08-07-2017 (Important News Clippings)
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Possible to curb hate on social media
ET Editorials
The near-ubiquitous spread of social media platforms has opened the floodgates of instant information, video and music-sharing. The power of social media extends to politics, where individuals and organisations use rumour, innuendo and abuse to malign rivals. Much of this is false, threatening at a personal level and hate speech. As mobile internet spreads, fake news, abuse and hate speech proliferate.
In Europe, this has taken on racist and ethnic hues: Islamophobia is rampant, the colour of skin has become a major divisive force, refugees from nations at war are reminded that they are not welcome, and several nations are falling back on anti-Semitism, even as the Islamic State spreads its own brand of hatred and violence. To check this, last year, the European Union enforced a code of conduct on four giants of the digital space: Facebook, Twitter, YouTube and Microsoft. It commits these companies to review and act on valid notifications of hate-speech content fast, within 24 hours for the most part. Germany has gone further: seeking penalties up to ¤50 million on offending sites. The European Union, on the other hand, prefers self-censorship, rather than state control.
One year later, the European Union’s code seems to be yielding results: companies are deleting offensive content in greater volumes and faster. But it will need more than legislation to fix the problem. Hate speech and fake news come in many languages — including the two dozen or so widely used in India.To curb this, it will require algorithms that respond to semiotic and contextual aspects of posts. Artificial intelligence can help: Google claims it can translate literature, retaining its original nuances. Vigilant activism, laws and technology working together can sweep the internet clean.
Date:08-07-17
Is GST India’s biggest economic reform?
ET Editorials
Some speculate that the goods and services tax (GST) has been India’s biggest piece of economic reform. Without doubt, it is a very major reform. In fact, it has been the most complex reform to achieve: it called for the Constitution’s division of the tax base between the Centre and the states to be amended, calling for virtual political consensus across the federal divide and the political spectrum.
With GST, the Centre taxes retail sales of goods and states tax services. No sale suffers tax merely because it happens across state boundaries. To make these changes, the Constitution had to be amended. But the GST could not happen or would not matter even if it happened, if a series of economic reforms had not happened before it.India’s GST is the first value-added tax to work entirely on an information technology and communications infrastructure.
It takes ubiquitous computing and broadband access for granted. Invoices and returns have to be uploaded to the GST Network, where software will reconcile taxes paid on inputs with claims for credit for such taxes or reject them or even penalise them. The billions of records that billions of transactions amongst 1.3 billion people within the country and by them with those outside the country will automatically get processed. India today has the information technology capability to make this happen.
The reforms that made this possible go back to the decision to set up institutions of excellence in higher education in the 1950s and 1960, and to break the insularity of a protected economy in the 1980s and bring in computers. The liberalisation of 1991, unleashing long dormant animal spirits, the subsequent introduction of private enterprise into telecom services and the gradual removal of shackles on its expansion built the communications network GST rides on. If the states had not implemented value-added tax, they would have baulked at GST.It is best to view GST as another milestone in India’s reform journey. India has a long way to go, before poverty and ignorance and disease are banished and people set free to realise their potential.
