06-09-2019 (Important News Clippings)

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06 Sep 2019
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Date:06-09-19

सुशासन से भारत में घुलेंगे-मिलेंगे कश्मीरी

गुरचरण दास

कश्मीर के राजनीतिक दर्जे में किए बदलाव से कश्मीरियों में गुस्सा, भय, अलगाव और आत्म-सम्मान खोने की भावना है। कई लोगों ने कश्मीरियत को पहुंची चोट को कानूनी और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखने की कोशिश की है लेकिन, जरूरत राष्ट्रीय पहचान की दार्शनिक समझ की है। खासतौर पर कश्मीरियों और भारतीयों को इस तथ्य को समझना होगा कि राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पहचानें काल्पनिक हैं। हिंदुत्व और कश्मीरियत दोनों आविष्कृत अवधारणाएं हैं। इससे कुछ रोष शांत करने में मदद मिलेगी। कश्मीर में आलोचना हो रही है कि कश्मीरियों की सहमति ऐसे तो नहीं ली जानी चाहिए थी। हालांकि, लंबी अवधि में यह रोष चला जाएगा यदि कश्मीरियों को भारत साथ रहने लायक लगा। भारत कई पहचानों का संघ है और कुछ लोगों ने पूछा है कि क्या कश्मीरी पहचान को पहुंची चोट, आंध्र के लोगों के गर्व को पहुंची चोट के दुख से भिन्न है, जो कुछ ही साल पहले अपने राज्य का आधा हिस्सा खो बैठे हैं? कुछ अन्य लोगों ने दलील दी है कि कश्मीर सीमावर्ती प्रदेश है, जिसका कुछ इतिहास है, जो इसे अनूठा बनाता है। लेकिन, फिर पंजाब जैसे अन्य सीमावर्ती प्रदेश हैं, जहां के लोगों ने अपने घर व परिजनों को बंटवारे के वक्त खोया। बाद में पंजाब का हरियाणा व हिमाचल में और विभाजन हुआ। क्या पंजाब या आंध्र के लोगों से इनके बारे में पूछा गया था?

कुछ उदारवादी मानते हैं कि जनमत संग्रह ही सहमति प्राप्त करने का एकमात्र असली तरीका है और कश्मीरियों को आत्म-निर्णय के सिद्धांत के आधार पर अलग होने का विकल्प दिया जाना चाहिए। यदि यह सही है तो क्या हम आंध्र में भी जनमत संग्रह कराने के लिए नैतिक रूप से बंधे नहीं हैं? यदि इस सोच को पीछे 1947 में ले जाए तो क्या हमें यह सिद्धांत 565 रियासतों के नागरिकों पर लागू नहीं करना था, जो अंग्रेजों की विदाई के वक्त भारत के 40 फीसदी भू-भाग पर रहते थे। कश्मीर तो इनमें से केवल एक था। डॉ. आम्बेडकर को लगता था कि भारत 3000 जातियों का राष्ट्र है तो क्या 3000 जनमत-संग्रह कराए जाने चाहिए थे? क्या ब्रिटिश राज में रह रहे भारतीयों को भी विकल्प नहीं दिया जाना चाहिए था कि वे भारतीयों से शासित होना चाहते हैं या अंग्रेजों से? यदि पर्याप्त संख्या में भारतीय चाहते कि ब्रिटिश शासक बने रहे तो शायद कभी भारत नाम का स्वतंत्र देश ही नहीं होता। जनमत संग्रह असमंजस की स्थिति भी बना सकता है, जैसा कि ब्रेक्ज़िट के बाद ब्रिटेन को अहसास हो रहा है। समान वंश परम्परा, भाषा और साझा संस्कृति के आधार पर नेशन-स्टेट (राष्ट्र-सत्ता) के निर्माण का विचार हाल का आविष्कार है। यह विचार मध्य यूरोप में चले 30 साल के विनाशकारी संघर्षों को खत्म करने वाली वेस्टफालिया (1648) की संधि में जन्मा था। 1815 में नेपोलियन के पतन के बाद भी यूरोप ज्यादातर साम्राज्यों व रियासतों में बंटा था। उसके बाद यूरोप के लोग सोच-विचार कर राष्ट्र-सत्ता के गठन में लगे। चूंकि प्राकृतिक एकता तो आमतौर मौजूद नहीं थी तो उनके नेताओं ने इसका ‘निर्माण’ किया और स्कूली पाठ्यक्रमों में इतिहास के पौराणिक संस्करणों के जरिये लोगों के गले उतार दिया। आज हिन्दू राष्ट्रवादी भी वही करने की कोशिश कर रहे हैं। अप्रिय राष्ट्रवाद के कारण हुए निरर्थक प्रथम विश्वयुद्ध के खौंफ का यह नतीजा रहा कि दुनिया 1920 के दशक में आत्म-निर्णय के नैतिक विचार की आकर्षित हुई। भारत में स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं को भी अहसास हुआ कि स्व-शासन का उनका दावा यह सिद्ध करने पर निर्भर है कि उनका देश एक राष्ट्र है। इस तरह महात्मा गांधी हमारे मुख्य ‘मिथमैकर’ या आख्यान-निर्माता बन गए।

आज भारत में कश्मीर के एकीकरण से इसी प्रकार के प्रश्न उठ रहे हैं : राष्ट्र-सत्ता क्या है? इस विचार के आविष्कारक कहेंगे कि यह एक भावना है, ‘फेलो फिलिंग’, साथ रहने से उपजी सह-भावना, जो भारतीयों को एकजुट करती है। समस्या यह है कि यह उनके प्रति विद्वेष में बदलती है, जो भिन्न हैं। हो सकता है कि कश्मीरी मुस्लिम विरोध करें कि उनमें हिन्दुओं के लिए ‘फेलो फिलिंग’ नहीं है और पाकिस्तान के निर्माण के पीछे भी यही दलील थी। ज्यादातर राष्ट्रों में कई धर्म हैं, यहां तक कि मुस्लिम भी कई देशों में अल्पसंख्यकों के रूप में रहते हैं। इस तरह धर्म राष्ट्रीयता के लिए ठोस आधार नहीं है। ‘फेलो फिलिंग’ का एक और स्रोत जश्न और तकलीफों की साझा यादें भी हो सकती हैं। ऐतिहासिक स्मृतियों के साथ समस्या यह है कि वे बांट भी सकती हैं। सोमनाथ मंदिर को लूटने वाला मोहम्मद गजनी हिन्दुओं की दृष्टि में खलनायक है और मुस्लिमों के लिए नायक। इसलिए यह मानक भी नाकाम है। राष्ट्र निर्माण के लिए इतिहास को भूल जाना प्रायः बेहतर होता है। चूंकि राष्ट्र-सत्ता की पहचान के सारे मानक नाकाम हो गए हैं तो हमें इस असुविधाजनक सत्य का सामना करना पड़ेगा कि राष्ट्र एक ‘काल्पनिक समुदाय’ है, जैसा कि आयरिश राजनीतिक विज्ञानी बेनेडिक्ट एंडरसन ने हमें सिखाया है। पहचान का इससे कोई संबंध नहीं है। सारे आधुनिक राष्ट्र-राज्य और क्षेत्रीय पहचानें कृत्रिम निर्मितियां हैं, जिसमें ज्यादातर नागरिक अजनबी हैं, जो कभी नहीं मिल पाएंगे। कोई जोड़ने वाला प्राकृतिक तत्व नहीं है जो भारत या किसी अन्य देश अथवा कश्मीर, बंगाल या आंध्र जैसे राज्यों को जोड़े। हिन्दू राष्ट्रवादियों और कश्मीरी पृथकतावादियों को यह समझने की जरूरत है। हिंदुत्व और कश्मीरियत दोनों काल्पनिक है। भारत का आविष्कार 26 जनवरी 1950 को इस आधार पर हुआ कि जो भी इसके भौगोलिक क्षेत्र में रहता है उसे अधिकतम समान स्वतंत्रता मिलेगी और कोई दोयम दर्जे का नागरिक नहीं होगा।

