08-01-2018 (Important News Clippings)

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08 Jan 2018
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Date:08-01-18

High hopes

Indian universities must address 21st century needs, catch up with the world

TOI Editorials 

As government plans to make India a veritable global growth hub, a critical area where it needs to devote additional resources is education and technical training. In a rapidly changing global economy, factors of production are being increasingly automated, with economic values progressively shifting from manufacturing to innovation. These fast-paced changes have already created significant disruptions in labour markets worldwide. The retrenchment trend witnessed in the IT sector last year exemplifies this. So India’s higher education sector really needs to prepare its youth for jobs of the future.

In this regard, the All India Higher Education Survey recently unveiled by the HRD ministry makes for worrying reading. According to it, India’s Gross Enrolment Ratio (GER) – which is used to determine the total enrolment in undergraduate, post-graduate and research-level studies in the age group of 18-23 years – has marginally gone up to 25.2% in 2016-17 from 24.5% in 2015-16. This is far behind countries like China which has a GER of 43.39%. Quantity aside, the quality of Indian higher education also leaves a lot to be desired. Although the total number of universities went up from 799 in 2015-16 to 864 a year later, these are hamstrung by a surfeit of regulation and a deficit of governance.

While efforts like the Indian Institutes of Management Bill granting functional autonomy to IIMs and a competition to identify 20 Indian universities that have potential to become world class are welcome, what’s needed is a complete re-imagination of higher education. Universities can no longer be seen as instruments of disbursing political patronage.Research and training need to be closely linked to industrial needs with greater collaborations across varsities encouraged. It’s time to unshackle higher education and make institutes global in outlook and relevant in deliverables.

 


Date:08-01-18

सब्सिडी से हल नहीं हो सकता कृषि का संकट

आर. जगन्नाथन – लेखक आर्थिक मामलों के वरिष्ठ पत्रकार, ‘डीएनए’ के एडिटर रह चुके हैं।

हाल के गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन कमजोर हुआ है। अन्य राज्यों में सरकार की नीतियों को लेकर किसानों में विरोध बढ़ा है। इससे उम्मीद है कि एक फरवरी को पेश होने वाला केंद्रीय बजट किसान-हितैषी हो सकता है। लेकिन समस्या यह है कि सरकार चाहे जो उपाय कर ले, किसानों की आय में खासी बढ़ोतरी नहीं हो सकती। वजह यह है कि कोई एक व्यक्ति कभी तीन की बराबरी नहीं कर सकता। जीडीपी में कृषि क्षेत्र की करीब 15% हिस्सेदारी है। लेकिन देश की आबादी का 48% हिस्सा कृषि इससे जुड़ा हुआ है। दूसरे शब्दों में, तीन से ज्यादा लोग जीडीपी की एक यूनिट उत्पादन करने में जुटे हुए हैं। अब यदि तीन की कुल आमदनी सिर्फ एक के बराबर है तो समस्या कैसे हल हो सकती है?हल इस उत्तर में छिपा है कि ये लोग खेती छोड़कर नए हुनर सीखें। इसके लिए दीर्घकालिक रणनीति की जरूरत होगी। हम न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाकर, कर्ज माफी देकर, सस्ते बीमे से इन्हें कुछ ही राहत दे सकते हैं। वर्ष 2010-11 की कृषि जनगणना के मुताबिक देश कुल किसानों में 67% सीमांत किसान हैं जिनके पास एक हेक्टेयर से कम जमीन है। तीन में से दो सीमांत किसान हैं और हर खेत पर जरूरत से तीन गुना लोग जीवनयापन के लिए निर्भर हैं। केंद्र राज्यों को राशि तो मुहैया करा सकता है, लेकिन उनकी अलग-अलग समस्याएं हल नहीं कर सकता। राज्यों की परिस्थितियां एक जैसी नहीं हैं। मसलन, उप्र, बिहार में पानी की उपलब्धता बड़ी समस्या नहीं है। पंजाब और हरियाणा भी अच्छी तरह सिंचित राज्य हैं। लेकिन महाराष्ट्र के सूखा प्रभावित विदर्भ और मराठवाड़ा क्षेत्र और पूर्वी व उत्तर-पूर्वी भारत की समस्याएं अलग-अलग हैं।

