09-02-2018 (Important News Clippings)

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09 Feb 2018
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Date:09-02-18

बदलाव जो शिक्षा, सेहत की तस्वीर बदल देगा

गुरचरण दास स्तंभकार एवं लेखक

डेढ़ दशक के दौरान भारत में निजी स्तर पर दान में छह गुना बढ़ोतरी ने देश के धनी वर्ग के बारे में कई धारणाएं तोड़ीं
वर्ष 1960 में हुई दो घटनाओं का मेरे जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। जब मैं 17 वर्ष का था तो मुझे अमेरिका की हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से अंडरग्रेजुएट स्कॉलरशिप मिली। मैं वहां सिर्फ इसलिए जा पाया, क्योंकि एक अज्ञात अमेरिकी परिवार ने स्कॉलरशिप का पैसा दिया। मुझे कभी उस परिवार का पता नहीं चला। मैं जब विदेश में पढ़ रहा था तो मुझे शर्म आती थी, क्योंकि अखबार भारत को ‘बास्केट केस’ कहते थे। सूखे के वर्षों में अमेरिका से अनाज से लदा जहाज ‘हर दस मिनट’ में भारतीय बंदरगाह पर पहुंचता था ताकि भारतीयों को भूखों मरने से बचाया जा सके। लेकिन, जल्द ही परिस्थिति दर्शनीय रूप से बदल गई। अमेरिकी वैज्ञानिक नारमन बोरलॉग ने मैक्सिको के रिसर्च सेंटर में गेहूं की एक चमत्कारी संकर किस्म खोजने में भूमिका निभाई। इस रिसर्च सेंटर में रॉकफेलर फाउंडेशन ने फंडिंग की थी। इस खोज ने भारत में ‘हरित क्रांति’ लाने में मदद की। इसका श्रेय प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के कृषि मंत्री सी. सुब्रह्मण्यम को भी है, जिन्होंने तत्काल दो हवाई जहाज भरकर इस चमत्कारी बीज का ऑर्डर दिया और उन्हें पंजाब में बोया गया।

इन दो घटनाओं को जो जोड़ता है वह है निजी स्तर पर अमेरिकी परोपकार की परम्परा। व्यक्तिगत स्तर पर एक अज्ञात दानदाता ने यह संभव बनाया कि मैं दुनिया की श्रेष्ठतम शिक्षा हासिल करूं। राष्ट्रीय स्तर पर रॉकफेलर की परोपकारिता ने ऐसी वैज्ञानिक सफलता दिलाई, जिसने भारत को समृद्धि दिलाई। इन दो कहानियों को याद करने का मेरा उद्देश्य यह बताना है कि ऐसा ही कुछ इन दिनों भारत में हो रहा है- परोपकार के क्षेत्र में मौन क्रांति। प्रतिष्ठित बैन/दसरा इंडिया फिलैंथ्रॉपी रिपोर्ट 2017 के मुताबिक पिछले पांच वर्षों में विदेशी दान या कॉर्पोरेट दान अथवा सरकारी कल्याण कार्यक्रमों में फंडिंग की तुलना में व्यक्तिगत स्तर पर निजी दान अधिक तेजी से बढ़ा है। यह 2001 में 6000 करोड़ से छह गुना बढ़कर 2016 में 36,000 करोड़ रुपए हो गया। सरकार अब भी कल्याणकारी कार्यक्रमों पर 1,50,000 करोड़ रुपए खर्च करके सबसे अधिक योगदान दे रही है लेकिन, यदि यही ट्रेंड जारी रहता है तो निजी स्तर पर होने वाली परोपकारिता भविष्य में शिक्षा, स्वास्थ्य में सुधार लाने और गरीबी मिटाने में महत्वपूर्ण भू्िमका निभाएगी।