कश्मीरियों का सफल व रोष रहित समावेश अंततः इस बात पर निर्भर होगा कि सामान्य कश्मीरी की निगाह में भारत कितना वांछनीय लगता है यानी वह कितना पसंद आता है। इस मामले में भारतीय राष्ट्र-राज्य का काम महत्वपूर्ण है। वह सुशासन से सुनिश्चतता कायम करें, यह पक्का करे कि हर कोई कानून के सामने समान है, लोगों को अपने शासक बदलने का विकल्प उपलब्ध कराए, शिक्षा व सेहत की बेहतरी के अवसर प्रदान करें और समृद्धि की ओर ले जाने वाली परिस्थितियां निर्मित करे।


Date:06-09-19

भ्रष्टाचार के गंभीर मामलो का शीघ्र निस्तारण हो

सुरेंद्र किशोर, (लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैैं )

सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर जन प्रतिनिधियों से जड़े मुकदमों की सुनवाई के लिए विशेष अदालतें गठित हो चुकी हैं। यह आदेश 2017 में आया था। इसके तहत गठित अदालतें काम भी कर रही हैं और उनकी सुनवाई में गति भी आई है, लेकिन जब यही मुकदमे हाईकोर्ट में जाते हैं तो वहां लंबा इंतजार करना पड़ रहा है। दरअसल मुकदमों को वहां अपनी बारी का इंतजार करना पड़ता है, क्योंकि उस स्तर पर सुनवाई में प्राथमिकता का अभी कोई प्रावधान नहीं है। इसलिए निचली अदालतों की तेजी निरर्थक जाती है। क्या उच्च न्यायालयों के स्तर पर भी ऐसे मामलों की शीघ्र सुनवाई नहीं तय की जा सकती? ऐसा उच्च अदालतें ही कर सकती है, क्योंकि हाईकोर्ट को कोई अन्य निर्देशित नहीं कर सकता।

अगर हाईकोर्ट के स्तर पर त्वरित सुनवाई नहीं होती तो निचली अदालतों के स्तर पर विशेष व्यवस्था करने का पूरा लाभ नहीं मिल पाएगा। बहुत दिनों से यह शिकायत आ रही थी कि जन प्रतिनिधियों के खिलाफ दर्ज आपराधिक मुकदमें दशकों तक लंबित रहते हैं। इस बीच वे बार-बार जन प्रतिनिधि बनते रहते हैं। इससे राजनीति दूषित होती है और प्रशासन पर भी बुरा असर पड़ता है। दूसरी ओर जिन जन प्रतिनिधियों के खिलाफ राजनीतिक कारणों से या द्वेषवश मुकदमे शुरू होते हैं वे वर्षों तक बदनाम होते रहते हंै। इसलिए ऐसे मामलों की जल्द सुनवाई पूरी हो जाए तो सिर्फ असली गुनहगारों को छोड़कर सबका भला है। ऐसे काम में सभी संबंधित पक्षों और खासकर अदालतों को भरसक सहयोग करना चाहिए, लेकिन कई कारणों से ऐसा हो नहीं पाता।

हाल में दिल्ली हाईकोर्ट ने 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले की शीघ्र सुनवाई करने की सीबीआइ की अर्जी को मानने से इन्कार कर दिया। याद रहे 2 जी मामले में विशेष अदालत ने 2017 में पूर्व केंद्रीय मंत्री ए.राजा और अन्य को दोषमुक्त कर दिया था। उस निर्णय के खिलाफ सीबीआइ ने हाईकोर्ट में अपील की। देश के उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के कुल 399 पद खाली हैं। हाल में सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी की थी कि इन पदों को भरने से अधिक जरूरी काम कोई और हो ही नहीं सकता। ये पद भरे जाने चाहिए, लेकिन इसी के साथ निचली अदालतों की ओर से दिए गए फैसलों का उच्चतर अदालतों द्वारा निस्तारण भी प्राथमिकता के आधार पर होना चाहिए।

विभिन्न उच्च न्यायालयों में लंबित मुकदमों की बड़ी संख्या को देखते हुए किसी न्यायाधीश के लिए यह तय करना कठिन होता है कि बारी से पहले किसी केस की सुनवाई कैसे कर ली जाए, लेकिन मौजूदा और पूर्व जन प्रतिनिधियों से संबंधित मुकदमों की शीघ्र सुनवाई की जरूरत खुद सुप्रीम कोर्ट बता चुका है। उनके मामलों को शीघ्र निपटा देने से भ्रष्टाचार और राजनीति के अपराधीकरण पर काबू पाने में सुविधा होगी। इस देश की विधायिका में ऐसे प्रतिनिधियों की संख्या समय के साथ बढ़ती जा रही है जिनके खिलाफ अपराध और भ्रष्टाचार के आरोपों में मुकदमे चल रहे हैं।

ध्यान रहे कि पूर्व रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र हत्याकांड से संबंधित मुकदमे का अंतिम निर्णय अब तक नहीं हो सका है। उनकी हत्या बिहार के समस्तीपुर में 1975 में हुई थी। महत्वपूर्ण मुकदमों में यथाशीघ्र निर्णय से लोगों में न्यायपालिका के प्रति भरोसा बढ़ता है। चारा घोटाले में लालू प्रसाद यादव और अन्य अनेक लोगों को पहली बार 2013 में सजा हुई थी। रांची की विशेष अदालत सीबीआइ ने उन्हें सजा दी। उस सजा के खिलाफ लालू प्रसाद ने रांची हाईकोर्ट में अपील कर रखी है, पर वह अपील अब तक विचाराधीन है। इस बीच कुछ अन्य मुकदमों में भी लालू प्रसाद को सजा मिली है। ये मामले भी हाईकोर्ट जाएंगे। उसके बाद सुप्रीम कोर्ट भी जा सकते हैं। कहना कठिन है कि इस प्रक्रिया में कितने साल या दशक लगेंगे? देर से मिला न्याय न्याय नहीं होता, यह कहावत यहां पूरी तरह लागू हो रही है। दरअसल भ्रष्टाचार और अपराध से संबंधित मामलों के त्वरित निपटारे के अभाव में अन्य अपराधियों और घोटालेबाजों का मनोबल बढ़ता जाता है। 2 जी घोटाले से संबंधित मुकदमे के शीघ्र निपटारे से क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम की न सिर्फ साख बढ़ेगी, बल्कि अन्य घोटालेबाजों के हौसले भी पस्त होंगे।

2 जी घोटाले ने राजनीति और चुनाव को भी प्रभावित किया है, लेकिन बीच में मामला अटक जाने के कारण सिस्टम के प्रति असंतोष का खतरा बढ़ गया। कुछ लोग यह सवाल उठा रहे हैं कि आखिर 2 जी घोटाले की जांच से क्या मिला? कोर्ट ने आरोपितों को तो दोषमुक्त कर दिया। कम ही लोगों को यह मालूम है कि 2 जी का मामला अब भी दिल्ली हाईकोर्ट में विचाराधीन है। सीबीआइ ने लोअर कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील कर रखी है। इस मामले में ए.राजा और कनिमोझी को दिल्ली स्थित विशेष सीबीआइ जज ओपी सैनी ने 2017 में दोषमुक्त करते हुए कहा था कि कलाइग्नार टीवी को कथित रिश्वत के रूप में शाहिद बलवा की कंपनी डीबी ग्रुप द्वारा 200 करोड़ रुपये देने के मामले मेंं अभियोजन पक्ष ने किसी गवाह से जिरह तक नहीं की।

