07-09-2019 (Important News Clippings)

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07 Sep 2019
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Date:07-09-19

India-Russia 2.0

Strategic opportunities can upgrade an old friendship

TOI Editorials

Prime Minister Narendra Modi’s visit to Russia was an opportunity to recalibrate one of New Delhi’s most stable relationships. Notwithstanding the history of cooperation, the current geopolitical climate called for updating ties. India over the last two decades has rightly diversified its strategic partnerships and has a much closer relationship with the West today. Yet, there are many things that Moscow brings to the table for New Delhi that cannot be replaced. Thus, a balance had to be struck and the common ground was found in Russia’s Far East. India has announced an unprecedented $1 billion line of credit for the vast, remote Russian region which is known to be rich in resources.

The renewed focus on the Russian Far East not only presents economic opportunities but also bears a strategic dimension. This region borders China and Beijing is seen to be trying to increase its influence here. Overall, there is a sense that Russia is becoming too dependent on China with Moscow being limited globally by American sanctions. This is where India boosting its presence in the Russian Far East provides balance for Moscow.

For New Delhi, the Russian Far East provides opportunity to Indian companies to tap the region’s vast resources. Meanwhile, it is clear that energy and nuclear power are going to be a key pillar of India-Russia ties. This was reflected in the agreements signed on expanding cooperation in the oil and gas sector, as well as in the review of progress in civil nuclear cooperation. On the military front, Russia has always been a key provider of weapons platforms for India. But cooperation needs to be taken to the next level through the framework of Make In India in defence. The game changer here would be technology transfers and fast tracking co-production of major platforms.


Date:07-09-19

आर्थिक सुधारों से ही बदलेगी तस्वीर

अर्थव्यवस्था को सुस्ती से उबारने हेतु तुरंत कुछ साहसिक फैसले लेने होंगे, ताकि जीडीपी की ऊंची वृद्धि के दौर में दाखिल हो सकें।

जीएन वाजपेयी , (लेखक सेबी व एलआईसी के पूर्व चेयरमैन हैं)

वर्ष 2014 के आम चुनाव में भाजपा ‘सबका साथ, सबका विकास के जिस नारे के साथ चुनाव मैदान में उतरी थी, वह कारगर रहा। इस नारे ने मतदाताओं के मानस को कुछ इस कदर प्रभावित किया कि भाजपा लोकसभा की 282 सीटें जीत गई। फिर आया 2019 का चुनाव, जिसमें ‘मोदी है तो मुमकिन है नारे ने असर दिखाया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछली बार से भी बड़ी सफलता हासिल करते हुए 303 सीटों के साथ सत्ता में वापस लौटे। 2019 के चुनाव में जीत के बाद भाजपा मुख्यालय में पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने ‘सबका साथ, सबका विकास नारे में ‘सबका विश्वास और जोड़ दिया। इस नए जुड़ाव के साथ उन्होंने राजनीतिक विमर्श को जो नई दिशा दी, उस पर बहुत ज्यादा टीकाकारों ने गौर नहीं किया। यदि इसकी गहराई से पड़ताल की जाए तो मालूम पड़ेगा कि मोदी एक आम नेता से राजनेता यानी स्टेट्समैन बनने की ओर बढ़ रहे हैं। एक नेता वही होता है, जो अपने राजनीतिक फायदे के लिए किसी एक तबके के हितों से खिलवाड़ कर सकता है। जबकि राजनेता आदर्शवादी दृष्टिकोण को अपनाते हुए अपने मूल्यों पर अडिग रहता है। याद करें कि जब पीवी नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे तो उन्होंने कश्मीर पर भारत का पक्ष रखने के लिए तब विपक्ष में नेता रहे अटल बिहारी वाजपेयी को संयुक्त राष्ट्र के मंच पर भेजने का फैसला किया। दलगत भावना से परे लिए गए नरसिंह राव के इस फैसले को अक्सर स्टेट्समैनशिप की मिसाल बताया जाता है।

