22-04-2016 (Important News Clippings)

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22 Apr 2016
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आस्था के नाम पर

करीब सात साल पहले सर्वोच्च न्यायालय ने खाली जमीन पर कब्जा कर अवैध रूप से बनाए गए पूजा-स्थलों के खिलाफ सख्त दिशा-निर्देश जारी किया था। तब अदालत ने कहा था कि सड़कों, गलियों, पार्कों, सार्वजनिक जगहों पर मंदिर, चर्च, मस्जिद या गुरद्वारा के नाम पर अवैध निर्माण की इजाजत नहीं दी जा सकती। लेकिन इतने साल बाद भी अगर सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अमल सुनिश्चित नहीं हो सका है तो इसके लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। इसलिए अदालत की इस टिप्पणी का आशय समझा जा सकता है कि क्या हम अपने आदेश किसी कोल्ड स्टोरेज में रखने के लिए देते हैं! अब फिर सुप्रीम कोर्ट ने इससे संबंधित एक याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा है कि सार्वजनिक जगहों और फुटपाथ पर गैरकानूनी तरीके से जो धार्मिक ढांचे बनाए गए हैं, वह आस्था का मामला नहीं है; कुछ लोग इसकी आड़ में पैसा बना रहे हैं; फुटपाथ पर चलना लोगों का अधिकार है और भगवान उसमें कतई बाधा नहीं डालना चाहते! माना जाता है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद उस पर अमल होगा, मगर हकीकत यह है कि राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने अपनी ओर से इस मामले में आदेश का पालन करना जरूरी नहीं समझा। शायद यही वजह है कि अदालत ने इस बार सख्त रवैया अख्तियार करते हुए संबंधित पक्षों को आखिरी मौका देने की बात कही है। इसके बाद सभी राज्यों के मुख्य सचिवों को अदालत में पेश होना पड़ सकता है। धर्म और आस्था ऐसा संवेदनशील मसला है कि इससे जुड़ी कोई भी बात दखल से परे मान ली जाती है, भले उसमें किसी व्यक्ति या समूह का निहित स्वार्थ छिपा हो। बल्कि इसे तब भी सही ठहराने की कोशिश की जाती है जब उससे देश के कानूनों का उल्लंघन होता हो। देश भर में बनाए गए अवैध पूजा-आराधना स्थलों के बारे में यही सच है। अमूमन हर शहर या मुहल्ले में सड़कों के किनारे लोग बिना इजाजत के धार्मिक स्थलों का निर्माण कर लेते हैं। इसमें न सिर्फ सड़कों के किनारे फुटपाथों या दूसरी खाली जगहों पर कब्जा जमा लिया जाता है, रास्ते अवरुद्ध होते हैं, बल्कि इससे आस्था की संवेदना भी बाधित होती है। मगर इससे उन लोगों को शायद कोई मतलब नहीं होता जो धार्मिकता के नाम पर उन पूजा-स्थलों का संचालन करते हैं। जाहिर है, मकसद न सिर्फ जमीन, बल्कि उन स्थलों पर भक्तों की ओर से चढ़ावे के तौर पर आने वाले धन पर भी कब्जा करना होता है। विडंबना है कि हमारे देश में जो भी चीज आस्था या धार्मिकता से जोड़ दी जाती है, उसके गलत होने के बावजूद लोग उस पर कोई सवाल उठाने से बचते हैं। इसी सामाजिक अनदेखी की वजह से धार्मिक स्थलों के नाम पर देश भर में जमीन कब्जाना आज एक तरह का कारोबार बन चुका है। समझा जा सकता है कि इस धंधे में लगे लोगों की नजर में साधारण लोगों की आस्था या संवेदना की क्या कीमत होगी। मगर यह समझना मुश्किल है कि निजी मकान बनाने से संबंधित हर जानकारी रखने और अवैध होने पर कार्रवाई करने को तत्पर रहने वाला सरकारी तंत्र सार्वजनिक जगहों पर होने वाले ऐसे निर्माण को किस आधार पर खुली छूट दे देता है। यह आस्था के नाम पर न सिर्फ जनमानस के साथ छल, बल्कि खुलेआम पर कानूनों का भी उल्लंघन है।


