09-06-2018 (Important News Clippings)
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Date:09-06-18
Education remains a vital challenge
ET Editorials
Three Indian higher education institutes are among the top 250 of the Quacquarelli Symonds (QS) World University Rankings while another five make it to the list of top 500. Predictably it is the IITs and the IISc, Bangalore that have made the cut. At the same time, industry estimates some 94% of engineering school graduates are unemployable. A young girl takes her life because she has scored ‘only’ 74% in the school leaving board examinations. School learning outcome surveys find that sizeable numbers of Class 8 students are unable to read and solve math problems at the Class 5 level. All these point to a crisis in the Indian education system. This is a crisis that has been in the making and festering over the last seven decades.
Through the ages, education has been a crucial component for growth and prosperity of nations. It is even more important in today’s knowledge economy. Yet, the Indian education system has not been able to fully align itself to this reality. Examination scores that rate students’ ability to recall information from memory rather than their comprehension and ability to apply their knowledge continue to be the most important marker of performance. With increased mechanisation and developments like AI, reproducing information that is already available is not enough. If India is serious about sustained growth, and a larger global footprint, it must think beyond simply enabling graduates to go abroad.
It must build an education system that fosters innovation, promotes creativity, and, most of all, encourages analytical thinking and questioning. Global resources that can be accessed using ubiquitous mobile broadband must be tapped for this. Turning around a system which privileges rote learning and test scores is not an easy task. The effort must begin with the schools.
Education at the school level must focus on students’ ability to understand and apply concepts. Improved teacher training, curricula reform and more freedom to educators to experiment are crucial if India is to address the crisis in its education system. Improved learning at the school level will lead to more innovation and research in higher education institutions.
Date:09-06-18
Move on from RTI, to duty to publish
ET Editorials
Right to Information (RTI) activists have reportedly sought the Supreme Court’s mediation to direct the government to swiftly appoint information commissioners. Their public interest litigation seeks a directive to initiate the appointment process four months before a post falls vacant. This makes eminent sense. As the retirement dates of information commissioners are pre-determined, succession planning must be done well in advance to prevent a pile up of RTI appeals. Reportedly, 23,500 appeals are pending before the CIC.
The backlog in states, including Maharashtra, Andhra Pradesh, Kerala and Karnataka, is also huge. This is unacceptable and defeats the goal of the RTI Act that is meant to empower citizens and promote transparency in the working of the government.
Citizens should have the right to know what the government proposes to do about something of vital interest to them, even without asking a query.This requires the government to steadily move on to a new paradigm, duty to publish. It must put in the public domain information proactively. The RTI Act mandates public authorities to provide “as much information suo-motu to the public at regular intervals”. Implementing this is no rocket science.
The government should hold back only state secrets, information that could harm the sovereignty and integrity of India, the security of the State or friendly relations with foreign States, and actively publish the rest on its website. The CIC can determine what should not be published. It is eminently feasible for every department to apply this norm to the information it generates, and upload on its website all the information that can be made public. This will reduce both the number of RTI appeals, and the personnel needed to respond to them.
Date:09-06-18
स्वामित्व या रोजगार?
