08-06-2018 (Important News Clippings)

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08 Jun 2018
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Date:08-06-18

Dawn Of Smart Medicine

Present healthcare is sick care. We are moving to an always on system that keeps people well

Naresh Trehan, (The writer is chairman and MD, Medanta)

‘The Future is Now’ was a hip-hop album. I borrow the term to underline the fact that all future takes birth in the present; we form and define it here and now. This calls for great responsibility, requires us to be visionary and innovative while being compassionate. And in healthcare, exceedingly committed to patients. I see the future of healthcare driven by an increasingly patient-centric approach, characterised by constant connectivity and enabled by technology. Maturing in the middle of the last century, the present healthcare system is actually a sick care system. We have made incredible advances in treatment and technology, but care delivery has remained much the same.

It is still largely bricks and mortar where people who are sick or acutely ill come to be treated. It was never designed to deal with the huge growth of chronic disease, which now represents well over 80% of all healthcare spend. In the new paradigm, we will have to start looking at healthcare from the perspective of the patient. That is, we have to first help patients understand the drivers that impact their chronic condition better, so they can play a more active role in managing it. We have to get involved in health, rather than just treating sickness. The aim is to proactively keep people well rather than react when they become ill. It is not just about telling them what to do, it is about truly engaging them, providing them with smart technology so they can closely monitor themselves. Patients will still need specialists with expert knowledge, but the patient and specialist will not need to be in the same space at the same time. Through a network of connected care, several experts will look at the case simultaneously. This would enable early diagnosis of health issues through constant monitoring, before they become more serious. This will be normal practice within 10 years.

The idea of maintaining people’s well-being, rather than reacting to an episode makes sense. We will have to apply ourselves to hard changing a system that is hardwired to be reactive. We can already see hospitals becoming smarter, patients more empowered and the ambient space increasingly dispense the efficiency and precision of technology. I see interconnectedness and concordance with other sectors of the digital economy as healthcare moves to its logical progression. A robust ecosystem thriving alongside an intense healthcare ecosystem. From organisational perspectives, we will see a radical consolidation in healthcare. The sheer size and scale of our country will attract investment in healthcare infrastructure, divided between increasing the reach and deployment of technology. Beds will increasingly move out of hospitals, which in turn will focus on diagnostics and treatment. Recuperation will be shifted to homes. I expect to see India leading the world in creating the vehicles for that reach. This will also help in better continuum of care, further bridging the gap between the patient and healthcare provider.

This will also help patients take better care of themselves, for access to data and analysis will enable wearables to predict health problems and offer advice on potential lifestyle changes based on one’s health and genetic history, predict recovery duration, and suggest the right doctor in accordance with the patient’s profile. In the future, algorithms will help map patient history, making treatment faster and more effective. With tremendous scope for innovation, the possibilities for ensuring better healthcare outcomes are enormous. On the cusp of unprecedented disease and unprecedented treatment, we are faced with deeper questions: Who shall receive what healthcare? What resources can be allocated, how and to whom? What is an acceptable form of healthcare? At the heart of these lies the demand for more equitable distribution of the benefits of medical knowledge. Unless we imaginatively improvise creative and sustainable answers and apply them, we cannot negotiate India’s healthcare crisis.

In closing, i am drawn to the one thing which has never and shall never change: the doctor-patient relationship. In ancient India, Charaka the physician clearly outlined four ethical principles of a doctor: ‘Friendship, sympathy towards the sick, interest in cases according to one’s capabilities and no attachment with the patient after his recovery.’ The Charaka Samhita emphasises values central to the nobility of the profession: ‘He who regards kindness to humanity as his supreme religion and treats his patients accordingly, succeeds best in achieving his aims of life and obtains the greatest pleasures.’ In the Susruta Samhita, the doctors’ duty and obligations to the patient are stressed: ‘The patient may doubt his relatives, his sons and even his parents but he has full faith in the physician. He [the patient] gives himself up in the doctor’s hand and has no misgivings about him. Therefore, it is the physician’s duty to look after him as his own son.’

The core and quintessence of all medicine past present and future has been, and shall be the empathy and trust between doctor and patient. Forevermore as the future of healthcare manifests itself.


