08-04-2024 (Important News Clippings)
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Date:08-04-24
Gone too soon — the subject of youth suicide in India
Dr.Lakshmi Vijayakumar, [ Founder of SNEHA, an NGO in Chennai for the prevention of suicide. She is the Head, Department of Psychiatry, Voluntary Health Services, Adyar, Chennai. She is a member of the W.H. ]
Suicide is the tragic and untimely loss of human life, all the more devastating and perplexing because it is a conscious volitional act.
India has the dubious distinction of having the highest number of suicides in the world. The National Crime Records Bureau (NCRB) reports that 1.71 lakh people died by suicide in 2022. The suicide rate has increased to 12.4 per 1,00,000 — the highest rate ever recorded in India. But these figures are underestimated due to an inadequate registration system, the lack of medical certification of death, stigma and other factors. Unfortunately, 41% of all suicides are by young people below the age of 30. Suicide is the leading cause of mortality for young women in India. A young Indian dies by suicide every eight minutes, which is a loss to family, society, the economy and future of the country. Suicide in the young is a major public health problem in India.
There is no single factor
Suicide is a complex human behaviour and it is futile to locate a single causative factor. Suicide in young people is best understood as multidetermined and the result of interaction between biological, psychological, familial, and social cultural factors.
A current review of adolescent suicides in India shows that the most commonly reported risk factors were mental health problems (54%), negative or traumatic family issues (36%), academic stress (23%), social and lifestyle factors (20%), violence (22%), economic distress (9.1%) and relationship factors (9%). Physical and sexual abuse, examination failure, intergenerational conflicts, parental pressures and caste discrimination are associated with youth suicide.
There are specific sociocultural factors for suicide among young girls and women. Arranged and early marriages, young motherhood, low social status, domestic violence and economic dependence are well documented. Rigid gender roles and discrimination have also been implicated. Failure in examinations drove 2,095 people to suicide in 2022. A system of education with an emphasis on scoring marks, and a one-point examination system, along with parental pressure and high expectation from oneself and the educational institutions contribute to suicides. Enormous competition to get into colleges, media hype around results, the shame associated with failure, and months of pent-up pressures and emotions result in a highly emotionally wrought state. Competitive examinations have also pushed many students to the edge. Tragically, even after obtaining a seat in prestigious professional colleges, academic pressure has led to many suicides.
Alcohol and substance use are known risk factors in youth suicides. The last two decades have witnessed a marked increase in Internet use among the young. A meta-analysis from 19 States of India revealed that almost 20% of college students are net addicts. One-third of young people are cyber-bullied. And of this sub-set, one third are suicidal. Teens who used social media for more than two hours a day are more suicidal.
The media has a strong influence on vulnerable young people. Sensational reporting of suicide, particularly by a celebrity, is followed by increased suicidal behaviour. Following the death of a very popular young male actor in India, there was a significant increase in searches on Google on “how to commit suicide”.
There are solutions
The view that suicides cannot be prevented is a commonly held one as people believe that it is an individual’s choice. Or it is because of socio-economic factors which are beyond their control. For an overwhelming majority of young people who engage in suicidal behaviour, there is often an alternate, appropriate resolution of their problems. Young people can be taught problem solving, impulse control and emotional regulation skills along with improving help-seeking behaviour. Early identification of mental distress and provision of care in a youth-friendly environment are essential. Adopting a healthy lifestyle (a good diet, regular physical activity, moderate and appropriate use of the Internet, cultivating supportive friendships, yoga and meditation) improves mental health and reduces suicide in the young.
Improving the family environment by reducing domestic violence and alcohol consumption, and providing economic assistance to the needy have been shown to reduce suicidal behaviour. Educational reforms such as alternative assessment methods and provisions to explore the potential of a young person are needed. Societal changes to reduce stigma and discrimination based on caste, religion and sexuality need to be addressed. Political will, intersectoral collaboration and commitment, and community participation are needed.
A strategy that needs more visibility
The Ministry of Health constituted a task force in November 2019 to develop a National Suicide Prevention Strategy for India. The final strategy was launched on November 21, 2022 with the objective of reducing suicide by 10% by 2030.
The strategy has recognised that collaboration between the Ministries of Health, Education, Information and Broadcasting, and Social Welfare is essential. The strategy focuses on the need to leverage educational institutions and youth organisations to promote mental health and reduce substance and behavioural addictions through school health ambassadors and youth clubs.
The immediate task is to disseminate the strategy to all States in India and stakeholders. Budgetary allocations are necessary and the strategies need to be implemented at the earliest at the State, district and community levels.
