09-02-2023 (Important News Clippings)
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Date:09-02-23
Quake Up Call
Turkiye, Syria impact magnified by poor construction. India must ensure building codes are followed
TOI Editorials
Quake-hit Turkiye and Syria hold a big lesson for India. The tragedy in those two countries would have been less severe had authorities in affected areas not tolerated poor construction and rampant violation of building code. This sounds scarily familiar in this country. Parts of the Indian peninsula lie in a seismically volatile zone – where the Indian and Eurasian tectonic plates meet. Around 59% of India is prone to earthquakes of different magnitudes – 11% in the very high-risk Zone V (Kashmir Valley, western Himachal, eastern Uttarakhand, the Northeast, Rann of Kutch), 18% in high-risk Zone IV (Delhi, parts of Maharashtra, Haryana, UP, Bengal and Bihar), and 30% in Zone III (Kerala, Goa, Lakshadweep, parts of MP, Jharkhand, Chhattisgarh).
It’s not that India doesn’t have norms for earthquake-resistant construction. There is the National Building Code (NBC), 2016, with specific sections on earthquake-resistant design and construction. But there’s no law asking for compliance. In Delhi an estimated 90% of buildings are at risk of collapsing in case of a strong earthquake. In 2019, MCD had drafted a safety audit policy to protect buildings from earthquakes. But this failed to take off because the onus of conducting and paying for the audit was put on the public.
True, there’s a cost in incorporating earthquake-resistant changes in buildings – 3-4% extra of total construction cost for residential buildings and 2-3% extra for offices. Surely, this is a cost worth bearing for saving lives and property. There are two ways forward. First, there needs to be greater public awareness about NBC guidelines to boost voluntary compliance. And second, municipalities should be encouraged to adopt NBC guidelines in their building bye-laws, making them mandatory. Earthquakes can’t be predicted, but measures to minimise loss of lives must be prioritised.
न्यायिक फैसले सबको समझाने की नई पहल
संपादकीय
चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) ने पिछले दिनों कहा कि देश की सबसे बड़ी कोर्ट के फैसले सभी क्षेत्रीय भाषाओं में अनूदित करने का बड़ा लाभ होगा। उन्होंने इसके लिए आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस टेक्नीक का प्रयोग करने की बात की। दरअसल हिंदी में फैसलों का अनुवाद करने में इसका प्रयोग इन दिनों काफी जोर-शोर से चल रहा है। प्रधानमंत्री ने कई बार पहले भी इस प्रयास को शुरू कर फैसलों को आम जनता के लिए सुलभ करने की बात कही थी। मद्रास के एआई टेक्नीक के एक विशेषज्ञ प्रोफेसर इस विषय पर काम कर