09-03-2019 (Important News Clippings)
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Date:09-03-19
Hope In Ayodhya
Mediation tip: a mandir and masjid side by side
TOI Editorials
Supreme Court’s decision to proceed with mediation to resolve the Babri Masjid-Ramjanmabhoomi dispute offers all sides a final opportunity to arrive at a mutually acceptable settlement. Supreme Court judges cannot enter the realm of theology or dubious history, yet if they are to treat the case in legal terms as a pure title suit dispute, some party would be left aggrieved. Since, as Justice Bobde observed, the case also “involves sentiments and faith of people”, it is best to give mediation a chance before the court steps in.
With febrile sentiments which are often politically whipped up in India, what gets left by the wayside is common sense. The best course for a mediated settlement could be the construction of a Ram Mandir and a mosque adjacently, considering that Hindu parties are unwavering in their belief that the demolished Babri Masjid stood at the exact location where Lord Rama was born. Such a twin structure may also in time become a monument to communal harmony and modern India’s nation building project. Yet, such a mediated settlement should be a one-off effort and mustn’t set any sort of precedent for demolishing other mosques.
Such a settlement would be a fair and sensible one and nobody ought to feel aggrieved. Yet India is littered with mythological, historical and contemporary landmines waiting for a deft political touch to explode and trigger tensions. But the Supreme Court’s authority will bolster the current mediation efforts unlike earlier attempts. The eight week period granted to the mediators will also help SC ride out the political pressures of this election season. Politicians must leave out mandir-masjid from their poll discourse or risk vitiating the talks and communal harmony. If the mediation succeeds, we can leave the past behind and get on with the job of living in the present.
Date:09-03-19
Disinvest to Pension Funds, Retail Buyers
ET Editorials
The Cabinet has empowered a ministerial panel to take a call on strategic disinvestment of state-owned enterprises. Whether this, reminiscent of the UPA government’s strategy of setting up groups of ministers, would help quicker decision-making is debatable. The best way to disinvest is through the market to retail investors, and not asking, say, listed PSUs to buy stakes of other PSUs from the government. Pension funds and provident funds are likely to participate when the government sells chunks of shares in PSUs and gain from the control premium someone might find it worth paying to accumulate shares from distributed holders. This would be good for the companies, bring in money for the government and lead to better management of these companies.
Apparently, the finance minister-led alternate mechanism will decide the quantum of shares to be sold, mode of sale and final pricing of the transaction, or lay down the principles for such pricing and terms and conditions of sale. Instead of waiting for the right level of stock prices and bunching disinvestment, the government must boldly offload stakes at regular intervals. So far, it has raised only around Rs 56,473 crore against the target of Rs 80,000 crore for this fiscal. The need is for the government to swiftly reconfigure its assets to meet the fiscal deficit target.
Widening retail participation in the disinvestment exercise will also enable the public at large to have a share in the wealth created by taxpayer money. The huge pools of the public’s savings with the Employees’ Provident Fund Organisation and the National Pension System are possible buyers of shares of sound PSUs. Marketing the shares directly to workers, who could instruct the saving pools to buy the shares with their savings, makes eminent sense.
Date:09-03-19
क्या अब सचमुच महिलाओं का होगा सेना में स्थायी कॅरिअर ?