कुदरत नहीं, मनुष्य की देन है सूखा

पानी की कमी वाले इलाकों में अनाज उगाने पर पानी की प्रचुरता वाले इलाकों की तुलना में दो गुने पानी की खपत होती है।

bundelkhand-620x400देश के दस राज्यों के 246 जिले पिछले साल से ही सूखे की चपेट में हैं, जिनमें महाराष्ट्र के इक्कीस जिलों के 15,747 गांव शामिल हैं। लेकिन इस साल महाराष्ट्र में सूखे का कहर कुछ ज्यादा है। राज्य 1972 के बाद सबसे भीषण सूखे की चपेट में है और यहां के तिरालीस हजार गांवों में से 27,723 गांव सूखाग्रस्त घोषित किए जा चुके हैं। तालाब, नदियां, नाले, कुएं सभी से पानी गायब हो गया है। राज्य में सिंचाई के पानी की किल्लत तो पहले से थी अब पीने का पानी भी मुहाल होता जा रहा है। कई जगहों पर पानी के घड़ों की कतार एक किलोमीटर से भी लंबी हो गई है। इसके बावजूद सरकारी प्रयास तात्कालिक उपायों से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं।

राज्य में सूखे की भयावह स्थिति के बावजूद इस सवाल से सभी कतरा रहे हैं कि जिस राज्य में देश के छत्तीस फीसद बांध हैं, वह बार-बार सूखे की चपेट में क्यों आता है। राज्य में सूखे की विभीषिका बढ़ाने में जिस गन्ने की खेती ने खलनायक की भूमिका निभाई उसके खिलाफ तो अजीब-सी खामोशी छाई हुई है। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि सूखे की स्थिति में भी राज्य की चीनी मिलें नदियों से पानी खींच रही हैं। अस्सी फीसद नकदी फसलें पानी की किल्लत वाले इलाकों में उगाई जा रही हैं। एक चीनी मिल जो प्रतिदिन ढाई हजार टन गन्ने की पेराई करती है उसे हर रोज औसतन पचीस लाख लीटर पानी की जरूरत पड़ती है। राज्य में सबसे ज्यादा चीनी मिलें शोलापुर जिले में हैं, जहां साल में महज 19.3 सेमी बारिश होती है।

समग्रता में देखा जाए तो सूखे के लिए बढ़ती आबादी, उपभोक्तावादी जीवन शैली, खेती की आधुनिक तकनीक, औद्योगीकरण, नगरीकरण, वैश्विक तापवृद्धि, बारिश के मिजाज में बदलाव जैसे कई कारण जिम्मेदार हैं। इससे जहां एक ओर मांग में लगातार बढ़ोतरी हो रही है वहीं पानी के स्रोत लगातार सिकुड़ रहे हैं। इसके परिणामस्वरूप पानी की आपूर्ति प्रभावित हो रही है। जल संकट का दूसरा पहलू यह है कि वह तेजी से प्रदूषित हो रहा है। देश में हजारों गांव ऐसे हैं, जहां पानी में आर्सेनिक, फ्लोराइड, सल्फाइड, लोहा, मैगनीज, नाइट्रेट, क्लोराइड, जिंक और क्रोमियम की मात्रा अधिक पाई गई है। दरअसल, हरित क्रांति के दौरान किसानों ने खेतों में जिस अंधाधुंध तरीके से रासायनिक खादों और कीटनाशक दवाइयों का इस्तेमाल किया, उसका बुरा असर अब जमीन के नीचे के पानी पर भी दिखाई दे रहा है। इसके अलावा नदियों में औद्योगिक कचरा फेंके जाने, प्लास्टिक और दूसरे प्रदूषक पदार्थों के जमीन के भीतर दब कर सड़ने-गलने की वजह से भी भूजल लगातार प्रदूषित होता गया है।

इसके अलावा शीतल पेय और बोतलबंद पानी के कारोबार तथा कपड़ों की रंगाई-धुलाई करने वाले कारखानों ने भी भूजल दोहन और प्रदूषण को बढ़ाया। एक बोतल (250 मिलीग्राम) कोक बनाने में बीस लीटर पानी बरबाद होता है और शरीर में जाने के बाद हजम होने के लिए नौ गुना पानी और लगता है। इतना ही नहीं, शीतल पेय कंपनियां पानी, खासकर भूजल का बेजा इस्तेमाल करती हैं।