पंजाब में कृषि उत्पादकता ज्यादा है। लेकिन एमएसपी बढ़ाने का फायदा किसानों को नहीं मिल रहा। ज्यादा सिंचित क्षेत्रों में खेती से कम आय की समस्या का हल यह हो सकता है कि इस क्षेत्र में ज्यादा कमाई वाली नकदी फसलें लगाई जाएं। बागवानी की जा सकती है या इन्हें फूड प्रोसेसिंग इंडस्ट्री से फॉरवर्ड लिंकेज के तौर पर जोड़ा जा सकता है। उदाहरण के लिए, धान की आम किस्म का मौजूदा एमएसपी 1,550 रुपए क्विंटल या 15.50 रुपए किलो है। लेकिन जब इसे पैक कर शहरी बाजार में बेचा जाता है तो इसकी कीमत 30-40 रुपए किलो हो जाती है। ऐसे में एमएसपी 4-5% बढ़ाने का किसानों को क्या फायदा मिलेगा? यहां अमूल एक बेहतर उदाहरण है जिसका मॉडल किसानों की आमदनी में बढ़ाने में इस्तेमाल किया जा सकता है। अमूल के तहत लाखों दुग्ध उत्पादक जुड़े हुए हैं। कृषि संकट का समाधान खेती-किसानी पर दबाव कम करने में छिपा है। किसानों को सिर्फ अस्थायी इनकम सपोर्ट की जरूरत है ताकि वे स्किल या हुनर सीख पाएं और खेती छोड़कर गैर-कृषि नौकरियां या रोजगार अपना सकें।


Date:07-01-18

कितना बदल गया संसार

मणींद्र नाथ ठाकुर

हम संक्रमण काल में जी रहे हैं? क्या जिन मान्यताओं, दर्शनों और संस्थाओं की शुरुआत आज से लगभग चार सौ साल पहले चिंतन में आए परिवर्तन से हुई थी, उनका अंत समय आ गया है? क्या हम उत्तर-मानवतावाद, उत्तर-पूंजीवाद और उत्तर-आधुनिकता से गुजरते हुए अब युग परिवर्तन की दिशा में बढ़ रहे हैं? इस नए समाज का स्वरूप क्या होगा? उसका नया दर्शन क्या होगा? ऐसे कई सवाल वर्तमान दर्शनिकों को बेचैन कर रहे हैं। समाज में परिवर्तन एक सतत प्रक्रिया है। हर पल संसार, समाज, सब कुछ बदल रहा है। पर इन परिवर्तनों के दौरान कोई ऐसा समय आता है, जब परिवर्तन आमूल होता है और उसके बाद सोचना-समझना, ज्ञान-विज्ञान, दर्शन, संस्थाएं सब कुछ बदल जाती हैं। ऐसे आमूल परिवर्तन के कई कारण हो सकते हैं। अगर मार्क्स की मानें तो ऐसा आमूल परिवर्तन उत्पादन की पद्धति में आए परिवर्तनों के कारण होता है। हैबरमास इसका कारण संचार माध्यमों में आए परिवर्तन को मानता है।

लेकिन हमारा समय इन सामान्य बातों से ऊपर है। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि परिवर्तन का नया दौर चल रहा है और हम एक बार फिर आमूल परिवर्तन की ओर बढ़ रहे हैं। अभी तो दुनिया संचार क्रांति के कारण आए परिवर्तनों को ही ठीक से पुराने सिद्धांतों से समझ नहीं पा रही है। इसी बीच आनुवंशिकी में आई नई क्रांति से नए सवाल खड़े हो गए हैं। विज्ञान के इस क्षेत्र में हम जिस मुकाम पर पहुंच चुके हैं उससे ऐसा लगता है कि मनुष्य की मौलिक अवधारणा में परिवर्तन की जरूरत है। ‘जीन एडिटिंग’ एक ऐसी प्रक्रिया है, जिससे इस विधा के जानकार लोग किसी मनुष्य के जेनेटिक कोड को भी बदल सकते हैं। यानी आने वाले समय में सामान्य मनुष्य की जगह ऐसे लोग भी होंगे, जिनके जीन को सुधार कर उसमें असीम क्षमताएं विकसित की गई हों।फ्रांस के एक उपन्यासकार हैं मीशेल हाऊलेबेक, जिनकी कुछ किताबें हाल में बहुचर्चित रही हैं। इनके उपन्यासों की खासियत है कि इनमें भविष्य के समाज की बात होती है, पर उस कल्पना का आधार यथार्थ रहता है, खासकर वैज्ञानिक खोजों का दूरगामी प्रभाव के इर्दगिर्द उनके पात्र रचे जाते हैं। एक उपन्यास का मुख्य पात्र आनुवंशिकी वैज्ञानिक है। उपन्यास में खासी चर्चा तो फ्रांस के व्यक्तिवादी समाज की है, जिसमें मनुष्य बहुत अकेला हो गया है। उसकी संबंधों की कल्पना ही सिकुड़ गई है। कामुकता की अनुभूति ही उनकी अस्मिता हो गई है। आदमी अपने वजूद का साक्ष्य ही अपनी काम भावनाओं से करता है। वह इतना व्यक्तिवादी हो गया है कि काम की भावना की अनुभूति के लिए पहले समलैंगिकता को अपनाता है और आखिर में किसी और मनुष्य पर निर्भर रहने के बदले अकेले प्रयास करना उचित समझता है। लेखक इसे सामाजिक यथार्थ के रूप में प्रस्तुत करता है, लेकिन इस सबसे काम के प्रति उदासीन हो जाता है। काम और प्रेम को अलग करने का प्रयास करता है, लेकिन कुछ समझ नहीं पाता है।