इससे यह धारणा खारिज होती है कि धनी भारतीय व्यवसायी चैरिटेबल नहीं हैं- जब वे पैसे देते भी हैं तो मंदिरों में ईश्वर को खुश करने के लिए। हमें यह याद रखना होगा कि 1991 में 97 फीसदी टैक्स रेट वाला ‘लाइसेंस राज’ जाने के बाद भारतीयों ने गंभीरता से संपदा इकट्ठा करना शुरू किया। आमतौर पर पहली पीढ़ी पैसा कमाती है और उसका दिखावा करती है जैसे लक्ष्मी मित्तल ने फ्रांस में अपनी बेटी की मशहूर शादी के अवसर पर किया। दूसरी पीढ़ी को पैसे की नहीं, सत्ता की कामना होती है, इसीलिए केनेडी और रॉकफेलर राजनीति में आए। पैसे तथा सत्ता में जन्मी तीसरी पीढ़ी सम्मान चाहती है और खुद को परोपकार तथा कलाओं के प्रति समर्पित कर देती है। 19वीं और 20वीं सदी की शुरुआत में अमेरिका के ‘रॉबर बैरॉन युग’ (अनैतिक व एकाधिकार वादी तरीकों से खूब पैसा इकट्ठा करने वाले और जबर्दस्त राजनीतिक प्रभाव वाले बिज़नेसमैन) में भी स्टील किंग एंड्रयू कारनेगी ने अपनी 90 फीसदी संपत्ति अमेरिकी शहरों में सार्वजनिक लाइब्रेरी स्थापित करने के लिए दे दी। उनका यह कथन मशहूर है, ‘जो धनी होकर मरता है, वह अपमानित होकर मरता है।’जिस तरह ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था में संपदा उत्पन्न करने का चक्र छोटा हो गया है, चक फीनी से प्रेरित बिल गेट्स ने तीन पीढ़ियों का चक्र तोड़ दिया और अपने ही जीवन में पैसा दे दिया।

वारेन बफे ने भी यही किया। गेट्स अपने ‘गिविंग प्लेज’ (देने के संकल्प) से दुनियाभर के युवा आंत्रप्रेन्योर को अपने ही जीवनकाल में आधी संपत्ति देने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। उन्होंने अजीम प्रेमजी, नंदन नीलेकणि, शिव नादर, सुनील मित्तल, अाशीष धवन और कई उदार लोगों को प्रेरित किया है। धवन के मामले में इसका नतीजा विश्वस्तरीय लिबरल आर्ट्स यूनिवर्सिटी की रचना में हुआ, जिसके उनकी जैसी सोच वाले कई संस्थापक हैं। यदि आपको अशोका में प्रवेश मिल जाए तो आपको किसी अज्ञात दानदाता से स्कॉलरशिप मिलना तय है। नादर भी विश्वस्तरीय संग्रहालय बना रहे हैं।पंचतंत्र की शुरुआत में ही एक बहुत अच्छी कहानी है जो बताती है कि एक अधिक उम्र का व्यापारी युवा व्यापारी को सलाह देता है कि सफल जीवन के लिए चार हुनर चाहिए। एक, वह कहता है तुम्हें पैसा कमाना सीखना चाहिए। दो, फिर इसे संरक्षित रखना सीखना होगा- इसे कालीन के नीचे छिपाइए मत बल्कि इस पर ब्याज कमाकर इसे बढ़ाइए। तीन, तुम्हें मालूम होना चाहिए कि इसे कैसे खर्च करें- कंजूस न बनें तो शाहखर्च होने से भी बचें। आखिर में, इसे देना सीखो।

बहुत धनी लोगों की भी अपनी समस्या होती है। वे अपने बच्चों को इतना पैसा देना चाहते हैं कि वे उनमें जिस भी चीज के लिए जुनून हो, उसे वे सीख सकें पर वे इतना नहीं देना चाहते कि वे कुछ भी करें ही नहीं। अमेरिका के सबसे धनी परिवारों में से एक के बेटे जॉन डी. रॉकफेलर ने कहा है, ‘मुझे शुरुआत से ही काम करने, पैसा बचाने और दान देने का प्रशिक्षण मिला।’ भारत मानव विकास सूचकांक पर 130वें स्थान पर होने से धनी भारतीय गरीबों की ज़िंदगी में सुधार लाने के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं। वे कभी सरकार की जगह नहीं ले सकते। किंतु बुद्धिमत्तापूर्वक श्रेष्ठतम एनजीओ को देकर और यह सुनिश्चित करके कि एनजीओ पैसे का ठीक से उपयोग करें, वे बहुत बड़ा फर्क ला सकते हैं। कई कंपनियां मूल्यवान काम करने में सीएसआर लॉ (जिसके तहत कंपनी को 50 फीसदी फंड डेवलपमेंट चैरिटी को देना होता है) का इस्तेमाल कर रही हैं। इसमें सबसे अच्छा यह है कि वे अपने कर्मचारियों को हफ्ते के कुछ घंटे एनजीओ को कोई कौशल सिखाने के लिए देने को कहती हैं ताकि उनका चैरिटेबल योगदान अधिक असरदार हो सके। आप इसे कुछ भी कहें- परोपकार, चैरिटी, स्वेच्छा दान लेकिन भारतीय इससे बहुत कुछ सीख सकते हैं, जो वाकई अमेरिकी परम्परा का मुकुट-मणि है।