Date:08-04-24
विचारधाराओं का भविष्य
हृदयनारायण दीक्षित, ( लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं )
गतिशील समाज चिंतनशील होते हैं। सोचने से विचार का जन्म होता है और व्यवस्थित चिंतन से विचारधारा का। विचारधारा के प्रभाव की काल अवधि होती है। पूर्व सांसद संजय निरुपम ने कहा है, ‘एक निश्चित उम्र के बाद कोई विचारधारा मर जाती है।’ उन्होंने कम्युनिस्ट विचारधारा का उल्लेख किया कि 1917 में रूस में कम्युनिज्म आया और दुनिया भर में फैला। 1991-92 तक कम्युनिज्म करीब-करीब खत्म हो गया। अब क्यूबा, उत्तर कोरिया और चीन के अलावा दुनिया के किसी भी देश में कम्युनिस्ट विचारधारा का खास प्रभाव नहीं। विचारधाराओं का जन्म और उनकी उम्र भारतीय संदर्भ में विचारणीय है।
भारत में वैदिक काल के दौरान भी अनेक विचार थे। एक विचार था कि संसार को किसी दैवी शक्ति या परमात्मा ने बनाया है। दूसरा विचार था कि सृष्टि का उद्भव और विकास प्राकृतिक विकास के सिद्धांत के अनुसार हुआ है। यहां अनेक विचारधाराएं फलती-फूलती रही हैं। बुद्ध, जैन सहित प्राचीन काल में आठ विचारधाराएं थीं। इनमें ईश्वरवादी और अनीश्वरवादी दोनों विचारधारा थीं। असहमति को आदर प्राप्त था। तर्क और प्रश्न की परंपरा थी। विचारधाराओं में टकराव नहीं समन्वय था। स्वाधीनता संग्राम के समय गांधीजी के नेतृत्व में एक विशेष राष्ट्रवादी विचारधारा पनपी। गांधीजी राष्ट्रवादी थे। उनके राष्ट्रवाद का केंद्रीय तत्व हिंदुत्व था। हिंदुत्व अपने मूल चरित्र में ही सभी मतों और विचारधाराओं के प्रति आदरभाव से युक्त है। यहां अपने ढंग की पंथनिरपेक्षता थी। गांधीजी की पंथनिरपेक्षता सर्वपंथ समभाव थी। निरुपम ने कहा है, ‘नेहरूवादी सेक्युलरिज्म भारतीय संस्कृति और धर्म का विरोधी था।’ नेहरू का सेक्युलरिज्म गांधीजी से दूर और कम्युनिस्टों के निकट था। गांधीजी की पंथनिरपेक्षता धर्म और संस्कृति से परिपूर्ण है। निरुपम ने ठीक कहा है कि नेहरूवादी सेक्युलरिज्म की विचारधारा अब समाप्त हो चुकी है। कांग्रेस अप्रासंगिक हो चुकी है।
सेक्युलरिज्म भारतीय विचार नहीं है। यह चर्च और यूरोपीय राजाओं के संघर्ष में समझौते का परिणाम था। सेक्युलरिज्म का अनुवाद संसारवादी, इहलौकिकवादी है, मगर भारतीय राजनीति के एक बड़े हिस्से में इसका अर्थ संप्रदाय विशेष का तुष्टीकरण है। सनातन धर्म का विरोध है। जबकि धर्म भारत का नियामक तत्व है। नेहरूवादी पंथनिरपेक्षता में धर्म से दूरी का आग्रह है। बड़े-बड़े लोग भी धार्मिक आयोजनों से दूर रहते थे। संप्रति भारत का वातायन धर्म आपूरित हो गया है। छद्म सेक्युलरवाद की विचारधारा का अंत हो चुका है। कथित सेक्युलर, लिबरल और वामपंथी तत्व अब शोध का विषय बन गए हैं। कम्युनिस्ट विचार 1925 में भारत आया था। अल्प अवधि में ही यह विचारधारा समाप्त हो गई। अब केरल को छोड़ किसी राज्य में वामपंथी सरकार नहीं है। इस विचारधारा का अंत हो चुका है।
राजनीतिक चिंतक एंव विचारक फ्रांसिस फुकुयामा ने अपनी पुस्तक ‘द एंड आफ हिस्ट्री एंड द लास्ट मैन’ में ‘इतिहास के अंत’ का अर्थ समझाया है कि उदारवादी लोकतंत्र ही सभी देशों के लिए अंतिम प्रारूप है। उनके अनुसार फ्रांसीसी क्रांति के बाद उदारवादी लोकतंत्र ने अन्य प्रारूपों की तुलना में स्वयं को श्रेष्ठ व्यवस्था सिद्ध किया है। शीतयुद्ध की समाप्ति तक विश्व के अनेक बुद्धिजीवियों का अनुमान था कि ‘इतिहास का अंत’ होगा। कथित प्रगतिशील विद्वानों का