अंत में अपने शोध में यह खोज निकाला है कि मनुष्य के स्वभाव को जेनेटिक एडिटिंग के जरिए इच्छा अनुसार बनाया जा सकता है। और इससे समाज में एक नई क्रांति आ जाती है। खुद तो लेखक रहस्यमय ढंग से गायब हो जाता है। उसकी गाड़ी समुद्र के किनारे खड़ी मिलती है। और कयास लगाया जाता है कि या तो उसने आत्महत्या कर ली है या फिर वह बौद्ध दर्शन के अध्ययन के लिए तिब्बत की ओर चला गया है। लेखक की इस खोज को लेकर शोध संस्था के लोग उसे बाजार में लाने का प्रयास शुरू कर देते हैं। इस उपन्यास से हमें बदलते समय का अंदाजा लग सकता है। अगर सचमुच यह संभव है, तो देखना केवल यही रहेगा कि इस तकनीकी का उपयोग बाजार किस तरह करता है और जिनोम से क्लोनिंग तक की यात्रा समाज कैसे तय करता है। लेखक बुद्ध की चर्चा कर शायद हमारा ध्यान इस तरफ ले जाना चाहता है कि हमें सामाजिक मूल्यों पर फिर से सोचने की जरूरत है। मनुष्य की जगह संपूर्ण प्रकृति को ध्यान में रखने और काम को अपनी अस्मिता बनाने के खतरों को समझना जरूरी है।

इसी तरह रोबोटिक्स के बढ़ते कदम भी इस बात की तरफ इंगित कर रहा है कि हम एक नई दुनिया की तरफ जा रहे हैं। जहां अन्य मशीनों की तरह आदमी जैसा एक मशीन भी हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा होगा। कारखानों और कार्यालयों में तो बहुत जल्दी आप मनुष्य द्वारा किए जाने वाले कामों को रोबोट करने लगेंगे। यह एक नई दुनिया होगी। पूंजीवाद में आए संकट से निकलने के प्रयास में उद्योग और व्यापार में लाभ की मात्रा बढ़ाने के लिय मनुष्य की जगह रोबोट लगाना लगभग तय-सा हो गया है। यानी हम आने वाले समय में एक नए तरह के मनुष्य से संवाद करेंगे। रोबोट की तरह का ही एक और मशीन हमारे जीन में प्रवेश के लिए झांक रहा है, जिसे ‘थ्री डी प्रिंटर’ कहते हैं। इस मशीन से हम हर कुछ बना सकते हैं। जिस सामान को हम बनाना चाहें उसका नक्शा कंप्यूटर में बना लें, फिर उसे प्रिंट कर लें। मसलन, अगर घर बनाना हो तो आवश्यक सामग्री को प्रिंटर में डाल दें और घर के नक्शे के अनुसार सब प्रिंट हो जाएगा। इस तकनीकी का उपयोग अभी चीन में सर्वाधिक हो रहा है। हजारों घर कुछ ही महीनों में बिना किसी मानव श्रम के बना लिए जा रहे हैं। यहां तक कि मनुष्य के अंगों को भी इस मशीन से बनाया जा सकता है। भौतिकी के प्रसिद्ध विद्वान मीशेल काकु की बात मानें तो संभव है कुछ दिनों में थ्री डी प्रिंटर से बने मनुष्य के अंग बाजार में दुकानों पर मिलने लगेंगे।

