10-07-2024 (Important News Clippings)

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10 Jul 2024
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Date: 10-07-24

सच न बोलना राजनीति की मजबूरी बन चुकी है

संपादकीय

किसी देश में 123 लोग भगदड़ में मर जाएं, लेकिन दशकों से ऐसे आयोजनों के नायक (नारायण साकार हरि उर्फ भोले बाबा ) पर सरकार न तो एफआईआर करे, ना ही किसी राजनीतिक दल की हिम्मत हो कि बाबा के खिलाफ एक शब्द भी बोले, तो इसे क्या कहेंगे? यूपी सरकार बाबा के प्रति पहले ही दिन से उदार है! वह अपराध न्याय प्रक्रिया में एक नया शब्द ‘आयोजकों’ ईजाद कर छोटे-मोटे लोगों को असली दोषी मानकर तलाश रही है। मजा तो यह है कि इस भोले बाबा ने भी एक वीडियो जारी कर घटना पर चिंता जताई, अपने आप को घटना के समय अनुपस्थित बताया और कहा कि भगदड़ करने वाले उपद्रवियों को बख्शा नहीं जाएगा। बाबा पर हाथ डालने की हिम्मत न करने का कारण है करीब 15 जिलों के दलितों और पिछड़े वर्ग के लोगों पर उसका जादुई प्रभाव। लिहाजा सत्तापक्ष का डर तो छोड़िए, प्रदेश के प्रमुख विपक्ष के नेता का भी उसके साथ फोटो और बाबा के प्रति उपास्य भाव वाला सम्मान चर्चा में है। कांग्रेस के नेता ने प्रशासन को जिम्मेदार ठहराया, राज्य सरकार को कठघरे में खड़ा किया लेकिन बाबा की दोष युक्तता के बारे में सवाल आया तो कहा कि ‘घटना की गंभीरता पर ध्यान दीजिए और भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति न हो इस पर प्रशासन से सवाल कीजिए।’ यानी सत्तापक्ष हो या विपक्ष, सबको एक कमजोर गर्दन की तलाश है और जाहिर है वह है- प्रशासन और उसमें सबसे नीचे का अधिकारी। यानी यह बाबा जो दशकों से अपने हैंडपंप के पानी से बीमारी ठीक करने का दावा करता रहा, अशिक्षित-अतार्किक – अवैज्ञानिक सोच को बढ़ाते हुए अपनी चरणरज से व्यक्तिगत दुःख दूर करने का स्वांग करता रहा, वह इतनी बड़ी घटना के बाद भी लोगों को धोखा देता रहेगा और अपनी ‘भक्त शक्ति’ के चुनावी लाभ या हानि से राजनीतिक वर्ग को नतमस्तक होने को मजबूर करता रहेगा।


