06-01-2018 (Important News Clippings)

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06 Jan 2018
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Date:06-01-18

India must build more dams to store water

ET Editorials

The rising dispute between Odisha and Chhattisgarh over sharing water from the Mahanadi is, at its core, one of storage or the lack of it. Reports say that Chhattisgarh wants to build as many as 13 barrages in the upper catchment area, and Odisha is opposed to such plans.The problem with barrages is that they can well divert, but cannot store, water. And to better use its water resources, Chhattisgarh ought to be building dams in the upper riparian so as to purposefully increase its storage infrastructure.It is true that dams are far more costly to design and construct than barrages, often by a factor of 10. But the fact remains that we lack adequate water storage nationally, and the way ahead is to better allocate resources remedy this key deficit.

Meanwhile, water resources minister Nitin Gadkari has urged Odisha to settle the Mahanadi water-sharing dispute with Chhattisgarh through dialogue, and he is spot on. Setting up a tribunal can merely delay resolution.The Cauvery and Ravi-Beas river tribunals have now been in existence for 25 years without any award. In any case, we do need to boost water storage infrastructure, which remains only about 253 billion cubic meters (BCM) nationally. Water demand is now estimated at about 1,110 BCM and rising, with 80% earmarked for agriculture and the rest almost equally shared between industry and households.

While annual precipitation adds up to about 4,000 BCM (including snowfall) here, much of it during the first few weeks of the monsoons, due to topographic, hydrological and other technical constraints, utilisable water amounts to only about 1,123 BCM nationwide. It is all the more reason for heightened water storage facilities. We all need to boost reuse and economise on water usage, to turn sustainable on water.


Date:06-01-18

नई चुनौतियों से पैदा होंगे नए अवसर

घरेलू दुर्बलताएं और बाहरी अनिश्चितताएं नए साल में भी भारतीय विदेश नीति को तय करेंगी।

श्याम सरन, (लेखक पूर्व विदेश सचिव और फिलहाल सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के वरिष्ठ अध्येता हैं)

विदेश नीति को प्रसारवादी स्वरूप देने की मोदी सरकार की मंशा और उसकी जोशीली आकांक्षाओं को वर्ष 2017 में भारतीय राज्य की संस्थागत कमजोरियों और उसकी संरचनात्मक रुग्णता का सामना करना पड़ा। आंखों को भाने वाली घटनाएं, उच्च-स्तरीय विदेश दौरे और खुद प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत कूटनीति भी अपेक्षित परिणाम दे पाने में इस संस्थागत अक्षमता की भरपाई नहीं कर पाई। दूसरे देशों के साथ संबंधों में मौजूद खामियां दूर करने के कहीं अधिक मुश्किल काम को अंजाम देने के दबाव ने कभी-कभी तो पहले से ही कमजोर क्षमताओं को लगभग शून्य ही कर दिया। वैसे भारतीय विदेश नीति की समग्र संकल्पना काफी ठोस है। पड़ोसी देशों को अहमियत देने जैसे तमाम बिंदुओं को अच्छी तरह रेखांकित किया गया है। भारत की ऊर्जा सुरक्षा और अपने 60 लाख से अधिक भारतीय कामगारों के हितों को ध्यान में रखते हुए खाड़ी देशों और ईरान के साथ अधिक उद्देश्यपरक संपर्क स्थापित किया गया है। इसी तरह अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ संबंधों को विस्तार देने में भी अपेक्षाकृत कम हिचकिचाहट नजर आई है। दक्षिण-पूर्व एशिया अब भी भारतीय विदेश नीति के एजेंडे में शीर्ष पर है। आसियान के सभी सदस्य देशों के शासन प्रमुखों को 2018 के गणतंत्र दिवस समारोह में मुख्य अतिथि के तौर पर शामिल होने का निमंत्रण देना एक चतुराई भरा कदम है।