संपादकीय
महिलाओं को कॉम्बेट रोल दिए जाने की बहस के बीच सरकार ने सेना में महिलाओं के लिए दस ब्रांच में परमानेंट कमीशन दे दिया है। इससे पहले ये सिर्फ दो ब्रांच में दिया जाता था, लीगल और एजुकेशनल। कॉम्बैट रोल से वे अब तक दूर रही हैं। नेवी में बतौर कॉम्बैट एविएटर्स वे पी-8 आई एंटी सबमरीन वॉरफेयर एयरक्राफ्ट पर तैनात हैं। जल्दी ही उन्हें युद्धपोत पर तैनाती देने की चर्चा है। वहीं वायुसेना में हमें तीन फीमेल फाइटर पायलट मिल चुकी हैं, इसके अलावा भी हर ब्रांच लड़कियों के लिए खुली है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गत 15 अगस्त को अपने भाषण में बहादुर बेटियों के लिए तोहफा कहते हुए सेना में परमानेंट कमीशन देने की बात कही थी। अभी महिलाएं ज्यादा से ज्यादा 14 साल की नौकरी कर पाती थीं। अब रिटायरमेंट एज तक सेना का हिस्सा रहेंगी। यानी ज्यादा समय दे सकेंगी। महिला अफसरों के लिए यह गर्व की बात यूं भी है, क्योंकि अब ऊंची रैंक तक उनके पहुंचने की संभावनाएं ज्यादा होंगी। वे ज्यादा संख्या में ब्रिगेडियर, मेजर जनरल और लेफ्टिनेंट जनरल की रैंक तक पहुंच पाएंगी। इसके अलावा परमानेंट कमीशन सेना में अफसरों की कमी को कुछ हद तक कम करेगा। फिलहाल सेना में 1,561, वायुसेना में 1,594 और नौसेना में 644 महिला ऑफिसर हैं। पिछले साल तक सेना में 9,106 और नौसेना में 1,467 अफसरों की कमी थी। एयरफोर्स में यह समस्या नहीं है। परमानेंट कमिशन महिलाओं के लिए सेना का दायरा बड़ा करने और पुरुषों के आधिपत्य वाले इलाकों में महिलाओं के दखल का इशारा है। अब इंतजार रहेगा फॉरवर्ड पोस्ट पर उनकी तैनाती और उन्हें कॉम्बैट रोल मिलने का। हालांकि, परमानेंट कमीशन भी उन्हें यूं ही नहीं मिला है। 57 महिला अफसरों ने चार साल तक दिल्ली हाईकोर्ट में इसके लिए लड़ाई लड़ी। 2010 में जब फैसला उनके हक में आया तो उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी गई। केंद्र सरकार के जरिए सेना ने इसी साल सुप्रीम कोर्ट में दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती दी। आठ साल बाद अप्रैल 2018 में सरकार ने संकेत दिए कि वह अब महिला अफसरों को सेना में और ज्यादा वक्त देने के लिए राजी है। बहरहाल, ये जीत है उस आठ साल की लड़ाई की जो महिला अफसरों ने सुप्रीम कोर्ट में लड़ी है।
Date:09-03-19
मध्यस्थता का महत्व
संपादकीय
यह अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या मामले को बातचीत से हल करने के लिए तीन मध्यस्थ तय कर दिए। यह अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या मामले को बातचीत से हल करने के लिए तीन मध्यस्थ तय कर दिए। तीन सदस्यीय मध्यस्थता समूह की अध्यक्षता सेवानिवृत्त न्यायाधीश एफएम इब्राहिम कलीफुल्ला को सौंपी गई है। इस समूह के दो अन्य सदस्य हैं आध्यात्मिक गुरु श्रीश्री रविशंकर और वरिष्ठ वकील एवं मध्यस्थता संबंधी मामलों के विशेषज्ञ श्रीराम पंचू। हालांकि कुछ लोगों को श्रीश्री रविशंकर के मध्यस्थ होने पर आपत्ति है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि वह अपने स्तर पर अयोध्या मामले को बातचीत से हल करने की कोशिश कर चुके हैं। वह न केवल इस विवाद के हर पहलू से परिचित हैं, बल्कि उन्हें इसका भी भान है कि संबंधित पक्ष क्या चाहते हैं? स्पष्ट है कि उनके जैसे किसी श्ाख्स को इस मध्यस्थता समूह में होना ही चाहिए था।