पानी के अंधाधुंध दोहन की यह स्थिति कमोबेश पूरी दुनिया में है। आज दुनिया की आधी आबादी उन इलाकों में रहती है जहां पानी की खपत उसके पुनर्भरण (रिचार्जिंग) दर से अधिक है। देखा जाए तो आज पानी का संकट पिछले पचास वर्षों के दौरान पानी की खपत में हुई तीन गुना बढ़ोतरी का नतीजा है। भारतीय संदर्भ में देखें तो पानी की कमी को महामारी की शक्ल देने का श्रेय हरित क्रांति को है। इसका कारण है कि हरित क्रांति के दौर में क्षेत्र विशेष की पारिस्थितिक दशाओं की उपेक्षा करके फसलें ऊपर से थोपी गर्इं जैसे महाराष्ट्र में गन्ने की खेती।

राज्य के सभी बांधों में जितना पानी भंडारित होता है उसके बराबर पानी की खपत गन्ने की सिंचाई में हो रही है। गन्ने की खेती के बढ़ते प्रचलन से ज्वार, बाजरा, दलहनी और तिलहनी फसले उपेक्षित हुर्इं, जिससे पशुचारे का संकट पैदा हो गया है। फिर मोटे अनाजों के लिए अनुकूल जमीन पर नहरों के माध्यम से गन्ने की खेती से लवणता की समस्या गंभीर हुई और सैकड़ों हेक्टेयर जमीन बंजर बन गई। इसी को देखते हुए राज्य के सिंचाई विभाग ने पानी की कमी वाले इलाकों में नई चीनी मिल खोलने पर रोक का सुझाव दिया था, लेकिन ताकतवर गन्ना और चीनी लॉबी सरकार को ऐसा नहीं करने दे रही है। इसी का नतीजा है कि 1999 में जहां राज्य में 119 चीनी मिलें थी, वहीं आज इनकी संख्या दो सौ से ज्यादा हो गई है।

राज्य सरकार ने गन्ने के बढ़ते रकबे को रोकने के बजाय, गन्ने की सिंचाई खेत भरने के बजाए ड्रिप विधि से करने की शुरुआत की। यद्यपि ड्रिप सिंचाई सूखा रोकने में प्रभावी है, लेकिन यह तभी कारगर होगी जब चीनी मिलों और गन्ने के रकबे को पुनर्वितरित कर सूखे इलाकों से बाहर ले जाया जाए। सूखे की विभीषिका बढ़ाने में वाटरशेड कार्यक्रम की विफलता ने भी अहम भूमिका निभाई। गौरतलब है कि राज्य के 126 लाख हेक्टयर क्षेत्र में वाटरशेड प्रबंधन के तिरालीस कार्यक्रम चल रहे हैं। बयालीस फीसद कार्यक्रम तो अकेले सूखा प्रभावित मराठवाड़ा क्षेत्र में चल रहे हैं। लेकिन पिछले एक दशक में वाटरशेड प्रबंधन पर साठ हजार करोड़ रुपए की भारी-भरकम राशि खर्च करने के बावजूद जल संरक्षण में कोई प्रगति नहीं हुई। जनभागीदारी न रहने के कारण इन कार्यक्रमों में जम कर भ्रष्टाचार हुआ और वे पूरे भी नहीं हुए। स्पष्ट है कि महाराष्ट्र का सूखा भूमि और पानी के प्रबंधन की लगातार उपेक्षा से पैदा हुआ है। गन्ने और केले की खेती, शहरीकरण, आधुनिक जीवन शैली, बड़े बांध और सिंचाई योजनाओं में भ्रष्टाचार ने सूखे को न्योता दिया।

