09-05-2016 (Important News Clippings)

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09 May 2016
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Our freedoms

Bombay high court decriminalises beef, rightly reminds state to stay out of private domains

The Bombay high court has upheld the liberal spirit of India’s Constitution by upholding Maharashtra’s beef-slaughter ban while allowing people in the state to consume beef imported from elsewhere. The court rightly struck down as “unconstitutional” draconian provisions of a law that made mere possession of beef punishable by a jail term of up to a year and a fine of Rs 2,000. While upholding the state’s right to legislate against animal slaughter, the division bench of Justice Abhay Oka and Justice Suresh Gupte’s decision to protect individual freedoms and draw a protective legal wall around them is timely and welcome. As they concluded, a ban on consuming imported beef would have been “an infringement of right of privacy, which is a fundamental right”.

The judges are absolutely right to suggest the government and police keep out of our kitchens. This is particularly so when different states have different traditions and rules: beef is legal and there are no restrictions on its consumption in the north-eastern states, West Bengal and Kerala. Some states like Telangana, Tamil Nadu and Andhra ban cow slaughter but not bull/bullock slaughter while others like Uttar Pradesh and Himachal allow slaughter for research purposes and of sick cattle. At the same time, several north-Indian states have imposed total bans on slaughter and consumption. The only way to manage such diversity is with tolerance and by respecting individual freedoms. This must be non-negotiable in a liberal democracy like ours.

When beef is stoked as a political issue it encourages criminal vigilantes, as the Dadri and Udhampur killings showed last year. Likewise, colonial era proscriptions against gay sex encourage violence against consenting adults. As with the kitchen, the state must stay out of citizens’ bedrooms too. Section 377 must be repealed.

Protecting our individual freedoms also means protecting the rights of those we disagree with. Debate, dissent and freedom are the essence of democracy and this is why recent events like the violence at Jadavpur University against the screening of a film which is seen to be right-wing are as disturbing as the slapping of sedition charges against JNU students. Whatever its politics, a film is a creative product and its screening should be tolerated. We cannot allow public discourse to turn so toxic that even a conversation across ideological divides becomes impossible. The defence of our freedoms must rest on a fundamental promise: We must agree to disagree.


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कौशल विकास में विषय ज्ञान खास

मूलभूत कौशल को विकसित करने के लिए अधिक गहन प्रशिक्षण की आवश्यकता है। ऐसा करके ही देश की इंजीनियरिंग प्रतिभाओं को बढ़ावा दिया जा सकता है। विस्तार से बता रहे हैं अजित बालकृष्णन

