08-08-2018 (Important News Clippings)

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08 Aug 2018
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Date:08-08-18

महिला अपराधों में बिहार को टक्कर देता उत्तर प्रदेश

संपादकीय

बिहार के मुजफ्फरपुर से सटे उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के नारी संरक्षण गृह में भी उसी तरह का सेक्स रैकेट पकड़े जाने से यह लगने लगा है कि दोनों प्रदेशों में सत्ता और एनजीओ का गठजोड़ समाज सेवा के नाम पर एक ही तरह के घृणित अपराधों में लिप्त है। देवरिया में पुलिस की कार्रवाई में पता चला है कि रजिस्टर में दर्ज 42 अंतःवासियों में से 18 अभी भी गायब हैं। संबंधित एनजीओ की मान्यता तो क्रेच में अनियमितता के कारण एक साल पहले रद्‌द हो गई थी और इस बार जब जिला परिवीक्षा अधिकारी जांच करने गए तो उनसे झड़पों के बाद यह रहस्योद्‌घाटन हुआ कि वहां तो सेक्स का रैकेट चल रहा है।

देवरिया मुजफ्फरपुर जैसा बड़ा शहर नहीं है और वहां किसी ऐसे रैकेट को लंबे समय तक छुपा पाना कठिन होगा। पौराणिक देवारण्य नाम वाले इस जनपद का हिस्सा कभी भगवान बुद्ध की परिनिर्वाण स्थली कुशीनगर(अब जिला) भी रही है। गन्ना उत्पादन और चीनी मिलों से मिलने वाली समृद्धि पर टिके इस जनपद की साक्षरता दर राज्य की 70 प्रतिशत के विपरीत 74 प्रतिशत के राष्ट्रीय स्तर के करीब है। यहां स्त्री-पुरुष का लैंगिक अनुपात भी 1000 पुरुषों के मुकाबले 1013 है। इसके बावजूद अगर समाजवादी और साम्यवादी आंदोलन के गढ़ और चोटी के विद्वत जनों की जन्मस्थली रहे देवरिया में इतने जघन्य अपराध हो रहे हैं तो इसमें प्रदेश की नई सरकार के योगदान से इनकार नहीं किया जा सकता।

उत्तर प्रदेश में पिछले एक साल में महिलाओं पर होने वाले अपराधों में 24 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। वहां आठ महिलाओं से प्रतिदिन दुष्कर्म होता है और 30 महिलाएं रोज अगवा होती हैं। योगी सरकार ने इस मामले में अभियुक्तों की गिरफ्तारी और जिलाधिकारी की बर्खास्तगी जैसी कार्रवाई तो तुरंत की है लेकिन,यहां बसपा नेता मायावती की वह टिप्पणी मौजूं लगती है कि मौजूदा सरकार को चला रही पार्टी के लोग अपने को कानून से ऊपर मानते हैं। दूसरी तरफ स्वयं सेवी संगठनों का कारोबार मानवाधिकारों और समाज सेवा के बजाय धन और सत्ता कमाने और कालेधन को सफेद करने का एक बहाना भी बनता चला गया है। इसलिए यह धंधा अफसरों और राजनेताओं के संरक्षण में फलता-फूलता है। वे समाज की बुराई मिटाने की बजाय स्वयं ही बुराई के केंद्र बनते चले जा रहे हैं। ऐसे में सरकारी चौकसी के साथ समाज को भी जागरूक बनाना ही होगा।


Date:08-08-18

समझ और संवेदनशीलता

संपादकीय

असम में राष्ट्रीय नागरिक पंजी (एनआरसी) का अंतिम मसौदा तैयार होने के पहले जो विवादास्पद कवायद हुई उसे कहीं और ही समर्थन मिलता दिख रहा है। गत सप्ताह भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की पश्चिम बंगाल इकाई ने वहां भी ऐसी ही कवायद दोहराए जाने की मांग की। इतना ही नहीं त्रिपुरा के सत्ताधारी गठबंधन के सदस्य इंडीजीनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (आईपीएफटी) ने त्रिपुरा में, जनता दल (यूनाइटेड) ने नगालैंड में और कुछ सामाजिक कार्यकर्ता समूहों ने मेघालय और मिजोरम में यह प्रक्रिया दोहराने की मांग की है। क्या सरकार को इन मांगों पर विचार करना चाहिए? असम में इस प्रक्रिया की खामियों की बात सामने आई है। अपने नागरिकों का निर्धारण करना निरपवाद रूप से किसी सरकार की जवाबदेही है। खासतौर पर तब जबकि नागरिकता के साथ करदाताओं के पैसे से लोगों को कल्याणकारी लाभ मिलते हों।

