11-04-2018 (Important News Clippings)

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11 Apr 2018
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Date:11-04-18

स्वच्छाग्रह ठीक है लेकिन सत्याग्रह को भी न भूलें

संपादकीय

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मोतीहारी में आयोजित महात्मा गांधी के चंपारण सत्याग्रह शताब्दी समारोह की समापन सभा को स्वच्छाग्रह में बदलकर न सिर्फ यह संकेत दिया है कि सरकार विकास के एजेंडे से पीछे नहीं हटने वाली है बल्कि समाज में बढ़ते विभाजन को भी उसी से पाटने की कोशिश करेगी। इसीलिए उन्होंने अपने 2014 के आम चुनाव के नारे ‘सबका साथ सबका विकास’ को दोहराते हुए कहा कि कुछ लोग तीव्र विकास से परेशान हैं और जन मन को जोड़ने की बजाय उसे तोड़ने का प्रयास कर रहे हैं।

इस दौरान उन्होंने फ्रांस के सहयोग से चल रहे मधेपुरा के लोकोमोटिव कारखाने में बने 12000 हार्स पावर के इंजन का भी जिक्र किया, जिसने भारत को रूस, चीन, स्वीडन और जर्मनी की श्रेणी में पहुंचा दिया है। अपने जोशीले भाषण में मोदी का प्रयास अगले चुनाव के लिए अपनी सरकार का काम गिनाने के साथ ही एनडीए विशेषकर बिहार के उन नेताओं और दलों को एकजुट रखने का दिख रहा था, जिनके असंतुष्ट होने की खबरें आ रही हैं।

इसके बावजूद प्रधानमंत्री देश की सामाजिक एकता और सद्‌भाव के सवाल से कन्नी काटते हुए दिखे जो इस समय बिहार समेत पूरे देश को बेचैन किए हुए हैं। संयोग से प्रधानमंत्री जिस समय मोतिहारी में शौचालय निर्माण, गंगा और मोतीहारी झील की सफाई का जिक्र कर रहे थे उसी समय दलितों के दो अप्रैल के बंद के जवाब में आयोजित सवर्णों के भारत बंद में सबसे ज्यादा हिंसा बिहार में ही हो रही थी।

उससे पहले बिहार के भागलपुर समेत कई जिले सांप्रदायिकता की चपेट में आ चुके थे। जाति और धर्म के ये टकराव एनडीए को तोड़ रहे हैं। इसलिए सारी सदिच्छा के बावजूद मोदी की ये घोषणाएं तभी सफल हो सकती हैं, जब सामाजिक सद्‌भाव और सामाजिक न्याय का वातावरण बने। जाट आंदोलन, मराठा आंदोलन, भीमा कोरेगांव की हिंसा, गोरक्षा के बहाने गुंडागर्दी और फिर भारत बंद का उपद्रव देश को भीतर से खोखला कर रहा है। ऐसे में गांधी के सत्याग्रह को स्वच्छाग्रह में सीमित करने की बजाय गांधी सत्याग्रह के मूल उद्‌देश्य को समझना होगा।उनके लिए सांप्रदायिक सद्‌भाव बेहद जरूरी कार्यक्रम था और अगर आंबेडकर को भी उनके साथ जोड़ा जाए तो जाति उन्मूलन के बिना भारतीय समाज में शांति नहीं आने वाली है। इन चुनौतियों को दूसरों पर थोपने की बजाय प्रधानमंत्री को उनका मुकाबला करना ही होगा।


Date:11-04-18

दलितों का दलन सिर्फ कानून से बंद नहीं होगा

जातिगत भेदभाव के खिलाफ एेसे व्यापक जन-आंदोलन की जरूरत, जो समतामूलक समाज का निर्माण करे।

वेदप्रताप वैदिक, ( भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष )

दलित अत्याचार निवारण कानून में संशोधन किया है, सर्वोच्च न्यायालय ने और गुस्सा निकाला जा रहा है, केंद्र सरकार पर। देश के प्रमुख विरोधी दलों ने भी भाजपा के मत्थे ही दोष मढ़ना शुरू कर दिया है। कांग्रेस ने राजघाट पर अनशन का हास्यास्पद नाटक कर दिखाया। यहां तक कि दलित नेता मायावती ने भी अपनी तलवारें हवा में लहरा दी हैं। ये वही मायावती हैं, जिन्होंने उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री रहते 2007 में इस कानून का दुरुपयोग रोकने के लिए लगभग वैसे ही आदेश जारी किए थे, जैसे सर्वोच्च न्यायालय ने किए हैं।

जहां तक भाजपा का सवाल है, उसकी सरकार ने 1989 में बने इस कानून को 2015 में संशोधित करके पहले से भी अधिक कठोर बना दिया था। जनवरी 2016 से यह कानून लागू हो गया और इसके अंतर्गत अनुसूचित जातियों और जनजातियों पर होने वाले अत्याचारों की सूची बढ़ाई गई और उसमें दलितों के सिर मूंडने, जूतों की माला पहनाने, हाथ से मैला साफ करवाने, उनको गालियां देने आदि के अपराधों पर 10 साल की सजा का प्रावधान किया गया। अब केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले के विरुद्ध एक पुनर्विचार याचिका पेश की है।