याद रहे कि इस टीवी कंपनी का मालिकाना हक करुणानिधि परिवार के पास है। शायद मनमोहन सरकार के कार्यकाल में सीबीआइ के वकील को ऐसा करने की अनुमति नहीं रही होगी, लेकिन भारतीय साक्ष्य अधिनियम में ऐसे ही मौके के लिए धारा-165 का प्रावधान किया गया है। आखिर विशेष अदालत ने इस अधिकार का इस्तेमाल क्यों नहीं किया? संभवत: इस सवाल पर हाईकोर्ट में विचार होगा। इस धारा के अनुसार, ‘न्यायाधीश सुसंगत तथ्यों का पता लगाने के लिए या उनके उचित सळ्बूत हासिल करने के लिए किसी भी समय, किसी भी साक्षी या पक्षकार से कोई भी प्रश्न पूछ सकता है और किसी भी दस्तावेज को पेश करने का आदेश दे सकता है। न तो पक्षकार और न ही उनकी पैरवी करने वालों कोऐसे किसी भी आदेश पर आक्षेप करने का अधिकार नहीं होगा।

इस मौके पर चर्चित चारा घोटाले की भी चर्चा आवश्यक है। अदालत के आदेश पर सीबीआइ ने चारा घोटाले की जांच 1996 में शुरू की थी, लेकिन अभी तक केवल लोअर कोर्ट ही इस घोटाले के कुछ मामलों में निर्णय कर सका है। 23 साल बीत जाने के बाद भी यह स्थिति है। कल्पना कीजिए कि यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचते-पहुंचते और कितने साल लगेंगे? आखिर ऐसे क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के प्रति लोगों का भरोसा कैसे बढ़ सकता है? ललित नारायण मिश्र हत्याकांड में सीबीआइ ने जिन आरोपितों को कठघरे में खड़ा किया है उनके बारे में दिवंगत मिश्र के परिजन कहते हैं कि असली हत्यारे वे नहीं हैं। सच्चाई जो भी हो, इस तरह के मामलों में सुनवाई में देरी का कोई औचित्य नहीं। सच तो है कि अपराध और भ्रष्टाचार के गंभीर मामलों का अंतिम स्तर पर निस्तारण कहीं जल्द होना चाहिए।


Date:06-09-19

मानक की समस्या

संपादकीय

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने बुधवार को सभी बैंकों के लिए यह अनिवार्य कर दिया कि वे खुदरा ग्राहकों और सूक्ष्म, लघु एवं मझोले उपक्रमों (एमएसएमई) के लिए फ्लोटिंग दर वाले ऋण को 1 अक्टूबर से बाहरी मानक से जोड़ें। यह मानक नीतिगत रीपो दर, तीन और छह महीने के ट्रेजरी बिल का प्रतिफल अथवा फाइनैंशियल बेंचमार्क इंडिया प्राइवेट लिमिटेड (एफबीआईएल) द्वारा जारी कोई भी अन्य मानक दर हो सकती है। फ्लोटिंग दर वाले कर्जदार जो बिना पुनर्भुगतान शुल्क के पहले भुगतान करने के योग्य हैं वे भी चाहें तो बाहरी मानक का रुख कर सकते हैं। स्पष्ट है कि यह कदम मौद्रिक नीति का बेहतर पारेषण सुनिश्चित करने से संबंधित है। सैद्घांतिक तौर पर देखा जाए तो आरबीआई के निर्देश के बाद पारेषण बेहतर होना चाहिए क्योंकि बैंकों को कम से कम तीन महीने में एक बार दरों को नए सिरे से तय करना होगा।

बहरहाल, इस कदम के कुछ अनचाहे परिणाम भी हो सकते हैं। उदाहरण के लिए संभव है यह तात्कालिक तौर पर कर्जदारों के लिए बड़ी राहत लेकर न आए। ऐसा इसलिए क्योंकि बैंकों को मानक दर के ऊपर शुल्क लेने की इजाजत है तो वे चाहेंगे कि वे अपने तमाम जोखिम तथा उधारी से जुड़ी समस्त लागत बचा लें। अगर उक्त शुल्क ज्यादा है तो मानक दर में बदलाव परिलक्षित होगा लेकिन ऋण दरें काफी ऊंचे स्तर पर बनी रह सकती हैं। निश्चित तौर पर धीमे पारेषण का मुद्दा नया नहीं है। सन 2003 में व्यवस्था को प्राथमिक ऋण दर (सन 1994 में लागू) से हटाया गया और इसे मानक प्राथमिक ऋण दर पर स्थानांतरित किया गया। सन 2010 में आधार दर व्यवस्था लाई गई और सन 2016 में मार्जिनल कॉस्ट ऑफ फंड्स आधारित ऋण दर तय की गई। चूंकि आंतरिक मानकों ने पारेषण सुधार में वांछित मदद नहीं की इसलिए अब आरबीआई ने बाहरी मानकों का रुख किया है।

बहरहाल, मौजूदा संदर्भ में यह समझना आवश्यक है कि पारेषण कमजोर क्यों है। भारतीय बैंकिंग तंत्र फंसे हुए कर्ज के बढ़े स्तर से त्रस्त है और वह मार्जिन बचाए रखने का जतन कर रहा है। एक प्रतिस्पर्धी माहौल में फंड की लागत कम होने पर बैंकों को दरें कम करनी चाहिए ताकि और कर्जदार आकर्षित हों और उनकी बैलेंस शीट का विस्तार हो। ऐसा नहीं है कि बैंक उच्च ब्याज दर लेकर कोई बहुत अधिक मुनाफा कमा रहे हैं। खराब पारेषण हमारे तंत्र की अक्षमता को उजागर करता है। उच्च राजकोषीय घाटा और सरकार की बड़ी उधारी भी नीतिगत दरों के पारेषण को प्रभावित करती है। उदाहरण के लिए केंद्रीय बैंक ने गत वित्त वर्ष में करीब 3 लाख करोड़ रुपये की नकदी डाली ताकि तंत्र में पैसा बना रहे।

अब जबकि नियामक ने बाहरी मानक लागू किया है तो बैंकिंग क्षेत्र पर अतिरिक्त दबाव पड़ सकता है। संभव है कि बैंकों को भी अपनी जमा दर को बाहरी मानक दर से जोडऩा पड़े ताकि उनका ब्याज मार्जिन बच सके। यह स्पष्ट नहीं है कि भारतीय जमाकर्ता हर तीन महीने पर जमा दर तय करने पर कैसी प्रतिक्रिया देंगे? बाहरी मानक दर के कारण उपभोक्ताओं और बैंक दोनों का ब्याज जोखिम बढ़ेगा। बैंक हेजिंग की दृष्टि से बेहतर स्थिति में होंगे, वहीं जोखिम से बचने वाले खुदरा जमाकर्ता अन्य रास्ते तलाश सकते हैं। ऐसे में अल्प बचत योजनाएं शायद बैंकों को जमा दर तय करने के मामले में राहत न दें। परिणामस्वरूप मार्जिन पर दबाव बन सकता है और चूंकि बैंकिंग क्षेत्र का बड़ा हिस्सा सरकारी है इसलिए इसके राजकोषीय प्रभाव भी होंगे। इन अनचाहे प्रभावों के बारे में विचार किया गया होगा। बेहतर विकल्प यही होता कि बैंकों की बाहरी मानक दर तक मुक्त पहुंच होती। इससे उन्हें बेहतर समायोजन करने को मिलता।


Date:06-09-19

उर्वरकों और मृदा स्वास्थ्य पर सरकार का रवैया विरोधाभासी

सुरिंदर सूद

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस साल अपने स्वतंत्रता दिवस भाषण में देश के किसानों से मृदा स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए किसानों से रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल रोकने या इसकी मात्रा कम करने का आह्वान किया है। प्रधानमंत्री मोदी के इस आह्वान के कृषि क्षेत्र के लिए खास मायने हैं, इसलिए इसका सतर्कता से विश्लेषण किया जाना चाहिए। इसमें कोई शक नहीं है कि रासायनिक प्रदूषण से मृदा स्वास्थ्य को होने वाले नुकसान को लेकर प्रधानमंत्री की चिंता जायज है, लेकिन उनके द्वारा सुझाया गया समाधान मृदा स्वास्थ्य के संरक्षण के लिए पर्याप्त नहीं है। भूमि क्षरण और इसकी उर्वर शक्ति कमजोर करने के लिए केवल रासायनिक उर्वरक ही जिम्मेदार नहीं हैं। केवल इनका इस्तेमाल रोकने या इसमें कमी करने से समस्या का समाधान नहीं दिख रहा है।

