11-02-2019 (Important News Clippings)

Afeias
11 Feb 2019
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Date:11-02-19

Reimagine Education for India’s future

Elitist focus on pools of excellence will not do

ET Editorials

Education figures on Lists I, II and III of the Constitution of India, namely the list of subjects of the Centre, the states and of both. Over the years, education has spread in the country: almost all children of school-going age are in school, more of them complete schooling and a quarter of those who complete secondary school go on to college. However, this happy story in quantitative expansion turns into a dreary tale of unemployability, stifled creativity and rote learning, when it comes to quality in education. For India to be competitive in the globalised economy that is taking shape right now, it is vital to tackle the quality deficit in education. And it has to begin at the school level, given India’s commitment to democracy.

In a context of unbridled elitism, it would be fine to restrict quality to a few select institutions that cater to the elite while hoi polloi make do with a smattering of learning to be picked up from rudimentary schools where teachers who barely know better than their students pass on their ignorance in ways that eviscerate the term, pedagogy. Unfortunately, such a description fits the kind of education India has at present. For this to change, India has to spend better, rather than more, invest in building pre-school human capacity, essentially nutrition and mental stimulation of the children of materially and culturally deprived parents, and step up teacher training. Increasing allocations to higher education without improving quality at the school level only serves to save the elite the financial burden of sending their children to foreign universities.

State spending on higher education must increasingly take the form of research support, freeships and scholarships and underwriting of liberal student loans. Colleges must mobilise the bulk of their budget — as fees, gifts and bequests from alum and sponsorship of research by companies. It is not just science, technology, engineering and maths that matter. Only creative people can thrive in and build the new economy. The humanities and social sciences matter as much.


Date:11-02-19

खत्म करें ऐंजल टैक्स

संपादकीय

खबर है कि सरकार स्टार्टअप के लिए आयकर छूट पाने की निवेश सीमा में बढ़ोतरी और ज्यादा स्पष्ट परिभाषा की योजना बना रही है। उद्योग एवं आंतरिक व्यापार संवर्धन विभाग (डीपीआईआईटी) ने ‘ऐंजल टैक्स’ की गुत्थी सुलझाने के लिए कार्यबल गठित करने का फैसला किया है। ये स्वागत योग्य कदम हैं क्योंकि ये इस बात का संकेत हैं कि नीति निर्माता आयकर अधिनियम की धारा 56(2) से पैदा होने वाली दिक्कतों को लेकर सजग हैं। हालांकि केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (सीबीडीटी) ने इस धारा के तहत कर मांगों को लेकर कार्रवाई सुस्त करने का फैसला किया है लेकिन 2,000 से अधिक स्टार्टअप को पहले ही आयकर नोटिस मिल चुके हैं।

पिछले सप्ताह दो स्टार्टअप ने शिकायत की कि कर विभाग ने उनकी कंपनी के खाते फ्रीज कर दिए हैं और ऐंजल टैक्स की मांग का पैसा खाते से निकाल लिया है। हालांकि सीबीडीटी ने बाद में इससे इनकार किया लेकिन स्टार्टअप में डर बना हुआ है। हालांकि इस समस्या का स्थायी समाधान इस विवादास्पद धारा को खत्म करना है। उद्योग से जुड़े लोगों, कर विशेषज्ञों और खुद डीपीआईआईटी ने इस धारा को रद्द करने की सिफारिश की है।

सरकार की यह योजना कागजों में तो अच्छी नजर आ रही है कि वह स्टार्टअप की एक परिभाषा लेकर आएगी, लेकिन यह काम मुश्किल साबित हो सकता है। इस धारा में समस्या कुछ शेयरधारकों के स्वामित्व वाली उन गैर-सूचीबद्ध कंपनियों पर कर की अवधारणा से होती है, जो ‘उचित कीमत’ से ऊपर शेयर जारी करती हैं। शेयर की कीमत और ‘मूल्यांकन’ के बीच अंतर पर आय के रूप में कर लगाया जाता है। माना जाता है कि इस प्रावधान से धन शोधन रुकेगा और शेल कंपनियों में गलत तरीके से लगाए जा रहे पैसे की पहचान हो सकेगी। दुर्भाग्य से स्टार्टअप के मूल्यांकन का कोई पुख्ता और स्टीक नियम नहीं है। सेवा आधारित अर्थव्यवस्था में मूल्यांकन और भी मुश्किल है, जहां नए कारोबारों में पूंजीगत संपत्तियां कम होती हैं।