क्या चाहा, क्या पाया…
सन 1980 और 1990 के दशक के भारत के कई ख्वाब थे: सरकारी प्रचार करने वाले पुराने दूरदर्शन की जगह उपग्रह या केबल की मदद से चलने वाला निजी टेलीविजन, अमेरिका की तर्ज पर निजी अस्पताल जो देखने में होटलों की तरह नजर आएं, लोक निर्माण विभाग के बजाय निजी निर्माण कंपनियों द्वारा बनाए गए विश्वस्तरीय राजमार्ग और किफायती निजी बिजली घर जो राज्य बिजली बोर्डों को बिजली दें। हमारी आकांक्षा यह भी थी कि निजी टेलीफोन सेवाएं हों और इंडियन एयरलाइंस की तुलना में बेहतर विमान सेवाएं हों। हमें अचरज होता था कि पासपोर्ट मिलने में इतने महीने और सप्ताह क्यों लगते हैं? हम निजी बीमा कंपनियां भी चाहते थे क्योंकि सरकारी क्षेत्र की कंपनी जीवन बीमा निगम की नौकरशाही हमें तंग करती थी। यकीनन आप भी इस सूची में कुछ जोडऩा चाहते होंगे। मसलन सरकारी फर्म दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) या महाराष्ट हाउसिंग ऐंड एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी (म्हाडा) के बजाय निजी डेवलपर के बनाए मकान।
मतभेदों और उम्मीदों के बीच जी-20 शिखर सम्मेलन
शेपिंग इन इंटर-कनेक्टेड वर्ल्ड’ के लिए जुटे दुनिया के प्रमुख नेताओं के गहरे मतभेदों और बाहर ‘वेलकम टू हेल’ के नारों के साथ वामपंथी विरोध प्रदर्शनों के बीच जर्मनी के हैमबर्ग शहर में हो रहे जी-20 शिखर सम्मेलन से दुनिया की उम्मीदें भी कम नहीं हैं। निश्चित तौर पर पिछली सदी के लिहाज से दुनिया आज ज्यादा समझदार हुई है और पहले के मुकाबले ज्यादा संबद्ध विश्व विकसित हुआ है लेकिन, आज भी आतंकवाद, जलवायु परिवर्तन, आर्थिक विकास और कई क्षेत्रों के टकरावों के कारण सभ्यताओं के संघर्ष के रूप में विश्वयुद्ध की छाया मंडरा रही है। अगर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प कहते हैं कि पश्चिम को अपने अस्तित्व के लिए इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करना होगा तो पुतिन अपने देश के विरुद्ध यूरोपीय संघ और अमेरिका की पाबंदियों को संरक्षणवाद की संज्ञा देते हैं। ट्रम्प ने पेरिस जलवायु समझौते से अमेरिका को अलग करके बाकी दुनिया के भविष्य से खेलने का खाका तैयार कर लिया है। एक तरफ जर्मनी की चांसलर एंगेला मर्केल और रूस के राष्ट्रपति ब्लादीमीर पुतिन और दूसरे देश चाहते हैं कि अमेरिका पेरिस समझौते को डूबने से बचाए तो ट्रम्प चाहते हैं कि रूस जिम्मेदार राष्ट्रों की टोली में शामिल हो। इधर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह कहकर कि एक देश दक्षिण एशिया में आतंकवाद फैला रहा है, एशियाई जटिलताओं की ओर दुनिया का ध्यान खींचा है। ये मतभेद पहले से चली आ रही राजनीतिक स्थितियों और शीतयुद्ध की घटनाओं से तो संबंध रखते हैं लेकिन, इनका रिश्ता पिछले तीस वर्षों में चली वैश्वीकरण की प्रक्रिया से गहरा है। उस प्रक्रिया की सफलताओं के चलते जहां भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील जैसे देश उसे और गति देना चाहते हैं वहीं अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देश विफलताओं के कारण उसे उलट देने का दबाव बना रहे हैं। यूरोप में मर्केल जैसी नेता अगर खुलेपन की वकालत करती हैं तो दूसरे देश शरणार्थी समस्या पर अनुदार रवैया रखते हैं। अमेरिका ने भी परदेशियों का खुले दिल से स्वागत करने की बजाय संदेह के साथ आमंत्रण देना शुरू किया है। यह सब अंतर्संबद्ध विश्व के मार्ग में आने वाली खाइयां, खतरनाक मोड़ और कोहरे हैं। इस चुनौती में पिछली सदी के अनुभव और मूल्य हमारे लिए सहायक हो सकते हैं लेकिन, हम पीछे लौट नहीं सकते। आगे बढ़ना हमारी नियति है और विवेक, संयम और बंधुत्व ही हमारे संबल हैं।
Date:08-07-17
सुरक्षा को बुलंदी देगा इजरायल से नया रिश्ता
अपनी हद पार करती विधानसभा
ए सूर्यप्रकाश [ लेखक प्रसार भारती के अध्यक्ष एवं जाने-माने स्तंभकार हैं ]
कुछ विधायकों के खिलाफ लेख लिखने के कारण दो पत्रकारों को एक-एक साल जेल की सजा और दस हजार रुपये का जुर्माना लगाने को लेकर कर्नाटक विधानसभा और मीडिया के बीच टकराव जारी है। 21 जून को कन्नड़ भाषा के एक मीडिया संस्थान के दो संपादकों रवि बेलागेरे और अनिल राज को गिरफ्तार करने के राज्य विधानसभा के फैसले ने न सिर्फ कर्नाटक, बल्कि समूचे देश के मीडिया जगत को गहरा आघात पहुंचाया है। विधानसभा का यह निर्णय अभिव्यक्ति की आजादी पर सीधा हमला है। विधानसभा के फैसले के बाद दोनों पत्रकारों ने कर्नाटक हाईकोर्ट का रुख किया। कोर्ट ने दोनों संपादकों को अध्यक्ष के समक्ष पेश होकर विधानसभा के निर्णय पर पुनर्विचार करने के लिए अपील करने का निर्देश दिया है। अब अगले सत्र में विधानसभा अध्यक्ष राज्य विधानसभा से अपने फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए कह सकते हैं। कोर्ट ने यह भी कहा है कि यदि विधायक चाहें तो कोर्ट में मानहानि का मामला दायर कर सकते हैं। अच्छा होगा कि विधानसभा न्यायालय के सुझाव का पालन करे। उसे यह भी ध्यान रखना होगा कि देश की न्यायपालिका ने कभी भी एक विधानमंडल को अपनी शक्तियों को इस प्रकार से प्रयोग करने की अनुमति नहीं दी है जिससे संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार बाधित होते हों।