असम में एनआरसी की प्रक्रिया को सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में अंजाम देने पर जोर दिए जाने के बावजूद हकीकत यह है कि यह एक बांटने वाले राजनीतिक समझौते की देन है। यह समझौता सन 1985 में तत्कालीन केंद्र सरकार और असम आंदोलन के नेताओं के बीच हुआ था। ये नेता अवैध अप्रवासियों को चिह्नित कर उनके देश वापस भेजने की मांग कर रहे थे। ये तथाकथित अवैध प्रवासी मुख्यतौर पर बांग्लादेशी मुस्लिम थे। उनमें से कुछ आजादी के पहले की कई पीढिय़ों से असम में रहते और काम करते थे। जबकि अन्य सन 1971 की जंग के बाद भारत में शरण लेने आए थे। यह प्रक्रिया अनिवार्य तौर पर विदेशी लोगों के प्रति घृणा की वजह बनेगी। यह मात्र संयोग नहीं है कि असम में एनआरसी के मसौदे से मुस्लिम बाहर हैं। हालांकि कुछ हिंदुओं के साथ भी ऐसा ही हुआ है।

मौजूदा समय में धर्म, जातीयता और नागरिकता को लेकर जो सार्वजनिक बहस चल रही है उसमें देशव्यापी एनआरसी प्रक्रिया की कल्पना करना कठिन है। अगर उसे अपनाया गया तो कई तरह के विवाद उत्पन्न होने तय हैं। खासतौर पर सीमावर्ती राज्यों में जहां नेपाली और बर्मी मूल के लोग आबादी का हिस्सा हैं। बंगाल और उत्तर प्रदेश ऐसे ही राज्य हैं जहां बहुत बड़ी तादाद में मुस्लिम रहते हैं।

असम में अपनाई गई प्रक्रिया यह भी बताती है कि सार्वजनिक रिकॉर्ड कितने कमजोर हैं। आधार ने काफी हद तक समस्या को हल किया है लेकिन वह अनिवार्य तौर पर नागरिकता का निर्धारण नहीं करता। असम की एनआरसी प्रक्रिया विरासती दस्तावेजों पर केंद्रित रही। तथ्य यह है कि ऐसे कई भारतीय नागरिक भी होंगे जो तत्काल ये दस्तावेज प्रस्तुत नहीं कर पाएंगे। आज भी एक खास आयुवर्ग के कई भारतीयों के पास जन्म प्रमाण पत्र नहीं मिलेंगे। सन 1990 में अनिवार्य किए जाने के पहले उनकी जरूरत भी शायद ही पड़ती थी। कई भारतीयों को सरकारी अधिकारियों की लापरवाही का भी शिकार होना पड़ा होगा क्योंकि विभिन्न दस्तावेजों में उनके

नामों के हिज्जे, उम्र और लिंग आदि गलत लिखे हो सकते हैं। अशिक्षित और अल्पशिक्षित लोगों के साथ यह दिक्कत ज्यादा है। असम में कई परिवारों के सदस्य इसी वजह से अंतिम मसौदे से बाहर हैं। देश के नागरिकता कानूनों में भी सुधार की आवश्यकता है। समय के साथ वे काफी जटिल और समय खपाऊ हो चुके हैं। कई बार नागरिकता लेने में एक दशक तक का वक्त लग सकता है। भारतीय राज्य के मानवता के सिद्घांत के मद्देनजर एक अहम बदलाव की आवश्यकता है। किसी के माता-पिता की राष्ट्रीयता चाहे कुछ भी हो अगर कोई बच्चा भारत में पैदा हुआ है, उसने अपना पूरा जीवन यहां बिताया हो तो उसे भारत की नागरिकता क्यों नहीं मिलनी चाहिए? संक्षेप में सरकारों को नागरिकता के मसले से समझदारी और संवेदनशीलता से निपटना होगा।