आकलन था कि इतिहास का अंतिम बिंदु किसी न किसी रूप में कम्युनिस्ट होगा। फुकुयामा के निष्कर्ष भिन्न थे। उनका तर्क था कि दुनिया में जैसी घटनाएं घटित हो रही हैं, उन्हें देखते हुए इतिहास का अंतिम बिंदु साम्यवाद नहीं होगा। यह उदार लोकतंत्र या बाजार अर्थव्यवस्था जैसा कोई नया रूप होगा। संप्रति विश्व के दो बड़े देश भारत और चीन का तेजी से आधुनिकीकरण हो रहा है। चीन में आधुनिकीकरण का सत्तावादी माडल है। प्रश्न है कि क्या चीन मनचाही आर्थिक संपन्नता प्राप्त करने के बाद अंततः उदार लोकतंत्र के रूप में स्वयं को परिवर्तित कर लेगा? या मर चुकी कम्युनिस्ट विचारधारा से ही चिपका रहेगा?
फुकुयामा का शोध ‘इतिहास का अंत’ वस्तुतः उदारवादी लोकतांत्रिक माडल का बने रहना है। उन्होंने आधुनिकीकरण के समक्ष चार चुनौतियां भी बताई थीं। पहली चुनौती इस्लाम है। यह आधुनिकीकरण का अपवाद है। इंडोनेशिया और तुर्की में लोकतांत्रिक संस्थाएं हैं। अरब जगत में लोकतंत्र नहीं है। आधुनिकता विरोधी यह विचारधारा जिहादी आतंकवाद का स्रोत है। दूसरी, वैश्विक स्तर पर हमारी संस्थाएं इन समस्याओं से निपटने में सक्षम नहीं हैं। बेशक संयुक्त राष्ट्र है, लेकिन अंततः यह एक कमजोर संस्था है। तीसरा मुद्दा शासन और विकास से जुड़ा है। चुनौती प्रौद्योगिकी भी है। तकनीकी प्रगति तमाम समस्याओं को हल करने में सक्षम रही हैं। हालांकि हमेशा इसकी गारंटी नहीं होती। ग्लोबल वार्मिंग के बारे में कई गंभीर भविष्यवाणियों के सच होने के बावजूद तकनीकी समाधान नहीं मिला। सामूहिक विनाश के हथियार और जैव प्रौद्योगिकी की चुनौती भी गंभीर मामले हैं।
विचारक सैमुअल हटिंगटन की ‘क्लैश आफ सिविलाइजेशंस’ के तर्क भिन्न हैं। वह लोकतंत्र और आधुनिकीकरण के स्तर को इतिहास का अंत नहीं मानते। उनके अनुसार संस्कृति तमाम देशों के बीच मतभेद का कारण बनी रहेगी। उन्होंने सभ्यताओं के संघर्ष को अनिवार्य बताया है। भारत में जाति, पंथ जैसे विभेदक तत्व हैं, किंतु एक संस्कृति के प्रभाव में भारत सबसे बड़ा आधुनिक लोकतंत्र है। भारत जैसी सांस्कृतिक निरंतरता कहीं नहीं दिखती। भारतीय संस्कृति और समाज में देश-काल के अनुसार आत्म रूपांतरण की क्षमता है। भारत की राष्ट्रवादी विचारधारा में पुनर्नवा शक्ति है। कालवाह्य अलग होता रहता है। कालसंगत जुड़ता रहता है। सदियों से यहां लोकतांत्रिक संस्थाएं हैं। आधुनिकीकरण का प्रवाह तेज है। विचारधाराएं यहां संस्कृति से प्रेरित और उसी से जीवन रस लेती हैं। यहां सभी विचारों का स्वागत है। इसीलिए अनेक पंथ, मत, मजहब और रिलीजन साथ-साथ रहते हैं। विश्व के किसी भी देश में तमाम आस्थाओं वाली विचार भिन्नता के बावजूद शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का भारत जैसा उदाहरण नहीं मिलता।
Date:08-04-24
रोजगार के संकट से निपटने का वादा
अमिताभ दुबे,( लेखक कांग्रेस की घोषणा पत्र समिति के सदस्य हैं )
सत्ता में रहते हुए भाजपा की एक दशक की विफलताएं किसी से छिपी नहीं हैं। आज देश में असमानता चरम पर है, बेरोजगारी आसमान छू रही है, ग्रामीण भारत गंभीर संकट से जूझ रहा है और लोकतांत्रिक संस्थाओं को खोखला कर दिया गया है। अब लोगों को सपना दिखाया जा रहा है कि वे चमत्कारिक ढंग से होने जा रही प्रगति के लिए 2047 में अमृतकाल की प्रतीक्षा करें, लेकिन देश के मौजूदा हालात के बीच किसी को सही मायने में लोगों का प्रतिनिधित्व करना होगा और शासन की बागडोर संभालनी होगी। कांग्रेस