विधानमंडल और मीडिया के टकराव के ढेरों उदाहरण मौजूद हैं। करीब-करीब सभी प्रमुख मामलों में विधानमंडलों को न्यायपालिका के मत के आगे झुकना पड़ा है और पत्रकारों को दंडित करने की इच्छा त्यागनी पड़ी है। आजादी के बाद 1952 में एक लेख के जरिये विधानसभा अध्यक्ष की निष्पक्षता पर सवाल खड़ा करने के चलते उत्तर प्रदेश के तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष ने ब्लिट्ज के कार्यकारी संपादक दिनशा होमी मिस्त्री को गिरफ्तार करने का आदेश दिया था। बाद में उस फैसले के खिलाफ मिस्त्री ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें रिहा करने का आदेश दिया। 1964 में भी उत्तर प्रदेश विधानसभा ने एक पर्चा प्रकाशित करने के चलते केशव सिंह को जेल भेज दिया था, क्योंकि उसकी नजर में वह पर्चा सदन के एक सदस्य की गरिमा के खिलाफ था। बाद में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी केशव सिंह को रिहा करने का आदेश दे दिया, लेकिन विधानसभा ने न्यायपालिका के उस निर्णय को चुनौती देने का फैसला किया। उसने केशव सिंह, उनके वकील और आदेश देने वाले इलाहाबाद के दोनों जजों को सदन की अवमानना का दोषी मानते हुए गिरफ्तार कर सदन के समक्ष पेश करने का निर्देश दिया? दोनों जजों ने राहत के लिए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। हाईकोर्ट की पूर्ण बेंच ने विधानसभा के फैसले पर रोक लगा दी। दो प्रतिष्ठानों विधायिका और न्यायपालिका के बीच टकराव को समाप्त करने के लिए राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 143 (1) के तहत यह मामला सुप्रीम कोर्ट के हवाले किया। उसके बाद यह मामला मुख्य न्यायाधीश पीबी गजेंद्रगड़कर की अध्यक्षता में सुप्रीम कोर्ट के सात जजों की बेंच द्वारा सुना गया। मुख्य न्यायाधीश ने अपने और बेंच के अन्य जजों के विचारों को कलमबद्ध किया तथा बहुमत से फैसला सुनाया। इस मामले में कोर्ट द्वारा निर्धारित किए गए मौलिक सिद्धांत प्राय: विधानमंडलों के कोप का भाजन बनने वाले पत्रकारों और दूसरे लोगों के लिए सुरक्षा कवच का काम करते आए हैं। इस मामले में न्यायालय द्वारा कही गई प्रमुख बातें इस प्रकार हैं-भारत में संविधान सर्वोपरि है और भारतीय विधानमंडल इंग्लैंड में संसद के बराबर संप्रभुता का दावा नहीं कर सकते हैं। न्यायपालिका के पास अनुच्छेद 194 (3) की व्याख्या करने की विशिष्ट शक्ति है जहां से विधानमंडल अपनी ताकत और विशेषाधिकार हासिल करते हैं। विधानमंडलों को एहतियात के साथ अपनी ताकत का इस्तेमाल करना चाहिए। न्यायालय ने कहा कि इसमें कोई दो राय नहीं कि विधानमंडलों को कई तरह की शक्तियां मिली हुई हैं, लेकिन वे संविधान में लिखित बुनियादी अवधारणाओं द्वारा नियंत्रित की जाती हैं। यदि विधानमंडल अपने लिए निर्धारित विधायी क्षेत्रों का अतिक्रमण करते हैं और उससे नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है तो किसी लेख के जरिये उसकी आलोचना की जा सकती है। इस पर यदि विधानमंडल कोई कार्रवाई करते हैं तो अदालत द्वारा उसे रद किया जा सकता है।
2003 में भी तमिलनाडु विधानसभा ने मुख्यमंत्री और विधानसभा की आलोचना करने के लिए ‘द हिंदू’ के संपादक और चार अन्य पत्रकारों को जेल भेजने का फैसला किया था, लेकिन देश के मिजाज को भांपते हुए उनके खिलाफ आरोप को वापस ले लिया। इसके पहले 10 मार्च, 1983 को ईनाडु ने आंध्र प्रदेश विधान परिषद में हुए हंगामे पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की। उस रिपोर्ट का शीर्षक था ‘बुजुर्गों का झगड़ा’! सदन के सदस्यों ने शीर्षक को अपमानजनक माना। फिर सदन की विशेषाधिकार समिति ने समाचार पत्र को विशेषाधिकार के उल्लंघन का दोषी पाया। सदन ने संपादक रामोजी राव को डांटने-फटकारने का फैसला किया। उसने रामोजी राव को सदन के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए हैदराबाद के पुलिस आयुक्त को कहा। राव ने तुरंत सुप्रीम कोर्ट का रुख किया जिसने उनकी गिरफ्तारी पर रोक लगा दी। अंत में राज्यपाल के हस्तक्षेप के बाद उस मामले का पटाक्षेप हुुआ। ऐसे मामलों में एक विधानमंडल कहां तक कार्रवाई कर सकता है? इसे समझने के लिए केशव सिंह के मामले में मुख्य न्यायाधीश गजेंद्रगड़कर की बातों का उल्लेख करना बेहतर होगा। उनके अनुसार, ‘अवमानना के लिए दंड देने की शक्ति का प्रयोग हमेशा सावधानीपूर्वक, बुद्धिमानी और सतर्कता के साथ करना चाहिए।