रहे हैं। यह सच है कि आजादी के 70 साल बाद भी न्याय-प्रक्रिया और न्याय की बारीकियों के बारे में 99 फीसदी लोग, जिनका जीवन इन फैसलों से प्रभावित होता है, कुछ भी नहीं जानते। जिला और तहसील के वकील तक इन बड़े फैसलों के बारे में पूरी तरह वाकिफ नहीं होते क्योंकि वे अंग्रेजी में होते हैं। नतीजतन, न्याय दिल्ली में बैठे अभिजात्य वर्ग और कुछ बड़े वकीलों की बौद्धिक जुगाली का विषय बनकर रह जाता है। क्षेत्रीय भाषाओं में इन फैसलों के अनुवाद के बाद गांव का व्यक्ति भी उन्हें न केवल समझ सकेगा बल्कि अपने अधिकारों के प्रति और कानूनी जिम्मेदारियों को लेकर सजग हो सकेगा। राज्य के भ्रष्ट अभिकरण जैसे पुलिस या अन्य नियामक संस्थाओं में बैठे लोग उनको डरा-धमका नहीं सकेंगे।
Date:09-02-23
अभयारण्य
संपादकीय
वन्य जीव संरक्षण के लिए बनाए गए पार्कों, अरण्यों आदि को सैर-सपाटे की जगह बना देने ही का नतीजा है कि लुप्तप्राय जीवों की प्रजातियों को बचाने में कामयाबी नहीं मिल पा रही। इस तथ्य से पर्यावरण मंत्रालय अनजान नहीं है। मगर फिर भी कानूनों में बदलाव करके अभयारण्यों में चिड़ियाघर और सफारी शुरू करने की मंजूरी दे दी गई। पिछले साल जून में पुराने कानून में बदलाव करते हुए पर्यावरण मंत्रालय ने बाघ अभयारण्यों और दूसरे वन्यजीव संरक्षण के लिए बने अरण्यों और पार्कों के फैलाव वाले इलाकों में चिड़ियाघर और सैर-सपाटे के लिए खोलने की मंजूरी दे दी। इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने विशेष अधिकार प्राप्त समिति का गठन किया था। उस समिति ने सिफारिश की है कि अभयारण्यों और वन्यजीव संरक्षण पार्कों के फैलाव वाले इलाकों में ऐसी गतिविधियों की मंजूरी तुरंत वापस ली जानी चाहिए। इन फैलाव वाले इलाकों में केवल घायल या बीमार वन्यजीवों के उपचार आदि के लिए गतिविधियां शुरू की जा सकती हैं। खासकर बाघों के संरक्षण को लेकर इसमें अधिक चिंता जताई गई है, क्योंकि उनके संरक्षण को लेकर अब तक किए गए प्रयास विफल ही साबित हुए हैं। मानवीय गतिविधियों का उनके जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
यह छिपा नहीं है कि तमाम अभयारण्यों के भीतर और उनके फैलाव वाले इलाकों में सैर-सपाटे को बढ़ावा देने के मकसद से चोरी-छिपे अनेक प्रकार की व्यावसायिक गतिविधियां चलाई जाती हैं। बहुत सारे अभयारण्यों में मोटेल, विश्राम गृह, रेस्तरां और जलसे आदि के लिए जगहें बना दी गई हैं, जिनमें पूरे साल कुछ न कुछ गतिविधियां चलती रहती हैं। इन अभयारण्यों की तरफ सैलानियों को आकर्षित करने के लिए विज्ञापन तक दिए जाते हैं। कई जगह सफारी शुरू की गई है। यानी गाड़ियों में बिठा कर सैलानियों को उन वनों में विहार कराया जाता है। चिड़ियाघर खोलने की इजाजत देने के पीछे भी मकसद यही है कि इससे सैलानियों को आकर्षित किया जा सकता है। अभयारण्य और वन्यजीव पार्क पर्यटन को बढ़ावा देने का कारगर माध्यम साबित होते हैं। इसलिए सरकारें राजस्व के लोभ में ऐसी जगहों पर पर्यटन संबंधी गतिविधियों को बढ़ावा देती हैं। मगर इन गतिविधियों के चलते वन्यजीवों के स्वाभाविक जीवन पर बहुत बुरा असर पड़ता है। इससे उनकी प्रजनन क्षमता घटती और कई बीमारियां घेर लेती हैं। वन्यजीव अंगों की तस्करी करने वालों की भी इस तरह अभयारण्यों में घुसपैठ आसान हो जाती है। इसलिए वन्यजीवों के लिए काम करने वाली संस्थाएं और विशेषज्ञ लगातार कहते रहे हैं कि अभयारण्यों के आसपास व्यावसायिक गतिविधियां नहीं चलाई जानी चाहिए।