समस्या यह है कि हम अपनी प्रसारवादी विदेश नीति को अंजाम देने या जरूरत पडऩे पर अपनी गलतियां दुरुस्त करने के लिए जरूरी संस्थागत एवं मानव संसाधन क्षमताओं का विकास नहीं कर पाए हैं। मसलन, पाकिस्तान अब भी हमारी विदेश नीति का बड़ा हिस्सा ले लेता है जबकि हमारी नीति उसे अलग-थलग करने की रही है। एक अजीब आलस्य हमें इसकी समीक्षा से रोकता है। यह सच है कि भारतीय विदेश नीति को एक ऐसे अंतरराष्ट्रीय परिवेश में काम करना पड़ रहा है जो लगातार जटिल होने के साथ त्वरित बदलावों से भरा है। भू-राजनीतिक स्थिति में बदलाव का दौर जोखिम वाला होता है। डॉनल्ड ट्रंप के अमेरिका के राष्ट्रपति बनने के बाद से ही लगातार अनिश्चितताएं और अधिकांशत: अरुचिकर अचरज दिख रहे हैं। यूरोप अब भी ब्रेक्सिट के चलते पैदा हुए गतिरोधों और पूर्वी यूरोप के सदस्य देशों की नाफरमानी से निपटने में फंसा हुआ है। बहुस्तरीय संस्थाओं और शासन-सत्ताओं को हाशिये पर धकेला जा रहा है। चीन ने महाशक्ति का दर्जा हासिल कर लिया है और खुद के लिए सामंतवादी प्राधिकारों का दावा करने में अब कम संकोच दिखाता है। हमारे उप-महाद्वीप के पड़ोसी देशों को चीन अपने विस्तारवाद का हिस्सा बनाने की कोशिश में लगा हुआ है जिससे नए साल में भारत की चिंताएं और भी बढ़ेंगी।

इसके साथ ही कोरियाई प्रायद्वीप में परमाणु संकट गंभीर रूप अख्तियार कर सकता है जिसका अंत दुनिया की बड़ी ताकतों के बीच खतरनाक संघर्ष के तौर पर हो सकता है। उत्तर कोरिया के परमाणु हथियार कार्यक्रम पर नकेल कसने का वक्त कभी का बीत चुका है। इस मामले में इकलौता रास्ता यही हो सकता है कि परमाणु संकट को और गंभीर होने से रोका जाए। हालांकि अब भी कूटनीतिक हलकों में ऐसे मिथकों पर यकीन बना हुआ है कि चीन अपने इस पड़ोसी देश को रास्ते पर ला सकता है। लेकिन ऐसा कुछ नहीं होगा। न ही वह उत्तर कोरिया पर प्रतिबंध लगाएगा क्योंकि इससे वहां पर सत्ता परिवर्तन के आसार बन सकते हैं। लेकिन उत्तर कोरिया के परमाणु हथियार कार्यक्रम को रोक पाने में किसी भी तरह की नाकामी जापान और दक्षिण कोरिया पर अरुचिकर विकल्प अपनाने का दबाव डाल सकती है। क्या ये दोनों देश परमाणु खतरे का मुकाबला करने के लिए खुद को भी परमाणु हथियारों से लैस करने के बारे में सोचेंगे? भारत पर इन घटनाओं का गहरा असर पड़ेगा। इसमें तमाम जोखिम होंगे लेकिन यह कई अवसर भी पैदा करेगा।

