड्डयन और जहाजरानी के क्षेत्र में लागू प्रतिबंधों में ढील देने की बात कही गई थी।
लेकिन ट्रंप के फैसले से सारा गणित पलट गया है। ईरान के साथ समझौते को लेकर सुरक्षा परिषद के सदस्य देशों में जैसी गुटबाजी हो गई है, वह वैश्विक राजनीति के लिए अच्छा संकेत नहीं है। इससे नए समीकरण बनेंगे। चीन और रूस तो शुरू से ही ईरान के साथ हैं। पर ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और यूरोपीय संघ ने समझौता जारी रख कर अमेरिका को यह संदेश दिया है कि हर मुद्दे पर उसकी हां में हां मिलाना संभव नहीं है। इसे ईरान को इन देशों का मजबूत समर्थन ही माना जाना चाहिए। ईरान ने भी इन देशों के साथ समझौता बनाए रखने की बात कही है। अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजंसी ने भी कहा है कि ईरान में 2009 के बाद से परमाणु हथियार विकसित करने की गतिविधियों के कोई संकेत नहीं मिले हैं और ईरान समझौते के हिसाब से काम कर रहा है। ऐसे में समझौते से अमेरिका का हटना वाजिब नहीं कहा जा सकता।
Date:10-05-18
Deal breaker
The U.S. retreat from the Iran nuclear deal has undermined the rules-based global order
Editorial
President Donald Trump’s decision to unilaterally pull the U.S. out of the Iran nuclear deal is a huge setback to multilateral diplomacy and the rules-based international order. The agreement, signed in 2015 by Iran with the five permanent members of the UN Security Council, Germany and the EU, curtailed its nuclear programme in return for withdrawing economic sanctions. It was reached after 18 months of painful negotiations. Under the deal, most of Iran’s enriched uranium was shipped out of the country, a heavy water facility was rendered inoperable and the operational nuclear facilities were brought under international inspection. In Iran, the moderate government of President Hassan Rouhani went ahead with the deal despite strong opposition from hardliners.
Mr. Trump has just wrecked all these efforts, despite numerous reports, including from American intelligence agencies, that Iran is 100% compliant with the terms of the agreement. When the Joint Comprehensive Plan of Action, as the deal is formally called, was signed, many had raised doubts about whether Iran could be trusted to comply with the terms. Three years later, unfortunately, it’s the U.S., which had initiated talks with Iran under the previous administration, that has acted in bad faith.
Mr. Trump’s decision is not about nuclear weapons. If his administration was actually concerned about Iran acquiring them, it would have supported a deal that closes the path towards nuclear weapons for Iran. Instead, the bigger concern for Mr. Trump as well as Washington’s closest allies in West Asia — Israel and Saudi Arabia — is Iran’s re-accommodation in the global economic mainstream. They fear that if Iran’s economic profile rises, it will embolden it to increase its regional presence, posing a strategic threat to the interests of the U.S.-Saudi-Israel axis. This crisis of trust could have been avoided had the Trump administration built on the goodwill created during the Obama years.
Mr. Trump has always been a critic of the Iran deal, and the Islamic Republic in general. Now, by pulling out of the deal he has manufactured a crisis in an already tumultuous region. The U.S. action doesn’t necessarily trigger an immediate collapse of the agreement. For now, Europe, Russia and China remain committed to it. Iran has responded cautiously, with the Foreign Minister saying he will engage diplomatically with the remaining signatories. But the challenges will emerge, not only for Europe but also for other nations with strong trade ties with Iran, including India, once American sanctions are in place. The U.S. stands isolated in its decision. But the question is whether Europe and other powers will stick together to respect the mandate of an international agreement, or buckle under American pressure. If they do cave in, West Asia will be a lot more dangerous.
Date:10-05-18
DETENTE, EXPLODED
Trump’s decision to withdraw from Iran deal diminishes US stature, can unsettle region. Delhi can play a mitigating role
Editorial
President Donald Trump’s decision to withdraw the US from the Joint Comprehensive Plan of Action (JCPOA) with Iran is likely to set off a period of uncertainty in West Asian geopolitics, and a churn in the global order. The withdrawal, first and foremost, has severely limited Washington’s options with regard to Tehran. In essence, if Iran too withdraws from the pact it signed during the tenure of the Barack Obama administration, it may well return to its uranium enrichment programme, a precursor to acquiring nuclear weapons. As Obama put it, without the JCPOA, the US must either live with a nuclear Iran or go to war to prevent it. Trump’s move also betrays a lack of understanding of the new, emerging world order. Rather than isolate Iran diplomatically, Trump’s decision may end up diminishing the US’s stature as a global leader.
Unlike in the Cold War era or at certain points in its aftermath, the West is not currently united behind America. The UK, France, Germany and Canada have said they will continue to support and be part of the JCPOA. In addition, emerging and resurgent powers — China and Russia — have condemned the US’s withdrawal and the decision to impose sanctions on Iran. Trump’s aggressive posture has received vociferous support from Israel and Saudi Arabia — two countries competing with Iran in West Asia, both militarily and ideologically. Iran President Hassan Rouhani has said he will canvass support for the deal before returning to the country’s nuclear programme. As a moderate in Iran’s political landscape, Rouhani risked considerable political capital in pushing the deal through. It is clear that western powers other than the US are keen to encourage that strand in West Asia, which will certainly be under siege in Iran if sanctions are reimposed — the deteriorating economic condition was one of the reasons for countrywide protests in January.
New Delhi, for its part, enjoys cordial relations with all the actors involved: The Chabahar port is a joint venture between India, Afghanistan and Iran; India is a major defence procurer from Israel and enjoys deep ties with Saudi Arabia. New Delhi must, of course, balance its relations with the US, Saudi Arabia and Israel on the one hand and Iran on the other, keeping its own strategic interests in mind. But as an emerging global power in its own right, India can also use its influence and strategic weight with the actors in West Asia to help move towards a détente in the region.