भूमि संसाधनों की हालत बिगाडऩे के लिए कई रासायनिक, भौतिक और जैविक कारक जिम्मेदार हैं। मई 2018 में मृदा स्वास्थ्य पर राष्ट्रीय कृषि विज्ञान अकादमी (एनएएएस) की ‘संक्षिप्त नीति’ में इन कारकों पर चर्चा की गई है। एनएएएस ने इसके लिए अनुपयुक्त जोत, अकुशल कृषि योग्य भूमि एवं जल प्रबंधन, मृदा क्षरण, जल जमाव, लवणता एवं क्षार की उपस्थिति, उर्वरकों का असंतुलित इस्तेमाल, मिट्टी की उर्वरा शक्ति में कमी और सबसे अहम जैविक खाद के इस्तेमाल को नजरअंदाज करने जैसे कारकों को जिम्मेदार बताया है।

हरित क्रांति से पहले रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल नहीं के बराबर होता था। हालांकि उस समय उत्पादन भी कम था और बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए यह अपर्याप्त साबित हो रहा था। खाद्यान्न की कमी के मद्देनजर उर्वरकों के प्रति संवदेनशील ऊंची उपज देने वाली फसल किस्मों की पैदावार पर जोर दिया गया। यह पहल हरित क्रांति का जनक बनी और देश ज्यादातर खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बन पाया। ऐसी ऊंची पैदावार देने वाली किस्मों के लिए अधिक मात्रा में मृदा पोषक तत्त्वों की जरूरत होती है, जिनकी आपूर्ति सामान्य जैविक खादों से नहीं की जा सकती है। वैसे ये जैविक खाद सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की आपूर्ति में सहायक होते हैं, जो आम तौर पर रासायनिक उर्वरक नहीं कर पाते हैं। कृषि विशेषज्ञ कुल मिलाकर बेहतर परिणामों के लिए रासायनिक और जैविक खाद के मिले-जुले इस्तेमाल की सलाह देते हैं। अध्ययनों से यह बात सामने आई है कि सही मात्रा में सही समय पर और सही जगह पर रासायनिक उर्वरकों के साथ जैविक खाद के इस्तेमाल से मिट्टी की उत्पादकता बढ़ती है, न कि इसका ह्रास होता है।

यह बात भी सही है कि उर्वरकों एवं मृदा स्वास्थ्य को लेकर सरकार का रवैया विरोधाभासी है। एक ओर सरकार रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल कम करने की सलाह देती है, वहीं दूसरी तरफ इनकी खपत बढ़ाने के लिए इन पर भारी सब्सिडी (यूरिया के मामले में 70 प्रतिशत तक) देती है। सब्सिडी के साथ भी कुछ चिंताए हैं। विभिन्न प्रकार के उर्वरकों के लिए यह न तो व्यावहारिक है और न एकसमान है। इसका नतीजा यह होता है कि उर्वरकों के अंसतुलित इस्तेमाल से मृदा स्वास्थ्य को हानि पहुंचती है। इतना ही नहीं, फॉस्फेट, पोटाश और मिश्रित उर्वरक पोषक तत्त्व आधारित सब्सिडी (एनबीएस) योजना के तहत लाए गए हैं, लेकिन सर्वाधिक इस्तेमाल होने वाला उर्वरक यूरिया इसकी जद में नहीं आता है। यूरिया की कीमत भी काफी कम रखी गई है, जो समझ से परे है। सब्सिडी को व्यावहारिक बनाना और यूरिया का विनियंत्रण कर इसे एनबीएस के तहत लाना पोषक तत्त्वों के संतुलित इस्तेमाल के लिए महत्त्वपूर्ण है।

वास्तव में उर्वरकों का अंधाधुंध इस्तेमाल रोकना और जरूरत भर इस्तेमाल को आगे बढ़ाने की जरूरत है। यह सुनिश्चित करने के लिए कुछ कदम उठाए भी गए हैं। मृदा स्वास्थ्य कार्ड प्रणाली और यूरिया की अनिवार्य नीम-कोटिंग ऐसे ही कुछ कदम हैं। अब अगले चरण में उत्पादन को प्रोत्साहन देने और रासायनिक उर्वरकों की तरह ही जैविक खाद और जैव-उर्वरकों के लिए वित्तीय रियायत देने की जरूरत है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) ने हाल में ही एक लिक्विड बायो-एनपीके फॉर्मूला तैयार किया है, जो मृदा को नुकसान पहुंचाए बिना तीनों मुख्य पोषक तत्त्वों (नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश) की उपलब्धता बढ़ा सकता है।

इस तरल फॉर्मूले में तीन तरह के अलग-अलग, लेकिन साथ-साथ काम करने वाले सूक्ष्मजीवी होते हैं। इनमें एजोटोबैक्टर क्रूकोकम वातावरण में मौजूद नाइट्रोजन मृदा में अवशोषित होने में मदद करते हैं, जबकि बाकी दो पेनीबेसिलस टाइलोपी और बेसिलस डिकोलोरेटिओनिस क्रमश: फॉस्फेट और पोटाश को अधिक विलयशील बना कर काफी कम कीमतों पर पौधों के लिए इनकी उपलब्धता सुनिश्चित करते हैं। ऐसे उपायों से प्रधानमंत्री का आह्वान फलीभूत हो सकता है, साथ ही इनसे कृषि उत्पादन पर भी कोई नकारात्मक असर नहीं होगा।


Date:06-09-19

बैंकों का विलय ‘बिग बैंग’ सुधार नहीं

सरकार ने 10 सार्वजनिक बैंकों के विलय की घोषणा कर बैंकिंग क्षेत्र को सशक्त बनाने की कोशिश है। लेकिन व्यापक बैंकिंग सुधार के लिए यह काफी नहीं है। 

देवाशिष बसु

वित्तीय बाजार अक्सर ‘बिग बैंग’ सुधारों का जिक्र करते हुए भारत सरकार से अपेक्षित कदम उठाने की मांग करते रहते हैं। इस शब्दावली की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है लेकिन अश्लीलता के मामले में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश पॉटर स्टीवर्ट के विचारों से इसे समझ सकते हैं। न्यायाधीश स्टीवर्ट ने कहा था, ‘जब मैं इसे देखता हूं तभी मैं इसे जान पाता हूं।’ हाल में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कुछ सार्वजनिक बैंकों के विलय की घोषणा की तो कई को लगा कि बिग बैंग सुधार कैसे होते हैं? कुछ लोगों ने तो उत्साह में 1991 के दौर को याद करना शुरू कर दिया। क्या वाकई में ऐसा है? बिग बैंग सुधारों को दोतरफा परखना होता है: तात्कालिक रूप से बेहद सकारात्मक असर डालने के साथ ही यह अचल भी हो। वर्ष 1991 में सरकार बनाने के कुछ महीने बाद ही पी वी नरसिंह राव ने एकाधिकार एवं प्रतिबंधात्मक व्यापार कार्य अधिनियम जैसे बेवकूफाना कानून को खत्म कर दिया था। लगभग हर चीज की किल्लत वाले दौर में वह कानून उत्पादन की राह में केवल अड़चनें पैदा करता था। इस लिहाज से उस कानून का खात्मा एक बिग बैंग सुधार था क्योंकि उसने दशकों से बोतल में बंद उद्यमशीलता के जिन्न को आजाद कर दिया था। मैं आश्वस्त हूं कि इन बैंकों के विलय में भी कुछ फायदे निहित होंगे लेकिन कमजोर सार्वजनिक बैंकों के समूह का विलय कर उन्हें बड़ा बनाने का कदम बिग बैंग सुधारों की परीक्षा में नाकाम हो जाता है। बैंक ऑफ इंडिया के सेवानिवृत्त चेयरमैन एम जी भिड़े का कहना है कि इस विलय से बैंकों की लागत घटेगी और उनके पास तकनीक में निवेश के लिए पैसा मौजूद होगा। इसके अलावा कम बैंक होने से उनमें राजनीतिक नियुक्तियां होने की आशंका भी कम हो जाएगी। हालांकि एक अन्य सार्वजनिक बैंक के पूर्व चेयरमैन की राय इसके उलट है। वह कहते हैं, ‘अगर आप छोटी गड़बडिय़ों को एक साथ ला देते हैं तो फिर आपको एक बड़ी गड़बड़ी ही मिलेगी।’

