01-12-2018 (Important News Clippings)

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01 Dec 2018
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Date:01-12-18

Boost Overall Growth, Not a Few Sectors

ET Editorials

The World Bank’s reported suggestion that India should re-orient its policies to drive high growth across sectors instead of focusing only on hi-tech firms is sound. Its global report on high-growth firms debunks the widely held notion that only startups in the hi-tech sector can grow fast, saying that high-growth firms flourish across sectors. It also bats for a balanced approach that closely looks at the behaviour of firms including their capacity to innovate while formulating policies to help them grow. This makes sense. Evidence from India also shows a strong link between innovation and firm growth. Innovation leads to higher productivity, and is also the best way to garner long-term competitive advantage. Policy focus should be to improve conditions for all industries, creating economy-wide competencies for them to grow.

However, successive governments have designed policies tailored towards favoured sectors, for example, the employment intensive textiles and garment industry. We still need more vigour in sectors such as manufacturing to raise its share in GDP. The knowledge and technology sectors, set up in special economic zones, too were offered incentives, but failed to take off on any large scale. Now, the government has taken measures to support startups. What is vital is not really a startup-specific policy but overall ease of doing business.

True, India has jumped 23 places to 77 in the World Bank’s global ranking of ease of doing business for 2019. We need robust infrastructure, functional and speedy administration, and flexible labour laws to revive investment and growth. The government must push for more structural reforms to enhance the supply of land, reform the power sector to ensure continuous power supply and expand the reach of formal finance.


Date:30-11-18

The Selfish Gene

A Chinese scientist claims to have genetically modified human embryos. But made-to-order babies are not imminent

Editorial

On the eve of the Second International Summit on Human Genome Editing in Hong Kong, the Chinese scientist He Jiankui announced that he had used the Crispr/Cas9 gene editing suite on human embryos. The claim was not preceded by the customary peer-reviewed paper, was not accompanied by evidence, and is being taken seriously only because of He’s academic standing. However, the impact has been enough to impel 122 Chinese scientists to issue a statement denouncing He’s act as “crazy” and a blot on the growing reputation of Chinese science. A global discussion on the implications of designer babies has broken out. But it’s premature.

He claims to have edited out a gene from embryos with HIV-positive fathers to stop production of a protein which the virus uses to cross the cell membrane. If they come to term, the offspring produced will not suffer from HIV. However, it is ridiculous to extrapolate from this breakthrough to designer babies programmed to grow Cleopatra’s nose or pre-loaded with Vishwanathan Anand’s opening game. Even the simplest human characteristics and traits are typically created by the interplay of thousands of genes, and it is technically impossible to edit genetic material on that scale. So the idea of designer babies still remains in the realm of science fiction, but we may be on the brink of preventing specific diseases, where the metabolic pathways of the pathogen are understood at the molecular level, by editing tiny sections of the human genome. Even so, it would be a fraught project, since unintended changes may be introduced in the region of the edited DNA, with consequences that cannot be anticipated.

The uncertainty of accurate gene editing is one of the reasons why the overwhelming majority of genetics researchers are cautious about playing God. Indeed, initial attempts at playing the role would have to be transparent — which He’s work is not — and conducted under the oversight of the scientific community, for want of a regulatory framework. At present, nations either ban or do not ban such research, and a more granular approach is required. At the same time, one must recall how much time has been wasted in the controversies over vaccination and genetically modified foods. Genetic engineering to improve human life is inevitable and perhaps researchers like He, who step out of line, would lend urgency to the obvious need for establishing the initial condition — regulation that is transparent and open, yet ruthlessly excludes Dr Frankensteins.