जब भी देश के इंजीनियरिंग कॉलेजों और पॉलिटेक्नीक संस्थानों में शिक्षा के स्तर के बारे में बातचीत चल रही हो तो आप आश्वस्त रह सकते हैं कि कम से कम एक वक्ता जरूर यह बात कहेगा कि गणितीय कौशल विकसित करने अथवा प्रयोगशाला प्रशिक्षण पर आधारित पूरी की पूरी बहस समय की बरबादी है और असली बात यह है कि आज के विद्यार्थियों को ‘सॉफ्ट स्किल’ सिखाने की आवश्यकता है। मैं हमेशा यह पूछने पर मजबूर हो जाता हूं कि आखिर सॉफ्ट स्किल से वक्ता का आशय क्या है। और हर बार मुझे यही जवाब मिलता है कि सॉफ्ट स्किल वे हैं जो गणितीय कौशल, विषय प्रवीणता, प्रयोगशाला के काम में दक्षता अथवा वर्कशॉप के काम जैसे हार्ड स्किल से अलग हैं। जब मैं इस बात पर और अधिक जोर देता हूं तो मुझसे कहा जाता है कि सॉफ्ट स्किल से आशय है सहकर्मियों के साथ बढिय़ा तालमेल, अंग्रेजी बोलने में दक्षता और उनको बेहतर बनाना (जाहिर है इस बीच मुझे खुद पर नियंत्रण रखना पड़ता है कि कहीं मैं कुर्सी चलाकर वक्ता को मार ही न बैठूं)।
मैं किसी तरह खुद पर काबू करता हूं। इसके लिए मैं खुद को फ्रांसीसी समाजशास्त्री पियेर बोद्र्यू द्वारा किए गए शिक्षा व्यवस्था के वर्गीकरण की याद दिलाता हूं। वह कहते हैं कि किसी भी देश में शिक्षा व्यवस्था की प्रमुख भूमिका देश में रसूख रखने वाले सामाजिक समूहों की सांस्कृतिक आदतों को जिंदा करना है। वह कहते हैं कि ये ताकतवर सामाजिक समूह इतने क्षमतावान होते हैं कि वे अपने अर्थ लगा सकें और उनको वैधता प्रदान करें। वे अपने सांस्कृतिक व्यवहार को बेहतर बताने और उनकी ऐसी व्याख्या करने में माहिर होते हैं। बोद्र्यू कहते हैं कि ये सारी बातें मिलकर ही किसी व्यक्ति की सांस्कृतिक पूंजी बनती हैं।
बोद्र्यू के मुताबिक सांस्कृतिक पूंजी किसी व्यक्ति की भाव भंगिमा, उसके पहनावे, उसके आचार व्यवहार, वह जिन फिल्मों और किताबों के बारे में बात करता है, वह जिन विद्यालयों या कॉलेज में पढ़ा है, आदि तमाम बातों से मिलकर निर्मित होती है। यह उसे एक खास वर्ग में स्थापित करने वाली बातें हैं। ये तमाम बातें समाज के शक्तिशाली समूहों को यह पहचानने में मदद करती हैं कि कोई व्यक्ति विशेष ‘उनमें से’ है या नहीं। किसी व्यक्ति के शुरुआती जीवन में सांस्कृतिक पूंजी महत्त्वपूर्ण हो सकती है। उदाहरण के लिए उसकी वित्तीय पूंजी, उसके बैंक खाते में उपलब्ध धनराशि।
सॉफ्ट स्किल के बारे में होने वाली चर्चा स्मृतियों की बाढ़ ला देती है। भारतीय प्रबंध संस्थानों की स्थापना के बाद वहां से पढ़कर निकलने वाले नौजवानों को मेटल बॉक्स, गेस्ट कीन, विलियम्स, ब्रुक बॉन्ड (इन्हें सन 1980 के दशक में बॉक्सवाला कंपनीज के नाम से जाना जाता था। वे अपने संभावित कर्मचारियों से यह अपेक्षा रखते थे कि वे पब्लिक स्कूल से पढ़े हों और ब्रिटिश विश्वविद्यालय से स्नातक हों) जैसी उस दौर की बड़ी कंपनियों में रोजगार पाने में करीब एक दशक का वक्त लग गया। नौकरियों के लिए होने वाले साक्षात्कार प्राय: कलकत्ता क्लब में होते या फिर बॉम्बे जिमखाना में। वे अपने संभावित उम्मीदवारों में सॉफ्ट स्किल चाहते थे, यह बात अलग है कि वे इस शब्द का प्रयोग नहीं किया करते थे।