Date: 10-07-24

रूस में भारत की बात

संपादकीय

तीसरी बार सत्ता संभालने के बाद अपनी पहली द्विपक्षीय विदेश यात्रा में मॉस्को जाकर भारतीय प्रधानमंत्री ने यह स्पष्ट किया कि भारत के लिए रूस की मैत्री कितनी महत्वपूर्ण है। अपनी इस यात्रा में उन्होंने दोनों देशों के आपसी संबंधों को आगे बढ़ाते हुए यूक्रेन युद्ध के संदर्भ में जिस तरह यह कहा कि बम-बारूद और गोलियों के बीच शांति वार्ता नहीं हो सकती, उससे उनके उस चर्चित कथन का स्मरण हो आया, जिसमें उन्होंने पुतिन से दो टूक कहा था कि यह युग युद्ध का नहीं। चूंकि भारतीय प्रधानमंत्री की मास्को यात्रा के मौके पर ही रूस ने यूक्रेन की राजधानी कीव में बच्चों के अस्पताल को भी निशाना बनाया, इसलिए उन्होंने बिना किसी संकोच यह भी कह दिया कि युद्ध या संघर्ष अथवा आतंकी हमलों में जब मासूम बच्चों की मौत होती है तो हृदय छलनी हो जाता है। भले ही भारतीय प्रधानमंत्री की मास्को यात्रा के अवसर पर यूक्रेन में रूस का जोरदार हमला वाशिंगटन में अमेरिका के नेतृत्व वाले सैन्य संगठन नाटो की बैठक को देखते हुए पश्चिमी देशों को संदेश देने के लिए किया गया हो, लेकिन भारतीय प्रधानमंत्री के लिए रूसी राष्ट्रपति को यह संदेश देना आवश्यक हो गया था कि भारत इस तरह के हमलों का समर्थन नहीं करता। देखना यह है कि यूक्रेन युद्ध पर भारतीय प्रधानमंत्री की फिर से खरी बात पर रूसी राष्ट्रपति कितना ध्यान देते हैं, लेकिन भारत को रूस के साथ अपनी मित्रता जारी रखते हुए यह स्पष्ट करते रहना होगा कि वह रूस-यूक्रेन युद्ध को यथाशीघ्र समाप्त होते हुए देखना चाहता है। यह केवल भारत ही नहीं, बल्कि विश्व शांति के भी हित में है।

यह समझना कठिन है कि यूक्रेन के राष्ट्रपति ने भारतीय प्रधानमंत्री और रूसी राष्ट्रपति के बीच बातचीत का पूरा विवरण सामने आने के पहले ही अपनी नाराजगी क्यों जता दी? उन्होंने एक तरह से कूटनीतिक अपरिपक्वता और उतावलेपन का ही परिचय दिया। उनके इस अपरिपक्व व्यवहार के बावजूद भारत के लिए यही उचित होगा कि वह रूस और यूक्रेन के बीच के युद्ध को खत्म कराने के लिए हरसंभव प्रयास करे। इन प्रयासों के सकारात्मक नतीजे आने से एक तो भारत के हित सधेंगे और दूसरे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उसका कद बढ़ेगा। भारत के लिए यह भी आवश्यक है कि वह रूस से अपने संबंध आगे बढ़ाते हुए इस पर ध्यान दे कि उसे जिस चीन से खतरा है, उस पर रूस की निर्भरता बढ़ती जा रही है। भारत को रूस को यह संदेश देना ही होगा कि उसे अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए चीन को अपनी हद में रहने के लिए कहना होगा। इस सबके बीच इसकी भी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि रूस की चीन पर निर्भरता बढ़ने का एक कारण यह भी है कि भारत रूस को उसकी जरूरत की सामग्री का निर्यात नहीं कर पा रहा है।


Date: 10-07-24

परस्पर हितों वाली मैत्री

श्रीराम चौलिया, ( लेखक जिंदल स्कूल आफ इंटरनेशनल अफेयर्स में प्रोफेसर और डीन हैं )

पांच वर्षों के अंतराल के पश्चात प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के रूस दौरे ने खासी उत्सुकता जगाई है। कुछ समीक्षकों के अनुसार रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन द्वारा मोदी का भव्य स्वागत और कई क्षेत्रों में आपसी सहयोग को आगे बढ़ाने के उनके निर्णयों ने सिद्ध कर दिया कि भारत पश्चिम समर्थक विदेश नीति का पालन न करते हुए गुटनिरपेक्ष रुख अपना रहा है। कुछ ने यह भी अटकलें लगाई हैं कि मोदी ने तीसरे कार्यकाल की पहली द्विपक्षीय विदेश यात्रा के लिए रूस को अपना गंतव्य ठीक उसी समय चुना, जब अमेरिका में नाटो गठबंधन के सदस्य देश रूस विरोधी शिखर वार्ता के लिए इकट्ठे हो रहे थे। यानी भारत ने मानो कोई संकेत दिया है कि वह पश्चिमी शक्तियों द्वारा सुझाई गई लकीर पर नहीं चलने वाला। इन अटकलों के बीच भारत ने रूस के साथ पुरानी मित्रता को बरकरार रखकर अपनी जानी-पहचानी रणनीतिक स्वायत्तता का प्रदर्शन किया है। हालांकि यह निष्कर्ष निकालना उचित नहीं होगा कि भारत रूस के साथ लंबे अर्से से चली आ रही सामरिक साझेदारी से पश्चिम को ललकार रहा है। रूस समर्थकों ने भले ही यह दर्शाना चाहा हो कि मोदी की यात्रा से भारत ने पश्चिम को चुनौती दी है और इससे पश्चिमी देश ‘ईर्ष्या से जल रहे हैं’, परंतु असल में भारत ऐसा कोई मंतव्य नहीं रखता है। विदेश सचिव विनय क्वात्रा ने स्पष्ट किया है कि ‘हम रूस के साथ अपने संबंधों को पूरी तरह से द्विपक्षीय संदर्भ के ढांचे से देखते हैं’ और इस भागीदारी के माध्यम से हमारा पश्चिम के खिलाफ मोर्चा खड़ा करने का कोई इरादा नहीं है।