के पास इसका अनुभव है। उसने उन संस्थानों का निर्माण किया है, जिनमें से अधिकांश को आज ध्वस्त किया जा रहा है। कांग्रेस ही आर्थिक उदारीकरण लाई और मनरेगा एवं राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के माध्यम से सामाजिक सुरक्षा का आवरण बनाया, जो कोविड और उसके बाद के संकट से भारत को बचाने में सक्षम हुआ। पिछले दिनों राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा में बड़ी संख्या में बेरोजगार शामिल हुए। राहुल गांधी ने उन्हें ध्यान से सुना और समझा। आज देश में बड़ी संख्या में युवाओं के लिए नौकरियां मुख्य आर्थिक चुनौती हैं। कारपोरेट टैक्स में छूट और छोटे व्यवसायों के खिलाफ भेदभावपूर्ण नीतियों सहित बड़े पूंजीपति घरानों पर मोदी सरकार के अत्यधिक ध्यान के कारण नौकरियों के कम अवसर उत्पन्न हो रहे हैं। आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) के डाटा का इस्तेमाल करते हुए अर्थशास्त्री संतोष मेहरोत्रा ने अनुमान लगाया है कि देश में बेरोजगारों की संख्या 2012 में एक करोड़ से बढ़कर 2022 में चार करोड़ हो गई। अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की स्टेट आफ वर्किंग इंडिया-2023 रिपोर्ट में पाया गया है कि 25 साल से कम उम्र के 42 प्रतिशत स्नातक बेरोजगार हैं। हम ऐसे ‘न्यू इंडिया’ में रहते हैं, जहां इंजीनियर कुली और पीएचडी होल्डर रेलवे में चपरासी के रूप में काम करने को मजबूर हैं।
कांग्रेस के घोषणा पत्र में इस संकट से दो तरह से निपटने की योजना है। इसका तात्कालिक समाधान सरकारी नौकरियों का विस्तार है। भर्ती भरोसा प्लान के तहत इसमें केंद्र सरकार के विभिन्न विभागों, केंद्रीय शैक्षणिक संस्थानों, अस्पतालों, स्वास्थ्य सेवा केंद्रों और अर्धसैनिक बलों में 30 लाख पदों पर भर्ती का वादा है। अभी देश में कर्मचारियों की अत्यधिक कमी है। अर्थशास्त्री कार्तिक मुरलीधरन के अनुसार भारत में प्रति 1,000 लोगों पर केवल 16 सरकारी कर्मचारी हैं, जबकि अमेरिका में 77, चीन में 57 और नार्वे में 159 हैं।
हालांकि सरकार ही सब कुछ नहीं कर सकती है। निजी क्षेत्र में मिलने वाले रोजगार के अवसर इस समस्या का मुख्य समाधान हैं। शुरुआत के लिए ‘पहली नौकरी योजना’ 25 वर्ष से कम उम्र के स्नातक और डिप्लोमाधारकों को एक लाख रुपये सालाना वेतन के साथ एक साल की अप्रेंटिसशिप का अधिकार प्रदान करेगी। अप्रेंटिसशिप से अलग कांग्रेस एक रोजगार लिंक्ड प्रोत्साहन (ईएलआइ) योजना शुरू करेगी, जो कंपनियों को सुरक्षित और अच्छी गुणवत्ता की नौकरियों के अवसर बनाने के लिए टैक्स में छूट देगी। मौजूदा उत्पादन लिंक्ड प्रोत्साहन (पीएलआइ) योजना ने ज्यादातर इलेक्ट्रानिक्स, आटोमोबाइल और फार्मास्यूटिकल्स जैसे पूंजी-प्रोत्साहन क्षेत्रों को सब्सिडी दी है, जहां अतिरिक्त नौकरियों के अवसर अपेक्षाकृत कम पैदा होते हैं। कई युवा अपना खुद का व्यवसाय भी स्थापित करना चाहते हैं, लेकिन उनके पास फंड नहीं है। 40 साल से कम उम्र के युवाओं के लिए कांग्रेस 5,000 करोड़ रुपये का एक युवा रोशनी फंड स्थापित करेगी। इसे भारत के हर जिले में व्यवसायों को धन उपलब्ध करने के अनिवार्य किया जाएगा। कांग्रेस ने यह जानने के लिए सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना का वादा किया है कि हमारे समाज में संसाधनों का वितरण कैसा है।