2019 के चुनाव में भाजपा को 37.4 प्रतिशत मत हासिल हुए। इसका अर्थ है कि 62.6 फीसदी मतदाताओं ने मोदी के नेतृत्व पर भरोसा नहीं जताया। ऐसे में वह महज समर्थन और वृद्धि से बढ़कर अपने दर्शन को बदलते हुए सबका विश्वास जीतने में जुटे हैं। यह एक विचारणीय बदलाव है। वह सभी का विश्वास अर्जित कर देश के सर्वमान्य नेता बनना चाहते हैं, जिसका अर्थ यही है कि वह दलगत राजनीति से परे जाकर नया मुकाम हासिल करने के इच्छुक हैं। अपने पहले कार्यकाल में उन पर आरोप लगे कि कथित गोरक्षकों की शरारती गतिविधियों पर उन्होंने या तो प्रतिक्रिया ही नहीं दी या फिर बहुत देर से ऐसा किया। 2019 के जनादेश के बाद उन्होंने ऐसे किसी भी वाकये पर त्वरित प्रतिक्रिया व्यक्त की है और यहां तक कि संसद में बयान भी दिया। कहने का अर्थ यह नहीं कि ऐसी अप्रिय घटनाओं पर उन्हें पहले जरा भी दर्द महसूस नहीं हुआ, लेकिन अब यह और स्पष्ट है कि वह भारत का भरोसा हासिल करने के लिए अतिरिक्त प्रयास कर रहे हैं। इसी सिलसिले में 30 अगस्त को कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए उन्होंने हिदायत दी कि वे संवाद और आलोचना के दौरान मर्यादा और शालीनता का परिचय दें।

भारत एक जीवंत एवं गतिशील लोकतंत्र है। फिर भी मोदी सरकार के कट्टर आलोचक अलग ही राग अलाप रहे हैं। उनमें से कुछ यहां तक कह रहे हैं कि लोकतंत्र की मूल भावना के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। उनके ऐसे दावों की पड़ताल के लिए कोई भी भारतीय प्रेस की स्वतंत्रता, न्यायपालिका की स्वायत्तता और स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव जैसे पैमानों पर दुनिया के सबसे परिपक्व लोकतंत्रों के साथ इसकी तुलना कर सकता है। जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35ए हटाए जाने के खिलाफ दायर याचिकाओं को सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुनवाई के लिए स्वीकार करना स्वतंत्र न्यायपालिका की ताजा मिसाल है।

स्वतंत्र न्यायपालिका अपने विवेक से कार्यपालिका की गतिविधियों की भी समीक्षा कर रही है, जो परंपरा से इतर है। कुछ मामलों में तो उसने कानून बनाने के निर्देश तक दिए हैं। ऐसा ही एक फैसला मुस्लिम महिलाओं के साथ पक्षपात से जुड़ा था। पिछली सरकारें वोट बैंक छिटकने के डर से ऐसे अदालती निर्देशों पर अमल करने से कतराती थीं। ऐसे में समाज का पीड़ित वर्ग पक्षपात सहने के लिए अभिशप्त रहता था। अपने पहले कार्यकाल में प्रधानमंत्री मोदी ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को मूर्त रूप देने की कोशिश की, लेकिन वे प्रयास फलीभूत नहीं हो पाए। मगर 2019 में वह समानता एवं निष्पक्षता के सिद्धांतों को संसद के पटल पर ले आए और उनके साथियों ने सदन में संख्याबल का बखूबी प्रबंध किया।

अमेरिकी राष्ट्रपति के रूप में अब्राहम लिंकन ने जब दासता को समाप्त कराने वाला कानून सीनेट से पारित करा लिया था, तब उनके कुछ आलोचकों ने उन पर स्तरहीन सिद्धांतों को अपनाने का आरोप लगाया था। हर एक फैसले के कई पहलू होते हैं। इस मामले में भी कुछ ऐसा हो सकता है, लेकिन अगर मुस्लिम महिलाओं की बेहतरी की बात हो रही है तो यह जरूर कहा जा सकता है कि भारत में लोकतंत्र फल-फूल रहा है।

