09-10-2024 (Important News Clippings)
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Date: 09-10-24
Deep roots
Physics Nobel Prize acknowledges the diverse foundations of AI
Editorial
For an idea whose time has come, look no further than artificial neural networks (ANNs) and machine learning, the 2024 Nobel Prize in Physics seems to suggest. John J. Hopfield and Geoffrey E. Hinton have been honoured “for foundational discoveries and inventions that enable machine learning with artificial neural networks”. The foundations of ANNs are rooted in various branches of science, including statistical physics, neurobiology, and cognitive psychology, and artificial intelligence (AI) has become a household term today by drawing on such disparate insights. ANNs are networks of neurons (or processing centres) designed to operate like those in animal brains. In 1982, Hopfield, a towering figure in biological physics, introduced an ANN called the Hopfield network. Each neuron in this network is connected to all the others, and the flow and weight of information are not preferential to one direction. The neurons can process some input using Hebbian learning (“neurons that fire together, wire together”). The network as a whole was programmed to be analogous to a group of atoms, each with some magnetic energy. When ‘activated’, the ANN could receive, for instance, a noisy image and dynamically denoise it by minimising the analogous magnetic energy of the system. Similarly, the Boltzmann machine was an earlier model for a spin glass — a material in which roughly half of atom pairs have their quantum spins aligned while the other half have them anti-aligned. This disorder causes the material to be frustrated and minimise its energy through more configurations than if the disorder was absent. Alongside Terrence Sejnowski, Hinton popularised the use of Boltzmann machines for cognitive tasks, building on Hopfield’s work to enable them to classify data based on similarity or generate new patterns from old ones, again by having the ANN minimise the value of an energy function.
The ubiquity of AI owes much to the robust theoretical foundations laid by this year’s physics laureates and many others, drawing on mathematical, physical, and biological insights that few could have imagined would pave the way for AI. Herein lies a sting in the tail for India. Due to decades of low funding, inefficient governance, and inadequate attempts to reconcile the needs of science with bureaucratic processes, blue-sky research has often been a casualty of sudden and often transient bouts of consolidation and reform. Resource constraints may require researchers to conduct research as well as teach, guide, and administer. But as this year’s physics Nobel demonstrates, dismissing blue-sky research altogether is also to forfeit opportunities in technology that Indians may not even be aware of.
सूझबूझ और धैर्य से हम अपने पड़ोसियों से रिश्ते सुधार रहे हैं
मनोज जोशी