Date:30-11-18

आंदोलित किसान

संपादकीय

अपनी समस्याओं की गठरी लादे देश भर के किसान एक बार फिर दिल्ली के दरवाजे पर हैं। पिछले डेढ़ साल में शायद ही कोई ऐसा मौका रहा हो, जब देश के किसी कोने से किसानों के आंदोलन की खबर न आई हो। राजधानी दिल्ली में ही कुछ सप्ताह के भीतर ही किसानों का यह तीसरा बड़ा प्रदर्शन है। सितंबर में अखिल भारतीय किसान सभा के आह्वान पर किसान यहां जुटे थे, उसके बाद अक्तूबर में भारतीय किसान यूनियन ने रैली की थी। पिछले दिनों महाराष्ट्र में किसानों ने नासिक से मुंबई तक मार्च किया था, जिसने यह स्पष्ट कर दिया था कि किसानों की नाराजगी किस स्तर तक पहंुच चुकी है। अभी इस समय जब दिल्ली में किसान जमा हो रहे हैं, एक किसान रैली पश्चिम बंगाल के सिंगुर में हो रही है। सिंगुर में जमा हो रहे ये किसान अब कोलकाता की ओर मार्च करेंगे। जिन पांच राज्यों में इस समय चुनाव प्रक्रिया चल रही है, वहां भी चुनावी सभाओं में सभी राजनीतिक दल किसानों के घावों पर मरहम लगाते नजर आ रहे हैं। इस समय किसानों की नाराजगी देश के लगभग हर कोने में दिख रही है, जो यह बताता है कि जिसे कृषि संकट कहा जा रहा है, वह किसी एक संगठन, किसी एक दल या किसी एक भूगोल की समस्या नहीं, बल्कि देश के हर कोने का किसान इस समय परेशान भी है और निराश भी। पिछले कुछ साल में किसानों को जिस तरह आत्महत्या को बाध्य होना पड़ा, वह बताता है कि सरकार कहीं भी किसी की भी रही हो, किसानों की समस्याएं को हल करने में नाकाम रही है।

जो किसान इस समय इस देश भर में आंदोलित हैं, उनकी मांगें बहुत बड़ी भी नहीं हैं। हद से हद बिना शर्त एकमुश्त कर्ज माफी की मांग को हम ऐसा कह सकते हैं, जो देश के वित्त पर बड़ा असर डाल सकती है। लेकिन यह भी सच है कि एक के बाद एक तकरीबन हर राज्य में यह मांग मानी ही जा रही है। जहां अभी तक नहीं मानी गई, वहां भी राजनीतिक दल इसका वादा कर रहे हैं। दूसरी मांग फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने की है, जिसको पहले भी सरकारें समय-समय पर बढ़ाती रही हैं। एक मांग, जो पूरे देश में काफी समय से सुनाई दे रही है, वह स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों को लागू करने की है। अभी तक किसी सरकार की तरफ से यह स्पष्ट नहीं किया गया कि अगर यह मांग नहीं मानी जा रही है, तो इसमें बाधा क्या है? या इन सिफारिशों को मानने में दिक्कत कहां है? दिल्ली में जुटे किसानों की एक मांग यह भी है कि किसानों, कृषि और गांवों की समस्याओं के लिए संसद का एक विशेष सत्र बुलाया जाए। इसमें भी कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। अगर विशेष सत्र होता है, तो कृषि समस्याओं के विभिन्न पहलू सबके सामने आ सकेंगे और यह भी पता चल सकेगा कि इन पर किसका रुख क्या है?

हालांकि यह भी साफ है कि इस तरह की सभी मांगें मान लिए जाने में भी कृषि और ग्रामीण संकट के खत्म होने की गारंटी नहीं है। अभी जो मांगें हैं, वे किसानों को तत्काल राहत जरूर दे सकती हैं, लेकिन चुनौती उस कृषि संकट को जड़ से खत्म करने की है, जो पिछले काफी समय से बढ़ता हुआ अब खतरे के निशान को पार कर गया है। दुनिया की अर्थव्यवस्था बदल रही है और उसके बीच कृषि क्षेत्र को भविष्य के बदलावों के लिए तैयार करना एक कठिन मामला है, जिस पर अभी सोचा भी नहीं जा रहा। पर अब इससे बचा नहीं जा सकता।