टी. एन. नाइनन
नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार का कहना है कि जब तक कोई कंपनी देश की आर्थिक गतिविधियों में योगदान दे रही है और यहां रोजगार तैयार कर रही है तब तक उन्हें इस बात की परवाह नहीं है कि उस कंपनी का मालिक कौन है। राष्ट्रवादी नजरिया रखने वाले संगठन स्वदेशी जागरण मंच ने तत्काल कुमार की बात को चुनौती दी। यह एक अहम मसला है जिसे आगे और खंगाला जाना जरूरी है। दो उदाहरणों पर विचार करते हैं। जगुआर लैंड रोवर (जेएलआर) और मारुति सुजूकी। टाटा ने इनमें से पहली को 2.5 अरब डॉलर की रकम चुका कर खरीदा था।
कंपनी की फैक्टरियां चीन और ब्रिटेन में हैं। इसके शोध एवं विकास पर ढेर सारा बजट ब्रिटेन में व्यय किया जाता है। कंपनी पूरे साल में करीब 5 लाख की तादाद में इसके महंगे वाहन बेचती है। इसे खरीदने वाले भारतीयों की तादाद बेहद कम है। बिक्री, रोजगार, तकनीक, हर दृष्टिï से इस कंपनी में कुछ भी भारतीय नहीं है। परंतु मालिकाना होने के अपने फायदे हैं। टाटा ने कंपनी को खरीदने में जितनी राशि व्यय की थी उसका 80 फीसदी तो उसे सालाना कर पूर्व लाभ के रूप में हासिल होता है। जाहिर है यह एक सफल निवेश साबित हुआ। मारुति सुजूकी की कहानी इसके एकदम उलट है। कंपनी में जापान की सुजूकी मोटर्स की बहुलांश हिस्सेदारी है। कंपनी सालाना 17 लाख कारों का निर्माण करती है। ये कारें भारत में बिकती हैं या निर्यात कर दी जाती हैं। कंपनी के लगभग सारे कर्मचारी भारतीय हैं। मारुति कर के रूप में भारी भरकम राशि चुकाती है और अपने वेंडरों और सर्विस स्टेशनों की बदौलत ढेर सारे रोजगार भी तैयार करती है। निश्चित तौर पर कंपनी की कमाई करीब उतनी ही है जितनी कि सुजूकी जापानी बाजार में कमाती है।
सुजूकी के लिए यह सोने की खान साबित हुई, ठीक वैसे ही जैसे जेएलआर टाटा के लिए। मारुति के भारतीय निवेशकों ने भी भारी कमाई की। कंपनी के शेयर भी बाजार में सबसे बढिय़ा प्रदर्शन करने वाले शेयरों में हैं। सवाल यह है कि देश के लिए किसकी तवज्जो ज्यादा होनी चाहिए-जेएलआर की या मारुति की? मेरे ख्याल से तो मारुति देश को अधिक फायदा पहुंचाने वाली कंपनी है। क्या हम हजारों रोजगार, हजारों करोड़ रुपये के कर राजस्व, वाहन कलपुर्जा उद्योग के विकास और कार निर्यात से हासिल विदेशी मुद्रा के बदले सुजूकी की प्राप्तियों की मारुति से अदलाबदली कर सकते हैं? अगर हम ऐसा करें तो शायद दुनिया के सबसे बड़े मूर्ख कहलाएंगे। इसी प्रकार अगर जेएलआर भारत में होती तो हम बेहतर स्थिति में होते क्योंकि फैक्टरियां यहां होतीं और हम भारी तादाद में चीन तथा अन्य देशों को कार निर्यात करते। इसके अलावा देश में ढेर सारे रोजगार और प्रौद्योगिकी विकास होता। इन सबके बदले हम वह मुनाफा छोड़ देते जो टाटा कंपनी के मालिकाने से हासिल करती? जाहिर है इसमें भी कोई बुद्घिमानी नहीं होती क्योंकि इस पूरे समीकरण में स्वामित्व का कोई महत्त्व ही नहीं।
जाहिर है राजीव कुमार ने एकदम सही बात कही। परंतु उन्हें यह जानना चाहिए कि यह पूरी कहानी नहीं है। हमें फ्लिपकार्ट पर भी विचार करना चाहिए जिसने कुछ वर्ष पहले अपना केंद्र भारत से हटाकर सिंगापुर कर लिया था क्योंकि कंपनी को लगा कि खुदरा कारोबार को लेकर भारत में नियम कायदे सख्त हैं। सिंगापुर ने कम दर की पेशकश की, वहां पैसे तक पहुंच आसान थी और अन्य लाभ भी थे। परिणामस्वरूप पिछले महीने जब वॉलमार्ट ने कंपनी को खरीदा तो 16 अरब डॉलर के इस निवेश में भारत के लिए कुछ खास नहीं था। हालांकि यह निवेश भारतीय बाजार के लिए किया गया। इस स्टार्टअप ने किसी अन्य की तुलना में अधिक अंशधारक मूल्य तैयार किया लेकिन वह भारतीय नहीं रह सकी और उसका अधिकांश तैयार मूल्य विदेशियों के खाते में गया। अगर देश में फ्लिपकार्ट जैसी कंपनी के लिए कारोबारी हालात बेहतर होते तो क्या अच्छा नहीं होता?