खराब ट्रैक रिकॉर्ड

हमें इंतजार कर यह देखना होगा कि आगे क्या होता है? हालांकि इस सरकार के ट्रैक रिकॉर्ड से बचा नहीं जा सकता है। इसने हमें तमाम कारण दिए हैं कि सार्वजनिक बैंकों के विलय से जुड़े प्रयोग को लेकर भी हम आशंकित बने रहें। सरकार आरोही सुधारों के जरिये चार वर्षों से सार्वजनिक बैंकों की समस्या दूर करने की जद्दोजहद करती रही है। लेकिन जमीनी स्तर पर नाममात्र की प्रगति हुई और इसके तमाम सबूत हैं कि नेता हकीकत को समझते नहीं हैं। वे अपनी ही दुनिया में मगन रहते हैं। ज्ञान संगम: जनवरी 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बैंकिंग सुधारों की एक कार्य योजना बनाने के लिए सार्वजनिक बैंकों के प्रमुखों के साथ बैठक की थी। इस उच्चस्तरीय बैठक को ज्ञान संगम का नाम दिया गया था जिसमें वित्त मंत्री, आरबीआई गवर्नर, वित्त राज्यमंत्री जयंत सिन्हा और वित्त मंत्रालय के सचिवों ने भी शिरकत की थी। प्रधानमंत्री बैंकिंग क्षेत्र में हुई गलतियों पर एक व्यापक सहमति बनाकर इस बात की रूपरेखा बनाना चाहते थे कि सार्वजनिक बैंकों की स्थिति सुधारने और उसे सशक्त करने के लिए बैंकों के साथ सरकार को भी क्या कदम उठाने चाहिए? आधिकारिक विज्ञप्ति के मुताबिक प्रधानमंत्री एक सुधारात्मक कार्य योजना की रूपरेखा तय किए जाने के पक्ष में था। मैंने उस बैठक के ठीक पहले दिसंबर 2014 में लिखा था कि सार्वजनिक बैंकों को बेसल-3 मानकों पर खरा उतरने के लिए वर्ष 2018 तक 2.4 लाख करोड़ रुपये की इक्विटी पूंजी की जरूरत पड़ेगी। अगर इस बैठक में मुश्किल सवाल नहीं उठाए जाते हैं तो ज्ञान संगम केवल किनारे पर ही रह जाएगा और सार्वजनिक बैंकों की हालत पहले जैसी ही बनी रहेगी। लेकिन कुछ नहीं हुआ। उसके एक साल बाद भी ज्ञान संगम की एक और बैठक हुई और उसे भी भुला दिया गया। हालत यह है कि पांच साल बाद सार्वजनिक बैंकों की हालत और खराब हो चुकी है।

इंद्रधनुष: इस सात सूत्री योजना की घोषणा अगस्त 2015 में की गई थी। इसने वरिष्ठ पदों पर बेहतर नियुक्तियां करने, बैंक बोर्ड ब्यूरो (बीबीबी) के गठन, अधिक पूंजी डालने, फंसे कर्जों की मात्रा कम करने, बैंक प्रबंधन को मजबूत बनाने, जवाबदेही और प्रशासन को बेहतर बनाने का वादा किया था। लेकिन यह योजना भी फ्लॉप शो ही साबित हुई। पहले तीन कामों को करना आसान था, लिहाजा बीबीबी का गठन कर दिया गया लेकिन उसे भी काफी हद तक नजरअंदाज ही किया जाता रहा। बैंकों के पुनर्पूंजीकरण का ऐलान 2018 के आखिर में किया गया और अब भी यह टुकड़ों-टुकड़ों में अंजाम दिया जा रहा है।

बैंकिंग की राजनीति

क्या सार्वजनिक बैंकों का सुधार वास्तव में एक आर्थिक उद्देश्य है? मेरा मत है कि हमें इस सरकार के लक्ष्यों एवं योजनाओं के बारे में बहुत कम जानकारी होती है। हमें कहे गए शब्दों के मायने समझने के साथ ही गतिविधियों पर नजर रखनी होती है। ज्ञान संगम बैठक में मोदी ने बैंकों से जनधन योजना का दूसरा दौर चलाने के बारे में कहा था। इसमें स्कूलों में छात्र संसद की तरह प्रतिस्पद्र्धाओं के जरिये वित्तीय साक्षरता बढ़ाने की पहल करनी थी। उन्होंने बैंकों को सॉफ्टवेयर एवं विज्ञापन में साझा ताकत विकसित करने, प्रति बैंक 20,000-25,000 स्वच्छता उद्यमी तैयार करने, छात्रों को कर्ज बांटने और सुस्त बैंकिंग से परहेज करने का भी निर्देश दिया था। प्रधानमंत्री ने बैंकरों से कहा था कि कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्व (सीएसआर) के हिस्से के तौर पर उन्हें हर साल एक क्षेत्र को चुनकर उसमें सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए। भयानक संकट से गुजर रहे सार्वजनिक बैंकों के लिए इस तरह का एजेंडा तय करना काफी विचलित करने वाला है।

तत्कालीन वित्त राज्य मंत्री जयंत सिन्हा ने 2015 की शुरुआत में कहा था, ‘अगर हम सार्वजनिक बैंकों में अपनी हिस्सेदारी कम करते हैं तो हम संकटग्रस्त मूल्यांकन पर ऐसा करेंगे। हमें इन बैंकों का प्राइस-टु-बुक दायरा बढ़ाने की जरूरत है और उन्हें निजी क्षेत्र के बैंकों की बराबरी पर लाने की जरूरत है। यह सुनिश्चित करना हमारी जिम्मेदारी है कि अगर हम अपनी हिस्सेदारी बेचने जा रहे हैं तो हमें यह काम समुचित मूल्यांकन पर अंजाम देना होगा क्योंकि यह हिस्सेदारी भारत के लोगों की है।’ उसके बाद से धांधली एवं बट्टे खाते में डाले जाने से बैंकों का मूल्यांकन लगातार कम होता गया है। मैं पहले भी कह चुका हूं कि नेता अपनी अलग दुनिया में ही रहते हैं।

दिवंगत अरुण जेटली ने बिग बैंग सुधारों को लेकर दीवानगी होने पर सवाल उठाते हुए कहा था, ‘हम छोटे-छोटे क्रमिक सुधारों से भी बहुत कुछ हासिल कर सकते हैं।’ यह बात तभी सही है जब छोटे बदलावों को अहम सुधारों से बचने का बहाना न बनाया जाए। क्या सार्वजनिक बैंकों का क्रमिक विलय इन बैंकों के कामकाज पर असर डालने वाले मूल मुद्दों- भ्रष्टाचार और प्रोत्साहन की कमी का हल निकालेगा? क्या वे इस बात का ध्यान रखेंगे कि पूंजी एवं प्रबंधन की हालत सुधरने पर भी कर्जदार सार्वजनिक बैंकों पर अब अधिक निर्भर नहीं रह गए हैं? कमजोर बैंक विलय से आने वाले समय में पूंजी, प्रतिस्पद्र्धा और तकनीक की चुनौतियां दूर नहीं होंगी। लेकिन वह एक अलग कहानी है।