Date:30-11-18

जलवायु वार्ता में विकसित देशों की अड़चन

मदन जैड़ा, ब्यूरो चीफ, हिन्दुस्तान

विकसित देशों के रवैये से पोलैंड में अगले महीने होने वाली जलवायु परिवर्तन वार्ता के विफल होने के आसार पैदा हो गए हैं। बैठक में पेरिस समझौते के क्रियान्वयन के लिए आगे की रणनीति बननी है। साथ ही पेरिस रूलबुक को भी अंतिम रूप दिया जाना है। लेकिन जिस प्रकार एक के बाद एक विकसित देश उत्सर्जन के अपने लक्ष्यों को टालने लगे हैं और अपनी जिम्मेदारियों से पीछे हट रहे हैं, उससे मुश्किल पैदा हो सकती है। दरअसल, कांफ्रेंस ऑफ पार्टी की यह 24वीं बैठक कई मामलों में अहम है। इसमें पेरिस समझौते के क्रियान्वयन के लिए रूलबुक को मंजूरी दी जानी है। इस रूलबुक के जरिये तय होगा कि पेरिस समझौते की घोषणाओं का क्रियान्वयन कैसे और कब होगा? लक्ष्य हर हाल में 2020 तक पेरिस समझौता लागू करने का है।

इस बैठक के अचानक ज्यादा महत्वपूर्ण बन जाने की कुछ और वजहें हैं। जैसे, आईपीसीसी की हालिया रिपोर्ट में तापमान बढ़ोतरी को 1.5 डिग्री तक सीमित रखने की बात कही गई है। जबकि पेरिस समझौते में इसे दो डिग्री से नीचे रखने की बात कही गई है। लेकिन 1.5 डिग्री के विशिष्ट लक्ष्य के मद्देनजर राष्ट्रों को अपने उत्सर्जन के लक्ष्यों को बदलना पड़ सकता है। इसमें भी पहल विकसित देशों को करनी होगी। पर ऐसी उम्मीद कम ही है। दूसरे, विकसित देशों को हरित कोष के लिए दी जाने वाली सहायता राशि में भी बढ़ोतरी करनी होगी, तभी गरीब और विकासशील देश अपने लक्ष्य हासिल कर सकेंगे। लेकिन विकसित देश पुरानी प्रतिबद्धता को ही पूरा करने में विफल रहे हैं।

बैठक का एजेंडा जितना महत्वपूर्ण है, उस पर सहमति बैठाना उतना ही कठिन होता दिख रहा है। रूलबुक को लागू करने पर गरीब और विकासशील देशों को कोई ऐतराज नहीं है। वे अपने तय लक्ष्यों के अनुरूप कार्य करने के लिए प्रतिबद्ध भी हैं। लेकिन जब पेरिस समझौते में सभी देशों ने जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने के लिए अपनी प्रतिबद्धता दोहराई थी और राष्ट्रीय लक्ष्यों की घोषणा की थी, तब विकसित देशों ने 2020 तक हरित कोष में 100 अरब डॉलर की राशि देने का एलान किया था। लेकिन आज तक यह कोष 20 अरब डॉलर तक भी नहीं पहुंच सका है। अमेरिका के बाद कई और देश भी तेवर दिखा रहे हैं। सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाला अमेरिका खुद पेरिस समझौते को तोड़कर अलग हो चुका है। ऑस्ट्रेलिया ने जो लक्ष्य पहले घोषित किए थे, अब उनसे पीछे हटने का ऐलान कर दिया है। जबकि जर्मनी ने कह दिया है कि लक्ष्यों को हासिल कर पाना उसके लिए संभव नहीं है। बाकी यूरोपीय देश तो अभी ट्रैक पर हैं, लेकिन अमेरिका वगैरह की मनमानी उन्हें भी उकसा सकती है। ऐसे में, फिर कोष में धन कहां से आएगा? इसी हरित कोष की उपलब्धता पर रूलबुक की सहमति टिकी है। मौजूदा स्थितियों में माना जा रहा है कि विकासशील और गरीब देशों के लिए पेरिस रूलबुक पर हामी भरना आसान नहीं होगा। यदि भारत, चीन जैसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले राष्ट्रों को छोड़ दिया जाए, तो बाकी विकासशील और गरीब देशों के लिए बिना किसी वित्तीय मदद के उत्सर्जन में कमी लाना बेहद कठिन काम है। भारत ने उत्सर्जन की तीव्रता में 35 फीसदी की कमी का एलान कर पेरिस समझौते पर बढ़ने के संकेत तभी दे दिए थे। लेकिन जिस प्रकार की कई कठिन चुनौतियां सामने हैं, जलवायु परिवर्तन के खतरे से निपटने के लिए भारत को भी विकसित देशों की मदद की दरकार है। इसलिए भारत अन्य समूहों की मदद से विकसित देशों पर दबाव बनाएगा।