Date:08-06-18

आसियान से गहराते रिश्तों का दौर

बीते दो-तीन वर्षों से अनेक देशों में भारत का निर्यात गिर रहा है, जिसकी भरपाई हेतु आसियान देशों में संभावनाएं खोजी जा सकती हैं।

डॉ. जयंतीलाल भंडारी (लेखक अर्थशास्त्री हैं)

हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इंडोनेशिया, मलेशिया और सिंगापुर का दौरा किया। ये तीनों देश दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों के संगठन (आसियान) के प्रमुख देश हैं। लिहाजा इस दौरे को मोदी सरकार की ‘एक्ट ईस्ट पॉलिसी के तहत आसियान देशों से संबंध बढ़ाने का हिस्सा भी माना गया। इस दौरे में प्रधानमंत्री मोदी ने तीनों देशों के राष्ट्र प्रमुखों के साथ नवाचार, प्रौद्योगिकी, सुरक्षा समेत साझा हित के विभिन्न् मुद्दों के साथ-साथ आसियान में भारत की आर्थिक भागीदारी बढ़ाने के बारे में भी चर्चा की। इस दौरे के दौरान तीनों देशों के साथ कारोबार, परिवहन, समुद्री सुरक्षा एवं सांस्कृतिक सहयोग के मुद्दों पर व्यापक सहमति बनी है। वस्तुत: एक ऐसे दौर में जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की बढ़ती कीमतों के कारण देश की आर्थिक मुश्किलें बढ़ती नजर आ रही हैं, तब निर्यात बढ़ाने और विदेशी निवेश आकर्षित करने के मद्देनजर भी यह दौरा उपयोगी रहा है। गौरतलब है कि मोदी सरकार ने पूर्ववर्ती यूपीए सरकार की ‘लुक ईस्ट पॉलिसी से आगे बढ़ते हुए ‘एक्ट ईस्ट पॉलिसी को अपनाया और इस साल गणतंत्र दिवस समारोह में 10 आसियान देशों के राष्ट्र-प्रमुखों को मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित करते हुए भारत व आसियान देशों के बीच आर्थिक-व्यापारिक संबंधों की नई डगर निर्मित की।

उल्लेखनीय है कि आसियान संगठन के 10 देशों की कुल आबादी 64 करोड़ से अधिक है। इन देशों का मौजूदा संयुक्त सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) करीब 2.8 लाख करोड़ डॉलर है। इसके अलावा आसियान देशों की एक हजार अरब डॉलर से अधिक की वार्षिक क्षेत्रीय आय तथा 100 अरब डॉलर से अधिक का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) मुक्त व्यापार क्षेत्र के परिप्रेक्ष्य में महत्वपूर्ण है। आसियान देशों के साथ भारत के व्यापारिक रिश्तों की शुरुआत 1990 के दशक में हुई। आसियान देशों ने जनवरी 1992 में भारत को क्षेत्रीय संवाद सहयोगी और दिसंबर 1995 में पूर्ण वार्ताकार सहयोगी का दर्जा प्रदान किया था। तब से आसियान देशों के साथ भारत के आर्थिक-सामाजिक संबंध लगातार बढ़ रहे हैं। उल्लेखनीय है कि भारत और आसियान देशों के बीच मुख्यत: इलेक्ट्रॉनिक्स, रसायन, मशीनरी और टेक्सटाइल्स का कारोबार होता है। इस समय भारत आसियान का चौथा सबसे बड़ा साझेदार है। जो भारत-आसियान व्यापार 1990 में मात्र 2.4 अरब डॉलर का था, वह वर्ष 2016-17 में बढ़ते हुए करीब 80 अरब डॉलर तक पहुंच गया। इसे 2022 तक 200 अरब डॉलर तक पहुंचाने का लक्ष्य है। आसियान के कुछ देशों का पूर्वी व दक्षिणी चीन सागर क्षेत्र को लेकर चीन से विवाद है, वहीं भारत का भी अपने उत्तर में स्थित पड़ोसी देश के साथ जमीन को लेकर विवाद है। दक्षिणी चीन सागर के पूरे हिस्से पर चीन अपना दावा ठोकता है और पूर्वी चीन सागर में जापान के नियंत्रण वाले सेनकाकु द्वीपों को भी अपना बताता है। ऐसे में भारत और आसियान के 10 देश समुद्री क्षेत्र में सहयोग बढ़ाते हुए अपनी स्थिति मजबूत कर सकते हैं।