वर्ष 2000 के दशक के आरंभ में भारत में यह शब्द एक बार फिर सुनाई देने लगा। यह वह वक्त था जब देश का सूचना प्रौद्योगिकी सेवा क्षेत्र बहुत बड़े पैमाने पर भर्तियां कर रहा था। सबसे पहले इंजीनियरों की भर्ती की गई ताकि वे निचले स्तर पर प्रोग्रामिंग का काम कर सकें। उसके बाद कॉल सेंटर पर कर्मचारियों की भर्ती की गई। इन कंपनियों की मानव संसाधन टीम की शिकायत थी कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था गुणवत्ता वाले छात्र नहीं पेश कर पा रही है और इन छात्रों में सॉफ्ट स्किल का अभाव है। जी हां आपने ठीक पढ़ा सॉफ्ट स्किल का। जाहिर सी बात है यहां उन्होंने सॉफ्ट स्किल को अंग्रेजी बोलने वाले कौशल का पर्याय बना लिया था। इसकी वजह भी एकदम साफ थी, कॉल सेंटरों में अंग्रेजी बोलने वाले कर्मचारियों की आवश्यकता थी। यह बात मेरे लिए रहस्य ही है कि कैसे बहुत जल्दी इन कंपनियों में कंप्यूटर प्रोग्रामर के पदों के लिए भी अंग्रेजी भाषा का ज्ञान एक महत्त्वपूर्ण कौशल में बदल गया। लेकिन यह भी सच है कि देश में सॉफ्ट स्किल की बहस नये सिरे से इसके साथ ही उपजी।
मेरा अंदाजा यह है: सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र की बढ़ती मांग अचानक सामने आई। महज आधे दशक में यह 2,000 सालाना से बढ़कर 100,000 सालाना हो गई। इस बीच हजारों की संख्या में उग आए निजी इंजीनियरिंग कॉलेज कंप्यूटर विज्ञान की शिक्षा देने लगे। आश्चर्य नहंी कि ये छात्र पर्याप्त जानकारी से लैस नहीं थे। उनको यह बताने तक में घबराहट होती थी कि उनको विषय का पूरा ज्ञान नहीं है।
मेरी जानने वाली न्यू यॉर्क विश्वविद्यालय की एक विद्वान ने अंग्रेजी और सॉफ्ट स्किल के इस द्वंद्व पर बहुत काम किया है। मैं उनका नाम नहीं ले रहा हूं क्योंकि उनका शोधकार्य अभी बीच में है। वह कहती हैं कि भारत की उद्यमिता व्यवस्था अंग्रेजी भाषा के इर्दगिर्द विकसित हुई है और देश के विश्वविद्यालयों में मुरझाए पड़े अंग्रेजी विभाग इस नए अवसर का लाभ उठाने के लिए नए सिरे से तैयार हो रहे हैं। उनका मानना है कि अंग्रेजी को बढ़ावा देना यानी बुर्जुआ वर्ग का अपनी स्थिति को और अधिक मजबूत करना। आज भारतीय समाज में सबसे अधिक मोल अंग्रेजी का है।
किसी अन्य व्यक्ति से और काफी हद तक कहें तो खुद से वरिष्ठï व्यक्ति से आप अगर किसी विषय पर बातचीत कर रहे हैं तो आपका आत्मविश्वास काफी हद तक इस बात पर निर्भर करेगा कि आप विषय को लेकर कितने गंभीर हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो अपने छात्रों को और अधिक जानकार और मुखर बनाने के लिए हमें इंजीनियरिंग की पढ़ाई का तरीका बदलना होगा। शायद अब वक्त आ गया है कि व्याख्यानों को विदा किया जाए और उनके स्थान पर वस्तुपरक, केस स्टडी आधारित विषयों को शामिल किया जाए। अगर ऐसा किया गया तो बच्चों में आंकड़ों की गुणवत्ता आदि आंकने की क्षमता अधिक आसानी से विकसित होगी। जाहिर है हमें केवल सॉफ्ट स्किल पर ध्यान देने के बजाय बच्चों को विषय का जरूरी ज्ञान उपलब्ध कराना होगा।

