10-10-2016 (Important News Clippings)

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10 Oct 2016
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TOI-LogoDate: 10-10-16

Pursuit Of Equality

Centre champions women’s rights, denounces triple talaq as unconstitutional

Article 25 of the Indian Constitution guarantees all citizens the right to practice and profess a religion of their choice. But can this freedom of religion trump fundamental rights like the right to equality? In response to a Supreme Court notice on a clutch of petitions challenging triple talaq, nikah halala and polygamy as violating women’s right to equality in the name of religion, the Centre has taken a strong position that gender equality and dignity of women are non-negotiable overarching constitutional values and can brook no compromise. This is the modern, secular, democratic and just position.

While many Muslims welcome such movement towards abolishing triple talaq, nikah halala and polygamy, it continues to face strong and vociferous resistance from certain conservative Muslim organisations, whose counterarguments range from sexist to bizarre. AIMPLB for example argues that banning polygamy and triple talaq will mean many women will stay spinsters as they outnumber men (no they don’t) and will force husbands to get rid of their wives by murdering them. What undermines the conservatives completely is that many countries where Islam is the state religion have already banned practices like triple talaq. When religion is not impervious to reform or reinterpretation even in theocratic countries, how can it remain so in a secular democracy?

There had been concerns that the matter would be muddled by a simultaneous push for a Uniform Civil Code, where the BJP led government would be suspected of baiting Muslims rather than championing women. But the response of the Centre in the Supreme Court has remained focussed on women’s constitutional rights to equality. This is the right approach for building momentum to free all citizens from the patriarchal time warp.


450x100-paperDate: 10-10-16

कला-संस्कृति की बेजा दुहाई

पाकिस्तानी शास्त्रीय गायक शफकत अमानत अली द्वारा उड़ी में हुए आतंकी हमले की निंदा के बावजूद भारतीय फिल्म जगत में काम कर रहे अन्य पाकिस्तानी कलाकार सबक लेने को तैयार नहीं हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या आतंकी हमलों की औपचारिक निंदा मात्र से पाकिस्तानी कलाकारों को बॉलीवुड में काम करने का कानूनी अधिकार मिल सकता है? यदि दो वर्ष पहले टीवी और फिल्म कलाकारों की संस्था सिंटा के प्रस्ताव पर पाकिस्तानी कलाकारों के खिलाफ प्रभावी कार्रवाई होती तो फिल्म निर्माताओं के संगठन इम्पा को प्रस्ताव पारित करने की नौबत ही क्यों आती? भारत के गृह मंत्रालय द्वारा 2009 में जारी दिशा-निर्देशों का पुलिस और अन्य विभागों द्वारा यदि प्रभावी क्रियान्वयन सुनिश्चित किया जाता तो यह मामला बेवजह तूल पकड़ता ही नहीं। नियमों के अनुसार भारत में एक्टिंग, मॉडलिंग, विज्ञापन का काम करने के लिए विदेशी कलाकारों को रोजगार वीजा लेना जरूरी है। कैटरीना कैफ, सनी लियोन और इमरान खान जैसे कई कलाकार विदेशी नागरिक होने के बावजूद पीआइओ तथा रोजगार वीजा के तहत बॉलीवुड में काम कर रहे हैं। उनके उलट अधिकांश पाकिस्तानी कलाकार व्यापारिक वीजा या टूरिस्ट वीजा के माध्यम से भारत में गैरकानूनी काम करते हैं।