Date:09-02-18

भारत की नीति को संतुलित करेगी प्रधानमंत्री की यात्रा

संपादकीय

विरोधियों को चौंकाने और चौखटे से बाहर जाकर कदम उठाने में माहिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संयुक्त अरब अमीरात, फिलीस्तीन और ओमान के लिए होने वाला तीन दिवसीय दौरा भारत की पारंपरिक विदेश नीति को नए संदर्भ में परिभाषित करने का प्रयास है। यह फिलीस्तीन और इजराइल के बीच भारत के रिश्तों को संतुलित करने का कदम तो है ही, साथ ही मध्य-पूर्व में बिगड़ते राजनयिक समीकरणों में भारत के हस्तक्षेप का प्रयास भी है। भारत फिलीस्तीन का तब से समर्थक है जब इजरायल का गठन किया गया था। भारत के स्वाधीनता संग्राम के महान नेताओं ने यहूदियों के पक्ष में हमदर्दी जताते हुए भी फिलीस्तीनियों के साथ अन्याय का विरोध किया था।

अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी फिलीस्तीन और इजरायल के साथ अपनत्व प्रदर्शित करने की कोशिश कर रहे हैं तो इसके पीछे हमारी वही संतुलित मानवतावादी विदेश नीति है। इस संदर्भ में मोदी की तारीफ करनी चाहिए कि अगर वे इजरायल का दौरा करने वाले भारत के पहले प्रधानमंत्री बने तो फिलीस्तीन का भी दौरा करने वाले भी पहले ही हैं। इससे पहले भारत ने संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के उस प्रस्ताव के विरोध में मतदान भी किया जिसमें तेल अवीव की जगह यरुशलम को इजरायल की राजधानी घोषित कर दिया गया। फिलीस्तीनी राष्ट्रपति मोहम्मद अब्बास जब इजरायल से होने वाले सारे पुराने समझौतों को रद्द करने की बात कर रहे हैं तो भला नए को कैसे स्वीकार करेंगे? ऐसे में भारत का प्रयास कोई स्वीकार्य रास्ता निकालने का हो सकता है। ओमान पहली बार और संयुक्त अरब अमीरात के दौरे पर दूसरी बार जा रहे प्रधानमंत्री मोदी का मकसद इन देशों के साथ रणनीतिक और व्यावसायिक रिश्ते मजबूत करने और अमीरात से पिछले साल हुए समझौतों को साकार करने का है। इन देशों से भारत का पुराना रिश्ता तो है ही, यहां भारतीयों और विशेष तौर पर गुजरातियों की अच्छी संख्या है। यह देश हिंद महासागर तटवर्ती संघ (आईओआरए) के सदस्य भी हैं और उनकी उपयोगिता ऊर्जा संबधी सहयोग और आतंकवाद विरोधी अभियान के लिए है। इस दौरे से भारत मालदीव में उभरते भारत विरोधी राजनीतिक वातावरण को भी नियंत्रित कर सकता है और भारत को इस्लामी देशों के करीब साबित करके पाकिस्तान और घरेलू राजनीति पर भी प्रभाव डाल सकता है।


Date:09-02-18

कार्यस्थल पर लैंगिक समानता कायम करने की कीमत

कनिका दत्ता

आम बजट में महिला कर्मचारियों के भविष्य निधि अंशदान को मानक 12 फीसदी से कम करके 8 फीसदी करने का प्रस्ताव रखा गया है जबकि नियोक्ता के अंशदान में कोई बदलाव नहीं है। क्या 4 फीसदी का यह अंतर और अधिक महिलाओं को कंपनियों में रोजगार की ओर ले आएगा? इसकी संभावना नहीं है। आइए जानते हैं क्यों? पहली बात, यह प्रोत्साहन इतना ज्यादा नहीं है कि महिलाएं इसकी बदौलत अचानक रोजगार तलाशना शुरू कर दें। यह बात याद रखने लायक है कि एक वक्त था जब करदाता महिला कर्मचारियों को पुरुषों की तुलना में ज्यादा स्टैंडर्ड डिडक्शन का लाभ मिलता था। हालांकि 1990 के दशक में इसे खत्म कर दिया गया। उस वक्त भी हममें से अधिकांश लोगों को संतुष्टिï मिली थी लेकिन कार्यस्थल पर लैंगिक समानता कायम करने की दिशा में कोई खास मदद नहीं मिली।

दूसरा, सरकार ने इस मसले को गलत जगह से उठाया है। जैसा कि वित्त मंत्री ने कहा भी भविष्य निधि संबंधी राहत का उद्देश्य श्रमशक्ति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाना है। परंतु श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी में लगातार आ रही गिरावट के बारे किए गए शोध से पता चलता है कि आम धारणा के उलट महिलाओं की भागीदरी में कमी इसलिए नहीं आ रही है कि वे उच्च शिक्षा ले रही हैं। इसके लिए सामाजिक वजह भी उत्तरदायी नहीं हैं। विश्व बैंक के जेंडर विभाग की वरिष्ठï निदेशक कैरेन ग्राउन के मुताबिक द्वितीयक और तृतीयक शिक्षा में उच्च नामांकन इस गिरावट के बहुत मामूली हिस्से के लिए उत्तरदायी है।