मंच तो एयर इंडिया की बिक्री के भी खिलाफ है। पहला सवाल तो यही है कि एयर इंडिया का देश के लिए क्या मूल्य है? यह विदेशों में बने विमान उड़ाती है, अधिकांशत: आयातित ईंधन इस्तेमाल करती है, उसकी कोई घरेलू मूल्य संबद्घता नहीं। परिचालन की बात करें तो फाइनैंसिंग की अपनी लागत है और तेल कीमतों में उतार-चढ़ाव बना रहता है। इसका कोई खास भविष्य नहीं है। कम से कम सरकारी स्वामित्व में तो नहीं है। अगर उसे अधिक उदार शर्तों के साथ बेच दिया जाए तो यह करदाताओं के लिए बेहतर होगा। यह भी हो सकता है कि नया मालिक उसकी तकदीर पलट दे। सरकार को मंच की अनदेखी करते हुए इस दिशा में दोबारा प्रयास करना चाहिए।
Date:08-06-18
समझौता और अंदेशे
संपादकीय
रोहिंग्या मुसलमानों की वतन-वापसी के लिए संयुक्त राष्ट्र और म्यांमा के बीच समझौता हो गया है। इसे संयुक्त राष्ट्र की बड़ी उपलब्धि कहा जा सकता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि हाल तक म्यांमा के हालात को लेकर यह वैश्विक निकाय खुद संतुष्ट नजर नहीं आ रहा था। दूसरी तरफ, म्यांमा इस बात पर अड़ा हुआ था कि वह किसी भी सूरत में रोहिंग्या मुसलमानों को देश में नहीं घुसने देगा। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय दबाव बनाते हुए म्यांमा को रोहिंग्याओं के मसले पर झुका लेना संयुक्त राष्ट्र की बड़ी कामयाबी है। इस समझौते से यह उम्मीद बनती है कि रोंहिग्या मुसलमानों के म्यांमा लौट पाने का रास्ता साफ होगा। हालांकि अभी यह दावा करना जल्दबाजी होगी कि इस समझौते से रोंहिग्या समस्या का समाधान हो जाएगा। संयुक्त राष्ट्र और म्यांमा में जो समझौता हुआ है, उसमें कहा गया है कि रोहिंग्या शरणार्थियों की स्वैच्छिक, सुरक्षित और सम्मानजनक वापसी के लिए परिस्थितियां बनाई जाएं और इसके लिए म्यांमा एक खाका तैयार करे कि कैसे वह इस पर अमल करेगा।
म्यांमा बौद्ध बहुल देश है। रोहिंग्या मुसलमानों की आबादी करीब दस लाख है और ये रखाइन प्रांत में रहते आए हैं। इन लोगों को बांग्लादेश से भाग कर आए समुदाय के रूप में देखा जाता है। इन्हें म्यांमा की नागरिकता भी हासिल नहीं है। देश में कई बार बौद्धों और रोहिंग्या लोगों के बीच टकराव और हिंसा की गंभीर घटनाएं हुई हैं। लेकिन पिछले छह साल के दौरान हालात ज्यादा बिगड़ गए। पिछले पांच साल के दौरान करीब सात लाख रोहिंग्या म्यांमा छोड़ चुके हैं और शरणार्थी के रूप में भटकने को मजबूर हैं। म्यांमा सेना ने कई बार रखाइन में दमनात्मक कार्रवाई का अभियान चलाया, बड़ी संख्या में घर फूंक डाले, निर्दोष लोगों को मौत के घाट उतार दिया और महिलाओं का यौन उत्पीड़न किया। बड़ी संख्या में रोहिंग्या बांग्लादेश, भारत और मलेशिया में शरणार्थी के रूप में रह रहे हैं। म्यांमा की फौज ने इस समुदाय के खिलाफ जो बेहद दमनकारी अभियान चलाया, उसे संयुक्त राष्ट्र ने ‘जातीय सफाया’ करार दिया था।