वर्ष 2022 में जबसे रूस-यूक्रेन युद्ध आरंभ हुआ है, तबसे दुनिया विपरीत खेमों में बंटी हुई है। इस संदर्भ में रूस के प्रति हमारा रवैया वास्तविकता और व्यावहारिकता के आधार पर टिका है। इसमें वैश्विक विचारधारा के द्वंद्वों का कोई प्रश्न नहीं उठता। भारत और रूस की मैत्री वक्त की कसौटियों पर जांची-परखी और खरी है। भारत के 60 प्रतिशत सैन्य प्लेटफार्म रूसी मूल के हैं। भारत के तेल आयात में रूसी हिस्सेदारी 40 प्रतिशत से अधिक हो गई है। रक्षा हो या ऊर्जा सुरक्षा, रूस अब भी हमारे लिए प्रमुख आपूर्तिकर्ता है। इन ठोस कारकों को देखते हुए भारत रूस से मित्रता जारी रखना चाहता है और आपसी लेनदेन में उत्पन्न हो रही बाधाओं और असंतुलन का हल निकालना चाहता है। मोदी-पुतिन शिखर बैठक के बाद की गई घोषणाओं में कई ऐसे मुद्दे सुलझने के स्पष्ट संकेत देखने को मिले हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि रूस भारत के मुख्य सामरिक साझेदारों की सूची में आज भी ऊपरी पायदान पर है। इसके बावजूद भारत रूस की कमजोरियों और परेशानियों से वाकिफ है।

यूक्रेन युद्ध से जुड़े पश्चिमी आर्थिक और तकनीकी प्रतिबंधों ने रूस के उज्ज्वल भविष्य पर प्रश्न चिह्न लगाया है। युद्ध से जुड़ी गतिविधियों के चलते रूस की आर्थिक वृद्धि तेज हुई है, लेकिन यह विकास टिकाऊ एवं सतत नहीं होने वाला। रूस की अर्थव्यवस्था भारत से काफी छोटी है और वह फिलहाल विश्व में ग्यारहवें स्थान पर है। रूस और भारत के बीच भारी व्यापार घाटे को कम करने के लिए जो विदेशी निवेश रूस से भारत में आना चाहिए, उतनी पूंजी रूस के पास है ही नहीं। प्रौद्योगिकी और विदेशी निवेश के हिसाब से भारत को रूस के मुकाबले पश्चिमी देशों से कई गुना अधिक लाभ मिल रहा है। इसके साथ ही, सैन्य नवाचार और अत्याधुनिक हथियारों के निर्माण में रूस जितना माहिर हुआ करता था, आज इस मामले में वह उतना महारथी नहीं रह गया। यही कारण है कि पिछले एक दशक में रक्षा आयात के क्षेत्र में भारत ने विविधीकरण की नीति के अंतर्गत रूस से सैन्य सामग्री की खरीदारी काफी घटाई है। एक समय भारत की सैन्य सामग्री की 70 प्रतिशत तक पूर्ति रूस से होती थी, जो अब करीब आधी घटकर 36 प्रतिशत रह गई है। इस दौरान फ्रांस जैसे सामरिक सहयोगियों की हिस्सेदारी काफी बढ़ी है। निश्चित रूप से ऐतिहासिक एवं आत्मीय कारणों से भारत रूस को अनदेखा नहीं कर सकता, लेकिन वह उसकी मौजूदा स्थिति से भलीभांति अवगत है। यही कारण है कि रूस की उपयोगिता को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर नहीं आंका जा रहा है।