निस्संदेह इस समय भारत दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों के साथ लगातार व्यापारिक एवं सामाजिक संबंध बढ़ाने की डगर पर आगे बढ़ रहा है। आसियान देशों में भारतीय प्रोफेशनल्स के लिए कामकाज के विस्तार की काफी गुंजाइश बढ़ी है। अंग्रेजी बोलने वाले भारतीय आईटी प्रोफेशनलों को दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में संभावनाओं का बड़ा बाजार हासिल हुआ है। न केवल सॉफ्टवेयर या सेवा क्षेत्र में, बल्कि कई अन्य आर्थिक क्षेत्रों में भी भारत ने विश्व की एक उभरती शक्ति के रूप में पहचान बनाई है। भारत के पास कुशल पेशेवरों की फौज है। यहां आईटी, सॉफ्टवेयर, बीपीओ, फार्मास्युटिकल्स, केमिकल्स एवं धातु क्षेत्र में दुनिया की जानी-मानी कंपनियां हैं, आर्थिक व वित्तीय क्षेत्र की शानदार संस्थाएं हैं। इनके लिए आसियान देशों में कारोबार की अच्छी संभावनाएं हैं। गौरतलब है कि पिछले दो-तीन वर्षों से दुनिया के अनेक देशों में भारत के जो निर्यात प्रभावित हो रहे हैं, उनकी भरपाई के लिए आसियान बाजारों में नई संभावनाएं खोजी जा सकती हैं। वर्ष 2018 की शुरुआत से ही कच्चे तेल के आयात पर भारत की काफी विदेशी मुद्रा खर्च हो रही है। डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपए के लुढ़कने से रुपए की क्रयशक्ति घट गई है और कोयले के मामले में भी देश आए दिन मुश्किलों का सामना कर रहा है। ऐसे में आसियान समूह के साथ बुनियादी ढांचा और हाइड्रोकार्बन जैसे क्षेत्र में समझौते भारत के लिए लाभप्रद रहे हैं।

प्रधानमंत्री मोदी ने इंडोनेशिया, मलेशिया और सिंगापुर का दौरा करके भारत के लिए आसियान देशों में और अधिक उजली व्यापारिक संभावनाएं खोजने का प्रयास किया है, वहीं इन तीन देशों के साथ-साथ सभी आसियान देशों को भी यह भान है कि पिछले कुछ सालों में भारत ने विभिन्न् क्षेत्रों में तरक्की के नए आयाम तय किए हैं और इसके साथ जुड़ना उनके लिए भी फायदे का सौदा है। आसियान देशों के लिए विशेष तौर पर कुछ ऐसे क्षेत्रों में निवेश करने के लिए अच्छे मौके हैं, जिनमें भारत ने काफी उन्न्ति की है। ये क्षेत्र हैं- सूचना प्रौद्योगिकी, बायोटेक्नोलॉजी, फार्मास्युटिकल्स, पर्यटन और आधारभूत क्षेत्र। आसियान देशों ने इस बात को समझा है कि आधुनिक तकनीक, बढ़ते घरेलू बाजार, व्यापक मानव संसाधन, वैज्ञानिक और तकनीकी क्षेत्र में दक्षता जैसी चीजें भारत को आर्थिक ऊंचाई दे रही हैं। यह भी समझा गया है कि अगर आसियान का मैन्यूफैक्चरिंग और भारत का सॉफ्टवेयर उद्योग आपस में जुड़ जाएं तो यह पूरा इलाका आर्थिक प्रगति के नए कीर्तिमान रच सकता है।

मोदी के इस दौरे में इंडोनेशिया, मलेशिया और सिंगापुर के नेताओं के साथ बातचीत में यह सहमति बनी कि ये देश भारत के साथ विभिन्न् आर्थिक एवं कारोबारी साझेदारी के साथ-साथ सामरिक सहयोग बढ़ाने की डगर पर आगे बढ़ेंगे। चूंकि आसियान देश समुद्री सीमाओं पर चीन के क्षेत्रीय और दबावपूर्ण मंसूबों से त्रस्त हैं, अतएव वे लोकतांत्रिक भारत को अपना समुद्री मित्र मानते हुए भारत से आर्थिक संबंधों में उपयोगिता देख रहे हैं। भारत-आसियान रिश्तों का कूटनीतिक महत्व भी बढ़ गया है। दक्षिण-पूर्वी एशिया के कई देशों का जोर इस बात पर है कि भारत इस इलाके में बढ़-चढ़कर भूमिका निभाए। यहां यह बात भी उल्लेखनीय है कि चीन का दखल बढ़ने के कारण इस क्षेत्र में अमेरिका की सक्रियता भी बहुत बढ़ गई है। अमेरिका ने भारत को अपनी भूमिका और बढ़ाने के लिए प्रेरित किया और अब वह एशिया-प्रशांत क्षेत्र को हिंद-प्रशांत (इंडो-पेसिफिक) क्षेत्र कहता है। चूंकि चीन आसियान बाजारों में कारोबार के लिहाज से बहुत तेजी से आगे बढ़ चुका है और उसने इन देशों में बड़ी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में निवेश भी किया है, अतएव भारत को आसियान क्षेत्र में अपनी नई छाप छोड़ने के साथ-साथ आसियान देशों में आपसी व्यापार की उजली संभावनाओं को साकार करने के लिए विशेष रणनीतिक प्रयास करने होंगे। प्रधानमंत्री मोदी के इंडोनेशिया, मलेशिया व सिंगापुर के सार्थक दौरे से इस प्रयास को नई गति मिली है।