ऐंजल निवेशक स्टार्टअप में निवेश करते समय भविष्य की वृद्धि का अनुमान लगाने के लिए कला और विज्ञान दोनों का इस्तेमाल करते हैं। उद्यमी और निवेशक ज्यादा जोखिम और ज्यादा प्रतिफल के इस समीकरण को स्वीकार करते हैं। बार-बार कर नोटिसों के कारण पहले से ही अधिक जोखिम वाले क्षेत्र पर अनावश्यक दबाव और बढ़ जाता है। यह धारा इसलिए भी पक्षपाती है क्योंकि विदेश से पूंजी जुटाने वाली स्टार्टअप इस जांच के दायरे में नहीं आती हैं। इस धारा के खाके और मूल्यांकन का आकलन करने वाले अधिकारियों की विवेकाधीन शक्तियों को देखते हुए भारत में धन जुटाने वाली स्टार्टअप को कर नोटिस मिलने की ज्यादा संभावना होती है। अनुमान है कि भारतीय निवेशकों की मौजूदगी वाली 70 फीसदी से अधिक स्टार्टअप को आईटी नोटिस मिल चुके हैं। छूट की प्रक्रिया काफी जटिल है। इसमें आवेदन और बहुत से दस्तावेज डीपीआईआईटी को जमा कराने होते हैं, जिसे सीबीडीटी को छूट की सिफारिश करने का विवेकाधिकार है। इस धारा में संशोधन कर इससे स्टार्टअप को बाहर निकालना बहुत मुश्किल काम है।

कागजों में नई पंजीकृत शेल कंपनी और असल स्टार्टअप में तब तक अंतर नहीं किया जा सकता, जब तक कि स्टार्टअप राजस्व सृजित करना शुरू नहीं कर देती है। देश में धन शोधन की पहचान के लिए आजमाए हुए तरीके मौजूद हैं। सरकार का दावा है कि वह पिछले चार वर्षों में लाखों शेल कंपनियों का पंजीकरण रद्द कर चुकी है। धन शोधन और कर वंचना ऐसी नुकसानदेह गतिविधियां हैं, जिन्हें खत्म किया जाना चाहिए। लेकिन कारोबारी गतिविधियों में तेजी और रोजगार सृजन के लिए स्टार्टअप तंत्र बहुत जरूरी है। अगर कर प्रताडऩा के इस रूप से स्टार्टअप को बाहर नहीं किया जा सकता तो ऐंजल टैक्स की धारा को खत्म किया जाना चाहिए।


Date:11-02-19

वोट के लिए घूस

पी. चिदंबरम

अगर सरकार आत्मविश्वास में रहती, तो अंतरिम बजट कोई बड़ा मौका नहीं था और उसे यों ही निकल जाने देती। लेकिन आत्मविश्वास एक खूबी है, जो भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार में नहीं दिखती। जरा भाजपा सांसदों के लटके हुए चेहरों पर ही नजर डाल लें, खासतौर से राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश के भाजपा सासंदों पर, तो आप मुझसे सहमत होंगे। इसलिए प्रधानमंत्री मोदी ने फैसला किया कि अंतरिम बजट पेश करने के अवसर को एक खास आयोजन में बदल दिया जाए। कार्यवाहक वित्तमंत्री (उस खिलाड़ी की तरह जिसे पहली बार खेलने का मौका मिला) ने इस मौके को एक शानदार आयोजन बनाने की पूरी कोशिश की। इसके पीछे विचार यह था कि सरकार के इस आखिरी काम में जोश भर दिया जाए। दुर्भाग्य से इसका नतीजा उससे बहुत अलग देखने को मिल सकता है जो कि प्रधानमंत्री और अंतरिम वित्तमंत्री ने चाहा है।

अशोभनीय

वादों की हकीकत सामने आनी शुरू हो गई है। सबसे पहले हम उस बड़े वादे पर गौर करते हैं जिसमें पीएम-किसान योजना के तहत दो हैक्टेयर या इससे कम जमीन वाले हर किसान को साल भर में छह हजार रुपए तीन किस्तों में देने का वादा किया गया है। सरकार ने इस योजना को एक दिसंबर, 2018 से प्रभावी करते हुए चुनाव आयोग की आंखों में धूल झोंकने की कोशिश की! ऐसा कैसे संभव हो सकता है? क्या सरकार किसान के बैंक खाते में पहली किस्त के दो हजार रुपए एक दिसंबर, 2018 से डालेगी और बैंकों को उस तारीख से ब्याज देने का निर्देश देगी? अगर यह रकम चुनाव आचार संहिता लागू होने के पहले जारी कर दी जाती है, तो ऐसे में चुनाव आयोग इस बारे में अपने को असहाय बता कर बच सकता है, और चुनाव आयोग अगर दूसरी किस्त नहीं रोकता है तो लोग यह नतीजा निकालेंगे कि एक और महत्त्वपूर्ण संस्था को दबा दिया गया या उस पर भी कब्जा कर लिया गया।

घूस

अब पीएम-किसान योजना की खूबियों को देखें। हर सीमांत और छोटे किसान, जो दो हेक्टेयर या इससे कम की जमीन का मालिक है, को इस योजना में शामिल किया गया है। यह देश की कुल कृषि का 86.2 फीसद बैठता है। जो इसमें शामिल है वह तो महत्त्वपूर्ण है ही, जिसे इसमें शामिल नहीं किया गया वह भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। मालिक किसान, चाहे वह खेती कर रहा हो या नहीं कर रहा हो, या फिर बंटाई पर जमीन दे दी हो, इस योजना में शामिल है और उसे पैसा मिलेगा। बंटाई पर खेती करने वाला इसमें शामिल नहीं है, खेतिहर मजदूर को भी इस योजना में शामिल नहीं किया गया है, गैर-कृषि ग्रामीण गरीबों जैसे छोटे दुकानदारों, हॉकर, बढ़ई, सुनार, हज्जाम आदि भी इसमें शामिल नहीं है। शहरी गरीब तो इस योजना से पूरी तरह बाहर रखे गए हैं।