Date:08-08-18

पढ़ाई के बोझ ने स्कूल के काम के सापेक्ष खेल को कम महत्व दिया है

ऋषभ कुमार मिश्र,( लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर हैं)

पिछले कुछ दिनों से ऐसे बच्चों का अवलोकन कर रहा था जिन्होंने इसी वर्ष स्कूल जाना शुरू किया है। इस अवलोकन ने यह समझने में मदद की कि स्कूल की संस्थागत मौजूदगी बच्चे की रोजमर्रा की जिंदगी में क्या बदलाव लाती है? अक्सर बच्चे के जीवन में स्कूल के प्रभाव की चर्चा स्कूल में प्रवेश के साथ आरंभ करते हैं। मुझे ऐसा लगता है कि इस कहानी के सूत्र को थोड़ा पहले से पकड़ने की जरूरत है। आजकल स्कूल में प्रवेश लेने से पहले ही बच्चे स्कूल से परिचित हो चुके थे।

स्कूल से इनका परिचय अभिभावक सहित अन्य वयस्क दो तरीकों से कराते हैं। पहला, वे स्कूल में प्रवेश के पूर्व ही साक्षरता-अक्षर ज्ञान और गणित का अभ्यास कराने लगते हैं। दूसरा, वे स्कूलों के प्रतीकों जैसे- बैग, ड्रेस, टिफिन आदि से बच्चे के मन में स्कूल की छवि उकेरने लगते हैं। जैसे ही बच्चे हाव-भाव या शब्दों के सहारे संवाद आरंभ करते हैं वैसे ही अभिभावक अक्षर और गिनती के उच्चारण और इसे दोहराने के द्वारा पढ़ाई-लिखाई से परिचित कराने लगते हैं। इसके अलावा अभिभावकों का जोर होता है कि उनके बच्चे रोजमर्रा के उपयोग की वस्तुओं का अंग्रेजी शब्द-ज्ञान कर लें। दो या तीन वर्ष के छोटे बच्चे के साथ इन अभ्यासों को करना बच्चे को शैक्षिक सफलता के लिए अभिभावकों का होमवर्क मान सकते हैं।

यह ‘होमवर्क’ इस मान्यता से संचालित है कि सीखने की सामग्री साक्षरता है और इसे ज्यादा मात्रा में सीखने के लिए, सीखने का समय अधिक होना चाहिए। सीखी हुई सामग्री को दोहराने की आवृत्ति अधिक होनी चाहिए। सीखने की प्रतियोगिता में आगे रहने के लिए अतिरिक्त तैयारी करना अभिभावक की जिम्मेदारी है। क्या हमने कभी सोचा है कि साक्षरता के इन माध्यमों के अलावा प्रकृति और परिवेश में बहुत कुछ है जिसके प्रति बच्चे को संवेदनशील किया जा सकता है? मसलन फूलों के अलग-अलग प्रकार, चिड़िया की आवाजें, घर और आसपास के कीट पतंगें। ऐसा करके बच्चे को कुदरत के निकट ले जाया जा सकता था। उसे परिवेश की संज्ञाओं के ज्ञान के बदले उनकी विशेषताओं को पहचानने और महसूस करने का अवसर दिया जा सकता था। साक्षरता से जोड़ने का उतावलापन बच्चे की दुनिया को सीमित कर देता है। इस सीमित दुनिया में अभिभावक बच्चों के परिवेश में स्कूल से जुड़े प्रतीकों को स्थापित कर देते हैं।

ऐसे ही कुछ प्रतीक स्कूल का बैग, लंच बॉक्स, ड्राइंग बुक, कलर, ड्रेस आदि हैं। इन प्रतीकों के माध्यम से बच्चा स्कूल से खुद को जोड़ता है। उदाहरण के लिए बच्चे के दूसरे या तीसरे जन्मदिन तक किसी न किसी के द्वारा उपहार में एक बस्ता मिल जाता है। इस बस्ते के तरह-तरह के उपयोग हो सकते हैं। अधिकतर अभिभावक बस्ते के उसी उपयोग से बच्चे को परिचित कराते हैं जिस उद्देश्य से वह दिया गया है कि यह कॉपी-किताब रखने वाला झोला ही है। जिस बच्चे ने अभी-अभी चलना ही सीखा है वह बस्ता लेकर स्कूल जाने की नकल उतारने लगता है। अभिभावक इसे शुभ संकेत मानते हैं और निष्कर्ष निकालते हैं कि उनके बच्चे में पढ़ाई को लेकर सकारात्मक अभिवृत्ति है। इन तैयारियों के साथ बच्चे का प्री-स्कूल में प्रवेश करा दिया जाता है। एक-दो दिन बच्चा स्कूल के अपरिचित माहौल में जूझता है। अंतत: वह स्कूल को अपनाने लगता है।

