10-11-2017 (Important News Clippings)

Afeias
10 Nov 2017
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Date:10-11-17

Be fair to Padmavati

Only CBFC has the authority to certify films – not political parties or courts or NGOs

TOI Editorials

With distributors from different states beginning to vacillate on releasing Sanjay Leela Bhansali’s Padmavati unless matters are ‘sorted out’ with its opponents, the filmmaker has released a video pleading that his film is actually a tribute to Rani Padmavati’s courage and honour. He has also tried to squelch rumours of a dream sequence involving Padmavati and Allauddin Khilji. With his film due for release on December 1, any filmmaker would have a lot on his plate, like the final editing, music release, CBFC certification and the actors’ publicity tours. But in a telling example of why India is a very difficult place to do business, including the business of art, Bhansali is having to climb mountains just to try to get his film a lawful release.

What is needed is for all governments and political parties to stop playing power football with films, kicking them around to appease this or that vote bank. Because if the tyranny of hurt sentiments continues to grow, cinema will diminish. In Kashmir it has shut down the cinema halls. In the heart of Mumbai it may have set filmmakers self-policing their dream sequences, killing them before they are born. India’s soft power would be grievously wonded.One group has moved the Supreme Court demanding a pre-screening where eminent historians will judge whether Bhansali’s film has deviated from historic facts. But taking liberties with history is cinema’s prerogative. All movies need not be documentaries. Celebrated filmmakers like Akira Kurosawa and Oliver Stone would further insist on many versions of history itself. Not to mention that some eminent historians insist Padmavati was a character invented by a Sufi poet around 1550, with no connection to history at all! Courts should really leave the matter of certifying films to CBFC and the matter of approving them to audiences.


Date:10-11-17

कृत्रिम बुद्धिमत्ता को लेकर बनानी होगी ठोस योजना

श्यामल मजूमदार

इन दिनों कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) का जिक्र भर कर दिया जाए तो एकदम अलग-अलग प्रतिक्रियाएं सामने आती हैं। कुछ लोग कहते हैं कि इससे रोजगार कम नहीं होंगे बल्कि बढ़ेंगे। वहीं अन्य लोगों का कहना है कि भारत जैसे देशों में अगर रोजगार मशीनों के हाथ में चले गए तो पहले से व्याप्त सामाजिक संकट और गहरा हो जाएगा।  पहले खेमे के लोग अपने पक्ष में ई-कॉमर्स का उदाहरण देते हैं जिसने कई खुदरा रोजगार समाप्त अवश्य किए हैं लेकिन कूरियर के क्षेत्र में बहुत सारे रोजगार पैदा भी किए हैं। इसकी वजह से लोगों में कौशल विकास भी हुआ है। उदाहरण के लिए शेयर टैक्सी सेवाओं के वाहन चालकों को ही देखें। उन्होंने अपने दम पर जीपीएस का इस्तेमाल करना और जगहों को तलाश करना सीख लिया है। यह उनके कौशल का विकास ही तो है। मैकिंजी ग्लोबल इंस्टीट्यूट के शोध के मुताबिक तकनीक के इस्तेमाल से लाखों कामगार लाजिमी तौर पर नए कौशल सीखेंगे। इसके बावजूद उन्हीं समान प्रौद्योगिकी में तेजी से सुधार होने से भी लाखों कामगारों के लिए नए अवसर तैयार होंगे। इसमें कई कम कुशल कर्मचारी भी शामिल हैं।

