09-02-2024 (Important News Clippings)

Afeias
09 Feb 2024
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Date:09-02-24

Towards uniformity

The concept of justice is paramount; uniformity is an offshoot of equality

Editorial

A Uniform Civil Code (UCC) is a desirable and progressive goal for a secular country. However, mere uniformity without making reasonable allowances for diverse cultural and social practices among different social groups may not be ideal. The UCC adopted by the Uttarakhand Assembly aims to consolidate the laws relating to marriage, divorce and succession among all communities. The State has become the first since pre-Independence Goa to adopt a uniform code for civil matters. What is particularly violative of the Constitution is the bizarre portion in this UCC aiming to formalise live-in relationships through registration. This unwanted incursion into citizens’ personal life is worsened by the prescription of a three-month prison term for non-registration. It will expose citizens to intrusive inquiries, social hostility and pointless deprivation of liberty. While it contains positive features such as conferring legitimacy on children born of live-in relations and mandating maintenance in the event of desertion, the very idea that people living together should submit themselves to registration and verification is repugnant to individual rights.

When the Constitution makers made the adoption of a UCC one of the directive principles, opinion was divided on whether a UCC will undermine minority rights or promote equal status for women in all religions. B.R. Ambedkar felt the UCC, if enacted, should be voluntary in the initial stages. The previous Law Commission had said a UCC is neither desirable nor necessary, and, instead, suggested that each body of personal law be reformed to eliminate discrimination or regressive practices. However, the present Law Commission has revived the idea and has started gathering views from the public. Much of the Uttarakhand Code seems to have been borrowed from existing laws on marriage and succession, but with significant omissions. For instance, the Code is the only avenue for dissolving a marriage and there is no waiting period to remarry after a divorce; nor is there any need for a woman to marry another person before she can re-marry her former husband. These provisions, which eliminate the concepts of iddat, talaq and nikah halala, are all progressive and further individual rights. Interestingly, it preserves the existing provision allowing custom and usage as an exception to the bar on marriage within prohibited degrees of relationship, but adds a rider that such custom cannot be against public policy or morality. An unfortunate fallout of all this is a polarising discourse taking shape in the run-up to the general election. The concept of justice should not be lost in the search for uniformity, which should be no more than an incidental consequence of equality.


Date:09-02-24

राजस्व हिस्सेदारों को लेकर राज्य की नाराजगी

संपादकीय

पिछले कुछ वर्षों से राजस्व के बंटवारे में राज्यों की लगातार घटती हिस्सेदारी के आरोप के साथ कांग्रेस-शासित कर्नाटक के सीएम ने बुधवार को और गुरुवार को वामपंथी केरल सरकार के सीएम ने धरना दिया। लगभग सभी विपक्ष-शासित राज्य टैक्स राजस्व में अपनी हिस्सेदारी को लेकर नाराज हैं और कोर्ट में जा चुके हैं। नाराजगी का दूसरा और तात्कालिक कारण है- केंद्र द्वारा नेट बॉरोइंग सीलिंग में राज्यों की पीएसयू द्वारा लिए गए कर्ज को भी जोड़ कर कर्ज की सीमा तय करना । ममता सरकार ने अक्टूबर में धरना देते हुए इसे वित्तीय संघीय आतंकवाद बताया था। केंद्र का मानना है कि कई राज्य अपनी पीएसयू के जरिए कर्ज ले रहे हैं। जहां 13वें वित्त आयोग ने कुल राजस्व में राज्यों का हिस्सा 32% रखा था। 14वें वित्त आयोग ने इसे बढ़ा कर 42% और 15वें ने भी इसे 41% (जम्मू-कश्मीर के राज्य न रहने के कारण) कर दिया। लेकिन इन राज्यों का आरोप है कि सन् 2015-16 में इनकी वास्तविक हिस्सेदारी 35% और सन् 2023-24 तक आते-आते मात्र 30% रह गई जबकि इसी काल में केंद्र का सकल राजस्व 14.60 लाख करोड़ से लगभग ढाई गुना बढ़कर 33.60 लाख करोड़ हो गया। ये राज्य जहां आर्थिक संघवाद की दुहाई दे रहे हैं वहीं केंद्र इसे अखंडता के खिलाफ उत्तर-दक्षिण विवाद बता रहा है।