पोलैंड बैठक से पूर्व हाल में दिल्ली में बेसिक देशों की बैठक में भी भारत ने इसी रुख को स्पष्ट किया था। बेसिक देशों ने कहा कि विकसित देश यदि वित्तीय योगदान का भरोसा अभी नहीं दे सकते, तो उन्हें 2020 के बाद भी समय दिया जाना चाहिए। जलवायु परिवर्तन को लेकर एक अहम विषय और है, जिस पर इस बैठक में विचार होना है। जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के चलते तबाही मचाने वाली आपदाएं आ रही हैं। इससे हुई क्षति की भरपाई का एक तंत्र विकसित करने की बात चल रही है ताकि जलवायु परिवर्तन से प्रभावित होने वालों को तुरंत मदद मिल सके।


Date:30-11-18

प्रयोगशाला में बने बच्चे और नए डर

विवेक वाधवा, फेलो, कार्नेगी मेलॉन यूनिवर्सिटी

चीन के एक वैज्ञानिक ने दावा किया है कि उन्होंने दुनिया के पहले ऐसे बच्चों को पैदा करने में सफलता पाई है, जिनके जीन्स में बदलाव किए गए हैं। ऐसी जुड़वां बच्चियां इस महीने की शुरुआत में पैदा हुई हैं। यह बताता है कि अब हम ‘डिजाइनर बच्चों’ के दौर में पहुंच गए हैं। यानी ऐसा बच्चा, जिसके जीन्स में मनमुताबिक बदलाव किए गए हों। यह भी उम्मीद बंधी है कि अब जल्द ही हमारे पास भ्रूण में इस कदर बदलाव करने की क्षमता भी आ जाएगी कि दुरूह बीमारियों को हम खत्म कर सकेंगे, त्वचा और आंखों का रंग बदल सकेंगे, और बच्चे में अतिरिक्त बुद्धिमता जोड़ सकेंगे। मगर सच यह भी है कि इस तकनीक के नतीजों को लेकर अब भी हमारी समझ शैशव-अवस्था में ही है।

जीन सुधार की यह तकनीक ‘क्लस्टर्ड रेगुलरली इंटरस्पेस्ड शॉर्ट पैलिन्ड्रोमिक रिपीट्स’ यानी सीआरआईएसपीआर कहलाती है। इसे हाल ही के वर्षों में वैज्ञानिकों ने ढूंढ़ा है। एक जीनोम से आनुवंशिक तत्व निकालकर उसे दूसरे में डालने की यह तकनीक लाखों वर्षों में विकसित हुई है। सीआरआईएसपीआर को किसी प्रयोगशाला में डीएनए में तत्काल बदलाव लाने का सबसे सस्ता और आसान तरीका माना जाता है। डीएनए के साथ किसी तरह के प्रयोग के लिए हाल-फिलहाल तक बेहतरीन प्रयोगशालाओं, वर्षों के अनुभव और लाखों डॉलर की दरकार होती थी। मगर सीआरआईएसपीआर ने सब कुछ बदल दिया है। दरअसल, कैस9 नामक एंजाइम के इस्तेमाल से यह तकनीक काम करती है, जो डीएनए के स्ट्रैंड में एक खास स्थान पर जमा रहता है। इसके बाद ही डीएनए में बदलाव की प्रक्रिया शुरू होती है, जिसमें आरएनए अणु बतौर गाइड काम करते हैं। अगर किसी प्रयोगशाला को सीआरआईएसपीआर तकनीक से लैस करना हो, तो आरएनए का एक टुकड़ा, ऑफ-द-शेल्फ रसायन और एंजाइम की ही जरूरत है, जिसे हासिल करने के लिए चंद डॉलर ही पर्याप्त हैं।