विदेशी अनिश्चितताओं से निपटने के लिए विदेश नीति से संबंधित मजबूत संस्थानों और बड़ी संख्या में काबिल राजनयिकों की जरूरत पड़ेगी ताकि जोखिम कम करने के साथ ही भारत के हितों का भी ध्यान रखा जा सके। मेरा मानना है कि भारत जैसी उभरती शक्तियों के लिए मौजूदा वक्त भू-राजनीतिक संक्रमण का है जो उनका प्रभाव बढ़ाने और उनके हितों का पोषण ही करेगा। एक दृढ़ एवं व्यवस्थित भू-राजनीतिक परिदृश्य की प्रकृति ही ऐसी होती है कि उसमें नई ताकतों के लिए कम अवसर होते हैं। ऐसे में ताजा अंतरराष्ट्रीय हालात भारत के लिए कुछ हद तक अनुकूल साबित हो सकते हैं।न तो स्थापित शक्तियां और न ही उभरती ताकतें यह चाहेंगी कि लगातार बदलता परिदृश्य एक ऐसे अंतरराष्ट्रीय स्वरूप में तब्दील हो जिसमें किसी एक या दूसरे देश का दबदबा हो। यह अहसास मजबूत हो रहा है कि अमेरिका की वैश्विक उत्कृष्टता का दौर अब बीत चला है और पूरी दुनिया नहीं तो एशिया पर चीन का प्रभुत्व स्थापित होने की संभावना काफी अधिक है। चीन छोटी-छोटी शक्तियों के एक संकेंद्रित ढांचे के जरिये यह मुकाम हासिल करने की पूरी कोशिश करेगा। अगर ऐसा नहीं होने देना है तो भारत की भूमिका काफी अहम होगी और चीन को भी इस सच्चाई का अहसास है। डोकलाम विवाद की वजह और मंशा चाहे जो भी रही हो, चीन की कड़ी प्रतिक्रिया से यह जरूर लगा कि पड़ोसियों की सीमा में लगातार आगे बढऩे की उसकी आदत पर कड़ा एतराज जताने से वह अचंभित और व्यथित है। उसके बाद भारत ने शी चिनफिंग के महत्त्वाकांक्षी प्रोजेक्ट बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव का हिस्सा बनने से भी इनकार कर दिया था।

वर्ष 2018 में बड़ा मुद्दा यह होगा कि क्या भारत एशिया और विश्व स्तर पर उभरती व्यवस्था को आकार देने में अपनी अहमियत का लाभ उठा सकता है? भारत को उच्च वृद्धि पथ पर अग्रसर होने के लिए अपने प्रमुख साझेदार देशों की आर्थिक एवं तकनीकी संसाधनों का दोहन करना होगा। अगर भारत अपने सहयोगियों की मदद से नई व्यवस्था को आकार देता है तो उससे शक्ति असमता कम करने के साथ ही चीन को भी साधा जा सकेगा। जैसे, जापानी कंपनियां अपना निवेश एवं बाजार चीन से बाहर ले जाना चाहती हैं और केवल भारत ही ऐसा देश है जो उन्हें उस तरह का विकल्प मुहैया करा सकता है। क्या हम व्यापक रूप से सुधरा हुआ निवेश एवं नियामकीय परिवेश मुहैया कराने के लिए जरूरी कदम उठाने को तैयार हैं ताकि इस बड़े बदलाव को मूर्तरूप दिया जा सके? यह उसके साझेदार देशों के लिए भी बढिय़ा रहेगा क्योंकि इससे उन्हें चीन की अर्थव्यवस्था के दबदबे में रहने के लिए मजबूर नहीं होना पड़ेगा। अतिरिक्त लाभ यह होगा कि खुद चीन भी पीछे नहीं रहना चाहेगा।