आर्थिक उत्थान के लिए भारतीयों का एक बड़ा तबका बीते 72 वर्षों से टकटकी लगाए हुए है। इसे केवल आर्थिक वृद्धि से ही संभव बनाया जा सकता है। प्रधानमंत्री मोदी ने अगले पांच वर्षों में देश की अर्थव्यवस्था को पांच ट्रिलियन डॉलर तक पहुंचाने का लक्ष्य रखा है। राजनीतिक गलियारों और मीडिया की दुनिया में आलोचक इसका उपहास उड़ा रहे हैं। कुछ अर्थशास्त्री इसे असंभव बता रहे हैं तो कुछ इसे लेकर आशंकाएं जाहिर कर रहे हैं। मौजूदा आर्थिक सुस्ती को वे अपनी धारणा की पुष्टि के रूप में पेश कर रहे हैं। जो भी हो, आने वाले समय में मोदी सरकार की क्षमताओं की कड़ी परीक्षा होनी है। पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था देश से गरीबी का समूल नाश भले न कर पाए, लेकिन इससे गरीबों की तादाद घटने की भरी-पूरी संभावनाएं हैं।

जन-धन, आधार और मोबाइल यानी जैम, मुफ्त गैस एवं बिजली कनेक्शन, सभी को आवास, किसान सम्मान निधि, मुद्रा और आयुष्मान भारत जैसी योजनाओं का बिना किसी भेदभाव के सफल क्रियान्वयन देश की आबादी के एक बड़े और विपन्न् तबके के जीवन स्तर में व्यापक स्तर पर सुधार ला रहा है। हालांकि सुस्ती के भंवर में फंसी अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए तत्काल कुछ साहसिक फैसले लेने होंगे, ताकि जीडीपी की ऊंची वृद्धि के दौर में दाखिल हुआ जा सके। मोदी सरकार ने पहले कार्यकाल में जीएसटी, दिवालिया संहिता और रेरा जैसे कुछ प्रमुख संरचनागत सुधार किए। कुछ सुधार अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं। ऐसे सुधार और उनका प्रभावी क्रियान्वयन आने वाले कई दशकों के लिए ऊंची वृद्धि का आधार उपलब्ध करा सकते हैं। वे भारतीयों की आंखों से गरीबी के आंसू पोंछ सकते हैं।

भारत लोकतंत्र और जनसांख्यिकी के सुखद संयोग का लाभ उठाने की और अधिक प्रतीक्षा नहीं कर सकता। अपने दूसरे कार्यकाल में मोदी सरकार आम आदमी के भरोसे को नहीं तोड़ेगी। उम्मीदों से लबरेज भारत मोदी की तत्परता और उनकी क्षमताओं में पूरा भरोसा रखता है। भारत उनके फैसलों का समर्थन करेगा, भले ही वे निर्णय कितने ही कड़े क्यों न हों।


Date:07-09-19

मुफ्तखोरी की सियासत

सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं को मेट्रो की मुफ्त यात्रा की प्रस्तावित योजना पर बिना किसी लाग लपेट यह कहा कि दिल्ली सरकार इस तरह जनता के धन की बर्बादी नहीं कर सकती।

संपादकीय

दिल्ली मेट्रो के चौथे चरण की परियोजना से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर विचार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने देश की राजधानी में महिलाओं को मेट्रो यात्रा की मुफ्त सुविधा देने की केजरीवाल सरकार की प्रस्तावित योजना पर जो सवाल खड़े किए वे जरूरी थे। उम्मीद की जाती है कि दिल्ली सरकार सुप्रीम कोर्ट के इन सवालों पर न केवल गौर करेगी, बल्कि चुनावी लाभ को ध्यान में रखकर तैयार की गई अपनी प्रस्तावित योजना को ठंडे बस्ते में भी डालेगी। इसका कोई मतलब नहीं कि अपेक्षाकृत समर्थ और संपन्न मानी जाने वाली देश की राजधानी की सभी महिलाओं को गरीब मानकर उन्हें मेट्रो और सरकारी बसों में मुफ्त यात्रा की सुविधा प्रदान की जाए।