ताकत का अंधाधुंध इस्तेमाल प्रतिष्ठा को बरकरार रखने में मददगार साबित नहीं होगा, उल्टे उसके क्षरण का कारण बनेगा। विवेकशील जज यह बात कभी नहीं भूलते कि लोगों की निगाहों में अदालत के प्रति आदर भाव पैदा करके ही वे अपने दफ्तर की प्रतिष्ठा और रुतबे को कायम रख सकते हैं। और यह आदर भाव उनके फैसले की गुणवत्ता, मामले की सुनवाई के दौरान दिखाई गई निडरता, तथ्यों के प्रति बरती गई पारदर्शिता और निष्पक्षता से आता है। एक प्रतिष्ठान के रूप में जो बातें न्यायपालिका के लिए सही हैं, वही विधानमंडल के लिए भी सही हैं।’ सम्मानीय विधानसभा अध्यक्ष को इससे प्रेरणा लेनी चाहिए! यदि कर्नाटक विधानसभा अपनी शक्ति के संबंध में सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों का गहराई से अवलोकन करे और कर्नाटक हाईकोर्ट के दिशानिर्देशों का पालन करे तो टकराव की स्थिति खत्म हो सकती है।
आयोग का चुनाव
संपादकीय
उच्चतम न्यायालय ने उचित ही सरकार से पूछा है कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति की बाबत कोई कानून क्यों नहीं है। साथ ही, एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायालय ने यह टिपणी भी है कि इस मामले को पूरी तरह सरकार के हाथ में छोड़ देना निर्वाचन आयोग की स्वतंत्रता के लिए ठीक नहीं है। यों यह सवाल पहली बार नहीं उठा है। अनेक विधिवेत्ता और राजनीतिक चिंतक इसे समय-समय पर उठाते रहे हैं। भाजपा के विपक्ष में रहते हुए पार्टी के वरिष्ठतम नेता लालकृष्ण आडवाणी ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया को बदलने की मांग उठाई थी। उन्होंने इस सिलसिले में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिख कर कहा था कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति सरकार न करे बल्कि इसके लिए एक समिति हो और उसमें विपक्ष के नेता को भी शामिल किया जाए। लेकिन न तो इस बारे में कोई पहल हुई न वह मुद््दा ही कोई खास चर्चा का विषय बन पाया। दरअसल, जो भी पार्टी सत्ता में होती है वह यही चाहती है कि जैसा चल रहा है चलता रहे, क्योंकि इस मामले में सरकार एकमात्र निर्णायक बनी हुई है।
जब मुख्य चुनाव आयुक्त का कार्यकाल पूरा हो जाता है, तो शेष दो आयुक्तों में जो ज्यादा वरिष्ठ होता है उसे मुख्य चुनाव आयुक्त बना दिया जाता है। लेकिन केंद्र के अफसरों में से चुनाव आयुक्त लायक नाम मंत्रिमंडल से चर्चा करके प्रधानमंत्री तय करते हैं, और फिर प्रधानमंत्री के अनुरोध पर राष्ट्रपति उनकी नियुक्ति करते हैं। इस तरह मुख्य चुनाव आयुक्त का चयन भी सरकार के ही हाथ में रहता है। लेकिन यह प्रक्रिया पूरी तरह एकपक्षीय है और चुनाव आयोग जैसी संस्था के लिए, जिससे हर हाल में निष्पक्षता की अपेक्षा की जाती है, ठीक नहीं है। जैसा कि सर्वोच्च अदालत ने भी कहा, इसका यह अर्थ नहीं कि आयोग की निष्पक्षता पर उंगली उठाई जा रही है। अदालत ने अब तक के सभी मुख्य चुनाव आयुक्तों के काम को प्रशंसनीय बताया है। लेकिन एक ऐसी संस्था, जिस पर पूरे देश में चुनाव संपन्न कराने की जिम्मेदारी है, और जो निष्पक्षता की बुनियाद पर गठित हुई है, उसके सर्वोच्च अधिकारियों को सरकार चुने, यह एकदम बेतुका है। केंद्रीय सूचना आयोग के सदस्यों की नियुक्ति के लिए बाकायदा एक समिति होती है जिसके सदस्यों में लोकसभा में विपक्ष के नेता को भी शामिल किया जाता है। लोकपाल की नियुक्ति अभी नहीं हुई है, पर उसके चयन के लिए विपक्ष के नेता की भी सहमति अनिवार्य है।
सीबीआइ तो सूचना आयोग या संभावित लोकपाल की तरह स्वतंत्र संस्था भी नहीं है, बल्कि व्यवहार में यही देखने में आता है कि वह सरकार के सीधे नियंत्रण में काम करती है, फिर भी सीबीआइ के निदेशक की नियुक्ति में विपक्ष के नेता की राय ली जाती है। सर्वोच्च अदालत ने इस पर हैरानी जताई है कि निर्वाचन आयुक्तों का चयन पूरी तरह सरकार के विवेकाधिकार में है! साथ ही सरकार से पूछा है कि मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के संबंध में कोई कानून क्यों नहीं है? इस पर महाधिवक्ता ने पहले तो अदालत को यह समझाना चाहा कि याचिका सुनवाई-योग्य नहीं है, पर अदालत ने वे दलीलें खारिज कर दीं, तब महाधिवक्ता ने यह टालू जवाब दिया कि कानून बनाना संसद का काम है। सवाल है कि सरकार इस बारे में पहल क्यों नहीं करती? अदालत ने याद दिलाया है कि संविधान के अनुच्छेद 324 में चुनाव आयुक्तों की स्वतंत्र नियुक्ति के लिए कानून बनाने की बात कही गई थी। वह तकाजा कब पूरा होगा?