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दलित भी खत्म करें अपनी जाति प्रथा

ऐसा लगता है कि जाति प्रथा हिमालय जैसी कोई चीज है, जिसे हिलाना-डुलाना तक मुश्किल है। आदमी कम शिक्षित हो या ज्यादा शिक्षित, गरीब हो या अमीर, उसे लगता है कि जाति से बाहर निकला, तो आफत आ जाएगी। व्यवहार में, जाति तोड़ने का एक ही मौका आता है विवाह का। शायद इसीलिए डॉ. अंबेडकर को अंतर-जातीय विवाहों से बहुत उम्मीद थी। भारत के सवर्ण समाज में कुछ सामाजिक सुधार अरसे से बकाया हैं। वे शिक्षित हैं, संपन्न हैं, और कुछ हद तक आधुनिक भी। चाहें तो भारतीय समाज में क्रांति ला सकते हैं। सब प्रकार की कूपमंडूकताओं को अलविदा कह सकते हैं। लेकिन वे ही जाति प्रथा से सब से ज्यादा बंधे हुए हैं। ‘‘जाति चली जाएगी, लोग क्या कहेंगे, मैं ही क्यों नक्कू बनूं’ की भावना ने उनके हाथ-पैर को निष्क्रिय कर रखा है। वे पहल करना भूल गए हैं। वे भारत पर गर्व करना चाहते हैं, पर कोई ऐसा काम नहीं करना चाहते, जिससे भारत पर गर्व करने की स्थितियां बनें। इक्का-दुक्का प्रयास जरूर होते रहते हैं, लेकिन वे बिजली की कौंध की तरह हैं, जिससे अंधेरे की वास्तविकता और ज्यादा नजर आती है।सच तो यह है कि सवर्ण समाज पढ़त-लिखत में आगे है, किंतु परिवर्तनशीलता में सब से पीछे। शिक्षा और जीवन के बीच दूरी को मिटा कर ही यूरोपीय जातियां आगे बढ़ सकी हैं। लेकिन भारत का सवर्ण समाज जैसे-जैसे आधुनिक हो रहा है, इस दूरी को और बढ़ाता जा रहा है। आधुनिकता और प्रगतिशीलता के बीच की दूरी को जब तक कम नहीं किया जाता, भारत में किसी भी तरह का सामाजिक परिवर्तन संभव नहीं है।माना जाता है कि मंडल कमीशन ने 90 के दशक में भारत को झकझोर दिया था। यह एक तरह की क्रांति थी, जिससे भारतीय समाज ने अपने आप से बहस करना सीखा। उन दिनों जो बहस शुरू हुई थी, उसकी प्रतिध्वनियां आज भी सुनी जा सकती हैं। लेकिन जैसे भारत की आजादी एक असमाप्त परियोजना है, वैसे ही मंडल क्रांति का संदेश भी बहुत दूर तक नहीं जा पाया है। मंडल आयोग का तीर ज्यादातर गलत निशानों पर लगा है। सच कहा जाए तो इस समय देश के दलित समुदाय में ही सबसे ज्यादा सुगबुगी है। रोहित वामुला की घटना ने स्पष्ट कर दिया है कि एक भी दलित के साथ नाइंसाफी हुई, तो यह राष्ट्रीय घटना बन सकती है। यही समुदाय जाति, रोजगार, आत्मसम्मान, सामाजिक समानता आदि को ले कर रोज नई-नई बहसें खड़ी कर रहा है। इसलिए आज के भारत में किसी समुदाय से सब से ज्यादा आधुनिकता और प्रगतिशीलता की उम्मीद की जा सकती है, तो वे दलित ही हैं। जब हम दलितों की बात करते हैं, तो उन्हें एक समुदाय के रूप में देखते हैं। वह एक समुदाय है भी। लेकिन भारत के हर समुदाय की तरह इसमें भी ऊपर-नीचे कई स्तर हैं। हर स्तर अपने को विशिष्ट मानता है, सिवाय भंगी के, जो दलित जाति प्रथा के सबसे निचले पायदान पर खड़ा है। हिंदी में कुछ दिनों पहले चमार बनाम भंगी की बहस चली थी। जब साहित्य में संवेदना का हाल यह है, तो समाज में कितना बुरा होगा। इसे हम उपनिवेश के भीतर उपनिवेश का मामला कह सकते हैं। मेरा निवेदन है कि सवर्ण बनाम दलित में जो उपनिवेशवाद अंतर्निहित है, वैसा ही उपनिवेशवाद दलितों के भीतर मौजूद है। इसे कौन तोड़ेगा? जाहिर है, सवर्णो को इससे कुछ भी लेना-देना नहीं है। यह दलित समाज का आंतरिक मामला है। दलितों के प्रवक्ताओं का ज्यादा समय सवर्णो के नुक्स निकालने और उन्हें कोसने में खर्च होता है। मेरा प्रस्ताव है कि इसमें से कुछ समय बचा कर दलित एकता का निर्माण करने में लगाना चाहिए। यह जिस तरह बनिये की शादी ब्राह्मण से होने में अड़ंगे आते हैं, उसी तरह लड़की पासी हो और लड़का चमार, तो शादी होना मुश्किल हो जाता है। दलित समाज को अपनी आंतरिक ऊर्जा से यह बैरियर क्यों नहीं तोड़ देना चाहिए? इस प्रस्ताव की तह में एक तरह का आदशर्वाद है। आदशर्वाद यह है कि पीड़ित की संस्कृति को पीड़क की संस्कृति से बेहतर होना चाहिए। यह इस प्राचीन समझदारी का आधुनिक अनुवाद है कि बुराई से बुराई नहीं मिटती, वह अच्छाई से मिटती है। इसमें एक सैन्यवाद भी है। शत्रु को पराजित करने के लिए अपनी सेना को ऐक्यबद्ध और मजबूत करना चाहिए। अपने भीतर का जातिवाद समाप्त कर दलित अपने को शक्तिशाली और सवर्ण समाज को कमजोर ही करेंगे। जब दलितवाद का सूर्य उगेगा, उसके सामने ब्राह्मणवाद के तारे अपने आप अस्त हो जाएंगे। कुछ लोग कहेंगे, यह दलितों को बांटने का एक और नुस्खा है। यह दलितों के बीच काम करने वालों या दलित विचारकों और कार्यकर्ताओं का कर्तव्य है कि वे अपने समाज के भीतरी अंतद्र्वंद्व को ज्यादा से ज्यादा रचनात्मक बनाएं। ये अंतद्र्वद्व वास्तव में हैं नहीं, सिर्फ दिखाई पड़ते हैं। प्रयास में गंभीरता और ईमानदारी हो, तो ये थोड़े ही समय में उड़नछू हो जाएंगे। इससे दलित समाज की स्वतंत्रता का विस्तार होगा और उसकी शक्ति भी बढ़ेगी। पांचों उंगलियाँ मिल कर मुट्ठी का रूप ले लें, तो इस ताकत के सामने कौन ठहर पाएगा?