सुप्रीम कोर्ट ने मध्यस्थता पैनल को आठ सप्ताह का समय दिया है और यह भी अपेक्षा की है कि आपसी बातचीत का विवरण मीडिया को सार्वजनिक करने से बचा जाए। इस पर भी विरोध के कुछ स्वर सामने आए हैं, लेकिन विरोध जताने वाले यह ध्यान रखें तो बेहतर कि किसी संवेदनशील मसले पर पल-पल की जानकारी देना कई बार समस्या को उलझाने का ही काम करता है। नि:संदेह इस मध्यस्थता समूह के सिर पर महती जिम्मेदारी है और यह तय है कि उस पर देश ही नहीं, दुनिया की भी निगाहें होंगी, लेकिन उसकी सफलता-असफलता संबंधित पक्षों के रुख-रवैये पर निर्भर करेगी। बेहतर है कि उन्हें भी अपनी जिम्मेदारी का आभास हो।
कहने को तो अयोध्या मामला जमीन के मालिकाना हक का विवाद है, लेकिन सच्चाई यही है कि यह केवल जमीन के एक टुकड़े का मसला नहीं। इस पर आश्चर्य नहीं कि कुछ लोग अभी भी यह तर्क पेश कर रहे हैं कि आखिर सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या विवाद पर फैसला सुनाने के बजाय उसे मध्यस्थता के हवाले क्यों कर दिया? इस तर्क का अपना महत्व है, लेकिन सभी पक्षों से बात करके किसी सर्वमान्य हल पर पहुंचने के जो लाभ हैं, वे कहीं अधिक दूरगामी महत्व के हैं। यदि आपसी वार्ता से अयोध्या विवाद का हल निकल आता है तो किसी भी पक्ष को निराशा का सामना नहीं करना पड़ेगा। आपसी सहमति से हासिल समाधान न केवल संबंधित पक्षों में सद्भाव बढ़ाएगा, बल्कि देश में भी मैत्री की भावना का संचार करेगा।
क्या इससे बेहतर और कुछ हो सकता है कि अयोध्या मामले का हल इस तरह से हो कि कोई भी पक्ष हार या जीत की भावना से न भरे? यह सही है कि किसी सर्वमान्य हल पर पहुंचना एक कठिन काम है, लेकिन अगर तनिक भी संभावना है तो उसे टटोला जाना चाहिए। अच्छा होता कि सुप्रीम कोर्ट ने जो काम अब किया, वह तभी कर देता जब उसकी ओर से पहली बार इस मामले को बातचीत से हल करने की जरूरत जताई गई थी। जो भी हो, कम से कम अब तो सुप्रीम कोर्ट को इसके लिए तैयार रहना चाहिए कि अगर मध्यस्थता से बात न बने तो फिर वह अपना फैसला सुनाने में देर न करे। वैसे अच्छा यही होगा कि इसकी नौबत न आए।
Date:08-03-19
अयोध्या की जमीन
संपादकीय
सर्वोच्च न्यायालय एक बार फिर बातचीत के जरिए अयोध्या विवाद को सुलझाने पर विचार कर रहा है। हालांकि पहले भी उसने कहा था कि दोनों पक्ष इस विवाद को आपसी सहमति से सुलझा लें, तो राम मंदिर निर्माण की प्रक्रिया जल्दी शुरू हो सकेगी। मगर तब अपेक्षित पहल नहीं हो सकी थी। अब न्यायालय ने कहा है कि दोनों पक्ष अपने मध्यस्थों की सूची सौंपें, ताकि वह निर्णय कर सके कि बातचीत के जरिए इस मसले का हल निकाला जा सकता है या नहीं। इसके लिए आठ हफ्ते का समय दिया गया है। हालांकि इस निर्देश पर मुसलिम संगठन सहमत दिख रहे हैं, पर खुद राम मंदिर निर्माण के लिए आंदोलन कर रहे संगठनों की राय भिन्न है। विपक्ष भी कह रहा है कि इस मौके पर मध्यस्थता के जरिए हल निकालने की पहल उचित नहीं होगी। हालांकि मध्यस्थों की सूची सौंपने की जो अवधि तय की गई है, उस समय तक आम चुनाव संपन्न हो चुके होंगे। फिर उन मध्यस्थों को चार हफ्ते के भीतर अपनी राय देनी होगी। इस तरह विपक्ष का भय बेवजह है। अयोध्या मामले का निपटारा बातचीत या फिर अदालत के फैसले से जैसे भी हो, जल्दी हो जाए, तो अच्छा।
