07-05-2016 (Important News Clippings)
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Just prescription
Apex court does well to set the government a deadline to cure the MCI of its several ills.
Tired of waiting for the government to restore to a state of health the Medical Council of India (MCI), the regulator of medical education and practice, the Supreme Court has transferred its statutory functions to a three-member committee headed by former chief justice RM Lodha. The Centre now has a year to frame rules to restructure the organisation, whose legitimacy is at rock bottom because of accumulated inefficiencies and allegations of graft. An intervention is immediately required to correct an imbalance between the volume of MBBS and postgraduate seats.
The former traditionally predominated as the general practitioner used to be the first point of contact between the patient and the medical system, and was deemed capable of dealing with most illnesses. However, the volume of medical knowledge has grown dramatically over the last three decades and specialisation has become the norm. In recognition, the MCI should have encouraged teaching institutions to increase the ratio of seats in postgraduate specialisations.
However, the biggest challenges before a refurbished MCI could stem from shortfalls in medical ethics, rather than the lack of facilities in the system. For instance, the rampant use of expensive inducements by pharma companies to influence doctors’ prescriptions has only just been engaged with. Far better oversight will be required to dismantle this pernicious system, which imposes arbitrary costs — and sometimes arbitrary outcomes — on patients. Equally problematic is the rampant growth of the diagnostic laboratory, which has become an ancillary industry of the practice of medicine and flourishes because of kickbacks for referrals. Traditionally, doctors narrowed down their diagnoses by examining patients, and then prescribed confirmatory tests. However, prescribing a battery of lucrative tests before even setting eyes on the patient is the new norm. Indeed, the priorities of healthcare seem to have been overruled by the imperative to keep the production lines rolling. Sometimes medicine seems to have been reduced to a set of asset management challenges — how to keep hospital beds optimally filled, how to maintain a good turnover rate at operation theatres and clinics, and so on. Such are the Augean stables in the field of medical ethics which the MCI has failed to address, but will now have to face up to. In the field of teaching, it is imperative to prevent a system of education from degenerating into a mere certification protocol. The new, improved MCI must consider factors like the entry of private capital in a not-for-profit teaching system, doctors’ reluctance to take rural postings versus capital’s enthusiasm for running poorly manned rural institutes, and so on. And in all matters, the restructured MCI will have to respect the principles of medicine rather than those of accounting, and serve the public good first and the profit motive afterwards.
Uttarakhand floor test: High court holds the key
On the face of it, the Supreme Court ruling directing the Uttarakhand chief minister to prove his majority by a floor test is a fair solution to the political crisis in the state. However, it is not. This is for three different reasons.
One, the apex court does not address the failure of the Speaker of the Uttarakhand assembly to heed the demand of legislators for a division on the finance bill. If that asked-for vote had taken place, two things would have happened: the government would have lost the confidence of the House and have had to resign; and the nine Congress MLAs who voted against their government’s finance bill would have stood disqualified. The Speaker’s failure to act in accordance with constitutional provisions goes without remedy even after the court order.
Two, the Supreme Court has failed to take a categorical stand on the eligibility of the nine rebel Congress MLAs to take part in the vote of confidence it has ordered for the 10th. That depends on whether the Uttarakhand high court’s single bench that will hear the case prior to the vote of confidence revokes or leaves unchanged the disqualification of these defectors by the Uttarakhand Speaker.
Three, instead of waiting for a separate challenge to appear before it, the court should have dealt with the tricky question as to the tenability of judicial intervention in the conduct of House proceedings by the Speaker. If the high court revokes the rebels’ disqualification, it would raise questions about the constitutional propriety of the courts supervening the legislature’s conduct. Instead of leaving this to be decided by a single bench of a lower court, the Supreme Court should have proactively taken a view on the matter.
Or is its failure to do so a signal to the high court? That said, a floor test now without the rebels’ participation would best approximate the floor test that would have ensued, had the Speaker followed the proper procedure on the demand for voting on the finance bill, with the government resigning and a new chief minister emerging from a 61-member House excluding the disqualified defectors. We hope the Uttarakhand high court would appreciate the point.