रोजगार वीजा भारतीय फिल्म निर्माता से अनुबंध के आधार पर निश्चित अवधि के लिए मिलता है, जिसका पालन नहीं होने से फिल्म निर्माता भी पीएफ और सर्विस टैक्स की जवाबदेही से बच जाते हैं। फवाद खान जैसे कलाकारों को पाकिस्तान में एक फिल्म के लिए महज 25 लाख रुपये फीस मिलती है, जबकि भारत में एक फिल्म में महज 18 दिन की शूटिंग के लिए उन्हें एक करोड़ रुपये की भारी रकम मिल गई। गैर-कानूनी काम के लिए पाकिस्तानी कलाकारों तथा भारतीय फिल्म निर्माता के ऊपर जुर्माने और पांच साल की सजा के प्रावधान का पालन नहीं होने से भारतीय फिल्म जगत अपराध और काले धन की बदनाम मंडी बन गया है। गैरकानूनी ढंग से रह रहे पाकिस्तानी और अन्य विदेशी कामगारों को भारत से निकाल कर दोषी निर्माताओं को दंडित करने के बजाय मामले को सांप्रदायिक चश्मे से देखना दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा। कुछ दिनों पूर्व प्रसिद्ध अभिनेता अनुपम खेर को साहित्यिक कार्यक्रम में जाने के लिए भी पाकिस्तान द्वारा वीजा नहीं दिया गया। प्रसिद्ध गीतकार जावेद अख्तर ने सही कहा है कि हम पाकिस्तानी फनकारों को सिर-आंखों पर बैठाते हैं, लेकिन पाकिस्तान में भारतीयों को तवज्जो नहीं मिलती। सलमान खान की फिल्में पाकिस्तान में अच्छा कारोबार करती हैं, इसलिए कला और संस्कृति के नाम पर पाकिस्तानी कलाकारों का समर्थन उनकी व्यावसायिक मजबूरी है, लेकिन पाकिस्तानी सरकार के अनुसार वह अपने कलाकारों के भारत में काम करने के विरुद्ध है। भारत में भी सामान्यत: उन्हें रोजगार वीजा नहीं मिलता, तो फिर पाकिस्तानी कलाकार भारतीय फिल्मों में कैसे काम कर रहे हैं? अमेरिका में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप अपने देश में विदेशियों के काम करने के लिए वीजा के सख्त नियम बनाने की बात कर रहे हैं।

ब्रिटेन द्वारा घोषित नई आव्रजन नीति लागू होने पर भारतीय कामगारों को ब्रिटेन में रोजगार की दिक्कत बढ़ने के साथ किराये का घर लेने में भी मुश्किल होगी। पिछले वर्ष कई भारतीय छात्रों को नियमानुसार वीजा के बावजूद अमेरिका से बाहर निकाल दिया गया। मडोना पहले इजरायल चली गईं, सिर्फ इस आधार पर 2004 में मिस्न ने उन्हें प्रवेश और वीजा देने से इंकार कर दिया और गायिका ब्योर्क को तिब्बत के समर्थन में नारे लगाने के लिए चीन में प्रतिबंधित कर दिया गया। भारत में पाकिस्तानी कलाकारों के अवैध कारोबार के विरुद्ध नियमों को लागू करने के बजाय कला और संस्कृति की दुहाई देकर सही ठहराने की बहस बंद होनी चाहिए। गृह मंत्रालय द्वारा जारी नियमों के अनुसार पाकिस्तानी कलाकार वीजा में दी गई अनुमति के अलावा भारत के अन्य स्थानों की यात्रा नहीं कर सकते। दिल्ली के सीमित वीजा पर भारत आए पाकिस्तानी कलाकार बगैर अनुमति के नोएडा या गुड़गांव भी नहीं जा सकते। वीजा की शर्तों के उल्लंघन पर गिने-चुने मामलों में ही कार्रवाई हुई है।

नियमों का सभी के विरुद्ध पालन नहीं होने से 42 देशों के 71 हजार से अधिक विदेशी लोग भारत में गैर-कानूनी तौर पर रह रहे हैं। दूसरी ओर हजारों भारतीय लोग वीजा उल्लंघन के आरोपों के कारण पाकिस्तानी की जेलों में बेवजह सड़ रहे हैं। फिल्म और म्यूजिक वीडियो रिलीज होने से पहले विदेशी कलाकारों एवं तकनीशियनों का पूरा विवरण देने का नियम यदि लागू हो जाए तो इस समस्या का समाधान हो सकता है। पाकिस्तानी अभिनेता यदि मानवीय संवेदनाओं से युक्त सच्चे कलाकार होते तो पाकिस्तान प्रायोजित आतंकी हमलों की सामूहिक भत्र्सना तुरंत करते। अदनान सामी ने पाकिस्तान समर्थक कलाकारों द्वारा भारत में आतंकवाद का विरोध न करने पर हैरत जताते हुए कहा कि वे लोग पाकिस्तान और आतंकवाद को एक नजर से क्यों देखते हैं? पाकिस्तानी कलाकारों की बेशर्मी के बाद महेश भट्ट को भी कहना पड़ा कि जब पेशावर में 131 बच्चों का खून बहा तो भारत में हम रोए, फिर उड़ी में हुए आतंकवादी हमले की पाकिस्तानी कलाकार निंदा क्यों नहीं करते? आतंकी हमले की निंदा मानवीय संवेदना को दर्शाती है। इसके साथ रोजगार वीजा तथा सुरक्षा के नियमों का पालन किए बगैर पाकिस्तानी कलाकार भारत में काम नहीं कर सकते। पाकिस्तानी कलाकारों के समर्थन के लिए ओम पुरी के विरुद्ध शिकायत दर्ज करने के बजाय अवैध पाकिस्तानी कलाकारों तथा दोषी निर्माताओं के विरुद्ध सख्त कदम उठाने से ही इस विवाद का निर्णायक समाधान होगा।