अभयारण्यों में होटल, मोटेल, रेस्तरां, जलसाघर, विश्रामगृह, सफारी आदि खुलने से वहां हर समय वाहनों की आवाजाही लगी रहती है। रात को भी तेज रोशनी होती और जलसों में बजने वाले तेज संगीत आदि से वन्यजीवों का स्वाभाविक जीवन प्रभावित होता है। वे हर समय एक प्रकार के भय में जीते हैं। न तो ठीक से उनका भोजन हो पाता है और न ही पूरी नींद ले पाते हैं। यही वजह है कि बहुत सारे लुप्तप्राय वन्यजीवों की प्रजनन दर घट जाती और वे बीमार रहने लगते हैं। बाघों के मामले में अनेक प्रयासों के बावजूद उनकी संख्या बढ़ाना चुनौती बनी हुई है। अभयारण्यों के भीतर मानवीय गतिविधियां समाप्त करने के इरादे से ही सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ साल पहले उनमें बसे गांवों को हटाने का आदेश दिया था। इन तथ्यों से वाकिफ होने के बावजूद अगर पर्यावरण मंत्रालय ने व्यावसायिक गतिविधियों की मंजूरी दी, तो यह हैरानी की बात है।
Date:09-02-23
ईएमआई होगी महंगी
संपादकीय
भारत में मुख्य मुद्रास्फीति (मुख्य रूप से विनिर्माण क्षेत्र की महंगाई) में क्रमिक आधार पर लगातार कमी आने और 6.25 प्रतिशत के ऊंचे स्त तक पहुँच चुकने के मद्देनजर रेपो दर (नीतिगत दर) में और वृद्धि की जरूरत सीमित होने के विचार के बरक्स केंद्रीय बैंक भारतीय रिजर्व बैंक ने बुधवार को रेपो दर 0.25 प्रतिशत बढ़ाकर 6.5 प्रतिशत करने का फैसला किया। महंगाई को लक्ष्य के अनुरूप दायरे में लाने के लिए आरबीआई ने चालू वित्त वर्ष की आखिरी द्विमासिक मौद्रिक नीति समीक्षा में एक बार फिर नीतिगत दर- रेपो रेट में वृद्धि की है। रेपो दर वह ब्याज दर है जिस पर वाणिज्यिक बैंक अपनी फौरी जरूरतों को पूरा करने के लिए केंद्रीय बैंक से कर्ज लेते हैं। इसमें वृद्धि का मतलब है कि बैंकों और वित्तीय संस्थानों से लिया जाने वाला कर्ज महंगा हो जाएगा यानी मौजूदा ऋण की मासिक किस्त (ईएमआई) बढ़ेगी। केंद्रीय बैंक का कहना है कि आने वाले समय में नीतिगत दर में और भी वृद्धि की जा सकती है क्योंकि उसका आकलन है कि मुख्य मुद्रास्फीति ऊंची बनी रह सकती है। गौरतलब है कि एसएंडपी ग्लोबल रेटिंग्स का आकलन था कि ब्याज दरों में बढ़ोतरी की अब जरूरत नहीं है क्योंकि भारत में मुख्य मुद्रास्फीति लंबे समय तक उच्च स्तर पर रहने के बाद 2022 की दूसरी छमाही से लगातार नीचे आ रही है। लेकिन रिजर्व बैंक ने इस आकलन के विपरीत फैसला किया है, तो इसलिए कि वह वैश्विक परिदृश्य की चुनौतियों को लेकर सतर्क है। वह चाहता है कि महंगाई का कारण बनने वाले कारकों पर अंकुश जरूरी है। रिजर्व बैंक को खुदरा मुद्रास्फीति को 4 प्रतिशत (दो प्रतिशत ऊपर या नीचे) के स्तर पर रखने की जिम्मेदारी मिली हुई है। रूस – यूक्रेन युद्ध जैसे बाहरी कारकों से खुदरा मुद्रास्फीति लगातार 11 माह तक संतोषजनक स्तर से ऊपर रही लेकिन नवम्बर, 2022 में यह 6 प्रतिशत से नीचे आ गई। दिसम्बर, 2022 में यह 5.72 प्रतिशत के