इस खेमे के कई लोगों का यह भी मानना है कि जब तक मशीनें सोचने-विचारने में अक्षम हैं तब तक मानवीय श्रम का कोई विकल्प हो ही नहीं सकता। हालांकि मशीनों के सोचने विचारने संबंधी प्रश्न भी उतना ही प्रासंगिक है जितना कि यह कि क्या पनडुब्बियां स्वत: तैर सकती हैं। उदाहरण के लिए ब्रिटेन की एक कृत्रिम बुद्धिमत्ता कंपनी ने हाल ही में अपने कंप्यूटर प्रोग्राम अल्फा गो की एक खबर दी जिसने गो नामक खेल में विश्व विजेता को परास्त किया। वर्ष 2011 में आईबीएम द्वारा निर्मित और कृत्रिम बुद्धिमत्ता और संज्ञानात्मक कंप्यूटिंग पर आधारित एक प्रोग्राम वॉटसन ने एक क्विज शो में इंसानों को परास्त किया था। यह प्रोग्राम इंसानों की तरह सोच सकता है और सवालों के जवाब दे सकता है।वहीं दूसरी ओर जिन लोगों को लगता है कि इसकी वजह से सामाजिक संकट आ सकता है उनका विचार एकदम अलग है। ऐसे लोगों में से एक है अमेरिकी कंप्यूटर विज्ञानी जेरी कपलान। उन्होंने अपनी विचारोत्तेजक पुस्तक ह्यïूमन्स नीड नॉट एप्लाई में भविष्य की एक ऐसी तस्वीर पेश की है जहां मशीनों के अतिक्रमण के बाद की दशा का वर्णन है। बैंक ऑफ अमेरिका मेरिल लिंच के एक शोध में कहा गया है कि कई देश ऐसे मोड़ पर पहुंच रहे हैं जहां रोबोट का इस्तेमाल करना किसी मानव श्रमिक की तुलना में 15 फीसदी तक सस्ता होगा। रिपोर्ट में कहा गया है कि सन 2025 तक दुनिया का 45 फीसदी विनिर्माण रोबोट के हाथ में होगा। फिलहाल यह स्तर 10 फीसदी है।आईबीएम का उदाहरण लेते हैं जो एक टेक्स्ट टू स्पीच इंजन मुहैया करा रहा है। यह एकदम सही ढंग से प्रतिक्रिया देता है। जब फोन करने वाले नाराज होते हैं तो यह भी बहुत उत्साहित होकर जवाब नहीं देता। जरा सोचिए यह किसी कॉल सेंटर के कर्मचारियों पर कैसा असर डालेगा।  इतना ही नहीं। शिक्षण क्षेत्र के भविष्य की तस्वीर भी काफी अलग हो सकती है। कापलन कहते हैं कि प्रौद्योगिकी बहुत बड़े पैमाने पर शिक्षकों की स्थानापन्न बन सकती है। इसके लिए फिलहाल यह व्यवस्था है कि छात्र घर पर ऑनलाइन शिक्षकों के व्याख्यान सुनते हैं और सीखते हैं। इसके बाद वे स्कूल में शिक्षकों और शिक्षण सहायकों की मदद से गृह कार्य पूरा करते हैं। भविष्य में शायद व्याख्यान के लिए शिक्षकों की आवश्यकता ही न हो। बस वे एक सीमित भूमिका में रह जाएंगे। जाहिर सी बात है प्रौद्योगिकी के साथ नई चुनौतियां आएंगी और शिक्षकों की समस्या और बढ़ेगी।इस पूरी बहस के बीच भारत कम से कम एक ऐसी नीति तो ला ही सकता है जो एआई नवाचार को सही ढंग से आगे बढ़ाए। यहां दो बातें हैं: पहला, शिक्षा व्यवस्था और दूसरा कौशल और रोजगार। श्रम बाजार पर कृत्रिम बुद्धिमत्ता के असर की बात करते हुए कपलान एक कठिन प्रश्न खड़ा करते हैं: क्या मौजूदा शिक्षण व्यवस्था पुरानी पड़ चुकी है क्योंकि रोजगार की प्रकृति तेजी से बदल रही है और कौशल बहुत अहम हो चुका है?सरकार को बहुत तेजी से क्षेत्रीय नवाचार पर गौर करना होगा ताकि विनिर्माण क्षेत्र में स्वचालन पर काम हो सके और विश्वविद्यालयों और स्टार्टअप के साथ रोबोटिक्स के क्षेत्र में साझेदारी की जा सके। ऐसी व्यवस्था लागू करनी होगी जिसकी मदद से ऐसा कौशल पाया जा सके जो भविष्य के लिहाज से बेहतर होगा।  चीन पहले ही इस दिशा में काफी बड़ी छलांग लगा चुका है। उसने एक निजी फर्म बनाई है जो ऑनलाइन इंजीनियरिंग प्रयोगशाला के निर्माण का काम करेगी ताकि विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों के साथ मिलकर गहन अध्ययन प्रौद्योगिकी की दिशा में आगे बढ़ा जा सके। चीन ने हाल ही में कृत्रिम बुद्धिमत्ता को लेकर दिशा निर्देश जारी किए हैं। इसका लक्ष्य है सन 2030 तक इस क्षेत्र में विश्व का नेतृत्व करना। अनुमान जताया गया है कि उस वक्त तक एआई उद्योगों का उत्पादन मूल्य 148 अरब डॉलर का होगा। इससे पहले कि बहुत देर हो जाए, हमें जाग जाना चाहिए।

Date:10-11-17

 म्यांमार के साथ रिश्तों को दोबारा आंकने का वक्त

नितिन पई 

आम धारणा के उलट भारत म्यांमार के साथ सख्त रुख अपना  सकता है। उसे ऐसा करना भी चाहिए। ऐसा क्यों, यह विस्तार से बता रहे हैं नितिन पई