Date:05-09-19

हादसों के ठिकाने

संपादकीय

औद्योगिक हादसों पर काबू पाने और कारखानों में काम करने वाले लोगों की सुरक्षा के पुख्ता उपाय करने की जरूरत लंबे समय से रेखांकित की जाती रही है मगर इस दिशा में अपेक्षित ध्यान अब तक नहीं दिया गया है। यही वजह है कि जब-तब कारखानों में आग लगने, रसायन और गैस आदि के रिसाव से बड़े हादसे हो जाते हैं। पिछले पांच दिनों में देश के विभिन्न हिस्सों में ऐसे तीन बड़े हादसे हो गए। महाराष्ट्र के धुले में एक रसायन कारखाने में रसायन के रिसाव से लगी आग में करीब पंद्रह लोगों की मौत हो गई। फिर देश की सबसे बड़ी तेल और प्राकृतिक गैस कंपनी ओएनजीसी की मुंबई इकाई में भीषण आग लग गई, जिसमें कई लोगों की जान चली गई। अभी ओएनजीसी की आग शांत भी नहीं पड़ी थी कि पंजाब में अमृतसर के पास एक पटाखा फैक्ट्री में आग लग गई, जिसमें करीब 18 लोगों के मारे जाने की खबर है। करीब पांच महीने पहले भी अमृतसर के पास इसी तरह एक पटाखा फैक्ट्री में आग लगी थी, जिसमें कई लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। हैरानी की बात है कि ऐसे हादसों से न तो कारखाना मालिक कोई सबक लेते हैं और न सरकारी महकमे सुरक्षा नियमों की अनदेखी पर कड़े कदम उठाना जरूरी समझते हैं।

छोटी औद्योगिक इकाइयां चूंकि कम पूंजी से लगाई और चलाई जाती हैं, उनमें आमतौर पर भवन निर्माण और सुरक्षा संबंधी उपायों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता। वे आग, रसायन और गैस आदि के रिसाव की स्थिति से बचने के लिए सुरक्षा उपकरणों आदि पर खर्च करने से बचती देखी जाती हैं। उनकी नियम-कायदों की अनदेखी में सरकारी महकमों के संबंधित अधिकारी भी मदद करते हैं। मगर ओएनजीसी जैसी बड़ी और सुव्यवस्थित इकाइयों में भी ऐसी घटनाएं हो जाती हैं, तो औद्योगिक सुरक्षा को लेकर स्वाभाविक रूप से सवाल गहरे होते हैं। ऐसे ही हादसों को देखते हुए परमाणु बिजलीघरों का विरोध होता रहा है कि अगर कभी किसी चूक से उनमें हादसे हुए तो महा विनाश हो सकता है। भारत में औद्योगिक हादसे का अब तक का सबसे बड़ा उदाहरण भोपाल गैस कांड है, जिसके नतीजे बरसों लोगों को भुगतने पड़े। इसलिए औद्योगिक सुरक्षा पर विशेष बल दिया जाता रहा है। मगर आज जब तमाम चीजें कंप्यूटर और अत्याधुनिक सूचना प्रणाली से संचालित होने लगी हैं, हैरानी की बात है कि समय रहते ओएनजीसी जैसे हादसों पर काबू पाना संभव नहीं हो पाया है।

औद्योगिक हादसों के दुष्परिणाम केवल कुछ लोगों की जान चली जाने तक सीमित नहीं होते। कई बार उनके बुरे प्रभाव बरसों तक बने रहते हैं। रासायनिक गैसों के रिसाव से होने वाले हादसे कारखानों से बाहरे बसे लोगों की भी सेहत पर बहुत बुरा प्रभाव डालते हैं। मगर हालत यह है कि बहुत सारी छोटी औद्योगिक इकाइयां अपने यहां काम करने वाले लोगों को जरूरी दस्ताने, हेलमेट, मास्क आदि उपलब्ध नहीं करातीं। वे हादसों से रोकथाम संबंधी उपकरण पर कितना ध्यान दे पाती होंगी, अंदाजा लगाया जा सकता है। पटाखा बनाने वाले कारखानों में बड़ी संख्या में बच्चे काम करते हैं। उनकी सांसों में गंधक घुलती रहती है और वे फेफड़े आदि संबंधी बीमारियों की गिरफ्त में आ जाते हैं। फिर आग से उनकी जान का जोखिम सदा बना रहता है। जब तक औद्योगिक सुरक्षा पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया जाएगा, ऐसे हादसों पर काबू पाना चुनौती बना रहेगा।

औद्योगिक हादसों पर काबू पाने और कारखानों में काम करने वाले लोगों की सुरक्षा के पुख्ता उपाय करने की जरूरत लंबे समय से रेखांकित की जाती रही है मगर इस दिशा में अपेक्षित ध्यान अब तक नहीं दिया गया है। यही वजह है कि जब-तब कारखानों में आग लगने, रसायन और गैस आदि के रिसाव से बड़े हादसे हो जाते हैं। पिछले पांच दिनों में देश के विभिन्न हिस्सों में ऐसे तीन बड़े हादसे हो गए। महाराष्ट्र के धुले में एक रसायन कारखाने में रसायन के रिसाव से लगी आग में करीब पंद्रह लोगों की मौत हो गई। फिर देश की सबसे बड़ी तेल और प्राकृतिक गैस कंपनी ओएनजीसी की मुंबई इकाई में भीषण आग लग गई, जिसमें कई लोगों की जान चली गई। अभी ओएनजीसी की आग शांत भी नहीं पड़ी थी कि पंजाब में अमृतसर के पास एक पटाखा फैक्ट्री में आग लग गई, जिसमें करीब 18 लोगों के मारे जाने की खबर है। करीब पांच महीने पहले भी अमृतसर के पास इसी तरह एक पटाखा फैक्ट्री में आग लगी थी, जिसमें कई लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। हैरानी की बात है कि ऐसे हादसों से न तो कारखाना मालिक कोई सबक लेते हैं और न सरकारी महकमे सुरक्षा नियमों की अनदेखी पर कड़े कदम उठाना जरूरी समझते हैं।

छोटी औद्योगिक इकाइयां चूंकि कम पूंजी से लगाई और चलाई जाती हैं, उनमें आमतौर पर भवन निर्माण और सुरक्षा संबंधी उपायों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता। वे आग, रसायन और गैस आदि के रिसाव की स्थिति से बचने के लिए सुरक्षा उपकरणों आदि पर खर्च करने से बचती देखी जाती हैं। उनकी नियम-कायदों की अनदेखी में सरकारी महकमों के संबंधित अधिकारी भी मदद करते हैं। मगर ओएनजीसी जैसी बड़ी और सुव्यवस्थित इकाइयों में भी ऐसी घटनाएं हो जाती हैं, तो औद्योगिक सुरक्षा को लेकर स्वाभाविक रूप से सवाल गहरे होते हैं। ऐसे ही हादसों को देखते हुए परमाणु बिजलीघरों का विरोध होता रहा है कि अगर कभी किसी चूक से उनमें हादसे हुए तो महा विनाश हो सकता है। भारत में औद्योगिक हादसे का अब तक का सबसे बड़ा उदाहरण भोपाल गैस कांड है, जिसके नतीजे बरसों लोगों को भुगतने पड़े। इसलिए औद्योगिक सुरक्षा पर विशेष बल दिया जाता रहा है। मगर आज जब तमाम चीजें कंप्यूटर और अत्याधुनिक सूचना प्रणाली से संचालित होने लगी हैं, हैरानी की बात है कि समय रहते ओएनजीसी जैसे हादसों पर काबू पाना संभव नहीं हो पाया है।