Date:07-06-18

मुसीबत की थैली

संपादकीय

अब यह छिपी बात नहीं है कि रोजमर्रा के कामों में प्लास्टिक से बनी चीजों के इस्तेमाल का पर्यावरण पर कितना घातक असर पड़ता है और इससे उपजी स्थिति लगातार बिगड़ रही है। इसके मद्देनजर समय-समय पर सरकारें प्लास्टिक के उपयोग को हतोत्साहित करने से लेकर इस पर पाबंदी लगाने तक की घोषणाएं करती रही हैं। इस साल ‘प्लास्टिक प्रदूषण खत्म करो’ विषय के साथ भारत विश्व पर्यावरण दिवस का मेजबान देश है। इसलिए इस मौके पर तमिलनाडु, नगालैंड, महाराष्ट्र और झारखंड की ओर से प्लास्टिक मुक्त होने की घोषणा की खास अहमियत है। इसके अलावा, उत्तराखंड ने भी इकतीस जुलाई से पॉलीथिन को प्रतिबंधित करने की बात कही है। हालांकि यह कोई पहली बार नहीं है कि राज्यों ने प्लास्टिक से निजात पाने के लिए पहल करने का दावा किया है। मगर मुश्किल यह है कि लंबे समय से प्लास्टिक से होने वाले नुकसानों को लेकर जताई जाने वाली चिंताओं के बावजूद इससे निजात पाने की कवायदें महज घोषणाओं तक सिमटी हुई हैं।

करीब ढाई महीने पहले महाराष्ट्र सरकार ने राज्य में प्लास्टिक और थर्मोकोल के इस्तेमाल पर पाबंदी लगा दी थी और उसका उल्लंघन करने वालों के लिए सख्त सजा तय की थी। अब वहां के पर्यावरण मंत्री ने कहा है कि राज्य अगले एक साल में प्लास्टिक से पूरी तरह मुक्त हो जाएगा। इसी तरह बाकी राज्यों ने भी इस समस्या पर काबू पाने में वक्त लगने की बात कही है। निश्चित रूप से रोजमर्रा की जरूरत में शामिल हो चुके प्लास्टिक के उपयोग को अचानक प्रतिबंधित करके इस समस्या से नहीं निपटा जा सकता। पर यह भी सच है कि आधी-अधूरी कवायदों से प्लास्टिक से पार पाने की कोशिशें कामयाब नहीं हो सकतीं। मसलन, महाराष्ट्र सरकार ने कई रूपों में प्लास्टिक से बनी चीजों पर पाबंदी लगाने की घोषणा की थी, लेकिन प्रसंस्करित उत्पादों की पैकिंग, बागवानी उत्पादों आदि मामलों में इसके इस्तेमाल की छूट दे दी। इसके अलावा, विशेष आर्थिक क्षेत्रों को भी इस प्रतिबंध से अलग रखा गया। क्या इस तरह की बंटी हुई नीतियों से प्लास्टिक से होने वाले प्रदूषण को नियंत्रित किया जा सकेगा? इससे पहले भी जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, झारखंड जैसे राज्यों ने प्लास्टिक पर पाबंदी लगाई, लेकिन आज भी वहां खुलेआम प्लास्टिक की थैलियों का इस्तेमाल हो रहा है