अवैज्ञानिक खेती के अलावा जल संकट का एक अहम कारण है पानी का तेजी से बढ़ता अदृश्य या वर्चुअल निर्यात। गौरतलब है कि किसी कृषि उपज या औद्योगिक उत्पाद को तैयार करने में जितने पानी की खपत होती है उसे वर्चुअल वाटर कहा जाता है। घरेलू जरूरतों के लिए तो अधिक पानी की खपत वाली वस्तुओं के उत्पादन को तर्कसंगत ठहराया जा सकता है, लेकिन इनका निर्यात किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। इसका कारण यह है कि जब ये कृषि उत्पाद अंतरराष्ट्रीय बाजार में बेचे जाते हैं तो इनको पैदा करने में लगे पानी का भी अदृश्य कारोबार होता है, लेकिन उसका कोई मोल नहीं होता। सबसे बड़ी बात यह है कि एक बार इलाके से निकलने के बाद यह पानी दुबारा उस इलाके में नहीं लौटता है।

पानी की कमी वाले इलाकों में अनाज उगाने पर पानी की प्रचुरता वाले इलाकों की तुलना में दो गुने पानी की खपत होती है। उदाहरण के लिए पंजाब में जहां एक किलो धान पैदा करने में 5389 लीटर पानी की खपत होती हैं, वहीं पश्चिम बंगाल में यह अनुपात महज 2713 लीटर है। इसका कारण पानी की कमी वाले इलाकों का ऊंचा तापमान, अधिक वाष्पीकरण, मिट्टी की दशा और अन्य जलवायु दशाएं हैं। इसके बावजूद पानी की कमी वाले इलाकों में मुनाफा कमाने के लिए अधिक पानी खपत वाली फसलें धड़ल्ले से उगाई जा रही हैं। इससे भी बड़ी विडंबना यह है कि कई इलाकों में घरेलू जरूरतों के बजाय निर्यात के लिए ऐसी खेती की जा रही है जैसे पंजाब, हरियाणा में धान और महाराष्ट्र में गन्ने की खेती।

धरती पर 1.4 अरब घन किलोमीटर पानी पाया जाता, लेकिन इसका एक फीसद से भी कम हिस्सा मनुष्य के उपभोग लायक है। इस पानी का सत्तर फीसद खेती-बाड़ी में खर्च होता है। अनुमान है कि खेती-बाड़ी में लगने वाले पानी का एक-चौथाई हिस्सा कृषि उपजों के कारोबार के रूप में अंतरराष्ट्रीय बाजार में पहुंच जाता है। अगर मात्रात्मक दृष्टि से देखें तो दुनिया भर में हर साल 1040 अरब वर्ग मीटर पानी का अदृश्य कारोबार होता है। इस कारोबार में साढ़े नौ हजार करोड़ घन मीटर सालाना पानी के अदृश्य निर्यात के साथ भारत शिखर पर है। यह निर्यात खाद्य पदार्थों, कपास, औद्योगिक उत्पादों, चमड़ा आदि के रूप में होता है। अगर भारत के आंतरिक कारोबार की गणना की जाए तो पानी का अदृश्य कारोबार और अधिक होगा, क्योंकि यहां पंजाब, हरियाणा जैसे सूखे इलाकों से बिहार, बंगाल जैसे नम इलाकों की ओर कई कृषि उपजों का व्यापार होता है।

महानगरों से शुरू हुई पानी की किल्लत आज गांव-गिरांव, खेत-खलिहान तक को अपनी चपेट में ले चुकी है तो इसका कारण हमारी अदूरदर्शी नीतियां हैं। तालाब पटते जा रहे हैं, वन क्षेत्र सिकुड़ रहा है और नदी-नाले हमारी उपयोगितावादी जीवन शैली के शिकार बनते जा रहे हैं। स्थानीय पारिस्थितिक दशाओं की उपेक्षा करके हमने ऐसी फसलों की खेती शुरू की, जो अकाल को न्योता देती हैं। सबसे बढ़ कर हमने पानी को एक ऐसा स्रोत मान लिया है, जिसकी चिंता करना हमारा नहीं, सरकार का काम है। स्पष्ट है कि जल संकट से तभी मुक्ति मिलेगी, जब हम पानी के वास्तविक मोल को पहचाने और खेती-किसानी से लेकर खान-पान तक में पानी बचाने वाली तकनीक को अपनाएं और कुदरत के साथ सह अस्तित्व बनाए रखें। इस मामले में हमें इजराइल से सीखना होगा जहां महज पचीस सेंटीमीटर बारिश के बावजूद सूखा नहीं पड़ता।


Times of India

Rule of Whim

Uttarakhand high court strikes down President’s rule and reminds BJP to play by federal principles

In a big blow to the Centre, the Uttarakhand high court has struck down President’s rule in the state. It underlined, once again, that Article 356 was a “matter of last resort” and that removing a democratically elected government “breeds cynicism in the heart of citizens”. Chief minister Harish Rawat may now get a chance to prove his government’s strength in a floor test on April 29.