एक नई शुरुआत है यह
भारत ने इजरायल को 17 सितंबर, 1950 को औपचारिक रूप से मान्यता दी थी, पर दोनों देशों के बीच कूटनीतिक रिश्ते 1992 में शुरू हुए। तब से शीर्ष स्तर के कई दौरे हो चुके हैं। मगर यह पहला मौका था, जब हमारे किसी प्रधानमंत्री ने इजरायल का दौरा किया। इससे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यात्रा स्वाभाविक तौर पर दोनों मुल्कों के संबंधों में मील का पत्थर बन गई।
वैसे इस कूटनीतिक रिश्ते से पहले भी दोनों मुल्कों में सभ्यतागत संपर्क रह चुका है। भारत की गिनती दुनिया के उन चंद देशों में होती रही है, जहां यहूदियों पर किसी तरह का कोई अत्याचार नहीं हुआ। भारत के कई हिस्सों में यहूदी समुदाय के लोग बसा करते थे। अपने यहां यहूदी नाम से एक प्रसिद्ध फिल्म बनी है, जो आगा हशर कश्मीरी के नाटक यहूदी की लड़की पर आधारित है। पारसी-उर्दू थिएटर में इस नाटक को क्लासिक माना जाता है। भारतीय सेना में जनरल जैकब चांडी नामक यहूदी भी बराबर याद किए जाते हैं, जो बांग्लादेश युद्ध में शामिल हुए थे, भारत सरकार ने उन्हें सम्मानित भी किया था। विश्व भर में वायलिन से जादू बिखरने वाले जुबिन मेहता का जन्मस्थान भारत ही है।
इस लिहाज से भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का इजरायल में अभूतपूर्व स्वागत होना ही था। उनकी आगवानी खुद इजरायली प्रधानमंत्री नेतन्याहू और उनकी पत्नी ने की। इस यात्रा ने दोनों देशों के बीच आपसी संबंध को सामरिक स्तर तक उठाया। भारत और इजरायल, दोनों लोकतांत्रिक देश हैं। भले ही दोनों के भू-राजनीतिक संबंध एक-दूजे से जुदा हैं, मगर कई ऐसे मामले हैं, जिनमें दोनों देश समान विचार रखते हैं। यही वजह है कि दोनों प्रधानमंत्रियों की मुलाकात में पश्चिम एशिया सहित कई मसलों पर व्यापक चर्चा हुई।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस यात्रा में दोनों देश जल और कृषि क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने पर सहमत हुए हैं। इस समझौते के तहत जल संरक्षण, जल शोधन और कृषि कार्य में इसका दोबारा इस्तेमाल, अलवणीकरण, जल उपयोगिता सुधार और उन्नत जल तकनीक की मदद से गंगा व दूसरी नदियों की सफाई जैसे कामों पर खास ध्यान दिया जाएगा। इस दौरे में दोनों मुल्कों ने कुल सात समझौते किए। इनमें विज्ञान और प्रौद्योगिकी, पेयजल व स्वच्छता, भारतीय राज्यों में जलापूर्ति सिस्टम में सुधार, कृषि, रक्षा और अंतरिक्ष जैसे विषय शामिल हैं। अंतरिक्ष से जुड़े समझौते के तहत परमाणु घड़ी के विकास, जियो-लियो ऑप्टिकल लिंक और छोटे उपग्रहों के लिए इलेक्ट्रिक प्रोपल्शन के क्षेत्र में आपसी सहयोग बढ़ाने के लिए तीन अहम समझौते किए गए हैं। यहां पर यह उल्लेख करना जरूरी है कि परमाणु घड़ी जीपीएस सिस्टम के लिए काफी मायने रखता है। बेशक भारत ने क्षेत्रीय जीपीएस सफलता के साथ विकसित कर लिया है, पर अब तक हम परमाणु घड़ी का आयात ही करते रहे हैं।
उल्लेखनीय यह भी है कि इजरायल की गिनती ‘स्टार्ट-अप नेशन’ के रूप में होती है। यहां इनोवेशन की संस्कृति है। इस लिहाज से करीब चार करोड़ डॉलर के साथ पांच साल का इनोवेशन टेक्नोलॉजी फंड स्थापित करने का फैसला काफी महत्वपूर्ण है। दोनों सरकार अगले पांच साल तक हर वर्ष अपनी तरफ से 40 लाख डॉलर की रकम इस फंड में देगी। इसका नाम इजरायल-भारत इनोवेशन इनिशिएटिव फंड यानी 14 एफ रखा गया है। इसके माध्यम से रिसर्च ऐंड डेवलपमेंट को प्रोत्साहित किया जाएगा और स्टार्ट अप को शुरुआती पूंजी देकर मदद की जाएगी। इसके साथ-साथ इंडियन एंजेल नेटवर्क कंपनी अब इजरायल में भी अपना कामकाज शुरू करेगी और भारत का सबसे बड़ा वेंचर्स कैपिटल फंड ‘लेट्स वेंचर’ इजरायली इक्विटी फंडिंग प्लेटफॉर्म ‘आवर क्लाउड’ के साथ कदमताल मिलाएगा।
दो दशकों में तेज तरक्की करने वाले भारतीय आईटी उद्योग की गति अब कम हो गई है। एच1बी वीजा और आईटी कर्मियों के आवागमन पर प्रतिबंध लगने से स्थिति और खराब हुई है। ऐसे में, भारतीय उद्योग को उच्च तकनीक अपनाना ही होगा, जिसमें कृत्रिम बौद्धिकता (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस), मशीन लर्निंग (डाटा विश्लेषण) और इंटरनेट ऑफ थिंग्स यानी दैनिक जीवन में इंटरनेट की अधिक से अधिक उपयोगिता जैसे क्षेत्रों से जुड़े सॉफ्टवेयर का विकास जरूरी है। और ये ऐसे कुछ क्षेत्र हैं, जहां इजरायल काफी बेहतर स्थिति में है।
