09-03-2020 (Important News Clippings)

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09 Mar 2020
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Date:09-03-20

No improvement

Bailout of Yes Bank reflects all that is wrong with the financial sector and its supervision

TOI Editorials

The bailout last week of Yes Bank by the State Bank of India is the largest of its kind in recent times. For all practical purposes, it is an indirect use of public resources to bail out a failed private bank. It was however unavoidable; the only way to preserve the integrity of the financial system and insulate a fragile economy from more damage. Yes Bank has an asset base of over Rs 3 lakh crore, of which over Rs 2 lakh crore are funded by deposits. It is too big to fail.

Last week’s events are not a big surprise because for about two years it was evident that the bank was in trouble. It was pulled up by RBI for understating bad loans and things came to such a pass that in 2018 the central bank ensured the bank’s founder and former CEO Rana Kapoor had to leave. This was followed by the governing board accommodating a nominee of RBI. The bank’s problems were well-documented. The central bank’s anxiety and the need to keep a closer watch were symptoms that Yes Bank’s accounts did not reflect reality; it reported a net profit in July-September quarter of 2019-20.

Given this context, RBI’s decision to impose a temporary moratorium of Rs 50,000 on withdrawals is hard to defend. The moratorium was, according to RBI, on account of a rapidly deteriorating financial position and the absence of a credible plan for capital infusion. RBI could not have been unaware of this situation for a while. Yet, a blunt instrument which hurts deposit holders has been used. On the positive side, a reconstruction plan was quickly put together to allow SBI to hold up to 49% stake in the bank, with an assurance it will not go below 26% for three years. This should lead to an immediate infusion of Rs 2,450 crore.

The Yes Bank episode drives home the point that India’s financial sector is fragile. A part of the problem has been poor supervisory performance of RBI and an abdication of responsibility by government as the majority shareholder in the public sector banking system. The outcome is that the taxpayer has been repeatedly burdened by bailouts. There is scant evidence that these bailouts are accompanied by governance reforms or an improvement in RBI’s regulatory and supervisory skills. Unless these areas receive urgent attention, it is unlikely India’s financial sector will improve its record on capital allocation.


Date:09-03-20

Make women’s day count, for real

ET Editorials

March 8, celebrated as International Women’s Day, commemorates the struggles and advances made by women in society. In India, as in the rest of the world, women’s rights remain a work in progress. The most recent win for women in India was the Supreme Court’s decision to allow women to serve fully in the armed forces. However, skewed sex ratios, particularly in the 0-5 year age cohort, even in socially progressive states such as Kerala, suggest that women in India face far tougher odds than discrimination in the armed forces.

The persistent demand of women for security in public places, even in the national capital, offers telling commentary on the status of women. The ten percentage point decline in women’s labour force participation rate over the last 15 years is on account, only in part, of more girls staying back in education. The proportion of girls not in employment, education or training is around four times as that for boys. The litany can go on and on. But the reality is that there is also progress, substantive and real. Total fertility rate has been coming down ever closer to the replacement level of 2.1children, on average, per woman. Women’s life expectancy and literacy rates have steadily gone up. Maternal mortality rate has fallen sharply. Affordable homes are registered with women as owner or co-owner. Among the upper strata of society, work and entrepreneurship are the norm rather than the exception for women, although most come up against a glass ceiling near the top.

Welcome legislative changes such as abolition of instant divorce among Muslim women have been followed by women placing themselves at the forefront of assertive political protest as well. Which is all to the good, as, in history, women have advanced only through struggle, often militant.


Date:09-03-20

राष्ट्र शक्ति का अभिन्न अंग है स्त्री शक्ति

राजनाथ सिंह, (लेखक रक्षा मंत्री हैं)

