
08-12-2016 (Important News Clippings)
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नोटबंदी की अनिश्चितता के बीच यथास्थिति का फैसला
धुंधली तस्वीर
यह साफ है कि रिजर्व बैंक नोटों को बदलने के लिए चल रही पूरी कवायद के अर्थव्यवस्था पर पडऩे वाले असर के बारे में आंकड़े आने का इंतजार करेगा। केंद्रीय बैंंक को नोटबंदी के चलते आपूर्ति में आ रहे गतिरोधों और मांग पर आ रहे दबाव के अलावा दिसंबर और फरवरी के बीच प्रतिकूल आधार प्रभाव, तेल कीमतों में संभावित बढ़ोतरी, अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व की तरफ से ब्याज दरों में बढ़ोतरी की संभावना, रुपये की कीमत में आ रही गिरावट और खुदरा महंगाई में वृद्धि जैसे बिंदुओं से संबंधित आंकड़ों का इंतजार रहेगा। ये जोखिम बुनियादी तौर पर उस अनिश्चितता से संबंधित हैं जो अर्थव्यवस्था को लेकर रिजर्व बैंक के आकलन को भी प्रभावित कर रहे हैं। इसके आकलन में कहा गया है कि नोटबंदी के अस्पष्ट असर पर गौर करना होगा लेकिन उसके लिए ‘देखो और इंतजार करो की नीति अपनानी होगी। रिजर्व बैंक का यह आकलन प्रेक्षकों की उम्मीदों के ठीक उलट है जिनका मानना था कि नीतिगत समीक्षा से नोटबंदी के बारे में स्थिति स्पष्ट होगी। लेकिन रिजर्व बैंक ने नोटबंदी के बाद की अपनी पहली समीक्षा में ब्याज दरों को स्थिर रखने के साथ ही अस्पष्ट नजरिया अपनाकर उद्योग जगत और बैंकरों को भी निराश किया है।
वैसे रिजर्व बैंक ने बुधवार को घोषित अपनी समीक्षा में कुछ स्वागतयोग्य घोषणाएं भी की हैं। भले ही रिजर्व बैंक ने नोटबंदी से जुड़े तमाम पहलुओं पर स्थिति साफ नहीं की है लेकिन यह जरूर बताया है कि गत 10 नवंबर को नोट वापसी और पुराने नोट जमा करने की शुुरुआत होने के बाद से अब तक 11.55 लाख करोड़ रुपये मूल्य के नोट बैंकों के पास आ चुके हैं। इस आंकड़े ने रिजर्व बैंक की तरफ से सरकार को अप्रत्याशित लाभ दिए जाने की अटकलों को खारिज कर दिया है। इसके साथ ही यह सवाल भी खड़ा हो रहा है कि नोटबंदी की पूरी मुहिम से आर्थिक स्तर पर कौन से लाभ हासिल होंगे? विशेष तौर पर रिजर्व बैंक ने कहा है कि बैंकों को 10 दिसंबर से 100 फीसदी नकद आरक्षित अनुपात (सीआरआर) रखने की जरूरत नहीं होगी। बाजार स्थिरीकरण योजना बॉन्ड की सीमा को चालू वित्त वर्ष के लिए 30,000 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 6 लाख करोड़ रुपये किए जाने से ऐसा संभव हो पाया है और इस फैसले से बैंकों पर बोझ कम करने में मदद मिलेगी।
रिजर्व बैंक ने यह भरोसा दिलाने की कोशिश की है कि देश के भीतर पर्याप्त नकदी मौजूद है। उसका कहना है कि 100 रुपये और उससे कम मूल्य वाले 19.1 अरब नोट मौजूद हैं जो कि पिछले तीन वर्षों की कुल संख्या से भी अधिक है। निष्कर्ष यह है कि अगर रिजर्व बैंक ने नोटबंदी के बाद के हालात को लेकर थोड़ी स्पष्टता दिखाई होती तो बेहतर होता। रीपो दर में कटौती से भी बात बन सकती थी, भले ही इससे बाजार का मिजाज बेहतर होने के अलावा कुछ खास हासिल नहीं होता।
वायु प्रदूषण के गुनहगार