भूराजनीति के दृष्टिकोण से रूस एक समय भारत के लिए चीन की काट बना हुआ था। उस समय रूस वैश्विक महाशक्ति था तो चीन के विस्तारवाद और आक्रामक व्यवहार पर अंकुश लगाए रखता था। दुर्भाग्यवश आज पश्चिमी आर्थिक और कूटनीतिक दबाव से मुक्ति के लिए रूस चीन पर सर्वाधिक निर्भर हो गया है। ऐसे में भारत की अपेक्षा है कि हम रूस के साथ मित्रता को आगे बढ़ाएं, ताकि चीन पूरी तरह से रूस पर हावी न हो जाए। पुतिन स्वयं भी चाहते है कि भारत की दोस्ती के आधार पर रूस चीन के सामने पराधीन और बेबस न नजर आए। हालांकि जिस तादाद में चीन रूस के साथ व्यापार और सैन्य सहयोग कर रहा है, उतनी क्रय शक्ति फिलहाल भारत के पास नहीं है कि वह रूस के लिए दूसरा विकल्प बन सके। भारत के लिए हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन के नौसैनिक दबदबे की काट करना अत्यंत महत्वपूर्ण है, किंतु इस लक्ष्य की पूर्ति में हमें शायद ही रूस का साथ मिल सके, क्योंकि चीन की तरह रूस भी हिंद-प्रशांत की अवधारणा को अमेरिकी षड्यंत्र मानता है। रूस-भारत सैन्य सामग्री (लॉजिस्टिक) समझौते पर भी कुछ बात आगे बढ़ी है, लेकिन लगता नहीं कि रूस किसी भी स्थिति में चीन से प्रतिस्पर्धा वाले प्रत्यक्ष गठबंधन का हिस्सा बनेगा। भारत-रूस संबंधों का सार यही है कि रूस चाहता है कि भारत पश्चिम का मुकाबला करने में उसकी मदद करे, जबकि भारत चाहता है कि चीन से मुकाबले में रूस उसके साथ आगे आए। इन विरोधाभासों के मद्देनजर भारत जानता है कि रूस के साथ उसकी ‘विशेष और विशेषाधिकार प्राप्त रणनीतिक साझेदारी’ की सीमाएं हैं। हमारा प्रयास रहेगा कि इन सीमाओं को स्वीकार करते हुए द्विपक्षीय व्यावहारिक सहयोग को जितना बढ़ाया जा सकता है, उतना बेहतर है। तेजी से बदलती और कठिन होती वैश्विक परिस्थितियों के बावजूद इतिहास, भूगोल और आपसी विश्वास पर आधारित रूस-भारत साझेदारी अपनी धुरी पर टिकी हुई है। यह तय है कि दोनों देश इसे कायम रखने के लिए प्रतिबद्धता दिखाते रहेंगे।