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कृषि संकट की असली जड़

कृषि अर्थशास्त्री हमेशा कृषि आय में बढ़ोतरी के लिए फसल उत्पादन में वृद्धि के पक्ष में रहे हैं। मैं कई अर्थशास्त्रियों को जानता हूं जो कृषि संकट के लिए कम उत्पादकता को दोष देते हैं। हम प्राय: कहते रहे हैं कि ग्लोबलाइजेशन के दौर में किसान तभी बचे रह सकते हैं जब वे विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धी होंगे। अमेरिका या चीन जैसे देशों में जो किसान फसल की ऊंची पैदावार के स्तर को नहीं छू पाते उन्हें आत्महत्या करने के अलावा दूसरा कोई चारा नहीं होता।

चार दशक हो गए अर्थशास्त्रियों की एक ही तरह की बातों को सुनते हुए कि किसान उत्पादकता बढ़ाने के लिए तकनीक का प्रयोग करें, उत्पादन लागत घटाएं, फसल विविधिकरण को अपनाएं, सिंचाई क्षमता को बढ़ाएं और बिचौलियों के चंगुल से बचने के लिए इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग के प्लेटफॉर्म पर जाएं। इन सभी सुझावों को लोग सालों से सुनते आ रहे हैं। उनकी मूलत: यही धारणा है कि कृषि संकट मुख्य रूप से किसानों की देन है, क्योंकि उन्होंने आधुनिक तकनीक और फसल की नई किस्मों का उपयोग नहीं किया है। वे बैंक कर्ज का उपयोग करना नहीं जानते हैं। वे लागत को कम नहीं कर पा रहे हैं और परिणामस्वरूप उनका बकाया कर्ज बढ़ता जा रहा है।