भारत अपनी पड़ोस नीति को मजबूत करने के लिए कड़ी मेहनत कर रहा है। रणनीतिक संयम और धैर्य से नई दिल्ली को सफलताएं मिल रही हैं। हम नेपाल के साथ अपने संबंधों को स्थिर करने में कामयाब रहे हैं, जबकि नेपाल का नेतृत्व बीजिंग समर्थक केपी शर्मा ओली कर रहे हैं। साथ ही हम यह सुनिश्चित करने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं कि बांग्लादेश के साथ हमारे संबंधों में गिरावट न आए। लेकिन सफलता का सबसे अच्छा इंडिकेटर मालदीव रहा है। मालदीव के राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज्जू नवंबर 2023 में सत्ता संभालने के बाद अपनी पहली यात्रा पर भारत आए हैं। निकट अतीत में वे ‘इंडिया-आउट’ का नारा बुलंद कर चुके थे। इसी जनवरी में, मुइज्जू ने लगभग 80 भारतीय सैन्यकर्मियों को हटाने का आदेश दिया था। मालदीव ने एक हाइड्रोग्राफिक सर्वेक्षण समझौते को भी रद्द कर दिया था, जिस पर मालदीव के जलक्षेत्र की मैपिंग में भारत की मदद के लिए हस्ताक्षर किए गए थे।
नई दिल्ली को नजरअंदाज करते हुए तुर्किये और चीन की यात्रा की थी, लेकिन जल्द ही उन्हें एहसास हो गया कि भारत के बिना उनका काम नहीं चल सकता। जून में वे प्रधानमंत्री मोदी के तीसरे कार्यकाल के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने वाले नेताओं में से एक थे। अगस्त में विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने मालदीव का दौरा किया और संबंधों को बेहतर बनाने में मदद की। मुइज्जू की मौजूदा यात्रा का मकसद मालदीव को आर्थिक संकट से उबारना है। सितंबर में, एसबीआई ने मालदीव सरकार के अनुरोध पर उनके ट्रेजरी बिलों के 5 करोड़ डॉलर के अपने सब्स्क्रिप्शन को एक और साल के लिए बढ़ा दिया था। सितंबर में मालदीव का विदेशी मुद्रा भंडार 44 करोड़ डॉलर था, जो 6 सप्ताह के आयात के लिए पर्याप्त था। लेकिन पिछले महीने मूडीज ने मालदीव की क्रेडिट रेटिंग को घटा दिया। मालदीव का सार्वजनिक कर्ज लगभग 8 अरब डॉलर का है, जिसमें भारत और चीन दोनों का लगभग 1.4 अरब डॉलर का कर्ज भी शामिल है। जहां भारत ने इस मुद्दे पर चर्चा करने में रुचि दिखाई, वहीं चीन आगे नहीं आया और उसने मालदीव को राहत नहीं दी है।
मालदीव की आर्थिक सेहत के लिए भारतीय पर्यटकों का फैक्टर भी महत्वपूर्ण है। पिछले साल के विवादों के कारण, पर्यटकों की संख्या में 50,000 की गिरावट आई, जिससे उसे 15 करोड़ डॉलर का नुकसान हुआ।
एक और महत्वपूर्ण घटनाक्रम विदेश मंत्री एस. जयशंकर की श्रीलंका यात्रा रही है। श्रीलंका ने हाल ही में जनता विमुक्ति पेरामुना (जेवीपी) के अनुरा कुमारा दिसानायके (एकेडी) को श्रीलंका के नौवें कार्यकारी राष्ट्रपति के रूप में चुना है। 1960 के दशक में स्थापित जेवीपी की विचारधारा मार्क्सवादी और सिंहली- राष्ट्रवादी है और उसने श्रीलंका में दो विद्रोहों का नेतृत्व किया है। 1994 के बाद से उसने हिंसा का त्याग कर रखा है। 2022 के आर्थिक संकट और अरागालया आंदोलन – जिसके कारण गोटबाया राजपक्षे को राष्ट्रपति पद से हटा दिया गया था- तक इसे एक छोटी पार्टी के रूप में देखा जाता रहा था।
भारत ने गोटबाया की जगह लेने वाली रानिल विक्रमसिंघे की सरकार का बढ़-चढ़कर सहयोग किया था। भारत के द्वारा श्रीलंका को दिए गए 4 अरब डॉलर के कर्ज के चलते ही वह आईएमएफ से 3 अरब डॉलर के पैकेज के लिए सौदेबाजी कर पाया।
लेकिन पिछले महीने श्रीलंका में हुए चुनावों में विक्रमसिंघे 20 प्रतिशत वोट भी हासिल नहीं कर पाए, हालांकि वे अपने देश की वित्तीय स्थिति को स्थिर करने में कामयाब रहे थे। श्रीलंका के मतदाताओं ने देश में बहुत जरूरी बदलाव लाने के लिए अल्पज्ञात एकेडी को चुना है। इसी साल फरवरी में, जब एकेडी विपक्षी विधायक थे, तब उन्हें जेवीपी प्रतिनिधिमंडल के साथ नई दिल्ली की यात्रा के लिए आमंत्रित किया गया था । यह पहली बार था, जब भारत द्वारा जेवीपी के किसी नेता को आमंत्रित किया गया था। उस समय तक यह स्पष्ट हो चुका था कि जेवीपी चुनाव में विजेता बन सकती है।