Date: 10-07-24

युद्ध में नैतिकता

संपादकीय

रूस और यूक्रेन के बीच जारी युद्ध थमता नजर नहीं आ रहा है। यूक्रेन के रिहाइशी इलाकों में भी बम और मिसाइलों से हमले हो रहे हैं। मगर विडंबना है कि इस युद्ध में वैसी जगहों को भी निशाना बनाया जा रहा है, जहां किसी भी हाल में हमला नहीं किया जाना चाहिए। गौरतलब है कि कीव में गत सोमवार को बच्चों के एक अस्पताल समेत शहर की कुछ अन्य इमारतों पर हमले हुए, जिनमें कई लोगों की जान चली गई। यूक्रेन का दावा है कि बच्चों के अस्पताल पर रूसी सेना ने मिसाइल से हमला किया। हालांकि, रूस ने कहा कि यूक्रेन की वायु रक्षा प्रणाली से छोड़ी गई मिसाइल ही अस्पताल पर गिरी है। दोनों देशों के ये दावे-प्रतिदावे अपनी जगह हैं, लेकिन क्या युद्ध के दौरान अस्पताल जैसे संस्थानों पर हमले करना वाजिब है? अस्पताल बीमार और घायलों को नया जीवन देने का काम करते हैं। यहां तक कि युद्ध में घायल सैनिकों की आखिरी उम्मीद भी उपचार के लिए इन्हीं जगहों पर टिकी होती है।

गौरतलब है कि कीव में यह हमला अमेरिका में होने वाले तीन दिवसीय नाटो शिखर सम्मेलन से ठीक एक दिन पहले हुआ। इस सम्मेलन में रूस-यूक्रेन युद्ध पर भी चर्चा होने की संभावना है। यूक्रेन में युद्ध के दौरान आम नागरिकों के हताहत होने का अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन भी कड़ाई से विरोध कर रहा है। उसका कहना है कि युद्ध में मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन हो रहा है। संयुक्त राष्ट्र चार्टर और जेनेवा समझौते के अनुसार युद्ध के दौरान आम नागरिकों और रिहाइशी इलाकों, खासकर अस्पतालों और पनाहगाहों पर जानबूझकर हमला करना प्रतिबंधित है। ऐसी कार्रवाइयों को युद्ध अपराध की श्रेणी में माना जाता है। सवाल है कि क्या युद्ध के दौरान इन अंतरराष्ट्रीय नियमों का पालन सुनिश्चित किया जाता है? जिन देशों ने मिलकर ये नियम तय किए हैं, अगर वे खुद इनका खयाल नहीं रखेंगे तो भविष्य में भी इस तरह की कवायदों का कोई औचित्य नहीं रह जाएगा। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कायदे-कानून बनाने का मकसद वैश्विक समाज की सुरक्षा और बेहतरी पर केंद्रित होता है। यह मकसद तभी सफल हो पाएगा, जब तमाम देश आम सहमति से हुए फैसलों का सम्मान करेंगे।


Date: 10-07-24

दोषियों को दंड मिले

संपादकीय

हाथरस भगदड़ मामले की जांच के लिए गठित विशेष जांच दल (एसआईटी) ने जिस तत्परता से अपनी रिपोर्ट सौंपी है और उत्तर प्रदेश सरकार ने इसके आलोक में जिस त्वरित गति से एसडीएम समेत छह अफसरों के खिलाफ कार्रवाई की है, उसकी सराहना की जानी चाहिए। इस हादसे में 120 से अधिक मासूम लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था और उनके परिजनों को जीवन भर का दर्द मिल गया है। ऐसे में, हर तरफ से जिम्मेदारी तय किए जाने की मांग उठ रही थी और राज्य सरकार ने बिना देरी किए जांच दल गठित की थी। अब एक हफ्ते के भीतर अपनी रिपोर्ट सौंपकर एसआईटी ने इंसाफ की प्रक्रिया को गति दी है। अमूमन ऐसी रिपोर्टें तब आती हैं, जब संबंधित घटनाएं लोगों के जेहन से उतर चुकी होती हैं और ऐसे में उन रिपोर्टों पर क्या कार्रवाई हुई, यह लोगों को पता भी नहीं चल पाता और अक्सर लीपा-पोती हो जाती है। मगर हाथरस हादसे की गहरी टीस अब भी लोगों के भीतर बनी हुई है। यही कारण है कि अब यह मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंच गया है, जहां 12 जुलाई को इससे जुड़ी याचिका पर सुनवाई होगी।