यह तकनीक सस्ती है और इसका इस्तेमाल भी आसान है, इसीलिए दुनिया भर के हजारों लैब इस तकनीक के साथ ‘एडिटिंग प्रोजेक्ट’ पर काम कर रहे हैं। चीन इस मामले में नेतृत्व की भूमिका में है, क्योंकि वहां नियमों की कोई बाधा नहीं है और मेडिकल एथिक्स या नैतिकता की ऐसी बेड़ी भी नहीं, जिससे दूसरे तमाम देश बंधे हुए हैं। चीन के वैज्ञानिकों ने 2014 में ही यह घोषणा की थी कि उन्होंने एक ऐसा बंदर पैदा करने में सफलता हासिल की है, जिसके लिए भ्रूण स्तर पर ही जीन्स में बदलाव किए गए थे। अप्रैल, 2015 में चीन के ही शोधकर्ताओं के एक अन्य समूह ने शोधपत्र जारी करते हुए बताया कि किस तरह उन्होंने पहली बार इंसानी भ्रूण के जीन्स में बदलाव करने की कोशिश की। हालांकि उनका वह प्रयास विफल रहा था, मगर उसने पूरी दुनिया को चौंका दिया। इसके बाद भी चीन के शोधकर्ताओं ने अप्रैल 2016 में एलान किया कि उन्होंने मानव भ्रूण के जीनोम को संशोधित करने में सफलता पा ली है, और ऐसा इसलिए किया गया, ताकि उसे एचआईवी के संक्रमण से बचाया जा सके।

साफ है कि यह एक गंभीर मर्यादा का उल्लंघन था। अभी यह विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता कि जीन को बदलने या उसे अक्षम बनाने का किस कदर प्रभाव पड़ेगा? मगर 1960 के दशक में यही माना जाता था कि जैसे-जैसे समय बीतेगा, हम मानव शरीर के निर्माण में प्रत्येक जीन की सटीक भूमिका जान पाएंगे। तब ऐसा अनुमान था कि हर जीन एक प्रोटीन के लिए कोड का काम करता है। और जब तमाम समानताएं हम जान जाएंगे, तो हमारे पास न सिर्फ अनुसंधान के लिए, बल्कि आनुवंशिक रोगों को ठीक करने व उसे रोकने के लिए और संभवत: मानव विकास को आगे बढ़ाने के लिए भी एक उपयोगी औजार होगा। हालांकि जेनेटिक्स को लेकर जब आम धारणा ‘वन जीन-वन प्रोटीन’ की बन रही थी, तभी वैज्ञानिकों ने पाया कि कई प्रोटीन में कई पॉलीपेप्टाइड्स भी शामिल हैं, जिनमें से प्रत्येक को जीन द्वारा कोड किया गया था। नतीजतन, सिद्धांत बदल गए और नया नियम ‘वन जीन-वन पॉलीपेप्टाइड’ हो गया। मगर 1970 के दशक में आए एक अन्य सिद्धांत ने पिछली तमाम धारणाओं को खंडित कर दिया। उस नई खोज से साबित हुआ कि एक जीन एक से अधिक प्रोटीन के लिए कोडिंग कर सकता है। हालांकि साल 2000 में हुई एक अन्य खोज ने यह साबित कर दिया कि जीन को लेकर अब भी हमारी समझ पूरी तरह नहीं बन पाई है। यह सिद्धांत बताता है कि एक अकेला जीन संभवत: हजारों प्रोटीन के लिए कोडिंग कर सकता है

संक्षेप में कहें तो हम नई तकनीक की सीमाओं से अनजान हैं। हम यह अंदाज नहीं लगा सकते कि एक जीन को बदलने मात्र से किसी व्यक्ति के जीवन पर क्या असर पड़ेगा? इससे आने वाली पीढ़ियां कितनी प्रभावित होंगी? इन्हीं सब वजहों से हमें यह भी नहीं पता कि मानव में रोगाणु-कोशिकाओं की आनुवंशिक शृंखला में सुधार अंतत: विनाशकारी होगा, और आनुवंशिक जीन्स से छेड़छाड़ मानवीय या नैतिक हो सकती है?