सर्वोच्च न्यायालय ने यह तो माना है कि भारत के आदिवासियों और दलितों पर अत्याचार बराबर जारी है। किंतु उसने अपने फैसले में यह भी कहा है कि अत्याचार से लड़ने वाला कानून खुद अत्याचारी नहीं बनना चाहिए।1989 में बना यह कानून उस समय इतना जरूरी लग रहा था कि संसद में इसकी बारीकियों पर ध्यान नहीं दिया गया। नतीजतन अदालत में मुकदमों में से 70-75 प्रतिशत मुकदमे रद्‌द हो गए। उनके कारण हजारों वादियों और प्रतिवादियों तथा उनके हितैषियों के बीच वैर-भाव फैलता रहा।। मुकदमे रद्‌द होने पर दलितों में व्यवस्था के प्रति अविश्वास पैदा होने लगा। अदालतें भी हजारों नए मुकदमों के बोझ से पीड़ित रहतीं। इस कानून का जो मुख्य लक्ष्य था कि हमारे दलित और आदिवासी भाइयों को सामाजिक-उत्पीड़न से बचाना, उसकी उपेक्षा हो रही थी।

ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय ने एक याचिका पर अपना फैसला देते हुए इस अत्याचार-निवारण कानून में कुछ संशोधन सुझाए हैं। जैसे किसी भी व्यक्ति को सिर्फ इसीलिए तुरंत गिरफ्तार नहीं किया जाएगा कि उसके विरुद्ध किसी आदिवासी या किसी दलित ने कोई शिकायत कर दी है। वर्तमान कानून के अनुसार किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करने के लिए न तो किसी प्रकार की जांच की जरूरत होगी, न प्रमाण की और न ही किसी ऊंचे अफसर की अनुमति की। अदालत ने अब यह प्रावधान कर दिया है कि जैसे ही कोई शिकायत आए, पुलिस उसकी जांच करे और अपनी रिपोर्ट अपने वरिष्ठ जिला अधीक्षक को दे।

यदि वह सहमत हो, तब ही उस नागरिक की गिरफ्तारी की जाए। इसी तरह यदि किसी सरकारी कर्मचारी का मामला हो तो उसकी भी बाकायदा जांच हो और जब तक उसको नियुक्त करने वाले अधिकारी की अनुमति न मिले, उसे गिरफ्तार न किया जाए। इस तरह के अपराधों में अग्रिम जमानत और जमानत पाना भी मुश्किल था। दूसरे शब्दों में अत्याचार-निवारण के नाम पर कई लोग अपनी खुंदक निकालते थे। अपने राजनीतिक और व्यावसायिक प्रतिद्वंद्वियों को जेल भिजवा देते थे। लेकिन, यह भी सत्य है कि इस कठोर कानून की वजह से लोगों के दिल में दहशत बैठ गई थी कि यदि हमने जरा भी मर्यादा का उल्लंघन किया नहीं कि अंदर हुए।

इसमें शक नहीं कि यह संशोधित कानून लागू हो गया तो इसका भी दुरुपयोग हो सकता है, क्योंकि जांच करने वाले और गिरफ्तारी की अनुमति देने वाले अधिकारियों के अपने पूर्वग्रह हो सकते हैं। वे दलित और आदिवासी विरोधी भी हो सकते हैं या उनकी नज़र में किसी को गाली दे देना या उसका अपमान कर देना वैसा ही स्वाभाविक है, जैसे कि सांस लेना। लेकिन यह तर्क तो न्यायाधीशों और कानून बनाने वाले सांसदों पर भी लागू किया जा सकता है। इस तर्क के बावजूद अत्याचार-निवारण कानून बनाने वाले ज्यादातर सांसद और उसे लागू करनेवाले अधिकतम न्यायाधीश दलित नहीं हैं। ऐसी स्थिति में यह मानकर चलना अधिक तर्कसंगत है कि कानून को अपने आप में मर्यादित होना चाहिए। इतने वंचित और उत्साही लोगों का हताहत होना अत्यंत दुखद है। उन्हें स्वयं हिंसक होने की कोई जरूरत नहीं थी और पुलिस ने भी कई स्थानों पर अति कर दी थी। भारत बंद की यह घटना स्वतः स्फूर्त थी। यह किसी दल या नेता का आह्वान नहीं था।

इंटरनेट और कानोंकान हुए प्रचार ने साधारण दलितों को भड़का दिया, लगभग वैसे ही जैसे कि कुछ दिन पहले फिल्म ‘पद्‌मावती’ को लेकर देश के राजपूत समाज को भड़का दिया गया था। यदि गंभीरता से विचार किया जाए तो सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से दलितों को अब बेहतर न्याय मिलेगा। मैं तो समझता हूं कि भारत के दलित और सवर्ण समाज के भेद को समाप्त करने के लिए सिर्फ कानून के सहारे बैठे रहना काफी नहीं है। इसके लिए कोई ऐसा जबर्दस्त जन-आंदोलन चाहिए, जो करोड़ों लोगों से जातीय उपनाम हटवाए, अंतरजातीय विवाहों को प्रोत्साहित करे, जातीय आरक्षण का विरोध करे और समतामूलक समाज का निर्माण करे। जातिवादी समाज तो रोगी समाज होता है।