मान लीजिए कि जनस्वास्थ्य के नुकसान के उपचार पर हजारों लोगों को सम्मिलित रूप से 500 रुपये खर्च करने पड़ते हैं। लिहाजा संपूर्ण समाज की दृष्टि से डीजल कार का उपयोग बंद कर देना चाहिए। कार मालिक को इलेक्ट्रिक कार का उपयोग करने के लिए बाध्य करना चाहिए। इलेक्ट्रिक कार का उपयोग करने से समाज पर 200 रुपये का बोझ पड़ेगा, परंतु जहरीली हवा के कम होने से समाज को 500 रुपये की बचत होगी, लेकिन समाज ऐसा नहीं कर पाता है, क्योंकि ऐसा करने से हानि समाज के प्रभावी वर्ग की होती है और लाभ कमजोर वर्ग को। मान लीजिए डीजल कारों के उपयोग से आम आदमी के परिवार के स्वास्थ्य में गिरावट से 50 पैसे प्रतिदिन की हानि होती है। परिवार इस 50 पैसे को देने को भी तैयार है, ताकि उसे शुद्ध हवा मिल जाए। कार मालिक इलेक्ट्रिक कार को भी खरीदने को तैयार है, यदि उसे 200 रुपये प्रतिदिन की सब्सिडी दे दी जाए। प्रत्येक आम परिवार से 50 पैसे लेकर 200 रुपये डीजल मालिक को दे दिए जाएं तो दोनों प्रसन्न होंगे। फिर भी ऐसा नहीं होता है, क्योंकि 1000 परिवारों से 50-50 पैसे वसूल कर डीजल कार मालिक को 200 रुपये देने की व्यवस्था नहीं है। ऐसी व्यवस्था के अभाव में डीजल कार बंद करने का सर्वहितकारी कदम लागू नहीं हो पाता है। डीजल कार की बंदी सार्वजनिक स्तर पर हो तब ही लाभप्रद होगी। एक उदाहरण से बात स्पष्ट हो जाएगी।
राजस्थान के झुनझुनू जिले के गांवों में वर्षा के मौसम में कातरा नामक कीड़े बड़ी मात्रा में फसल को नुकसान पहुंचाते थे। गांव वालों द्वारा एक दिन ढोल बजाया जाता था। उस दिन सभी किसान अपने खेतों की मेड़ों पर कचरे में आग जलाते थे। पूरे गांव में एक साथ आग जलने से सभी कीड़े आग में घिरकर जल जाते थे। पूरे गांव की फसल कीड़े के प्रकोप से बच जाती थी, लेकिन किसान विशेष के लिए अकेले आग जलाना घाटे का सौदा हो जाता था। उसकेखेत में आग जलने से पूरे क्षेत्र के कीड़े आकर ज्यादा नुकसान पहुंचाते थे। इसी प्रकार यदि एक मालिक डीजल कार का उपयोग बंद करे तो उसके लिए दोहरे घाटे का सौदा हो जाता है। उसे 200 रुपये प्रतिदिन की हानि होगी और स्वास्थ्य का लाभ भी नहीं होगा, क्योंकि अन्य लोगों द्वारा डीजल कार का उपयोग करने से वायु प्रदूषण बरकरार रहेगा। इस समस्या का एक मात्र समाधान है सरकार डीजल कारों को चलाने पर प्रतिबंध लगा दे। तब सभी मालिक इलेक्ट्रिक कार चलाएंगे। संभव है कि सरकार इस नीति को लागू भी करना चाहती हो, परंतु डीजल कारों के मालिक ज्यादा प्रभावी होते हैं।
नेता, अधिकारी और व्यापारी द्वारा ही डीजल कारों का उपयोग किया जाता है। इस प्रभावी वर्ग के दबाव में सरकार द्वारा डीजल कार पर प्रतिबंध नहीं लगाया जाता है। यह प्रभावी वर्ग प्रदूषण से भी उतना प्रभावित नहीं होता है जितना कि आम आदमी। इनके ऑफिस में सेंट्रल एयर कंडीशनिंग सिस्टम लगा रहता है जो वायु को प्रदूषण से मुक्त कर देता है। इसी प्रकार यह वर्ग बोतलबंद पानी का उपयोग कर अपने आप को बचा लेता है। इसलिए इस वर्ग की मानसिकता डीजल कार का उपयोग करने की बनी रहती है। निष्कर्ष है कि वायु प्रदूषण से संपूर्ण समाज को हानि हो रही है, क्योंकि सरकार अपने दायित्व को नहीं निभा रही है। बताते चलें कि बीते समय में दिल्ली सरकार द्वारा बसों तथा टैक्सियों को सीएनजी पर चलाए जाने का नियम बनाया गया, जो इसी सिद्धांत के क्रियान्वयन का स्वर्णिम अपवाद है। वायु प्रदूषण का दूसरा मुख्य स्नोत उद्योग हैं। उद्योगों द्वारा जहरीली गैस छोड़ी जाती है। लाभ चुनिंदा उद्यमियों अथवा प्रभावी वर्ग को होता है, जो कि उद्योगों द्वारा उत्पादित अधिकाधिक माल की खपत करता है। उससे कई गुना नुकसान आम जनता को होता है।