Date: 09-10-24
आर्थिक मजबूती प्राकृतिक संसाधनों पर भी आधारित है
अनिल जोशी
मानसून लगभग विदा हो चुका है। सर्दियों की दस्तक है। लेकिन इस बार हुई बेतहाशा बारिश ने न सिर्फ भारत बल्कि पूरी दुनिया को हैरान कर दिया है। इस बदलते मौसम को समझने के लिए हमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी विचार करना होगा। हम ये नहीं कह सकते कि ये मात्र एक असामान्य घटना है। वैज्ञानिक अनुमान लगा रहे हैं कि इस बार की सर्दी पहले से कहीं अधिक कठोर हो सकती है।
मौसम के यह बदलाव केवल गर्मी, बारिश और ठंड तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि इसका असर कृषि, जंगलों और समग्र पारिस्थितिकी पर भी पड़ेगा। सवाल यह उठता है कि हम इस चुनौती का सामना कैसे करें? वैसे हर देश अपने पर्यावरण के प्रति गंभीर होने का दावा करता है। चाहे वह नदियों के संरक्षण की बात हो या वनों के विस्तार की, सरकारें दावे तो करती हैं, लेकिन इन प्रयासों मे गंभीरता कितनी है, यह सवाल हमेशा बना रहता है। हम पारिस्थितिकी को कोई मूल्य नहीं देते, क्योंकि हमारा ध्यान केवल देश की आर्थिक स्थिति पर होता है।
हम गर्व करते हैं कि अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया या चीन की जीडीपी नीचे जा रही है, जबकि भारत की अर्थव्यवस्था मजबूत बनी हुई है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारी यह आर्थिक मजबूती हमारे प्राकृतिक संसाधनों पर भी आधारित है और इसलिए इनका बने रहना जरूरी है। नदी जंगल, मिट्टी इन सबका संरक्षण जरूरी है। लेकिन इन संसाधनों के प्रति हमारी जिम्मेदारी कितनी है, यह बड़ा प्रश्न है। आर्थिक विकास के साथ-साथ पर्यावरण की सुरक्षा भी जरूरी है। और ये तब ही संभव होगा जब इन संसाधनों का भी लेखा-जोखा रखा जाए ।
इस भाव से उत्तराखंड में एक नई पहल के रूप में ‘सकल पर्यावरण उत्पाद’ (जीईपी) को अपनाया गया है। हेस्को के वैज्ञानिकों ने इस सूचक को तैयार किया है, जिसे अंतरराष्ट्रीय मान्यता भी मिली है। इसका उद्देश्य यह है कि जैसे आर्थिक विकास को मापा जाता है, वैसे ही पर्यावरणीय संसाधनों जंगल, पानी, हवा, मिट्टी की गुणवत्ता और मात्रा को मापा जाए, खास तौर से उन प्रयत्नों को जो सरकार इनकी बेहतरी के लिए करती है। जीईपी का समीकरण भी जीडीपी की तरह ही है। यह बताता है कि एक वर्ष में कितने जंगल गुणवत्ता वाले बढ़े, पानी की कितनी मात्रा तथा स्वच्छता बढ़ी, हवा की गुणवत्ता कितनी सुधरी और मिट्टी को जैविक बनाने के लिए कितने प्रयास किए गए।
उत्तराखंड इस सूचक को अपनाने वाला पहला राज्य है और वहां की पारिस्थितिकी दर 0.9% निकली है। इसका मतलब पिछले वर्ष की तुलना में इन संसाधनों में उपरोक्त बढ़ोतरी हुई। हालांकि यह पिछले वर्षों की तुलना में सुधार की ओर इशारा करता है, लेकिन इसे और भी बेहतर बनाना जरूरी है। सरकार जब 6% से ऊपर की जीडीपी दर का दावा करती है, तो इसी तरह उन्हें यह भी देखना होगा कि पर्यावरण की सुरक्षा के लिए हमारी प्रगति क्या और इसकी अच्छी दर कैसे बने। सकल पर्यावरण उत्पाद (जीईपी) और जीडीपी के बीच तालमेल बैठाकर ही हम एक संतुलित और सतत विकास की दिशा में बढ़ सकते हैं।
Date: 09-10-24
साझा प्रयासों से मिटेगी गरीबी
अमित बैजनाथ गर्ग