भूमिहीनों को दें हक
राज्य सभा में आराम फरमा रहे मनमोहन सिंह और एंटनी को निशाना नहीं बनाया जा रहा है। जबकि वे महत्त्वपूर्ण पदों पर आसीन थे जिसकी शपथ और जिम्मेदारी उन्होंने ली थी।
नेक महत्त्वपूर्ण अध्ययनों व सरकारी रिपोटरे में भूमि-सुधारों के महत्त्व को बार-बार स्वीकार किया गया है। निर्धनता दूर करने व खाद्य सुरक्षा मजबूत करने के अतिरिक्त कृषि उत्पादकता बढ़ाने में भी इनका महत्त्व स्वीकार किया गया है। इसके बावजूद हाल के समय में भूमि-सुधारों को लगभग पूरी तरह उपेक्षित कर दिया गया है व सरकारी नीति में इन्हें कोई महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं मिल रहा है। हम अगर सीलिंग कानून के अंतर्गत 2 प्रतिशत कृषि भूमि का भी पुनर्वितरण मान लें व उसमें गांव समाज भूमि का वितरण व भूदान भूमि का वितरण भी जोड़ लें, तो भी कुल कृषि भूमि की 4 प्रतिशत के आसपास की भूमि ही गरीब लोगों में वितरण के लिए उपलब्ध हुई है। 11वीं पंचवर्षीय योजना तैयार करते समय भूमि संबंधों पर जो वर्किग ग्रुप स्थापित किया गया था, उसकी रिपोर्ट में भी कई अहम सुझाव हैं। केंद्र सरकार ग्रामीण-कृषि विकास की ऐसी खास स्कीमें शुरू कर सकती है, जिनके अंतर्गत काफी बड़ी विकास राशि उपलब हो पर यह पूरी तरह भूमिहीनों में भूमि वितरण से जुड़ी हो। जिन राज्यों में भूमि वितरण का लाभ अधिक भूमिहीनों तक पहुंचा है, वहां इन नए किसानों की सफल खेती के लिए लघु सिंचाई, जल व मिट्टी संरक्षण, भूमि समतलीकरण आदि के लिए सहायता उपलब्ध करवानी चाहिए। जो राज्य सरकार जितने अधिक भूमिहीनों को भूमि वितरण करेगी, उसे उतनी ही अधिक सहायता राशि मिलेगी। दूसरी ओर, जो सरकारें इन मामलों में उदासीन हैं उन्हें इस सहायता-लाभ से वंचित रखा जाएगा।हमारे गांवों में आज भी लाखों की संख्या में ऐसे लोग हैं जिनके पास अपनी आवास भूमि तक नहीं है। वे किसी तरह सरकारी या गांव समाज की ऐसी जमीन पर रहकर गुजर-बसर कर रहे हैं जिसे अतिक्रमण बताकर हटाया जा सकता है। या वे ऐसी भूमि पर रह रहे हैं, जिसे बड़े भूस्वामी अपनी भूमि बताते हैं। इस तरह की भूमि पर रहने की मजबूरी के कारण इन भूमिहीन परिवारों को धनी परिवारों की कभी बेगारी करनी पड़ती है तो कभी कोई अन्य जोर-जबरदस्ती सहनी पड़ती है। हालांकि इससे पहले जो लक्ष्य रखे गए या कार्यक्रम बनाए गए उसके अनुसार तो काफी पहले ही सब ग्रामीण परिवारों को आवास भूमि देने का कार्य पूरा हो जाना चाहिए था, परआज तक लगभग 80 लाख परिवार इस बुनियादी अधिकार से वंचित हैं। कर्नाटक में ‘‘मेरी भूमि, मेरी बगिया’ योजना के अंतर्गत ग्राम सभाओं द्वारा बनाई गई सूची के आधार पर 12 डिसमिल भूमि उपलब्ध करवाने का प्रस्ताव है। आंध्र प्रदेश में महिला सहायता समूहों को इस कार्य से जोड़ा गया है। पश्चिम बंगाल में इस कार्य के लिए अच्छा-खासा बजट उपल्ध करवाया गया है। अनेक स्थानों का अनुभव यह रहा है कि यदि आवास भूमि के साथ कुछ बगीचे या किचन गार्डन की भूमि भी उपलब्ध करवाई जाए तो निर्धन परिवार विशेषकर महिलाएं इस भूमि का इस दृष्टि से बहुत सार्थक उपयोग करते हैं कि परिवार के पोषण में काफी सुधार के साथ ही आय में भी कुछ वृद्धि हो। हरी सब्जियां और कुछ स्थानीयफल उपलब्ध करवाने के लिए यह छोटे बगीचे बहुत उपयोगी हो सकते हैं। इनमें घरेलू बेकार जल का उपयोग कर अच्छे पोषण के खाद्य प्राप्त किए जा सकते हैं।विस्थापन से त्रस्त लोग कह रहे हैं, आज देश को भूमि अधिग्रहण कानून की नहीं, भूमि रक्षा कानून की जरूरत है। उपजाऊ कृषि भूमि को अन्य उपयोग में जाने से जहां तक संभव हो, रोकने की जरूरत है। इसके साथ बंजर या बेकार पड़ी जमीन को कृषि योग्य बनाने पर भी ध्यान देना चाहिए। जो कृषि भूमि रसायनिक खाद व कीटनाशक खादों के अत्यधिक उपयोग के कारण बरबाद हो गई है, या अन्य प्रदूषण के कारण तबाह हो गई है, उसका उपचार कर उसे कृषि योग्य बनाना भी एक बहुत सार्थक कार्य है। रसायनिक खाद की सब्सिडी रोक कर सरकार को इस पर खर्च करना चाहिए। इन उपायों से निर्धन भूमिहीन परिवारों में वितरण के लिए अधिक भूमि भी उपलब्ध होगी। सीलिंग कानून में सुधार करने से भी पुनर्वितरण के लिए बहुत-सी भूमि ग्रामीण निर्धन परिवारों में वितरण के लिए उपलब्ध हो सकती है। सरकार यह कोशिश करे कि अगले चार-पांच वर्षो में लगभग 2.5 करोड़ भूमिहीन; या लगभग भूमिहीन परिवारों में 5 करोड़ एकड़ भूमि का वितरण हो जाए। इसके साथ सामुदायिक भूमि की रक्षा, लघु वन उपज की रक्षा, गांववासियों के जलसंसाधनों की रक्षा करते हुए, जल-जंगल, जमीन को समग्र सोच को लेकर आगे बढ़ना चाहिए।