तीसरा स्नोत बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन है। इसमें बड़ी मात्रा में धूल उड़ती है। लाभ चुनिंदा बिल्डरों को होता है, लेकिन हानि लाखों परिवारों की होती है। चौथा स्नोत कोयला आधारित बिजली प्लांट है। इनके द्वारा कार्बन डाईऑक्साइड के साथ-साथ सल्फर तथा नाइट्रोजन के हानिकारक केमिकल्स वायु में छोड़े जाते हैं। बायलर की गैस को हवा में छोड़ने के पहले इन केमिकल को पकड़ कर अलग किया जा सकता है। उत्सर्जित कार्बन को पकड़ने के लिए वृक्षारोपण किया जा सकता है। इन कार्यों को करने में बिजली कंपनियों पर भार पड़ेगा और लाभ पूरी जनता को होगा। पांचवां स्नोत जल विद्युत परियोजनाएं हैं। टिहरी, भाखड़ा और सरदार सरोवर जैसी झीलों से जहरीली मीथेन गैस निकलती है। कोयले और जलविद्युत परियोजनाओं से बनी बिजली का अधिकाधिक प्रयोग प्रभावी वर्ग ही करता है। इनका मासिक बिजली का बिल 10,000 रुपये होना आम बात है। प्रदूषण के इन स्नोतों पर प्रतिबंध लगाया जाए तो इस वर्ग को हानि ज्यादा होती है। वायु प्रदूषण का अंतिम स्नोत खेतों में जलाई जाने वाली पराली है। किसानों द्वारा धान की बाली को ऊपर से काट लिया जाता है। शेष पराली को खेत में ही आग के हवाले कर दिया जाता है, क्योंकि इसका दूसरा लाभप्रद उपयोग नहीं है। इसे जलाने पर प्रतिबंध से किसान पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ पड़ता है। यह विषय ‘जनता’ के दो वर्गों के बीच का है। लाभान्वित होने वाले किसान और प्रदूषण का खामियाजा उठाने वाले परिवार, दोनों ही ‘जनता’ है। इस समस्या का उपाय है कि पराली के दूसरे उपयोग पर सब्सिडी दी जाए। जैसे इससे कागज और बिजली बनाई जा सकती है। तब किसान के लिए इसे एकत्रित करके उद्योगों तक पहुंचाना लाभप्रद हो जाएगा। वायु प्रदूषण के हर स्नोत के पीछे सरकार पर प्रभावी वर्ग का दबदबा है। सीएनजी के अपने सफल अनुभव का अनुसरण करते हुए सरकार को ऊपर बताए वायु प्रदूषण के तमाम स्नोतों पर रोक लगानी चाहिए। ऐसा करना देश के लिए लाभ का सौदा है।
[ लेखक डॉ. भरत झुनझुनवाला, आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं और आइआइएम बेंगलुरु में प्रोफेसर रह चुके हैं ]
आम लोगों की राय का मिथक
बाबा साहब अंबेडकर की बरसी पर यह लिखना वाकई एक मुफीद वक्त है कि मैं भारतीय संविधान की सावधानियों का मुरीद हूं। इसमें संरक्षित लोकतांत्रिक प्रकियाओं को गहराई से जानने-समझने के बहुत पहले स्कूली छात्र के तौर पर मुझे उन अनेक स्वतंत्रताओं को जीने और सराहने की सीख मिली थी, जिसे इस ग्रंथ में बाबा साहब ने हमारे लिए सहेजा है। मगर इस साल मैं भारतीय संविधान का खास तौर से इसलिए शुक्रगुजार बन गया कि इसने एक