The emergency powers of Article 356 are to be used when there is a lack of majority in the assembly or constitutional breakdown. While it had been used and abused over the decades, the Supreme Court’s landmark Bommai judgment, in 1994, laid down clear standards for its invocation. The governor was to carry out a floor test to determine the legitimacy of a state government, rather than rely on his or her subjective judgment. A state government’s existence could no longer be upturned at the whim of the central government. But in a return to the bad old days Uttarakhand was placed under President’s rule without the necessary floor test.

Politics in Uttarakhand hangs by a hair’s breadth. Nine Congress MLAs had been disqualified by the speaker under the anti-defection law. BJP argued that the Appropriations Bill was passed without a division of votes, the chief minister argues that it was constitutionally passed. But either way, the court stressed, there was no basis for the Centre to intervene on the day before the Rawat government was to prove its majority. Instead of following procedure, the governor warned of political volatility and pandemonium on the day of the trust vote, the prime minister called an emergency Cabinet meeting, and President’s rule was proclaimed. “How can it be said that the 35 MLAs would have voted against the government unless and until it is actually done?” the court asked. “The only constitutional way to test majority was to hold the floor test,” it stressed.

This order does not signal a resolution to the Uttarakhand crisis. The Centre has indicated it will appeal this judgment in the Supreme Court, the Rawat government may or may not pass the floor test. The Uttarakhand high court judgment, though, establishes that constitutional procedure was abandoned in the dismissal of the state government and the imposition of President’s rule. The Centre should heed this rebuke and respect institutional propriety.


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भूकंप की तैयारी

भूगर्भीय हलचल में इजाफा हुआ है। अप्रैल माह के शुरुआती 15 दिनों में भूकंप के कम से कम आठ बड़े झटके महसूस किए गए। इनमें से दो तो भारत के आसपास ही थे। पहला पूर्वोत्तर अफगानिस्तान में और दूसरा म्यांमार में। इनमेंं से तीन भूकंप बहुत थोड़े-थोड़े अंतराल पर जापान में महसूस किए गए। इक्वाडोर में आए एक भूकंप की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 7.3 आंकी गई और इसकी वजह से जानमाल का भारी नुकसान भी हुआ था। इस तीव्रता का या इससे अधिक तीव्रता का कोई भी भूकंप भारत जैसे घनी आबादी वाले देश में न केवल परिसंपत्ति और बुनियादी ढांचे बल्कि इंसानी जान और पशुओं के लिए भी अपूरणीय क्षति की वजह बन सकता है। अक्टूबर 2005 में जम्मू कश्मीर और उसके आसपास के इलाकों में आए 7.6 तीव्रता के भूकंप के कारण तकरीबन 85,000 जानें गईं और अन्य आर्थिक नुकसान भी हुए।