[ लेखक विराग गुप्ता, सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता हैं ]


business-standard-hindiDate: 10-10-16

स्पेक्ट्रम नीलामी से सबक

हाल ही में संपन्न स्पेक्ट्रम नीलामी प्रक्रिया के लिए आप चाहे जिस पैमाने का इस्तेमाल करें, हकीकत तो यही है कि यह बुरी तरह नाकाम रही है। नीलामी के पांच दिनों में से किसी भी दिन बोली लगाने का काम तेजी नहीं पकड़ सका जिसका नतीजा यह हुआ कि केवल 40 फीसदी स्पेक्ट्रम की ही बिक्री हो पाई। सरकार ने नीलामी के जरिये 2355 मेगाहट्र्ज का स्पेक्ट्रम बेचने का लक्ष्य रखा था लेकिन 965 मेगाहट्र्ज स्पेक्ट्रम के ही खरीदार सामने आए।  देश के कुल 11 दूरसंचार ऑपरेटरों में से केवल सात ऑपरेटर ही इस प्रक्रिया में शामिल हुए।

वोडाफोन ने भी थोड़ी ज्यादा सक्रियता इसलिए दिखाई क्योंकि उसकी मूल कंपनी ने 47 हजार करोड़ रुपये की पूंजी डाली थी। लगभग सभी ऑपरेटर बोली लगाने में चुनिंदा रवैया ही अपनाए रहे। उनका जोर इस बात पर था कि उनके हिस्से में केवल उतना ही स्पेक्ट्रम आए जो 4जी सेवा शुरू करने के लिए जरूरी हो। यही वजह है कि 4जी सेवाओं के लिए मुफीद माने जाने वाले 1800 मेगाहट्र्ज, 2300 मेगाहट्र्ज और 2500 मेगाहट्र्ज स्पेक्ट्रम की ही मांग ज्यादा दिखी। ऐसे में सरकार अपने राजस्व लक्ष्य से बहुत पीछे रह गई। समूचे स्पेक्ट्रम नीलामी के लिए सरकार ने 5.66 लाख करोड़ रुपये का आधार मूल्य तय किया था लेकिन उसे बोली के तौर पर केवल 65,789 करोड़ रुपये ही मिले जो लक्ष्य का महज 11.5 फीसदी है।
यह रकम 2015 में हुई पिछली नीलामी में मिली 1.1 लाख करोड़ रुपये की रकम से भी करीब आधी है। गलती कहां पर हुई? इस सुस्त प्रतिक्रिया के लिए कई कारण गिनाये जा रहे हैं लेकिन एक अहम पहलू यह है कि सरकार ने स्पेक्ट्रम का आरक्षित मूल्य काफी ऊंचा रखा। शायद सरकार को यह अंदेशा था कि कम आरक्षित मूल्य रखने को कहीं दूरसंचार उद्योग के लिए एक कृपा के रूप में न देखा जाए जो आगे चलकर नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक के ध्यान का भी सबब बने। भारतीय दूरसंचार क्षेत्र पिछले कुछ समय से संघर्ष कर रहा है। इस उद्योग पर पहले ही 3.8 लाख करोड़ रुपये का कर्ज चढ़ा हुआ है जो कि उसके सालाना राजस्व से भी अधिक है। उपभोक्ताओं की संख्या के 95 करोड़ से भी पार पहुंचने के बाद विकास की रफ्तार काफी धीमी हो गई है जबकि प्रतिस्पद्र्धा काफी बढ़ गई है। रिलायंस जियो के प्रवेश ने तो उनके लिए हालात को और भी मुश्किल बना दिया है। अब ऑपरेटरों का ध्यान वॉयस कॉल के बजाय डेटा सेवाओं पर केंद्रित हो गया है। इससे पहले से ही भारी कर्ज में डूबे ऑपरेटरों को कीमत के मोर्चे पर भी जंग के लिए तैयार होना पड़ा है।
असलियत तो यह है कि आज किसी भी ऑपरेटर के पास नकदी नहीं है। सरकार ने कुछ बैंड्स के लिए अधिक महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य रखकर हालात को और भी खराब बना दिया। दरअसल सालाना 2.5 लाख करोड़ रुपये के राजस्व वाले उद्योग के लिए नीलामी में दोगुने से भी अधिक का लक्ष्य रखना तर्कसंगत नहीं है। इस तरह की नाकाम नीलामी का असर भी देखने को मिलेगा। बजट में घोषित 56 हजार करोड़ रुपये के राजस्व लक्ष्य के विपरीत सरकार को स्पेक्ट्रम नीलामी से इस वित्त वर्ष में केवल 32 हजार करोड़ रुपये ही मिलेंगे। ऊंचे आरक्षित मूल्य के चलते 700 और 900 मेगाहट्र्ज बैंड्स के लिए कोई बोली ही नहीं मिल पाई। ग्रामीण क्षेत्रों में डेटा सेवाओं के विस्तार और 4जी सेवाओं के लिए 700 मेगाहट्र्ज स्पेक्ट्रम को सबसे माकूल माना जाता है लेकिन इसके लिए बोली न आने से ग्रामीण क्षेत्रों में स्तरीय डेटा सेवाओं के प्रसार पर विपरीत असर देखने को मिलेगा। तीव्र, सस्ती और उच्च गुणवत्ता वाली डेटा सेवा अर्थव्यवस्था में नई जान डाल सकती है। डिजिटल इंडिया और स्मार्ट सिटी जैसे अभियानों की कामयाबी के लिए भी यह जरूरी है। ऐसे में अनबिके स्पेक्ट्रम के आरक्षित मूल्य को कम रखने और नए सिरे से नीलामी किए जाने की आवश्यकता है। संचार मंत्री मनोज सिन्हा का इस तरह का संकेत देना स्वागतयोग्य कदम है।