दरअसल, प्लास्टिक के बढ़ते उपयोग और उसके कचरे से बढ़ती समस्या ने बड़ी समस्या की शक्ल अख्तियार कर ली है। आज प्लास्टिक से बने सामान हमारे रोजाना के कामकाज में इस कदर शामिल हो चुके हैं कि इसका विकल्प कम दिखता है। लेकिन हमारी सुविधाओं का बड़ा खमियाजा पर्यावरण को उठाना पड़ता है और इससे हमारी सेहत के लिए कई तरह के जोखिम पैदा होते हैं। खेतों की उर्वरा शक्ति कम होने, भूमि बंजर होने, शहरों-महानगरों में नालियां या पानी का निकास अवरुद्ध होने जैसी समस्याएं बड़ी चुनौती हो चुकी हैं। चूंकि ज्यादातर देशों में इसके निस्तारण सही तरीके से नहीं किया जाता है, उसके चलते इससे होने वाला प्रदूषण समुद्र से लेकर वायु तक को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है। दुनिया भर के महासागरों में हर साल अस्सी लाख टन प्लास्टिक का कचरा फेंका जाता है। वैश्विक पैमाने पर प्लास्टिक के व्यापक इस्तेमाल के नुकसानों के मद्देनजर जताई जाने वाली चिंताएं कोई नई नहीं हैं। सवाल है कि केवल फिक्र जताने या इसके उपयोग पर पाबंदी लगाने की बातें कब तक जमीन पर उतरेंगी!


Date:07-06-18

फांसी नहीं, त्वरित न्याय जरूरी

अनिल पांडेय

सरकार ने बच्चों के साथ बलात्कार की बढ़ती घटनाओं को रोकने के लिए इस मामले में दी जाने वाली सजा को कठोर बनाते हुए फांसी का प्रावधान कर दिया है। पॉक्सो कानून में केंद्र सरकार के संशोधन के अध्यादेश के मुताबिक 12 साल तक की बच्ची के बलात्कार के मामले में अब कम से कम 20 साल कैद या आजीवन कैद या फिर मौत की सजा मुकर्रर की गई है। साथ ही 12 साल तक की बच्ची के साथ सामूहिक बलात्कार के मामले में भी आजीवन कैद या फिर मौत की सजा का प्रावधान है। सरकार को यह अध्यादेश इसलिए लाना पड़ा क्योंकि आम जन-मानस छोटी-छोटी मासूम बच्चियों के साथ लगातार हो रही बलात्कार की घटनाओं से आक्रोशित है। सरकार के सख्त सजा के रु ख से यह धारणा बन रही है कि इससे बच्चों के साथ घट रही बलात्कार की घटनाओं पर लगाम लगेगा। लेकिन क्या वाकई ऐसा होगा? क्या सरकार के इस कदम से बच्चियों के साथ बलात्कार की घटनाओं पर लगाम लग पाएगी? क्या सच में उन्हें न्याय मिल पाएगा। इन सवालों के जवाब की गहराई से पड़ताल करेंगे तो पता चलेगा कि सरकार का यह कदम महज जन भावनाओं के ज्वार को शांत करने वाला है।

इसका बहुत फायदा होने वाला नहीं है। अपराध मामलों के जानकार और मनोवैज्ञानिक आशंका जाहिर कर रहे हैं कि बलात्कार और हत्या की सजा जब एक ही होगी तो ऐसे में 12 साल की बच्ची के साथ बलात्कार करने वाले को फंसी का प्रावधान कर दिया गया है तो अपराधी सबूतों को मिटाने के लिहाज से बच्ची की हत्या कर देगा। बलात्कार की शिकार बच्ची इस मामले में एक अहम गवाह होती है। दूसरी बात यह है कि बच्चों का यौन शोषण और बलात्कार करने वाले ज्यादातर लोग पीड़ित के परिवार के रिश्तेदार, करीबी और जान-पहचान के लोग ही होते हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक बच्चों के ऐसे यौन शोषकों की तादाद 90 फीसद से ज्यादा है। ऐसे में फांसी की सजा के प्रावधान के बाद आशंका है कि माता-पिता बच्चों के बलात्कार के खिलाफ रिश्तेदारों और करीबियों के प्रति पुलिस में रिपोर्ट दर्ज नहीं करवाएंगे। ज्यादातर लोग नहीं चाहंगे कि उनके रिश्तेदार को उनकी बच्ची के कारण फांसी पर लटकाया जाए। इसके अलावा मानवाधिकार संगठन भी सरकार के फांसी के कदम का विरोध कर रहे हैं। वह सवाल पूछ रहे हैं कि जब पूरी दुनिया में मानवाधिकारों और मानवीयता की दुहाई देते हुए फांसी की सजा को खत्म किया जा रहा है, तब ऐसे में भारत का यह कदम कितना उचित है? दुनिया के तकरीबन दो-तिहाई से ज्यादा देशों में फांसी की सजा को खत्म कर दिया गया है। उत्तर कोरिया, सऊदी अरब, चीन, मिस, ईरान और अफगानिस्तान जैसे कुछ ही देश हैं जहां आज भी फांसी दी जाती है।