इसमें दो राय नहीं कि रोहिंग्या मुसलमानों की म्यांमा-वापसी और उनका सुरक्षित पुनर्वास सुनिश्चित करना संयुक्त राष्ट्र के लिए एक कठिन और जोखिमभरा कार्य साबित होगा। म्यांमा ने संयुक्त राष्ट्र के साथ जो समझौता किया है, वह अंतरराष्ट्रीय बिरादरी और सुरक्षा परिषद के दबाव की देन है। हकीकत यह है कि म्यांमा किसी भी सूरत में रोहिंग्या मुसलमानों की वापसी नहीं चाहता। म्यांमा के सेना प्रमुख भी साफ कर चुके हैं कि देश लौटने वाले रोहिंग्या तभी तक सुरक्षित रहेंगे जब तक वे उनके लिए बनाए गए निर्धारित क्षेत्रों में रहेंगे। यानी रोहिंग्याओं के लिए अब अलग से बस्तियां होंगी। रोहिंग्याओं के पुनर्वास को लेकर म्यांमा सेना प्रमुख का बयान एक तरह का खौफ ही पैदा करता है। हैरानी की बात तो यह है कि रोहिंग्या समस्या को लेकर म्यांमा की कथित लोकतांत्रिक सरकार ने भी कोई तार्किक और सद्भावपूर्ण कदम उठाने में दिलचस्पी नहीं दिखाई। देश में लोकतंत्र बहाली के लिए बरसों आंदोलन चलाने वाली आंग सान सू की की सरकार ने न सिर्फ इस मुसलिम समुदाय को बल्कि वैश्विक समुदाय को भी हैरान किया। जाहिर है सरकार सेना के आगे झुकी है। ऐसे में सवाल उठता है कि अगर रोहिंग्या लौटने भी लगे तो उनकी सुरक्षा की गांरटी कौन लेगा?
Date:08-06-18
शहर एक छलना है
मनीषा सिंह
माना जाता है कि तरक्की के पर्याय माने वाले शहर अमूमन तसल्ली भी देते हैं। यहां आकर लोगों को लगता है कि जिस व्यवस्थित जीवन, विकास और खुशी की तलाश उन्होंने अपने जीवन में की है, वह यहां पूरी हो रही है। रोजगार को इसका एक आधार मानें तो मर्ज समाज को हो सकता है कि शहरों से वह सब कुछ मिला हो, जिसकी चाहत वे करते हैं। पर कॅरियर तो अब महिलाओं के लिए भी जरूरी है। ऐसे में सोचा जा सकता है कि महिलाओं को भी शहरी जीवन एक सार्थकता देता है, लेकिन अफसोस कि ऐसा नहीं है। इसकी पुष्टि हाल में कराए गए एक सर्वेक्षण से हुई।
महिलाओं के मुद्दों को प्रकाश में लाने वाली संस्था-‘‘मॉमस्प्रेसो’ द्वारा दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरू और कोलकाता की 1200 महिलाओं पर कराए गए सर्वेक्षण में घरेलू (होममेकर) और कामकाजी, दोनों तरह की महिलाओं ने शहरी जीवन पर नकारात्मक टिप्पणी की है। उनसे पूछा गया था कि क्या विकसित शहरों की जिंदगी उन्हें किसी तरह की खुशी देती है? करीब 70 फीसद महिलाओं ने कहा कि शहर उन्हें खुश रखने में नाकाम हो गए हैं। शहरी जीवन से इस नाखुशी और नाउम्मीदी की कुछ मौलिक वजहें हैं। इनमें एक कारण यह है कि शहरी महिलाओं से घर और दफ्तर, दोनों मोर्चो पर उनसे बेहद ऊंची अपेक्षाएं लगाने के बावजूद उनमें सफलता का श्रेय महिलाओं को नहीं दिया जाता। अक्सर इस बारे में कहा जाता है कि यह तो उनसे न्यूनतम अपेक्षित है क्योंकि इसके बिना शहरी जीवन से तालमेल बिठाना मुमकिन नहीं है। बच्चों को स्कूल बस तक छोड़ना, पति के लिए नाश्ते-लंच की व्यवस्था करना, राशन लाना, बैंक-बिजली के बिल आदि काम निपटाना-अब ऐसे कई सारे काम शहरी महिलाओं के जिम्मे आ पड़े हैं और एकल परिवारों में प्राय: इनमें कोई मदद उन्हें नहीं मिलती है।