इसी तरह, मौजूदा दौर में भारत और इजरायल के बीच व्यापार, कृषि, विज्ञान व प्रौद्योगिकी और रक्षा के क्षेत्र में गहरे रिश्ते बने हैं। स्थिति यह है कि दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार 1992 के 20 करोड़ अमेरिकी डॉलर से बढ़कर पिछले साल तक 4.16 अरब डॉलर तक पहुंच चुका है। इनमें हीरे, दवा, कृषि, आईटी, रासायनिक उत्पाद व वस्त्र के व्यापार शामिल हैं। एक भारतीय कंपनी जैन इरीगेशन ने ड्रिप इरीगेशन कंपनी नांदन को अधिगृहीत किया है। इसी तरह, सन फार्मा ने टैरो फार्मास्युटिकल्स में भारी निवेश किया है, तो त्रिवेणी इंजीनियरिंग इंडस्ट्रीज ने इजरायली जल शोधन कंपनी अक्वाइज में बड़ा निवेश किया है।
प्रधानमंत्री मोदी के दौरे से व्यापार और आर्थिक रिश्तों को नया विस्तार मिलेगा, क्योंकि द्विपक्षीय व्यापार और निवेश की क्षमताओं के पूर्ण दोहन के लिए दोनों प्रधानमंत्रियों ने इंडिया-इजरायल इको फोरम को यह जिम्मेदारी सौंपी है कि इस बाबत वह जल्दी से जल्दी अपनी सिफारिशें सौंपे। इसके अलावा, सुरक्षित निवेश पर समझौते के लिए भी पहल शुरू करने का फैसला हुआ है। प्रधानमंत्री के दौरे के दौरान दोनों देशों की ओर से जो साझा बयान जारी किया गया, वह इस बात की पुष्टि करता है कि दोनों देश रक्षा सहयोग को काफी महत्व दे रहे हैं। यह फैसला किया गया है कि दोनों देश मिलकर रक्षा उपकरण विकसित करेंगे, साथ ही इजरायल ‘मेक इन इंडिया’ पहल के लिए टेक्नोलॉजी भारत को हस्तांतरित करेगा। दोनों देशों में सहयोग का एक बड़ा क्षेत्र ‘साइबर सुरक्षा’ भी है।
प्रधानमंत्री मोदी ने खास तौर से इस बात पर जोर दिया है कि दोनों देश बढ़ते आतंकवाद का मिलकर मुकाबला करने को कमर कस चुके हैं। साझे बयान में यह साफ-साफ कहा गया है कि किसी भी आतंकवादी कार्रवाई को, चाहे उसके पीछे कोई भी कारण हो, स्वीकार नहीं किया जाएगा। दोनों प्रधानमंत्रियों ने कॉ्प्रिरहेंसिव कन्वेंशन ऑन इंटरनेशनल टेररिज्म (सीसीआईटी) के जल्दी से जल्दी अनुमोदन को लेकर अपनी प्रतिबद्धता जताई है।
भारत-इजरायल रिश्ते की यह नई पटकथा किसी अन्य देश के संबंधों की कीमत पर नहीं रची गई है। भारत अब भी फलस्तीन समस्या पर अपना समर्थन दे रहा है। और इसका सुबूत फलस्तीनी राष्ट्रपति मोहम्मद अब्बास का हालिया भारत दौरा है। प्रधानमंत्री मोदी की इस यात्रा की सबसे बड़ी उपलब्धि द्विपक्षीय संबंधों को नए और उच्चतर स्तर पर पहुंचाना है।
Date:07-07-17
ताकि सरकार के साथ मिलकर काम करने में सफल हो सकें
अनुराग बहर, सीईओ, अजीम प्रेमजी फाउंडेशन
वह तब करीब हजार करोड़ के मालिक थे, और उन्होंने हाल ही में शिक्षा पर केंद्रित एक परोपकारी पहल की थी। वह यह सलाह चाहते थे कि इस क्षेत्र में सरकार के साथ मिलकर कैसे प्रभावी काम किया जा सकता है? उन्होंने बड़े सब्र के साथ मेरी बातें सुनी थीं। कुछ महीने बाद मुझे यह सुनने को मिला कि उन्होंने एक सूबे के मुख्यमंत्री के साथ इससे संबंधित सहमति-पत्र पर हस्ताक्षर किए हैं, और जल्दी ही तीन अन्य राज्यों के साथ उनका करार हुआ।
इस बात को कुछ ही साल हुए हैं। आम तौर पर उनका प्रयास धूल फांकता हुआ दिखा और उसके बारे में शिक्षकों व अधिकारियों की टिप्पणियां भी नकारात्मक ही मिलीं। उनकी कोशिशों का यह हश्र देखकर मुझे बेहद अफसोस हुआ। उन्होंने काफी नेक इरादे और काफी सारे धन के साथ वह पहल की थी। फिर गलती कहां हुई? यकीनन, इसकी कई वजहें रही होंगी। मगर दो कारण मुझे साफ-साफ दिखे। पहला, उनके शिक्षा कार्यक्रमों की सोच ही गलत थी, जिसकी तफसील में मैं यहां नहीं जाऊंगा। दूसरा कारण था, सरकार के साथ काम करने का उनका दोषपूर्ण तरीका। और यह गड़बड़ी बुनियादी स्तर पर ही थी, जिसे उन्हें अपने कारोबारी तजुर्बे से पकड़ना चाहिए था। इसके लिए किसी सलाह की जरूरत ही नहीं थी।
उनका काम करने का तरीका पूरी तरह से ऊपर से नीचे की ओर था। उन्होंने यह सोचा कि उन्होंने मुख्यमंत्री के साथ सहमति-पत्र पर दस्तखत किए हैं, इसलिए पूरा सरकारी अमला और स्कूल प्रशासन उनके कार्यक्रमों को कामयाब बनाने में जुट जाएगा। एक कारोबारी संस्थान में भी सीईओ के अनुमोदन के बावजूद सभी स्तर के लोगों को अपने साथ जोड़ना काफी अहम होता है। यह एक बुनियादी चूक थी, जो उन्होंने अपने व्यापार में नहीं की थी। शायद उन्होंने इस सोच के तहत कदम बढ़ाया कि ‘मुख्यमंत्री ने मेरे कार्यक्रम का अनुमोदन कर दिया है, और चूंकि यह सत्कार्य मैं लाभ कमाने की मंशा से नहीं कर रहा, इसलिए सबको मेरे कार्यक्रम को सफल बनाना चाहिए।’