पूरी दुनिया में इस बात पर जोर दिया जा रहा है कि अपराधियों को सजा के अलावा सुधरने का मौका देना चाहिए। फांसी की सजा की बजाए उन कारकों पर ध्यान देना चाहिए, जिससे बलात्कार की घटनाओं को रोका जा सके। इनमें से एक है अपराधियों को जल्दी-से-जल्दी सजा दिलाना और दूसरा है चाइल्ड पोर्नोग्राफी पर प्रतिबंध लगाना। स्मार्टफोन और इंटरनेट पर पोर्न की सहज उपलब्धता ने बलात्कार की घटनाओं को बढ़ाया है। देश को झकझोरने वाले निर्भया और गुड़िया बलात्कार कांड के आरोपियों ने कबूला था कि घटना को अंजाम देने से पहले उन्होंने फोन पर अश्लील फिल्म देखी थी। इस पर लगाम लगाने की जरूरत है। हाल ही में नोबेल शांति पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी की अगुआई में जोर्डन में आयोजित ‘‘लॉरिएट्स एंड लीडर्स सम्मिट फॉर चिल्ड्रेन्स’ में जुटे दुनियाभर के ग्लोबल लीडर और नोबेल पुरस्कार विजेताओं ने चाइल्ड पोर्नोग्राफी पर प्रतिबंध लगाने की मांग की है। बलात्कार की घटनाओं को रोकने के लिए हमें बच्चों के अनुकूल अदालतें बनाने के साथ-साथ त्वरित न्याय की व्यवस्था करनी पड़ेगी। सजा की दर बढ़ा कर ही अपराधियों के मन में खौफ पैदा किया जा सकता है। बच्चों के यौन शोषण के खिलाफ बने पॉक्सो कानून के तहत दर्ज मामलों में सजा की दर तकरीबन चार फीसद है। इसलिए हमें पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए फास्ट ट्रैक कार्ट की स्थापाना कर एक तय समय-सीमा के तहत मुकदमों की सुनवाई पूरी करनी है। मोदी सरकार ने जो नया अध्यादेश जारी किया है, उसमें फास्ट ट्रैक कोर्ट की स्थापना की बात भी है। लेकिन उसे कागजों से निकाल कर जमीन पर उतारना होगा।


Date:07-06-18

जारी रहेगा आरक्षण

संपादकीय

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अंतिम फैसला आने तक अनुसूचित जाति-जनजाति को सरकारी नौकरियों में प्रोन्नति जारी रखने के अंतरिम आदेश के बाद केंद्र सरकार इस दिशा में आगे बढ़ सकती है। यानी अब सरकार आरक्षण की मान्य सीमा में अनुसूचित जाति और जनजाति के कर्मचारियों को प्रोन्नति दे सकती है। समस्या इसलिए आ गई थी कि पदोन्नति में आरक्षण देने के मुद्दे पर दिल्ली, बंबई और पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालयों ने अलग-अलग फैसला दिया था तो सर्वोच्च न्यायालय ने भी। सबसे अंतिम फैसला अगस्त 2017 का दिल्ली उच्च न्यायालय का था। इसमें कार्मिंक विभाग के 1997 के प्रोन्नित में आरक्षण को अनिश्चितकाल तक जारी रखने के ज्ञापन को रद्द कर दिया था। इसने 2006 में सर्वोच्च न्यायालय के पांच सदस्यीय पीठ के फैसले को आधार बनाया था। इसमें कहा गया था कि प्रोन्नति में आरक्षण से पहले उनके पिछड़ेपन और अपर्याप्त प्रतिनिधित्व के आंकड़े जुटाने होंगे, आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से ज्यादा न हो, क्रीमीलेयर समाप्त न हो और यह अनिश्चितकाल तक जारी न रहे। हालांकि मई 2017 में न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ की पीठ ने कह दिया था कि मामले के लंबित रहने तक प्रोन्नति में आरक्षण पर बंदिश नहीं है। इस तरह सर्वोच्च न्यायालय का ही दो फैसला हो गया था।