एसआईटी ने अपनी रिपोर्ट में आयोजकों को मुख्य रूप से जिम्मेदार ठहराया है और साफ-साफ कहा है कि उन्होंने प्रशासन को धोखे में रखकर इजाजत ली। स्थानीय प्रशासन से तथ्य छिपाए गए और इतनी विशाल भीड़ के प्रबंधन के लिए जरूरी इंतजाम नहीं किए गए थे। बल्कि बाबा नारायण साकार तक लोगों के पहुंचने की कोई व्यवस्था नहीं थी और जब भगदड़ मची, तो आयोजक घटनास्थल से फरार हो गए। ये तमाम बातें तो 2 जुलाई से ही कही जा रही हैं, मगर एसआईटी रिपोर्ट में जिस तरह से एसडीएम की लापरवाही का जिक्र किया गया है, उससे हमारे प्रशासनिक अमले में पैठ आई काहिली का ही उद्घाटन होता है। क्या एसडीएम को बाबा नारायण साकार के सत्संगों में उमड़ने वाली भीड़ का कोई अंदाजा नहीं था कि उन्होंने आयोजन स्थल का दौरा किए बगैर ही इसकी अनुमति दे डाली? उन्होंने वरिष्ठ अधिकारियों तक को सूचित नहीं किया। इसलिए उनके साथ-साथ अन्य संबंधित अधिकारियों का निलंबन बिल्कुल जायज है। सत्संग के आयोजकों के खिलाफ भी सख्त कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए, ताकि फिर कोई आयोजन जानलेवा न बन सके।

विशेष जांच दल ने ‘किसी बडे़ षड्यंत्र’ की आशंका को भी पूरी तरह खारिज नहीं किया है और इसकी गहन तफ्तीश की आवश्यकता पर बल दिया है। उम्मीद है, राज्य सरकार इसे गंभीरता से लेगी। मगर धर्मगुरुओं के लिए भी इस हादसे में एक बड़ी सीख है कि वे कहीं भी सत्संग के लिए जाएं, तो अपने तईं भी आयोजकों से इंतजामों के बारे में दरयाफ्त करें। आखिर श्रद्धालु उनके आकर्षण में जुटते हैं, इसलिए उनकी भी नैतिक जिम्मेदारी बनती है। भारत धर्मपरायण समाजों का देश है और यहां हरेक दिन हजारों जगहों पर छोटे-बड़े आयोजन होते रहते हैं। ऐसे में, बड़े आयोजनों के बारे में जो तय दिशा-निर्देश हैं, उनमें किसी किस्म की शिथिलता नहीं बरती जानी चाहिए। हमारे तंत्र को पेशेवराना तेवर की जरूरत है और यह तेवर तभी आएगा, जब निचले स्तर पर नियमित प्रशिक्षण और उच्च स्तर पर लापरवाह अधिकारियों को दंडित करने की व्यवस्था होगी। जाहिर है, प्रशासन यदि किसी के प्रभाव में आएगा, तो वह पेशेवर बन ही नहीं सकेगा। इसलिए इस मामले के दोषियों की सजा एक नजीर बननी चाहिए।


Date: 10-07-24

भारत-रूस संबंधों की नई इबारत

पंकज सरन, ( रूस में रहे भारतीय राजदूत )