स्कूल को अपनाने के साथ बच्चे की दिनचर्या और व्यवहार में नए लक्षण प्रकट होने लगते हैं। बच्चे की दिनचर्या की सबसे बड़ी विशेषता समय के कठोर विभाजन का अभाव होती है। स्कूल आने-जाने का चक्र शुरू होते ही बच्चे की आजादी समय के पालन की बाध्यता बन जाती है। बच्चे को निर्धारित समय पर उठना, तैयार होना, विद्यालय जाना, विद्यालय से आना, खेलना, कार्यों को पूरा करना आदि सीखना पड़ता है। उसे यह बोध हो जाता है कि घर और स्कूल में अलग-अलग कार्यों को करने का समय अलग-अलग और निर्धारित होता है। वह यह भी जानने लगता है कि कौन सा कार्य अधिक महत्वपूर्ण और कौन सा कम महत्वपूर्ण है? यह बोध काम और खेल में भेद करना सिखा देता है। बच्चे को लगातार बताया जाता है कि स्कूल के काम के सापेक्ष खेल एक कम महत्वपूर्ण गतिविधि है, क्योंकि खेल न तो ‘क्लासवर्क’ का हिस्सा होता है और न ही ‘होमवर्क’ का। वह तो बस मनोरंजन मात्र है। खेल के बदले स्कूल के कामों को प्राथमिकता देने को ‘अच्छे’ बच्चे के साथ जोड़ दिया जाता है।

समझ में नहीं आता हम लोग खेल के प्रति ऐसी दृष्टि क्यों रखते हैं? जिन बच्चों के अवलोकन को मैंने अपने अध्ययन का आधार बनाया उनके खेल में समस्या समाधान, जोड़-तोड़ और सूझ आदि को देखा गया। फर्क इतना होता है कि इस खेल के नियंता बच्चे स्वयं होते हैं। खेल के दौरान बच्चे आसपास की वस्तुओं से खिलौनों का आविष्कार करते हैं। इन वस्तुओं को एक भिन्न अर्थ देते हैं। दोस्तों के साथ नियम बनाए जाते हैं। एक दूसरे को स्वीकार करना सीखते हैं। वे उपलब्ध संसाधनों से समस्याओं का समाधान करते हैं। जबकि स्कूल काम की जिस अवधारणा को बच्चे को सिखाता है वह अक्सर वयस्कों के द्वारा परिभाषित कार्य होता है जिसके करने के ढंग के प्रति उसे सजग रहना होता है। शिक्षकों की अपेक्षाओं और निर्देश के अनुसार किसी कार्य को करना होता है। उसका प्रदर्शन उसके अच्छे या बुरे होने को निर्धारित करता है। इसीलिए छोटे बच्चों की नोटबुक पर ‘स्टार’ और ‘गुड’ जैसे विशेषण होते हैं।

बच्चों के संज्ञानात्मक विकास के जिन सिद्धांतों को शिक्षण का आधार माना जाता है वे भी सीखने में बाह्य नियंत्रण का समर्थन नहीं करते हैं। न ही ये सिद्धांत स्कूल के द्वारा संज्ञानात्मक विकास में किसी तीव्र बदलाव की पैरवी करते हैं। इन्हीं आधारों पर बाल केंद्रित शिक्षा के लिए ‘खेल’ को शिक्षा का माध्यम बनाने की बात की जाती है। इस सुझाव के विपरीत स्कूल उन नियमों और तौर-तरीकों को स्थापित कर रहे हैं जहां खेल, स्कूल यानी पढ़ाई के काम के बराबर महत्वपूर्ण नहीं है। इसके पीछे खेल को असंरचित और लक्ष्यहीन मानने की धारणा है। यह धारणा एक सामाजिक उत्पाद है जिसमें यह विश्वास है कि मानसिक श्रम, शारीरिक श्रम से श्रेष्ठ है और यह डर है कि खेल को अधिक महत्व देने से बच्चा ‘व्हाइट कॉलर जॉब’ के रास्ते पर बढ़ने से भटक जाएगा। इस धारणा को बदलने से ही समाज में सार्थक रूप से परिवर्तन लाना संभव हो सकेगा।