स्वयं डाॅ. भीमराव आंबेडकर ‘जातिवाद के उन्मूलन’ के लिए कटिबद्ध थे। इसी शीर्षकवाली उनकी पुस्तक काफी प्रसिद्ध हुई है। यदि 1989 का कानून दलितों को न्याय दिलाने के साथ-साथ जातिवाद की जड़ें सींचता रहा तो यह डाॅ. आंबेडकर के विचारों का घोर अपमान है। स्वयं डाॅ. आंबेडकर जातीय आरक्षण को अनंतकाल तक चलाने के विरोधी थे। उन्होंने और डाॅ. राममनोहर लोहिया ने जातिविहीन भारत का सपना देखा था लेकिन, देश का दुर्भाग्य है कि सभी राजनीतिक दल जातिवादी चूल्हे पर अपनी रोटियां सेंक रहे हैं। सभी को जाति के नाम पर अंधे और थोक वोट चाहिए। आज देश में जाति-विरोधी न तो कोई नेता है, न कोई पार्टी है और न ही कोई आंदोलन है। यह कितनी दुखद घटना है कि पहले जातिवाद के नाम पर भारत बंद हुआ और अब जातिवाद के नाम पर ही जवाबी भारत बंद हो रहा है! दलितों का दलन सदा के लिए समाप्त हो, इसकी चिंता किसी को नहीं है।


Date:11-04-18

नेपाल के नए निजाम संग नई जुगलबंदी

कमलेंद्र कंवर , (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

नई दिल्ली के साउथ ब्लॉक में स्थित विदेश मंत्रालय के उच्चाधिकारियों ने उस वक्त परिस्थितियों को भांपने में बड़ी चूक कर दी थी, जब उन्होंने नेपाल में हुए बीते आम चुनाव के दौरान केपी शर्मा ओली के प्रति बेरुखी दर्शाई थी। केपी ओली ने भी अपने चुनाव प्रचार अभियान में भारत-विरोधी रवैया अख्तियार किया था। कट्टर वामपंथी केपी ओली प्रचंड जनादेश हासिल करते हुए फरवरी के आखिर में नेपाल की सत्ता पर काबिज हो गए और जिसके बाद भारत ने उनके साथ नए सिरे से संबंध स्थापित करने की कोशिशें शुरू कीं। वैसे नेपाल भी भारत से दूर नहीं रह सकता। यह नेपाल की हम पर अति-निर्भरता का ही असर है कि नई दिल्ली के प्रति दुराव होने के बावजूद ओली प्रधानमंत्री पद पर काबिज होने के तुरंत बाद भारत यात्रा पर आए, ताकि दोनों देशों के रिश्तों पर जमती बर्फ को पिघलाया जा सके। चीन के प्रति झुकाव रखने वाले ओली ने अपनी हालिया तीन दिवसीय भारत यात्रा के दौरान कहा कि उनकी इस यात्रा का मकसद यही है कि दोनों देशों के मैत्रीपूर्ण संबंध मजबूत हों तथा परस्पर विश्वास और आपसी हित के आधार पर द्विपक्षीय संबंधों को एक नई दिशा मिले।

लेकिन यहां पर कहना होगा कि भारत ने अपनी अदूरदर्शी व गलत ढंग से विचारित नीति की वजह चीन को नेपाल में पांव जमाने का मौका दे दिया, जो कि इसका भरपूर दोहन करना चाहता है। अब तक नेपाल का 70 फीसदी आयात भारत से होता रहा है। लेकिन अब चीजें बदलने लगी हैं। नेपाल में चीन के बढ़ते कदमों के साथ आपसी व्यापार का एक बड़ा हिस्सा चीनियों की ओर खिसक सकता है और यह भारत का नुकसान ही होगा।

चीन पहले ही अपने महत्वाकांक्षी ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के लिए नेपाल का समर्थन हासिल कर चुका है और इस तरह उसने काठमांडू को भारत के विशिष्ट दायरे से बाहर कर दिया है। अब नेपाल की बाकी दुनिया तक पहुंच सिर्फ भारत के जरिए ही नहीं, बल्कि चीन और पाकिस्तान के जरिए भी उतनी ही या कहें कि कहीं अधिक हो सकेगी। इस तरह चीन की वजह से भारत और नेपाल के सहजीवी संबंधों पर असर पड़ा है। भारत को लगता है कि चीन जैसा कुटिल देश नेपाल को कर्ज के जाल में फंसाएगा, जैसा कि वह पाकिस्तान, मालदीव और श्रीलंका जैसे दूसरे पड़ोसी देशों के साथ कर रहा है। लेकिन इस वक्त ऐसा लगता नहीं कि नेपाल भारत की ऐसी आशंकाओं या चेतावनियों पर ध्यान देगा।

अब वह दौर नहीं रहा, जब भारत धौंस-डपट के जरिए नेपाल को सही रास्ते पर बनाए रख सकता था। अब ‘बिग ब्रदर वाला रवैया नहीं चलने वाला। ओली ने अपने पहले प्रधानमंत्रित्वकाल में कथित तौर पर भारत द्वारा की जा रही ‘आर्थिक नाकेबंदी को लेकर भारत के खिलाफ सख्त रवैया अपनाया था। कहा यह भी गया कि भारत ने नेपाली कांग्रेस, माओवादियों और मधेसी ताकतों के साथ मिलकर ओली सरकार को गिराया। लेकिन अब माना जा रहा है कि मोदी सरकार हालात को समझ चुकी है क्योंकि उसने देख लिया है कि ओली का अपने देश की जनता पर कितना प्रभाव है, जो चुनाव नतीजों से जाहिर भी हुआ। इस वक्त दोनों ही पक्षों का रुख समझौतावादी नजर आ रहा है, लेकिन यह कब तक रहेगा, कह नहीं सकते।