यह हकदारी इस बात को नजरअंदाज कर देती है कि स्कूल सिस्टम से जुडे़ लाखों शिक्षकों व अधिकारियों ने अपनी पूरी जिंदगी इसी अच्छेे उद्देश्य से होम कर रखी है। किसी भी परोपकारी इंसान की पहल एक अतिरिक्त मदद भर है और इन शिक्षकों व अधिकारियों के मुकाबले उनकी कोशिश बहुत छोटी है। फिर शीर्ष से नीचे वाली सोच दरअसल जमीनी फीडबैक की संभावना को खत्म कर देती है। काफी सारे लोग यह सवाल पूछते हैं कि ‘आखिर सरकार के साथ मिलकर कैसे कोई प्रभावशाली काम किया जाता है?’ ऐसा पूछने वालों में सिर्फ परोपकार से प्रेरित लोग नहीं होते, बल्कि उद्योगपति भी होते हैं, जो कॉरपोरेट क्षेत्र की सामाजिक जिम्मेदारी के अपने कार्यक्रमों को लेकर उत्सुक होते हैं। इस सवाल के जवाब में मैं देश भर में सरकार के साथ मिलकर काम करने के अपने करीब 20 वर्षों के अनुभव पर कुछ बातें बता सकता हूं।
पहली तो यही कि ‘सरकार’ एक चट्टानी रुकावट है जैसी धारणा वास्तव में बेमानी है। सच यह है कि आपको इंसानों के साथ मिलकर काम करना होता है, न कि चट्टानों के साथ। इन लोगों में आपको तरह-तरह की योग्यताएं व क्षमताएं मिलेंगी। दूसरी, आपको कामकाजी रिश्ता सभी स्तरों पर कायम करना होगा। सहमति-पत्रों की उपयोगिता बहुत सीमित होती है। राजनेताओं व वरिष्ठ अधिकारियों (अक्सर आईएएस) के साथ मिलकर काम करना ही पर्याप्त नहीं, आपके लिए जिला, प्रखंड व समूह के स्तर पर काम करना बहुत जरूरी है। तीसरी, अधिकारियों की एक बड़ी संख्या काफी स्मार्ट है, वे बहुत मेहनत से काम करते हैं। चौथी, विनम्रता कभी न छोड़ें। सरकार को जिस जटिलता से जूझना पड़ता है, और जिससे आपका भी सामना होना है, वह किसी कारोबार से अधिक नाटकीय है। ऐसे में, सरकारी अफसरों का दशकों का तजुर्बा काफी उपयोगी साबित होता है। इसी तरह, आपके पास कुछ विशेषज्ञ भी होने चाहिए। अपने काम का श्रेय लेने की चाहत से भी बचें। मीडिया परोपकारियों को अपने तईं पेश करता रहता है।
जाहिर है, इन बिंदुओं पर काम करने के लिए अमिभान छोड़ना पड़ेगा, जो पुरानी कामयाबियों के बाद किसी में सहज घर कर जाता है।
कौन बनाए नियम
ऐसे समय जब 2014 और 2017 के चुनाव में बुरी तरह पराजित हुई विपक्षी पार्टयिां ईवीएम मशीन के बहाने चुनाव आयोग जैसी संस्था की विश्वसनीयता पर सवाल उठा रही हैं, उस समय सुप्रीम कोर्ट का यह पूछना कि क्या वह चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति का कोई मानदंड तय कर सकता है; एक नये किस्म की बहस को जन्म देता है। यह बहस लोकतंत्र की एक अहम संस्था के चरित्र और योग्यता के बारे में तमाम सवाल खड़े करती है और इस पर समाज के जागरूक तबके को सवाल खड़ा करने को प्रेरित करती है। सुप्रीम कोर्ट ने अनूप बरनवाल की जिस याचिका पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की है उनकी यही मांग है कि चुनाव आयुक्तों के पद पर तटस्थ व्यक्तियों की नियुक्ति होनी चाहिए और वह प्रक्रिया पारदर्शी होनी चाहिए। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अब तक जिन लोगों की इस पद पर नियुक्ति हुई है वह विशिष्ट योग्यता वालों की रही है और वे उचित और तटस्थ प्रक्रिया के तहत नियुक्त किए गए हैं। लेकिन इतना कहते हुए जब वह कुछ नियम बनाने का प्रस्ताव करता है तो लगता है कि आगे शायद ऐसी निष्पक्ष और तटस्थ स्थिति नहीं रहने वाली है। याचिकाकर्ता की चिंता यही है कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति किसी नियम और नीति के तहत हो न कि राजनीतिक आकाओं की मर्जी पर। इस चिंता में साझेदारी की जो झलक सुप्रीम कोर्ट ने प्रदर्शित की है वह मौजूदा व्यवस्था पर एक टिप्पणी है।आज जब खेहर और चंद्रचूड़ की पीठ चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के बारे में नियम तय करने का प्रस्ताव रखती है तो उसके पीछे संवैधानिक संस्थाओं की तटस्थता और योग्यता की चिंता ही झलकती है और यह बात भी परोक्ष रूप से लगती है कि लोकतंत्र की रक्षा के लिए चुनाव आयोग का तटस्थ रहना जरूरी है। राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के फैसले में अदालत ने कहा था कि भारत का संविधान उन राजनीतिक कार्यकर्ताओं को संवैधानिक संस्थाओं पर नियुक्ति की छूट नहीं देता, जिन्होंने किसी पार्टी को चुनाव में मदद की हो। लेकिन चिंता की बात है कि यह काम हो रहा है।