शारीरिक सुरक्षा का डर अभी भी कई महिलाओं को नागरिक और श्रमिक के रूप में पूरी तरह से भागीदारी से रोकता है। इसका एक समाधान सरकारी निर्णयों में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ाना है, ताकि महिलाओं के हितों और दृष्टिकोण को बेहतर ढंग से उभारा जा सके। स्थानीय सरकार में महिलाओं के आरक्षण का पंचायत की प्राथमिकताओं पर खासा प्रभाव पड़ा है। कांग्रेस संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित करने के सरकार के अस्पष्ट वादे को तुरंत लागू करेगी। पार्टी इसे आगे बढ़ाते हुए 2025 से केंद्र सरकार की सभी नई नौकरियों में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण देगी। असुरक्षा की भावना महिलाओं की श्रम शक्ति भागीदारी को भी बाधित करती है। महिलाएं केवल वहीं जाएंगी जहां अच्छी गुणवत्ता और नियमित वेतन वाली नौकरियां हैं। उन्हें अच्छी सुविधाएं मिलें, इसके लिए कांग्रेस कामकाजी महिलाओं के हास्टल की संख्या दोगुनी करेगी। अपराधों की रिपोर्ट करते समय कई महिलाओं को मुश्किलों और असंवेदनशीलता का सामना करना पड़ता है। इसका मुकाबला करने के लिए कांग्रेस महिलाओं को जानकारी और कानूनी सहायता प्रदान करने के लिए प्रत्येक पंचायत में एक अधिकार मैत्री नियुक्त करेगी।
पिछले दशक में हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं पर सुनियोजित ढंग से हमला किया गया है। कांग्रेस के घोषणा पत्र में सबको भय से मुक्ति का वादा किया गया है। यह व्यवसाय, नागरिक, संस्थान सभी पर लागू होता है। इसके लिए मानहानि को अपराध की श्रेणी से बाहर किया जाएगा, निजता का अधिकार दिया जाएगा, व्यक्तिगत विकल्पों में स्वतंत्रता, वीवीपैट की अनिवार्यता, पुलिस एवं जांच एजेंसियां कानून के अनुसार काम करें, यह सुनिश्चित होगा। कुल मिलाकर कांग्रेस आम चुनावों में जीतती है तो डर के बजाय आशा पर ध्यान केंद्रित करेगी और भारतीयों को प्रजा के बजाय नागरिक होने का गौरव फिर से बहाल करेगी।
Date:08-04-24
हिमालय पर बढ़ते तापमान के खतरे
प्रमोद भार्गव, (लेखक कांग्रेस की घोषणा पत्र समिति के सदस्य हैं)
संपूर्ण हिमालय के पहाड़ और भूभाग इक्कीसवीं शताब्दी के सबसे बड़े बदलाव के खतरनाक दौर से गुजर रहे हैं। इसकी स्थायी हिम-रेखा सौ मीटर पीछे खिसक चुकी है। यहां जाड़ों में तापमान एक डिग्री बढ़ने से हिमखंड तीन किमी तक सिकुड़ चुके हैं। नतीजतन बर्फबारी का ऋतुचक्र डेढ़ महीने आगे खिसक गया है। हिमालय क्षेत्र में जो बर्फबारी दिसंबर-जनवरी माह में होती थी, इस वर्ष वह फरवरी मध्य से शुरू होकर मार्च तक चली। उत्तराखंड के वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिकों ने 1901 से लेकर 2018 तक के जलवायु अनुसंधान इकाई के आंकड़ों का विश्लेषण करके निष्कर्ष निकाला है कि तापमान ऐसे ही बढ़ता रहा तो आठ से दस साल के भीतर हिमालय पर बर्फबारी का मौसम पूरी तरह परिवर्तित हो जाएगा या बर्फबारी की मात्रा घट जाएगी।
बीते एक दशक में सर्दी में तापमान तो बढ़ा है, जबकि गर्मी का स्थिर है। इसलिए हिमालय में गर्मी ज्यादा समय बनी रहती है। ये बदलते हालात हिमालय के जीव-जंतुओं और वनस्पतियों के लिए खतरे की घंटी हैं। स्थायी बर्फीली रेखा हिमालय पर चार से पांच हजार मीटर ऊपर होती है। यह स्थायी बर्फ के कारण बनती है। इसके तीन हजार मीटर नीचे तक वनस्पतियां नहीं होती हैं। इस रेखा के पीछे खिसकने से जहां पहले कम तापमान में हिमपात होता था, वहां अब बारिश होने लगी है। परिणामस्वरूप हिमालय के कई किमी क्षेत्र से बर्फ विलुप्त होने लगी है। इस सिलसिले में वाडिया संस्थान के वैज्ञानिकों का कहना है कि मौसम चक्र बदलने का सबसे ज्यादा असर देश के पूर्वोत्तर भाग में हुआ है। सुदूर संवेदन उपग्रह के आंकड़े बताते हैं कि अरुणाचल प्रदेश में 1971 से 2021 के मध्य ज्यादातर हिमखंड नौ मीटर प्रतिवर्ष की औसत गति से 210 मीटर पीछे खिसक गए हैं। जबकि लद्दाख में यह रफ्तार चार मीटर प्रतिवर्ष रही है। कश्मीर के हिमखंडों के पिघलने की गति भी लगभग यही रही है।