हाल के दिनों में विज्ञान और तकनीक ने मनुष्य के मस्तिष्क की ओर सोचना शुरू किया है। मस्तिष्क से संबंधित एक परियोजना के उद्घाटन में राष्ट्रपति ओबामा ने यह घोषणा की कि आने वाले समय की सबसे बड़ी क्रांति इसी क्षेत्र में होने वाली है और अमेरिका को किसी भी तरह इसमें महारत हासिल करना होगा। इसके लिए बड़े पैमाने पर अर्थ मुहैया किए जाने की बात की। इसका स्वरूप क्या होगा, अभी कहना कठिन है। पर इतना तो समझा जा सकता है मनुष्य के मस्तिष्क की क्षमता में व्यापक विस्तार की संभावना है। शायद हमारे मस्तिष्क का जीवन हमारे शरीर पर निर्भर न करने लगे; ब्रेन ट्रांसप्लांट भी होने लगे।

अब आप कल्पना करें कि एक ऐसे समाज में हम रहेंगे, जिसमें मनुष्य भी कृत्रिम होंगे, जीन एडिटिंग से बने या क्लोन द्वारा एक व्यक्ति के कई प्रतिरूप होंगे, जिसमें अपने मन से सुधार कर सकेंगे; सोचने-समझने, प्यार प्रदर्शन करने वाले, घरों दुकानों और उद्योगों में काम करने वाले रोबोट होंगे; कान, नाक, किडनी और लिवर से लेकर घर और बंदूक बनाने वाली मशीनें हमारे घर में ही होंगीं; किसी के शरीर में किसी और का मस्तिष्क होगा। अब सोचें कि ऐसे में समाज, दर्शन, राजनीति, संस्थाएं सब कुछ क्या आज से अलग नहीं होंगे। न जाने ऐसी कितनी खोजें हो रही हैं आज, जिनके चलन में आ जाने से हमारी दुनिया पूरी तरह बदल जाएगी। इसमें नई संस्कृति होगी, नए दर्शन होंगे, नया समाज होगा, नई राजनीति होगी। अब सवाल है कि क्या हम सोच के स्तर पर इसके लिए तैयार हो रहे हैं। या फिर हम पिछली सदी के लोग के नाम से जाने जाएंगे? क्या आदि मानव और आज के मानव में जो अंतर है, उससे भी ज्यादा अंतर हमारे और आने वाले समय के मनुष्यों के बीच होगा? क्या हम इस समय में रहते हुए इस बदलाव को समझ सकते हैं?


Date:07-01-18

दलित संघर्ष में अहिंसा के लिए जगह

जाति प्रथा ने एक ऐसा समाज बनाया था, जिसमें दलितों से आत्मरक्षा के साधन छीन लिए गए थे. सैकड़ों साल से नियम था कि जो दलित हैं, शस्त्र धारण नहीं कर सकते.

राजकिशोर

इसे डॉ. भीम राव अम्बेडकर ने दलितों का पुंसत्व-हरण कहा है. यही शब्द महात्मा ने संपूर्ण भारत के लिए प्रयुक्त किया था. अंग्रेजों ने सभी भारतवासियों से शस्त्र धारण करने का अधिकार छीन लिया था. वही नियम अब भी चला आ रहा है. हथियार वही रख सकता है जिसके पास लाइसेंस है, और खासकर दलितों के लिए लाइसेंस पाना बहुत मुश्किल है. दलितों को शस्त्रहीन करने का खास कारण था कि उन पर जो नृशंस अत्याचार किए जा रहे थे, उसका प्रतिवाद न कर सकें. मान्यता है कि हथियार के बल पर अन्याय किया जाता है, तो हथियार से उसका प्रतिकार भी किया जा सकता है. क्या दलितों के मामले में हिंसा अहिंसा से ज्यादा कामयाब हो सकती है?