स्तर पर थी। ऐसे में एसएंडपी ग्लोबल रेटिंग्स को लगा कि रेपो में वृद्धि की जरूरत नहीं है। लेकिन केंद्रीय बैंक का मानना है कि महंगाई में कमी के संकेत के बीच मुख्य खुदरा मुद्रास्फीति ऊंची बनी हुई है, जिसे नीचे लाने के लिए प्रतिबद्ध रहना होगा। भू- राजनीतिक तनाव की वजह से पैदा हुईं अनिश्चितताएं, वैश्विक वित्तीय बाजार में उतार-चढ़ाव, गैर-तेल जिंसों की कीमतों में तेजी और कच्चे तेल की कीमतों में उतार-चढ़ाव निश्चित ही वे कारक हैं, जिनसे सचेत रहना होगा।
अचानक बाल विवाह पर आक्रामक
प्रभाकर मणि तिवारी, ( वरिष्ठ पत्रकार )
देश की आजादी के 75 वर्ष बीत जाने के बावजूद कई राज्यों में बाल विवाह जैसी सामाजिक बुराई/कुरीति पर अब तक अंकुश नहीं लगाया जा सका है। अब असम सरकार बाल विवाह के खिलाफ इतनी कड़ाई बरतने लगी है कि शिकायत की गूंज पूरे देश तक पहुंच रही है। पहली नजर में, संबंधित राज्य सरकार की इच्छाशक्ति और सामाजिक संगठनों के साथ मिलकर चलाए जाने वाले जागरूकता अभियानों का अभाव और वोट बैंक की राजनीति को ही इसकी प्रमुख वजह माना जा सकता है। सामाजिक नजरिये से असम सरकार के अभियान की सराहना तो हो रही है, मगर उन पर एक खास तबके को निशाना बनाने के आरोप भी लग रहे हैं। हालांकि, सरकार ने इस आरोप से इनकार किया है।
हमारे देश में बाल विवाह की कुरीति बहुत पुरानी है। इस सामाजिक बुराई की जड़ें सामाजिक व्यवस्था में छिपी हैं। पहले बच्चों की तादाद ज्यादा और आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने के कारण यह परंपरा समाज के लगभग सभी तबकों में प्रचलित थी। बीतते समय के साथ इसमें कुछ बदलाव जरूर आया है, लेकिन अब भी कई राज्यों में यह जस की तस कायम है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक, देश के कई राज्यों में शादी की कानूनी उम्र का पालन नहीं किया जा रहा है।
आंकड़ों के लिहाज से देखें, तो पश्चिम बंगाल में 42 फीसदी, बिहार में 40 फीसदी, त्रिपुरा में 39 फीसदी, झारखंड में 35 फीसदी, आंध्र प्रदेश में 33 फीसदी, असम में 32 फीसदी, तेलंगाना में 27 फीसदी, राजस्थान और मध्य प्रदेश में 25-25 फीसदी लड़कियों की शादियां कानूनी उम्र से पहले की जा रही हैं। लड़कों के मामले में भी तस्वीर ज्यादा अलग नहीं है। बिहार में 25, गुजरात, राजस्थान और मध्य प्रदेश में 24-24 फीसदी, झारखंड में 22 फीसदी और पश्चिम बंगाल में 20 फीसदी लड़कों की शादी 21 वर्ष से पहले हो जाती है। आजादी के 75 वर्ष बाद यह तस्वीर भयावह है। भारत में बाल विवाह की राष्ट्रीय औसत दर करीब 23.3 फीसदी है। चिंता की बात यह है कि भारत के आठ राज्यों में बाल विवाह की दर राष्ट्रीय औसत दर से ज्यादा है। इनमें से तीन राज्यों की तस्वीर तो और भी भयावह है। दरअसल, बंगाल, बिहार और त्रिपुरा में लगभग 40 फीसदी और झारखंड में 32.2 फीसदी लड़कियों का विवाह उनके 18 वर्ष की उम्र से पहले ही हो जाता है। इसका नतीजा नवजात शिशुओं और माताओं की उच्च मृत्यु दर के तौर पर सामने आता है।