Date:09-02-24

विकसित भारत का लक्ष्य

डॉ. धर्मेन्द्र प्रताप सिंह

भाजपा सरकार के दूसरे कार्यकाल का अंतरिम बजट प्रस्तुत किया जा चुका है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने बजट भाषण में एक महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव पेश किया है। जनसंख्या नियंत्रण और जनसांख्यिकी पर विशेष ध्यान देते हुए उन्होंने एक उच्चाधिकारप्राप्त समिति के गठन की प्रस्तावना रखी है। तीव्र जनसंख्या वृद्धि और जनसांख्यिकी परिवर्तनों से उत्पन्न चुनौतियों के मद्देनजर ‘विकसित भारत’ के लक्ष्य को प्राप्त करने की समस्याओं के पूर्ण निराकरण हेतु यह समिति व्यापक रूप से विचार-विमर्श करते हुए सरकार को अपनी सिफारिशें सौंपेगी।

अयोध्या में राममन्दिर की प्राण-प्रतिष्ठा के बाद भाजपा ने हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद से जुड़े अपने एक और मूल मुद्दे को अपनी कार्ययोजना में शामिल किया है। धर्म के आधार पर जनसंख्या का असंतुलन वर्षों से भाजपा के लिए बड़ा चुनावी मुद्दा रहा है। बहुसंख्यकों की जनसंख्या के मुकाबले अल्पसंख्यकों की जनसंख्या में तेजी से हुए उभार पर उसे सदैव आपत्ति रही है। ऐसे में यह मुद्दा घनघोर राजनीतिक मुद्दा जरूर लगता है, और सरकार के आलोचक इसे भारतीय समाज में विवाद बढ़ाने वाला भी करार दे सकते हैं। लेकिन आमजन को मिलने वाली सुविधाएं, सेवाएं और अर्थव्यवस्था के दृष्टिकोण से विचार करने पर शायद ही कोई इस मुद्दे की गंभीरता को कम करके आंके । जनसंख्या के मामले में आज जब भारत चीन के लगभग बराबर पहुंच चुका है, तो उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार की यह ठोस पहल जनसंख्या नियंत्रण के मसले पर नई एवं गंभीर चर्चा आरंभ करेगी।

विश्व के अधिकांश देशों की ‘तुलना भारत में जनसंख्या वृद्धि की दर काफी तेज है। वर्तमान भारत में जनसंख्या वृद्धि की गति को नियंत्रित करना एक बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। बढ़ती जनसंख्या न केवल स्वास्थ्य और शिक्षा संबंधित सेवाओं के सुचारु संचालन को बाधित करती है, बल्कि अन्य लगभग सभी जरूरी सार्वजनिक सेवाओं को भी प्रभावित करती रही है। यद्यपि भारत सरकार जनसंख्या नियंत्रण को राष्ट्रीय स्तर पर महत्त्वपूर्ण मुद्दा पहले ही घोषित कर चुकी है। लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री भी जनसंख्या विस्फोट को भविष्य की पीढ़ियों के लिए चुनौती बता चुके हैं। ऐसे में समिति के गठन की घोषणा कर उसके मद में कुछ धन आवंटित करना विकसित भारत के संकल्प को दुहराने जैसा ही है। जनसंख्या नियंत्रण पर ध्यान केंद्रित करने से न केवल जनसंख्या वृद्धि की गति को धीमा किया जा सकेगा, बल्कि उसी अनुपात में विकास की गति को भी तेजी मिल सकेगी। जनसंख्या नियंत्रण के लिए शिक्षा और जागरूकता को बढ़ावा देने के लिए बजट में शिक्षा के क्षेत्र में निवेश किया जाएगा। शिक्षा के माध्यम से जनता परिवार नियोजन की महत्ता समझेगी और अंततः जनसंख्या स्थिति के प्रति उनकी जागरूकता में वृद्धि होगी। बजट में स्वास्थ्य सेवाओं के लिए निवेश बढ़ाने से सामाजिक योजनाओं में जनसंख्या नियंत्रण को समाहित करने को प्रोत्साहन मिल सकेगा। परिणामतः देश को जनसंख्या समस्या का सामना करने में मदद मिलेगी और विकास की राह में जनसंख्या समस्या नहीं, बल्कि शक्ति बनकर उभरेगी।