देश-दुनिया में महिला दिवस से जुड़े तमाम आयोजनों की धूम के दौर में महिला सशक्तीकरण की चर्चा स्वाभाविक है। वैसे हमारे देश की संस्कृति में सदियों से महिला सशक्तीकरण समाया हुआ है। समकालीन संदर्भों में इसका आशय सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सुरक्षा प्रतिष्ठान में महिलाओं की स्थिति में सुधार से है। इसके लिए आवश्यक होगा कि महिलाओं के लिए नए अवसर सृजित किए जाएं ताकि वे समाज में अपनी और प्रभावी भूमिका निभा सकें। इसके लिए महिला सशक्तीकरण का अनुकूल परिवेश बनाना हम सभी का साझा लक्ष्य होना चाहिए। इसका नतीजा उस माहौल के रूप में निकलना चाहिए जहां महिलाएं किसी भी तरह के कामकाज में स्वयं को सुरक्षित महसूस करें। महिलाओं को परिवार एवं समाज में पुरुषों के समकक्ष भूमिकाएं निभानी चाहिए ताकि किसी भी प्रकार के भेदभाव या अभाव का कोई प्रश्न ही न उठे।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने महिला हितों को व्यापक दृष्टिकोण से देखते हुए कई पहल की हैं। महिला सशक्तीकरण को प्राथमिकता देते हुए मोदी सरकार ने महिलाओं को पुरुषों के बराबर अवसर प्रदान करने का प्रयास किया है। हमारी सरकार के लिए महिला सशक्तीकरण महज एक नारा न होकर, सुरक्षा के पांच पहलुओं पर आधारित एक व्यापक मिशन है। ये पांच पहलू हैं-मां एवं शिशु की स्वास्थ्य सुरक्षा, सामाजिक सुरक्षा, वित्तीय सुरक्षा, शैक्षणिक एवं वित्तीय कार्यक्रमों के माध्यम से भविष्य की सुरक्षा और अंत में महिलाओं की सलामती।

जहां तक सुरक्षा एवं संरक्षा की बात है तो यह परंपरागत रूप से पुरुषों के वर्चस्व वाला क्षेत्र माना जाता है, परंतु हमारी सरकार इस धारणा को बदलने की दिशा में प्रतिबद्ध है। केंद्रीय गृहमंत्री रहते हुए मैंने पुलिस एवं अर्धसैनिक बलों में महिलाओं की संख्या बढ़ाने के प्रयास किए। गृह मंत्रालय ने सभी राज्य सरकारों को पुलिस में 33 प्रतिशत स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित करने का सुझाव दिया था। सरकारी दृष्टिकोण के अनुरूप रक्षा मंत्रालय ने भी विभिन्न स्तरों पर महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए कई कदम उठाए हैं।

तमाम सक्षम महिला अधिकारियों ने अपने पराक्रम से उन लोगों की धारणाओं को तोड़ा है जो शायद यह सवाल उठाते हों कि सैन्य बलों में भला वे क्या भूमिका निभा सकती हैं। सैन्य बलों में महिला अधिकारी बीते 80 वर्षों से सेवाएं दे रही हैं। उन्होंने पूरी क्षमताओं और उत्कृष्टता के साथ काम किया है। राष्ट्रीय सुरक्षा में महिलाओं की भूमिका दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। आज महिलाएं रक्षा उत्पादन इकाइयों, रक्षा अनुसंधान के साथ ही सैन्य बलों में अपना लोहा मनवा रही हैं।

सैन्य बलों में महिला सशक्तीकरण बीते पांच वर्षों में हमारी सरकार की प्रमुख प्राथमिकताओं में से एक रहा है और इस दौरान कई प्रवर्तनकारी पहल भी की गई हैं। वर्ष 2019 में सेनाकर्मियों में महिलाओं की हिस्सेदारी 3.89 प्रतिशत, वायुसेनाकर्मियों में 13.28 प्रतिशत और नौसेनाकर्मियों में 6.7 प्रतिशत हिस्सेदारी रही। वर्ष 2016 से पहले भारतीय सुरक्षा बलों में महिलाओं की भागीदारी महज 2.5 प्रतिशत थी।

भारतीय सेना के मिलिट्री पुलिस दस्ते में महिलाओं को सैनिक के रूप में भर्ती से जुड़े प्रस्ताव पर सरकार ने पिछले वर्ष ही मुहर लगाई है जिसमें कुल 1,700 महिला सैन्यकर्मियों की भर्ती की जाएगी। एसएससी के तहत महिला अधिकारियों के सेवाकाल का दायरा दस वर्ष से बढ़ाकर 14 वर्ष करने से भी सेना में महिलाओं की पदोन्नति की बढ़ी संभावनाओं से उनकी भागीदारी बढ़ेगी।

महिला दिवस के अवसर पर कुछ मिसाल बनी अधिकारियों के योगदान का स्मरण भी आवश्यक है जिन्होंने साबित किया कि जब देश की सुरक्षा की बात आए तो महिलाएं किसी से कमतर नहीं। कम ही लोग जानते हैं कि बालाकोट एयर स्ट्राइक में स्क्वाड्रन लीडर मिंटी अग्रवाल फाइटर कंट्रोलर की भूमिका में थीं। दुश्मन को कड़ा सबक सिखाने वाले इस अभियान में अद्भुत प्रदर्शन के लिए उन्हें युद्ध सेवा पदक प्रदान किया गया। पिछले साल मई में फ्लाइट लेफ्टिनेंट भावना कंठ पहली महिला पायलट बनीं जिन्होंने लड़ाकू विमान में कॉम्बैट मिशन के लिए क्वालिफाई किया।