RastriyaSaharalogoDate: 09-10-16

शिक्षा में नये जाति वर्ग

भारतीय भाषा यानी गैर अंग्रेजी माध्यम और अंग्रेजी माध्यम के स्कूल दो वर्ग बनाते हैं। फिर सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं की दूसरी कोटि बनती है। इनके कई उपभेद भी है। समानता और समता का माध्यम बनने वाली शिक्षा विषमता की डगर पर चल रही है

imagesभारत में जाति की सोच आज भी न केवल बरकरार है बल्कि फल-फूल रही है और अपने नए-नए अवतारों में दिन-प्रतिदिन दृढ़तर होती जा रही है। राजनीति के लिए तो जाति बैसाखी बन ही चुकी है, अब वह शिक्षा के क्षेत्र में घर जमा रही है। वह शिक्षा ही थी, जिसके सहारे हम सब ने समाज के मन को बदलने की कोशिश शुरू की थी और तमाम तरह की कमजोरियों से उसे मुक्ति दिलाना चाहते थे। पर शिक्षा का आयोजन और सम्पादन स्वयं ही उसी बीमारी से ग्रस्त हुआ जा रहा है। ताजा जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि अभी आठ करोड़ स्कूली आयु के भारतीय बच्चे स्कूल नहीं पहुंच पा रहे हैं।दूसरे शब्दों में स्कूली जाति व्यवस्था की दृष्टि से ये बच्चे ‘‘जाति बहिष्कृत’ यानी अछूत बने हुए हैं। पिछले सालों में चलाया गया ‘‘सर्व शिक्षा अभियान’ पूरी तरह कामयाब नहीं हो सका है। स्कूलों में नामांकन में वृद्धि हुई है पर सामाजिक-आर्थिक रूप से दुर्बल पृष्ठभूमि के जो बच्चे स्कूल जाते भी हैं, उनमें ज्यादातर बच्चे आगे पढ़ाई जारी नहीं रखते और स्कूल छोड़ बाहर चले जाते हैं। उनके ज्ञान का स्तर या शैक्षिक उपलब्धि भी बड़ी कमजोर पाई गई है। स्कूल और घर की भाषा और संस्कृति में अंतर और स्कूली शिक्षा में इस भिन्नता के प्रति संवेदना का अभाव उनकी भिन्नता को दुर्बलता में बदल देता है। स्कूलों के क्षेत्र में शिक्षा देने की पूरी व्यवस्था में सामाजिक-आर्थिक भेद बने हुए हैं और उनमें पढ़ते हुए सम्पन्नता/गरीबी का सांस्कृतिक भेद पुनरु त्पादित होता रहता है । स्कूलों, महाविद्यालयों और विविद्यालयों की अपर्याप्त संख्या, अध्यापकों की कमी और आवश्यक सुविधाओं के अभाव से बुरी तरह से जूझ रही हमारी शिक्षा व्यवस्था पटरी पर नहीं आ पा रही है। पर शैक्षिक परिदृश्य का एक दूसरा पहलू यह है कि आज देश में कई तरह की शिक्षा संस्थाएं चल रही हैं और वे जबरदस्त किस्म के वर्गभेद और जातिभेद से ग्रस्त हो रही हैं और वे नए ढंग से जातिवाद का जहर फैला रही हैं। सच कहें तो स्कूलों की अलग-अलग जातियां बन गई हैं और उनमें भी संस्कृतीकरण