केंद्रीय गृह मंत्रालय की ओर से जारी डेमोग्राफिक सैंपल सर्वे की ताजा रिपोर्ट पर भरोसा करें, तो पश्चिम बंगाल और झारखंड देश के दो ऐसे राज्य हैं, जहां आधी से ज्यादा लड़कियों की शादी 21 वर्ष की उम्र से पहले कर दी जाती है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि राष्ट्रीय स्तर पर 29.5 फीसदी लड़कियों की शादी 21 वर्ष की उम्र से पहले हो जाती है। पश्चिम बंगाल में जहां यह आंकड़ा 54.9 फीसदी है। वहीं, झारखंड के मामले में यह 54.6 फीसदी है। यह सर्वेक्षण वर्ष 2020 में किया गया था और इसकी रिपोर्ट बीते वर्ष के आखिर में सामने आई थी। असम के पड़ोसी पश्चिम बंगाल के लोगों को राजनीतिक और सामाजिक रूप से बेहद जागरूक माना जाता है। कहावत काफी मशहूर है कि बंगाल जो आज सोचता है, वह बाकी देश कल सोचता है, लेकिन ऐसी कहावत वाले बंगाल में भी बाल विवाह धड़ल्ले से होते हैं। हालांकि, ममता बनर्जी सरकार की ओर से इस पर अंकुश लगाने के लिए शुरू की गई कन्याश्री जैसी योजनाओं से खासकर झारखंड से सटे पुरुलिया जिले में इसमें कुछ गिरावट जरूर आई है, लेकिन इसे जड़ से खत्म करना अभी संभव नहीं हो सका है। असम में बाल विवाह करने और कराने वालों के खिलाफ बिना किसी पूर्व चेतावनी सरकार की ओर से शुरू किए गए व्यापक अभियान और इसके तहत ढाई हजार से ज्यादा लोगों को हिरासत में लेने पर विवाद लगातार तेज हो रहा है। बाल विवाह कराने वाले पुजारी से लेकर काजी तक के खिलाफ मामले दर्ज किए जा रहे हैं। पुलिस के मुताबिक, इन मामलों में आठ हजार से ज्यादा लोगों की गिरफ्तारी होनी है, क्या इससे असम में बाल विवाह हमेशा के लिए रुक जाएगा? क्या इससे देश के दूसरे प्रदेश प्रेरणा लेंगे? असम में गिरफ्तारियों के विरोध में खासकर महिलाएं सड़क पर उतर आई हैं। उन्होंने पुलिस थाने और हाईवे का घेराव किया है। इस मुद्दे पर अब सियासत भी तेज हो गई है, पर असम सरकार ने इस अभियान को जारी रखने की बात कही है। इसके लिए विशेष जेल बनाई जा रही है।
विपक्षी नेताओं का आरोप है कि बाल विवाह रोकथाम अधिनियम कोई नया नहीं है, लेकिन बावजूद इसके प्रशासन की नाक तले इतने बड़े पैमाने पर बाल विवाह कैसे होते रहे? कांग्रेस नेता और बरपेटा के सांसद अब्दुल खालेक कहते हैं कि हम बाल विवाह के खिलाफ हैं और इसे हर हाल में रोका ही जाना चाहिए, लेकिन वर्षों पहले शादी करने वाले किसी दंपतियों की गिरफ्तारी गले से नीचे नहीं उतरती। गिरफ्तारी के बाद उनके बच्चों की देखभाल कौन करेगा? असम प्रदेश तृणमूल कांग्रेस अध्यक्ष रिपुन बोरा कहते हैं कि किसी खास तबके को निशाना बनाने के लिए कानून को हथियार नहीं बनाया जाना चाहिए।
एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने सवाल उठाते हुए कहा है कि सरकार लड़कों को जेल भेज देगी, तो लड़कियों का क्या होगा? अनेक नेता पुलिस की कार्रवाई को अल्पसंख्यक विरोधी बता रहे हैं। किसी भी लोकतांत्रिक सरकार के लिए जरूरी है कि वह ऐसे आरोपों से बचे। ऐसा कतई संदेश न जाने दे कि वह समाज के खास वर्ग को निशाना बना रही है।
समाजशा्त्रिरयों का कहना है कि बाल विवाह जैसी गंभीर सामाजिक बुराई के खिलाफ बड़े पैमाने पर जागरूकता अभियान और कार्रवाई, दोनों जरूरी हैं, लेकिन किसी के साथ अन्याय न हो, यह भी सुनिश्चित हो। बाल विवाह विरोधी अभियान देश के तमाम पिछड़े राज्यों में जरूरी हैं, लेकिन तौर-तरीके ऐसे हों कि कोई उंगली न उठाए।