तीसरी बात, इस प्रोत्साहन को संगठित क्षेत्र में देना कोई खास समझदारी नहीं है क्योंकि देश के रोजगार में इस क्षेत्र की हिस्सेदारी बहुत सीमित है। जहां तक बाद लैंगिक संतुलन की है तो वास्तविक मुद्दा आज भी वही है जो पहले था। यानी महिलाओं को श्रमशक्ति में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित करने से बड़ी समस्या है कंपनियों को उन्हें काम पर रखने के लिए प्रोत्साहित करना। हमें पता है कि महिलाओं को काम पर न रखने के पीछे काफी हद तक भारतीय समाज में निहित मर्दवादी धारणा जिम्मेदार है। परंतु इसके लिए कई अन्य कारक भी उत्तरदायी हैं। इनमें से एक प्रमुख वजह है महिलाओं के लिए उपयुक्त कार्य परिस्थितियों का न होना। इसमें न केवल यौन शोषण से संरक्षण का मसला है बल्कि बेहतर शौचालय और रात की पाली में काम करने वाली महिलाओं के लिए सुरक्षित माहौल का न होना भी बड़ी वजह है। कई फैक्टरी मालिक तो लागत बचाने के लिए शौचालय बनाते ही नहीं हैं और रात की पाली में काम करने वाले कर्मचारियों को परिवहन सुविधा नहीं दी जाती। वे फैक्टरी के फर्श पर ही सो जाते हैं। ये हालात पुरुषों के लिए चल भी जाएं तो महिलाओं के लिए नहीं चल सकते।

इसके अलावा वह सनातन शिकायत तो है ही कि महिलाओं के मां बनने पर कंपनी को पूरी छुट्टी देनी पड़ती है और खर्च उठाना पड़ता है और इस पूरी अवधि के लिए उनका स्थानापन्न खोजना पड़ता है। सरकार ने महिलाओं और शिशुओं के स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए उक्त लागत तो बढ़ा ही दी, साथ ही मातृत्व अवकाश भी 12 सप्ताह से बढ़ाकर 26 सप्ताह का कर दिया। 50 या उससे अधिक कर्मचारियों वाले संस्थानों के लिए पालनाघर बनाना अनिवार्य कर दिया गया है। ये सभी प्रावधान समझदारी भरे प्रतीत होते हैं क्योंकि भारतीय समाज में बच्चे को पालने की जिम्मेदारी महिलाओं पर ही होती है।कई बड़े निगम, खासतौर पर बहुराष्टï्रीय आईटी कंपनियों की अनुषंगियों में वर्षों से ऐसी सुविधाएं मिल रही हैं और वे अपने कर्मचारियों में महिलाओं की अच्छी खासी तादाद को लेकर सचेत हैं। सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां और बैंक भी इस मामले में उदार हैं लेकिन ऐसे बड़े और धनाढ्य संस्थान अपवाद हैं क्योंकि वे इस लागत को वहन कर सकते हैं। सरकारी कंपनियां ऐसा इसलिए करती हैं क्योंकि वे कानून का पालन करने को बाध्य हैं। कई भारतीय कंपनियों खासतौर पर छोटे और मझोले उद्यमों को यह लागत बोझ लगती है, इसलिए वे महिलाओं को काम पर रखने से ही परहेज करते हैं।