भारत में अल्ट्रासोनोग्राफी जैसी तकनीक के कारण पहले से ही लैंगिक असमानता है। यहां हर 107 पुरुषों पर सिर्फ 100 महिलाएं हैं। यहां माता-पिता में जिस तरह लड़कों की चाह है, उसे देखकर यही लगता है कि गोरा रंग और तेज दिमाग, यहां तक कि अतिरिक्त ऊंचाई व शारीरिक ताकत पाने की इच्छा जल्द ही देश में इन तकनीकों की सहायता से ‘श्रेष्ठतम’ बच्चे पैदा करने की स्पद्र्धा शुरू कर देगी। जबकि हम यह तक नहीं जानते कि यह ‘श्रेष्ठता’ क्या है? अगर गोरा रंग और कुशाग्र बुद्धि ही किसी इंसान को श्रेष्ठ बनाती, तो महान लोग अमूमन इस कसौटी पर फेल साबित होंगे। निश्चय ही इंसान आज इस मुकाम पर पहुंच गया है कि वह खुद अपनी जन्म प्रक्रिया में संशोधन कर सकता है। मगर सवाल वही है कि क्या इस ताकत का हम जिम्मेदारी भरा इस्तेमाल कर सकेंगे, ताकि मानव जाति और इस धरती को इसका फायदा मिले?


Date:30-11-18

चीन की आर्थिक घेरेबंदी भारत के लिए बड़ी चुनौती

पंकज कुमार पाण्डेय

चीन की ओर से नेपाल में आधारभूत संरचना के क्षेत्र में भारी निवेश को लेकर भारत चिंतित है। गत आठ महीनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग विश्वास बहाली के लिए तीन बैठकें कर चुके हैं और चौथी बैठक इसी हफ्ते जी-20 की सम्मेलन में होने जा रही है। लेकिन वास्तविकता यह है कि चीन लगातार पड़ोसी देशों में अपना आर्थिक मदद का जाल फैलाता जा रहा है। .

चीन का श्रीलंका में निवेश बढ़ा है। मालदीव में सरकार बदलने से स्थिति में सुधार हुआ है। लेकिन नेपाल की चीन समर्थक ओली सरकार से भारतीय समीकरण गड़बड़ा गए हैं। भारत ने नेपाल में चीन समर्थित कई परियोजनाओं की समीक्षा की है। इनमें काठमांडू मोनोरेल, 1200 मेगावाट की बूढ़ी गंडक जल विद्युत परियोजना, त्रिभुवन हवाई अड्डे का जीर्णोद्धार जैसी योजनाएं शामिल है। सूत्रों और कूटनीतिक जानकारों की मानें तो भारत, नेपाल पर संतुलन बनाए रखने के लिए दबाव बना रहा है। लेकिन खुले तौर पर इन योजनाओं का विरोध नहीं कर सकता है। परंतु कोशिश है कि काठमांडू और नई दिल्ली के संबधों की प्रगाढ़ता बढ़े। परंतु ओली सरकार रोड़ा बनी हुई है। नेपाली कांग्रेस के विरोध के बावजूद बूढ़ी गंडक जल विद्युत परियोजना चीनी कंपनी को बिना प्रतिस्पर्धी निविदा के देना इसका उदाहरण है।

इसलिए नेपाल का साथ चाहते हैं दोनों देश

भारत

भारत-नेपाल भरोसेमंद मित्र देश रहे हैं। दोनों देशों के बीच खुली सीमा है और सांस्कृतिक व व्यपारिक संबंध हैं। भारत कई बड़ी परियोजनाओं पर नेपाल में काम कर रहा है। भारत-चीन के बीच नेपाल बफर स्टेट की तरह है।

चीन

चीन ने नेपाल में बीते कुछ सालों में अपना प्रभाव बढ़ाने का प्रयास किया है। वह आधारभूत ढांचे में भारी निवेश कर खुद को काठमांडू के करीब ला रहा है। चीन के लिए नेपाल का सामरिक व रणनीतिक महत्व है।


 

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