बीते बीस सालों में करीब 3.2 लाख किसानों ने आत्महत्या की है। बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि और उसके बाद सूखे की समस्या ने 2015 में कृषि संकट को काफी विकट बना दिया था। परिणामस्वरूप उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्यप्रदेश, पंजाब और महाराष्ट्र में किसानों की आत्महत्या की घटनाओं में असाधारण बढ़ोतरी देखी गई। 2015 में किसानों की वार्षिक मृत्यु दर पहले के 42 से बढ़कर 52 हो गई। इन दिनों पंजाब किसानों के कब्रगाह के नए ठिकाने के रूप में उभरा है। 2015 में करीब-करीब 449 किसानों ने आत्महत्या की। संसद के अनुसार इस साल 11 मार्च तक पंजाब में 56 किसानों ने अपना जीवन खत्म कर लिया। अनाज के भंडार के नाम से मशहूर पंजाब किसानों की आत्महत्या के मामले में महाराष्ट्र के बाद देश में दूसरे स्थान पर है।

यदि सिंचाई की सुविधाओं का अभाव और निम्न फसल उत्पादकता कृषि संकट का एक कारण है तो क्यों किसानों में इस कदर निराशा छा गई है कि वे आत्महत्या के लिए विवश हो गए हैं? उन्हें तो पंजाब जैसे प्रगतिशील राज्य में पूरी तरह खुशहाल जीवन व्यतीत करना चाहिए।1किसानों की आय बढ़ाने के लिए जितने भी नुस्खे बताए जाते हैं वे पूर्णत: गलत हैं। कृषि अर्थशास्त्री सारा ठीकरा किसानों के सिर पर फोड़ते आ रहे हैं। एक ऐसे राज्य में जहां 98 फीसद खेती सिंचाई के दायरे में है और जहां फसल पैदावार अंतरराष्ट्रीय मानकों को पूरा करती है, मुझे ऐसा कोई कारण नजर नहीं आता कि वहां के किसान आत्महत्या करें। आर्थिक सर्वेक्षण 2016 के अनुसार गेहूं की प्रति हेक्टेयर पैदावार 4500 किग्रा रही, यह अमेरिका में प्रति हेक्टेयर गेहूं की उपज के बराबर है।

पंजाब में प्रति हेक्टेयर धान की उत्पादकता 6000 किग्रा रही। यह चीन में प्रति हेक्टेयर धान की उत्पादकता के करीब-करीब बराबर है। फसल उत्पादकता की यह ऊंची दर और सिंचाई के प्रचुर साधन होने के बाद भी पंजाब के किसानों को आत्महत्या क्यों करनी चाहिए? यहां मैं चंडीगढ़ स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ डेवेलपमेंट एंड कम्युनिकेशन के प्रोफेसर एचएस शेरगिल द्वारा किए गए एक अध्ययन की कुछ बातों को रखना चाहूंगा। उन्होंने मशीनीकरण, रासायनिक प्रौद्योगिकी, पूंजी उपलब्धता, उत्पादकता आदि मानकों के आधार पर पंजाब की कृषि को विकसित देशों की कृषि से तुलना की है।