लेकिन यह भी सच है कि किसी भी राष्ट्र और समाज में जनसंख्या नियंत्रण के कार्यक्रम लागू करने से सामाजिक असमानता की समस्याएं भी उत्पन्न हो सकती हैं। जातिगत अथवा आर्थिक आधार पर नियंत्रण के अधिक या कम प्रभावी होने से एक प्रकार का असंतुलन पैदा हो सकता है। जनसंख्या नियंत्रण के कार्यक्रमों को लागू करने में आवश्यक संसाधनों में कमी भी नीतियों के प्रभावी क्रियान्वयन में बाधा बन सकती है। इन जरूरी बिंदुओं पर विशेष ध्यान देते हुए जनसंख्या नियंत्रण के क्षेत्र में व्यापक और सर्वस्वीकृत नीतियां तैयार करने, जनसंख्या नियंत्रण की महत्वपूर्ण चुनौतियों का समाधान ढूंढने और संबंधित नीतियों एवं योजनाओं को अद्यतन करने के मंच के रूप में कार्य करने में ही समिति की सार्थकता बढ़ेगी। जनसंख्या नियंत्रण के संबंध में लोगों के बीच संचार मजबूत होगा तो जागरूकता बढ़ेगी। सरकार भी समस्याओं को गहराई से जान सकेगी और समर्थ नीतियों विकसित करने में सक्षम होगी। विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ नवीनतम आंकड़ों, अध्ययन और अनुसंधान द्वारा समस्याओं का समाधान खोज निकालने में तत्पर होंगे।

अनियंत्रित बढ़ती जनसंख्या की समस्या के समाधान के लिए यद्यपि सरकार ने अनेक नीतियों और योजनाओं को समय- समय पर अपनाया है परंतु समय के साथ बढ़ती जनसंख्या ने भारत के समक्ष सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तौर पर अनेक नई चुनौतियां भी पैदा की हैं। जनसंख्या वृद्धि दर पर नियंत्रण न होने के कारण रोजगार और आर्थिक विकास में गंभीर संकट दिखाई देता है। बढ़ती जनसंख्या स्वास्थ्य सेवाओं को भी अपर्वप्त बना देती है। बढ़ती जनसंख्या वातावरणीय संसाधनों पर भी भारी दबाव डालती है। परिणामतः जल, वन्य जीवन और जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव भी दिखाई पड़ने लगते हैं। जनसंख्या की बढ़ती दर का सरकार की प्रमुख चिंताओं में शुमार होना अपरिहार्य है। भविष्य में आने वाली चुनौतियों को समझना और उनके समाधान खोज निकालना समय की मांग है। जनसंख्या वृद्धि के कारण समाज पहले से ही अनेक आर्थिक और सामाजिक समस्याओं के साथ स्वास्थ्य सेवाओं एवं जरूरी संसाधनों की कमी की समस्याओं से भी जूझ रहा है।

जनसंख्या नियंत्रण इन समस्याओं एवं चुनौतियों से दूर ले जाते हुए अनंत संभावनाओं का द्वार खोल सकता है। संबंधित नीतियां और कार्यक्रम भारत की समृद्धि और समानता की दिशा में आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं। जनसंख्या नियंत्रण के कार्यक्रम लोगों की शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य सेवाओं की पहुंच में सुधार कर सकते हैं, ताकि उनका सामाजिक और आर्थिक उत्थान संभव हो इसलिए जनसंख्या नियंत्रण और जनसांख्यिकी के मुद्दे आधुनिक भारत के लिए महत्त्वपूर्ण है। प्रासंगिक नीतियों का निर्माण करते हुए जनसंख्या विस्फोट से जुड़ी चुनौतियों का समाधान करना विकसित भारत की दिशा में सार्थक पहल होगी।