इस साल गणतंत्र दिवस समारोह पर परेड की कमान संभालकर कैप्टन तान्या शेरगिल ने इतिहास रचा। हमारी सरकार ने विभिन्न सैनिक स्कूलों में लड़कियों के लिए अवसर बढ़ाए हैं। एनसीसी में बालिका कैडेट्स की संख्या में भी भारी बढ़ोतरी हुई है। वर्ष 2019 में कुल बालिका कैडेट्स की संख्या 4.54 लाख रही। इस साल से 33,000 अतिरिक्त बालिका कैडेट्स को स्ववित्त योजना के तहत सीनियर विंग में भेजा जाएगा। वहीं इसी साल से पहली बार ऐसा होगा कि दस हजार बालिका कैडेट्स तीनों सैन्य सेवाओं के साथ जुड़ेंगी। विंग कमांडर अंजलि सिंह और लेफ्टिनेंट कमोडोर कराबी गोगोई को मॉस्को स्थित भारतीय दूतावास की डिफेंस विंग में असिस्टेंट अटैची बनाया गया है। भारत में पहली बार महिला अधिकारियों की अटैची पदों पर तैनाती हुई है।

रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन यानी डीआरडीओ में महिलाओं को बराबरी के अवसर दिए जा रहे हैं ताकि वे अपनी क्षमताओं का पूरा लाभ उठाकर देश के लिए उत्कृष्ट रक्षा तकनीक विकसित कर सकें। आज संस्थान में कई शीर्ष पदों पर महिला वैज्ञानिक विराजमान हैं। लोग शायद यह जानकर हैरान होंगे कि देश की कुछ अग्र्रणी मिसाइल वैज्ञानिक महिलाएं हैं। वर्ष 2018 में महिला अधिकारियों के जत्थे ने आइएनएसवी तारिणी के जरिये पूरे ग्लोब का चक्कर लगाने की उपलब्धि अर्जित की थी। समय के साथ विभिन्न मोर्चों पर सैन्य बलों में महिलाओं ने खूब दमखम दिखाकर साबित किया है वे किसी से कम नहीं।

महिलाओं की ये उपलब्धियां सामरिक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं। हमारी सरकार के तमाम कदमों से महिलाओं का आर्थिक एवं सामाजिक सशक्तीकरण भी हुआ है। जैसे मुद्रा योजना ने महिलाओं के आर्थिक सशक्तीकरण की बुनियाद रखी है। इसमें संदेह नहीं कि सरकार सही दिशा में प्रयास कर रही है, लेकिन अभी भी देश में और जागरूकता की दरकार है। ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे कार्यक्रमों का व्यापक असर हुआ है। इससे लैंगिक अनुपात सुधरा और जागरूकता भी बढ़ी है।

महिलाओं को सशक्त बनाने में भारत ने खूब तरक्की की है, पर अभी भी काफी कुछ करना होगा। ‘स्त्री शक्ति’ ‘राष्ट्र शक्ति’ का अभिन्न अंग है और अपनी ‘शक्ति’ को सशक्त बनाए बिना हम ‘शक्तिशाली भारत’ का निर्माण नहीं कर सकते।


Date:09-03-20

न्याय में देरी

संपादकीय

हाल ही में अंतरराष्ट्रीय न्यायिक सम्मेलन में अपने उद्बोधन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विधि के शासन के महत्त्व की बात की। इतना ही नहीं उन्होंने इस संदर्भ में तीव्र गति से न्याय प्रदान करने की भूमिका को भी रेखांकित किया। प्रधानमंत्री का यह कहना सही है कि खासतौर पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों का, भले ही वे विवादास्पद क्यों न हों, सरकार की शाखाओं और आम जनता द्वारा खूब सम्मान किया जाता है। अत्यधिक हाई प्रोफाइल मामलों का अत्यंत तेज गति से निपटारा करना और विधि के शासन का सम्मान करना भी एक अहम पहलू है।