नई दिल्ली की ओर से एक अच्छा निर्णय यह लिया गया कि भारत नेपाल की नदियों को जलमार्ग के रूप में विकसित करने में मदद करेगा। उसके ये जलमार्ग भारतीय जलमार्गों से भी जुड़ेंगे, जिससे नेपाल को समुद्र तक अतिरिक्त प्रवेशमार्ग मिलेगा। इस पहल से ऐसी कनेक्टिविटी निर्मित होने के अलावा माल की आवाजाही में भी मदद मिलेगी। इसके अलावा रक्सौल और काठमांडू घाटी के बीच विद्युतीकृत रेल संपर्क से भी बेहतर कनेक्टिविटी व व्यापार को बढ़ावा मिलने की उम्मीद है। इस बारे में व्यापक प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार की जा रही है, जिसके आधार पर इसके क्रियान्वयन और फंडिंग संबंधी कार्य-योजनाओं को अंतिम रूप दिया जाएगा। भारत पहले ही भारत-नेपाल क्रॉस बॉर्डर रेल लिंक परियोजनाओं के प्रथम चरण पर काम कर रहा है। उम्मीद है कि इसके तहत रेलवे लाइनों को जयनगर से जनकपुर/कुर्था और जोगबानी से बिराटनगर कस्टम यार्ड तक बढ़ाने का काम इस साल के अंत तक पूरा हो जाएगा। इसके अलावा भारत-नेपाल रेल लिंक परियोजनाओं के दूसरे चरण में न्यू जलपाईगुड़ी-काकड़भिट्टा, नौतनवा-भैराहवा और नेपालगंज रोड-नेपालगंज को जोड़ने के लिए चल रहा फाइनल लोकेशन सर्वे का काम भी जल्द ही पूरा हो जाएगा।

कृषि के क्षेत्र में भारत ऑर्गेनिक फार्मिंग व मृदा स्वास्थ्य सुधार संबंधी एक पायलट प्रोजेक्ट भी चलाएगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों को मृदा स्वास्थ्य कार्ड मुहैया कराने की अपनी सरकार की पहल के बारे में ओली को बताया और कहा कि इसे नेपाल में भी अपनाया जा सकता है। फिलहाल नेपाल का जोर इस बात पर है कि पंचेश्वर (बहुउद्देश्यीय जलविद्युत परियोजना) और महाकाली जैसी परियोजनाओं को प्राथमिकता के आधार पर पूरा किया जाए, जो लंबे समय से अटकी हैं। भारत बीते कुछ समय से इनसे अपने हाथ खींच रहा था, लेकिन अब कहीं ज्यादा स्पष्ट राजनीतिक सोच के साथ इस बात की उम्मीद है कि लंबे समय से अटकी इन परियोजनाओं के काम में तेजी आएगी।

ओली ने भारत यात्रा पर आते हुए भारत के साथ आपसी संबंधों को सामान्य करने की कोशिश की है, लेकिन इसमें अवरोध भी आएंगे। ऐसी किसी भी कोशिश जिससे यह लगे कि भारत नेपाल में चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकना चाहता है, उसके बदले में चीन नेपाल को भारत से दूर करने की हर मुमकिन कोशिश करेगा। चीन अपने भू-सामरिक लक्ष्यों के तहत ऐसी योजना पर काम कर रहा है, जिससे पड़ोसी देशों में भारत के समर्थक आधार में सेंध लगाते हुए इसे कमजोर कर दिया जाए। पाकिस्तान को अपना विश्वस्त मोहरा बनाने की कोशिशों में सफल होने के बाद अब वह श्रीलंका और मालदीव जैसे देशों से भी नजदीकियां बढ़ाने में जुटा है।

ऐसी सूरत में भारत को देरसबेर चीन को यह दिखाना ही होगा कि वह अपने क्षेत्र में चीनी दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं कर सकता और न ही करेगा। इस दिशा में भारत का नेपाल के ओली शासन के प्रति समझौतावादी रवैया अख्तियार करना एक अच्छी शुरुआत कही जा सकती है। चीन नेपाल को हर तरह से अपने झांसे में लेना चाहेगा और नेपाल उससे तभी बच सकता है, जब भारत और अमेरिका जैसे देशों का उसे पूरा समर्थन मिले। भारत को अपने सामरिक हितों का ख्याल रखते हुए नेपाल की नई सरकार के साथ दोस्ताना संबंधों को एक नए मुकाम पर ले जाना होगा, ताकि इस पड़ोसी मुल्क को चीन पर निर्भर होने से बचाया जा सके।


Date:10-04-18

कबूतरबाजी के शिकार

अभिषेक कुमार

पिछले कुछ अरसे में प्रवासी मजदूरों के साथ क्या कुछ नहीं हुआ है। विदेश में नौकरी दिलाने के नाम पर पहले तो देश में ही सैकड़ों-हजारों लोग ठगे जाते हैं। कबूतरबाजी यानी अवैध इमिग्रेशन के शिकार इन्हीं लोगों में से कुछ लोग जब किसी तरह विदेश पहुंच जाते हैं, तो वहां उनके रोजगार से लेकर जिंदगी तक का कोई ठिकाना नहीं होता।