लोकतांत्रिक कवायद की इजाजत अपने शासकों को नहीं दी, और वह है जनमत-संग्रह। कुछ राजनीतिक विज्ञानी जिसे ‘अति-लोकतंत्र’ कहते हैं, उस नजरिये से यह साल बेहद खराब रहा है। जून में हुए एक जनमत-संग्रह का नतीजा ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से बाहर निकलने की शक्ल में आया; अगस्त के जनमत-संग्रह में थाई लोगों ने एक ऐसे संविधान के हक में फैसला दिया, जिसमें फौज को बड़ी भूमिका दी जाएगी; अक्तूबर माह में कोलंबिया में हुए जनमत-संग्रह ने राष्ट्रपति जुआन मैनुएल सांतोस को फार्क विद्रोहियों के साथ शांति-समझौता करने की इजाजत नहीं दी; तो वहीं रविवार के जनमत-संग्रह में इटली के लोगों ने सांविधानिक-सुधारों के खिलाफ अपना मत दिया।
बाहरी विश्लेषकों के नजरिये से ये तमाम फैसले प्रतिगामी हैं: ब्रेग्जिट न सिर्फ ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था को कमजोर बनाएगा, बल्कि दुनिया को प्रभावित करने की उसकी हैसियत में भी कमी आएगी। शांति-समझौता एक लंबे खूनी संघर्ष को खत्म कराने के इरादे से प्रेरित था, जिसकी बहुत बड़ी कीमत कोलंबिया ने चुकाई है, तो वहीं दशकों की सियासी व आर्थिक अस्थिरता ने यह उजागर किया है कि इटली के संविधान में सुधार की फौरन जरूरत है। फिर भी, इन तमाम जनमत-सर्वेक्षणों में बहुमत ने देश के हितों के खिलाफ अपना वोट दिया। दो मामलों में तो जनमत-सर्वेक्षणों के नतीजों ने ताकतवर और करिश्माई राजनेताओं को सत्ता से बेदखल कर दिया- ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन और अब इटली के पीएम मैटियो रेंजी। दोनों ने अपनी कुरसी दांव पर लगाई थी और दोनों को उसे छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा, क्योंकि नतीजे उनकी राय के खिलाफ गए थे।
‘हिन्दुस्तान टाइम्स लीडरशिप समिट’ में शिरकत करने के लिए डेविड कैमरन पिछले सप्ताहांत नई दिल्ली में थे। उस सम्मेलन में मैंने उनसे पूछा कि क्या उन्हें इस बात का अब कोई मलाल है कि यूरोपीय संघ में ब्रिटेन की सदस्यता को लेकर जनमत-संग्रह कराने का उन्होंने फैसला किया? एक निपुण एडर्वटाइजिंग एग्जिक्यूटिव से राजनेता बने कैमरन का जवाब था, ‘मुझे फैसले (जनता के) पर अफसोस है। लेकिन एक डेमोक्रेट के तौर पर जनमत-संग्रह कराने और उसके नतीजों से बंधे होने को लेकर आप पछता नहीं सकते।’ भले ही कैमरन उस फैसले पर दोबारा गौर करने को तैयार न हों, मगर उनके मुल्क के बहुत सारे लोग ऐसी राय रखते हैं। हालिया सर्वे बताते हैं कि ऐसे बहुत सारे लोग, जिन्होंने जनमत-संग्रह में ब्रेग्जिट के हक में वोट डाले थे, अब पछता रहे हैं और उनकी इस मनोदशा, यानी ‘ब्रेगरेट’ को भुनाने की बात भी चल पड़ी है।