अध्ययन के अनुसार प्रति एक हजार हेक्टेयर पर टैक्टरों की संख्या पंजाब में जहां 122 पाई गई है, वहीं अमेरिका में 22, ब्रिटेन में 76 और जर्मनी में 65 है। प्रति हेक्टेयर खाद के प्रयोग में पंजाब 449 किग्रा के साथ शीर्ष पर है, जबकि अमेरिका में प्रति हेक्टेयर 103 किग्रा, ब्रिटेन में प्रति हेक्टेयर 208 किग्रा और जापान में प्रति हेक्टेयर 278 किग्रा खाद का प्रयोग होता है। पंजाब में सिंचित क्षेत्र 98 फीसद है, जबकि अमेरिका में 11.4 फीसद, ब्रिटेन में दो फीसद और जापान में 35 फीसद है। अब फसल पैदावार की स्थिति का जायजा लेते हैं। पंजाब में गेहूं, चावल और मक्का के 7633 किग्रा प्रति हेक्टेयर वार्षिक पैदावार के साथ शीर्ष पर है। दूसरी ओर अमेरिका 7238 किग्रा प्रति हेक्टेयर, ब्रिटेन 7008 किग्रा प्रति हेक्टेयर, फ्रांस 7460 किग्रा प्रति हेक्टेयर और जापान 5920 किग्रा प्रति हेक्टेयर के साथ काफी पीछे है।

जाहिर है कि यदि पैदावार में बढ़ोतरी को समृद्धि का एक मानक बनाएं तो पंजाब में किसानों की आत्महत्या को कोई कारण नजर नहीं आता। दरअसल अर्थशास्त्री यह मानने को तैयार नहीं हैं कि किसानों को उनकी पैदावार की मिलने वाली निम्न कीमत ही कृषि संकट के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार है। 11970 में गेहूं का खरीद मूल्य 76 रुपये प्रति क्विंटल था। 2015 में गेहूं के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य 1450 रुपये प्रति क्विंटल तय किया गया। पिछले 45 सालों में इसमें 19 गुना बढ़ोतरी हुई है। अब इसी काल में दूसरे क्षेत्रों की आय में वृद्धि के आंकड़े देखें:

सरकारी कर्मचारियों के वेतन (सिर्फ मूल वेतन और महंगाई भत्ते में) में 120 से 150 गुना बढ़ोतरी हुई है। कॉलेज/ विश्वविद्यालयों के शिक्षकों के वेतन में 150 से 170 गुना बढ़ोतरी हुई है। स्कूली शिक्षकों का वेतन तो 280 से 320 गुना बढ़ गया है। सातवें वेतन आयोग में एक चपरासी का वेतन प्रति महीने 18000 रुपये तय किया गया है। ऐसे समय जब ठेका मजदूर की मासिक मजदूरी दस हजार रुपये तय की गई है और हरियाणा जैसे राज्य बेरोजगार युवाओं को नौ हजार रुपये मासिक भत्ता देने का इरादा जता रहे हैं तब पंजाब के किसानों की औसत मासिक आय बहुत ही कम नजर आती है।

कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) के अनुसार गेहूं और चावल की पैदावार से पंजाब के किसानों को प्रति हेक्टेयर तीन हजार रुपये आय होती है। इस पैसे से जीवन गुजारना कठिन है। सवाल यह खड़ा होता है कि जब पंजाब के किसानों की कृषि उत्पादकता अमेरिकी किसानों की तुलना में अधिक है तब उनकी आय इतनी कम क्यों है?1समाज के दूसरे क्षेत्र में वेतन वृद्धि को देखते हुए यदि इसी कालखंड में खरीद मूल्य में सौ गुना बढ़ोतरी को न्यूनतम मानदंड बनाया जाए तो गेहूं की कीमत प्रति क्विंटल 7600 रुपये होनी चाहिए। गेहूं की यह वैध कीमत है जिसे किसानों को देने से इंकार किया जाता रहा है।

कृषि अर्थशास्त्रियों को यह मानना होगा कि कृषि संकट के लिए आय वितरण में भारी असंतुलन जिम्मेदार है। स्पष्ट है कि पहली जरूरत यह सुनिश्चित करने की है कि किसानों की मासिक आय कम से कम निचले स्तर के सरकारी कर्मचारी के मासिक वेतन के बराबर हो।

(लेखक देविंदर शर्मा कृषि और खाद्य नीति मामलों के जानकार हैं)

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