जैसे ही भारतीय प्रगति का आख्यान बदलना शुरू होगा, विदेश नीति संबंधी उसके विकल्प भी बढ़ते जाएंगे। वर्ष 2003-07 के दौर में भी हम ऐसा होता हुआ देख चुके हैं। उस समय भारत को चीन के करीब पहुंचते और उसे पार करते हुए देखा जा रहा था। उस समय हमें अमेरिका और चीन दोनों के साथ विदेश नीति के मोर्चे पर दो बड़ी कामयाबियां मिली थीं। उसका नतीजा यह हुआ था कि हमारे पड़ोस, दक्षिण-पूर्व एशिया और यूरोप में भी हमारी सामरिक हैसियत बढ़ी थी। हमें एक बार फिर वह हैसियत पाने की जरूरत है लेकिन उसके लिए हमें प्रभावी विदेश नीति की बड़ी बाधा मानी जाने वाली संस्थागत एवं मानव संसाधन सीमाओं से पार पाना होगा। अपनी आकांक्षाओं और क्षमताओं के बीच फासला बढऩा अब हम और बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं। उम्मीद है कि 2018 एक ऐसा साल होगा जब भारतीय विदेश नीति में दिखावा कम और व्यवस्थागत बदलाव अधिक होंगे। बिना किसी मकसद वाला आडंबर उपहास को ही न्योता देता है। अगर हम अपनी प्रतिबद्धता पूरी कर पाते हैं तभी एक महान ताकत के रूप में हमारी विश्वसनीयता बन पाएगी।


Date:06-01-18

संसदीय सद्भाव की जरूरत

संपादकीय

संसद के शीतकालीन सत्र की समाप्ति अप्रिय माहौल में हुई। तीन तलाक की कुप्रथा रोकने के लिए लाए गए बिल पर राज्यसभा में विपक्ष के व्यवहार ने गैरजरूरी कड़वाहट पैदा की। यह समझना मुश्किल है कि लोकसभा में इस विधेयक का समर्थन करने में कांग्रेस को एतराज नहीं था, तो फिर अचानक राज्यसभा में उसने विरोधी रुख क्यों अख्तियार कर लिया? स्पष्टत: ऊपरी सदन में उसने विपक्ष की मजबूत उपस्थिति का बेजा फायदा उठाने की कोशिश की। इसके पहले गुजरात विधानसभा चुनाव के प्रचार अभियान के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा दिए एक भाषण को लेकर उसने इस सदन में कई दिनों तक व्यवधान खड़ा किया। विपक्ष के ऐसे सलूक का ही नतीजा है कि राज्यसभा में कुल समय के महज 56 फीसदी का ही उपयोग हो पाया। जबकि लोकसभा में, जहां विपक्ष की कमजोर मौजूदगी है, 91 फीसदी समय का सार्थक उपयोग हुआ।

बहरहाल, संसद शक्ति के सिद्धांत से चले, यह कतई वांछित नहीं है। लोकतंत्र का मूलमंत्र विरोधी की बात की सुनना, बहस, आम-सहमति अथवा मतभेदों को स्वीकार कर आगे बढ़ना है। संसद लोकतंत्र का मंदिर है। वहां शोरगुल और हंगामा दुर्भाग्यपूर्ण है। शीतकालीन सत्र के पूरा होते ही बजट सत्र का कार्यक्रम घोषित हो गया है। क्या 29 जनवरी से शुरू हो रहे उस अधिवेशन में दोनों पक्ष व्यवधान, हंगामे और अनावश्यक स्थगन से बचने की राह निकाल पाएंगे? सरकार को उचित सदाशयता दिखाते हुए इसके लिए पहल करनी चाहिए।

विपक्ष का आरोप है कि एनडीए सरकार संसदीय स्थायी समितियों की व्यवस्था की अनदेखी कर रही है। पिछले साढ़े तीन वर्षों में बहुत से विधेयकों को बिना स्थायी समितियों में भेजे पास कराया गया। उचित होगा कि केंद्र इस बारे में विपक्ष से बातचीत करे। स्थायी समितियों की उपयोगिता पर दोनों पक्षों में सहमति बन सके, तो विधेयकों को पास कराने में विवाद से बचा जा सकेगा। इसी सत्र में राष्ट्रीय आयुर्विज्ञान आयोग विधेयक को लेकर एक दूसरी तरह का विवाद खड़ा हुआ। डॉक्टरों के संगठन आईएमए ने इस मांग को लेकर हड़ताल की कि ये बिल स्थायी समिति को भेजा जाए, ताकि वे इस पर अपना पक्ष उसके सामने रख पाएं। कहने का तात्पर्य यह कि स्थायी समितियों की भूमिका पर नए सिरे से चर्चा की जरूरत है।