राम मंदिर निर्माण में सबसे बड़ी उलझन वहां की जमीन को लेकर है। उस जमीन के कुछ हिस्से पर सुन्नी वक्फ बोर्ड का दावा है और कुछ पर निर्मोही अखाड़े का। राम मंदिर निर्माण के लिए आंदोलन करने वाले संगठनों का कहना है कि वह पूरी जमीन राम मंदिर निर्माण के लिए मिलनी चाहिए। जमीन संबंधी विवाद को सुलझाने के लिए इलाहाबाद हाइकोर्ट लंबे समय तक जद्दोजहद करता रहा। फिर सर्वोच्च न्यायालय की पहल पर इससे संबंधी सभी मामलों को एक साथ जोड़ा गया। पर अंतिम निर्णय तक पहुंचने में मुश्किलें बनी हुई हैं। इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय ने बातचीत के जरिए इसके समाधान पर विचार किया है। हालांकि यह पहला मौका नहीं है, जब मध्यस्थों के जरिए इस समस्या का हल निकालने का प्रयास किया जा रहा है। इलाहाबाद हाइकोर्ट तीन बार यह तरीका आजमा चुका है, पर कोई नतीजा नहीं निकल पाया। अब एक बार फिर जो मध्यस्थ तय होंगे, वे कहां तक किसी मसले पर एकमत हो पाएंगे, देखने की बात होगी।
मध्यस्थों के जरिए किसी निर्णय पर पहुंचने में एक मुश्किल यह है कि कैसे कुछ लोगों के मत के आधार पर दोनों समुदायों के बड़े वर्ग की भावनाओं को समझा जा सकेगा। कुछ मुसलिम प्रतिनिधि इस बात पर राजी देखे गए हैं कि सुन्नी वक्फ बोर्ड के हिस्से की जमीन के बराबर जमीन कहीं और दे दी जाए, जहां वे मस्जिद बना सकें, पर कई प्रतिनिधि इस पर राजी नहीं हुए। इसी तरह हिंदू महासभा जैसे हिंदू संगठनों में भी कई बिंदुओं पर मतभेद नजर आता है। इसलिए यह दावा करना मुश्किल है कि दोनों पक्षों की तरफ से तय किए गए मध्यस्थों की राय उनके समूचे वर्ग की राय मान ली जाएगी। हालांकि अभी सर्वोच्च न्यायालय ने मध्यस्थों की राय के आधार पर अपना निर्णय सुनाने को नहीं कहा है। अभी वह तय करेगा कि बातचीत के जरिए इसका समाधान निकालने की पहल कितनी कारगर साबित हो सकती है। दरअसल, राम मंदिर विवाद को राजनीतिक रंग दे दिए जाने के बाद से आपसी रजामंदी से इस समस्या को हल करना कठिन होता गया है। इसलिए इसके निपटारे को लेकर राजनीतिक इच्छाशक्ति की भी दरकार है।
Date:08-03-19
अब न्याय हमारा नारा है
ममता कालिया , प्रसिद्ध साहित्यकार
आज आठ मार्च है। एक बार फिर अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस आ गया है। इसका यह अर्थ कहीं से भी नहीं है कि शेष 364 दिन पुरुष-दिवस है। यह तो हमें स्त्रियों के अनथक संघर्ष और अविराम आंदोलन की याद दिलाने वाला प्रतीक-दिवस है। सोचकर रोमांच होता है कि अमेरिका में 28 फरवरी, सन 1909 में ही पहला राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया, जब कपड़ा बनाने वाली बुनकर स्त्रियों ने अपनी मजदूरी और मजबूरी के विरुद्ध हड़ताल की। उनके कार्यस्थल की बदतर परिस्थितियां अमानुषिक थीं। तब से अब तक स्त्रियों में बहुत जागरूकता विकसित हुई। जाति, धर्म, देश, वर्ग, भाषा, लिपि और संस्कृति के परे अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस एकता का संदेश देने वाला सबसे विशाल मंच है।