एक हद तक ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की राजनीतिक अर्थव्यवस्था और दूसरा जातीय बमर (स्थानीय निवासी) राष्टï्रवाद के कारण म्यांमार (पहले बर्मा) में हमेशा भारत देश और भारतीय नागरिकों के प्रति एक किस्म का बैर भाव है। इस पुरानी भावना की जड़ें 19वीं सदी के आखिर में निहित हैं। यह वह दौर था जब भारतीय साहूकारों, मध्यम वर्ग के पेशेवरों और श्रमिकों ने ब्रिटिश उपनिवेश बर्मा का रुख किया। यह शत्रु भाव सन 1947-48 में भी बरकरार था जब ब्रिटिश वहां से बाहर निकले और उत्तर औपनिवेशिक नागरिकता संबंधी नियमों में भी इनको महसूस किया जा सकता है।इसके पश्चात सन 1962 में जनरल ने विन सत्ता में आए और उन्होंने लाखों भारतीयों को वहां से वापस भेज दिया। इन सबको 175 क्यात का मामूली हर्जाना दिया गया। यहां तक कि औरतों को अपने मंगलसूत्र तक नहीं ले जाने दिए गए। इससे पहले सन 1930, 1942 और अंग्रेजों के जाने के बाद 1948 में भी ऐसा हो चुका था। रोहिंग्या मुसलमानों को बाहर निकालने का मौजूदा सिलसिला इसी कड़ी का अगला हिस्सा है। फिलहाल भारतीयों को (चाहे उनका धर्म कुछ भी हो) को अवमाननापूर्वक काला (दूसरे ग्रह का वासी) कहकर पुकारा जाता है। तमिल समुदाय जो म्यांमार में बना रहा उसे मजबूरी में बर्मी नाम, भाषा और रस्मो रिवाज अपनाने पड़े हैं। सन 1948 में बर्मा की 16 फीसदी आबादी भारतीय थी। आज यह महज 2 फीसदी बची है। कई मायनों में देखा जाए तो म्यांमार, भारत, मलेशिया या इंडोनेशिया के बजाय पाकिस्तान की तरह है। वहां भी हिंदुओं की आबादी समान अवधि में 15 फीसदी से घटकर 2 फीसदी रह गई है।इससे भी बुरी बात यह है कि हालांकि म्यांमार में अब नया संविधान और अद्र्घ लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था है लेकिन वहां मूल भावना अभी भी बमर बहुसंख्यकवाद की है जो आधा दर्ज महत्त्वपूर्ण जातीय अल्पसंख्यक समुदायों को समायोजित करने को तैयार नहीं है। म्यांमार और वहां का समाज जिस तरह रोहिंग्या समुदाय के अस्तित्व तक से इनकार कर रहा है वह इसका उदाहरण है। हालांकि इसका यह अर्थ नहीं है कि सभी बमर या म्यांमार के लोग भारतीयों के खिलाफ एक समान और इस कदर पूर्वग्रह रखते होंगे। परंतु, बहुसंख्यक राजनीतिक संस्कृति में भारत विरोध मजबूत स्थान रखता है और सरकार के कदमों में भी नजर आता है।
लोग चाहें तो इसे किसी दूसरे देश का घरेलू मामला कहकर रफादफा भी कर सकते हैं लेकिन अंतरराष्टï्रीय संबंधों में यह बात बहुत मायने नहीं रखती। बहरहाल, कम से कम ने विन के कार्यकाल में म्यांमार सरकारों ने भारत के साथ अनुरूपता का कोई संकेत नहीं दिया। हां, सन 1990 के दशक के आखिर से म्यांमार की सेना ने भारतीय सुरक्षा बलों के साथ उपद्रवियों के खिलाफ कार्रवाई में तालमेल अवश्य किया। इससे यह प्रश्न उठना चाहिए कि पहली बात तो वे म्यांमार की सीमा में क्या कर रहे थे या वहां क्यों हैं? इतना ही नहीं बीते कुछ दशकों के दौरान वहां सत्ताधारी सैन्य शासन ने पाकिस्तानी परमाणु वैज्ञानिकों, मादक पदार्थ और हथियार तस्करी करने वालों को शरण दी और चीन को ऐसे स्टेशन बनाने दिए जहां से वह दूसरों के इलेक्ट्रॉनिक संवाद सुन सके। बीते तीन दशक से भारत म्यांमार को खुश करने की कोशिश कर रहा है। यह कोशिश कभी उसकी पूर्व नीति के रूप में तो कभी, उपद्रवियों से निपटने की कोशिश के रूप में, कभी ऊर्जा तो कभी चीन को संतुलित करने के प्रयास के रूप में सामने आती है लेकिन नतीजा सिफर। संचार, ऊर्जा आदि क्षेत्रों में कई परियोजनाएं हैं जो निर्माणाधीन हैं। परंतु कोई खास सफलता नहीं मिल सकी है। देश का विदेश नीति प्रतिष्ठान भी चीन के हाथों पिछडऩे के डर से वहां एक तरह से इस्तेमाल ही हो रहा है। सच यह है कि म्यांमार हमारी पूर्व नीति के लिहाज से अव्यावहारिक है। हमारा समुद्री और हवाई संपर्क पर्याप्त है और हम उसका विस्तार करके आसानी से दक्षिण पूर्वी एशियाई बाजारों तक पहुंच बना सकते हैं। भारतीय निवेशकों को भारत विरोधी रुख रखने वाले म्यांमार के बजाय बांग्लादेश, मलेशिया, इंडोनेशिया, सिंगापुर और वियतनाम में निवेश करना चाहिए। यह आंकड़ों में भी नजर आता है। सन 2015 में करीब 35,000 भारतीय म्यांमार गए जबकि इसी अवधि में 1.5 लाख चीनी नागरिक वहां पहुंचे। उस वर्ष करीब 73 करोड़ डॉलर का निवेश भारतीयों ने किया जो म्यांमार के कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का करीब 1.4 फीसदी था। इसकी तुलना में चीन ने 18 अरब डॉलर का निवेश किया यानी कुल एफडीआई का 34 फीसदी।
जहां तक उपद्रवियों का मुकाबला करने की बात है, म्यांमार ऐसा इसलिए कर रहा है क्योंकि यह उसके हित में है। यह पहल उतनी ही है जितनी उसकी जरूरत है। यहां भी म्यांमार की भूमिका को अक्सर बढ़ाचढ़ाकर पेश किया जाता है। इसके बाद मामला आता है भय का। भारत हमेशा आशंकित रहता है कि कहीं म्यांमार चीन की रहनुमाई न स्वीकार कर ले। ऐसा करते हुए हम बमर राष्टï्रवाद की मौजूदगी की अनदेखी करते हैं। म्यांमार के बुर्जुआ हमेशा से भारत और चीन के दबदबे में आने को लेकर भयभीत रहते हैं। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि आज की तारीख में चीन का दबदबा कहीं अधिक स्वीकार्य हो गया है।भारत को इस क्षेत्र को अपनी भूराजनैतिक असुरक्षा के नजरिये से नहीं देखना चाहिए। मौजूदा नीति इस मुद्दे से ठीक से नहीं समझ रही। ऐसा नहीं है कि म्यांमार को चीन के रसूख तले आने से बचाने के लिए भारत को उसके साथ प्रगाढ़ता बढ़ानी ही होगी। बल्कि म्यांमार को भारत की आवश्यकता है ताकि वह चीन के दबदबे से बच सके। भारत को सैन्य सत्ता के साथ इस हद तक रिश्ता कायम नहीं करना चाहिए। अगर म्यांमार चीन की ओर झुकता है तो झुकने दें। आज नहीं तो कल उसे भारत को पुकारना ही होगा।रोहिंग्या संकट के बाद बांग्लादेश और म्यांमार के बीच तनाव बढ़ा है। यह लंबे राजनीतिक विवाद में बदल सकता है। दोनों देशों की सेनाएं भी आमने-सामने आ सकती हैं। भारत अगर दोनों देशों से समान दूरी बरतता है तो यह बड़ी गलती होगी। कुछ लोग कहेंगे म्यांमार बौद्घों का देश है इसलिए भारत के प्रति उसका सकारात्मक झुकाव होगा। इतिहास और अनुभव बताता है कि ऐसा कुछ नहीं है। निश्चित तौर पर बांग्लादेश भारत के लिए कहीं अधिक अहमियत रखता है। देश के दोनों प्रमुख दलों में से एक भारत समर्थक है और दूसरा भारत का विरोधी। जैसा कि मैंने पिछले महीने अपने स्तंभ में कहा था। भारत को रोहिंग्या मसले पर बांग्लादेश का समर्थन करना चाहिए और ढाका के प्रयासों के लिए अंतरराष्टï्रीय समर्थन जुटाने का प्रयास करना चाहिए। मोदी सरकार को म्यांमार के साथ सख्त रुख अपनाना चाहिए। आम सोच के उलट भारत ऐसा कर सकता है।