चूंकि एमएसएमई अभी भी देश में रोजगार पैदा करने के अहम स्रोत हैं और तमाम लोग ऐसे भी हैं जो औपचारिक रोजगार परिदृश्य से बाहर हैं तो ऐसे में सरकार के लिए बेहतर यही होता कि वह भविष्य निधि प्रावधान के बजाय कहीं अधिक उचित प्रोत्साहन की तलाश करती। हम मानकर चल रहे हैं कि सरकार महिलाओं को श्रमशक्ति में शामिल करने को लेकर उत्सुक है और उनको केवल वोट का जरिया नहीं समझती। उस लिहाज से देखें तो बेहतर होगा कि मातृत्व और शिशु से जुड़े लाभ का बोझ कंपनियों पर कम से कम करने के लिए सरकार इस क्षेत्र में सब्सिडी का प्रावधान करे। परंतु ऐसा करने में सक्षम आपूर्ति की समस्या बरकरार रहेगी। परंतु अगर कंपनियों को मातृत्व लाभ और पालनाघर की सुविधा देने पर कर रियायत दी जाए तो कैसा रहे? इन प्रस्तावों का क्रियान्वयन करना आसान है और इसके दुरुपयोग की आशंका भी बहुत कम है क्योंकि मातृत्व अवकाश हमेशा चिकित्सक के प्रमाणपत्र के बाद ही जारी किया जाता है। हो सकता है छोटे उद्यम इसके बाद भी अपने यहां लैंगिक संतुलन कायम करने पर विचार न करें क्योंकि उनमें से कई कर दायरे से ही बाहर हैं।एक सवाल वेतन भत्तों में असमानता और प्रोन्नति का भी है। पुरुष कर्मचारियों को महिलाओं की तुलना में तेजी से प्रोन्नति मिलती है। ये सभी अहम मुद्दे हैं लेकिन इन्हें तभी हल किया जा सकता है जब इसकी सामूहिक आलोचना शुरू की जा सके और इतनी तादाद में हो कि वह नतीजों को प्रभावित कर सके। श्रम शक्ति में महिलाओं की हिस्सेदारी पर बात करके शुरुआत की जा सकती है।


Date:09-02-18

मालदीव पर मौन से नहीं चलेगा काम

डॉ. रहीस सिंह

भारत एक अरसे से ‘नेबर्स फर्स्ट यानी ‘पड़ोसी पहले की नीति को अपनी विदेश नीति में वरीयता दे रहा है, लेकिन इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि भारत के कुछेक छोटे पड़ोसी देश अविश्वास और बाह्य आकर्षण के सिंड्रोम का शिकार हैं। इसी वजह से इन देशों में चीनी रणनीति को आधार मिल जाता है और घरेलू स्तर पर अस्थिरता व संघर्ष जैसी स्थितियां उत्पन्न् हो जाती हैं। फिलहाल यही स्थिति मालदीव में देखी जा सकती है। आलम यह है कि इस माहौल में मालदीव की सरकार अपने दूतों को चीन, पाकिस्तान व सऊदी अरब भेज रही है, लेकिन इस मुल्क की विपक्षी पार्टियां, पूर्व राष्ट्रपति और न्यायपालिका भारत की ओर आस भरी नजरों से देख रहे हैं। ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि भारत किस विकल्प को चुने? क्या अपने राष्ट्रीय हितों और मालदीव के नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा को देखते हुए यह आवश्यक नहीं है कि भारत वहां ऑपरेशन कैक्टस का इतिहास पुन: दोहराए? या वह अपने आदर्श के अनुरूप तटस्थ रहने की नीति का वरण करे? एक सवाल यह भी उठता है कि यदि भारत मालदीव में सक्रियता दिखाता है तो चीन इसे किस रूप में लेगा और किस तरह की प्रतिक्रिया करेगा?हिंद महासागर में स्थित लगभग सवा चार लाख की आबादी वाले लघु पड़ोसी देश मालदीव में पिछले कुछ समय से जो कुछ भी हो रहा है, उसे सिर्फ अंदरूनी सियासी उथल-पुथल तक सीमित नहीं माना जा सकता, बल्कि इसके दूरगामी निहितार्थ हैं। यह कहीं न कहीं भारतीय हितों को भी प्रभावित करता है। आबादी की दृष्टि से मालदीव भले ही महत्वपूर्ण न हो और उसकी आर्थिक हैसियत बड़ी न हो, लेकिन हिंद महासागर में उसकी भौगोलिक स्थिति उसे सामरिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण बना देती है। विशेषकर जब चीन वहां निर्णायक रणनीतिक स्थिति में हो, सऊदी अरब धार्मिक-आर्थिक रूप से मालदीव की मौजूदा सरकार का समर्थक बना हो और पाकिस्तान धार्मिक-सैन्य रूप से वहां मजबूत हैसियत रखता हो, तब वहां उभरने वाली कोई भी हलचल हमारे लिए भी कहीं ज्यादा संवेदनशील और सचेत करने वाली हो जाती है।