Date:07-08-18

देवरिया से उठे सवाल

संपादकीय

मुजफ्फरपुर के बालिका गृह कांड पर बवंडर के बावजदू देवरिया जैसा मामला सामने आया, लेकिन प्रशासनिक तंत्र अब भी मुजफ्फरपुर से आगे बढ़ता नहीं दिख रहा। ऐसी कोई बड़ी कार्रवाई भी नहीं दिखी, जो बताती कि सरकारें और प्रशासन अपने यहां चल रही ऐसी संस्थाओं-संस्थानों की हकीकत खंगाल रहे हैं या इसमें उनकी कोई रुचि भी है? और यह भी कि जांच इस तरह होती कि अच्छा या बुरा सच सामने आता, क्योंकि यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि सिस्टम और समाज में फैली तमाम अराजकताओं के बावजूद अब भी तमाम संस्थाएं बहुत जिम्मेदारी से अपना काम अंजाम दे रही होंगी।

देवरिया का महज परदा हटा है। पूरा सच खुलना बाकी है। कहानी का दूसरा पक्ष दिखाने की कोशिशें भी शुरू हो गई हैं। वही दूसरा पक्ष, जो मुजफ्फरपुर में लंबे समय तक रचा जाता रहा। देवरिया में अब तक के सच से इतना तो तय है कि तीन साल पहले लाइसेंस निरस्त होने और सरकार से अनुदान बंद होने के बावजूद कोई संस्था अगर काम कर रही थी, तो समाज सेवा तो नहीं ही कर रही होगी। किसी भी संस्था का इस तरह और इतने लंबे समय तक अनुदान चालू हो जाने की प्रत्याशा में चलते रहना संदेह जगाता है। यह भी सवाल आया है कि इसे मनरेगा योजना में पालना गृह का काम भी मिला था और वहां से खासा पैसा भी मिल रहा था, जिसे जांच में फर्जी भुगतान का मामला माना गया। जाहिर है, यह सब कोई अकेले तो कर नहीं रहा होगा और जिस तंत्र की मिलीभगत से यह सब हुआ होगा, वह तंत्र आसानी से तो अपनी नाक के नीचे यह सब चलना स्वीकार नहीं करेगा।

देवरिया का पूरा सच जो भी हो, इसके तात्कालिक सच ने सवाल तो उठाए ही हैं। सवाल यह भी है कि जिस तरह तमाम टीमों की खानापूरी और ‘नियमित निरीक्षण’ के बावजूद मुजफ्फरपुर में सब कुछ चलता रहा, उसके बाद यह तो जरूरी ही था कि देश भर में ऐसे तमाम केंद्रों की जांच अब तक पूरी हो गई होती। यह इसलिए भी जरूरी था कि तमाम केंद्र अब भी पूरी जिम्मेदारी से बेशक चल रहे होंगे, लेकिन चंद अराजक लोगों की कारगुजारियों के कारण उनकी निष्ठा भी दांव पर है, और यह भी सही है कि ऐसे लोगों और संस्थाओं को गेहूं के साथ पिस जाने वाला घुन बनने के लिए तो नहीं छोड़ा जा सकता।

काश, जिस बच्ची ने यह सनसनीखेज बयान पुलिस को दिया है कि लड़कियां रात में कारों से बाहर भेजी जाती थीं और सुबह रोते हुए लौटती थीं- सच न होता। कल्पना कीजिए कि आज के दौर में भी जो समाज बेटी से यौन हिंसा महज समाज के सोचने के भय से छिपा लेता हो, वह अदालत के निर्देश पर रखी गई ऐसी बच्चियों को कल किस नजर से देखेगा। दरअसल, प्याज के छिलकों की तरह परत-दर-परत खुलते मुजफ्फरपुर कांड के बाद देवरिया ने तो बस एक राह दिखाई है कि अब से ही सही, ऐसी सारी संस्थाओं की पड़ताल तत्काल हो जानी चाहिए। आखिर कब तक ऐसी चीजें दोहराने की इजाजत देंगे हम? यह सब समाज को भरोसा दिलाने के लिए भी जरूरी है कि इन जगहों पर रखी गई हमारी बच्चियां, महिलाएं या बच्चे वाकई सुरक्षित हैं और वहां से निकलकर वे एक सुखद और बेहतर भविष्य की ओर आगे बढ़ सकते हैं। शेल्टर होम या सुधार गृहों के पीछे इसी आदर्श की परिकल्पना की भी गई थी। ऐसी संस्थाओं को हमें इसी दिशा में ले जाना होगा।