मालिक किसान के परिवार को सत्रह रुपए रोज मिलेंगे। मैं योजना का कोई मखौल नहीं उड़ा रहा हूं, यह तो सरकार है जो डीजल, बिजली, खाद, बीज आदि के दाम बढ़ा कर, खेती के उपकरणों जैसे ट्रैक्टर और फसल कटाई की मशीनों पर जीएसटी लगा कर और किसानों को उनकी फसल का उचित दाम न देकर उनके जले पर नमक छिड़क रही है। क्या सत्रह रुपए रोजाना से किसी किसान-परिवार के कष्ट या गरीबी कम हो पाएगी? जाहिर है, नहीं। कई राज्यों में पांच सौ रुपए महीने (या छह हजार सालाना) की यह रकम वृद्धों या दिव्यांगों या विधवाओं को मिलने वाली पेंशन से भी कम होगी। यदि सत्रह रुपए या पहली किस्त के रूप में दो हजार रुपए गरीबी कम करने का पर्याप्त कदम नहीं है तो फिर यह है क्या? सीधी-सादी भाषा में यह वोटों के लिए दी जा रही नगदी है। सरकार चुनाव में वोट हासिल करने के लिए मतदाताओं को पैसा देगी, जैसा कि अवैध रूप से हासिल धन के उपयोग से कुछ राजनीतिक दल इस कला को आजमाते आए हैं। पीएम-किसान योजना के तहत मतदाताओं को घूस देने के लिए पहली बार सरकारी पैसे का इस्तेमाल किया जाएगा।

क्या राज्य सरकारों ने भूमि के मालिकाना हक संबंधी रेकार्डों को अद्यतन कर उनका मिलान कर लिया है? एक तरफ तो चार फरवरी को सरकार ने राज्यों को जमीनों के मालिकाना हक संबंधी रेकार्ड अद्यतन करने के बारे में लिखा, और उसी दिन दूसरी ओर सचिव ने यह घोषणा की कि पहली किस्त तत्काल जारी की जाएगी और सरकार दूसरी किस्त भी चुनाव के पहले जारी कर सकती है। लगता है सचिव सरकार के राजदार हैं!

शेखी

दूसरा बड़ा वादा पेंशन योजना का है, यानी पहली अटल पेंशन योजना के विफल होने के बाद दूसरी पेंशन योजना। पुरानी अंशदायी योजना मई, 2015 में शुरू की गई थी और दिसंबर, 2018 तक इसमें सिर्फ एक करोड़ तैंतीस लाख लोग ही पंजीकृत हो पाए। कुछ लोग थे जो इसके अंशदान के जटिल गणित को समझ गए थे, जिसमें निश्चित लाभ के साथ उपभोक्ता के अंशदान का पैसा मिलने की बात थी। नई योजना दिखने में तो आसान है, लेकिन इसमें हर महीने पचपन से सौ रुपए का अंशदान एक लंबे समय तक करना है जो इकतीस से बयालीस साल का होगा और जिसमें साठ साल की उम्र से तीन हजार रुपए मिलने शुरू होंगे। ऐसे में व्यावहारिक रूप से इसका कोई आर्थिक मतलब नहीं रह जाता। इसमें पंजीकरण कराने की अधिकतम आयु सीमा यदि पचास साल है (जैसा कि उनके भाषण से अनुमान लगा सकते हैं), तो कार्यवाहक वित्तमंत्री भी समझते हैं कि दस साल के लिए कोई इसमें पैसा नहीं देगा। मुझे लगता है कि दस करोड़ श्रमिकों और कामगारों के इसमें पंजीकरण कराने का जो प्रस्ताव है, उसकी कोई उम्मीद नहीं है, कार्यवाहक वित्तमंत्री ने इसके लिए पांच सौ करोड़ रुपए रखे हैं! (बजट भाषण के अनुच्छेद 37 से अलग बजट दस्तावेजों में इस आबंटन का उल्लेख कहां है?)

इसके अलावा और भी हवाई बाते हैं, जो खुले में शौच मुक्त जिले और गांव, हर घर को बिजली, मुफ्त एलपीजी कनेक्शन, रोजगार पैदा करने वाला मुद्रा लोन से जुड़ी हैं। बावजूद इसके तथ्य यह है कि इनमें से हर दावे को लेकर सरकार का पर्दाफाश हो चुका है। शिक्षाविदों, गैर-सरकारी संगठनों और पत्रकारों ने मौकों पर जाकर जो रिपोर्टें तैयार की हैं, उनसे झूठ सामने आ गया है। कुल मिला कर अंतरिम बजट से यह उजागर होता है कि लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा की रणनीति मतदाताओं को घूस देने और शेखी बघारने वाली है।