यह सुविधा उपलब्ध कराने के पीछे दी जा रही यह दलील खोखली ही अधिक है कि इससे कारों एवं दोपहिया वाहनों के इस्तेमाल में कमी आएगी और उसके चलते प्रदूषण से निपटने में मदद मिलेगी। शायद यही कारण रहा कि सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं को मेट्रो की मुफ्त यात्रा की प्रस्तावित योजना पर बिना किसी लाग लपेट यह कहा कि सरकार इस तरह जनता के धन की बर्बादी नहीं कर सकती। उसकी समझ से ऐसी कोई योजना दिल्ली मेट्रो को बर्बाद करने वाली साबित हो सकती है।

यह अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने मुफ्तखोरी की राजनीति की ओर बढ़ रही दिल्ली सरकार को समय रहते आगाह करने का काम किया, लेकिन उसे यह ध्यान रखना चाहिए कि राजनीतिक लाभ हासिल करने के लिए सार्वजनिक कोष के धन की अनदेखी करने का यह इकलौता मामला नहीं है। निर्धनता निवारण या लोक कल्याण के नाम पर रह-रह कर ऐसी योजनाएं सामने आती ही रहती हैैं जिनका असली मकसद गरीबों को आत्मनिर्भर बनाना कम और चुनावी लाभ हासिल करना अधिक होता है। इस मामले में सभी दल एक जैसे नजर आते हैैं। बीते कुछ समय से यह कुछ ज्यादा ही देखने को मिल रहा है कि चुनाव आते ही विभिन्न दल रेवड़ियां बांटने की होड़ में शामिल हो जाते हैैं। उनकी ओर से मुफ्तखोरी की संस्कृति को बढ़ावा देने वाली योजनाओं की घोषणा का सिलसिला कायम हो जाता है।

कुछ दल तो लोक-लुभावन वादों को अपने घोषणा पत्रों का हिस्सा भी बना देते हैैं। यदि कभी ऐसे दल सत्ता में आ जाते हैैं तो इस आधार पर अपने लोक-लुभावन वादों पर आनन-फानन में अमल शुरू कर देते हैैं कि वे इसी वादे के साथ सत्ता में आए हैैं। आम तौर पर ऐसा करते हुए वे आर्थिक नियमों की जानबूझकर उपेक्षा करते हैैं। चूंकि राजनीतिक दल लोक-लुभावन राजनीति करते समय आर्थिक नियम-कानूनों की परवाह नहीं कर रहे इसलिए सुप्रीम कोर्ट को कहीं अधिक सजग रहने की जरूरत है।