सरकार और विपक्ष दोनों को हरसंभव प्रयास करना चाहिए कि आगामी बजट सत्र सुचारू रूप से चले। उस दौरान मोदी सरकार अपने वर्तमान कार्यकाल का आखिरी पूर्ण बजट पेश करेगी। खासकर कृषि और ग्रामीण क्षेत्रों को इस बजट से बहुत उम्मीदें हैं। विपक्ष का दायित्व है कि वह संसद के मंच से बजट की तथ्यात्मक एवं विवेकपूर्ण आलोचना देश के सामने के सामने प्रस्तुत करे। लेकिन ऐसा वह तभी कर पाएगा, जब वह संसद को ठीक से चलाने में सहायक बनेगा। यह बार-बार साफ हुआ है कि लोग सभी दलों से जिम्मेदार व्यवहार की अपेक्षा रखते हैं। इसके विपरीत विपक्षी दलों ने रुकावट डालना जारी रखा, तो उन्हें याद रखना चाहिए कि मतदाता संसद के बर्बाद हुए हर पल का हिसाब अगले चुनाव में करेंगे।


Date:06-01-18

अतीत की खातिर भविष्य से खिलवाड़

बद्री नारायण , (लेखक समाज विज्ञानी व जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, इलाहाबाद के निदेशक हैं)

इतिहास यूं तो कहने-सुनने, पढ़ने-पढ़ाने का विषय है, किंतु जब वह कहने-सुनने, पढ़ने-पढ़ाने से निकलकर किसी समाज में तनाव और हिंसा का कारण बनने लगे तो सभी को चिंतित होना चाहिए। भारतीय समाज में पिछले दिनों लगातार इतिहास को केंद्र में रखकर या उसका उल्लेख करके विवाद, तनाव एवं हिंसा को भड़काया जा रहा है। यह तो अभी हाल की बात है कि पद्मावती के ऐतिहासिक चरित्र को लेकर अर्से तक विवाद बढ़ाया गया। फिल्म ‘पद्मावती के विरोध में धरना-प्रदर्शन के साथ तोड़फोड़ की घटनाएं होती रहीं। पद्मावती के ऐतिहासिक चरित्र के फिल्मीकरण को लेकर विवाद अभी पूरी तरह खत्म भी नही हुआ था कि पुणे के पास भीमा-कोरेगांव में हिंसा भड़क उठी। इस हिंसा के विरोध में महाराष्ट्र बंद के दौरान भी अनेक हिंसक घटनाएं हुईं। एक समय महाराष्ट्र में जेम्स मेकलेन की शिवाजी पर केंद्रित पुस्तक को लेकर काफी तनाव फैला था। उनकी पुस्तक जलाई गई और भंडारके इंस्टीट्यूट पुणे के पुस्तकालय में आग लगाई गई। भीमा-कोरेगांव में विवाद एवं तनाव और फिर हिंसा का कारण बना दो सौ साल पहले हुए एक युद्ध का स्मरण। जब अंग्रेजों के खिलाफ देशी राजाओं का संघर्ष जारी था, तब एक जनवरी, 1818 को अंग्रेजी सेना एवं पेशवा बाजीराव द्वितीय की सेना में संघर्ष हुआ। इस युद्ध में अंग्रेजों की सेना ने पेशवा को परास्त कर दिया। अंग्रेजों ने इस जीत के उपलक्ष्य में भीमा-कोरेगांव में एक स्मारक स्थापित किया। कहते हैं कि अंग्रेजों की जिस सेना ने पेशवा को परास्त किया, उसमें महार जाति के सैनिक ज्यादा थे। महाराष्ट्र के दलित विशेषकर महार इसे अपनी जीत मानते रहे हैैं एवं प्रतिवर्ष एक जनवरी को भीमा-कोरेगांव में एकत्र होकर ‘शौर्य दिवस एवं ‘गर्व दिवस मनाते हैं। इसके विपरीत गैरदलित मराठा और कुछ ओबीसी सामाजिक समूह इसे अपने लिए ‘शर्म की घटना मानते हैं, क्योंकि इस घटना के वृतांत में उनकी ‘पराजय की कथा है, जिसे वे कहने-सुनने एवं सेलिब्रेट करने के विरुद्ध हैं।