Date:10-11-17

दागियों के दोष से मुक्त हो सियासत

सुरेंद्र किशोर (लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

सुप्रीम कोर्ट ने बीते दिनों केंद्र सरकार को सांसदों और विधायकों के खिलाफ आपराधिक मुकदमों की जल्द सुनवाई के लिए विशेष अदालतों के गठन का निर्देश दिया। राजनीति के अपराधीकरण के खिलाफ सर्वोच्च अदालत की इस पहल को सराहनीय माना जा रहा है, पर इससे जुड़े कुछ अन्य महत्वपूर्ण सवाल और मुद्दे भी हैं, जो दशकों से अनुत्तरित हैं। पहला अहम सवाल तो यही कि क्या गवाहों की सुरक्षा के बिना अत्यंत प्रभावशाली लोगों के खिलाफ जारी किसी मुकदमे को उनकी तार्किक परिणति तक पहुंचाया जा सकता है? क्या अधिकतर विवेचना अधिकारियों की मौजूदा लचर कार्यशैली में सुधार के बिना सुप्रीम कोर्ट का उद्देश्य पूरा हो पाएगा? क्या नार्को टेस्ट और ब्रेन मैपिंग पर रोक से संबंधित खुद के 2010 के आदेश को पलटे बिना सुप्रीम कोर्ट के ताजा आदेश का सकारात्मक असर हो पाएगा?देश के राजनीतिक तंत्र को दागियों से मुक्त करने के लिए सुप्रीम कोर्ट की ओर से कुछ अन्य दिशा-निर्देश भी आने चाहिए। यह ध्यान रहे कि पुलिस हत्या जैसे संगीन जुर्म के मामले में भी जितने लोगों के खिलाफ अदालतों में आरोप पत्र दाखिल करती है, उनमें से सिर्फ 10 प्रतिशत आरोपितों को ही सजा हो पाती है। दुष्कर्म या बलात्कार के मामले में यह प्रतिशत सिर्फ 12 है। अधिकतर मामलों में गवाह अदालत में जाकर पलट जाते हैं, क्योंकि वे अपार राजनीतिक, प्रशासनिक और बाहुबल की ताकत से लैस आरोपियों के सामने टिक नहीं पाते हैं।