मंगलवार को ऑस्ट्रिया के लिए उड़ान भरने से पहले भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन जिस आत्मीय माहौल में बातचीत की मेज पर बैठे, वह इस बात की मुनादी थी कि दोनों देशों के बीच सात दशकों पुराना संबंध अब कितना प्रगाढ़ हो चुका है। यही वजह है कि प्रधानमंत्री मोदी ने शिखर बैठक में आतंकवाद के साथ-साथ यूक्रेन युद्ध का भी जिक्र छेड़ दिया। उल्लेखनीय है, यूक्रेन संकट के कारण रूस पश्चिमी देशों के निशाने पर है, जिसकी प्रतिक्रिया में मॉस्को भी मुखर है। मगर भारत ने बम-बंदूक के बजाय शांति-वार्ता के जरिये समाधान की बात दोहराई। वहीं, आतंकवाद के बहाने रूस को यह एहसास दिलाने की भी कोशिश की गई कि चीन के साथ उसकी नजदीकी परोक्ष रूप से पाकिस्तान को उत्साहित करती है, जो भारतीय जमीन पर आतंकी गतिविधियों को खाद-पानी मुहैया कराने का काम करता है। अच्छी बात यह भी रही कि ईंधन के मामले में भारत को स्थिरता प्रदान करने में रूसी योगदान की प्रधानमंत्री मोदी ने खुलकर सराहना की, जो उचित भी था, क्योंकि अब हम खाड़ी देशों के बजाय सबसे अधिक तेल रूस से ही आयात करने लगे हैं।

इस बैठक से पहले की गई कई अन्य घोषणाएं भी भारतीय हितों के अनुकूल रहीं। मसलन, रूस में दो नए वाणिज्यिक दूतावास खोलने का एलान किया गया है। यह जरूरी था, क्योंकि क्षेत्रफल के हिसाब से रूस से कहीं छोटे देश अमेरिका में हमारे पांच वाणिज्यिक दूतावास हैं, जबकि रूस में अब तक दो ही हैं। बीते करीब तीन दशकों से ऐसा कोई दूतावास रूस में नहीं खुला है, जबकि द्विपक्षीय रिश्ते काफी आगे बढ़ चुके हैं। नए वाणिज्यिक दूतावास के बाद रूस में हमारी गतिविधियां और बढ़ जाएंगी। कारोबार, पर्यटन आदि से जुड़े कामकाज में इजाफा होगा। वहां के बाजार को समझने में कहीं अधिक आसानी होगी और व्यापार को भी फायदा होगा। इसी तरह, यूक्रेन युद्ध में रूस की तरफ से हिस्सा ले रहे भारतीय सैनिकों की वतन वापसी पर बनी सहमति भी काफी अहम है। भारत लगातार यह मांग करता रहा है, जिस पर जल्द ही अमल करने का आश्वासन रूसी राष्ट्रपति ने दिया है।

नरेंद्र मोदी के तीसरे कार्यकाल के इस पहले द्विपक्षीय दौरे पर दुनिया भर की नजरें लगी हुई थीं, जो स्वाभाविक ही था। जब रूस और भारत जैसे बड़े देश मिलते हैं, तो द्विपक्षीय के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय मसलों पर भी बात होती है। विशेषकर यूक्रेन युद्ध को लेकर सबकी उत्सुकता बनी हुई थी, जिस पर प्रधानमंत्री मोदी ने भारत का रुख फिर से स्पष्ट कर दिया। सुखद है कि भारत-रूस संबंध को लेकर अब पश्चिमी देश किसी मुगालते में नहीं हैं। 2000 के दशक में भी रूस के साथ हमारा काफी अच्छा रिश्ता था, बावजूद इसके अमेरिका ने भारत के साथ ऐतिहासिक असैन्य परमाणु समझौता किया था। आज भी बेशक पश्चिमी देशों ने रूस पर तमाम तरह के प्रतिबंध लगाए, लेकिन साल 2023 में भारत ने 46.5 अरब डॉलर मूल्य के कच्चे तेल रूस से मंगाए, जबकि 2021 में यह आंकड़ा सिर्फ 2.5 अरब डॉलर था।