आप सोच रहे होंगे कि सांतोस और रेंजी को बे्रग्जिट के उदाहरण से सबक लेते हुए अपना मकसद पूरा करने के लिए जनमत-संग्रह की बजाय कोई और रास्ता अख्तियार करना चाहिए था। दरअसल, अपने राजनीतिक विरोधियों को मात देने और सीधे अवाम के बीच जाने की ललक उनमें ज्यादा बड़ी थी। राजनेताओं के लिए जनमत-संग्रह की मोहक शक्ति उसकी सरलता व निश्चयात्मकता में निहित होती है: आप एक जटिल सवाल उठाते हैं, और उसे ‘हां’ या ‘नहीं’ के प्रस्ताव में सीमित कर देते हैं, फिर उसे जनता के बीच लोकप्रिय राय के लिए पेश कर देते हैं। इस तरह की चालाकी से अर्जित निर्णय ठोस वैधता हासिल कर लेता है। जाहिर है, एक आदर्श फैसले में बहुमत आपकी दलील के पक्ष में खड़ा होता है, बल्कि अगर ऐसा न भी हो, तब भी यह संतोष तो रहता ही है कि इस मसले पर अब और अधिक बहस की जरूरत नहीं बची और सभी आगे बढ़ जाते हैं। लेकिन जनमत-संग्रहों की सरलता ही उनकी खामी भी है।
ज्यादातर राजनीतिक प्रस्ताव, जिन्हें इस तरीके से जनमत-संग्रह से गुजरना पड़ा, बेहद जटिल रहे हैं, और उनको ‘हां’ या ‘नहीं’ के विकल्प में सीमित कर देना दरअसल उसके नतीजे की गंभीरता को कम करके आंकना है। आम तौर पर सियासी पार्टियां मुद्दों को गरमाती हैं और मतदाताओं के डर व पूर्वाग्रहों से खेलती हैं। उदाहरण के लिए, जो पार्टियां ब्रेग्जिट के पक्ष में थीं, उन्होंने अनेक ब्रिटिश नागरिकों के बीच यह दलील परोसी थी कि यूरोपीय संघ में बने रहने का मतलब देश की सरहदों को शरणार्थियों के लिए खोलना होगा, और मुमकिन है कि उनमें से कुछ आतंकी निकल आएं। इसी तरह, इटली में संविधान-संशोधन के विरोधियों ने यह तर्क पेश किया कि इन सुधारों से निर्वाचित प्रतिनिधियों की बजाय परदे के पीछे बैठे नौकरशाहों का देश पर नियंत्रण कायम हो जाएगा।
जनमत-संग्रह के पैरोकार यह दलील देते हैं कि इसमें सब कुछ खराब नहीं है। वे स्विटजरलैंड की नजीर पेश करते हैं, जो स्थिरता का शानदार प्रतीक है। स्विस लोग इसे ‘प्रत्यक्ष लोकतंत्र’ कहते हैं, जो कई बार ‘प्रतिनिधिक लोकतंत्र’ के उलट दिखता है, जिनमें जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि मुद्दों पर बहस करके फैसले करते हैं। लेकिन वास्तव में स्विटजरलैंड में ये दोनों रूप हैं, बल्कि ज्यादातर फैसले पार्लियामेंट ही करती है, न कि सीधे लोग।
क्या एक जनमत-संग्रह को खारिज किया जा सकता है? बड़ी कीमत चुकाए बिना यह मुमकिन नहीं, यानी ऐसा करने पर धन, वक्त और साख, सबका नुकसान तय है। बहरहाल, फिलहाल ऐसा नहीं लगता है कि थेरेसा मे जनमत-संग्रह का प्रस्ताव करेंगी।
जहां तक कोलंबिया के जनमत-संग्रह का सवाल है, तो सांतोस को दूरदर्शिता दिखाते हुए यह धमकी नहीं देनी चाहिए थी कि अगर फार्क के साथ उनके शांति-समझौते के प्रस्ताव को जनता ने नहीं स्वीकारा, तो वह इस्तीफा दे देंगे, क्योंकि ऐसे में उनके पास एक राजनीतिक मौका तो होता कि वह उसमें कुछ संशोधन के साथ फिर से उसे सामने रख पाते। कुछ भारतीय नेता भी यह चाहत रखते हैं कि वे अपने बड़े लक्ष्यों पर सीधे जनता की रजामंदी लें। जैसे, ब्रेग्जिट से प्रभावित अरविंद केजरीवाल ने ट्वीट किया था: ‘ब्रिटेन के जनमत-संग्रह के बाद अब दिल्ली में भी पूर्ण राज्य के मसले पर जनमत-संग्रह कराया जाएगा।’ शुक्र है कि यह सोच कल्पना से आगे नहीं बढ़ सकती थी। न तो दिल्ली के मुख्यमंत्री ऐसा कर सकने में सक्षम हैं और न आपातकाल के चरम दिनों में इंदिरा गांधी ही ‘प्रत्यक्ष लोकतंत्र’ के लिए भारतीय संविधान में संशोधन करने में सक्षम थीं। शुक्रिया बाबा साहब!।
बॉबी घोष, प्रधान संपादक हिन्दुस्तान टाइम्स