महाराष्ट्र में दलित आबादी लगभग 10.2 प्रतिशत है। वहां लगभग 59 दलित जातियां हैं। इनमें महार सबसे बड़ी दलित जाति है। वह महाराष्ट्र की पूरी दलित जनसंख्या का 57.5 प्रतिशत है। ब्रिटिश सेना में महार रेजिमेंट भी थी। महार ब्रिटिश सेना में नौकरी करने और आजादी के बाद की जनतांत्रिक नीतियों से लाभान्वित होकर बोलने एवं प्रतिरोध करने की क्षमता से लैस हो चुके हैं। यह समूह अब ‘मूक समुदाय नहीं रहा, जो आंबेडकर द्वारा कभी विमर्श में लाए गए ‘मूक भारत का हिस्सा कहा जाता था। वस्तुत: इतिहास जब किताबों से बाहर निकलकर दृश्य, प्रदर्शन अथवा कर्मकांडीय आयोजनों का हिस्सा बन जाता है, तो ज्यादा प्रभावी हो जाता है। इतिहास की घटनाएंं जब वृतांतों से बाहर आकर स्मारकों, नाटकों, उपन्यासों, फिल्मों या फिर ‘शौर्य दिवस जैसे आयोजनों का रूप ले लेती है तो वे दृश्यपरक होकर हमारी स्मृति का हिस्सा बनकर उन्हें बार-बार कुरेदने लगती हैं।इतिहास की एक ही घटना एक साथ दोहरा परिणाम दे सकती है। एक घटना विशेष जहां एक समुदाय के लिए ‘गर्व का विषय हो सकती है, वहीं दूसरे समुदाय में ‘शर्म का भाव जगा सकती है। इतिहास जब अकादमिक ज्ञान से निकलकर ‘पब्लिक हिस्ट्री का रूप ले लेता है तो खतरे बढ़ जाते हैं। पब्लिक हिस्ट्री के रूप में इतिहास एक तरफ जहां हमें ‘गर्व एवं सामाजिक सशक्तीकरण प्रदान करने वाली शक्ति दिखता है, वहीं दूसरी तरफ हम उसे अत्यंत बलहीन मानते हुए उसे बचाने के लिए मरने-मिटने को तैयार हो जाते हैं। आखिर जो इतिहास हमें शक्तिवान बनाता है, वह इतना कमजोर कैसे हो सकता है कि यदि कोई उसकी आलोचना करे या उसका कोई और रूप सामने लाए तो हमें हिंसा का सहारा लेना पड़े?