अमेरिका और फिलीपींस सहित दुनिया के कई देशों में गवाहों की सुरक्षा के लिए कई कानूनी और अन्य उपाय किए गए हैं। अमेरिका में 8500 गवाहों और उनके 9900 परिजनों को 1971 से ही मार्शल सर्विस सुरक्षा दे रही है। खुद अपने यहां सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल केंद्र सरकार को निर्देश दिया था कि वह गवाहों की सुरक्षा के उपाय करे। 1958 में विधि आयोग ने भी गवाहों की सुरक्षा के उपाय करने के लिए केंद्र सरकार को सुझाव दिए थे, पर कुछ नहीं हुआ। इस तरह की अनेक खामियों के कारण आपराधिक मामलों में पूरे देश में सजा का औसत प्रतिशत सिर्फ 45 है। 1953 में यह प्रतिशत 64 था। सीबीआई थोड़ा बेहतर नतीजे जरूर देती है, फिर भी विकसित देशों के मुकाबले यहां की स्थिति दयनीय ही कही जाएगी। अमेरिका में सजा का प्रतिशत 93 है, तो जापान में 99 प्रतिशत। अपने देश में सत्तर के दशक से ही सजा के प्रतिशत में गिरावट शुरू हो गई थी।

यह संयोग नहीं है कि राजनीति के अपराधीकरण का भी वही शुरुआती दौर था। जिन राज्यों में राजनीति का अपराधीकरण अधिक हुआ है, उनमें सजा का प्रतिशत भी अन्य राज्यों की अपेक्षा कम है। न सिर्फ गवाह ताकतवर आरोपी के प्रभाव में आ जाते हैं, बल्कि अनेक जांच अधिकारी भी रिश्वत के प्रभाव से बच नहीं पाते। वैसे भी पुलिस में भ्रष्टाचार का क्या हाल है, यह किसी से छिपा नहीं है। इसलिए गवाहों की सुरक्षा के साथ-साथ मामले की जांच के काम में लगे अधिकारियों पर भी नजर रखने का विशेष प्रबंध करना पड़ेगा। बेहतर तो यह होगा कि धनवान लोगों के केस देखने वाले जांच अधिकारियों पर भ्रष्टाचार विरोधी दस्ते नजर रखें।समयसीमा के भीतर सांसदों-विधायकों के खिलाफ चल रहे आपराधिक मुकदमों की सुनवाई के मामले में कोई भी ढील आरोपितों को मदद पहुंचाने के समान ही होती है। सजा के बाद पूरे जीवन में फिर कभी चुनाव नहीं लड़ने के प्रावधान का भी सवाल सामने है। दरअसल ऐसा किए बिना लोकतंत्र को इस गंदगी से मुक्त नहीं किया जा सकता, किंतु इस पर केंद्र सरकार की शुरुआती प्रतिक्रिया से कोई खास उम्मीद नहीं बंधती, क्योंकि आजीवन प्रतिबंध लगाने की याचिकाकर्ता की मांग पर सरकारी वकील ने गत एक नवंबर को सुप्रीम कोर्ट में कहा कि ‘इस पर विचार हो रहा है। सरकारी सूत्रों ने अलग से बताया कि इस पर तो राजनीतिक दलों में आम सहमति की जरूरत पड़ेगी।