जहां आज गंगोत्री मंदिर है, वहां कभी हिमखंड हुआ करता था। परंतु जैसे-जैसे तापमान बढ़ा और ऋतुचक्र बदला वैसे-वैसे हिमखंड सिकुड़ता चला गया। 1817 से लेकर अब तक यह अठारह किमी से ज्यादा पीछे खिसक चुका है। 1971 के बाद से हिमखंडों के पीछे हटने की रफ्तार बाईस मीटर प्रतिवर्ष रही है। कुछ साल पहले गोमुख के विशाल हिमखंड का एक हिस्सा टूट कर भागीरथी, यानी गंगा नदी के उद्गम स्थल पर गिरा था। हिमालय के हिमखंडों का इस तरह से टूटना प्रकृति का अशुभ संकेत माना गया है। इन टुकड़ों को गोमुख से अठारह किलोमीटर दूर गंगोत्री के भागीरथी के तेज प्रवाह में बहते देखा गया था। गंगोत्री राष्ट्रीय उद्यान के वनाधिकारी ने इस हिमखंड के टुकड़ों के चित्रों से इसके टूटने की पुष्टि की थी।तब भी ग्लेशियर वैज्ञानिक इस घटना की पृष्ठभूमि में कम बर्फबारी होना बता रहे थे। इस कम बर्फबारी की वजह धरती का बढ़ता तापमान बताया जा रहा है। अगर कालांतर में धरती पर गर्मी इसी तरह बढ़ती रही और हिमखंड क्षरण होने के साथ टूटते भी रहे तो इनका असर समुद्र का जलस्तर बढ़ने और नदियों के अस्तित्व पर पड़ना तय है। हिमखंडों के टूटने का सिलसिला बना रहा तो समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा, जिससे कई लघु द्वीप और समुद्रतटीय शहर डूबने लग जाएंगे।
अब तक हिमखंडों के पिघलने की जानकारियां तो आती रही हैं, किंतु किसी हिमखंड के टूटने की घटना अपवादस्वरूप ही सामने आती है। हालांकि कुछ समय पहले ही आस्ट्रेलियाई वैज्ञानिकों की ताजा अध्ययन रपट से पता चला था कि ग्लोबल वार्मिंग से बढ़े समुद्र के जलस्तर ने प्रशांत महासागर के पांच द्वीपों को जलमग्न कर दिया है। गनीमत है कि इन द्वीपों पर मानव बस्तियां नहीं थीं, इसलिए दुनिया को विस्थापन और शरणार्थी समस्या का सामना नहीं करना पड़ा। दुनिया के नक्शे से गायब हुए ये द्वीप थे, केल, रेपिता, कालातिना, झोलिम और रेहना। पिछले दो दशकों से इस क्षेत्र में समुद्र के जलस्तर में सालाना दस मिली की दर से बढ़ोतरी हो रही है।
गोमुख द्वारा गंगा के अवतरण का जलस्रोत बने हिमालय पर हिमखंडों का टूटना भारतीय वैज्ञानिक फिलहाल साधारण घटना मानते हैं। उनका कहना है कि कम बर्फबारी होने और ज्यादा गर्मी पड़ने की वजह से हिमखंडों में दरारें पड़ गई थीं, इनमें बरसाती पानी भर जाने से हिमखंड टूटने लगे। अभी गोमुख हिमखंड का बार्इं तरफ का एक हिस्सा टूटा है। उत्तराखंड के जंगलों में हर साल लगने वाली आग की आंच ने भी हिमखंडों को कमजोर किया है। आंच और धुएं से बर्फीली शिलाओं के ऊपर जमी कच्ची बर्फ तेजी से पिघलती गई। इस कारण दरारें भर नहीं पाईं। अब वैज्ञानिक यह आशंका भी जता रहे हैं कि धुएं से बना कार्बन अगर शिलाओं पर जमा रहा, तो भविष्य में नई बर्फ जमनी मुश्किल होगी।