ऐसे में यह खेद की बात है कि हालिया अतीत में देश की सबसे बड़ी अदालत कुछ गहन संवैधानिक और राजनीतिक महत्त्व के मसलों को सुगमतापूर्वक निपटाने में विफल रही है। मौजूदा दौर के सबसे विवादास्पद मसलों में से एक मसला है राष्ट्रीय राजधानी के शाहीन बाग जैसे स्थानों पर नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ प्रदर्शन करने के अधिकार का। सर्वोच्च न्यायालय ने अब इस विषय पर सुनवाई 23 मार्च तक टाल दी है। यह अपने आप में अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। दिल्ली में हालिया हिंसा का कुछ संदर्भ इस विरोध प्रदर्शन के खिलाफ नाराजगी से भी जुड़ा है। ऐसे में सुनवाई टाला जाना और खेदजनक है। अदालत भी निष्क्रिय नहीं बैठी है। उसने अदालत की ओर से प्रदर्शनकारियों से बात करने के लिए दो प्रतिष्ठित लोगों को वार्ताकार नियुक्त किया। परंतु अधिक तेज गति से निस्तारण शायद दिल्ली में हाल में उपजे तनाव को कम करने में मदद करता। एक अन्य अहम संवैधानिक और राजनीतिक मसला चुनावी बॉन्ड से ताल्लुक रखता है। ऐसे मामलों में इतनी भी देरी नहीं की जानी चाहिए कि वे विवादित हो जाएं।

संविधान के अनुच्छेद 370 के समाप्त होने से उपजे मसलों और इसके कारण पूर्व जम्मू कश्मीर प्रांत में कठोर सैन्य नीति को लेकर भी लगातार सवाल पूछे जा रहे हैं। ऐसे गंभीर संवैधानिक मसलों को जल्द से जल्द निपटाना चाहिए। आखिर सर्वोच्च न्यायालय का उद्देश्य भी तो यही है। आखिरकार न्यायालय ने इंटरनेट बंदी के व्यापक विषय पर निर्णय दिया। उसने ऐसे प्रतिबंध लगाने की प्रक्रिया पर कुछ प्रतिबंध लगाए। इसके बावजूद कश्मीर पर लगे प्रतिबंधों का विशिष्ट प्रश्न लंबे समय तक टाला गया। इसके अलावा एक बुनियादी सवाल बंदी प्रत्यक्षीकरण अधिकार का है। विधि के शासन वाले देशों में सदियों से न्यायपालिका के बुनियादी कामों में से एक बंदी बनाने की वैधता के नियम से जुड़ा है। परंतु हाई प्रोफाइल मामलों में भी मसलन पूर्व मुख्यमंत्री, पूर्व केंद्रीय मंत्री और मौजूदा सांसद फारुख अब्दुल्ला को बंदी बनाए जाने के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने उतनी तेजी से काम नहीं किया जितना उसे करना चाहिए था। इस विषय में नोटिस छह दिन बाद जारी किया गया। इस अंतराल का इस्तेमाल सरकार ने अब्दुल्ला पर जन सुरक्षा अधिनियम की धारा लगाने में किया। ऐसा न्यायिक हस्तक्षेप में देर होने की वजह से हो सका।

इसमें दो राय नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय को किसी भी मामले में अंतिम और सही निर्णय पर पहुंचने से पहले पूरा समय लेना चाहिए। खासतौर पर ऐसे मामलों में जो राष्ट्रीय महत्त्व के हैं। बहरहाल, यदि न्यायिक निर्णय बहुत देरी से आता है तो उसकी प्रासंगिकता समाप्त हो जाती है। यदि ऐसा होता है तो खुद न्यायिक प्रक्रिया की प्रासंगिकता के लिए ही जोखिम उत्पन्न हो जाती है।


Date:08-03-20

भारत का नया सरदर्द

डॉ. दिलीप चौबे

अफगानिस्तान के भविष्य के बारे में अमेरिका और तालिबान के बीच हुए समझौते को लेकर इस क्षेत्र के देश भावी घटनाक्रम का अनुमान लगा रहे हैं।भारत, चीन और ईरान की सरकारें इस बात का आकलन कर रही हैं कि आने वाले दिनों में अफगानिस्तान में कौन-सी राजनीतिक ताकत प्रभावी होगी। जहां तक पाकिस्तान का संबंध है, वह इस घटनाक्रम को लेकर विजय की मुद्रा में है। दुनिया में अलग-थलग पड़े पाकिस्तान को आज अमेरिका अफगानिस्तान में शांति व्यवस्था कायम करने के लिए उसे अपने सहयोगी के रूप में देख रहा है। अमेरिका की इस निर्भरता को पाकिस्तान भुनाने की पूरी कोशिश करेगा। जहां तक अफगानिस्तान की घरेलू राजनीति का सवाल है, पाकिस्तान की शह पर पलने वाला तालिबान गुट उसका एक बड़ा रणनीतिक सहयोगी साबित हो सकता है। भविष्य में यदि अफगानिस्तान की केंद्रीय सरकार कमजोर होती है और तालिबान का प्रभाव बढ़ता है तो यह भारत के लिए खतरे की घंटी होगी।