कौन नहीं जानता कि जब-जब कहीं भी युद्ध हुआ, उसमें स्त्री और बच्चों पर सबसे अधिक जुल्म ढहाए गए। शरीर पर पड़ी चोटें वक्त के साथ ठीक हुईं, पर उनकी भयावह स्मृति घाव के निशान की तरह बनी रही। इन युद्धों के जो मनोवैज्ञानिक आघात पड़े, उन्होंने मर्माहत महिलाओं की संख्या में अपार वृद्धि कर दी। दो महायुद्ध और अनेक छोटे-बड़े विभाजक युद्ध औरतों और बच्चों की बलि लेते रहे।
संयुक्त राष्ट्र ने अंतत: 8 मार्च, सन 1975 में यह निर्णय लिया कि अब से यह तारीख पूरी दुनिया में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाई जाएगी। 1975 अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष भी घोषित हुआ था। सन 1995 में बीजिंग घोषणा-पत्र के अनुसार, स्त्री को शिक्षा और रोजगार चुनने का अधिकार सौंपा गया। स्त्री-पुरुष के बीच कोई भेदभाव लैंगिक आधार पर न हो, यह संयुक्त राष्ट्र ने बहुत पहले, सन 1945 में ही, लिखित घोषणा-पत्र में कहा था, किंतु वस्तुस्थिति आज भी विकट और विकराल है। समूचे संसार में स्त्री-समाज तरह-तरह के संक्रमण से गुजर रहा है। स्त्री को समाज की एक सार्थक, समान, स्वतंत्र इकाई समझने में सभी देशों को दिक्कत है।
सवाल का रुख भारतीय समाज की तरफ मोड़ें, तो हम पाएंगे कि हमारे हिस्से तरक्की का कर्मकांड और विकास का अंतर-विरोध आया है। किसी एक दिन का अखबार उठाकर देखने की जरूरत है, इस कदर घरेलू हिंसा, हत्या और स्त्री के विरुद्ध शारीरिक प्रताड़ना से भरी खबरें पढ़ने को मिलती हैं कि अच्छा-भला नागरिक अवसाद या उन्माद का रोगी हो जाए। कहीं बर्बर तरीके से स्त्री का सफाया, तो कहीं मनोवैज्ञानिक पद्धति से यातना। महिला अगर नौकरी में है, तो वहां उसके सम्मान पर संकट, और अगर घर में है, तो घरेलू हिंसा मानो उसका प्रतिदिन का रूटीन है। यहां पर याद आती हैं महादेवी वर्मा, जिन्होंने सन 1931 में अपने एक आलेख में लिखा था, ‘हमें न किसी पर जय चाहिए, न किसी से पराजय, न किसी पर प्रभुता चाहिए, न किसी का प्रभुत्व। केवल अपना वह स्थान चाहिए, वह स्वत्व चाहिए, जिसका पुरुषों के निकट कोई उपयोग नहीं, परंतु जिसके बिना हम समाज का उपयोगी अंग नहीं बन सकेंगी।’
महादेवी वर्मा के इसी भाव को कृष्णा सोबती ने अपनी कहानी ऐ लड़की में इन शब्दों में दिया है, ‘दुख और अरमान को परे रखना। मैं निश्चिंत हूं तुम्हारे लिए, क्योंकि न तुम सताई जा सकती हो और न तुम किसी को सताती हो।’
पाश्चात्य आंदोलनकारियों की अपेक्षा भारतीय चिंतकों और समाज-सुधारकों ने स्त्री की स्थिति और उपस्थिति पर गंभीर विचार-विमर्श किया। कुछ जड़तावादियों ने धर्म की अग्निशलाका से स्त्री का प्रारब्ध लिखने की चतुराई दिखाई, किंतु ईश्वरचंद्र विद्यासागर, महादेव गोविंद रानाडे, महर्षि कर्वे, सावित्री बाई फुले, पंडिता रमाबाई और महात्मा गांधी ने स्त्री की शिक्षा और स्वावलंबन पर जोर देकर समाज में संतुलन बनाने का पुरजोर समर्थन किया।