ताजा घटनाक्रम इराक से 38 भारतीयों के शव-अवशेषों की वापसी का है। वर्ष 2014 में आतंकी संगठन- आईएसआईएस द्वारा अगवा इन भारतीयों की जीवित वापसी और पहचान, दोनों ही मुश्किल काम थे। ये लोग जीवित नहीं थे-इसकी जानकारी नहीं दे पाने पर भारत सरकार की काफी किरकिरी भी हुई पर इधर ज्यादा आलोचना इनके शव-अवशेषों को लेकर आए विदेश राज्यमंत्री वीके सिंह के एक बयान की हुई, जिसमें उन्होंने मृतकों के परिवारों को मुआवजा देने के सवाल पर कहा कि यह बिस्किट बांटने वाला काम नहीं है। बयान इस तथ्य की रोशनी में दिया गया कि बंधक बनाए गए 40 भारतीयों का कोई भी रिकॉर्ड किसी दूतावास में नहीं है, क्योंकि वे वहां ट्रैवल एजेंट के माध्यम से अवैध रूप से गए थे।

रोजगार की तलाश में घर से बाहर यानी विदेश गए भारतीय श्रमिक के शोषण की अंतहीन कहानियां हमारे देश में आती रही हैं। कई बार प्लेसमेंट एजेंट विदेश पहुंचे मजदूरों से मारपीट करते हैं, उनके पासपोर्ट छीन लेते हैं, और इसके बाद भी अगर किसी तरह ये मजदूर कोई काम पाने में कामयाब रहे तो सऊदी अरब के निताकत जैसे कड़े श्रमिक कानून उनकी नौकरी में आड़े आते रहते हैं। वहां कामगारों के हक, काम करने के घंटे, छुट्टी में स्वदेश जाने के इंतजाम और अवकाश पर कहीं कोई सुनवाई नहीं है। दो साल पहले सूचना के अधिकार के जरिए हासिल की गई एक जानकारी से पता चला था कि भारत से कुल 112 देशों में प्रवासी कामगार जाते हैं, जिनमें से 6,635 कामगार भारतीय विदेशी जेलें में उस वक्त बंद थे (यह जानकारी ‘माइग्रेंट्स राइट्स काउंसिल ऑफ इंडिया’ के अध्यक्ष पी नारायण स्वामी ने जुटाई थी)। यह सच है कि हमारी सरकार न तो इन कैदियों की तरफ ध्यान दे पाती है, और न ही वह उन गरीब प्रवासियों की सुध ले पाती है, जो अवैध रूप से विदेश जाते हैं। हालांकि कई बार इससे लगता है कि सरकार को फिक्र सिर्फ प्रवासियों से मिलने वाले पैसे की है, उनके हितों से उसका कोई सरोकार नहीं है।

प्रवासी भारतीय श्रमिकों की समस्या दो मोर्चों पर है। खाड़ी देशों में काम करने गए भारतीय मजदूरों के पास अक्सर न तो कायदे की कोई पेशेवर डिग्री होती है, और ना विदेश में प्रवास के कोई वैध दस्तावेज। कबूतरबाजी की मदद से यानी प्लेसमेंट एजेंसियों के फर्जीवाड़े से इनमें से जो कुछ मजदूर खाड़ी मुल्कों में पहुंच जाते हैं, वे वहां मिलने वाले दीनार या रियाल की मदद से कुछ ठीकठाक गुजारा करते रहे हैं, और बचाई गई रकम भेजकर अपने घरवालों और सरकार तक की मदद करते रहे हैं। पिछले कुछ वक्त से उनके लिए भी हालात मुश्किल हुए हैं। पांच साल पहले सऊदी अरब में अप्रैल, 2013 में लागू किए गए श्रम कानून-निताकत ने ऐसे श्रमिकों के लिए दो ही विकल्प छोड़े-या तो वे किसी तरह अपने लिए वैध दस्तावेज का इंतजाम करें या स्वदेश लौट जाएं। तब ज्यादातर श्रमिक स्वदेश लौट आए और जो बचे थे, उनके सामने भी वहां रहने की कोई ज्यादा गुंजाइश नहीं बची-यह साबित किया 39 भारतीयों को इराक के मोसुल में अगवा कर लिए जाने की घटना ने।

सवाल है कि कुशल और अकुशल श्रमिक के रूप में बाहर गए अनिवासी भारतीयों के हित में हमारी सरकार को क्या-क्या उपाय करने चाहिए जिससे उनसे मिलने वाली विदेशी मुद्रा ही नहीं, बल्कि बाहरी मुल्कों में उनके हित भी सुरक्षित रहें। पहला उपाय है देश से बाहर नौकरी जाने वाले हर शख्स के वैध प्रवासन की व्यवस्था करना। कोसने भर से कुछ नहीं होगा बल्कि अवैध ढंग से चलने वाली कबूतरबाजी यानी गैर-कानूनी माइग्रेशन के चोर दरवाजे बंद करने में सख्ती दिखानी होगी। सरकार को यह भी गौर करना चाहिए कि जहां भारतीय कामगार और आईटी पेशेवर जा रहे हैं, क्या उनके माइग्रेशन में वहां के वीजा और श्रम कानूनों से कोई खिलवाड़ तो नहीं किया जा रहा। यदि उन देशों में कोई समस्या नजर आए या वहां के वीजा और श्रम कानूनों में कोई बड़ी तब्दीली नजर आए तो ऐसे लोगों को वहां जाने से रोक लेना चाहिए। ऐसी व्यवस्था नहीं करने पर ही वहां उनके साथ होने वाली समस्या उन लोगों के परिवारों समेत खुद सरकार के लिए भी संकट का कारण बन जाती है।


Date:10-04-18

किस मुकाम पर रिश्ते!