अतीत का घटनाक्रम बताता है कि अफगानिस्तान से तत्कालीन सोवियत संघ की सेनाओं की वापसी भी एक अंतरराष्ट्रीय समझौते के तहत हुई थी। वर्ष 1988 में हुए इस समझौते के चार साल बाद तालिबान ने पूरे देश पर कब्जा कर लिया था। दुनिया भर की नजर इस ओर लगी है कि क्या इस बार भी इतिहास अपने आपको दोहराएगा।

नरेन्द्र मोदी सरकार के लिए चुनौती और बड़ी है। जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर के बारे में अपना दुष्प्रचार अभियान तेज कर रखा है। भारत सरकार के पुख्ता सुरक्षा उपायों के कारण सीमा पर आतंकवाद के मंसूबे सफल नहीं हो पा रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय जगत में भी पाकिस्तान समर्थन हासिल करने में असफल रहा है। ऐसे में तालिबान को हासिल रणनीतिक वैधता और राजनीतिक गतिविधियों की खुली छूट पाकिस्तान के लिए उपयोगी सिद्ध होगी। तालिबान अफगानिस्तान में भारत विरोधी माहौल बना सकता है। इतना ही नहीं, वह अपने आतंकवादियों को भारत की ओर मोड़ सकता है। इस काम में पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई पूरी तरह से मददगार बनेगी।

पिछले महीने की उन्तीस तारीख को कतर की राजधानी दोहा में अमेरिका और तालिबान के प्रतिनिधियों के बीच शांति समझौता हुआ। इस समझौते को इस मायने में ऐतिहासिक कहा जा सकता है कि लगभग तीस देशों और अंतरराष्ट्रीय संगठनों के विदेश मंत्री और अधिकारी इसके साक्षी बने। इस शांति समझौते के प्रावधानों के मुताबिक, अमेरिका चौदह महीने के अंदर अफगानिस्तान से अपने सैन्य बलों को वापस बुला लेगा।

अमेरिका और अफगानिस्तान ने संयुक्त रूप से घोषणा की है कि काबुल में अमेरिकी सैन्य बलों की संख्या घटाकर आठ हजार छह सौ की जाएगी। शांति समझौते के उद्देश्यों के मुताबिक, सभी घोषणाएं 135 दिन में लागू की जाएंगी। लेकिन एक ओर जहां अमेरिका अपने सैनिकों की संख्या घटाकर आठ हजार छह सौ करने के लिए प्रतिबद्ध है तो दूसरी ओर अधिकारियों के मुताबिक, अगर अफगान पक्ष समझौते के किसी प्रावधान को लागू नहीं कर पाता है तो अमेरिका अपने सैनिकों की वापसी के लिए बाध्य नहीं है।

भारत ने अमेरिका-तालिबान शांति समझौते का समर्थन करते हुए कहा है कि भारत की सुसंगत नीति उन सभी अवसरों का समर्थन करती है जो अफगानिस्तान में शांति, सुरक्षा और स्थिरता ला सकते हैं। समझौता होने के तीन-चार दिन बाद ही तालिबान ने अफगानिस्तान में हमला कर दिया। तालिबान की इस कार्रवाई के बाद अमेरिका ने भी जवाबी कार्रवाई करते हुए हमला किया। इस हमले के बाद से अमेरिका और तालिबान के बीच शांति समझौते की सफलता को लेकर तरह-तरह के कयास लगाए जाने लगे हैं। समझौता होने के पहले भी कुछ रक्षा विशेषज्ञों ने इसकी सफलता को लेकर संदेह जाहिर किया था। माना जा रहा है कि समझौता अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता लाने में नाकाम रहेगा और संभवत: वहां दूसरा गृह युद्ध छिड़ सकता है क्योंकि तालिबान किसी समझौते से प्रतिबद्ध नहीं रहा है। जहां तक भारत का सवाल है तो उसे आसन्न खतरे से निपटने के लिए तैयार रहना ही चाहिए।