आज स्त्री-लेखन में जो तेजी, त्वरा और तेवर दिखाई देता है, वह इसी चेतना का मुखर रूप है। स्त्री विमर्श का जन्म इसी तेवर के तहत हुआ है और स्त्री आज अपने अस्तित्व, अस्मिता और व्यक्तित्व के प्रति पूरी तरह जागरूक है। बीसवीं सदी से लगाकर आज तक स्त्री-लेखन स्वाधीनता और समानता का घोषणा-पत्र रहा है। दूसरे शब्दों में, स्त्री-लेखन के साथ ही स्त्री विमर्श का समय आरंभ होता है। इस लंबे सफर में स्त्री विमर्श पर कई रंग चढ़े और उतरे। कभी लगा, पश्चिम की नकल में स्त्री विमर्श स्वच्छंदतावाद की तरफ जा रहा है, तो कभी लगा, यह आनंद के मार्ग पर जा रहा है। कभी ऐसा भी प्रतीत हुआ कि स्त्री विमर्श प्रतिघाती जत्थे की तरह पुरुष-विरोधी हो उठा है। इन संक्षिप्त अंतरालों का प्रयोजन केवल उत्तेजना पैदा करना रहा होगा, क्योंकि ये शीघ्र विलुप्त हो गए। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर स्त्री विमर्श में नई प्राण-वायु फूंकने की आवश्यकता है। यह भी रेखांकित करना जरूरी है कि स्त्री विमर्श पुरुषों के प्रतिपक्ष में खड़ा आंदोलन नहीं है, वरन पुरुष-मानसिकता में सुधार की मांग करने वाला विमर्श है। यहां प्रतिघात नहीं, प्रतिरोध है। दुस्साहस नहीं, साहस है। और चिंता नहीं, चेतना है।
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस आते रहेंगे। हमें और आपको जगाते रहेंगे। अंतत: हम अपने नारे में इतना परिवर्तन कर देंगे- ‘हर जोर-जुल्म की टक्कर में, न्याय हमारा नारा है।’
Date:08-03-19
After empowerment, freedom and dignity
The aspirations of women in India have evolved. Policy, public discourse must keep pace.
Ram Madhav, [ The writer is national general secretary, BJP, and director, India Foundation.]
The problem with some policies is that they are at least a decade behind the thoughts and aspirations of the people. Unless we address this mismatch, seemingly noble policies also fail to do justice to the targeted sections of the population. Take, for example, the aspirations of sections like SCs, STs and women. Today, the aspiration of the downtrodden is not just about power-sharing but a share in decision-making. Through various policies we have addressed the issue of power-sharing. But did it lead to them reaching decision-making positions?
Similarly about women, the discourse fashionable today is about empowerment. What does empowerment mean? We assume that the aspiration or desire among the women is for positions on par with men. Our policies are structured in that direction. We hardly realise that while it is fashionable to showcase these things as our commitment to women’s empowerment, the aspirational discourse has gone much farther.
The urge and aspiration among the women today is for dignity and freedom. Any further talk of empowering women will be seen as condescension because empowerment is today seen as entitlement. We need to rise to the current sentiment — of empowerment with dignity and honour.
Women are in commanding positions in many areas of private and public life in our country. Even in rural India, women are greatly empowered through their presence and positions outside the four walls of their homes. Initially, this change needed support and prodding but now it is on an auto mode.