हाल में प्रधानमंत्री ने संयुक्त राष्ट्र में अपने संबोधन में कहा कि हमारी सरकार के दस साल के कार्यकाल में करीब 25 करोड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर निकले हैं। उनके जीवन में सुधार आया है, मगर गरीबी और इसके कारणों को विस्तार से समझने की जरूरत है। उसके बाद ही गरीबी हटाने के उपायों को कारगर बनाया जा सकता है। भारत में गरीबी एक जटिल और बहुआयामी मुद्दा है, जो ऐतिहासिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक कारकों के संयोजन से प्रभावित है। वर्ष 2023-24 में भारतीय राज्यों की जीडीपी के अनुसार, महाराष्ट्र सबसे धनी राज्य और बिहार सबसे गरीब राज्य माना गया है।
नीति आयोग की नवीनतम रपट के अनुसार, पिछले नौ वर्षों में लगभग 24.82 करोड़ भारतीय बहुआयामी गरीबी से बाहर निकले हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश और राजस्थान में बहुआयामी गरीबी में सबसे बड़ी गिरावट दर्ज की गई, जो कि लगभग 13.88 करोड़ लोगों को गरीबी से निकालने का दावा करती है । रपट पिछले नौ वर्षों में बहुआयामी गरीबी में 17.89 फीसद की गिरावट की ओर इशारा करती है, क्योंकि इस स्थिति में रहने वाले लोगों की संख्या 2013-14 में 29.17 फीसद थी और 2022-23 में 11.28 फीसद ( लगभग 15.5 करोड़ भारतीय ) थी। वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआइ) गरीबी के स्तर और तीव्रता को मापने के लिए तीन व्यापक आयामों- स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन स्तर का उपयोग करती है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ने सौ से अधिक विकासशील देशों में गरीबी के स्तर को निर्धारित करने के लिए इस पद्धति का उपयोग किया है।
भारत ने अपने राष्ट्रीय एमपीआइ में स्वास्थ्य और जीवन स्तर के आयामों के तहत दो नए मानक- मातृ स्वास्थ्य और बैंक खाते जोड़े हैं। भारत में हर घर को इन बारह मानदंडों के आधार पर अंक दिया जाता है। अगर किसी घर का अभाव अंक 33 फीसद से अधिक है, तो उसे बहुआयामी गरीब के रूप में पहचाना जाता है। नीति आयोग की रपट बताती है कि भारत अपने सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) के लक्ष्य 1.2 को प्राप्त करने की संभावना रखता है, जिसका लक्ष्य 2030 तक बहुआयामी गरीबी को आधा करना है। रपट इस बात पर जोर देती है कि पोषण अभियान, उज्ज्वला योजना, स्वच्छ भारत अभियान और प्रधानमंत्री जन-धन योजना जैसे सरकारी कार्यक्रमों ने बहुआयामी गरीबी को कम करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।
वहीं फरवरी, 2024 में जारी भारतीय स्टेट बैंक के शोध के अनुसार, देश में गरीबी दर 2022-23 में 4.5-5 फीसद तक गिर गई । घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण के आंकड़ों के आधार पर एसबीआइ शोध ने इस गिरावट का श्रेय पिरामिड के निचले हिस्से के लिए शुरू किए गए सरकारी कार्यक्रमों को दिया है। घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण के आंकड़ों से पता चलता है कि ग्रामीण गरीबी 2011-12 में 25.7 फीसद से घटकर 7.2 फीसद हो गई और शहरी गरीबी एक दशक पहले से 4.6 फीसद कम हो गई है। एसबीआइ शोधकर्ताओं के अनुसार, नई गरीबी रेखा क्रमशः ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के लिए 1,622 रुपए और 1,929 रुपए थी। इन आंकड़ों की गणना सुरेश तेंदुलकर समिति की सिफारिशों के आधार पर की गई थी, जिन्होंने 2011-12 में गरीबी रेखा निर्धारित की थी । वर्ष 2023 की बहुआयामी गरीबी सूचकांक रपट के अनुसार, दुनिया के कुल गरीबों में एक तिहाई से अधिक दक्षिण एशिया में रहते हैं, जो लगभग 38.9 करोड़ हैं। भारत अत्यधिक गरीबी में लगभग 70 फीसद की वृद्धि के लिए जिम्मेदार है। विश्व बैंक अंतरराष्ट्रीय गरीबी रेखा के आधार पर गरीबी को परिभाषित करता है, जिसके अनुसार प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 2.15 डालर की दर से अत्यधिक गरीबी तय की जाती है, जबकि 3.65 डालर निम्न मध्यम आय श्रेणी में आता है तथा 6.85 डालर उच्च-मध्यम आय श्रेणी में वर्गीकृत किया जाता है। 3.65 डालर निर्धारित गरीबी रेखा पर विचार करते हुए भारत का योगदान वैश्विक गरीबी दर में मामूली वृद्धि के साथ 40 फीसद के बराबर है, जो 23.6 फीसद से बढ़कर 24.1 फीसद हो गई है।