Date:07-08-18

गंदे पानी के उपयोग में ही है जल संकट का समाधान

वीरेन्द्र कुमार पैन्यूली, (सामाजिक कार्यकर्ता)

नदियां जैसे-जैसे आगे बढ़ती हैं, उनमें सीवेज की मात्रा भी बढ़ती जाती है। नतीजतन राह में बाद के राज्यों को प्रदूषित जल मिलता है। आरोप-प्रत्यारोप भी लगते हैं। कावेरी विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के तुरंत बाद ही तमिलनाडु ने आरोप लगाया था कि कर्नाटक उसे कावेरी जल को प्रदूषित करके भेजता है। ऐसे ही, नीति आयोग की एक बैठक में हरियाणा के मुख्यमंत्री ने दिल्ली पर पानी को गंदा करके भेजने का आरोप लगाया था। सीवेज नदियों में जा रहा है, तभी तो हरिद्वार में गंगा का पानी आचमन लायक भी नहीं है। यमुना की स्थिति तो और ही चिंतनीय है। पवित्र नदियों का भी गंदा होना उनके उद्गम से ही शुरू हो जाता है। इस साल तो गंगोत्री में भी सीवेज उपचार संयंत्र लगाया गया है।

इस समय पूरे विश्व में ही, खासकर विकासशील देशों में 80 से 90 प्रतिशत सीवेज बिना उपचार के जल-स्रोतों में डाल दिया जाता है। भारत में केंद्र सरकार भी मानती है कि शहरी क्षेत्रों में ही लगभग 62 प्रतिशत सीवेज सीधे स्थानीय जल प्रणालियों या जल-स्रोतों में डाल दिया जाता है। कहीं-कहीं यह 70 प्रतिशत तक हो सकता है। इससे जल-स्रोत प्रदूषित हो जाते हैं। देश में 75 से 80 प्रतिशत सतही जल का प्रदूषण घरेलू सीवेज के कारण होता है। सीवेज में 99 प्रतिशत से भी ज्यादा जल और बाकी करीब एक प्रतिशत भाग कार्बनिक या अकार्बनिक ठोस का होता है। इसलिए कई देश सीवेज के जल को ज्यादा से ज्यादा प्रदूषण रहित करने की तकनीक विकसित करने में लगे हैं। व्यावसायिक स्तर पर वे इन तकनीक का निर्यात भी कर रहे हैं। कृषि और उद्योगों में उपचारित सीवेज जल को उपयोग में लाया जा रहा है। इजरायल में आधी सिंचाई उपचारित जल से हो रही है। कुछ जगह तो इसे पेयजल बनाने तक शुद्ध किया जा रहा है। लेकिन हमारे यहां ऐसी कोई योजना नहीं दिखती।

भारत के केवल शहरी क्षेत्रों से प्रतिदिन करीब 62,000 एमएलडी सीवेज पैदा होता है। इस हिसाब से हमारे शहरी क्षेत्रों से प्रतिदिन लगभग 560 हजार लाख लीटर पानी बरबाद होता है। जब हर बूंद पानी के उपयोग संरक्षण का मिशन हो, तो केवल शहरी घरों-कारखानों आदि से इतने पानी का बेकार हो जाना पीड़ादायक है। कुछ जिम्मेदारी हम आत्मानुशासन से संभाल सकते हैं। आंकड़े यह भी हैं कि देश में जितना पानी घरों में पहुंचाया जाता है, उसका 70 प्रतिशत से ज्यादा सीवेज में चला जाता है। भारत में औसतन प्रति व्यक्ति जल की आपूर्ति जब 1,885 लीटर प्रति दिवस थी, तो प्रति व्यक्ति प्रति दिवस सीवेज 1,378 लीटर था। इसमें वह साफ पानी भी होता है, जो हमारे नल खुला छोड़ देने या दाढ़ी बनाते या ब्रश करते समय नल चालू रखने से बह जाता है। इसमें अधिकांश में वह जल होता है, जो हमारे घरों मेें पीने लायक बनकर पहुंचता है।