महिलाओं की तकलीफ तब ज्यादा बढ़ जाती है, जब उन्हें ये काम निपटाने के बाद भी सराहना नहीं मिलती। सर्वेक्षण में शामिल शहरी महिलाओं ने अपनी नाखुशी की दूसरी बड़ी वजह यह बताई है कि उनसे बेहद ऊंची या अवास्तविक उम्मीदें लगाई जाती हैं और जब वे इसमें नाकाम होती हैं, तो उन्हें कोसा जाता है। जैसे इंटरनेट से कई सारे काम निपटाना या अंग्रेजी बोलचाल में प्रवीण होना। गांव-कस्बों से ब्याह कर शहरों में आई महिलाओं का वास्ता जब ऐसी चीजों से पड़ता है, जिससे उनका पहले कभी कोई लेना-देना नहीं रहा, तो अक्सर वे असफल होती हैं और इसके लिए खुद को कोसती हैं। असल में समस्या एक ही जिंदगी में दोहरी-तिहरी जिंदगियां जीने और उसमें खुद को छद्म रूप से कामयाब करने की कोशिशों से उठ खड़ी हुई है। वैसे तो पूरी दुनिया में ही एक स्त्री का जीवन ऐसे बदलावों से गुजरता है। उनका पहला जीवन मायके से जुड़ा होता है, जबकि विवाह के बाद का जीवन ससुराल से। ऐसे में उनके लिए जीवन की शत्रे और कसौटियां बदल जाती हैं। असल में महिलाओं को शहरों में एक तरह के सांस्कृतिक शून्य का भी सामना करना पड़ता है। इसका संकेत दो वर्ष पूर्व 2016 में अकादमिक पत्रिका ‘‘इंटरनेशनल क्रिमिनल जस्टिस रिव्यू’ में छपे एक अध्ययन में किया गया था, जिसके मुताबिक भारत के शहरों में पुरानी परंपरागत संस्कृति के ढांचे टूट रहे हैं और आधुनिक शहरी शिष्टाचार सिर्फ महिलाओं के मामले में नहीं, किसी भी मामले में आम तौर पर नदारद है। इस वजह से ज्यादातर शहर महिलाओं के नजरिये से आक्रामक और असुरक्षित बन गए हैं।
अन्य विकासशील देशों की तरह भारत में भी बड़ी तादाद में कामकाजी महिलाएं हैं। ऐसे में परंपरागत पुरु ष प्रधान समाज में एक सांस्कृतिक बदलाव हो रहा है, जिसके लिए बहुत से पुरु ष तैयार नहीं हैं और यह महिलाओं के प्रति उनके व्यवहार में आक्रामकता के रूप में प्रकट होता है। साथ ही शहरों में बड़े पैमाने पर लोग आकर बस रहे हैं, जिनसे शहरों की संरचना लगातार अस्थिर हो रही है। एक मायने में शहर जड़ों से उखड़े हुए ऐसे लोगों की शरणस्थली बन रहे हैं, जो शहरी संस्कृति में अपनी जगह नहीं बना पा रहे हैं। इस तरह भारतीय शहर अनेक संस्कृतियों के टकराव की जगह बन गए हैं, जहां घोर सामंती संस्कृति से लेकर अत्याधुनिक पश्चिमी संस्कृति तक, सब मौजूद हैं। इन संस्कृतियों के बीच टकराव अक्सर हिंसक रूप धारण कर लेता है। परंपरागत पुरु ष प्रधान संस्कृति में पले-बढ़े ज्यादातर शहरी पुरु ष यह मानते हैं कि महिलाओं की जगह सिर्फ घर के अंदर है और वे घर से बाहर महिलाओं की उपस्थिति के प्रति सहज नहीं हो पाते। शहरी महिलाओं को लेकर पैदा हो रही नई किस्म की इन सामाजिक-सांस्कृतिक समस्याओं का हल सुधार के प्रयासों और आंदोलनों में है। लेकिन विडंबना है कि शहरी समाज में ऐसी कोशिशें सिरे से गायब हैं।
Date:08-06-18
Green Good Deed For The Day
Protecting the environment should not be the government’s business alone
C K Mishra , [The writer Environment Secretary, Government of India.]