समस्या है कि ऐसे मामलों में राजनीतिक दलों में आमतौर पर कोई सहमति नहीं बन पाती, क्योंकि यह सांसदों के वेतन-भत्ते और सुविधाएं बढ़ाने का मामला तो है नहीं! उस पर तो आम सहमति कायम होने में कभी कोई देर नहीं होती। इसी आम सहमति के चक्कर में राजग सरकार को 2002 में फजीहत झेलनी पड़ी थी। क्या राजग सरकार मौजूदा मामले में भी उसकी पुनरावृत्ति चाहती है? पता नहीं। याद रहे कि सुप्रीम कोर्ट ने 2002 में सख्त आदेश देकर केंद्र सरकार के उस निर्णय को बदल दिया था जिसके तहत केंद्र सरकार ने उम्मीदवारों के बारे में निजी सूचनाएं देने की पहले मनाही कर दी थी। उम्मीदवारों के लिए शैक्षणिक योग्यता, आपराधिक मुकदमे और संपत्ति का ब्यौरा देना जरूरी तभी हो सका था, जब सुप्रीम कोर्ट ने 2002 में ऐसा करने के लिए केंद्र सरकार को स्पष्ट आदेश दिया। उससे पहले केंद्र सरकार इसके लिए तैयार ही नहीं थी। केंद्र सरकार ने तब सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय को पसंद नहीं किया था। अधिकतर राजनीतिक दल भी नहीं चाहते थे कि ऐसी व्यक्तिगत सूचनाएं जगजाहिर की जाएं। नतीजतन सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय को बेअसर करने के लिए केंद्र सरकार ने तब राष्ट्रपति से अध्यादेश जारी करवा दिया। बाद में उसे संसद ने पारित करके कानून का भी दर्जा दे दिया, पर सुप्रीम कोर्ट ने उस कानून को रद्द कर दिया। उसके बाद ही ये सूचनाएं चुनाव में नामांकन पत्र भरने के साथ उम्मीदवार देने को बाध्य हो रहे हैं। यानी जिस देश के अधिकतर राजनीतिक दल और नेतागण अपने बारे में सामान्य सूचनाएं भी सार्वजनिक करने को तैयार नहीं, वे अपराधियों को चुनाव लड़ने से हमेशा के लिए रोकने के लिए खुद कोई कानून बनाने को तैयार हो जाएंगे, ऐसा फिलहाल लगता नहीं है।

याद रहे कि जनहित याचिकाकर्ता ‘लोक प्रहरी और भाजपा नेता अश्विनी उपाध्याय ने सुप्रीम कोर्ट से यह गुहार लगाई है कि सजायाफ्ता नेताओं को चुनाव लड़ने से हमेशा के लिए वंचित कर दिया जाना चाहिए, क्योंकि सरकारी कर्मचारी या जज को सजा हो जाए तो उन्हें फिर से नौकरी नहीं मिलती। यह समानता के अधिकार से संबंधित संवैधानिक प्रावधान के खिलाफ है कि सजा की अवधि पूरी कर लेने के छह साल बाद नेता फिर से चुनाव लड़ने के योग्य माने जाएं। उम्मीद है कि 13 दिसंबर को जब इस मामले की अगली सुनवाई होगी तो केंद्र सरकार आजीवन प्रतिबंध के मामले में अपनी अंतिम राय सर्वोच्च न्यायालय को बता पाएगी। चुनाव आयोग तो ऐसे प्रतिबंध के पक्ष में पहले से ही है। खुद सुप्रीम कोर्ट को इस पर विचार करना होगा कि 2010 के उसके ही एक निर्णय का आपराधिक न्यायिक प्रक्रिया पर कैसा असर पड़ रहा है? सुप्रीम कोर्ट ने मई 2010 में यह कहा था कि अभियुक्त की सहमति के बिना उसका न तो नार्को एनालिसिस टेस्ट हो सकता है और न ही ब्रेन मैपिंग। उस पर झूठ पकड़ने वाली मशीन का भी इस्तेमाल नहीं हो सकता। अब इस पर विचार करने की जरूरत है कि इस आदेश के बाद जांच अधिकारियों को किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है। याद रहे कि 2010 के बाद से जाने-माने कानून-उल्लंघनकर्ता अक्सर ऐसी जांच से साफ इनकार करते आ रहे हैं।


Date:09-11-17

Growth minus development

Widening gender gap, rising malnutrition and hunger call for policy intervention.

 Written by Yoginder K. Alagh ,The writer, a former Union minister, is chancellor, Central University of Gujarat.
In rapid-fire, the country was recently hit by three global rankings. The first was the ease of doing business and India improved its global rank, according to the Brettenwoods experts. Now this is happiness. As an economist I believe the turnaround to the higher growth path will come if we do a bit of pump priming and then private investment will be sucked in. While some sarkari economists agree with me, this is still not the dominant view. So improving the ease of doing business is obviously good news. Of the three rankings this was the only one the chambers of commerce and corporate honchos went ga ga over. The Purchasing Managers’ Index improved. This was somewhat effervescent, since even in the past an improved PMI has always not led to better outcomes, but the sentiment was understandable.The second was bad news. The gender disparity gap has gone up in India and its already poor ranking worsened. Women hold up half the sky, the UN poster says. Women are half the country: Somewhat less in India because of the shameful sex ratio, but still a large number. If growth is not just corporate GDP but human welfare, then this is worrisome. I mean the world over women are liberating themselves, and in civilised India we think so too, and want it to be more so. But it is not so. The statistics used are pretty robust and so even Indian economists who never agree on anything will find it difficult to quibble on this gap.