रूस के साथ ऊर्जा सुरक्षा ही नहीं, रक्षा के क्षेत्र में भी हमारी काफी नजदीकी है। रक्षा संबंध करीब 40 साल पुराना है। हम आज भी जितने रक्षा उत्पाद आयात करते हैं, उसका करीब 60-70 फीसदी हिस्सा रूस से ही आता है। ऐसे में, स्वाभाविक है कि इन उपकरणों के रख-रखाव, उन्नतिकरण आदि के लिए भी मॉस्को के साथ लगातार संबंधों को मजबूती दी जाए। फिर, जब कभी हमें जरूरत पड़ी है, रूस हमारी मदद के लिए आगे आया है।

इसी तरह, आपसी कारोबार भी दोनों देशों को काफी करीब ला चुका है। हां, भुगतान एक बड़ा मसला जरूर है, जिस पर इस बार अहम बातचीत हुई है। दरअसल, यूक्रेन युद्ध से पहले दोनों देशों के बीच डॉलर में ही लेन-देन होता था, लेकिन बाद में रूस पर प्रतिबंध और बदली वैश्विक परिस्थितियों के कारण कभी रूबल, तो कभी रुपये, तो कभी संयुक्त अरब अमीरात की मुद्रा दिहरम में व्यापार होने लगा। चूंकि मॉस्को पर लगा प्रतिबंध हाल-फिलहाल में खत्म होता नहीं दिख रहा, इसलिए यह बहुत आवश्यक है कि भुगतान की कोई स्थायी व्यवस्था बने।

ठीक इसी तरह की चुनौती रूसी संसाधनों को लेकर भी है। रूस चूंकि एक विशाल देश है, इसलिए उसके पास प्राकृतिक ऊर्जा, मिनरल आदि के अपार भंडार उपलब्ध हैं। ऐसे में, हमारे लिए यह जरूरी है कि अपने राजनय संबंधों का बेहतर इस्तेमाल करते हुए हम अपने हितों की पूर्ति करें। अभी वह बेशक पश्चिमी देशों के साथ उलझा हुआ है, लेकिन यह हमारे लिए एक मौका भी है। हमने पश्चिमी प्रतिबंधों को नजरअंदाज कर रूस के साथ अपने संबंधों को आगे बढ़ाकर अपनी मंशा स्पष्ट भी कर दी है।

प्रधानमंत्री मोदी की इस यात्रा में परोक्ष रूप से चीन पर भी बात हुई। यह स्पष्ट किया गया कि भारत और रूस के रिश्ते पर किसी तीसरे देश, खासतौर से चीन की तरफ से कोई आंच नहीं आनी चाहिए। चीन से हमें सामरिक तौर पर लगातार चुनौती मिलती रही है और वह पाकिस्तान को भी हरसंभव मदद करता रहता है। ऐसे में, मॉस्को से दशकों पुरानी दोस्ती के नाते यह जरूरी था कि हम उसे यह एहसास दिलाएं कि चीन के साथ भारत के रिश्ते तनावपूर्ण हैं, ताकि बतौर मित्र वह हमारी दिक्कतों को समझे और हमारी मदद करे।

वास्तव में, भारतीय प्रधानमंत्री की इस यात्रा के तीन पहलू थे। पहला, रूस के साथ रिश्ते बनाए रखना, साथ ही पश्चिमी देशों को स्पष्ट कर देना कि यह कोई राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के तहत नहीं की जा रही। भारतीय हितों की वकालत करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विश्व मानवता की बात करना इसी रणनीति का हिस्सा था। दूसरा पहलू है, इस द्विपक्षीय रिश्ते में कौन-कौन से नए क्षेत्र शामिल किए जा सकते हैं, ताकि यह संबंध एक नई ऊंचाई पर पहुंच सके। विज्ञान-प्रौद्योगिकी और ‘पीपुल-टु-पीपुल कॉन्टैक्ट’ यानी आम लोगों के स्तर पर आपसी संबंध को आगे बढ़ाने पर रजामंदी को इसी नजरिये से देखा जाना चाहिए। और तीसरा पहलू है, पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों की वजह से आने वाली दिक्कतों को दूर करना। भुगतान की टिकाऊ व्यवस्था पर जोर इसकी एक बानगी है।