देश का करीब 59 प्रतिशत इलाका भूकंप के लिहाज से संवेदनशील है। पूर्वोत्तर का काफी इलाका, बिहार, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर और गुजरात सर्वाधिक सक्रिय भूगर्भीय क्षेत्र 5 में आते हैं। उत्तरी भारत के मैदान जिसमें राजधानी दिल्ली भी शामिल है, दूसरा सबसे जोखिम भरा इलाका है और यह क्षेत्र 4 में आता है। बुरी बात यह है कि गृह मंत्रालय के राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान (एनआईडीएम) ने यह चेतावनी दे रखी है कि हिमालय क्षेत्र में कभी भी 8.2 तीव्रता का भूकंप आ सकता है और इसकी बदौलत होने वाला भूस्खलन नुकसान को कई गुना बढ़ा सकता है।
पूर्वोत्तर की पहाडिय़ों पर जो भूगर्भीय दबाव है उसकी एक वजह हिमालय में बार-बार भूकंप के चलते आ रही कमजोरी भी थी। इसके अलावा हिमालयन प्लेटें इंडो-बर्मीज प्लेटों से भी टकराती रहती हैं जिसकी वजह से यह पूरा क्षेत्र बहुत जोखिम भरा हो गया है। साथ ही भूकंप विज्ञानी यह भी मानते हैं कि हाल में नेपाल में आए भूकंप के केंद्र के पश्चिम में स्थित टेक्टोनिक प्लेटें अभी भी उलझी हुई हैं। संकेत यही है कि एक बार और कोई बड़ा झटका लग सकता है।
भूकंप के बारे में दो बातों का ध्यान रखना अहम है। पहली बात, कई अन्य प्राकृतिक आपदाओं के इतर भूकंप का ठीकठीक अनुमान नहीं लगाया जा सकता है, न इससे बचाव संभव है। दूसरा, लोग भूकंप से नहीं मरते, वे इमारतों के गिरने से मरते हैं। निरंतर तैयारी ही नुकसान को कम कर सकती है। कमजोर बुनियाद वाली बहुमंजिली इमारतों में रहने वाले लोग भूकंप के दौरान सर्वाधिक जोखिम में रहते हैं। दिल्ली जैसे तमाम बड़े शहरों में ऐसी इमारतें हैं।
बेहतर शहरी नियमन और सुविधाएं आवश्यक हैं। मौजूदा जोखिम वाले मकानों में भी सुधार किया जाना चाहिए। जरूरत पडऩे पर सरकार को इसमेंं मदद करनी चाहिए। भारतीय मानक ब्यूरो ने अलग-अलग स्थितियोंं के लिए तमाम कोड तैयार किए हैं जिनमें से ज्यादातर भूकंप के खिलाफ प्रभावी हैं। इन कोड के प्रति जागरूकता की काफी कमी है। केवल संगठित क्षेत्र के भवन निर्माता ही इनका ध्यान रखते हैं। परिणामस्वरूप अनुपालन बहुत खराब है। भूकंपरोधी इमारतों के लिए मजबूत बुनियाद और आपस में जुड़े हुए सीमेंट कंक्रीट के पिलर आवश्यक हैं। शोधकर्ताओं ने गरीबों के भूकंपरोधी मकानों के लिए कई सस्ते डिजाइन और निर्माण सामग्री भी सुझाई हैं। जोखिम वाले इलाकों में इनको बढ़ावा दिया जाना चाहिए ताकि जानमाल की सुरक्षा की जा सके।

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Political Setback for the Centre

Gain for the Congress not symmetrically large

22_04_2016_016_018_004The Uttarakhand High Court judgment revoking President’s rule in the state is a huge political blow to the Modiled central government and the BJP . It, however, has an asymmetrical fallout: the gain for the Opposition Congress, whose government was dismissed in Uttarakhand one day before it was to prove its majority on the floor of the House, is minor in scale compared to the political damage done to the BJP and the prime minister. The court verdict criticises the central government for violating the law and harming democracy . These add up to serious criticism of Narendra Modi, who takes pains to claim that the Constitution is the only holy book he follows as prime minister.Considering that as many as nine of its legislative assembly members had joined the Opposition BJP to oppose the Budget, the Congress government led by Harish Rawat could not have passed the Budget with a voice vote.His government effectively stood defeated on a money Bill. However, those nine rebel MLAs, having gone against the party whip, stood disqualified as well. So, the task before the legislature was to test if Harish Rawat still retained the confi dence of the House. The big mistake on the Centre’s part was to flout the norm -not disputed till the present government at the Centre started wielding Article 356, since a nine-member bench of the Supreme Court laid it down in 1993 -that the confidence of the House has to be tested on the floor of the House. The BJP has made it clear that it would challenge the high court order in the Supreme Court. There is no reason for the apex court to grant a stay on the floor test ordered for April 29 or to invalidate the high court order, since the high court judgment’s reasoning pretty much follows the Supreme Court’s on the subject.

It is moot, however, if Rawat would be able to marshal enough support in the House. His government could well fall. The sensible, democratic course then would be to hold fresh elections, to let the people, the ultimate sovereign, have a say as to who should represent them.


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