Women and the girl child also star in the next global ranking. That’s the malnutrition and hunger index. The absolute numbers are frightening. Forty per cent of the world’s hungry and malnourished children are in India. Now poverty and hunger cut offs are always controversial and can make a marginal difference — poverty more so and malnutrition less as it’s based on biological measurements. Having defined a poverty line in the seventies of the last century, which I have wanted revised but which kept on resurfacing like a rabbit out of a hat, I am not surprised at the debate. But there was a sensible suggestion in these columns. Uma Lele (‘Feeding India’, IE, November 3), who has a lot of global experience in these matters, in a mature tone admonished us for being clever on a substantial issue where marginal changes were not the big issue but the big problem whichever way you looked at it was. This needed remedying and when you do so the information base improves. Nothing works more than questions from senior policymakers to improve the statistical base of a decision.

I am impressed by the argument that for hunger use anthropomorphic rather than survey-based calorie norms because biometric measures give you the physical reality as it were rather than expenditure converted to food and then to calories. Strangely, there is a connection between the worsening gender disparity and the hunger numbers. Weak mothers will give birth to weak children. The baby will not get enough nourishment in the womb. Again, in the early years of childhood, the limits to which he or she will grow are being set. It is not that life is a matter of precise paths. But the boundaries in which outcomes will work out are set in early years.

A couple of decades ago, I had to make some tax-free money to fund my daughter’s second year in college in the US and decided in the vacations to work on food security UN consultancies. In Egypt, I discovered that in the desert provinces of Upper Egypt — actually Lower Egypt if you are in Cairo or Alexandria, but they look at everything from the perspective of the Nile — malnutrition in women was high. When I was presenting my results a top official, a retired general, went at me and said they are alright, my soldiers come from there. I had to tell him that weak and anaemic mothers will never give birth to strong soldiers.So let’s get this straight. Even if your concern is not like mine on human welfare, but security in the narrowest military sense of the term, let’s get rid of the problem of hunger rather than be smart on statistics to wish it all away. The link between the gender gap and malnutrition is much too obvious to ignore. So let’s get back to the three rankings of last week: Ease of doing business is good while gender gap and hunger are not so. Policy-wise let’s travel from growth to development.


Date:09-11-17

From farm to fork

We must place nutrition at the centre of the debate on improving our food systems

Many people are not eating the right food. For some, it’s simply a decision to stick with food they enjoy, but which isn’t too healthy. This is leading to an increase in non-communicable diseases. This in turn leads to major burdens on our health-care systems that have the potential to derail the economic progress that is essential for the poor to improve their lives. For others, it’s about limited access to nutritious foods or a lack of affordability, leading to monotonous diets that do not provide the daily nutrients for them to develop fully. Part of the reason nutrition is under threat worldwide is that our food systems are not properly responding to nutritional needs. In other words, somewhere along that long road from farm to fork, there are serious detours taking place.

Fortunately, there is now a major international effort to improve global food systems and link those improvements to better nutrition and diets. Last year, in Rome, the Food and Agriculture Organisation of the UN (FAO) and the World Health Organisation convened an International Symposium on Sustainable Food Systems for Healthy Diets and Improved Nutrition. It was a follow-up to the Second International Conference on Nutrition in 2014. While these big conferences might seem somewhat distant to the realities faced by food producers, farmers, fishers, supply chains and processors, they are placing nutrition at the centre of the debate on improving our food systems, which is where it needs to be, because while improving nutrition is a personal responsibility, it also begins at the desk of the policymaker and at the end of a pitchfork.

Indeed, the vast majority of the food we eat is produced by smallholder farmers, many of whom are poor and undernourished themselves. Improvements to food systems must be achieved in ways that benefit their livelihood and nutritional needs. The Sustainable Development Goals have a target that recognises that smallholders provide a critical entry point for building dynamic rural economies and they need to be resourced with inputs and technology and linked to higher market value.Diets are changing, but not always for the better – and that’s a big worry. Bringing together the key players in the food system makes sense because the policymakers who can push the nutrition agenda forward need to hear what works and what doesn’t from the people who grow our food, and from the people who transport it, process it, market it and sell it.

This week in Bangkok, FAO and other UN partners are bringing together experts on nutrition and major players in the food systems sector from across Asia and the Pacific. The outcomes of the Asia-Pacific Symposium on Sustainable Food Systems for Healthy Diets and Improved Nutrition will provide further support to the aims of the United Nations Decade of Action on Nutrition (2016-2025). We must all work together to equip our food systems to produce and deliver more nutritious food. Only then can the goal of achieving zero hunger be realised.


Date:09-11-17

Right to privacy as right to life

It is important for the courts to examine disability as a ground for the grant of bail

Kalpana Kannabiran,is Professor and Director, Council for Social Development, Hyderabad

In the Supreme Court’s right to privacy judgment (Justice K.S. Puttaswamy v. Union of India), Justice D.Y. Chandrachud held: “Life and personal liberty are inalienable to human existence… The human element in the life of the individual is integrally founded on the sanctity of life… A constitutional democracy can survive when citizens have an undiluted assurance that the rule of law will protect their rights and liberties against any invasion by the state and that judicial remedies would be available to ask searching questions and expect answers when a citizen has been deprived of these most precious rights.