जल सुरक्षा और सीवेज जल उपचार का सीधा संबंध है। एक तो उपचारित जल का उपयोग परोक्ष रूप से जल की उपलब्धता बढ़ाता है। दूसरा, तीन चरण तक उपचारित सीवेज जल को जल-स्रोतों में छोड़कर स्रोतों के प्रदूषित होने के जोखिम को कम किया जा सकता है। उपचारित सीवेज जल स्वत: ही जल-स्रोतों में पहुंचने के बाद पुन: उपयोग चक्र में आ जाता है।यह भी देखा गया है कि शहरों के आस-पास के किसान, खासकर सब्जी उगाने वाले, गंदी नालियों का पानी सिंचाई के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। कुछ जगहों पर इन्हें खरीदा भी जा रहा है। कुछ इसे सब्जियों को धोने के काम में भी ला रहे हैं।  ऐसी सब्जियों के खाने से बीमारियों के खतरे खड़े हो सकते हैं। लेकिन अगर सीवेज जल का उपचार दो चरण तक हो, तो कृषि-कार्यों के लिए इसे उपयोग में लाया जा सकता है। हालांकि यहां भी यह ध्यान रखने की जरूरत है कि उपचार तय मानकों के आधार पर ही होना चाहिए, किसी तरह की कोताही नहीं होनी चाहिए। इसमें बचे हुए प्रदूषण का स्तर इतना भर होना चाहिए कि प्रकृति खुद अपनी प्रक्रियाओं से उनसे उबरने की क्षमता रखे। हमारे पास ज्यादा विकल्प नहीं हैं। जल के इस तरह से उपयोग का काम हमें युद्ध-स्तर पर करना होगा। जल इतना अमूल्य है कि उसे एक बार ही उपयोग करके नहीं गंवाया जा सकता है।


Date:07-08-18

Not Acting East

EDITORIAL

The consequences of the unfolding conflict between the US and China — the world’s most important economic and military powers — may look somewhat abstract at this moment in Delhi. But coping with the Sino-US confrontation is an existential question for the 10 members of the Association of South East Asian Nations (ASEAN). No region in the world is so badly caught in the crossfire between Washington and Beijing, thanks to South East Asia’s profound interdependence with both America and China. The US has been the ASEAN’s leading economic partner for decades. It is also the principal provider of security to a region that has seen an extended period of stability. A rising China, however, has begun to eclipse American commercial domination and challenge US military primacy in the region.

Last week’s meetings of the ARF — the regional forum of the ASEAN that brings together all the major powers to promote peace and prosperity in the region — in Singapore underline the region’s continuing struggle to deal with the challenges. The ASEAN expects India to provide a measure of economic ballast and strategic balance in these difficult circumstances. India has its task cut out on both fronts. As the trade war between America and China escalates, the ASEAN has put special emphasis on accelerating trade liberalisation through the Regional Comprehensive Economic Partnership (RCEP) agreement under negotiation for many years. Although India has formally committed to bringing the RCEP talks to a close, many issues remain to be resolved between India and the ASEAN. Unless there is highest-level political intervention in Delhi, India is in the danger of being left out of what promises to be one of the biggest trading blocks of the world.

As the US mounts pressure on China through its new Indo-Pacific strategy, a more active naval posture in South China Sea, and nearly US$300 million in new security assistance to the region, Beijing is showing a little more flexibility in its maritime territorial disputes with the ASEAN neighbours. After nearly two decades of talking about a code of conduct in the South China Sea, ASEAN and China have agreed to start negotiations on the basis of a common draft text. An actual agreement might take years, but China is winning some diplomatic brownie points. China has also conducted its first-ever joint maritime exercise with the 10 ASEAN countries last week in Singapore. China’s arms sales to the region continue to rise. India has a longer tradition of defence and security cooperation with the ASEAN than China. Despite the Modi government’s tall talk on “Acting East”, the gap between Delhi’s promise and delivery remains large. Plugging that gap must be a high priority for the current government and its successor in Delhi.


 

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