और पश्चिमीकरण की प्रवृत्तियां उभर रही हैं। भारतीय भाषा यानी गैर अंग्रेजी माध्यम और अंग्रेजी माध्यम के स्कूल दो वर्ग बनाते हैं। फिर सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं की दूसरी कोटि बनती है। इनके कई उपभेद भी है। समानता और समता का माध्यम बनने वाली शिक्षा विषमता की डगर पर चल रही है । अब अंतरराष्ट्रीय मानक वाले संस्थान खोलने के आकर्षण में शिक्षा संस्थाओं की ‘‘र्वल्ड क्लास’ की एक अतिविशिष्ट श्रेणी भी बनने लगी है। स्कूलों से लेकर विविद्यालयों तक फैली शिक्षा संस्थानों की जातियां उनकी फीस उगाही, परिसर में दी जाने वाली सुविधा, शिक्षा का माध्यम और छात्रों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि में झलकती है। कई शिक्षा संस्थान आवासीय हैं और उनमें बोर्डिंग की सुविधा है, जिनमें छात्र परिसर में ही रहते हैं और अपनी जातीय/वर्गीय शिक्षा के ढांचे में दीक्षित हो रहे हैं। ऊंची जाति की संस्थाओं में पढ़ने वाले ऊंचे तबके के बच्चे अपनी जाति के स्तर के अनुरूप सोहबत के लिए अपनी मित्र मंडली चुनते हैं और शौक पालते हैं। कहना न होगा कि उनकी स्कूली जीवन शैली में कई अवांछित तत्व भी शामिल होते जा रहे हैं। वास्तविकता यह है कि शिक्षा का बड़े पैमाने पर व्यवसायीकरण हो चुका है और बहुत से पैसे वाले लोग इसी रूप में शिक्षा के केंद्र बना रहे हैं कि सम्मानपूर्वक और सरलता से धन सम्पत्ति का अर्जन किया जा सके। अच्छे मुखौटे लगा कर ये संस्थाएं बड़े-बड़े दावे करती हैं और विज्ञापन के जरिए आम जन की सोच को प्रभावित करती हैं। प्राइमरी कौन कहे नर्सरी में छोटे छोटे शहरों में भी तथाकथित अच्छे स्कूलों में बच्चे के प्रवेश के लिए लगभग लाख रुपये तक की भेंट चढ़ानी अनिवार्य हो गई है। आज स्कूलों को देख कर हमारे सामने कई सवाल उठते हैं। यह भी सोचने की जरूरत है कि क्या जन आकांक्षाएं और स्कूल एक दूसरे के पूरक बन पा रहे हैं? क्या पाठ्यक्रम छात्रों की रु चि और उनके विकास की जरूरत के अनुरूप हैं? यह सोचना जरूरी हो गया है कि क्या स्कूल द्वारा ही समाज के लिए शिक्षा की संभव है? दूसरे शब्दों में क्या सभी लोगों को शिक्षा देने के लिए स्कूल की संस्था जरूरी है, खास तौर पर जब हम यह पाते हैं कि विश्व के बहुत से मेधावी और प्रतिभाशाली लोग स्कूल में असफल छात्र थे। औपचारिक शिक्षा जिस रूप में है, ऐसे में यह सोचना आवश्यक हो जाता है कि किस तरह हम स्कूल का विकल्प ढूंढ़ सकेंगे ।