यदि हम अतीत के कुछ पन्न्े पलटें तो स्पष्ट हो जाएगा कि मालदीव में आज जो सियासी ड्रामा चल रहा है, उसकी पटकथा बहुत पहले ही लिखी जा चुकी थी, अर्थात 2012 से पहले ही, जब मोहम्मद नशीद को राष्ट्रपति पद से हटाया गया था। भारतीय राजनय को उसी समय मालदीव की स्थिति को सही से समझना और फिर उसके मुताबिक एक्शन लेना था। लेकिन उस समय भारतीय राजनय ऐसा करने में नाकाम रहा। नतीजा यह हुआ कि भारत के प्रति सकारात्मक, मैत्रीपूर्ण रवैया रखने वाले मोहम्मद नशीद सत्ता से बाहर हो गए और अब निर्वासित जीवन बिता रहे हैं। मोहम्मद नशीद की असफलता के बाद वहां की सत्ता कट्टरपंथी अब्दुल्ला यामीन के हाथों में चली गई। हालांकि उस समय खेले गए इस राजनीतिक ड्रामे में पूर्व राष्ट्रपति मामूल अब्दुल गयूम की भी भूमिका अहम रही थी, जिन्हें यामीन ने नजरबंद कर रखा है। सेना और कट्टरपंथी तत्व दो अन्य ऐसे घटक थे, जो तबसे लेकर अब तक यामीन के साथ हैं और इन्हीं की बदौलत यामीन इस हद तक जाने की कोशिश कर पा रहे हैं।

ध्यान रहे कि यामीन ने सत्ता हासिल करने के बाद सेना और कट्टरपंथ की ताकत को आधार बनाकर अपने विरोधियों को खत्म किया, उन्हें जेल में डाला तथा लोकतंत्र को कमजोर कर दिया। अपने इन प्रयासों के साथ वे निरंकुश एकाधिकारवादी शासक बनने की ओर अग्रसर होते गए। वर्ष 2018 तक पहुंचते-पहुंचते वे मुतमईन हो गए कि अब उन्हें चुनौती देने वाला कोई नहीं बचा। लेकिन पिछले दिनों जब सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश दिया कि सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा किया जाए, तब राष्ट्रपति यामीन ने बड़ा झटका महसूस किया। अब उनके पास दो विकल्प थे। एक यह कि वे अपने फैसले वापस ले लें और दूसरा यह कि उन्हें बरकरार रखते हुए आगे बढ़ें। यदि पहला विकल्प चुनते तो उन्हें सत्ता छोड़नी पड़ जाती और नशीद के लिए रास्ता साफ हो जाता। इस स्थिति में यामीन आने वाले समय में जेल भी पहुंच सकते थे। इसलिए उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के आदेश को मानने से इनकार करते हुए आपातकाल की घोषणा कर दी। आपातकाल यामीन के लिए आखिरी दांव था। लेकिन सवाल यह उठता है कि यामीन इस दांव को किसके दम पर खेल गए? अपने या फिर चीन के अथवा चीन, सऊदी अरब और पाकिस्तान के दम पर?

इसके बाद मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति और विपक्ष के नेता मोहम्मद नशीद ने ट्वीट के जरिए भारत से गुहार लगाई कि उसे सैन्य हस्तक्षेप कर राष्ट्रपति यामीन द्वारा गिरफ्तार कराए गए जजों और विपक्ष के नेताओं को आजाद कराना चाहिए।भारत इस संदर्भ में कोई प्रतिक्रिया देता, इससे पहले ही चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता गेंग शुआंग की तरफ से बयान आ गया किमालदीव की संप्रभुता को ध्यान में रखते हुए अंतरराष्ट्रीय समुदाय को इस मामले में कोई भी रचनात्मक कदम नहीं उठाना चाहिए। ऐसा करने से मालदीव की स्थिति और बिगड़ सकती है।चीनी प्रवक्ता ने भारत का नाम तो नहीं लिया, लेकिन चीन का इशारा किधर था, यह भारत भी अच्छी तरह से समझ रहा है। सवाल यह उठता है कि चीन को ऐसा क्यों कहना पड़ा? वह दक्षिण एशियाई देशों का नेता या संरक्षक तो है नहीं!

दरअसल मालदीव की विपक्षी पार्टियों का कहना है कि राष्ट्रपति यामीन चीन के समर्थन की वजह से ऐसा कदम उठा रहे हैं। उन्होंने चीन के साथ मुक्त व्यापार समझौता किया है और देश में चीन की कई परियोजनाओं कोे मंजूरी दी है। मालदीव चीन के वन बेल्ट वन रोड प्रोजेक्ट का समर्थन भी कर रहा है (हाल ही में मालदीव ने चीन के साथ मैरीटाइम सिल्क रूट से जुड़े एमओयू भी साइन किए हैं) और उसका मारओ बंदरगाह चीन की ‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स पॉलिसी का एक अहम भाग है। साफ हैकि हिंद महासागर में मालदीव की भौगोलिक स्थिति सामरिक लिहाज से चीन को अपने लिए बेहद उपयोगी लग रही है। चीन-मालदीव की यह दोस्ती भारत को घेरने या रणनीतिक रूप से भारत को कमजोर करने संबंधी एक भू-सामरिक फ्रंट तैयार करने की जुगत लगती है, जिसके जरिए चीन अपने विस्तारवादी मंसूबे पूरा करना चाहता है।