इससे संभ्रम की स्थिति पैदा होनी स्वाभाविक थी। केंद्र सरकार इन सारे मामलों को लेकर सर्वोच्च अदालत गई थी, जिसने एम नागराज फैसले पर पुनर्विचार करना स्वीकार कर लिया था। यह मामला संविधान पीठ को चला गया है। किंतु तब तक क्या? इसी प्रश्न के उत्तर में शीर्ष अदालत ने कहा कि तब तक कानून के अनुसार प्रोन्नति पर रोक नहीं है। तो पूरा देश सर्वोच्च अदालत के अंतिम फैसले की प्रतीक्षा करेगा। नौकरियों में आरक्षण के साथ पदोन्नति में आरक्षण बेहद ही संवेदनशील मामला है। एक पक्ष का कहना है कि किसी को आरक्षण का लाभ एक ही बार मिलना चाहिए। दूसरे पक्ष का कहना है कि नौकरी मिलने के बाद भी उनके साथ सामान्य श्रेणी के लोगों की तरह व्यवहार नहीं किया जा सकता। पिछड़ी जातियों के मामले में अगर किसी परिवार का आरक्षण के कारण जीवन स्तर उपर उठ गया हो तो उसे निश्चय ही सामान्य श्रेणी में आ जाना चाहिए और उन जातियों के शेष लोगों को इसका लाभ मिलना चाहिए। क्या शीर्ष अदालत अनुसूचित जाति-जनजाति के मामले में ऐसा कर सकता है? ऐसे कई प्रश्न हैं, जिनका समाधान होना चाहिए।


Date:07-06-18

No longer seeing eye to eye?

With India recalibrating its relations with other powers, the India-U.S. equation is not quite balancing out

Suhasini Haidar

At his speech at the Shangri-La Dialogue in Singapore last week, billed as a major foreign policy statement, Prime Minister Narendra Modi spoke of India and the U.S.’s “shared vision” of an open and secure Indo-Pacific region. Yet his words differed so much from those of U.S. Defence Secretary James Mattis, who spoke at the same event, that it seemed clear that New Delhi and Washington no longer see eye-to-eye on this issue, and several others as well.

 

Oceanic gulf

To begin with, Mr. Modi referred to the Indo-Pacific, a term coined by the U.S. for the Indian and Pacific Oceans region, as a natural geographical region, not a strategic one, while Mr. Mattis called the Indo-Pacific a “priority theatre” and a “subset of [America’s] broader security strategy” for his military command, now renamed the Indo-Pacific Command. While Mr. Modi referred to India’s good relations with the U.S., Russia and China in equal measure, Mr. Mattis vowed to counter China’s moves in the Indo-Pacific, and referred to the U.S. National Defence Strategy released this January, which puts both China and Russia in its crosshairs as the world’s two “revisionist powers”.

The divergence in their positions, admittedly, are due more to a shift in New Delhi’s position over the past year than in the U.S.’s, when Mr. Modi and President Donald Trump met at the White House. A year ago, the Modi government seemed clear in its intention to counter China’s growing clout in its neighbourhood, especially post-Doklam, challenge the Belt and Road Initiative (BRI), and back a Quadrilateral grouping of India, the U.S., Japan and Australia to maintain an open Indo-Pacific. Today, the Doklam issue has been buried, the BRI isn’t as much a concern as before, and the government’s non-confrontational attitude to the Maldives and Nepal indicates a softened policy on China in the neighbourhood. Meanwhile, Mr. Modi now essays a closer engagement with Chinese President Xi Jinping and a relationship reset with China after the Wuhan meeting.

The Quad formation, which is holding its second official meeting today in Singapore, has also been given short shrift. India rejected an Australian request to join maritime exercises along with the U.S. and Japan this June, and Navy Chief Admiral Sunil Lanba said quite plainly last month that there was no plan to “militarise” the Quad. Contrast this with India’s acceptance of military exercises with countries of the Shanghai Cooperation Organisation (SCO), the Russia-China led grouping it will join this week in Qingdao, and one can understand some of the confusion in Washington. Pentagon officials, who had come to accept India’s diffidence on signing outstanding India-U.S. foundational agreements, are now left scratching their heads as India publicly enters the international arena in the corner with Russia and China, while proclaiming its intention to continue energy deals with Iran and Venezuela in defiance of American sanctions.

Era of summits

In a world where summits between leaders have replaced grand strategy, the optics are even clearer. Mr. Modi will have met Mr. Xi and Russian President Vladimir Putin four-five times each by the end of the year, if one counts informal and formal summits, as well as meetings at the SCO, BRICS and G-20. In contrast, nearly half the year has gone in just scheduling the upcoming 2+2 meet of Indian and U.S. Ministers of Defence and Foreign Affairs.