India has been attracting adverse comments on issues related to the environment — for valid as well as wrong reasons. The country has received bad press for its failure to check air pollution. It has also been said that environmental degradation costs India $80 billion per year or roughly 5.7 per cent of its economy. Disadvantaged groups are more vulnerable to climate change.
India has a healthy tradition of environment protection. The country has committed to using 175 GW of renewable energy by 2022. However, India has development imperatives. While the sustainable development path chosen by the country shows that economic growth and environment protection can go hand-in-hand, the world also needs to pay heed to Prime Minister Narendra Modi’s call for “climate justice”.
India’s Nationally Determined Contribution (NDC), finalised before the Paris Climate Agreement, aims to reduce the emissions intensity of its GDP by 33 to 35 per cent by 2030. India also aims to use 40 per cent of its cumulative installed electricity capacity from non-fossil fuel based energy resources by 2030. The country has committed to an additional carbon sink of 2.5-3 billion tonnes of carbon dioxide equivalent. According to several international evaluations, India is on course to achieving the pre-2020 goal of reducing the emission intensity of its GDP by 20 to 25 per cent over 2005 levels.
However, building on the gains of the past few years will require a concerted effort from the government and civil society. Governments may lay down norms but policing and penalising people cannot be the basis of a robust model of environmental protection. Protecting the environment should not be the government’s business alone.
The need of the hour is not just for people to act responsibly but also to take responsibility for others, report misdemeanours not just of individuals but also of institutions and corporates. In other words, the environmental credo of the country should be: “Do your own green good deeds and ensure others do that as well.” Take, for example, Delhi’s air pollution. Dust and vehicular emissions are among the major causes for the foul air over the city. These can only be controlled by a combined effort of civic authorities, resident welfare associations, individual citizens and the government machinery.
This is not to say that the government has no role in mitigating pollution. The environment ministry has taken up air pollution on mission mode. In January, the government notified amendments to the Environment (Protection) Rules 1986 making it mandatory for construction agencies to take dust mitigation measures. The government has written to major construction agencies like DMRC, NBCC and NHAI to comply with these rules. The amendments lay down: “No building or infrastructure project requiring environmental clearance shall be implemented without an approved Environmental Management Plan, inclusive of dust mitigation measures.” The rules are applicable in all cities where the PM 10 and PM 2.5 levels exceed the limits set in the National Ambient Air Quality standards. The annual PM 10 limit is 60 micrograms per metre cube. For PM 2.5, the standard is 40 micrograms per metre cube. As I write this article, work on 25 construction sites faces closure. Several government schemes, including the Pradhan Mantri Ujjawala Yojana, will also help to improve the country’s air quality.
The Sustainable Development Goals talk of responsible consumption and production. They also underline the need for urgent action to combat climate change. That responsibility and urgency has to be shared. Tough actions means that some will suffer — but the end justifies the means. The end here is the greater common good. The bottom line is that we are in it together.