कुल मिलाकर मालदीव की समस्या केवल घरेलू नहीं है, क्योंकि राष्ट्रपति यामीन के पीछे असल ताकत के रूप में चीन और सहयोगियों के रूप पाकिस्तान व कुछ हद तक सऊदी अरब खड़े हुए हैं। यानी अब राष्ट्रपति यामीन के सफल होने का मतलब होगा चीन का सफल होना। फिर असफल कौन होगा? इसका हम सहज ही अनुमान लगा सकते हैं। अत: भारत के लिए यह आवश्यक है कि वह मालदीव में सक्रिय हस्तक्षेप करे। किंतु भारत के हस्तक्षेप का आशय होगा चीन के साथ टकराव। यानी चीन मालदीव को भूटान (डोकलाम) की तरह संघर्ष का मैदान बनाना चाहेगा। ऐसे में भारत को कोई अग्रगामी कदम उठाने से पहले चीन को सामने रखना होगा। लेकिन यदि भारत ऐसा नहीं करता है तो वह न केवल मालदीव, बल्कि अन्य सदाशय पड़ोसी देशों की लोकतांत्रिक शक्तियों तथा उनकी जनता को भी यह संदेश देने से चूक जाएगा कि भारत उनकी सुरक्षा, स्थिरता व प्रगति के प्रति सजग और संवेदनशील है।


Date:08-02-18

Khap menace

on interference in relationships between adults

It is a sad comment that courts need to keep curbing interference in love and marriage

EDITORIAL

Each time the Supreme Court feels impelled to remind khap panchayats and the society at large that they have no business interfering in the life choices of individuals regarding marriage and love, it is an implicit commentary on our times. The frequency with which one hears the court’s warnings against groups and individuals obstructing inter-faith or inter-caste relationships reaffirms the fact that the social milieu continues to be under the sway of the medieval-minded. The court’s latest observations that khap panchayats should not act as though they are conscience-keepers of society and that no one should interfere in relationships between adults came while it was hearing a writ petition seeking a ban on such community organisations and guidelines to put an end to “honour killings”. In 2011, the highest court termed such khaps “kangaroo courts”, declared them illegal and wanted them stamped out ruthlessly. Similar observations were made in other cases too, some of them in the context of “honour killings”. It is a grave misfortune that parents and self-appointed guardians of social mores continue to use coercion and harassment, and even resort to murderous violence, as a means to enforce their exclusionary and feudal prejudices. The recent murder of Ankit Saxena, a photographer who was in love with a Muslim girl, allegedly by members of her family, is one more extreme indication of families choosing the penal consequences of violence over the perceived dishonour caused by an inter-religious relationship. While the popular narrative situates community pride as a source of unconscionable violence in rural India, such murders are a reality in cities and among educated and presumably socially advanced sections too.

The other dimension is that these khap organisations in north India seek to enforce age-old taboos such as the prohibition on sagothra marriages among Hindus. Their grouse is that the present law on Hindu marriage allows sapinda relationships up to a particular degree; they would prefer a limitless bar on any degree of such relationship in lineal ascendancy, which would prevent any marriage with one presumed to be descended from an ancestor belonging to the same gothra. Such views can only be eradicated with a change in social attitudes. The Law Commission in 2012 prepared a draft bill to prohibit interference in marriage alliances. Key provisions that seek to address the problem of khap panchayats in this draft say such informal groups would be treated as an ‘unlawful assembly’ and decisions that amount to harassment, social boycott, discrimination or incitement to violence should be punishable with a minimum sentence. Whether the solution is social transformation or legislative change, high-handed mediation or interference should brook no sympathy.


Date:08-02-18

खतरे में क्यों पड़ गई है राजहंसों की शरणस्थली

पंकज चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार

देश के सबसे महत्वपूर्ण सामरिक व अंतरिक्ष महत्व के स्थान श्रीहरिकोटा की पड़ोसी पुलीकट झील को दुर्लभ हंसावर या राजहंस का सबसे मुफीद आश्रय-स्थल माना जाता रहा है। विडंबना है कि थोड़ी सी इंसानी लापरवाही के चलते देश की इस दूसरी सबसे विशाल खारे पानी की झील का अस्तित्व खतरे में है। चैन्नई से कोई 60 किलोमीटर दूर स्थित यह झील महज पानी का दरिया नहीं, लगातार सिकुड़ती जल-निधि पर कई किस्म की मछलियां, पक्षी और हजारों मछुआरे परिवारों का जीवन भी निर्भर है। यहां के पानी में विषैले रसायनों की मात्रा बढ़ रही है, वहीं इलाके के पारिस्थितिकी तंत्र से हुई लगातार छेड़छाड़ का परिणाम है कि समुद्र व अन्य नदियों से जोड़ने वाली प्राकृतिक नहरें गाद से पट रही हैं। समुद्र से जुड़ी ऐसी झीलों को अंग्रेजी में लेगून और हिंदी में अनूप या समुद्र-ताल कहते हैं। पुलीकट, चिल्का के बाद देश का सबसे विशाल अनूप है।