हिमखंडों का टूटना नई बात है, लेकिन इनका पिघलना नई बात नहीं है। शताब्दियों से प्राकृतिक रूप में हिमखंड पिघलकर नदियों की अविरल जलधारा बनते रहे हैं। मगर भूमंडलीकरण के बाद प्राकृतिक संपदा के दोहन पर आधारित औद्योगिक विकास से उत्सर्जित कार्बन ने इनके पिघलने की तीव्रता बढ़ा दी है। एक शताब्दी पूर्व भी हिमखंड पिघलते थे, लेकिन बर्फ गिरने के बाद इनका दायरा निरंतर बढ़ता रहता था। इसीलिए गंगा और यमुना जैसी नदियों का प्रवाह बना रहा। पर 1950 के दशक से इनका दायरा तीन से चार मीटर प्रति वर्ष घटना शुरू हो गया। 1990 के बाद यह गति और तेज हो गई। इसके बाद से गंगोत्री के हिमखंड हर वर्ष पांच से बीस मीटर की गति से पिघल रहे हैं। कमोबेश यही स्थिति उत्तराखंड के पांच अन्य हिमखंडों- सतोपंथ, मिलाम, नीति, नंदादेवी और चोराबाड़ी की है।
भारतीय हिमालय में कुल 9,975 हिमखंड हैं। इनमें नौ सौ उत्तराखंड में आते हैं। इन हिमखंडों से ही ज्यादातर नदियां निकली हैं, जो देश की चालीस फीसद आबादी को पेयजल, सिंचाई और आजीविका के अनेक संसाधन उपलब्ध कराती हैं। पर हिमखंडों के पिघलने और टूटने का यही सिलसिला बना रहा तो देश के पास ऐसा कोई उपाय नहीं है कि वह इन नदियों से जीवन-यापन कर रही पचास करोड़ आबादी को रोजगार और आजीविका के वैकल्पिक संसाधन दे सके। बढ़ते तापमान को रोकना आसान नहीं है, मगर औद्योगिक गतिविधियों को विराम देकर एक हद तक रोक सकते हैं। पर्यटन के चलते मानवीय गतिविधियां हिमालयी क्षेत्रों में बढ़ रही हैं, उन पर भी अंकुश लगाने की जरूरत है। इसके अलावा हमारी ज्ञान परंपरा में हिमखंडों की सुरक्षा के जो उपाय उपलब्ध हैं, उन्हें महत्त्व देना होगा।
Date:08-04-24
शहरों में प्रदुषण से युद्ध स्तर पर लड़ने की जरूरत
इंद्रा राजारामन
हाल ही में जारी विश्व वायु गुणवत्ता रिपोर्ट 2023 की किसे चिंता है? भारत में वायु प्रदूषण को महत्वपूर्ण राष्ट्रीय चुनावी मुद्दा होना चाहिए था, पर दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है। दुनिया में हर जगह की तरह भारत में भी हवा की गुणवत्ता स्थानीय विषय होती है, इसलिए इसे राज्य या स्थानीय सरकारों के हाथों में सौंप दिया जाता है। जिम्मेदारी स्पष्ट है, फिर भी दुनिया के 50 सबसे प्रदूषित शहरों में 42 भारतीय शहरों (10 राज्यों में शामिल) का होना स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि वायु गुणवत्ता की उपेक्षा की समस्या एक व्यापक राष्ट्रीय मुद्दा है।
अगर प्रदूषण का मुद्दा राष्ट्रीय चुनावों में या किसी भी स्तर के चुनावों में सामने नहीं आता है, तो क्या इसकी वजह यह है कि मतदाताओं को इसकी परवाह नहीं है? क्या ऐसा इसलिए है, क्योंकि शहरी वायु प्रदूषण को विकास और नौकरियों के साथ अनिवार्य माना जाता है? बिना सर्वेक्षण के यह कहना नामुमकिन है, लेकिन जिन वजहों से ग्रामीण प्रवासी शहरों में अस्थायी प्रवासी बनना पसंद करते हैं और अपने परिवारों के साथ शहर नहीं जाते हैं, तो इसकी वजह उनके गांवों की साफ हवा है। बड़ी संख्या में लोग हैं, जिनको अगर गांव में ही रोजगार मिल जाए, तो वे शहर जाना पंसद नहीं करेंगे । भारतीय संविधान में भी वायु गुणवत्ता का विशेष उल्लेख नहीं किया गया है।
नई दिल्ली दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानी है, जिसने बांग्लादेश के ढाका को भी आसानी से पीछे छोड़ दिया है। एक केंद्रशासित प्रदेश के रूप में दिल्ली अपनी स्वयं की विधायिका और विधिवत निर्वाचित सरकार के बावजूद एक पूर्ण राज्य नहीं है। इसे केंद्र सरकार के साथ कदम से कदम मिलाते हुए चलना पड़ता है और भ्रम की स्थिति बन जाती है कि यह किसके शासन की छत्रछाया में है?