औद्योगिक हादसों के दुष्परिणाम केवल कुछ लोगों की जान चली जाने तक सीमित नहीं होते। कई बार उनके बुरे प्रभाव बरसों तक बने रहते हैं। रासायनिक गैसों के रिसाव से होने वाले हादसे कारखानों से बाहरे बसे लोगों की भी सेहत पर बहुत बुरा प्रभाव डालते हैं। मगर हालत यह है कि बहुत सारी छोटी औद्योगिक इकाइयां अपने यहां काम करने वाले लोगों को जरूरी दस्ताने, हेलमेट, मास्क आदि उपलब्ध नहीं करातीं। वे हादसों से रोकथाम संबंधी उपकरण पर कितना ध्यान दे पाती होंगी, अंदाजा लगाया जा सकता है। पटाखा बनाने वाले कारखानों में बड़ी संख्या में बच्चे काम करते हैं। उनकी सांसों में गंधक घुलती रहती है और वे फेफड़े आदि संबंधी बीमारियों की गिरफ्त में आ जाते हैं। फिर आग से उनकी जान का जोखिम सदा बना रहता है। जब तक औद्योगिक सुरक्षा पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया जाएगा, ऐसे हादसों पर काबू पाना चुनौती बना रहेगा।


Date:05-09-19

शहरों की चिंता

संपादकीय

हमारे शहर क्या रहने लायक हैं? अगर रहने लायक हैं, तो कितने रहने लायक हैं? ऐसे प्रश्न जितने जरूरी हैं, उतने ही जरूरी हैं इनके उत्तर। इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट ने जो ताजा ग्लोबल लिवेबिलिटी इंडेक्स (जीवन-अनुकूलता सूचकांक) की रिपोर्ट जारी की है, उसमें न केवल राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली, बल्कि देश की व्यावसायिक राजधानी कहलाने वाली मुंबई भी फिसल गई है। जीवन अनुकूलता के पैमानों पर नई दिल्ली पिछले वर्ष की तुलना में छह स्थान गिरकर 118 नंबर पर पहुंच गई है, जबकि मुंबई 117 से 119वें स्थान पर खिसक गई है। दुनिया भर के 140 शहरों की विवेचना करते हुए यह रिपोर्ट बनाई जाती है, जिसमें स्थिरता, संस्कृति व परिवेश, स्वास्थ्य सेवा, मूलभूत ढांचा और शिक्षा जैसे पांच पैमानों का उपयोग किया जाता है। इन पांच पैमानों पर नई दिल्ली और मुंबई जैसे गौरव के प्रतीक भारतीय शहरों का गिरना न केवल दुखद है, बल्कि एक बड़ा विचारणीय प्रश्न है। हमें अपने-अपने शहरों को इन पैमानों पर आंकना चाहिए। ईमानदार पड़ताल करें, तो हमें पता लग जाएगा कि नई दिल्ली रहने के लिहाज से दुनिया का 118वां शहर कैसे बन गई है? यह भी तय करना होगा कि यहां से हमें और नीचे गिरना है या फिर ऐसे ठोस कदम उठाने हैं, जिससे अगले वर्ष की रैंकिंग में हमारी स्थिति बेहतर हो जाए?

भारत एक विकासशील देश है, हमें ऐसे शहर चाहिए, जो दुनिया को भारत आने के लिए मजबूर करें। जब हम अपने शहरों को रहने लायक बनाएंगे, तो हम ज्यादा निवेश और खुशी को सहजता से आमंत्रित कर सकेंगे। ऑस्ट्रिया के शानदार शहर वियना ने जहां अपने सर्वोच्च स्थान को कायम रखा है, वहीं ऑस्ट्रेलिया के चार, कनाडा के तीन, जापान के दो शहर दुनिया के टॉप-10 रहने लायक शहरों में शामिल हैं। संघर्षों में फंसे सीरिया का दमिश्क शहर सबसे नीचे 140वें नंबर पर है। एशिया में ढाका और कराची भी क्रमश: 138 वें और 136वें स्थान पर हैं। ढाका और कराची की मजबूरी को समझा जा सकता है, लेकिन लोकतांत्रिक-उदार नई दिल्ली और मुंबई की गिरावट यहां के नेतृत्व पर अपने आप में एक गहरी टिप्पणी है। यह अपने शहरों को संभालकर-संवारकर रखने में हमारी नाकामी पर भी एक मुहर है।

हमारे शहर लगातार विस्थापन और पुनर्वास से गुजर रहे हैं। यहां स्थिरता नहीं के बराबर है। न हमें इनकी संस्कृति की चिंता है और न परिवेश की। लोग यहां खुद को कितना सुरक्षित महसूस करते हैं, यह बताने की जरूरत नहीं है। इनमें बड़ी आबादी ऐसी है, जो मूलभूत चिकित्सा सेवा से भी वंचित है। सड़क, बिजली, पानी के मोर्चे पर भी समस्याएं जितनी सुलझाई जाती हैं, उससे ज्यादा उलझी नजर आती हैं। बड़ी संख्या में ऐसे बच्चे हैं, जो उचित शिक्षा से वंचित हैं। बेशक हमें वियना, मेलबर्न, सिडनी, ओसाका, केलगेरी, वेंकुवर, टोरंटो, टोक्यो, कोपेनहेगन, एडिलेड से सीखना चाहिए। इन शहरों ने रहवास के ऊंचे मुकामों को कैसे हासिल किया है? यह एक ऐसा मोर्चा है, जहां जिम्मेदारी सामूहिक है। शहरों को रहने लायक बनाने के लिए जहां शासन-प्रशासन के स्तर पर एकजुट होकर समेकित विकास के लिए काम करना होगा, वहीं नागरिकों को भी देखना होगा कि शहर को रहने लायक बनाने में उनका कैसा और कितना योगदान हो सकता है।


Date:05-09-19

Steaming back into the Indo-Pacific

Russia could be imagining a greater role for itself in reshaping the region’s geopolitics

Zorawar Daulet Singh, [Fellow at the Centre for Policy Research and author of Power and Diplomacy]

An exchange in 1964 between U.S. diplomat Chester Bowles and Triloki Nath Kaul, India’s then Ambassador to Moscow, offers a fascinating insight into contemporary geopolitics. While discussing South East Asia, Bowles said, “it would be a good thing if India could try to bring the Soviet and American points of view closer… India’s friendship with both could act as a sort of bridge between them.” He “hoped that it would be possible for [the] USA and USSR, with the help of India, to come to some kind of understanding about preventing Chinese expansionism and infiltration in South East Asia.” Kaul replied, “India would be glad to bring the U.S. and Soviet points of view closer as far as lay within our ability. In fact this was our present policy.” This response reflected India’s then geostrategy to position itself as an area of agreement between the superpowers.

As Kaul’s cable in September 1965 to Indira Gandhi subsequently explained: “the interests of America, USSR and India, have a common feature of being aimed at the prevention of Chinese expansion in this area. This provides an opportunity for India to reap the maximum possible advantage from both sides and strengthen herself for the future.”

History, however, followed a different course. As the 1960s unfolded, the Sino-Soviet ideological struggle culminated in an ugly spat in the Communist world. Ironically, both New Delhi and Washington perceived that trend differently and with contrasting ends in mind.

A multipolar world

For Anglo-American policymakers, a long cherished dream of isolating Russia and pulling China back into their orbit became a reality. For India, the spectre of an unfriendly China being checked through a shared understanding with Washington and Moscow fell by the way side, and New Delhi was compelled to imagine new approaches to safeguard its interests and security. By 1969, the bipolar system had cracked open into a multipolar world. The U.S. and China were on the cusp of a rapprochement while New Delhi and Moscow had established strategic understanding at the highest level to respond to this disconcerting global re-alignment. December 1971 reaffirmed the new multipolar world with the Soviet Navy entering the Indian Ocean to stymie the Anglo-American attempt to disrupt India’s military operations during the liberation of Bangladesh. That seminal period laid the foundation, as External Affairs Minister S. Jaishankar alluded to in Moscow last week, for a four-decade relationship that withstood further disruptions in international politics, including the end of the first Cold War in 1989 and the disappearance of the Soviet Union in 1991.