अवधेश कुमार

नेपाल के दोबारा प्रधानमंत्री बनने के बाद जब के. पी. शर्मा ओली का भारत आने का कार्यक्रम बना तो वैसा उत्साह नहीं था जैसा आम तौर पर नेपाल के नेताओं के आगमन को लेकर होता था। शुष्क कूटनीतिक संबंधों के परे भारत-नेपाल के संबंधों में विशेष किस्म का भाईचारा रहा है। जितनी संवेदनशीलता नेपाल को लेकर भारत में रही है, उतनी शायद ही किसी देश के प्रति रही हो। किंतु ओली जब पिछली बार प्रधानमंत्री बने थे भारत के साथ संबंध काफी खराब दौर में पहुंच गएथे।

मधेसियों और जनजातियों ने अपने साथ अन्याय के विरु द्ध जो आंदोलन छेड़ा था, उसने नेपाल के लिए राशन से लेकर तेल, औषधियां सबका संकट पैदा कर दिया था। ओली ने आरोप लगाया था कि भारत जानबूझकर इस आंदोलन को बढ़ावा दे रहा है। उस समय के उनके तथा नेपाली मंत्रिमंडल के अन्य सदस्यों के बयानों को देखें तो लगेगा ही नहीं कि दोनों देशों के बीच वाकई कभी घनिष्ठ संबंध रहे हैं। भारत के खिलाफ वातावरण बनाया गया, नेपाली केबल से भारत के टीवी चैनल हटा दिए गए, भारतीय सिनेमा प्रतिबंधित हो गया, भारतीय नम्बर की गाड़ियां हमले की शिकार हुई, काठमांडू दूतावास की गाड़ी फूंकी गई। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पुतले भी फूंके जाने लगे। प्रतिक्रिया में चीन के साथ संबंधों को सशक्त करके भरपाई करने की कोशिश हुई। यह बात अलग है कि कम से कम अभी की भौगोलिक स्थिति में चीन, नेपाल के लिए भारत का स्थानापन्न नहीं कर सकता था। हालांकि उसके बाद फरवरी, 2016 में ओली भारत आए। उस समय नौ समझौते हुए। किंतु उनकी सोच बदल गई हो ऐसा मान लेने का प्रमाण हमारे पास उपलब्ध नहीं है।

परंपरा के अनुरूप इस बार उन्होंने अपनी विदेश यात्रा की शुरुआत भारत से की है, जो सकारात्मक संकेत है। प्रधानमंत्री मोदी के साथ मिलकर बीरगंज में जिस नये इंटिग्रेटेड चेक पोस्ट का उद्घाटन किया है, उससे दोनों देशों के बीच व्यापार और लोगों का आवागमन बढ़ेगा। दोनों नेताओं ने मोतिहारी और अमलेखगंज के बीच तेल पाइप लाइन बिछाने की आधारशीला रखी। रक्सौल और काठमांडू के बीच रेललाइन बिछाने पर सहमति हुई। ऐसा हो जाने से केवल दिल्ली ही नहीं, भारत के सभी कोनों से नेपाल जुड़ जाएगा। इस साल के अंत तक जयनगर से जनकपुर/कुर्था तथा जोगबनी से विराटनगर कस्टम यार्ड के बीच रेललाइन तैयार हो जाएगी। जयनगर-विजलपुरा-वर्दीवास और जोगबनी-विराटनगर परियोजनाओं के शेष हिस्से पर काम आगे बढ़ाया जाएगा। जल परिवहन को विकसित करने का मतलब है नदियों के साथ नेपाल का समुद्र तक प्रवेश। इस तरह देखें तो भारत, नेपाल के विकास तथा वहां के नागरिकों एवं सरकार, दोनों के साथ पूर्व के संबंधों के अनुरूप ही सहयोग के रास्ते बढ़ रहा है। कुछ लोग रेललाइन को चीन द्वारा तिब्बत से होकर नेपाल तक रेल मार्ग विकसित करने की योजना का जवाब मान रहे हैं। लेकिन भारत का कदम प्रतिक्रियात्मक नहीं है। न्यू जलपाईगुड़ी-काकरभिट्टा, नौतनवां-भैरहवा और नेपालगंज रोड-नेपालगंज रेल परियोजनाओं पर भी विचार चल रहा है। कोई संबंध एकपक्षीय नहीं हो सकता।