नये वर्ष के अवसर पर पुणे में दलितों के साथ हिंसा हुई. भीमा-कोरेगांव की दो सौ साल पुरानी जंग की बरसी पर सवर्णो ने दलितों पर आक्रमण कर दिया. दलितों के लिए इस जंग को याद करने का विशेष महत्त्व है. यह पहली बार था, जब दलितों ने अंग्रेजी सेना से मिल कर पेशवाओं पर विजय पाई थी. अम्बेडकर ने इसे दलित शौर्य के एक प्रतीक की संज्ञा दी है. सवर्णो द्वारा हमला करना गलत था, छिप कर हमला करना और भी गलत. पुणो से करीब 30 किमी. दूर अहमदनगर हाईवे पर पेरने फाटा के पास एक शख्स की मौत हो गई. इसके विरोध में अगले दिन महाराष्ट्र के 13 शहरों में प्रदर्शन हुए. पहली बार हुआ जब महाराष्ट्र में शिव सेना को पता चला कि दलित भी मुंबई को अपनी उंगलियों पर उठा सकते हैं.मेरे मन में प्रश्न उठता है कि आज के तनाव और संघषर्पूर्ण माहौल में दलित शौर्य दिवस मनाना क्या जरूरी था? क्या हम चाहते हैं कि वैसा ही युद्ध आज भी हो और बार-बार हो? उस समय दलित अंग्रेजी सेना में थे (अंग्रेजों ने बाद में महार रेजिमेंट को भंग कर दिया था, जिसका डॉ. अम्बेडकर के बहुत कहने पर पुनर्गठन नहीं हुआ). अंग्रेज सैनिक और महार सैनिक मिल कर लड़ रहे थे. पेशवाओं को हराने के लिए उसने दलितों की मदद ली. स्वयं डॉ. अम्बेडकर ने शिकायत की है कि उसके बाद अंग्रेजी सरकार ने दलितों के लिए कुछ नहीं किया. आज दलितों और पेशवाओं के बीच लड़ाई हो तो दलितों की सहायता कौन करेगा? उलटे सरकारी बल दलितों का ही दमन करेंगे. सवर्णवाद आज भी दलितों का जीवन दूभर किए हुए है. जवाब में दलितों में भी मिलिटेंसी आ रही है. इसकी झलक महाराष्ट्र के दलित पैंथर्स और उत्तर प्रदेश की भीम सेना में हम देख चुके हैं. दलितों की स्थिति को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि उनके बीच मिलिटेंसी का उभार बहुत देर से हुआ है. अपनी दुरवस्था से मुक्त होने के लिए वे जितना भी कठोर संघर्ष करें, उनका स्वागत है. लेकिन दलितों की बढ़ती मिलिटेंसी स्वयं उन्हीं का अपकार न करे, यह समझना भी महत्त्वपूर्ण है.

अम्बेडकर का महाड़ सत्याग्रह (19 और 20 मार्च, 1927) अहिंसक संघर्ष था. महाराष्ट्र के सवर्ण दलितों को सार्वजनिक कुंओं और तालाबों से पानी लेने नहीं दे रहे थे. डॉ. अम्बेडकर के आह्वान पर लगभग पांच हजार स्त्री-पुरुष महाड़ जिले के चवदार तालाब को इस कलंक से मुक्त कराने के लिए सत्याग्रह में शामिल हुए. जैसे ही तालाब की सीढ़ियों पर उतरे डॉक्टर साहब ने तालाब का पानी पिया, जिसका अनुकरण अन्य दलितों ने किया, बौखलाए सवर्णो ने लाठियों से हमला कर दिया. अम्बेडकर ने सत्याग्रहियों को संयम व शांति रखने की सलाह दी. कहा, हमें प्रतिघात नहीं करना है. सत्याग्रह विफल हुआ. अम्बेडकर ने पुन: सत्याग्रह की योजना बनाई. 25 दिसम्बर को हजारों लोग इकट्ठा हुए, लेकिन इस बार सत्याग्रह को स्थगित करना पड़ा. बाबा साहब ने बांबे हाई कोर्ट में लगभग दस वर्ष तक यह लड़ाई लड़ी. अंत में 17 दिसम्बर, 1936 को अछूतों को चवदार तालाब में पानी पीने का अधिकार मिला. यह अस्पृश्य समाज के लिए ऐतिहासिक जीत थी. लेकिन अहिंसा रणनीति के रूप में नहीं, जीवन दशर्न के रूप में होगी तभी कामयाब होगी.बेशक, दलितों का मिजाज गर्म होने के दर्जनों कारण हैं. उनसे प्रेम और शांति के पालन की मांग उनके साथ ज्यादती है. फिर भी, उन्हें छिटपुट चिनगारियों को जन्म दे कर नहीं रह जाना है, प्रतिष्ठा व समानता का अधिकार पाने के लिए दूरगामी लड़ाई लड़ाई लड़नी है, तो यह अहिंसक संघर्ष से ही संभव है. इसी के आधार पर अहिंसक समाज बनेगा. डॉ. अम्बेडकर को इस कठोर सत्य का अहसास था, इसलिए उन्होंने हमेशा अनाक्रामक संघर्ष का समर्थन किया. इसमें संदेह नहीं कि मुंबई में दलितों द्वारा फैलाई अराजकता का परिणाम दलितों के लिए अच्छा नहीं होगा. भूलना नहीं चाहिए कि दलितों के लिए यह सवर्णो से हिंसक युद्ध के बजाय प्रेमपूर्ण संघर्ष और संघषर्मय प्रेम का संघर्ष है. आखिर, दोनों पक्षों को इसी समाज में रहना है. इसे भुला कर अन्याय शोधन का कोई कार्यक्रम कैसे चलाया जा सकता है?