वैसे वायु प्रदूषण पर आमतौर पर केंद्र सरकार और दिल्ली राज्य सरकार के बीच उद्देश्य का कोई टकराव नहीं होना चाहिए, लेकिन दिल्ली के आसपास के राज्य अक्तूबर से दिसंबर के महीनों के दौरान खरीफ की फसल के अवशेषों को जलाने पर काबू पाने में नाकाम या अनिच्छुक रहते हैं। अकादमिक शोध पत्रों और रिपोर्टों में पेश किए गए समाधानों की भरमार के बाद भी दिल्ली की समस्या पड़ोसी राज्यों के साथ किसी समझौते तक पहुंचने में नाकाम रहती है। दिल्ली के अंदर वाहनों से होने वाले प्रदूषण को नियंत्रित करने की दिशा में एकमात्र पहल बिजली या बैटरी से चलने वाली बसों की शुरुआत रही है, जो अक्सर शहर की सड़कों पर खाली चलती हैं, क्योंकि उनके मार्गों को तर्कसंगत नहीं बनाया गया है।
15वें वित्त आयोग ने वायु प्रदूषण के प्रयासों के लिए केवल दस लाख से ज्यादा आबादी वाले शहरों को लक्ष्य बनाया है। इन शहरों को मिलियन-प्लस चैलेंज फंड, एमसीएफ मिलता है। हाल ही में समाप्त हुए वित्त वर्ष 2023-24 में एमसीएफ सूची के सभी शहरों के लिए कुल राशि 2,431 करोड़ रुपये थी। ध्यान रहे, यहां भी दिल्ली, चंडीगढ़ और श्रीनगर, केंद्रशासित प्रदेशों के शहरों के रूप में एमसीएफ के तहत नहीं आते हैं।
पटना विश्व वायु गुणवत्ता रिपोर्ट में सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में 20वें स्थान पर है। पटना एमसीएफ सूची में है, पर किसी एमसीएफ शहर को अपना 100 प्रतिशत आवंटन पाने के लिए पार्टिकुलेट मैटर में 15 प्रतिशत की कमी और 200 से कम एक्यूआई वाले दिनों की संख्या में 15 प्रतिशत की वृद्धि दिखानी चाहिए। यदि पटना 2023-24 में इन शर्तों पर उत्तीर्ण होता, तो उसे 113 करोड़ रुपये का तय बजट मिलता, जो उसके अच्छे कामों का इनाम होता।
ध्यान रहे, दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर बेगूसराय एमसीएफ सूची में नहीं है। उसके साथ ही 39 अन्य भारतीय शहर भी आबादी के हिसाब से बहुत छोटे हैं, हालांकि इनमें से कुछ एमसीएफ सूची का हिस्सा हो सकते थे। जाहिर है, एमसीएफ और उसकी शर्तों में सुधार होना चाहिए। गरीब आबादी वायु प्रदूषण से सबसे ज्यादा पीड़ित है। हमें अंतर-राज्यीय और राज्य-स्थानीय भागीदारी के माध्यम से अभियान मुद्रा में आकर वायु प्रदूषण को कम करने की दिशा में आगे बढ़ना होगा। इसकी सख्त जरूरत है, क्योंकि यह नागरिकों की जिंदगी और मौत का मामला है।