Yet, the challenge of dignity and freedom remains. The empowerment that we talk about has certainly given them positions, but not necessarily the dignity and freedom that they deserve. Social media is a good test case, since it is a truly democratic media. It reflects human behaviour through an unadulterated, unedited prism. It is here that one comes across extreme forms of deprecating behaviour with respect to women. In varied degrees, this prevails in all walks of life.
Our laws, societal norms and customs need to be looked at from this new reality. There was a time when women needed protection. We built laws and institutions keeping that need in mind. It was felt later that women needed empowerment. We addressed that need too. But today’s need is to revisit our polity to accord dignity and freedom to our womenfolk.
Mahatma Gandhi used to say that real independence would be when a woman in this country can walk around on the streets alone at midnight. An easy way to think of this would be from a security perspective. But another interpretation could be about dignity. How does society look at a lone woman roaming the streets at midnight? Just like how it looks at a man in similar circumstances or with suspicion, if not disdain? Does she enjoy freedom of choice or is she branded promiscuous?
This brings up the crux of the issue. Can a woman be respected just as a woman, without any strings attached? Or she will be respected only when she is a “mother” or “sister”? Is her freedom and self-expression equal to that of a man?
There is an instructive anecdote in the Shanti Parva in Mahabharata. Yudhishtir, having won the war, approaches Bhishma, who is on the bed of arrows awaiting death, seeking advise on statecraft. Draupadi, the feisty princess, was passing by, and laughs out loud. Yudhishtir remonstrates; but Bhishma stops him and submits that Draupadi’s laughter was valid. “In a full House, when she was being disrobed, I remained a mute witness. Am I today qualified to teach you Raj Dharma? That is what Draupadi’s laughter meant,” says Bhishma. The Indian approach to womanhood is replete with messages that accord dignity and freedom to women, not just a higher pedestal. Manu is criticised for talking about the duty of the society to protect women. But Manu also grants women the right to divorce under four different circumstances.
Women face two extremes in our society. At one end is the vulgarity of objectification. The higher a woman rises the greater the objectification becomes. How they appear, how they dress and how they style their hair or wear their footwear becomes the subject. What follows is violence, both physical and emotional.
But the other extreme is equally demeaning. In the name of security, we deny women their natural choices and freedom. Ideally, we should be allowing greater intermixing of both sexes. But regressive beliefs at one level and questions of safety at another encourage us towards greater segregation. This gender-based segregation starts at the school level itself and continues. This goes to ridiculous extents like every instance of boys and girls coming together being seen as sinful. Within accepted societal norms, allowing greater intermixing of boys and girls will actually help develop a healthy attitude of friendship and mutual respect.
It is time we turned our attention towards this question of dignity and freedom. Laws for women’s protection are important, but not enough. We also need to revisit our customs like marriage, family and divorce. What should be the marriageable age, what should be the procedure and what if the marriage doesn’t work — all these aspects need a fresh look through the prism of dignity and freedom, not just through an abstract idea of “family honour”.
Nobody wants families to collapse or promiscuity to pervade. We have seen the ill-effects of the collapsing family system in Western societies. But smugness shouldn’t be our way. Just because the Western models are flawed doesn’t automatically mean ours are perfect. A vibrant society should have the courage for continuous reform. Unchanging eternal values, and ever-changing social order is what Indian wisdom stands for.
Remember Tennyson: “The old order changeth yielding place to new; And God fulfils himself in many ways; Lest one good custom should corrupt the world.”
Date:08-03-19
Women and the workplace
Do UN strategies to deal with sexual harassment and ensure gender parity offer examples to follow ?
Radha Kumar is Chair of the Council of the UN University, Tokyo
For more than a century, March 8 has marked International Women’s Day — a global day celebrating the achievements of women and promoting gender equality worldwide. But as we pause to celebrate our many advances, we must also acknowledge how much remains to be done.