बीच-बीच में हाईकोर्ट के जजों की तरफ से गोरक्षा और दूसरे धार्मिंक मुद्दों पर होने वाली टिप्पणियां इस बात का प्रमाण हैं कि स्वयं न्यायपालिका में ऐसे लोग हैं जो कानून की तार्किकता और मर्यादा का पालन करने की बजाय धार्मिंक भावनाओं में बहकर संविधान की व्याख्या करने में यकीन करते हैं। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट की यह भी चिंता है कि जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया की भी समीक्षा होनी चाहिए ताकि दिनाकरण जैसे जज इस व्यवस्था में न आ पाएं। निर्वाचन आयोग ने आमतौर पर तो निर्भीक और तटस्थ होकर ही काम किया है मगर टीएन शेषन जैसे मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति राजनीतिक दलों के लिए चिंताकारक तो लोकतंत्र के लिए उम्मीद भरा अनुभव रहा है। वह चुनाव आयोग की ऐसी सक्रियता का दौर (1991-1996) रहा है, जिससे बाकी संस्थाएं हिलने लगी थीं।
शेषन ने चुनाव को निष्पक्ष करवाने के लिए उसे कई चरणों में बांटने और भारी संख्या में केंद्रीय सुरक्षा बल तैनात का सिलसिला शुरू किया तो फर्जी मतदान रोकने के लिए मतदाता परिचय पत्र का कार्यक्रम बनाया था। शेषन ने ही उम्मीदवारों की चुनाव खर्च की सीमा निर्धारत की और उनका तमाम ब्योरा लेने का नियम बनाया। शेषन ने निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव के लिए ईवीएम मशीन लागू करवाने का सुझाव दिया जो आज पूरे भारत में लागू हो चुकी है और नये किस्म का विवाद भी खड़ा कर चुकी है। कहना न होगा कि शेषन ने अपनी योग्यता और साहस का इतना ज्यादा परिचय दे दिया कि तमाम राजनीतिक दल ही नहीं स्वयं केंद्र सरकार भी उनसे टकराने लगी और उनके पर कतरने के लिए दो चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति कर डाली। इस नियुक्ति को शेषन ने चुनौती दी और मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया जिस पर 1995 में महत्त्वपूर्ण फैसला आया कि आयोग कोई भी निर्णय मिल-जुल कर बहुमत से लेगा और मुख्य चुनाव आयुक्त व बाकी आयुक्तों का स्तर बराबर ही है। सिर्फ चुनाव आयुक्तों को हटाए जाने के मामले में मुख्य चुनाव आयुक्त के सुझाव का विशेष महत्त्व है। बरनवाल की जनिहत याचिका पर सुप्रीम कोर्ट क्या फैसला देगा यह तो समय बताएगा लेकिन उसने संसद को इस बारे में नियम बनाने की याद दिलाकर दलों को नियुक्ति की प्रक्रिया पर बहस का मौका दे दिया है। संविधान के अनुच्छेद 324(2) के तहत मुख्य चुनाव आयुक्त और बाकी आयुक्तों की नियुक्ति राष्ट्रपति करते हैं। इनमें सिर्फ सीईसी को हटाने के लिए उसी प्रक्रिया का पालन करना होता है जिसका पालन सुप्रीम कोर्ट के जजों को महाभियोग के तहत हटाने के लिए किया जाता है। अब अगर संसद चुनाव आयुक्तों को नियुक्त करने के लिए किसी मानदंड और नियम का निर्धारण नहीं करती है तो उस बारे में सुप्रीम कोर्ट पहल करने को उत्सुक है। जाहिर सी बात है कि संसद न तो अदालत के दबाव में कोई नियम बनाने जा रही है और न ही अदालत की तरफ से बनाए जाने वाले किसी नियम को आसानी से स्वीकार करेगी। यह स्थिति एक टकराव की बनती है।
लेकिन अगर इस स्थिति की व्याख्या संविधान सभा की बहसों के संदर्भ में किया जाए तो डॉ. अम्बेडकर के मसविदे पर केएम मुंशी का वह संशोधन महत्त्वपूर्ण है, जिसमें उन्होंने कहा था कि चुनाव आयोग पांच सालों के बीच में खाली बैठी रहने वाली संस्था नहीं है। उसे तमाम तरह के काम करने पड़ते हैं। भले ही संवैधानिक लिहाज से सिर्फ मुख्य चुनाव आयुक्त की संस्था एक स्थायी भाव रखती हो लेकिन बाकी आयुक्त भी आयोग के विशाल ढांचे को कानून सम्मत और पारदर्शी बनाने के लिए लंबे समय तक काम करते हैं। भारतीय चुनाव प्रक्रिया ऐसे ही नहीं पूरी दुनिया में विश्वसनीय साबित हुई है। उसके पीछे हमारी कुशल और तटस्थ नौकरशाही की कड़ी मेहनत छुपी हुई है। लेकिन प्रौद्योगिकी और जनमत के बदलते रिश्तों के इस दौर में इस संस्था को भी नई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के सुझाव पर र्चचा होनी चाहिए और उस दिशा में पहल होनी चाहिए।