पुलीकट झील आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु की सीमाओं में फैली है। स्थानीय लोग इसे ‘पलवेलकाड’ कहते हैं। इसके बीच कोई 16 द्वीप हैं। तकली के आकार का लंबोतरा श्रीहरीकोटा द्वीप, इस झील को बंगाल की खाड़ी के समुद्र से अलग करता है, जहां पर मशहूर सतीश धवन स्पेस सेंटर भी है। इसके साथ ही दो छोटे-छोटे द्वीप – इरकाम व वेनाड भी हैं, जो इस झील को पूर्वी और पश्चिमी हिस्से में विभाजित करते हैं। इससे ठीक सटा हुआ है पुलीकट पक्षी अभयारण्य।

यह इलाका कभी समुद्र के किनारे शांत हुआ करता था। इसीलिए सदियों से ठंड के दिनों में साठ हजार से अधिक प्रवासी पक्षी यहां आते रहे हैं। विशेषरूप से पंद्रह हजार से अधिक राजहंस (फ्लेमिंगो) और साइबेरियन क्रेन यहां की विशेषता रही हैं। यह अथाह जल निधि 59 किस्म की वनस्पतियों का उत्पादन-स्थल भी है, जिनमें से कई का इस्तेमाल खाने में होता है। एक ताजा सर्वे बताता है कि पिछले कुछ दशकों में इस झील का क्षेत्रफल 460 वर्ग किलोमीटर से घटकर 350 वर्गकिलोमीटर रह गया है। पहले इसकी गहराई चार मीटर हुआ करती थी, जो अब बमुश्किल डेढ़ मीटर रह गई है।
झील में मछली पकड़ने के लिए जाल फेंकने के बढ़ते निरंकुश चलन से इसमें मौजूद पारंपरिक वनस्पतियों का नुकसान हो रहा है। रही-सही कसर मछली पकड़ने के लिए डीजल से चलने वाली नावों व मशीनों को अनुमति देने से पूरी हो गई। इसने मछलियों की पारंपरिक किस्मों और मात्रा पर विपरीत प्रभाव डाला।

आंध्र प्रदेश वाले हिस्से से अरनी व कलंगी नदी का पानी सीधे इसी झील में गिरता है, जो अपने साथ बड़ी मात्रा में नाली की गंदगी, रासायनिक अपमिश्रण और औद्योगिक कचरा लाता है। तमिलनाडु की ओर झील के हिस्से को सबसे अधिक खतरा गाद के बढ़ते अंबार से है, जिस कारण समुद्र से झील में साफ पानी की आवाजाही धीरे-धीरे कम हो रही है। यह रास्ता संकरा व उथला हो गया है। झील को समुद्र से जोड़ने वाले रास्ते की 20वीं सदी में औसत गहराई डेढ़ मीटर थी, जो आज घटकर एक मीटर से भी कम हो गई है। यहां गाद जमने की गति प्रत्येक सौ साल में एक मीटर आंकी गई है। यही नहीं, यदि उपाय नहीं किए गए, तो आने वाली सदी में इस अनूप का अस्तित्व ही समाप्त होने का खतरा है। बीते 20 वर्षों में यहां पारंपरिक रूप से मिलने वाली मछलियों की कम-से-कम 20 और झींगों की कोई दो किस्में बिल्कुल लुप्त हो चुकी हैं। पुलीकट झील के किनारें खुलते गए व्यावसायिक प्रतिष्ठानों-कारखानों ने भी इसे खूब नुकसान पहुंचाया।

प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के अंतरराष्ट्रीय संगठन आईयूसीएन ने इसे अंतरराष्ट्रीय महत्व का स्थान घोषित कर रखा है, तो डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की सूची में यह ‘संरक्षित क्षेत्र’ है। इस इलाके के पर्यावरण पर दूरगामी योजना बनाकर काम नहीं हुआ, तो पुलीकट झील देश के लुप्त हो रहे ‘वेट-लैंड’ की अगली कड़ी हो सकती है। सनद रहे, वेट-लैंड के नष्ट होने से ‘ग्लोबल वार्मिंग’ जैसे कुप्रभाव का दायरा बढ़ रहा है। वेट-लैंड की दुर्गति का मतलब है, तापमान में बढ़ोतरी, बारिश में कमी और प्राकृतिक विपदाओं को न्योतना।