ओली को विास तो दिलाना होगा कि पिछले बयानों से उन्होंने अपने अंदर भारत विरोधी भाव गहरा होने का जो संदेश दिया था, वह बदल गया है। उन्होंने भारत के साथ व्यापार असंतुलन की बात की और भारत ने कहा कि इसे साथ मिलकर ठीक करेंगे। तो सब कुछ उनके अनुकूल हुआ। ओली ने भारत आने के पूर्व एक अखबार से बातचीत में कह दिया कि भारत को दोनों देशों के बीच भरोसा बढ़ाने के साथ ही एक संप्रभु देश के फैसलों का सम्मान करना चाहिए। लेकिन भारत ने संप्रभु देश के रूप में नेपाल का कब सम्मान नहीं किया है? मान भी लें कि भूतकाल में भारत की ओर से व्यवहारत: कुछ गलतियां हुई होंगी लेकिन दो दशक से ज्यादा समय से तो ऐसा कुछ होते नहीं दिखा। चीन के साथ संबंधों को लेकर उनका कहना था कि हमारे पड़ोस में दो बड़े देश हैं। हमें दोनों देशों से दोस्ती रखनी है। लेकिन हांगकांग के एक अखबार से ओली ने कहा था कि भारत के साथ हमारी बेहतरीन कनेक्टिविटी है, खुली सीमा है। लेकिन यह भी नहीं भूल सकते कि हमारे दो पड़ोसी हैं। हम किसी एक देश पर ही निर्भर नहीं रहना चाहते। केवल एक विकल्प पर नहीं। इसका अर्थ समझना कठिन नहीं है। नेपाल संप्रभु देश है। किससे संबंध रखे और न रखे यह उसका अधिकार है। किंतु उसे किसी देश से संबंध बनाते वक्त ध्यान जरूर रखना चाहिए कि इससे कहीं भारतीय हित तो प्रभावित नहीं होंगे।

ओली ने जिस तरह मोदी के सामने पाकिस्तान की वकालत की वह आघात पहुंचाने वाली है। उन्होंने मोदी से इस्लामाबाद सार्क सम्मेलन में भाग लेने का आग्रह किया। क्या ओली को नहीं पता कि भारत, पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद से कितना पीड़ित है? 2016 में इस्लामाबाद सम्मेलन में भारत जाने को तैयार था, लेकिन उरी हमला हो गया और उस पर पाकिस्तान ने जो रुख अपनाया उसके बाद विवश होकर भारत को वहां न जाने का निर्णय करना पड़ा और सार्क सम्मेलन न हो सका। यह जानते हुए भी ओली ने यदि यह प्रस्ताव दिया तो इसे सभ्य कूटनीतिक व्यवहार नहीं कहेंगे। इसका जवाब दूसरे तरीके से भी दिया जा सकता था, किंतु कूटनीतिक शिष्टाचार को ध्यान रखते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने उनसे शालीनतापूर्वक कह दिया कि आतंकवाद के जारी रहते भारत के लिए पाकिस्तान में सार्क सम्मेलन में जाना संभव नहीं होगा।

पिछले महीने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को नेपाल बुलाकर उन्होंने जिस तरह उनकी आवभगत की उसे नेपाल अपनी स्वतंत्र विदेश नीति कह सकता है, लेकिन साफ था कि इसके पीछे चीन की भूमिका थी। क्या सच नहीं है कि चीन दक्षिण एशिया में भारत को अलग-थलग करने नीति पर चल रहा है? उसने क्षेत्र के देशों के लिए थैली खोल दी है। हमारा आग्रह होगा कि ओली और नेपाल के दूसरे नेता इस रणनीति का हथियार न बनें। हम सार्क की सफलता चाहते हैं, लेकिन अभी तक इसके मार्ग की बाधा पाकिस्तान ही रहा है। ओली अपने देश को सामाजिक-आर्थिक समस्याओं से बाहर निकालने पर ध्यान केंद्रित करें। इस तरह नेतागिरी करने से क्षति नेपाल को ही होगी।


Date:10-04-18

स्त्री का हक

संपादकीय

पारंपरिक नजरिया पुरुष को स्त्री के मालिक के रूप में ही देखने का रहा है। इसलिए आश्चर्य नहीं कि सारे अहम फैसलों में पुरुष की ही चलती रही है। हमारे समाज में यह कड़वा यथार्थ पति-पत्नी के संबंधों में आज भी बड़े पैमाने पर देखा जाता है। यह अलग बात है कि संविधान ने दोनों को बराबर के अधिकार दे रखे हैं। कानून के समक्ष समानता का सिद्धांत तो देश के सारे नागरिकों पर लागू होता है। लेकिन पुरुष के स्त्री के स्वामी होने की मानसिकता अब भी बहुतायत में देखी जाती है। पुरुष तो मालिक होने के अहं में डूबे ही रहते हैं, बहुत-सी स्त्रियां भी पति से अपने रिश्ते को इसी रूप में देखती हैं। लेकिन शिक्षा-दीक्षा की बदौलत स्त्री में जैसे-जैसे बराबरी के भाव का और अपने हकों को लेकर जागरूकता का प्रसार हो रहा है, वैसे-वैसे पुरुष वर्चस्ववाद को चुनौती मिलने का सिलसिला भी तेज हो रहा है। पति-पत्नी के संबंधों में केवल पति की मर्जी मायने नहीं रखती। इस नजरिए की पुष्टि सर्वोच्च अदालत के एक ताजा फैसले से भी हुई है। एक महिला की तरफ से अपने पति पर क्रूरता का आरोप लगाए हुए दायर आपराधिक मामले की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च अदालत ने कहा कि पत्नी ‘चल संपत्ति’ या ‘वस्तु’ नहीं है, इसलिए पति की इच्छा भले साथ रहने की हो, पर वह इसके लिए पत्नी पर दबाव नहीं बना सकता।