Interlinked issues
Two interconnected issues have emerged as priorities over the past two years: sexual harassment at the workplace and obstacles to women’s participation at all levels of the workforce, including political representation. The 2017-18 explosion of the #MeToo movement across social media uncovered countless cases of unreported sexual harassment and assault, first in the U.S. and then in India. In both countries, it led to the resignations or firing of dozens of prominent men, mostly politicians, actors and journalists.
It also prompted a range of public and private organisations to examine the internal institutional cultures surrounding sexual harassment, gender parity, and gender equity. Amongst them, the United Nations.
UN Secretary-General António Guterres has been a staunch supporter of women’s rights since his election in 2016, stating the need for “benchmarks and time frames to achieve [gender] parity across the system, well before the target year of 2030”. In September 2017, the UN released a System-wide Strategy on Gender Parity to transform the UN’s representation of women at senior levels. Today the UN’s Senior Management Group, which has 44 top UN employees, comprises 23 women and 21 men.
A mirror within
In response to the MeToo movement, the UN recently conducted a system-wide survey to gauge the prevalence of sexual harassment among its more than 200,000 global staff. Though only 17% of UN staff responded, what the survey uncovered was sobering. One in three UN women workers reported being sexually harassed in the past two years, predominantly by men. Clearly, the UN gender strategy has much to improve, but then the UN, like most other international and national organisations, has a decades-old cultural backlog to tackle.
The inter-governmental UN is as affected by prevalent national cultures as are individual countries. Some might argue more, since the UN Secretary-General has to find a way through contending blocs of countries that support or oppose women’s rights’ goals. This is where UN research plays a significant role. As findings on the Millennium Development Goals (MDGs) indicate, many countries, including India, were able to substantially increase their performance on issues such as sex ratios and maternal mortality once their leaders had signed on to the MDGs. Tracking performance on the Sustainable Development Goals, a more comprehensive iteration of the MDGs, will again provide useful pointers for policymakers and advocates going forward.
Efficacy of single window
At the same time, Mr. Guterres is to be commended for holding a mirror to organisational practices when it comes to sexual harassment or gender parity. Bringing the issue of gender inside the organisation, to reform its practices, will enable the UN to stand as an example of the rights it advocates.
How can organisations as large as the UN improve their internal cultures surrounding sexual harassment, gender parity, and gender equity? This issue has generated considerable debate in India, where political parties have begun to ask how they are to apply the rules of the Sexual Harassment of Women at Workplace (Prevention, Prohibition and Redressal) Act, 2013 which lays down that every office in the country must have an internal complaints committee to investigate allegations of sexual harassment. With thousands of offices across the country, and barely any employee trained to handle sexual harassment, Indian political parties ask whether broader structures, such as district or regional complaints committees, could play the role of office ones. In this context, does the UN Secretariat’s single window structure for such complaints provide a better practice? One caveat is that it does not apply across the organisation, so UN agencies, including the multi-institute UN University that aims to achieve gender parity at the director level by end 2019, still have to identify their organisation-specific mechanisms.
Clearly, we need further research before we can arrive at a judgment: perhaps a follow-up to the UN’s sexual harassment survey that looks at complaints received and action taken. In India, going by past figures — since the current government has not released data for the last two years — the impact of the 2013 Act, one of the most comprehensive in the world, has been poor. Despite a large jump in complaints recorded, convictions have not shown a proportionate rise, largely due to poor police work. That is an obstacle which the UN, with its internal mechanisms, may not suffer from as far as first responses are concerned, but will certainly face as and when cases come to law.
Both the UN’s early successes and the Indian experience offer lessons to UN member-states, few of which have gender parity or serious action against sexual harassment in the workplace. In the U.S., companies such as General Electric, Accenture, Pinterest, Twitter, General Mills and Unilever are setting and achieving targets to increase female representation at all levels of their workforce. This March 8, let us hope that companies worldwide pledge to follow the examples in the U.S. And that other institutions, whether universities or political parties, follow the UN example. Gender reforms begin at home, not only in the family but also in the workplace.