Date:06-09-19

संबंधों को नया आयाम

संपादकीय

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की दो दिवसीय रूस यात्रा अनेक दृष्टियों से द्विपक्षीय संबंधों में नये आयाम जोड़ने वाली है। यात्रा के दौरान हुए समझौतों तथा भविष्य की योजनाओं को देखने से लगता है कि काफी समय पूर्व से सामरिक साझेदारी को संपूर्ण विस्तार देने की योजना पर काम चल रहा था। मोदी फिक्की का 50 सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल लेकर यों ही नहीं गए थे। व्लादिवोस्तोक रूस का सुदूर पूर्व का हिस्सा है, जो खनिज और ऊर्जा से भरा है। कृषि में वहां व्यापक संभावनाएं हैं। उस क्षेत्र में आबादी बहुत कम है। रूस चाहता था कि भारत की निजी कंपनियां वहां निवेश करें जिनसे खनन से लेकर कृषि की संभावनाओं को मूर्त रूप दिया जा सके। भारत को भी एक बहुत बड़ा क्षेत्र अपनी कंपनियों के साथ कुशल मैनपावर के रोजगार के लिए मिल जाएगा। दोनों देशों के बीच हुए 13 समझौते इस नाते काफी महत्त्वपूर्ण हैं। उदाहरण के लिए भारत के एच-एनर्जी ग्लोबल लिमिटेड और रूस के नोवाटेक के समझौते के तहत नोवाटेक भारत, बांग्लादेश और अन्य बाजारों में एलएनजी की बिक्री के लिए एलएनजी टर्मिंनल और संयुक्त उद्यम के गठन में निवेश करेगी। रक्षा उपकरणों के स्पेयर पार्ट्स संयुक्त उद्यम में बनाए जाएंगे। जैसा मोदी ने कहा भारत-रूस रक्षा, कृषि, पर्यटन, व्यापार में आगे बढ़ रहे हैं। गगनयान के लिए भारत के अंतरिक्ष वैज्ञानिक रूस में प्रशिक्षण लेंगे। चेन्नै और व्लादिवोस्तोक के बीच समुद्री मार्ग तैयार किए जाने पर सहमति बन रही है। भारत-रूस इंटरनेशनल नॉर्थ साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर यानी अंतरराष्ट्रीय उत्तर दक्षिण ट्रांस्पोर्ट गलियारा पर भी काम कर रहे हैं। यह सड़क, रेल और समुद्र मार्ग होगा जो भारत, ईरान और रूस को जोड़ेगा। इस तरह भारत-रूस संबंध रक्षा और नाभिकीय ऊर्जा से आगे निकल कर बिल्कुल नई दिशा में आगे बढ़ गए हैं। पुतिन द्वारा ईस्टर्न इकोनोमिक समिट में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित करना प्रमाण है कि रूस भारत को कितना महत्त्व दे रहा है। रूस ने मोदी को सबसे बड़ा नागरिक सम्मान ऑर्डर ऑफ सेंट एंड्रयू द एपोस्टल से सम्मानित करने का ऐलान पहले से किया हुआ था। इस तरह की बहुआयामी साझेदारी के सामरिक और अंतरराष्ट्रीय महत्त्व को नहीं नकार सकते। आने वाले समय में अनेक द्विपक्षीय अंतरराष्ट्रीय मामलों पर भारत रूस की आवाज एक हो सकती है। आखिर, दोनों नेताओं ने अफगानिस्तान पर एक ही राय प्रकट की।


Date:06-09-19

समाधान की तलाश में बढ़ती जा रही जटिलता

सुदीप चक्रवर्ती, वरिष्ठ पत्रकार

पहले समझ लीजिए कि आपको क्या चाहिए? अभी इस उक्ति को असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर की प्रक्रिया में सर्वाधिक चरितार्थ होते देखा जा रहा है। 31 अगस्त को अंतिम सूची जारी हुए एक सप्ताह का समय भी नहीं बीता है, करीब 19 लाख लोगों पर अनिश्चितता के बादल मंडराने लगे हैं। क्या एनआरसी की प्रक्रिया इतने लोगों को राज्यविहीन करार दे सकेगी? ऐसे लोग 120 दिन के अंदर अपील कर सकेंगे, लेकिन इनमें उन लोगों की बहुसंख्या है, जो अक्षम हैं और एनआरसी न्यायाधिकरण से काफी दूर रहते हैं। जो लोग नागरिकता प्रमाणित करने में विफल हुए हैं, अब उनके लिए करीब एक दर्जन हिरासत केंद्र बनाए जा रहे हैं। अब यह एक बड़ा मानवीय और राजनीतिक संकट लगने लगा है, जिसमें सुरक्षा संकट भी निहित है। लग रहा है, मानो असम ने मुंह में इतना बड़ा निवाला ले लिया है कि चबाना या मुंह चलाना मुश्किल है। ऐसे लोगों की संख्या ज्यादा है, जिनकी भारतीय नागरिकता खतरे में पड़ गई है। इसमें बड़ी संख्या गैर-मुस्लिमों की भी है। अत: इसका अब असम में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी में भी विरोध दिखने लगा है। भाजपा ने अवैध नागरिकों को बाहर करने की मांग पर चुनाव लड़ा था। पहले वह 2016 में विधानसभा चुनाव में जीती और उसके बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में भी उसने अच्छा प्रदर्शन किया।