Trade protectionism is clearly the other big point of divergence between India and the U.S., which have in recent months taken each other to the World Trade Organisation on several issues. There has been a surge in disputes between the two countries: on the new American steel and aluminium tariffs, the proposed cuts in H1B professional visas and cancellation of H4 spouse visas, on India’s tariffs and resistance to U.S. exports of dairy and pork products, on Indian price reductions on medical devices, and Reserve Bank of India rules on data localisation on Indian servers for U.S. companies.

The row over Harley-Davidson motorcycles is a case in point, where what should have been a small chink in the relationship has ended up denting the discourse quite seriously. When Mr. Trump announced to Harley executives and union representatives in February last year that he would stop countries “taking advantage” of them, no one in New Delhi paid much attention. Over the year, Mr. Trump grew more vocal in this demand, including twice during meetings with Mr. Modi in Washington and Manila, calling for India to scrap its 75-100% tariffs, given that the U.S. imposes zero tariffs on the import of Indian Royal Enfield motorcycles. Mr. Modi tried to accommodate U.S. concerns, and even called Mr. Trump on February 8 this year to tell him that tariffs were about to be cut to 50%. But after Mr. Trump divulged the contents of their conversation publicly, trade talks were driven into a rut. Officials in Washington still say that if India were to slash its rates, it would see major benefits in other areas of commerce, while officials in New Delhi say that with Mr. Trump having gone public with Mr. Modi’s offer, it would be impossible to back down any further. In fact, a new cess has taken tariffs back up to 70%.

The biggest challenges to a common India-U.S. vision are now emerging from the new U.S. law called Countering America’s Adversaries Through Sanctions Act and the U.S.’s withdrawal from the Iran nuclear deal with the threat of more secondary sanctions. Both actions have a direct impact on India, given its high dependence on defence hardware from Russia and its considerable energy interests in Iran. In particular, India’s plans to acquire the Russian S-400 missile system will become the litmus test of whether India and the U.S. can resolve their differences. Clearly the differences over a big ticket deal like this should have been sorted out long before the decisions were made; yet there is no indication that the Trump administration and the Modi government took each other into confidence before doing so.

In the face of sanctions

Defence Minister Nirmala Sitharaman’s avowal of the S-400 agreement, and Foreign Minister Sushma Swaraj’s open defiance of U.S. sanctions on Russia, Iran and Venezuela at separate press conferences this month couldn’t have helped. It also didn’t help that owing to Mr. Trump’s sudden decision to sack Rex Tillerson as Secretary of State in March, the 2+2 meeting in April, which may have clarified matters, was put off. The truth is, building a relationship with the Trump administration in the past year has been tricky for both South Block and the Indian Embassy in Washington, as more than 30 key administration officials have quit or have been sacked — they have had to deal with three National Security Advisers, two Chiefs of Staff, as well as two Secretaries of State as interlocutors.

It is equally clear that the India-U.S. equation isn’t balancing out quite the way it did last year, when Mr. Modi and Mr. Trump first announced the idea of the “2+2” dialogue. Ms. Swaraj, Ms. Sitharaman and their American counterparts have their work cut out for them during their upcoming meeting in Washington on July 6. If a week is a long time in politics, in geopolitics today a year is an eternity.


Date:07-06-18

Don’t spoil a good idea with monopoly

ET Editorials

The RBI’s High-Level Task Force on creating a Public Credit Registry (PCR) for India has recommended an in-house repository having extensive information on all borrowers. The intent, to curb bad loans and make the credit market more efficient, is laudable. A comprehensive database will help lenders get a true picture of a borrowers’ credit history and enable them to assess risks better. To have data—such as external commercial borrowings, market borrowings and all contingent liabilities—makes sense for a holistic picture. However, why make the PCR the “single point of mandatory reporting for all material events for each loan, serving as a registry of all credit contracts verified by reporting institutions” for all lending in India? Indeed, all information should come to it, but not just to it. Competition is a good idea.

Today, multiple repositories, including Credit Information Companies (CIC), collect and store granular credit information. The panel says that credit institutions will not be obliged to provide information to CICs. That is not a good idea. The notion that a single window for reporting credit information will lower the compliance burden is flawed in a technology-driven era. PCR should co-exist with other repositories that include information utilities that authenticate and store sensitive information on debt and default to speed up the resolution process. More competition will drive innovation and improve the quality of data on borrowers.

Borrowers must be allowed to access their own credit history. Multiple identifiers are unnecessary. Aadhaar is a unique ID for individuals. Other legal entities must be mandated to have unique identifiers, to trace real beneficial ownership. Data privacy and security must receive due attention.