भारत में ब्रिटिश आर्थिक नीति के कड़े आलोचक दादाभाई नौरोजी ने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के तहत भारत के वित्तीय शोषण को ‘ड्रेन थ्योरी’ के माध्यम से समझाया था कि, भारत में उत्पन्न आर्थिक अधिशेष ब्रिटेन भेज दिया गया, जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था दरिद्र हो गई। कई प्रसिद्ध अर्थशास्त्रियों और नेताओं ने देश में उच्च गरीबी दर के मूल कारणों के बारे में विस्तार से जानकारी दी है। अमर्त्य सेन ने भारत में गरीबी से निपटने तथा आर्थिक विकास को बनाए रखने के लिए सामाजिक असमानताओं को दूर करने तथा शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा में निवेश करने के महत्त्व पर जोर दिया है। विशेषज्ञों का मानना है कि भारतीय अर्थव्यवस्था प्राथमिक वस्तुओं के निर्यात पर बहुत अधिक निर्भर है, जो औपनिवेशिक आर्थिक संरचना की विरासत है । यह अर्थव्यवस्था को बाहरी बाजार के उतार-चढ़ाव के प्रति संवेदनशील बनाती है। वहीं सामाजिक असमानताएं, जो अक्सर जाति व्यवस्था या जातीय विभाजन जैसे ऐतिहासिक कारकों के चलते और बढ़ जाती हैं, भारत में लगातार गरीबी का कारण बनती हैं। भेदभाव के कारण हाशिये पर पड़े समूहों के लिए शिक्षा, रोजगार और अन्य अवसरों तक पहुंच सीमित होती है।
वहीं जनसंख्या में तेज वृद्धि के कारण उपलब्ध संसाधनों पर दबाव पड़ता है और सतत विकास लक्ष्य प्राप्त करना चुनौतीपूर्ण हो जाता है। इससे बेरोजगारी बढ़ती है और आवश्यक सेवाओं तक सीमित पहुंच होती है, जो भारत में उच्च गरीबी दर में योगदान देती है। कुछ विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि भारत में गरीबी बढ़ाने वाले कारणों में व्यापार असंतुलन और ऋण बोझ सहित वैश्विक आर्थिक गतिशीलता भी शामिल है। शक्तिशाली देशों द्वारा लागू की गई व्यापार की प्रतिकूल शर्तें और आर्थिक नीतियां स्थानीय विकास प्रयासों में बाधा डालती हैं। इससे देश की आर्थिक व्यवस्था प्रभावित होती है, जो गरीबी बढ़ाने में सहायक साबित होती है। भारत में गरीबी के कारणों में उच्च जनसंख्या घनत्व, कम साक्षरता दर, अपर्याप्त बुनियादी ढांचा, अप्रभावी शासन और सीमित औद्योगिक विकास भी शामिल हैं।
सरकार की ओर से गरीबी में सुधार का आकलन बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य और जीवन शैली जैसे मानदंडों के आधार पर किया गया है। इसमें बाल पोषण, मृत्यु दर, मातृ स्वास्थ्य, स्कूली शिक्षा, स्कूल में उपस्थिति, खाना पकाने का ईंधन, स्वच्छता, पीने का पानी, बिजली, घर, संपत्ति और बैंक खाता जैसे तथ्य भी शामिल किए गए हैं। निश्चित तौर पर हर सरकार में गरीबी हटाने के लिए काम किया जाता रहा है। पर इन प्रयासों को पूरी तरह सफल नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अभी बहुत बड़े स्तर पर काम करने की जरूरत है। इसके लिए सरकार के साथ सामाजिक संस्थाएं, एनजीओ और यहां तक कि आम आदमी को भी अपने स्तर पर गरीबी हटाने की दिशा में काम करने की जरूरत है। ऐसा करने के बाद ही हम देश से गरीबी को पूरी तरह खत्म और विकसित भारत के लक्ष्य को हासिल कर सकेंगे।