भाजपा की यह कोशिश थी कि गैर-मुस्लिम प्रवासियों को नागरिकता वैध बनाने का एक अवसर दिया जाए, इसके लिए नागरिकता अधिनियम 1955 में संशोधन किया गया। नागरिकता संशोधन विधेयक 2019 तैयार किया गया। केंद्र सरकार भारत में प्रवास के समय में ढील देने के पक्ष में है। विशेष रूप से अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से भारत आए अल्पसंख्यक समुदायों- हिन्दुओं, सिखों, बौद्धों, जैनियों, पारसियों और ईसाइयों के लिए पहले नागरिकता के लिए भारत में कम से कम 11 साल रहने की अनिवार्यता थी। इसे घटाकर कम से कम छह वर्ष करने पर सहमति बनी। असम में एनआरसी और नागरिकता विधेयक एक-दूसरे के विरोधाभासी साबित हुए। जहां एक ओर, एनआरसी की मांग असमी लोग लंबे समय से कर रहे थे, क्योंकि वह बाहरियों या अवैध प्रवासियों को बाहर निकालना चाहते थे। वहीं दूसरी ओर, ऐसा लगा कि नागरिकता विधेयक ऐसे प्रवासियों को एक तरह से वैध बनाना चाहता है। असम में बाहरी-घुसपैठिया विरोधी भावना ने नागरिकता विधेयक का विरोध किया।

इस बीच एनआरसी की प्रक्रिया चलती रही, जिसे भाजपा नेतृत्व वाली सरकार ने भी अपना प्रयास बताया। अब भाजपा नई दिल्ली और दिसपुर, दोनों जगह बंध गई है। असम की बराक घाटी से ज्यादा जटिलता कहीं नहीं है, यह घाटी कछर क्षेत्र से राज्य के दक्षिण-पूर्व तक फैली है। यहां धर्म, भाषा और जातीयता से जुड़े मामले आग लगाऊ हैं। यहां बताते चलें कि यह क्षेत्र बहुत पहले असम का हिस्सा नहीं था। वर्ष 1947 में मुस्लिम-बहुल सिलहट जनमत-संग्रह के बाद नवनिर्मित पाकिस्तान में चला गया, सिलेह के पूर्वी छोर को छोड़कर, जहां बहुसंख्यक बांग्लाभाषी और हिंदू, दोनों थे, यह क्षेत्र भारत और असम के साथ बना रहा। वर्ष 1960 के दशक में असम में बंगाली विरोधी हिंसा हुई, जिसने कछर में बांग्ला भाषा के आंदोलन को हिंसक रूप दिया, तीक्ष्ण विभाजन हुआ। फिर पूर्वी पाकिस्तान से पलायन का सिलसिला शुरू हुआ, इसके बांग्लादेश में तब्दील होने के बाद इसने दबाव के साथ-साथ उम्मीदों को भी बढ़ाया।

इस बार भाजपा ने कांग्रेस से सिल्चरऔर मुस्लिम-ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट से करीमगंज सीट जीत ली। विधानसभा चुनाव में भी भाजपा ने इन इलाकों में अच्छा प्रदर्शन किया, लेकिन अब लगता है, वह असम में गलतफहमी का शिकार हुई है। कछर क्षेत्र में अंतिम एनआरसी में ऐसे कई गैर-मुस्लिम बंगाली हैं, जिनकी नागरिकता प्रमाणित नहीं हो सकी है, ये वही लोग हैं, जिन्हें नागरिकता विधेयक पारित करके नागरिक बनाने की कोशिश रही है। यह बहुमत को खुश करने और बहुसंख्यक को विस्थापित करने के प्रयास का एक जटिल मामला है। असम अब अर्द्धसैनिक बलों की चौकस निगाह में है, इससे यही संकेत मिलता है कि एनआरसी पर असम में उबाल है।