ऐतिहासिक घटनाएं एवं वृतांत अटल सत्य की तरह नहीं होते, वे स्रोतों के माध्यम से विकसित होते हैं। स्रोत कई तरह के हो सकते हैं। कई बार एक ही ऐतिहासिक घटना नए स्रोतों के सामने आने के बाद किसी अन्य रूप में भी सामने आ सकती है। हमें इस नए रूप या यूं कहें कि ऐतिहासिक घटनाओं के बहुल वृतातों को स्वीकार करने के लिए तैयार रहना होगा। हो सकता है कि आज जो स्रोत हमारे सामने उपलब्ध है, उससे कोई ऐतिहासिक चरित्र नायक दिखता हो, लेकिन नए स्रोत आने पर उसमें कुछ खलनायकत्व के भाव भी दिख सकते हैं। हमें यह मानना होगा कि नायक हर क्षण नायकत्व से ही लैस नही होता। उसमें कमजोरियां भी हो सकती हैं। इतिहास के वृतांत जब सामाजिक एवं जातीय स्मृतियों का रूप ले लेते हैं तो वे जातीय गर्व का हिस्सा बन जाते हैं। जातियां उनके लिए मरने-मारने को तैयार हो जाती हैं। ऐसे में इतिहास तथ्यों पर आधारित आलोचनात्मक ज्ञान विमर्श से निकलकर ‘मिथक का रूप ले लेता है। इसे ‘मायथो हिस्ट्री यानी मिथकीय इतिहास कहा जाता है। मिथकीय इतिहास की जरूरत प्राय: उन उपेक्षित समूहों को ज्यादा होती है, जो अपनी अस्मिता निर्मित करने की चाह में होते हैं। उत्तर प्रदेश में बहुजन आंदोलन ने पिछले 30 वर्षों में अत्यंत इनोवेटिव ढंग से अपने अनेक नायक खोजे एवं उनके आधार पर अस्मिता की राजनीति की। महाराष्ट्र में भी दलित आंदोलन ने अपने मिथकीय इतिहास के आधार पर अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़ी है। ‘अस्मिता की राजनीति में अनेक संभावनाएंं हैं तो उसकी अपनी सीमाएं भी हैं। उसकी सबसे बड़ी सीमा यही है कि उसमें हमेशा कोई न कोई ‘बनाम होता है। दलित बनाम सवर्ण या दलित बनाम मराठा जैसे समीकरण के बिना अस्मिता की राजनीति अपनी धार खो देती है। यही ‘बनाम संघर्ष एवं हिंसा का भाव पैदा करता है। ‘बनाम की राजनीति उपेक्षित समूहों की अस्मिता निर्माण की प्रक्रिया के प्रारंभ में महत्वपूर्ण हो सकती है, किंतु धीरे-धीरे इसे तिरोहित होना होगा और समरस समाज बनाने की दिशा में अग्रसर होना होगा। ऐसे समरस समाज को डॉ. आंबेडकर ने ‘बूंद एवं समुद्र के मिलन के रुप में देखा था ।

नि:संदेह रोटी के साथ सामाजिक सम्मान की जरूरत होती है और सामाजिक सम्मान के लिए अस्मिता चाहिए। अस्मिता के लिए नायक एवं ‘मिथकीय इतिहास चाहिए, किंतु हमें यह भी मानना होगा कि ऐसा इतिहास सुनने-समझने, समझाने का ज्ञान है, न कि हिंसा भाव जगाने के लिए। अस्मिता जरूरी है, किंतु प्रश्न उठता है कि अस्मिता के बाद क्या? अस्मिता के बाद का अगला चरण विकास की चाह है, किंतु विकास की चाह के बाद पुन: जातीय अस्मिता के दौर में लौट आना कहीं न कहीं हमारे विकास की अवधारणा को फिर से समझने के लिए बाध्य कर रहा है। ऐसा माना जाता है कि विकास जब जनतांत्रिक अवसरों का समान बंटवारा एवं सबको सम्मान देने के वादे में सफल होने लगता है तो अस्मिता की राजनीति की जरूरत नहीं रह जाती। क्या विकास के हमारे प्रयासों में कोई कमी रह जा रही है? इस प्रश्न पर गंभीरता से विचार करना होगा। अगर वर्तमान जरूरी है और उसके जरिए भविष्य बनाना है तो अतीत के लिए इतनी हिंसा क्यों? ऐसे एक नहीं अनेक प्रश्न भारतीय समाज के समक्ष मुंह बाए खड़े हैं। हमें उनका जबाव देना होगा।


 

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