गौरतलब है कि इस मामले में महिला का पति चाहता था कि वह उसके साथ रहे, पर वह खुद उसके साथ नहीं रहना चाहती थी। इससे पहले अदालत ने दोनों को समझौते से मामला निपटाने के लिए मध्यस्थता की खातिर भेजा था। लेकिन सुनवाई के दौरान दोनों पक्षों ने बताया कि उनके बीच समझौता नहीं हो पाया है। ऐसे में महिला को पति के साथ रहने के लिए अदालत कैसे कह सकती है? अदालत की टिप्पणी का निष्कर्ष साफ है, दांपत्य और साहचर्य दोनों तरफ की मर्जी पर आधारित है। जिस तरह केवल पति की मर्जी निर्णायक नहीं हो सकती, उसी तरह केवल पत्नी की मर्जी भी नहीं हो सकती। गौरतलब है कि सर्वोच्च अदालत ने अपने एक अन्य फैसले में कहा था कि वह पति को (जो कि पेशे से पायलट था) अपनी पत्नी को साथ रखने के लिए बाध्य नहीं कर सकता। अलबत्ता वैसी सूरत में अदालत ने पत्नी के लिए फौरन अंतरिम गुजारा भत्ता जमा करने का आदेश दिया था। ताजा मामले की परिणति भी तलाक में होनी है, क्योंकि महिला ने पति पर जुल्म ढाने का आरोप लगाते हुए संबंध विच्छेद की गुहार लगाई है।

जहां केवल पुरुष की मर्जी चलती हो, स्त्री की मर्जी कोई मायने न रखती हो, स्त्री वहां पुरुष की चल संपत्ति या वस्तु जैसी हो जाती है, जबकि हमारा संविधान हर नागरिक को, हर स्त्री और हर पुरुष को न सिर्फ जीने का बल्कि गरिमा के साथ जीने का अधिकार देता है। इसी तरह हमारे संविधान का अनुच्छेद 14 कानून के समक्ष समानता की गारंटी देता है। इन्हीं प्रावधानों का हवाला देते हुए मुंबई उच्च न्यायालय ने शनि शिंगणापुर और हाजी अली की दरगाह में महिलाओं के प्रवेश का रास्ता साफ किया था। और इन्हीं प्रावधानों की बिना पर सर्वोच्च अदालत ने पिछले साल तलाक-ए-बिद्दत को खारिज किया था, और पिछले महीने उसने बहुविवाह तथा निकाह हलाला की संवैधानिकता पर भी सुनवाई करने का अनुरोध स्वीकार कर लिया। उम्मीद की जानी चाहिए कि ये अदालती फैसले समता के संवैधानिक प्रावधानों को जीवंत बनाने तथा उनके अनुरूप समाज की मानसिकता गढ़ने में मददगार साबित होंगे।


Date:10-04-18

Good Neighbours

India and Nepal reset relations while agreeing to build on the cultural and historic ties.

Editorials

The visit of Nepal Prime Minister K P Oli has been hailed by both sides as “successful” in resetting the relationship. Whether this is true will become evident only with time. For the moment, Oli, who is viewed as “pro-China” in India, and his host, Prime Minister Narendra Modi, appeared to have made an effort to find meeting ground. The Nepali prime minister, whose visit to India came soon after he won a floor test with two-thirds of the 275-member Parliament backing him, is arguably the most powerful politician to lead his country in recent times. His rise on a nationalist platform mirrors Prime Minister Modi’s own style of politics, and though he kept the tradition of newly elected Nepal leaders visiting India first, he came demanding an equal friendship. Anxious about the Chinese footprint in Nepal, India showed it was ready to please.

Indeed, one of the main outcomes from the visit reflected India’s China anxiety. The two sides have agreed that India will build an electrified rail link between the Indian border town of Raxaul and Kathmandu, apparently in response to China’s reported plans to expand its railways from Tibet into Nepal. Prime Minister Modi described the project grandiosely as a plan to link the Everest to the ocean. Given India’s track record of completion of projects in other countries, the focus should be on getting this project on track and completing it without delay so that it gives people in Nepal — hundreds of thousands of them are employed in this country, study here, or visit regularly for business or religious tourism — easier access to the country’s vast rail network. A more ambitious project is to provide Nepal inland waterway connectivity to transport cargo. The two sides have opened up a new area of co-operation in agriculture. Oli is also reported to have brought up the need for India to complete unfinished projects such as the Pancheshwar dam on the river Mahakali, and to keep a commitment to build a road link the Terai.

The joint statement flags the resolve of the two prime ministers “to work together to take bilateral relations to newer heights on the basis of equality, mutual trust, respect and benefit”. It also references the cultural and historical ties between the two countries. Prime Minister Modi’s good governance mantra, Sabka saath sabka vikas, found mention in the statement as “a guiding framework for India’s engagement with its neighbours”. Such assertions are good for joint statements. Good neighbourliness can only come out of a deep understanding of each other, including the fact that a neighbour is bound to have more than one neighbour


 

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