Violation of right to life

In 2014, Delhi University professor G.N. Saibaba was arrested under the Unlawful Activities (Prevention) Act and held in Nagpur Central Jail till the Supreme Court granted him bail in 2016. In March 2017, he was convicted by the Gadchiroli sessions court to life imprisonment for alleged offences under the same Act, and returned to custody in the Anda cell of Nagpur Central Jail. His appeal against the conviction is pending before the High Court in Nagpur. While the grounds of his conviction are debatable, the immediate concern is regarding the question of miscarriage of justice on other grounds. Mr. Saibaba has severe disabilities and multiple related health conditions and has high support needs. Placing him in solitary confinement with no support violates his right to life, bodily integrity and autonomy under Article 21, although his conviction only imposes restraints on personal liberty. This inhuman treatment is punishment far in excess of the sentence awarded by the court.

It is now time to ask searching questions about the sentence, and appeal to the court for the application of constitutional due process so as to not endanger his right to life.The deplorable conditions in Indian prisons are well known. It is settled law now that prisoners may be deprived of personal liberty according to procedure established by law, but that does not include a derogation of their right to dignity. The privacy Bench reiterated the words of Justice Krishna Iyer in the Prem Shankar Shukla case: “The guarantee of human dignity, which forms part of our constitutional culture, and the positive provisions of Articles 14, 19 and 21 spring into action when we realise that to manacle man is more than to mortify him; it is to dehumanise him and, therefore, to violate his very personhood, too often using the mask of ‘dangerousness’ and security…” and that the right to life cannot be restricted to mere “animal existence”. How do we begin to understand the sanctity of life, dignity and bodily integrity for a person with disabilities? If handcuffing is an extraordinary and excessive restraint on an ordinary prisoner, what constitutes excessive restraint beyond the writ of law for a person with disabilities?

Respect for diversity

The Supreme Court holds unequivocally that in adopting the Constitution, the people of India do not surrender the most precious aspects of the human persona — namely life, liberty and freedom — to the state on whose mercy these rights would depend. Each of these aspects — life, liberty and freedom — must be considered together and/or severally as the case may be. Where there is a sentence on personal liberty, the citizen does not surrender his life to the mercy of the state.If, as the right to privacy judgment asserts, privacy “as an integral part of the right to human dignity is comprehended within the protection of life as well”, it is necessary for every court to develop a sensibility towards and understanding of what constitutes human dignity and protection of life for persons located differently in the social order. For, an important aspect of this judgment, which is now law in India, is respect for human diversity and pluralism.Albeit with reference to a different case, the court observed that neither the fact that very few persons bear certain attributes nor the test of “popular acceptance… furnish a valid basis to disregard rights which are conferred with the sanctity of constitutional protection”. Mr. Saibaba may well be the only person in his situation. That in itself is reason for the courts to intervene actively in his favour and remove him immediately from this precarious situation of precarity and irreversible harm.

Entitled to bail

In the light of the decision of the Supreme Court on the right to privacy, particularly its comments on the Suresh Kumar Koushal judgment on Section 377 of the Indian Penal Code and the habeas corpus case, one cannot help but hope that the Nagpur High Court, in considering Mr. Saibaba’s appeal against his conviction, similarly examines the judgment and deliberates on the relationship between fact, law, popular rhetoric and proportionality therein.

Most importantly, however, it is hoped that the court examines disability as a ground for the grant of bail, as distinct from (but related to) “medical grounds”. This entails, according to the Rights of Persons with Disabilities Act, 2013, “respect for inherent dignity, individual autonomy… and independence of persons” and “accessibility”. Section 2(s) of the Act defines a person with disability as “a person with long term physical, mental, intellectual or sensory impairment which, in interaction with barriers, hinders his full and effective participation in society equally with others.” In conditions of custody, such persons must be protected from any hindrance to the exercise of bodily integrity and autonomy with dignity — this lies at the core of his right to privacy. Unavailability of such a guarantee within custodial facilities entitles the prisoner with disabilities to bail.Mr. Saibaba’s predicament is best described in his own words: “I am frightened to think of the coming winter… As temperature goes down excruciating pain continuously in my legs and left hand increases. It is impossible for me to survive here during the winter that starts from November… I am living here like an animal taking its last breaths. Somehow eight months I managed to survive. But I am not going to survive in the coming winter. I am sure. It is of no use to write about my health any longer…“No one understands 90% disabled person is behind bars struggling with one hand in condition and suffering with multiple ailments. And no one cares for my life. This is simply criminal negligence, a callous attitude.” (Extract from his letter to his wife dated October 17, 2017.)

At the time of his conviction and the proceedings so far, we did not have the constitutional wisdom of the privacy Bench before us. In weighing the question of restraint on personal liberty against the risk to life, bodily integrity and dignity, the court scene in The Merchant of Venice spins into view: “Therefore prepare thee to cut off the flesh/Shed thou no blood, nor cut thou less nor more/But just a pound of flesh.” A Daniel, come to judgment.