If we fast forward to recent years, historical patterns continue to have a robust afterlife. The U.S.-Russia-China triangle still contains complex and counter-intuitive dynamics that often get obscured or distorted in India’s strategic debates.

Complex dynamics

Despite the Donald Trump administration’s posturing on China and its attempt to redefine the terms of that relationship, we do not yet see a credible and sustainable strategy to respond to China’s rise. And growing Sino-Russian relations have not led to any fundamental reassessment in the U.S.’s thinking. In recent years, whether on the U.S.’s attempts to pressure North Korea or security in Northeast Asia or conflicts in the Middle East we have abundant evidence of Moscow and Beijing providing psychological and diplomatic support to each other. Even potentially contentious issues such as their Eurasian integration visions, that is, Russia’s Eurasian Economic Union and China’s Belt and Road initiative, have been projected in a spirit of co-existence and mutual respect, often disguising deeper questions of power and ambition. It is not that Moscow is oblivious to Beijing potentially squeezing Russian influence from parts of Eurasia but that Moscow’s calculus is also shaped by the strategic necessity of a mutually beneficial partnership with Beijing in order to counter-balance a rigid and unfriendly West.

The Russia-China relationship is presently guided by, as Dmitri Trenin suggests, the principle of “never being against each other, but not necessarily always with each other”. This formula “puts a premium on a solid partnership between Moscow and Beijing where their interests meet, eschews conflicts where they don’t, and allows a lot of flexibility where interests overlap only partially”. For instance, we saw this nimbleness at the UN Security Council when Russia and China were on opposite sides in reacting to India’s new Kashmir policy.

The Asia pivot

When mainstream American policymakers look at the big power triangle of the U.S.-China-Russia, their unconcealed prejudice and geostrategic preferences are apparent to all. The door is still very much open to China whom the West would like to wean away from Russia to arrest America’s deteriorating global position. New Delhi, of course, like in the 1960s, would prefer the opposite outcome: to wean Russia away from China or more realistically provide Russia with more options in its Asia pivot. Mr. Jaishankar’s remarks at the prestigious Valdai Club in Moscow made such a case for the next chapter in India-Russia ties. In essence, he asserted that Asia’s multipolar age has arrived; that the Indo-Pacific is not restricted to one conception: he distinguished India’s independent approach that includes stable ties with Beijing from the U.S. concept that some interpret as “Chinese containment on the cheap”; and most importantly, Russia being a Pacific power with interests in the Indian Ocean should join the debate.

In substance and without ruffling Beijing’s feathers, Russia is already shaping the geopolitics of the Indo-Pacific. It has managed the rare feat of deep cooperation with rival parties in the South China Sea disputes. As Alexander Korolev, a scholar at the University of New South Wales, notes, the “Russia-Vietnam partnership should not be underestimated, because it has been growing despite and independently of Russia-China relations”. Indeed, once Russia’s advanced military and naval modernisation assistance towards Indo-Pacific states such as India, Vietnam and Indonesia, along with Russia’s own underrated Pacific Fleet whose area of responsibility extends to the Persian Gulf is accounted for, Moscow is already a player in Eurasia’s Rimland areas.

Having been reassured that India is not bandwagoning with the U.S. and genuinely believes in open and inclusive security and order building ideas, Russia could now begin the process of imagining a role in the Indo-Pacific that brings its vast diplomatic experience and strategic heft into the open.


Date:05-09-19

Let it slide

RBI must not intervene to break the rupee’s fall. A weak currency will help exports

Editorials

On Tuesday, the rupee fell 1.36 per cent against the dollar, ending the day at a nearly 10-month low of 72.39. On Wednesday, it recovered marginally, closing at 72.12 against the dollar. Day-to-day fluctuations notwithstanding, the rupee has weakened considerably in the recent past, declining by around 4.7 per cent since July 31.

Though the fall in the currency is not unique to India — currencies of most emerging markets have weakened after the Chinese authorities allowed the yuan to fall below the psychological mark of 7 per dollar — the rupee has weakened more than the others. This decline in the currency is likely to spur calls for the Reserve Bank of India (RBI) to step in to stem the decline.

A weak currency will push up the import bill. It will also be inflationary. But the RBI should resist from intervening in the currency market. It should allow the currency to slide. A weak currency has its advantages in that it makes exports more competitive. Moreover, the rupee’s decline over the past month or so is driven by global as well as domestic factors. Globally, the greenback has strengthened. On Tuesday, the dollar index hit a two-year high, rising to 99.37, its highest level since May 2017. Domestically, foreign investors have continued to pull out money, even though the government has reversed its decision on the surcharge levied on foreign investors.

A slowing economy will only exacerbate such outflows but there is no reason to panic. The evidence suggests that the rupee is overvalued. According to data from the RBI, the 36-currency export-based real effective exchange rate (REER) stood at 119.54 in July — indicating significant overvaluation. This overvaluation has affected the competitiveness of India’s merchandise exports which have remained almost stagnant in the recent past, rising marginally to $330 billion in 2018-19 from $310 billion in 2014-15. In comparison, over the same period, exports of countries like Vietnam and Bangladesh have surged.

With China allowing its currency to slide, other countries, which compete with China in the export market are likely to follow suit. Competitive devaluation is a possibility. US President Donald Trump also wants a weak dollar. In such a situation, the RBI should let the currency slide.

With private consumption collapsing, investment activity remaining subdued, and the capacity of the government to stimulate the economy by increasing its spending being limited, a weak currency, by improving the competitiveness of exports, could provide much-needed fillip to growth. While the RBI’s stated policy is that it does not target any particular level, the continued overvaluation of the rupee needs to be attended to. Alongside, the government must address the structural issues that bring down the competitiveness of India’s exports.


Date:05-09-19

Give and take

Law that sparked Hong Kong protests has been withdrawn, opening up space for dialogue.

Editorials

In June, as the protests in Hong Kong gathered momentum, the city’s chief executive, Carrie Lam, suspended the Fugitive Offenders and Mutual Legal Assistance in Criminal Matters Legislation (Amendment) Bill 2019. As of Wednesday, the Bill stands withdrawn. The proposed law, which would have allowed those accused of criminal activity in Hong Kong to be extradited to mainland China, was the tinder that sparked the protests which have challenged the authority of the Chinese state.

Lam addressed another key demand of the protestors — the establishment of an independent commission of inquiry into the use of force by the police against protestors. The question now is whether these steps are too little and have come too late.

Over three months, the protests have grown into an anti-China, pro-democracy movement. The extradition law was seen as an attack on the “one country, two systems” formula that has allowed Hong Kong to maintain its special status and autonomy since it acceded to China in 1997.

While the protestors have attacked symbols of the Chinese state — its flag, emblem, etc — the police and Chinese authorities have called them rioters and accused them of showing “signs of terrorism”.

The authorities have also been accused of brutality by the protesters. Two of the major demands of the protestors — amnesty for those arrested during the protests and direct elections for the chief executive’s office — remain bones of contention. What the current concessions by Lam, backed by the Chinese government, provide is an opportunity for the protesters to take their movement from the streets to the negotiating table.

Throughout the current protests, the spectre of the Tiananmen Square massacre of 1989 has lurked in the background. Then, as now, the Chinese economy and party-state was in a period of transition, and a popular protest for democracy challenged the government and communist party’s dominance. While Beijing has engaged in muscular rhetoric, it has also affirmed its commitment to “one country, two systems”. For the Chinese government as well as the leadership of the protests, it is important to realise the impact of the disruption of the last three months. According to IHS Markit Hong Kong, which tracks private business activity in the city, private sector activity is the lowest it has been since 2009, when the city was reeling from the effects of the global financial crisis.

Beijing must now use the subtlety of state-craft, of listening and give and take, not speak the language of force. A sustained dialogue in and about Hong Kong is the only route to normalcy.

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